Post – 2017-10-18

खुराफात दर्शन

लोग देश लिए समस्याएं पैदा करते रहते हैं और सोचते हैं, यह देशहित का श्रेष्ठ रूप है। संदेह करने वालों को समझाते हैं, “समस्याएं ही न रहीं तो समाधान की चुनौती कैसे पैदा होगी? और समस्या-समाधान की प्रवृत्ति न रही तो चेतना का वैज्ञानिक विकास कैसे होगा?”

देशहित के इस रूप से परिचित होने के बाद मन में अपनी देदशहित-विमुखता पर इतनी ग्लानि हुई कि प्रायश्चित करने के लिए मैं राह चलतों को टांग अड़ाकर रोक देता और यह मंत्र रटाने के बाद ही अगला डग रखने देता।

सच्चे मन से किया प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। मेरी भी न गया। एक दिन टांग गुरु घंटाल को जा अड़ी। जब मैने उन्हें मंत्र दिया ‘देशहित के लिए समस्याएं खड़ी किया करें! उन्होंने पलट कर ऐसा दन्नाटा तमाचा जड़ा कि मेरे दांत हिल गए। मैंने हैरानी से देखा और गुस्से में सवाल दागा, “मैं देश के भले की बात कर रहा था। देश के भले में आपका भी भला है, फिर आपने अपने ही हितैषी को चांटा क्यों मारा?”

“चांटा इसलिए मारा कि तुम अधूरा पाठ पढ़ा रहे थे।”

“पूरा पाठ यह है कि इसके लिए खुराफातियों की तलाश करो । वे दिशाहीन और असंगठित हैं, साधनहीन हैं। वे देश-विदेश जहां भी मिलें, उन्हें संगठित करो। उनके साथ एकजुटता दिखाओ। यदि पर्याप्त संख्या में न मिलें तो खुराफाती चेतना का निर्माण करो। दुनिया में कभी कोई समाज या व्यक्ति न हुआ जिसे किसी न किसी तरह का असन्तोष न रहा हो। अपने को संतोषी कहने वाले अपनी आकांक्षाओं का दमन करने वाले मनोरोगी होते हैं। सही शिक्षा से उनके असंतोष को विस्फोटक बनाया जा सकता है। जो असंतुष्ट हैं उनके असंतोष को इस तरह भड़काया जा सकता है कि वे उसे जीने मरने का प्रश्न बना ले। विज्ञापन कला से व्यर्थ को सार्थक और सार्थक को व्यर्थ बनाने की कला सीखो। सीखो कि एक घूंट जहरीले जकनी की तड़प में जान की बाजी लगाने की कला विकसिी की जा सकती है। समझो कि यह कितना सनसनी भरा कारोबार है और इसका कितना बड़ा बाजार है।”

मैं श्रद्धाजड़ित भाव से उन्हें सुन रहा था फिर भी जानें कैसे मुंह ‘अरे’ निकल गया। वह रुक गए। प्रश्न-विस्फारित मुख ही प्रश्न बन गया और मैं इतना घबरा गया कि यह तक भूल गया कि मेरे मुंह से कोई शब्द फूटा भी था।

मुझे सकपकाया देख कर वह आश्वस्त हो गए, “तुम्हें इतने क्रांतिकारी विचार से पहले पाला नहीं पड़ा था इसलिए तुम हैरान हो रहे थे। तुम्तुहें यह तक पता नहीे कि सत्ता से वंचित सभी दलों को केवल तुम्हारा भरोसो है और हमें उनकी साधन संपन्नता पर उससे दूना भरोसा है। तुम्हारा सौभाग्य है कि तुम्हें सच्चा गुरु मिल गया। मैने तुम्हें थप्पड़ मारा, यदि तुमने बदले में एक का चार जड़ दिया होता तो मान गया होता कि तुम क्रांतद्रष्टा हो चुके हो। अपने गाल सहलाने की जगह तुम्हारे हाथ चूम लेता कि एक से दो हो गए, तुमने सवाल किया, इसलिए सोचा अधकचरा है, इसलिए तुम्हें क्रान्ति का दर्शन समझाता हूँ।

“इसका पहला सिद्धान्त है कि क्रान्ति रिवोल्यूशन नहीं है। क्रान्ति का अर्थ है एक सीमा रेखा को पार करके दूसरी में पहुंच जाना। इसमें प्रगति तो हो सकती है, विनाश नहीं। रिवोल्यूशन में चक्कर देने, जो ऊपर था उसे नीचे कर देने या तख्ता पलट कर वहीं का वहीं रह जाने का भाव है। दो भाषाओं या दो संस्कृतियों में एक ही काम एक ही तरह से नहीं हो सकता। भारत में क्रांति हो सकती है और प्रतिक्रांति हो सकती है, आगे बढ़ा जा सकता है, अपनी जगह पर टांग गड़ाए खड़ा भी रहा जा सकता है, यहां तक कि युगों तक एक टांग पर खड़ा भी रहा जा सकता है और पूरी शान से युगों पीछे लौटा भी जा सकता है पर जहां हो वहीं उलट-पलट, तोड़ फोड़ नहीं किया जा सकता। सबको साथ ले कर आगे बढा जा सकता है पर कुछ को बचाने के लिए बाकी का संहार नहीं किया जा सकता। यह भारतीय मानस के अनुकूल नहीं है। कोई करे तो पसन्द नहीं किया जाएगा।

“दूसरी बात यह कि रिवोल्यूशन की मानसिकता से क्रान्ति करें तो दोनों के योग से खुराफात पैदा होगा। यह यहां लंबे अरसे से छोटे से लेकर बड़े पैमाने पर होता आया है, यह हम कर सकते हैं, यही करते रहे हैं।

“तीसरी बात यह कि जैसे क्रान्ति का दर्शन होता है, उसी तरह खुराफात का अपना दर्शन होता है। इसके अनुसार कोई काम करो, वह गलत नहीं हो सकता क्योंकि अपनी समझ से कोई गलत काम नहीं करता। एक का सही और दूसरे का गलत होना इस बात पर निर्भर करता हैं कि आप किसी क्रिया को कहां से या किसकी नजर से देख रहे हैं।

“चौथी बात अपने देशवासियों द्वारा किया जाने वाला कोई काम यदि करने वाले के हित में है तो देश हित में भी है, क्योंकि देश अपने नागरिकों से अलग नहीं होता। इसलिए किसी काम को गलत ठहराया ही नहीं जा सकता। अपराध तक गलत नहीं होता, वह तात्विक दृष्टि से भिन्न नैनिकता और आदर्श पर व्यापक हित में किया गया काम होता है, जिसे समझने के लिए एक भिन्न शिक्षा प्रणाली की जरूरत है। इसके लिए पूरी शिक्षा प्रणाली में क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें इसके लिए प्रयत्न करना है। हमारे पास किसी भी विषय के निष्णात विद्वान नहीं है, उसकी जरूरत ही नहीं है। हमें वह पश्चिम से मिल रहा है तो उस पर व्यर्थ समय बर्वाद क्यों करेें। विद्यानुराग मनुष्य को कूप मंडूक बना देता है इसलिए शिक्षातंत्र को खुराफात तंत्र में बदल कर ही हम देश हित कर सकते हैं। हमें कूपमंडूकेों की जमात की जगह झपट्टामार बाजों की जमात पैदा करनी है, इस मरियल समाज को शुद्ध करने के लिए शवभक्षी गिद्धों की जमातें तैयार करना है। यह बड़ा काम है।”

मैं इतना अभिभूत हो गया कि मैंने उसके पांव पकड़ लिए पर इतने जोर की ठोकर लगी कि उलट कर गिर गया। उसकी गरजती आवाज सुन पड़ी, “पांव ठोकर लगाने के लिए बने हैं, पकड़ने के लिए नहीं।”

Post – 2017-10-16

रोहिंग्या समस्या
मैं इस विषय पर लिखने से बचना चाहता था इसलिए प्रसंगवश कहा था कि रोहिंग्या समस्या को सर्वोच्च न्यायालय में नहीं ले जाना था, इससे इसके कूटनीतिक हल में बाधा पड़ती है। यह कथन कुछ लोगों को जिन कारणों से पसन्द आया होगा, उन्हीं कारणों से कुछ दूसरे लोगों को निष्ठुरता का प्रमाण लगा होगा। अब माननीय न्यायाललय ने इसे मानवीयता के आधार पर विचारार्थ स्वीकार कर लिया है, अत: इस समस्या पर कुछ विचारणीय बिन्दुओं की ओर ध्यान दिलाना जरूरी समझता हूं, भले इससे न्यायविचार में मदद न ली जाए।

१. हमारा देश अतिथि परायण रहा है। ‘अतिथिदेवो भव’ हमारे प्रेरक सिद्धान्तसूत्रों में से एक रहा है। स्वयं भूखा रहते भूखे अतिथि के लिए करस्थ थाल छोड़ने वाले की यशोगाथा युग- युगांतर तक गाई जाती रही है। ऐसी स्थिति में पहली बार जब एक स्मृति में पढ़ा कि सैनिक या चिकित्सक यदि अतिथि बन कर शरण चाहे तो उसे शरण नहीं देना चाहिए तो बहुत आघात लगा। सैनिक जो हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण देने को तत्पर रहता है, उसे हम एक रात की शरण नहीं दे सकते? चिकित्सक जो व्याधियों से हमारे प्राण बचाता है, उसे रात को शरण नहीं दे सकते? कुछ समय लगा यह समझने में कि सैनिक उग्र स्वभाव का होता है, रक्तपात कर सकता है, इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। चिकित्सक बेहोशी पैदा करने वाले, प्राण लेनेवाले द्रव्यों आदि से परिचित होता है, उसे घर में ठहराना प्राण संकट में डालने जैसा है। अब समझ में आया कि उक्षुधार्त रन्तिदेव एक प्रेरणादायक चरित्र हैं, यह नीति विधान व्यावहारिक परिपक्वता का सिद्धान्त है। तर्क किया जा सकता है, जो आज कल कुछ लोग बढ़ चढ़ कर देते हैं, कि यह जरूरी तो नहीं कि सभी सैनिक या चिकित्सक इतने कृतघ्न् हों कि अपने आश्रयदाता का अनिष्ट करे। बेचारा रात में निराश्रय कहां भटकता फिरेगा। यह तो संवेदनहीनता का मामला है। नीतिकार का लक्ष्य जीरो रिस्क का है। वैज्ञानिक है, वैसा ही जैसा संक्रामक स्थितियों में क्वैरैंटाइन आदि में होता है।

२. संवेदनशीलता एक मानवीय गुण है, अतिसंवेदन या हाइपर सेंसिटिविटी एक व्याधि । अपने को जोखिम में डाल कर ज्ञात रूप में किसीसन्दिग्ध पृष्ठभूमि के व्यक्ति या व्यक्तियों को दूसरे विकल्पों के रहते अपने ऊपर लाद लेना अतिसंवेदनशीलता, व्याधि जिसके पीछे गर्हित सचाइया भी हो सकती हैं।

३. संवेदनशीलता पर बात करने से पहले हमने ‘सन्दिग्ध पृष्ठभूमि के व्यक्ति या व्यक्तियों’ कह कर जो आरोप लगा दिया उसे स्पष्ट करना जरूरी है। यायावर जातियां स्थाई और एक परिचित परिधि में जीने वालों की अपेक्षा अधिक गैरजिम्मेदार, आपराधिक मनोवृत्ति का और हिंसाप्रेमी माना जाता रहा है। इसके नमूने मध्येशिया से लेकर इस देश तक ही नहीं सारी दुनिया में पाए जाते हैं। रोहिंग्या की समस्या यह है कि उन्हें अपनी जन्मभूमि में ही नागरिकता और जीवन निर्वाह के साधनों सुविधाओं से वंचित रखा गया, जिसके कारण उन्हें हिंसा और अपराध की गतिविधयों में लिप्त रहना पड़ा। भूमि से उखड़े हुओं का सेंस आफ बिलांगिंग मजहबी एकजुटता और कट्टरता से पूरा होता है इसलिए धार्मिक कट्टरता उनमें भारत के कट्टर मुसलमानों से अधिक दिखाई देती है। इसके चलते नागरिक भेदभाव के उन जैसे ही शिकार हिन्दुओं को भी आसान निशाना समझ कर। उन पर उससे अधिक अत्याचार किया जितना म्यामार के बौद्धों पर। जरूरत थी कि अपने ही समान भेद भाव के शिकार हिन्दुओं के साथ वे नागरिक अधिकारों के लिए शान्तिपूर्ण तरीके से संघर्ष करते और विश्वमंच का भी उपयोग करते, पर जैसा खिलाफत के चलते भारत में हुआ था उन्होंने हिन्दुओं का भी संहार किया और बौद्धों पर भी, और उनका हिंसक दमन और संहार उसी का परिणाम था जिससे बचने के लिए उन्हें पलायन करने का रास्ता चुनना पड़ा।

४. भेदभाव सदा से रहा है पर लगता है आई एस की गतिविधियां तेज होने और उससे संपर्क बढ़ने के बाद रोहिंग्यों की आक्रामकता बढ़ी थी इसलिए उनकी विश्वसनीयता घटती है ।

५. वोट बैंक की राजनीति के कारण कांग्रेस प्रशासन ने बांग्लादेश और रोहिंग्या घुसपैठ को बढ़ावा दिया और इसका कारगर समाधान प्रशासनिक दृढ़ता और कूटनीतिक दक्षता से निकालना जरूरी है और मानवीय संवेदना के नाम पर जनसंख्या विस्फोट के शिकार देश को घुसपैठ का खुला अखाड़ा बना देना, राष्ट्र की संप्रभुता और आंतरिक शान्ति और व्यवस्था के साथ खिलवाड़। मानवीयता का यह प्रश्न तब बनता जब सरकार उनका वैसा ही उत्पीड़न आरंभ करती जैसा उनके साथ हुआ, वह केवल उनका समयबद्ध तरीके से उन देशों को वापस लौटाने के लिए शिनाख्त कर रहा था अत: यह मानवता के तकाजे से एक काल्पनिक मामला है। इसे विचार के लिए स्वीकार करना भी कूटनीतिक पहल को कमजोर करता है। कूटनीतिक पहल में म्यामार पर दबाव डालना और उसे इनकी सुरक्षा की गारंटी लेना पहला कदम था। यदि मुकदमे से म्यामार को लगे कि उसके कठोर रुख अपनाने से इनके भारत में रुके रहने की संभावना है तो हमारे कूटनीतिक प्रयत्न विफल होंगे या कमजोर पड़ेंगे।

६. जो भी हो हमारी और दसरे देशों की कूटनीतिक सक्रियता से म्यामार के रुख में बदलाव आया है और उसे तात्कालिक रूप में इनको वापस लेने और दूरगामी पहल से म्यामार में पैदा होने के कारण जन्मना नागरिक का दर्जा देने, नागर सुविधाएं बढ़ाने, और आर्थिक गतिविधयों में उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय दबाव पैदा किया जा सकता हैं क्योंकि यह म्यामार के भी दूरगामी हित में है।

७. जहां तक संविधान, सिविल और आपराधिक संहिताओं और न्याय विचार की प्रक्रियाओं से संबन्धित निराकरण और व्यवस्था का प्रश्न है, छोटे से लेकर उच्चतम न्यायालय तक सभी इसके लिए अपनी अधकार सीमा में सक्षम हैं और उनके निर्णय हमें मान्य हैं, परन्तु मानवीय संवेदना का निर्णय अदालतें तय करने लगें तो मानना होगा संवेदना हृदय और मन में नहीं होती है काठ की कुर्सी में होती है और उसकी ऊंचाई के साथ संवेदना ऊंची और व्यापक होती चली जाती है।

ये थे मेरे विचार जो हो सकता कुछ दृष्टियों से कमजोर हों क्योंकि रोहिंग्या समस्या काे सतही सूचनाओं के आधार पर ही समझा है। इसका आधिकारिक ज्ञान नहीं है।
एक टिप्पणी का कट-पेस्ट 17.19.17 08.40 पर
https://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fwww.bbc.com%2Fnews%2Fworld-asia-41521268&h=ATOv-GW_U08eOhCHld1we3Yu618DRfsLWXFIrZpKVFxGBxodD1v_EDa5A0vJAEp5537Vg5RiL73NsuF3zgVn5YAR1XBl2ZQkNluinjSK0oGrhF6IfrcQERK8Pgm7l5_nq0STDe2OdH4mwnBLCvJHtYjoMeiQS89-ivbxel9QYkRHSdS4QsAhb94pmzqLZCX_xuuLYuL_ZbLBDrPv3jHvPikX55vQnAH-JUUxJjlcy8H9zubpwXJ1Ow2dPVzXq5ang_Zi

Post – 2017-10-16

शंकामोचन

Ashutosh Kumar वाजपेयी, मोदी , आप और आधे आपके मित्र । ये साढ़े तीन सच्चे संघी हैं।वाजपेयी गहन सन्यास में हैं। मोदी जी तीव्र गति से उसी ओर बढ़ रहे हैं।अब आप ही संघ की रक्षा कर सकते हैं।
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शरद सिंह काशी वाले
शरद सिंह काशी वाले क्या संघ की आलोचना और हिन्दू जनभावना से खिलंदड़पन ही लेखन विषय के अभिन्न रह गए हैं अब ??आदरणीय इस विषय पर जब भी आप कुछ लिख रहे हैं वो संघ को समझने समझाने की अपेक्षा चिढ़ाने की समझ आ रही तो आक्रोश ही निकलेगा प्रतिवादी के लेखन से और शायद सभी के स्वयं के भीतर के रावण को ऊर्जा देता रहेगा।सादर
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Bhagwan Singh
Bhagwan Singh मैं कुछ कहता हूँ तो अपने तर्क और प्रमाण के साथ। उसका खंडन तर्क और प्रमाण से करें। नहीं कर पाते, क्योंकि बौद्धिक विकास की और ध्यान नहीं दिया गया। आक्रोश पैदा होगा क्योंकि शाखा में यही उत्तेजित किया जाता रहा। आप स्वयं मेरे आरोप का समर्थन कर रहे हैं।

मैं जब भारतीया कम्युनिस्टों पर, या भारतीय मुसलमानों पर इससे भी तीखे ढंग से एक पर एक दर्जनों लेख लिखता रहा तो उनमें से किसी को बुरा भी लगा हो तो भी किसी में आक्रोश पैदा नहीं हुआ। संघ ने भारतीय संस्कृति के नाम पर ज्ञान की इतनी गौरवशाली परंपरा के होते हुए भी विचार नहीं पैदा किया, जिससे अपना बचाव कर सकें, केवल आक्रोश भरा कि बात बे बात भड़कते रहो, फूटते रहो, फूट पैदा करते रहो, पर यह नहीं समझाया कि भड़कने और फूट पड़ने वाला सबसे अपना सर्वनाश करता है, वह घड़ा हो .पटाखा या बम या क्रोधांध व्यक्ति या समाज । वह मैं समझाना चाहता हूं, पर ज्ञान देनेवाले पर आक्रोश आता है। मैं कह चुका हूं, लेखक की भूमिका शिक्षक और चिकित्सक की भूमिका होती है, जब तक बात समझ में नहीं आती, समझाने का प्रयत्न जारी रहेंगा, जब तक बीमारी है, चिकित्सा जारी रहेगी।
मैं केवल आप लोगों को संबोधित नहीं कर रहा हूं। आप लोगों के माध्यम से सर संघचालक से भी विचार की मांग करता हूं।
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Post – 2017-10-15

मैं तो कहता था जमाने को बदलना चाहिए
जिद तुम्हारीथी कि सबके साथ चलना चाहिए।

Post – 2017-10-15

बया ने बन्दर का हित चाहा था पर एक चूक कर गई थी, भाषा पर अच्छा अधिकार न होने के कारण उसने जो कहा उसे बन्दर ने सलाह न समझ कर अपने ऊपर तंज समझ लिया था. भाषा पर अच्छा अधिकार मेरा भी नही है.

Post – 2017-10-15

संघ से जुड़े लोगों के संस्कार, ज्ञान, विचार के विषय मेरी राय जिन नमूनों के आधार पर बनी है उसकी बानगी यह हैः

Devendra Sharma सुधीर सर जो व्यक्ति श्री रामायण को बिना पढ़े प्रक्षिप्त, क्षेपक बोले उसका षड्यंत्र स्पष्ट है न, फिर कौन किसका यार है, उसी से तो बागों में बहार है। भगवानसिंघजी वामपंथियों के गेंग के सदस्य है तो सनातन धर्म पर ही आक्षेप करेंगे। ये छुपे हुए मुल्ले इस्साई है।

ऐसे लोग संघ में 99 प्रतिशत हैं । जो 1 प्रतिशत अपवाद हैं, वे अपने प्रयत्न से बने हैं और ऐसों को संघ में भाव नहीं दिया जाता। वाजपेयी और नरेंद्र मोदी और फेसबुक पर मेरे कुछ मित्र इन्हीं में आते हैं। भाजपा में भी अधिकतर ऐसे ही लोग हैं। इस 1 प्रतिशत की अपनी क्षमता और विरोधियों की विफलता के कारण भाजपा जब सत्ता में आ जाती है तो संघ की खांटी 99 प्रतिशत बिरादरी आपना एजेंडा पूरा कराने के लिए पगला जाती है और ऐसा न होने उनके लिए ही समस्याएं खड़ी करने लगती है, और उनके सत्ता से हटते ही सारा जोश ठंढा हो जाता है और बिल में घुस जातेी है।

Post – 2017-10-14

आमुख का शेष अंश
(इसे १२ अक्टूबर की पोस्ट के साथ पढ़ा जाय। कृपया मेरे पेज पर मेरा ही लिखा टैग न करें

हिन्दूविहीन मानवता को सेकुलरिज्म की संज्ञा देकर भाजपा को रोकने को अपना एकमात्र लक्ष्य बताने वाले और भ्रष्टता को सेकुलरिज्म के रूप में परिभाषित करने वाले राजनितिक दलों के गठबंधन से मुझे कोई परेशानी नही थी। परन्तु जब बुद्धिजीवियों ने उनके साथ प्रकट हितबद्धता के कारण आकुल विकल स्वर में हाहाकार मचाना आरम्भ किया तो कुछ समय तक समझ में ही न आया कि यह हो क्या रहा है।

प्राचीन इतिहास पर काम करने के कारण समकालीन राजनीति की न तो मेरी अच्छी जानकारी थी, न तैयारी, न योग्यता, न इसमें हस्तक्षेप की इच्छा। पर ध्यान देने पर पाया कि जिन्हें आजतक आधुनिक काल का अधिकारी विद्वान मानता आया था वे तो भाड़े पर आर्तनाद करने वाले नौहाख्वां सिद्ध हो रहे हैं जो मातमी परिवार की वेदना को शतगुणित करके राहचलतों को भी अश्रुविगलित करने का प्रयास कर रहे हैं । तय किया कि इसका प्रतिवाद तो करना ही होगा। ‘ऋग्वेद की परंपरा’ पर चल रहे काम को मैंने यह जानते हुए अधूरा छोड़ दिया कि अधूरे कामों को पूरा करने का ताप और मनोनुकूलता यदि आती भी है तो बहुत लम्बे समय बाद या आ ही नहीं पाती। समकालीन राजनीति के गहन अध्ययन और आधिकारिक ज्ञान के अभाव में भी मुझे अकेले उस पापसी धर्मतंत्र के विरुद्ध खड़ा होना पड़ा जो जबान को रसना बना चुके तत्वदर्शियों को न तब दीखा, न आज दीख रहा है।

यदि चुनाव के परिणामों से सीधे प्रभावित होने वाले राजनीतिक दलों की उसी अवधि की प्रतिक्रियाओं की तुलना साहित्यकारों, पत्रकारों और ऐंकरों की प्रतिक्रियाओं से करें तो पाएंगे कि पहले में अपने प्रतिद्वंद्वी पर सही-गलत आरोप-अभियोग लगा कर अपनी बिगड़ी बनाने कि कोशिश थी तो दूसरे में हाहाकार, चीत्कार और अश्रुप्रवाह। मातमी से अधिक छटपटाहट नौहाख्वा में।

एक ओर सेकुलरिस्ट होने का दावा करने वालों की लीगतांत्रिक हिंदूविमुख सोच, दूसरी ओर संघ की हिंदूवादी और मुस्लिमविमुख सोच। तीसरी ओर कांग्रेस पर हावी हिंदूद्रोही पोपतांत्रिक कार्ययोजना। इस निराशा भरे माहौल में सबका-साथ-सबका-विकास, वंशवाद और कांग्रेस मुक्त भारत के उदघोष के साथ केंद्रीय मंच पर उपस्थित होने वाले नरेन्द्र मोदी के प्रति मेरा आशान्वित होना स्वाभाविक था।

मैं झूठ नहीं बोल पाता। यह जानते हुए भी कि लोग झूठ बोलते हैं, तब तक यह विश्वास नहीं कर पाता कि कोई झूठ बोल रहा है, जब तक उसके काम से ऐसा सिद्ध नहीं हो जाता। यह मानव गरिमा के लिए भी जरूरी है और भाषा की मर्यादा की रक्षा के लिए भी। इसका दूसरा पक्ष यह है कि यदि कोई किसी के कथन को तत्काल झूठ, फरेब, या नाटकबाजी कहने लगे तो उसी के चरित्र पर संदेह होता है कि स्वयं ऐसा हुए बिना वह ऐसा सोच कैसे सकता है. मोदी ने मुझे निराश नहीं किया पर उन पर आरोप लगाने वाले मित्रों ने बार बार निराश किया है । अपने विरोध में वे मनोवैज्ञानिक विकलांगता के शिकार हो गए हैं, इसलिए आज तक उन्हें कोई कोई धनात्मक उपलब्धि दिखाई ही न दी।

नरेन्द्र मोदी को मैं आज भी स्वतंत्र भारत का योग्यतम प्रधान मंत्री मानता हूं। जिस आपातिक स्थिति में उनका उदय हुआ उसके कारण उन्हें इतिहास पुरुष मानता हूं। विश्व के कद्दावर नेताओं में एक मानता हूं। क्यों मानता हूँ यह समझाने के लिए मैंने “भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर” शीर्षक से एक पूरी पुस्तक लिखनी चाही। पचीस किश्तों के बाद फेसबुक की अपरिहार्यताओं के कारण व्यवधान आ गया। इसी तरह लगभग “भारतीय बुद्धिजीवी और भारतीय मुसलमान” शीर्षक से एक लेखमाला आरम्भ की जो भी दस किश्तों के बाद सिरे न चढ़ पाई । अब इन लेखों को इन शीर्षकों से उपखंडों में रखा है और शेष को “विविध प्रसंग” के अंतर्गत, यद्यपि उनमें भी अनेक बार पहले दो विषयों से सम्बंधित सामग्री है।

कोई लेखन सबके लिए नहीं होता। यह खंड भी इसका अपवाद नहीं ।

Post – 2017-10-13

मैं उन लोगों को सांस्कृतिक दृष्टि से अनभिज्ञ, अशिष्ट और असभ्य मानता हूं जो आतिशबाजी पर रोक को धार्मिक भेदभाव के ऱूप में पेश कर रहे हैं। कारण निम्न हैंः
1, जैसा कि आतिशबाजी शब्द से ही प्रकट है, यह न तो हमारी खोज है, न हमारी परंपरा का हिस्सा।
2. दीपावली शुचिता का पर्व है, साधना और सिद्धि का पर्व, इसलिए इससे पहले नाभदान से लेकर घर आंगन की धुलाई, सफाई, की जाती है, और साधना के लिए अपेक्षित शांति का निर्वाह किया जाता रहा है। केवल घर की सफाई नही, देनदारी आदि सबकी।
3. यह केवल ज्योतिपर्व नहीं है। किसी तरह प्रकाश नहीं, मशाल, किरोसिन के दिए, लालाट्न, पेट्रोमैक्स या मोमबत्तयों या बल्ब और लड़ियों का नहीं, घी और तेल के दीयों का प्रकाश, जो केवल दिखावे के लिए नहीं, अंधेरे कोनों में भी, नाभदान के पास भी, घूरे पर भी। रखा जाता था बरसात के बाद बचे कीटपतंगविनाशाय।
4. आतिशबाजी और पटाखे इस पूरी भावना के विपरीत है, इनसे वायु प्रदूषण होता है, ध्वनिप्रदूषण होता है, गंदगी फैलती है, घुटन पैदा होती है, असंख्य छोटी बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं, जैसे हमने अपनी परंपरा की बचकानी समझ या नासमझी से स्वय उसके सारतत्व को नष्ट कर दिया हो। दूसरे यदि अपने पर्वों पर आतिशबाजी करें भी तो हमें अपनी हजारो साल की परंपरा की शुचिता की रक्षा के लिए इससे बचना चाहिए।
5. दुनिया के किसी सभ्य देश में कोई व्यक्ति निजी अातिशबाजी नही कर सकता। इसका भव्य सामूहिक आयोजन अग्निशमन की व्यवस्था के साथ होता है और इसीलिए वहां आतिशबाजी के क्षेत्र में जैसी प्रगति हुई है वह हमारे लिए विस्मयकारी है जब कि दुनिया में सबसे अधिक पैसा हम बर्वाद करते हैं और मूर्खों की तरह करते है।
इसे कट पेस्ट करके बचा लें, आप की समझ में न भी आए तो दीपावली पर निबंध लिखने के लिए आप के बच्चों के काम आएगा।
धिर भी अदालत का फैसला अधूरा, नादानी भरा और आपाधापी में किया गया, व्यापारियों के प्रति अन्यायपूर्ण और आत्मघाती फैसला है।

Post – 2017-10-12

इतिहास का वर्तमान (४)
आमुख का एक अंश

फेसबुक पर लेखन समकालीन घटनाओं और संचार माध्यमों में व्यक्त विचारों से प्रेरित या प्रभावित होता रहता है। मेरा अपना लेखन भी इसका अपवाद नहीं है। प्रयास यह अवश्य होता है कि समसामयिक समस्या पर विचार करते समय पूर्वाग्रह, आवेग, आवेश और आक्रोश से काम न लूं। इसका एक ही उपाय है – तर्क और प्रमाण सामने आएं, निष्कर्ष उनका ही स्वाभाविक प्रतिफलन हो।

इसके कारण मैं सोनिया-नियंत्रित कांग्रेस को कैथोलिक साम्राज्य विस्तार से अलग करके नहीं देख पाता और इसका भयावह पक्ष यह है कि यदि यह सफल हो जाय तो भारत में हिंदुओं की दशा पाकिस्तान और बांग्लादेश से भिन्न नहीं रह जाएगी।

आज जो लोग सवर्ण-दलित का खेल खेलते हुए ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे! इंशा अल्ला! इंशा अल्ला!!’ गा रहे हैं, और इस खेल को सेकुलरिज्म कह कर जश्न मना और तालियां बजा रहे हैं, और जश्नबाजी से बचे समय में ‘असुरक्षित’ होने का स्वांग भर रहे हैं, उन्हें तब पता चलेगा, हिन्दू शब्द का मतलब क्या है? हिंदू शब्द की व्याप्ति क्या है? पाकिस्तान और बांग्लादेश में किसी को जैन, बौद्ध, सिख, दलित या सेकुलर होने के नाते बख्शा नहीं गया। पोपतंत्र के भीतर सेकुलर शब्द बोल तो सकते हैं पर सिर्फ एक बार।

मैं प्रमाणों की अनदेखी नहीं करता। अपने तर्ककौशल से तिल का ताड़ और ताड़ का तिल नहीं बनाता। आंकड़ों का घालमेल नहीं करता। कोशिश करता हूं कि विशेषणों का प्रयोग कम से कम हो। जो निष्कर्ष निकलता है उसे भय, प्रलोभन और दबाव से मुक्त होकर, मानापमान की भी चिंता न करते हुए कहने का जोखिम उठाता हूं। यह मेरा प्रयत्न है। इसमें सफल कितना हो पाता हूं, इसका फैसला नहीं कर सकता।

कैथोलिक धर्मतन्त्र और इसके हिंदूद्रोही प्रोग्राम के प्रयोग मनमोहन सिंह के मनमोहक कार्यकाल में आरंभ हो चुके थे। सेकुलरिस्टों ने जो घटित हो रहा था उसे देखते हुए न तो देखा, न सुनते हुए सुना, न जबान रहते उस पर कुछ बोल सके। वे सिलेक्टिव ब्लाइंडनेस, सिलेक्टिव डेफनेस, सिलेक्टिव डंबनेस और सिलेक्टिव हल्ला बोल के शिकार हैं और इसके फायदों से परिचित रहे हैं। उनका मजलिसी तराना था,

यह कैसी है जबां बंदी हसीना तेरी महफ़िल में
जबां रसना बनी है बोलना हो तो नहीं खुलती!
और जवाबी तराना था:
खुलेगी, और लंबी तन के खुद ही आग उगलेगी
पता जिस दिन चलेगा पहले जैसी अब नहीं मिलती।।

इसलिए संचार माध्यमो की पहुंच की सीमा में आने वाले अनसेकुलर हिंदुओं ने और उनकी निजी संपर्कसीमा में आनेवाले हिंदुओं ने पहली बार वे डरावनी आवाजें सुनीः
• इस देश के संसाधनों पर पहला हक माइनारिटीज का है।
o (लोग अविश्वास में एक दूसरे से पूछने लगे, “ऐं, संविधान में ऐसा लिखा है क्या? मैं तो समझता था देश के संसाधनों पर सबका समान अधिकार है।“
o उत्तर मिलता, “एक्स्ट्रा-कंस्टिट्युशनल सुपरहेड कंस्टिट्युशनल हेड और कंस्टिट्यूशन को जैसे चाहे इस्तेमाल करे रोकने वाला कौन है।“

• हिंदू शांतिप्रेमी नहीं होता, वह आई एस से भी अधिक आतंकवादी है, उससे पूरी मानवता को खतरा है।
o “बड़ा रोब पड़ रहा है, यार। कल तक तो अमेरिका और कनाडा से बरास्ता पाकिस्तान आनेवाले खालिस्तानी उन्हीं गुरुद्वारों में एके 47 लिए ठहरते थे, जिनके लंगर के आजकल चर्चे गर्म हैं, और उनसे निकल कर चलती बसों से सवारियों को उतार कर हिंदुओं को अलग कतार मे खड़ा करके गोलियों से भून दिया जाता था, तब भी हमने किसी निरपराध सिख को कोई क्षति नहीं पहुंचाई और इस के कारण हमें कायर तक कहा जाता रहा। आज बिना कुछ किए कराए, देश विदेश में डंका बज गया। और क्या चाहिए खुशी के लिए।“
o “डंका बज गया, डंडा बजनेवाला है।“

• यदि कहीं कोई बवाल हो जाए और उसमें एक पक्ष हिंदू हो तो बिना जांच पड़ताल के हिंदू को अपराधी माना जाए।
o “यह तो कुछ गलत लगता है, यार।“
o “इतनी जबरदस्त इंटरनेशनल खोपड़ी का प्रधान कुछ भी कर बैठे, वह गलत हो ही नहीं सकता। यह नव्य न्याय है, पाकिस्तान और बांग्लादेश से पिछड़ गए थे। यह उनसे भी आगे पहुंचने की मात्र पहली छलांग है।“

• केवल गरीब मुसलमानों को 15 लाख का बैंक लोन।
o “तनिक भी गरीब मुसलमान दिख गया तो उसे पकड़ लेते हैं लोग, पूछते हैं – तुमने अपना हक लिया। मुसलमानों का रास्ता चलना दुश्वार हो गया है।“
o “सरकार की नीति जनसंख्या नियंत्रण की है। किसानों को कर्ज देकर जान चुकी है कि महाजन का कर्ज लेने वाला कभी आत्महत्या नहीं करता पर बैंक से कर्ज लेनेवाला आत्महत्या करता है, इसीलिए गरीब मुसलमानों को चुना गया। गरीब हैं, कर्ज लेकर खा जाएंगे, चुकाने का समय आएगा तो आत्महत्या कर लेंगे।
o “इसका एक और फायदा है। अभी तक सेकुलरिज्म की पहुंच गरीबी तक नहीं हुई थी इसलिए इसकी लड़ाई धनिकों से थी, जमाखोरों से थी। अब गरीबी का मजहब साफ हो जाने के बाद हिंदू गरीबी की जंग मुस्लिम गरीबी से होगी और लुटेरे और जमाखोर निश्चिंत रहेंगे।“

ये आवाजें कहीं बतकही के रूप में, कहीं फुसफुसाहट के रूप मे बैठकों, चौबारों, हाटों बाजारों का चक्कर लगा रही थीं और इनसे समाज में घुटन पैदा हो रही थी। इसी में पैदा हुआ था एक विकल्प जो “वंशवाद मुक्त भारत और कांग्रेस मुक्त भारत के सकल्प के साथ राजनीतिक फलक पर उभरा था और इतनी तेजी से लोकप्रिय होता गया कि एक तूफान में बदल गया था।

उससे दहशत खाए सारे बुद्धिजीवी चीख रहे थे “मोदी रोको देश बचाओ” तो लोग सुन रहे थे “मोदी लाओ देश बचाओ” । यह प्रति-श्रुति का ऐसा नया रूप था जिसका अर्थ बुद्धिजीवियों को पता ही न था। मैंने इसका कारण जानना चाहा तो मुक्तिबोध की कविता की पंक्तिया प्रतिध्वनित हो रही थीं:
गढ़े जाते संवाद
गढ़ी जाती समीक्षा
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूल
बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास
किराये के विचारों का उद्भास
बड़े बड़े चेहरों पर स्याहियां पुत गईं।

Post – 2017-10-11

मेरी अपनी समझ
(जरूरी नहीं कि आप उसे ठीक मानें)
टिप्पणियों में एक संवाद

Mahesh Jaiswal जनवरी-जून 1993 के ‘पल प्रतिपल’ में साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर अपने आलेख (जरुरत अपनी समझ दुरुस्त करने की है) में भगवान सिंह ने सटीक प्रतिपादित किया था ‘ हम यह समझाने में असफल रहे ही कि धर्मान्धता धार्मिक निष्ठा पर कुठाराघात है, मानवीय गरिमा पर कुठाराघात है’ …ब्राह्मणवाद हिंदुत्व का शत्रु है । यह इस्लाम से भी क्रूर है । यह किसी को भी बराबरी पर नहीं अपनाता, अपनों को भी अपमानित करके रखता है …मूल्यव्यवस्था के रूप में वह कायरता को प्रश्रय देता रहा है…चोरी से और सभी तरह से सुरक्षित हो जाने पर प्रहार करता रहा है, अत: इसने धार्मिक उन्माद के कारण दूसरों के प्राण लिये अवश्य हैं, पर प्राण दिए कभी नहीं …..’
जाहिर है संघ-भाजपा की राजनीति के सन्दर्भ में यह उनकी वैचारिक अभिव्यक्ति रही है । पर अब उसी संघ-भाजपा के ‘मानस पुत्र और योग्य शिष्य’ नरेंद्र मोदी की पक्षधरता और संघ का विरोध की उलटबांसी, पुराने दिनों के पत्रकार बी के करंजिया (ब्लिट्ज साप्ताहिक) की अवधारणा “नेहरू नेक और सब (कांग्रेसी) लुच्चे” की कुर्सी-पुर्सी की ‘समझदारी’ की याद दिलाती है !
सभी जानते हैं कि संघ ही माथा है, बाकी सब हाथ-पैर !!

Bhagwan Singh अब भी राय वही है पर विषय और संदर्भ भेद से संचार में अधूरापन आगया। इन्हीं पोस्टों मे पिछले साल लिखा है, संघ मुस्लिम लीग की उपज है, इसका आदर्श मुस्लिम लीग है, इसके लिए हिन्दू के हित का अर्थ हिन्दू का हित नहीं मुसलमानों का नुक्सान है। इसे संस्कृति की समझ नही है।
जहां से यह विवाद आरम्भ हुआ वहां मेरा आरोप था कि ये ये वचन बहादुर बनने की होड़ में न तो बोलना जानते हैं न ठंढे दिमाग से सोचना, वातावरण में उत्तेजना पैदा करते है जिसे एक वाक्य में सूत्रबद्ध किया था।
जहां से मेरे विचार को दूसरे लोगों की समझ नहीं आ पाते वहां सचाई यह है कि संघ से भी अधिक खतरनाक फिरकापरस्ती का खेल सेकुलरिज्म के नाम पर खेला जा रहा है, क्योंकि उनके पास कोई एजेंडा ही नही है जब कि भाजपा जनाधार के लिए संघ पर निर्भर होते हुए भी सही माने में सेक्युलर रही है और नरेन्द्र मोदी संघ की उपज होते हुए भी सबके साथ और सबके विकास की नीति पर चले हैं और आजिज आने पर एक आध रंदा लगा दिया है। उनकी महत्वाकांक्षा विश्व फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने की है. इसे कोई मानने को तैयार नहीं होता और मैं उन्हें भारत का सबसे दूरदर्शी और कर्मठ और भरोसे का प्रधानमंत्री मानता हूँ. आज भी.

Mahesh Jaiswal मुस्लिमों-दलितों के प्रति स्थायी घृणा-तिरस्कार के डीएनए वाला ब्राह्मणवादी कट्टर हिंदुत्व ‘संघ’ के वृक्ष पर ‘सबका साथ सबका विकास’ के उदार चाल-चेहरा-चरित्र वाला मोदी-फल !!! पोस्ट ट्रुथ के काल में, हिरण्यकश्यप के घर भक्त प्रह्लाद पैदा हो जाने की कथा पर देश के तमाम उदार हिंदुओं सह अदवाणियों, जोशियों, शौरियों तथा मुसलमानों को यकीन कर लेना चाहिए !!
आप सुखी, स्वस्थ, समृद्ध रहेंं !!

Bhagwan Singh मैं जानता था और कहा भी कि “इसे कोई मानने को तैयार नहीं होता और मैं उन्हें भारत का सबसे दूरदर्शी और कर्मठ और भरोसे का प्रधानमंत्री मानता हूँ। आज भी।” इसके बाद इस विषय पर किसी प्रतिवाद की जरूरत न थी। आप ने जिद ठान ही ली कि आप को आप की सही जगह पर बैठा दूं तोः
1. आप इतने धुत हैं कि आप ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण जाति में फर्क नहीं कर पाते। आप को यह पता नहीं कि ब्राहमणों में ब्राह्मणवाद के विरोधी अधिक संख्या में मिलेंगे पिछड़ों में ब्राह्णमणवाद अधि्क प्रबल है, दलितों में सबसे प्रबल।

2. आप इतने वर्णांध हैं कि यह नहीं देख पाते कि शिक्षित मध्यवर्ग भारत में यूरोप से कई हजार साल पहले से एक वर्ण के रूप में विद्यमान था.

3. आप यह नहीं देख पाते कि मार्क्सवाद के तीनों लक्षण – क्रांतिकारिता, ढुलमुलता और यथास्थितिवादिता – ब्राह्मण जाति में विद्यामान थे ।

४.शिक्षित और संवेदनशील होने के कारण सामाजिक राजनैतिक सभी आंदोलनों, संगठनो में इसकी अग्रणी, यथास्थितिवादी और पश्चगामी. तीनो तरह की भूमिकाएं रही हैं जिसका अपवाद कम्युनिस्ट आंदोलन भी नहीं है जिसका जन्म ही विलायती शिक्षाप्राप्त, विलायती अाकांक्षाओ और विलायती दिमाग के रईसजादों और कुलीनो द्वारा हुआ था और जिनकी जीवनशैली शाही थी और जिनकी दिलचस्पी भारत की आजादी में नहीं अपनी तानाशाही में थी, क्योंकि ये देश की आजादी से डरे हुए लोग थे, न कि साम्यवाद से प्रेरित ।

पहले पढ़ना सीखिए, फिर समझने की कोशिश कीजिए पर उसके बाद भी अपने विचारों को दूसरों पर लादने की जिद मत पालिए।