यू पी चुनाव से पहले रेल हादसों में इजाफा हुआ था। गुजरात में चुनाव से पहले भी वही प्रयोग।
Month: November 2017
Post – 2017-11-22
मैने भी अांख मूंद कर देखा
क्या कोई सुबह किसी ख्वाब में है।।
————————–
जो बिखरा घर था उसको फिर से जोड़ा है पसीने से
इसे आबाद होने दो, इसे आबाद रहने दो ।।
————————–
कई रंगों के अंधेरे हैं तेरी महफिल में
कई ख्वाबों को मिलाकर तेरी पौ फटती है।
ऐ मेरी जान कभी ओस कभी आग है तू
तेरे काजल की सियाही ये पौ फटती है।।
————————–
कुछ लोग हैं जो हंस कर टाल देते हैं हर बात
कुछ लोग हैं हंसना भी गवारा नहीं करते।।
तुम पर फिदा हुए तो बात अक्ल में आई
किस्मत से बचे, ऐसा दुबारा नहीं करते ।।
————————-
Post – 2017-11-22
बात तो आज भी अधूरी है
हम अपनी शाम को कल सुबह करके देखेंगे।।
पिछले हफ्ते किसी मित्र ने, किसी सन्दर्भ में, रामचंद्र गुहा के एक भाषण का लिंक भेज दिया था। इस विषय पर विचार करने की जरूरत उस भाषण से ही पैदा हुई। मैं उनके नाम से परिचित था, उनका कुछ पढ़ा या उनको सुना न था। उस भाषण में उन्होंने चार पांच बार दुहराया कि वह अपनी बात एक इतिहासकार के रूप में रख रहे है। दूसरे लोग उनसे अलग राय भी रख सकते है। इतिहासकार के रूप में वह भारतीय सांस्कृतिक बहुलता का जो चित्रण कर रहे थे उसमें हमलावर आर्यो की निर्णायक भूमिका थी। पहले इस देश में यहां के आदिवासी रहते थे, फिर आर्य आये और इस पर कब्जा करके आदिम जनों को गुलाम बना लिया फिर इसी तरह दूसरे आक्रमणकारी आते रहे, जीतते, कब्जा करते और गुलाम बनाते रहे और भारत की भाषाई, नृतात्विक, सांस्कृतिक और सामाजिक बहुलता पैदा हो गई।
मैने उनके कथन को कुछ इकहरे ढंग से पेश किया, इसलिए उनके प्रति अनजाने कुछ अन्याय भी हो सकता है। लिक को तलाश न पाया, कि यहां दे सकूं। मुझे हैरानी दो बातों से हो रही थी। एक तो वह जानते थे कि वह झूठ बोल रहे थे। इसे छिपाने के लिए कि अधीति की सभी शाखाओं (साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, भाषाविज्ञान, जीनिवशलेषण) से आर्य-अनार्य की गप्प का खंडन हो चुका है वह एक ओर तो अपने फेफड़ों की ताकत का कुछ अधिक इस्तेमाल कर रहे थे और आपत्तियों को यह कह कर टाल रहे थे कि दूसरे लोग उनसे असहमत हो सकते हैं।
दूसरी बात कि अपने कथन को विश्वसनीय बनाने के लिए वह बार बार दुहरा रहे थे कि वह इतिहासकार हैं। होते तो कहने की जरूरत न होती, बार बार दुहराने की जरूरत कतई न होती। हम अक्सर मान लेते हैं कि इतिहास पढानेवाला इतिहासकार होता है, दर्शन पढ़ाने वाला दार्शनिक होता है। कुशल है कि हम कविता पढ़नेवाले को कवि और साहित्य पढ़ानेवाले को साहित्यकार नहीं मानते और यह समझ हमें अध्यापक या शास्त्रविद और मनीषी के अंतर को समझने में मददगार हो सकती है। इतिहासकार होने के लिए इतिहास पढ़ाना जरूरी नहीं, इतिहास की समझ जरूरी है। उनकी समझ की बुनियादी गड़बड़ी यह है कि यह एक अभियान है। इसमें किसी विषय के ज्ञान की जरूरत ही नहीं, बल्कि ज्ञान संकट पैदा करता है, इसलिय सोच विचार कर आंकड़ों के साथ घालमेल किया जाता है। यदि यह सीमा अकेले गुहा की होती तो उनको सतही सोच वाला जोगाड़ी व्यक्ति मान लेता जिसने भारत से लेकर अमेरिका और यूरोप के इतने देशों में इतिहास और इससे मिलते जुलते विषयों का अध्यापन किया है। परन्तु यह अभियान दो शताब्दियों से चल रहा है और समय बीतने के साथ इसके साथ जुड़नेवाली लामियों का विस्तार हुआ है। इसका भंडाफोड़ होने के साथ अभियान में तेजी आती रही हे। इससे पहले केवल केवल उपनिवेशवादियों और गेरी जाति के श्रेष्ठताबोध के हित जुड़े थे जिसे, जैसा कि अंबेडकर ने जोर दे कर कहा था, अपने लिए एक अवसर समझ कर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त ब्राह्मणों ने अपना लिया था। मध्यवर्ग, या बुड बुद्धिजीवी वर्ग, भारतीय अमलावर्ग तीनो का मतलब पाश्चात्य शिक्षाप्राप्त ब्राह्मण रहा है, इसलिए जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे इसकी जाँच पड़ताल करते उनके हित औपनिवेशिक और पाश्चात्य वर्चस्व से जुड़े रहे। भाषा के द्रविडवादी बिलगाव के समर्थन में भी पहले दाक्षिणात्य ब्राह्मण ही सामने आये थे। ईरानी और अरबी श्रेष्ठताबोध के चलते मुस्लिम और धार्मिक कारणों से ईसाई इससे हितबद्ध थे ही। इस तरह भारतीय बुद्धिजीवी और अमलावर्ग केवल आर्य आक्रमण का ही समर्थक न बना रहा, यह भारतीय भाषाओं के उत्थान और अंग्रेजी के वहिष्कार का भी विरोधी रहा क्योंकि इससे उसके हितों पर चोट पहुंचती थी। हाल के दिनों में जो सबसे रोचक परिवर्तन हुआ है वह यह कि अम्बेडकर की सोच को उलटकर दलित भी इसे अपने लिए अवसर मानने लगे है और ईसाई लॉबी को बहुत बड़े पैमाने पर आर्थिक और नैतिक समर्थन मिलने लगा है इसलिए इसकी प्रचारशक्ति बहुत आतंककारी है। इसे प्रतिष्ठा प्रदान करने का काम कम्युनिस्ट आन्दोलन ने किया जिसके चरित्र का विवेचन हमने पहले कई दृष्टियों से किया है। इससे जुड़ते ही अवसरों के अनंत द्वार खुल जाते है, इसलिए साहित्य, शिक्षा, ज्ञान, प्रशासन सर्वत्र इसका बोल बाला रहा है और आज भी है।
मैं मार्क्सवादी हूं। कम्युनिस्ट कभी न रहा, पर कम्युनिस्टों की कार्यशैली से असहमति के बाद भी उनकी सोच और इरादे को लेकर मेरे मन में पहले कोई सन्देह नहीं पैदा हुआ था। पहली बार जिस प्रश्न का सामना मुझे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष और विचारों से कम्युनिस्ट मित्र से अपनी पुस्तक पर निजी चर्चा के क्रम में यह सुनने को मिला, “इससे किसका लाभ होगा?”
मैंने कहा, मैं लाभ हानि की चिता करते हुए न अध्ययन करता हूँ न शोध. उन्होंने फिर समझाया कि इससे दखिंपंथियों को लाभ होगा। मैंने कहा यदि सच की चिंता उन्हें ही है, यदि मार्क्सवाद झूठ पर पलता है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।” यह दूसरी बात है कि मैं तब भी मानता था और आज भी मानता हूँ कि मार्क्सवाद मिथ्याचारी दर्शन नही है मिथ्याचार भारतीया कम्युनिस्ट आन्दोलन में आगया और यह इसकी बुनियाद में है जिसके कारण यह प्राचीन भारतीय इतिहास, सस्कृति को हिंदुत्व से जोड़ लेता है, लीगी मानसिकता के कारण इसे डरावने, घिनौने या विचित्र पर निरीह लगने वाले जीवों को लकड़ी या छड़ी से छेड़ने और उद्विग्न करने वाले बच्चे की तरह उलटना, पलटना और बदलने के नाम पर मिटाना चाहता है इसलिए इसकी भूमिका ईसाइयत को भी रास आती है और इसे भी ईसाइयत का या इस्लाम का दबंग चरित्र पसंद आता है।
अब हम इसकी जांच अकादमिक या ज्ञानशास्त्रीय आधार पर करते हुए यह समझना चाहेगे भारतीय इतिहास, संस्कृति और सामाजिक संरचना को समझने में यह दृष्टि कहां तक सहायक या बाधक होती है।
1. आक्रमणवादी बहुलता विघटनकारी है। एकता के साथ जो सौमनस्य जुड़ा है उसका इसमें अभाव है जब कि यूनिटी इन डाइवर्सिटी जो भारतीय एकता की पहचान है उसमें विविधता के बावजूद एकसूत्रता या एकप्राणता है, जिसे आक्रमणवादी बहुलता से नष्ट किया गया है। इसमें भिन्नता पृथकता का द्योतक बन जाती है और समावेशिता का लोप हो जाता है, अत: यह खतरनाक साजिश का हिस्सा है और इकबाल के कारवांवादी सोच से भी अधिक गर्हित है, क्योंकि कारवांवादी बहुलता में आक्रमणों की नृशंसता पर परदा डालते हुए एक कामचलाऊ सौहार्द कायम करने का प्रयास तो था, यद्यपि खतरे उसके भी थे।
जो बात सिद्धान्त निरूपण से समझ नहीं आती उसे दृष्टान्तों और परिणतियों से समझा जा सकता है। विविधता के बावजूद भारत की एकात्मता से सबसे अधिक घबराहट ब्रितानी हुक्मरानों को थी। उन्होंने द्रविड़ आर्य के माध्यम से उत्तर दक्षिण को बांटने का, तमिल बनाम सिंहली, तमिल बनाम मलयाली तिकड़म से दक्षिण को और हिन्दू-मुसलिम, जनजाति-हिन्दू, ब्राह्मण -अब्राह्मण, सवर्ण-असवर्ण आदि की तरकीबों से भिन्नता को टकराव में बदलने का प्रयत्न किया पर हिन्दू-मुस्लिम टकराव से आगे टकराव तो पैदा कर ही न सके, बिखराव न पैदा कर सके और पूरा देश उनके विरुद्ध महाकाय देव की तरह खड़ा होता रहा और यही कारण है कि उन्हें भारत को स्वतंत्र करना पड़ा। हम केवल यह निवेदन करना चाहते हैं कि जिस स्तर का आंतरिक टकराव पैदा करने में वे विफल रहे थे, उनके अधूरे काम को मार्क्सवादियों और समाजवादियों और औपनिवेशिक मानसिकता के उत्तराधिकारियों ने पूरा कर दिया भारत तेरे टुकड़े होंगे के साथ सुर मिलाने वालों की गिनती कराने की जरूरत नहीं।
२. यदि इस विखंडनवादी सोच के पीछे कोई महान उद्देश्य छिपा हो जिसे मैंन समझ पारहा हूं तो वे अपना अभियान जारी रख सकते हैं। जिन्हें उस फिल्मी गाने की सचाई तक का पता नहीं कि “क्या से क्या हो गए बेवफा तेरे प्यार में”, उन्हें कोई यह भी नहीं समझा सकता कि जब तुम विखंडन के हिमायती हो तो तुम्हें भारत की बहुलता में अंतर्निहित समावेशिता परबोलने से बचना चाहिए। यह आरोप लगाने से बचना चाहिए कि भारत की एकता को हिंदुओं और हिंदुत्ववादियों से खतरा है। इसका विशेषाधिकार केवल मुझे है और यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि मैं कह सकूं कि यदि लीग की मानसिकता को अपनानेके कारण भारतीय कम्युनिस्ट मेरी नजरों से उतर जाते हैं तो उसी कार्ययोजना को उल्टे सिरे से लागू करने वाले जनसंघी मेरी नजर में ऊपर नहीं उठ सकते। भाजपा अकेली है जो देश और समाज को खंडित चेतना और विघटनवादी प्रवृत्तियों से बाहर लाना चाहती है।
Post – 2017-11-21
फरमा रहे थे आप तो मैं चुप था साहबान
अब आ रही हंसी मुझे हंसने तो दीजिए।
Post – 2017-11-20
वाइज अगर मिले उसे समझाइयेगा आप
वाइज तो बना बैठा है विजडम ही नहीं है.
विद विज में बदल जाता किस कायदे के तहत
पलटी भी लगा लेता है, यह गम भी नहीं है।।
जो घाव कवायद के हैं जाहिर नहीं होते
इनकी न है पट्टी कोई मरहम भी नहीं है।।
डाक्टर तो कोई हो, कहीं एक नर्स तो दीखे
सुनते हैं कहीं कोई हास्पिटल भी नहीं है ।।
Post – 2017-11-20
बात बढ़ती गई थोड़े में जब कही मैने
सब्र करने का भी अंजाम निराला निकला।
हमारे दुर्भाग्य का सबसे खेदजनक पहलू यह है कि हमारा सबसे प्रबुद्ध माना जाने वाला और देश विदेश में इसी रूप में समादृत बुधीजीवी यह तक जानना नही चाहता कि हम कौन हैं? उसे अपने को, अपने समाज को, इसकी भाषा और संस्कृति को समझने से डर लगता है। वह न उस भाषा को जानना चाहता है जिसमे हमारा इतिहास और अपना वह ज्ञान भंडार जो विविध कारणों से नष्ट होने से बच रहा, सुरक्षित है, न उस भाषा में बोलता, सोचता और लिखता है जिसे भारत के लोग बोलते समझते या जिसमें सोचते और लिखते हैं।
संकीर्णता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि विश्व और समग्र मानवता से चेतना के स्तर पर जुड़ चुका बुद्धिजीवी सिकुड़ कर अपने तक सामित रह जाय? उसकी वि
चार शृंखला की कड़ियां इस तरह जुडती हैं:
1. आज ज्ञान विज्ञान में पश्चिम इतना आगे बढ़ गया है कि उसके सामने हमारा अपना ज्ञान इतना तुच्छ है जैसे पहाड़ के आगे राई। वह राई को फेंक कर पहाड़ को हासिल करना चाहता है।
2. भारत की भाषाएं इतनी हैं पर ज्ञान संपदा में अकिंचन हैं, इनमें से किसी एक का ही अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और उसमें पढ़ने को कुछ खास मिलेगा नहीं, उसके माध्यम से हम केवल उस भाषाई समुदाय तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें लिखने वाले का सही मूल्यांकन करने वाले तो दूर, सही पाठक तक नहीं मिल पाएंगे, जब कि अंग्रेजी विशेषज्ञ गोष्ठी (forum) की भाषा है। इसके माध्यम से भारत के भी गंभीर विषयों के उच्च स्तर के अध्येताओं और अधिकारी विद्वानों के साथ सीधे संचार संभव है। उनसे नीचे के स्तर के लोगों की स्तरीय ज्ञान, कला और साहित्य में कोई रुचि नहीं होती।
3. सबसे बड़ी बात यह है कि हमारा सारा पुरातन ज्ञान भंडार वर्णवादी पूर्वाग्रहों से दूषित है। उसको जानना हमारी चेतना का विस्तार नहीं करता अपितु दुराग्रही, संकीर्ण, आत्मकन्द्री और पुनरुत्थानवादी बनाता है। विचार सूत्र इस क्रम में आगे बढ़ता है: आत्मवाद> अध्यात्मवाद> ब्रह्मवाद> ब्राह्मणवाद> हिंदुत्ववाद। इस अवचेतन में दर्ज प्रक्रिया से वह कड़ी-दर-कड़ी सचेत न हो, पर इसकी परिणति या अंतिम कड़ी उछल कर विचार श्रृंखला को इस तरह लिप्त कर देती है कि वह अपने से जुड़े सभी सवालों से बच तो सकता नहीं, जुड़ना विवशता है, इसलिए इनसे परहेज़ करते हुए जुड़ता है, जैसे बच्चे किसी गोंजर या घिनौने या डरावने कीड़े को छूने का सहस तो नहीं जुटा पाते और यदि वह खतरनाक हुआ तो डर कर दूर भागते हैं, पर उसे निरीह पाकर अपनी जिज्ञासा को रोक भी नहीं पाते इसलिए किसी लकड़ी के सहारे उससे छेड़छाड़ करते हैं।
इससे व्यथित होकर वह जिस तरह की प्रतिक्रियाएं करता हे उसी को उसका ज्ञान मान लेते हैं और बाकी की जानकारी उसके रूप, रंग, बनावट और चालढाल को उसमें जोड़कर पूरी कर लेते हैं।
जिसे डरावना पा कर डर कर दूर भागे थे, उसके बारे में उनका समस्त ज्ञान यहीं तक सिमट जाता है कि वह बहुत डरावना है। उसे छेड़ना खतरनाक है, बच कर रहना समझदारी है।
जितने गौर से वे निरीह प्राणी के रूप, रंग, गतिविधि को परख चुके रहते हैं, उतना गौर करने का डरावने, घिनौने या खतरनाक प्राणी के मामले में अवसर नहीं मिलता इसलिए उसकी पहचान में भी ये जानकारियां जुड़ती तो हैं, पर वे कुछ धुंधली होती हैं।
हमारा आंतरिक खगोल इसी तरह की अल्पज्ञात, क्षणिक अनूभूत सूचनाओं की अविस्मृत इकाइयों और कुलकों से भरा होता है जिनमें कुछ अधिक दीप्त और एक सर्वाधिक भास्वर सूर्य से आलोकित होता है और इसमें जब सर्वाधिक भास्वर आलोकित होता है तो दूसरे सभी होते हुए भी अदृश्य हो जाते है परन्तु अदृश्य रूप में सक्रिय रहते हैं, अधिक प्रतापी होते हैं और हमारे चेतन या भास्वर को भी प्रभावित करते हैं और उससे आलोकित को भी,पर हम उनकी भूमिका को न समझ पाते हैं न दर्ज कर पाते हैं।
इस भास्वर को हम अपने आंतरिक खगोल में अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र कह सकते हैं। इसके सभी पक्षों को जानने, समझने का हमने प्रयत्न किया होता है इसलिए हम अपने को इस क्षेत्र का अधिकारी व्यक्ति मानते हैं और दूसरे भी हमें इस रूप में सम्मान देते हैं और हमारी जानकारी से प्रभावित और लाभान्वित होते है।
यह है वह मोटा चौखटा या हाशिया जिस में रखकर हम अपने बुद्धिजीवियों की बुद्धि, कार्य व्यापार, पंगुता, समाजद्रोही भूमिका का मूल्यांकन कर सकते है और समझ सकते हैं उस सर्वमुखी गिरावट को जिसके लिए हमारे बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों से अधिक जिम्मेदार हैं और यदि राजनीतिज्ञ जिम्मेदार हैं तो उनके नैतिक ह्रास में, शिक्षा संस्थाओं के प्राथमिक स्तर से ले कर उच्चतम स्तर तक के खोखले हो जाने तक में इनकी ही निष्क्रियता है, और स्वयं इनके पतन में इनकी राजनीति में अधिक रुचि और विषय में कामचलाऊ दिलचस्पी जिम्मेदार है।
कल देखिये क्या कहता है यह सरफिरा साहब
वैसे तो सरफिरों के तलबगार बहुत हैं।।
Post – 2017-11-19
कुछ था
जो अभी जह्न में आकर उतर गया
शायद तेरा खयाल था,
छिपने की अदा थी।
मैं ढूढ़ रहा था तुझे
जब सामने तू था
मंदिर की घंटियां थीं
अजानों की सदा थी।।
मैं छिपना चाहता था
अलग हो के भी खुद से
ऍक कब्र,
मिली वह न,
ज़िंदगी ही बदा थी।
ऍक दूसरे के दिल में रहें,
फूल खिलायें,
ख्वाहिश थी,
ये ख्वाहिश कभी
तुममें भी कभी थी ।।
Post – 2017-11-18
मैं खुद को प्यार करता हूं
पर इस तरह नहीं
जैसे कि तुम्हें याद
किया करता हूं अक्सर।
मैं सोचता हूं, ठीक है,
यह ठीक ही होगा।
कहते हो, ‘गलत!’
मान लिया करता हूं अक्सर।
Post – 2017-11-18
दुर्भाग्य के भी कितने रूप होते हैं !
(असंपादित)
हमारा दुर्भाग्य यह कि हम सभ्यता के जनक बने। गलत कह गया। कितना कठिन है सच को उसकी ऋजुता में देखना और जैसा दीखा वैसा ही बयान करना।
कितना मुश्किल है आदमी का आदमी होना
खुद को समझाना कि इंसान इसे कहते हैं ।।
‘हम’ की जगह ‘भारतीय भूभाग’ कहना अधिक सही था, जिसकी भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक संपदा के कारण विगत हिमयुग की त्रासदी में यह विविध निपुणताओं वाले असंख्य जनों का आश्रयधाम बन गया और और उनकी आपसी रगड़ से पैदा हुई वह चिनगारी जिसे कृषिक्रान्ति कहा जाता है और जिसने कृषि यज्ञ का पूरे भूमंडल में विस्तार किया और नगरसभ्यता की नींव रखी ? कहना चाहिए था हम का मतलब विश्वसमाज है। एक दारुण आपदा में समग्र मानवता के प्रतिनिधियों के लंबे घर्षण से पैदा हुई थी वह चिनगारी जिससे विश्व सभ्यता का जन्म हुआ
यह भी एक दुर्भाग्य ही था कि मानव कल्याण की दिशा में उठाए गए इस कदम का भी इतना प्रचंड विरोध हुआ और किसी न किसी रूप में लगातार होता रहा । इस जिद में अनगिनत मानव समुदायों ने आगे बढ़ने से ही इन्कार कर दिया। वे भी आज तक इसी भूभाग में बचे हुए हैं?
यदि हम कृषिक्रान्ति को वैज्ञानिक सोच और प्रगति का प्रतीक मानें और प्रकृतिवादियों को यथास्थितिवादी या प्रगति के विरोधी और इसलिए प्रतिगामी तो आज प्रगति और विज्ञान ने जिस सर्वनाशी कगार पर पहुंचा दिया है उसमें यह बहस चल पड़ी है कि प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच वाले अधिक सही हैं या प्रकृतिवादी। प्रकृतिवादियों को आज पर्यावरणवादी कहा जाता है और ये उसी तरह टांग अड़ाते हैं जैसे आरंभिक चरण पर प्रकृतिवादियों ने अड़ाई थी।
हम इस विवाद को स्थगित करते हुए केवल यह कहना चाहते हैं कि प्रकृति प्रदत्त संपदापर निर्भर समाज के भीतर ही एक प्रकृतिभक्त और दूसरे प्रकृति पर विजय के लिए कृतसंकल्प के बीच विभाजन ही न हो गया, सनातन वैर भी ठन गया। प्रगतिशील विचार और क्रियाकलाप पुरातनपंथ पर भारी पड़ता और प्रगति के क्रम में बौद्धिक, भौतिक, सांस्कृतिक स्तर पर जिस तरह का आत्मसंस्कार किया वह जैवजगत के रूपांतरण (metamorphosis) से ही समझा जा सकता है।
इस कठोर विरोध के बाद भी विविध रूपों और अनुपातों में प्रकृतिवादियों से लोग उन्नत समाज में जिसे सभ्य कहा गया उसमें अपनी योग्यताओं के अनुरूप सामाजिक स्तर पर खपते गए।
जिस अनुपात में सभ्य समाज में उनका प्रवेश होता रहा है, उसी अनुपात में कुछ विकृतियों का सभ्य समाज में प्रवेश भी होता रहा है या उनके किसी स्तर पर, किसी रूप में जारी रहने दिया जाता रहा।
इनका आकर्षक पक्ष इनका पाखंड और चमत्कार प्रदर्शन रहा है, और इसके कारण कुछ गुह्य-कृत्य साधना के नाम पर चलते रहे हैं, जिनकी प्रकृति आपराधिक तक हुआ करती है। इन समुदायों को आज की भाषा में हिन्दू समाज का अंग माना जाता है इसलिए ऐसी विकृतियों को भी हिन्दू समाज की विकृति मान लिया जाता है। कुछ को हिन्दू समाज में सह्य और कुछ को ग्राह्य और शेष को त्याज्य मानते हुए उनके साथ अविरोध का संबंध बनाए रखा गया।
हिन्दू समाज पर प्रहार करने वाले हिन्दू समाज की सभी विकृतियों का जनक ब्राह्मणों को सिद्ध करते हुए एक ओर तो ब्राह्मणों को अपराधी सिद्ध करते रहे हैं, दूसरी और धार्मिक विस्तार की अपनी कूट योजना के तहत उन्हें अपने में मिलाने के लिए यह समझाते रहे हैं कि वे हिन्दू नहीं है, हिन्दू तो आक्रमणकारी आर्यों की संतान हैं जिन्होंने उनकी संपदा को हथियाकर उन्हें गुलाम बना लिया था।
भले आर्यजाति की अवधारणा और उसके आक्रमण की बात अब अमान्य हो चुकी हो, ऐसे लोग ऐसी कहानियों को जिलाए रखने के लिए कुछ भी करने को तत्पर रहेंगे। इसका राजनीतिक पहलू यह है कि हिन्दू समाज के प्रति विभिन्न कारणों से दूसरे सभी दलों में संवेदनशून्यता और किंचित वैमनस्य घर कर चुका है। केवल संघ जिसका जन्म ही इस संवेदनशून्यता के कारण हिन्दुओं की रक्षा की चिन्ता से हुआ था, और उसके राजनीतिक संगठन (भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी) हिंदू समाज की पीड़ा या इसके क्षरण, ह्रास, अपमान और अधोगति के प्रति संवेदनशील रहे हैं, इसलिए ऐसी विकृतियों को भी उसके द्वारा प्रोत्साहित या समर्थित बता कर राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयत्न किया जाता रहा है और भाजपा की शक्ति बढ़ने के साथ यह बौखलाहट का रूप लेता चला गया है।
यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि वैदिक समाज और ब्राह्मणवाद तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, गुह्याचार का कटु आलोचक रहा है और इनकी साधना करने वालों को यातुधान, निशाचर, मायावी आदि कह कर उनकी भर्त्सना करता रहा है। इसी के कारण उन्होंने अथर्ववेद को वेद की संज्ञा नहीं दी।
राजनीतिक स्तर पर जातिवाद और संप्रदायवाद, अंधविश्वास से समाज को मुक्त करने की दिशा में वह प्रयत्नशील रहा है। उसने कृषिकर्म के अग्रदूत होने का दावा करके स्वयं उससे विरत होते हुए भी उसका लाभ उठाने का भले प्रयत्न किया हो, पर उसकी चालाकी और आडंबर भी जगजाहिर था।
आज उसका विरोध और प्रतिरोध तक सर्वविदित है, जब कि हिन्दू समाज के भीतरी और बाहरी शत्रुओं की योजनाएं कूट, गुह्य और यातुधानी हैं।
बहक गया पर बेखुदी बे वजह भी नहीं, पर जरूरी नहीं कि इसके लिए परदादारी अपनानी पड़े। कहना यह चाहते थे कि हमारे अतीत की व्याख्या का भार उनके ऊपर है जो स्वयं भार बने हुए हैं और सच्चे मन से मानते हैं कि वे इतिहास को जानते भी हैं। जिस भाषा में प्राचीन इतिहास की सूचनाएं हैं, उसका उन्हें पता नहीं। अपने अज्ञान को उचित सिद्ध करने के लिए, हो सकता है, क्षतिपूर्ति के लिए, वे उस भाषा और साहित्य से नफरत भी करते हों और इस नफरत के कारण अपने को अधिक रौशन खयाल भी मानते हों।
हमारा दुर्भाग्य यह कि हमें किसी अदृश्य साजिश के तहत ऐसे विद्वान मिले जिनमें न अपने समाज की समझ है, न लोकाभिमान, न संस्कृति और रीति-नीति से लगाव और जिन्हें अपने अतीत की विराटता और विश्वदृष्टि का परिचय देना भी चाहें तो इसे समझने की योग्यता तक का उनमें अभाव है। कहते हुए पीड़ा होती है, चुप रहने पर अपमानित होना पड़ता है, इसलिए तथ्यकथन अहंकारजन्य न माना जाए, इसे विवशता समझा जाए।
परन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य था वह समाज जो अल्पशिक्षित था, अशिक्षित था वह किसी रहस्यमय तरीके से अपनी महिमा में इतना सराबोर था कि अपनी भौतिक अधोगति के होते हुए भी, दूसरों से कुछ ग्रहण करने को तैयार न था।
हमारा दुर्भाग्य कि हमने प्राचीन जगत की सबसे टिकाऊ सभ्यता की स्थापना उस चरण पर की जब दूसरे समुदाय बर्बर या अर्ध बर्बर थे इसलिए जब उन्होंने विस्मयकारी वैभव का संग्रह किया तब भी आडंबर के कीर्तिमान तो स्थापित किए पर सभ्यता को अपनी सामाजिकता की पहचान न बना सके। भारत में हुआ इससे ठीक उलट। सभ्यता के उन्मेष में जो कुछ सिरजा और भोगा उसे बहुग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया । इसे कल समझेंगे।
Post – 2017-11-18
प्रतीक्षा
समय आयेगा जब हम कहेंगे
‘समय आ गया
‘जिसकी प्रतीक्षा थी हमें!’
यदि होगा ऐसा समय
किसी भविष्य में
इतिहास में तो अदृश्य है!
_______
बहस
मैं कहूँगा यह सच है
तुम कहोगे ‘गलत’
मैं मान लूंगा, ‘ हम दोनों सही हैं’
तुम मान पाओगे क्या ?
—————-
ओं शांतिः
कविता हमारी जरूरत न रही
हम कविता की जरूरत हैं
वह मर रही है
उसे गंगाजल चाहिए
और लो
गंगा में गंगाजल तक नहीं!