Post – 2017-11-17

मूडी के आकलन का मतलब

समझने में समय लगा. टीवी कम देख पाता हूँ पर एन डी टीवी अवश्य देखता हूँ. इंडियन होने के गर्व के कारण भले वह किन्हीं हितों से जुड़कर भारत द्रोही की भूमिका में क्यों न हो.
उसमे मूडी के भारत विषयक आकलन पर एक उनके प्रिय अर्थशास्त्री के द्वारा विश्लेषण आ रहा था. वह बता रहा था कि १३ साल के बाद पहली बार भारत को इस श्रेणी में पहुँचने का अवसर मिला है. उससे भटकाने वाले कई सवाल किए गए पर उसने बताया कि न तो इसमें कोई मिली भगत है, न आनेवाले चुनाव से इसका सम्बन्ध है, यह मामूली बढ़त है और इस मामूली बढ़त के भी बहुत अधिक लाभ हैं. इसके लिए पिछली सरकार कोशिश करती रही पर यह मान्यता उसे न मिली. ज्यों ज्यों उसके उत्तर धनात्मक आ रहे थे प्रश्न पूछने वालों के चेहरे काले पड़ते जा रहे थे, इसलिए मैं जो अर्थशास्त्री नहीं हूँ उसके लिए इसका अर्थ है :
१. भारत का बुरा चाहने वालों का मुंह काला.
२. भविष्य में इंडिया टीवी को पूरा उत्तर विशेषज्ञ को लिख कर देना चाहिए कि भैये पैसा मुंह माँगा ले ले पर जवाब वही देना है जो मैं लिख कर दे रहा हूँ.

कुछ समय पहले सवाल पूछा जा रहा था कि मनमोहन सिंह बड़े अर्थशास्त्री हैं या मोदी. इसका एक दूसरा पाठ था कि रघुराम राजन बड़े अर्थशास्त्री हैं या मोदी. इसके तीन जवाब मिले :
१. जिस व्यक्ति को नोबेल मिला वह मोदी के प्रयोगों का समर्थक था. इससे मै रघुराम राजन के पांडित्व को हेय नहीं मानता. मूडी ने MODI को अधिक समझदार सिद्ध किया.
२. नटवर सिंह की आत्मकथा से प्रकट हुआ कि वह सत्ता के मोह में चिन्तक रह ही नही गए थे. सोनिया गांधी के इशारे पर उनके कुकर्मों को अपने माथे ढोने से पहले वह विश्वबैंक का ऋण उतारने के लिए अमरीकी इशारों पर नाचते रहे जिसकी और किसी का ध्यान नहीं गया. वह व्यक्ति क्या भारतीय हितों के अनुकूल सही अर्थशास्त्री हो सकता था? अपने निजी हित के लिए अपने देश और अपनी अर्थ व्यवस्था का अहित करने वाला क्या हमारे सम्मान का पात्र हो सकता है? क्या उसकी मोदी से तुलना हो सकती है?
३. मूडी की रपट से पता चला कि मोदी के साहसिक प्रयोग सुदूर जन हित से प्रेरित हैं और वह असाधारण परिस्थितियों का अनुमान करते हुए बनाए गए और सफल सिद्ध हुए है.

इसका एक तीसरा पक्ष है. भारत को यह रुतबा तेरह साल बाद मिला है. इसका जो अर्थ मेरी समझ में आया वह यह है कि :
१. अब तक के तीन सालों को जोड़ लें और कांग्रेस शासन के दश वर्षों को जोड़ लें तो कांग्रेस के शासंन में अर्थव्यवस्था गिरावट के दौर से गुजरी और उसके लाख कूटनीतिक प्रयत्नों के बाद भी इस आकलन में सुधार न आया.
३. तेरह साल पहले भाजपा सरकार थी. अर्थात तब हमारी दशा अच्छी थी.
४. उससे पहले चंद्रशेखर की सरकार थी जब हाल इतने विकराल थे कि देश का सोना गिरवीं रखने की नौबत आ गई थी.

दूसरे सवाल उठेंगे तो उन पर विचार होगा पर अर्थशास्त्र से अनभिज्ञ इस अनाडी को क्या कोई यह समझाएगा कि
१. भाजपा के शासन काल में सबसे अच्छ्रे दिन क्यों आते हैं?
२. सबसे कम दंगे क्यों होते हैं?
३. साम्प्रदायिकता, जातिवाद और क्षेत्रवाद से मुक्ति के प्रयत्न क्यों होते हैं?
४. प्रभावशाली विपक्ष में रहते हुए भी वह संसदीय मर्यादा का निर्वाह कैसे करती है जिसका निर्वाह दूसरे नही कर पाते.
५. इतने मर्यादित आचरण के बाद भी उसे फासिस्ट कहने वाले किस पिनक में रहते हैं?
समझ कम है. मैं जानना चाहता हूँ. कोई मेरी मदद करेगा?

Post – 2017-11-16

यूं ही बर्वाद हुए थे हम भी
सोचा था हम भी किसी काम के हैं।
गलत नहीं थी सोच, पर देखो,
पता चला किसी के काम के हैं।

Post – 2017-11-16

कितना मुश्किल है आदमी का आदमी होना
खुद को समझाना कि इंसान इसे कहते हैंं ।

कितना आसां है यह बतलाना कि यह शह्र ही है
और समझाना कि इंसान यहां रहते हैं ।।

कितना आसान है कहना कि मेरी जान हो तुम
शिकवे करना कि तेरा जुल्मो सितम सहते हैं।

कितना मुश्किल है दिलो जां को बचाए रखना
सुना लोगों से है पर हम भी यही कहते हैं।।

Post – 2017-11-15

का छबि बरनूं आपनी

मेरी यातना का दौर माई की पहली सन्तान पैदा होने के बाद आरंभ हुआ। अब तक मैं पांच साल का हो चुका था। दिन महीने की कमी बेसी का हिसाब नहीं। किसी बालक के लिए नवजात शिशु से अच्छा कोई खिलौना हो नहीं सकता। मुझे याद है मेरे एक मित्र की चार पांच साल की बच्ची निर्जीव खिलौनों से तंग आकर कहती, ‘मुझे एक जिन्दी गुड़िया चाहिए।’ उसकी इस टिप्पणी पर हम हंसा करते थे। परंतु मेरे मामले में यह मेरी यातना का कारण बन गया।

सौतेली संतानों को झेलने की यातना के बाद माई को अपनी संतान मिली थी। उसे किसी तरह का कष्ट नहीं होना चाहिए । और इसकी पूर्ति के लिए उसे किसी की गोद से नीचे उतरना नहीं चाहिए। रसोई से लेकर घर के दूसरे झमेलों के समय उसे गोद में लेकर झुलाने टहलाने का बोझ मुझ पर। कुछ ही समय में जाने कैसे उसने ऐसी आदत डाल ली कि उसे गोद में लिए सुस्ताने के लिए खड़ा भी हो जाऊं तो वह रोने लगती थी। गोद में ढोने की यातना तक बात समझ में आती है, परन्तु अगली शर्त यह कि अगर बच्ची रोई तो मेरी खैर नहीं। यह याद नहीं कि उसके रोने पर कभी कोई दंड इस बात के लिए मिला हो कि बच्ची रो क्यों पड़ी, पर इस आदेश की कठोरता ही सिर पर लटकती तलवार जैसी दहशत में रखती।

इस यातना को बीभत्स हास्यास्पदता तक पहुंचाने वाले दो और तत्व थे जिनमें एक हमारी सांस्कृतिक जड़ता भी शामिल थी।

बच्चे या तो नंगे रहते, या भगई पहनते, और फिर काफी छोटी उम्र में ही धोती संभालनी पड़ती।

इसमें भगई का अर्थ और रूप समझने में शायद आपमें से कुछ लोगों के कठिनाई हो। एेसे लोगों को जापान के सूमो पहलवानों के पहनावे से उसका पूरा चित्र ही सामने नहीं आजाएगा, साथ ही यह भी पता चल जाएगा कि कि मल्लयुद्ध की कला जापान में भारत से बौद्ध भिक्षुओं के माध्यम से पहुंची थी।

भिक्षु जिस भगवा को धारण करते थे, वह वास्तव में यही भगई था। अपरिग्रह को बुद्नेध ने किस सीमा तक पहुंचा दिया था, उसका एक उदाहरण बौद्धों का भगवा था और दूसरा यह विधान कि पानी का पात्र तब तक न बदली जाएगा जब तक उसमें इतनी टूट फूट नहीं हो जाती। इसी का एक रूप यह भी था कि श्मशान में फेंके हुए वस्त्र को भी वे अपने उपयोग में ले सकते थे। इसे रोगाणुमुक्त करने का एक ही तरीका था गेरू या हल्दी के रंग में रंगना जिससे इन रंगों में रंगे वस्त्र के लिए गैरिक, गेरुआ, या भगवा (सूर्यवर्ण) हल्दी या टेसू या केसर के रंग में रंगा वस्त्र का प्रयोग होता था।

इसी से केसरिया वस्त्र पहन कर प्राणाहुति देने वालों को सीधे सूर्यलोक (स्वर्लोक/ स्वर्ग) पहुंचने का राजपूती विश्वास जुड़ा है, और संभवत: अग्निसात् होकर सतियों के स्वर्गलोक जाने का विश्वास भी।

सूमो पहलवानों के मल्लयुद्ध और इस बाने की प्राचीनता के विषय में कुछ बातों का निराकरण जरूरी लगता है।

पहला यह कि सूमो पहलवानों की भगई को भगवा कहा जाता था। भिक्षु और प्रचारक इसी वेश में रहते थे और सभवत: भगवान बुद्ध भी इसी वेश में रहते थे। उनके लिए भगवा और भन्ते का प्रयोग हुआ है, बौद्ध साहित्य में भगवान का प्रयोग नहीं हुआ है। इस वस्त्र के कारण ही बुद्ध भिक्षुओं के लिए . स्त्रियों के सम्मुख न जाने, जाना ही पड़ा तो न देखने, देखना ही पड़ा तो न बोलने आदि की शर्तें रखते हैं और सूमो पहलवान भी स्त्रियों से उसी तरह दूरी बनाकर रखते हैं।

दूसरी बात यह कि भारतीय इतिहास में इंपोर्ट का कारोबार करने वाले यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि मल्लयुद्ध भारतीयों ने यूनानियों से सीखा, वह बकवास है। मैं उलट कर यह नहीं कहता कि यूनानियों ने भारत से मल्लयुद्ध से सीखा। कहना केवल यह है कि मल्लयुद्ध का बहुत जीवन्त चित्रण ऋग्वेद में इन्द्र और वृत्र के युद्ध में हुआ है और यदि आप यह जानना चाहें कि योद्धा का हमारा आदर्श क्या था तो फिर सूमो पहलवानों से ही मदद मिलेगी। ऋग्वेद में इन्द्र का चित्रण देखें:
पृथु ग्रीवो, वपोदरो, सुबाहु: अन्धसो मदे, इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते।

इसमें गौर करें तो मोटी गर्दन, बढ़े हुए पेट और मोटी भुजाओं का उल्लेख है। भीम का एक नाम वृकोदर या तोंदवाला है। आगे आप जानें आप की समझ जाने।

और लीजिए इसी में एक सवाल और पैदा हो गया, ‘प्राचीन मूर्तियों में तो हम बुद्ध को लहरिया उत्तरीय से सज्जित, धोती धारे, सहस्रार पद्म पर पालथी मारे बैठे देखते हैं। तुम पुरातात्विक साक्ष्य की अनदेखी कैसे कर सकते हो?’

सवाल तो अनेक पैदा होंगे जिनका जवाब देने की योग्यता ही नहीं, पर यह निवेदन करें कि यह कुछ पेचीदा मामला है। ये प्रतिमाएं इंडोग्रीक प्रभाव में रची मानी जाती हैं। मेरा निवेदन है कि इसे बुद्ध के जीवन से न जोड़ कर अशोक और कनिष्क आदि के द्वारा बौद्धमत को मिले संरक्षण और प्रेत्साहन से जोड़ कर समझा जाना चाहिए जिसमें मठों की समृद्धि बढ़ गई थी और जीवनशैली बदल गई थी। इसमें शिल्प यूनानी है और शैली भारतीय। बुद्ध का लहराता उत्तरीय भारत के परंपरागत चुन्नट का शिल्पांकन है। काया के अनुपात और संतुलन में यूनानी शिल्प है, परन्तु धोती या साड़ी को चुनियाना, एक निश्चित माप पर मोड़ते हुए एंठना अभी आज भी खत्म नहीं हुआ है और यह शैली भारत से यूरोप तक फैली थी। यूरोप में सूती वस्त्र भारत से आयात किए जाते थे और उनमें ही यह चुन्नट पड़ सकती थी।

एक छोटी सी व्यक्तिगत हीनता की स्वीकृति से बचने के लिए मुझे इतिहास की कितनी परतों को खोलना पड़ा, या यूं कहें कि अपने अनुभवों से बाद के ज्ञान और तथ्यों को दूसरों से अलग और अधिक गहनता से समझना पड़ा और इतिहासकार न होते हुए भी इतिहास की पुरानी समझ को बदलना पड़ा तो गलत न होगा।

कहना यह था कि उन दिनों बच्चों की धोती होती तो अलग थी पर उसे बांधने का मुझे शऊर न था। बांधता अपनी समझ से ठीक ही था पर चलते समय सरकने लगती। दुर्गत तब होती जब एक बगल में एक बच्ची को दबाए हुआ हूं, दूसरी बांह से सरकती हुई धोती को ऊपर सरकाते हुए उस अवस्था में पहुंचा देता जहां वह भगई बन कर रह जाती।

याद नहीं किसने इसे गढ़ा था पर कुछ बाद तक मुझे चिढ़ाते हुए कुछ लड़के गाते,
ए भगवान
तुहार भगई पुरान
भगतिनिया के तुमड़ी
बजावें सीता राम।
गाने वालों का नाम याद नहीं। गाना याद है। पर सोचता हूं जिसने भी इसे गढ़ा था क्या उसमें काव्य प्रतिभा मुझसे कम थी? उत्तर नहीं में निकलता है।

इस बानक में चार चांद तब लगता जब नाक वह काम करने लगती जिसके लिए परमात्मा ने उसे बनाया था और मैं दुष्ट मानव के आविष्कृत तरीके का इस्तेमाल करते हुए सांस के बल पर उल्टी गंगा बहाने की कोशिश करता और इसके बाद भी धार न रुक पाने पर बंहोरियों को ही रूमाल की तरह इस्तेमाल को बाध्य हो जाता और इस क्रमिक अभ्यास से बहोरी चीकट हो जाती।

लंबे समय तक और वह भी छोटी उम्र से किसी काम में लगने के कारण कायिक परिवर्तन हो जाते हैं। नाम याद नहीं, पर कुबड़े की सफल भूमिका के लिए एक कलाकार वर्षों बालूभरी बोरियां कंधे पर रख कर कुबड़ा बनने का अभ्यास करता रहा। पोषित (टेम्ड) जानवरों से भिन्न, पालतू (डोमेस्टिकेटेड) जानवरों में कायिक परिवर्तन इसी तरह हुए हैं। हो सकता है सधी चाल की जगह कुछ झूम कर चलने की मेरी आदत में बचपन से ले कर कुछ बाद तक बगल में किसी शिशु को संभालने की विवशता में संतुलन बनाए रखने का भी हाथ हो।

मैं थक कर पस्त हो जाता, चलना मुश्किल हो जाता तो चुपके से चिकोटी काटता जिससे वह रोने लगती और मैं घिघियाकर कहता, ‘भुखाइल बाऽ ।’ यह जुगत काम कर जाती। कुछ समय को आराम मिल जाता और मै उस अवसर का लाभ उठाकर वहां से खिसकने की कोशिश करता । कई बार कुछ समय के लिए खिसक भी लेता, फिर अपने आप हाजिर हो जाता कि कहीं इसे मेरी बहानेबाजी समझ कर वह मुझे दंडित न करे।

Post – 2017-11-14

पत्थर की नजर. पत्थर का जिगर
पत्थर की जहन है क्या कहिए।
जो देखा, समझा बोला था
उसमें न बदल है. क्या कहिए ।।

हम पीटते थे, अब पिटते हैं
हम तोड़ते थे, अब टुकड़े हैं।
हम जीत रहे थे, हार गए
फिर भी ये अकड़ है क्या कहिए।।

देखा तो अंधेरा दीखेगा
सोचा तो ढकेले जाएंगे
बोला तो बगावत का सबूत
बस शोर है हासिल क्या कहिए।।

( भारतीय कम्युनिस्टों को समर्पित)
14.11.17

Post – 2017-11-14

आपबीती- जगबीती

हमारे ज्ञान के स्रोत ही हमारे संवेदन और आनंद के स्रोत भी है और वेदना और यातना के स्रोत भी। अंतर मात्रा और प्रकृति के कारण पड़ता है।

यहां प्रकृति से हमारा तात्पर्य स्वभाव या बाह्य से नहीं अपितु तरीके से है। स्नान आनन्द के स्रोतों में एक है। जल और वायु का स्पर्श, स्पर्श के कोमलतम रूपों में आता है, इसलिए जलक्रीड़ा आनंद और उल्लास से भर देती है। किसी ऐसे वाहन की सवारी जिसकी तेजी के कारण वायु हमारे शरीर का स्पर्श करती गुजर, हमें पुलकित कर देती है।

स्नान और मालिश में द्रव के स्पर्श के साथ हाथ का स्पर्श भी जुड़ जाता है। यह कितना आनंददायक होता है इसे किसी शिशु के मालिश के समय के उल्लास और अंगचेष्टा से या नहाने के कठौते में उसकी छपकोरियों से समझा जा सकता है। आनंद द्रव के सही ताप और स्पर्श के सही दबाव और घर्ष पर निर्भर करता है, जिससे हिंसक पशु तक आप के वशीभूत हो जाते हैं पर ताप, दबाव और घर्षण को प्रखर बना कर इसे असह्य और त्रासद भी बनाया जा सकता है और वशीभूत को प्रचंड भी बनाया जा सकता है। अशक्त और निरुपाय के मन में दहशत इस तरह भरी जा सकती है कि वह इस यन्त्रणा से बचना चाहें और ऐसी स्थिति में रहना उसे अधिक सह्य लगे जो ऐसे अनुभव के अभाव में विकर्षक लगे।

मलिनता और स्वच्छता के बीच यह बहुत महत्वपूर्ण विभाजन रेखा है, यद्यपि यह एकमात्र कारण नहीं। इसकी दूसरी भेदक रेखा आर्थिक है और आर्थिक दुरवस्था यदि समाज के किसी वर्ग. वर्ण या स्तर पर प्रखर हो तो हमारा ध्यान सामाजिक पक्ष पर ही अधिक जाता है। जो भी हो, यह एक कड़वी सचाई है कि कुछ स्तरों से नीचे के समाज के लिए पेय जल तक की उपलब्धता एक समस्या होती थी, स्वच्छता के लिए जल लगभग दुर्लभ होता था। पहले की स्थिति बदली है, पर पूर्णत: संतोषजनक नहीं कही जा सकती।

मेरी मलिनता के लिए मेरी मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां अधिक जिम्मेदार थीं । माई जिस तरह नहलाती थी उसमें मैल हटाने से अधिक चमड़ी उतारने और हाथ पांव मरोड़ने की युक्तियों पर अधिक ध्यान रहता था, और मेरी हर संभव कोशिश इस यातना से बचने की होती।

मेरा अनुमान है कि अघोरी पंथ अपनाने वाले साधकों को या तो शैशव मे ऐसे ही दारुण अनुभवों से गुजरना पड़ा होगा. या वे समाज के उन स्तरों से संबंध रखते रहे होंगे जिन्हे कृत्रिम-जलस्रोतों से वंचित€और प्राकृतिक स्रोतों – नदी, नाला, तालाब पर या खेतों में सिंचाई के लिए खुदे कच्चे या पक्के कुएं पर निर्भर रहना होता था, जो अक्सर काफी दूर होते हैं, इसलिए वे चाह कर भी स्वच्छता का निर्वाह नहीं कर पाते और मलिनता में रहने को बाध्य होते है। वे गंदगी से समझौता कर लेते है? तान्त्रिक साधना, शवसाधना में जाने वाला शेष हिस्सा इनमें से आता रहा है। इसमें साधना और ब्रह्मज्ञान गौण और अपनी हीन भावना की क्षतिपूर्ति का संकल्प अधिक प्रबल होता है।

मेरे मामले में इसमें एक और तत्व जुड़ गया था – उपेक्षित होने का बोध।

बच्चों की देखरेख पर ऐसे परिवारों में जिनमें दादी नानी की छत्रछाया न हो, मां तक न हो, बच्चे टूअर कहे जाते थे। इसका प्रयोग मैंने अपने लिए कई महिलाओं से सुना था लेकिन इस समय केवल रामदास तेली की पत्नी का ही चेहरा याद आ रहा है। टूअर बच्चे काे अपना आत्मीय कोई नहीं दिखाई देता। परिजनों द्वारा उन पर इतना कम ध्यान दिया जाता है कि उन्हें लगता है उनका जिन्दा रहना उनकी अपनी जिम्मेदारी है और परिजन उन्हें लाचारी में झेलते हैं। यदि वे न रहें तो उन्हें कोई दुख न होगा। यह बोध मुझमें था।

दो

किसानी अर्थव्यवस्था का एक आत्माभिमानी पक्ष यह था कि वह अपनी उपज, अपने आसपास की उपज से ही अपना काम चलाना चाहता था। वे कितने भी खराब हों, उनकी जगह अच्छी चीज बाजार से खरीदना असम्मान की बात समझी जाती। इसलिए ऊनी के नाम पर भेंड़ के मोटे खुरदरे कंबल के अतिरिक्त किसी अन्य ऊनी कपड़े, शाल या कंबल का प्रयोग करते किसी को नहीं देखा। कंबल बिछाने के काम आता, ओढ़ने के नहीं।

अनेक समाजों में लोगों ने लंबी साधना से शीत को सहन करना सीख रखा था। कहते हैं आस्ट्र्रेलिया के आदिमजन अपने रेगिस्तान की शून्य से नीचे की ठंढ में नंगे सो लेते हैं और कभी हमारे पूर्वज भी निर्वस्त्र रहते थे। हम तन ढकना और आग का उपयोग बहुत पहले सीख चुके थे, इसलिए हमें ठंढ भी लगती थी, पर उतनी नहीं जितनी ऊनी पहनने वालों को लगती थी। (2)

बाबा केवल जाड़े में मिरजई पहनते थे, ऊपर से मोटा रुईभरा और उसके बाद मोटी रजाई के भीतर भी उन्हें ठंढ लगती थी। फिर भी वह मानते थे कि बच्चों को ठंढ नहीं लगती। वह एक ठंढ का एक फिकरा दुहराते थे:
लड़कन के छुअब नाहीं जवान मोर भाई
बुढ़वन के छोड़ब नाहीं, केतनो ओढ़ें रजाई।

इस सूक्ति का दुखद पक्ष यह था कि बच्चों को ठंढ से बचाने पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता था। जिन पर कुछ ध्यान दिया जाता था उनके लिए भी गांती और कुलही से आगे की सुविधा न होती। सुबह शाम कौड़े (अलाव) का सहारा और रजाई में दुबकना। माघ के महीने में बूढ़े और कमजोर चौपाए मर जाते थे। यह तथ्य वैदिक काल से ही सर्वविदित था – अघासु हन्यते गावः । छोटे बच्चे कितने मरते, इस पर किसी का ध्यान न गया, फिर भी यह सर्वविदित तथ्य है कि भारत में बाल मृत्यु दर बहुत अधिक थी और औसत आयु बहुत नीचे थी। संभव है इसमें ठंढ से बचाव की अपर्याप्तता भी एक कारण रही हो। जो झेल गया बचा रहा, फिर भी जीवट पर इसका असर पड़ता ही था।

ठंढ अपना काम करेगी तो नाक भी नाक अपना काम करेगी। कुछ लोगों को भ्रम है कि नाक सांस लेने के लिए बनी है लेकिन मुझे उस छोटी उम्र में ही इस रहस्य का पता चल गया था कि परमात्मा ने नाक बहने के लिए बनाई थी। यह आदमी की शैतानी है कि वह इससे सांस भी लेता है। रही सही कमी मक्खियां पूरा करना चाहतीं । इसको पहले से ही भांप कर परमात्मा ने उन्हे भगाने के लिए दो हाथ भी बना दिए। गाॅड इज रीअली ग्रेट।

______________________
€ कूप, पुष्कर, बावड़ी – जिनके निर्माण पर धन लगा था।। उसे धन लगाने वाले अपनी संपत्ति मानते थे और उसको मनचाहे ढंग से उपयोग करने का अधिकार रखते थे। अब ठाकुर का कुआं ठाकुर का कुआं नहीं रह जाता, वह किसी या किन्हीं की संपत्ति बन जाता है और जिसकी या जिनकी संपत्ति बन जाता है, वे उसका जैसा उपयोग करना चाहें कर सकते हैं। निजी संपत्ति के समर्थकों को इस पर आपत्ति करने का अधिकार नहीं । इस समस्या के सबसे अहम पहलू को न तो प्रेमचन्द ने समझा न अंबेडकर ने। उनका ध्यान केवल सामाजिक पक्ष की ओर गया जब कि सामाजिक का आर्थिक पक्ष अधिक निर्णायक है। उदाहरण के लिए यदि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी होती कि वे कुआं खोदने का खर्च उठा सकें, अपने मन्दिर बनवा सकें तो न तो उन्हें ठाकुर के कुएं से शिकायत होती, न पंडित के मन्दिर की। मैने अपना जीवन अनुभवों को निकष बना कर उन्ही समस्याओं को कुछ भिन्न रूप में समझा है और इसीलिए बहुमत की चिन्ता किए बिना उन पर ही भरोसा करता हूं।

(2) हम सुनते हैं कि हम पांच हजार साल पहले सभ्य हो गए थे, और मैं यह जानता और मानता हूं हमने पन्द्रह हजार साल पहले सभ्यता की नींव रखी और दुर्दांतता से बचते हुए उस सभ्यता को विकसित किया था जिसमें विश्वसंपदा समस्त जीव जगत के लिए थी, और जिसका सामना उन जीवनदृष्टियों से हुई जिसमें सब कुछ उसके लिए था, जिसमें व्यक्ति या समुदाय, गर्हित तरीके अपना कर भी, सबका संहार करके भी, सब कुछ अपने लिए जुटा लेने को परम उपलब्धि मानता था।

Post – 2017-11-13

इक जंगल नया उगाना है।
इक परबत नया उठाना है।
इंसान का मिटना तो तय है
कुदरत को सिर्फ बचाना है।।
हम मिट भी गए कुछ बच तो रहे
उस पर अपना दसखत तो रहे
पावों के निशान रहें न रहें
अंगुश्त का चिन्ह बचाना है।।

Post – 2017-11-12

यहीं कहीं है मेरा आफताब खोजो तो।
उसे न खोजो तो मुझको जनाब खोजो तो।

बहुत मुमकिन कि हम गुम हों एक दूजे में
फर्क करने को कोई आसमान खोजो तो।।

कई मौतो के बाद ऐसी जिंदगी पाई
इससे भी है कोई ऊंचा मुकाम खोजो तो।।

मैंने तो खोजा और थक भी गया, कुछ न मिला
तुममें है जोशो जुनूं, नौजवान खोजो तो।।

Post – 2017-11-12

युगों से वही शेर ललकारते हो
उधर शेर बकरा बना जा रहा है।
गरजते हुए बात करते हो लेकिन
जो सुनते हैं कहते हैं मिमिया रहा है।

Post – 2017-11-11

आधे लोग इधर, आधे लोग उधर
मैदान में कोई नहीं ।
आधे लोग निंदक, आधे प्रशंसक
आलोचक कोई नहीं।
निंदक निंदक की सुनते, प्रशंसक प्रशंसक की
लोगों की कोई नहीं।
दहाड़ों, चीत्कारो, फूत्कारो के घोल से रचा
सांय साेय करता आधुनिक जंगल का सन्नाटा
डरावना अंधकार भरी दोपहर का
सभी प्राणी झुंड में डरे हुए फिर भी तलाशते शिकार ।