Post – 2018-10-09

#ब्रिटिश_भेदनीति की भूमिका

हम अक्सर लोगों को यह शिकायत करते पाते हैं कि अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपना कर हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाया, जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा अपराध किया। इसके साथ उठने वाले जरूरी सवालों कोहम उठाते ही नहीं। वे सवाल हैं:
१. जब हमेंपता चल गया कि वे हमें बांट कर लड़ा रहे हैं, तब हम उनकी चाल से बचे क्यों नहीं, आपस में लड़े क्यों? इसका जो उत्तर है उसका सामना करने से टहम कतराते है।
२. अंग्रेजों के चले जाने के बाद क्या हम उसी नीति का निर्वाह करते हुए अपने समाज को बांट और लड़ा नहीं रहे है? यदि हां तो उन्हें दोष कैसे दे सकते हैं?
३. क्या हम नहीं जानते कि किसी ने भेद नीति का प्रयोग करते हुए हमें भारी से भारी क्षति पहुंचाई हो तो भी हम इसके लिए उसे दोष नहीं दे सकते, क्योंकि इस हथियार का आविष्कार इस देश ने, इसके ब्राह्मणों ने किया था जिनके पास शिक्षा और बुद्धि कौशल तो था, परंतु बाहुबल, धनबल या श्रमबल नहीं था। उत्पादन कार्य में अक्षम और दूसरों को बाध्य करने की शक्ति के अभाव में ब्राह्मणों ने साम और भेद नीति का आविष्कार किया और इन्हीं के बल पर वर्णव्यवस्था में अपने को सर्वोपरि बनाए रखने में और अपने को चुनौती देने वाली विचारधाराओं को परास्त करने में सफल रहे।

हमारा कथा साहित्य और नीति साहित्य साम और भेद नीति के प्रयोग की कहानियों और सूक्तियों से भरा पड़ा है। उसमें दाम दंड को नाममात्र को ही स्थान दिया गया होगा। पश्चिमी जगत ने इसका प्रयोग हिंदू ग्रंथों से परिचय के बाद धर्मप्रचार और साम्राज्य विस्तार दोनों के लिए ब्राह्मणों जैसी ही सफलता से किया।

इससे पहले वे दंड या बलप्रयोग से ही धर्मांतरण तक कराते थे। यही हाल मुसलमानों का भी था। राजनीतिक तथा सामरिक सफलता के लिए धोखेबाजी और उत्कोच का प्रयोग उन्होंने अवश्य किया था धोखाधड़ी का प्रयोग नि:संकोच करते थे जिसे वे विज्ञान की संज्ञा देते थे। भेदनीति और धोखाधड़ी में अंतर है। धोखाधड़ी और रिश्वत या उत्कोच भारतीय कूटनीति मे अकल्पनीय हैं इसलिए यदि कहीं इनका प्रयोग हुआ हो तो भी इनकी चर्चा नहीं आयी। यह स्पष्टीकरण इसलिए जरूरी था कि कोई इन्हें दाम और भेद का रूपभेद न समझ ले। धोखाधड़ी या छल की सचाई सामने आने के बाद मोहभंग हो जाता है और प्रतिहिंसा की भावना उत्पन्न होती है, जबकि भेद नीति में असर इतना गहरा होता है वह हमारी अंतः चेतना का अंग बन जाता है। यह ऊपर से दीखे नहीं भीतर चकनाचूर करने वाली और लंबे समय के बाद ही कभी भरने वाली चोट है। कुछ दूर तक ब्रेनवाशिंग से मिलती जुलती है परंतु ब्रेनवाशिंग एक ही बात को बार बार दोहरा कर झूठ को सच में बदलने की क्रिया है और ब्राह्मण इसका भी प्रयोग बहुत पहले से करते रहे जबकि पश्चिम में बीसवीं शताब्दी के मध्य में पहली बार इसकी धूम नाजियों के प्रचार में देखने में आई।

ईस्ट इंडिया कंपनी के कूटविदों ने इसका प्रयोग लगभग मनुस्मृति के पुराने रूप जिसे उन्होंने Gentoo Law की अवमाननापूर्ण संज्ञा दी थी (अठारहवीं शती के अन्तिम चरण ) से परिचित होने के बाद आरंभ किया।
[[पहले कंपनी ने इसे केवल अपने प्रयोग के लिए गुप्त दस्तावेज के रूप में रखा था पर जल्द ही इसकी प्रति किसी अन्य के हाथ लग गई और उसने इसका सार्वजनिक प्रकाशन करा दिया था। ( It was translated into English with a view to know about the culture and local laws of various parts of Indian subcontinent. It was printed privately by the East India Company in London in 1776 under the title A Code of Gentoo Laws, or,Ordinations of the Pundits. Copies were not put on sale, but the Company did distribute them. In 1777 a pirate (and less luxurious) edition was printed; and in 1781 a second edition appeared. Translations into French and German were published in 1778. It is basically about the Hindu law of inheritance (Manusmriti) Wikipedia) बाद में सर विलियम जोन्स ने तर्क पंचानन की मदद से इसका आधिकारिक अनुवाद प्रकाशित किया, यह हम देखआए हैं]]

भारत पर उन्होंने अपनी विजय भारतीय सैनिकों की सहायता से हासिल की थी, प्रशिक्षण पद्धति अवश्य उनकी अपनी थी। परंतु उनकी सबसे बड़ी समस्या जीते प्रदेश में नियंत्रण और व्यवस्था बनाए रखने की थी। प्रशासन वे भारतीयों के हवाले करने को तैयार न थे। आरंभ में तो यह प्रशासन से अधिक खुली लूट थी जिससे कंपनी के अधिकारी स्वयं भी मालामाल हो रहे थे। वे प्रशासन के साथ निजी व्यापार भी करते थे और विश्वास किया जाता है कि भाव बढ़ाने के लिए चावल की उनकी ही जमाखोरी से बंगाल का वह महा अकाल आया था जिसमें उसकी आबादी की दोतिहाई का सफाया हो गया था।मुसलमानों के आक्रोश और विद्रोह के कारण व्यवस्था बनाए रखना एक टेढ़ी समस्या थी। इसकी गंभीरता का कुछ परिचय मैकाले के उस भाषण के एक अंश से मिल सकता है जिसका हवाला मैं पहले भी दे आया हूं।
That Empire is itself the strangest of all political anomalies. That a handful of adventurers from an island in the Atlantic should have subjugated a vast country divided from the place of their birth by half the globe; a country which at no very distant period was merely the subject of fable to the nations of Europe; a country never before violated by the most renowned of Western conquerors; a country which Trajan never entered; a country lying beyond the point where the phalanx of Alexander refused to proceed; that we should govern a territory ten thousand miles from us, a territory larger and more populous than France, Spain, Italy, and Germany put together, a territory, the present clear revenue of which exceeds the present clear revenue of any state in the world, France excepted; a territory inhabited by men differing from us in race, colour, language, manners, morals, religion; these are prodigies to which the world has seen nothing similar. Reason is confounded. We interrogate the past in vain. General rules are useless where the whole is one vast exception. The Company is an anomaly; but it is part of a system where everything is anomaly. It is the strangest of all governments; but it is designed for the strangest of all empires. (The Miscellaneous Writings, Speeches and Poems, Volume 3)
संभवत: मैकाले को भी इस बात का इस व्याख्यान के समय तक पता न रहा हो कि कंपनी के हाथ कौन से कूटनीतिक औजार आ चुके हैं और उन पर अमल हो रहा है। भेद नीति का प्रयोग हेस्टिंग्स के जमाने से समय से ही आरंभ हो गया मनुस्मृति के पुराने संस्करण के बाद ही हेस्टिंग्स समझ में यह रहस्य आया था जब उसने कहा था कि जिस देश पर शासन करना है उसकी भाषा, संस्कृति और इतिहास को जानना जरूरी है और उसके बाद ही वह लश्कर तैयार हुई थी जिसे हम प्राच्यवादी कहते हैं। इसके कुछ ही बाद आरंभ हुआ था फोर्ट विलियम कॉलेज**जो इस कूटनीति का अखाड़ा बना था।

आगे हम देखेंगे कि बांटने और टकराव पैदा करने के लिए के लिए क्या हथकंडे अपनाए गए और सर सैयद कैसे इसके शिकार होते चले गए।

{पाद टि. ** इसकी स्थापना १० जुलाई सन् १८०० को तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड वेलेजली ने की थी। इस संस्था द्वारा संस्कृत, अरबी, फारसी, बंगला, हिन्दी, उर्दू आदि के हजारों पुस्तकों का अनुवाद हुआ।
कुछ लोगों ने इस संस्थान को भारत में भाषा के आधार पर भारत के लोगों को बांटने का खेल खेलने का अड्डा माना है। …. फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी भाषा जाँन बोर्थ्विक गिलक्रिस्ट (1759 – 1841) के निर्देशन में सुचारू रूप से चला। वह उर्दू, अरबिक एवं संस्कृत का भी विद्वान था।}#

Post – 2018-10-09

#सर_सैयद_अहमद का मूल्यांकन

हमारी आलोचना में संतुलन की कमी रही होगी जिससे कुछ लोगों के मन
में सर सैयद के व्यक्तित्व की गलत छवि बनी। आलोचना तो आगे भी जारी रहेगी पर मैं दूसरे पक्ष को सामने लाना जरूरी समझता हूं।

हम पहले कह आए हैं कि मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति बहुतअधिक घृणा थी इसलिए उनका विरोध और विद्रोह कभी थमा ही नहीं। इसने अंग्रेजों की हर चीज – उनकी भाषा, पोशाक, संस्थाएं और मूल्यप्रणाली, यहां तक कि वैज्ञानिक सोच और तर्कपद्धति सभी से नफरत का रूप ले लिया और इसके कारण वे दुहरी मार के शिकार हुए। एक ओर एक एक कर सत्ता गई और दूसरी ओर नई सत्ता के भीतर जो अवसर मिल सकते थे उनसे भी वंचित होना पड़ा।

सर सैयद अहमद की भूमिका यहीं आरंभ हुई जिन्होंने रईसों की दिनो दिन बिगड़ती हालत सुधारने के लिए बीती बातें भूल कर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेज भक्ति का रास्ता अपना कर अपनी दशा सुधारने का रास्ता अपनाने का अभियान चलाया। हमारे हित उनसे भले टकराते हों, उनकी अपनी स्थिति में अपने को डाल कर देखें तो वह एक असाधारण प्रतिभा और उच्च नैतिक आदर्शों के व्यक्ति थे। उनके प्रति मेरे मन में सम्मान है और उनकी तीखी आलोचना करते हुए भी यदि कोई उनके लिए अपमानजनक शब्द का प्रयोग करता है तो मुझे खिन्नता होती है। उन्हें दिल्ली के बादशाह, इंगलैंड की महारानी से लेकर हिन्दुस्तान की सरकार तक से उपाधियां इतनी मिली थीं कि उनकी माला पहणन सकते थे, पर उनको वह महत्व न देते थे। 1857 में अंग्रेज परिवारों की प्राण रक्षा के बदले सरकार ने उन्हे रियासत देने का प्रस्ताव दिया, उन्होंने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बदले की कार्रवाई में अंग्रेजों ने जो जुल्म किए उनमें उनकी मां को अस्तबल में छिप कर जान बचानी पड़ी, दूसरे सभी संबंधी मारे गए। मां को वह लाने में सफल रहे पर वह बच न पाईं। इतना जहर पी कर भी उन्होंने कौम की भलाई के लिए अंग्रेजों से मेल बढ़ाने, आधुनिक शिक्षा हासिल करके, रईसी छोड़ कर उद्योग धन्धे अपनाते हुए आर्थिक दशा सुधारने का आंदोलन अकेले दम पर चलाया।

अकेला और आर्तभाव से किसी की शरण गया व्यक्ति अपनी प्रतिभा के बाद भी दूसरे द्वारा इस्तेमाल कर लिया जाता है। आरत के चित रहत न चेतू। इसलिए अपने हितों या महामानवीय अपेक्षाओं की कसौटी पर जिसे हम उनका अपराध मानते हैं उसे ब्रिटिश कूटनीति की सफलता के रूप में देखा जाना चाहिए। उस कूटनीति के लिए भी मेरे मन में आदर है। इसी को रेखांकित करने के लिए मैंने एक लेख का उपशीर्षक जोड़ा था ‘दिमाग था तो सही पर दिमाग किसका था।’ मेरे मित्रों ने उसे समझा नहीं, इसलिए उस इतिहास पर नजर डालना जरूरी है।

एक बात का उल्लेख करते चलें कि सर सैयद की लाख कोशिशों के बाद भी सभी मुसलमान उनके साथ नहीं आ सके। मुसलमानों का देवबन्द दारुल उलूम और मदरसों की तालीम पर जोर, कुछ बाद का बरेलवी आंदोलन अंग्रेज और पाश्चात्य संस्कृति विरोधी धारा का प्रतिनिधित्व करता और सर सैयद का तीखा विरोध करता आया था। सर सैयद के मित्र और उनके सबसे कटु आलोचक अकबर इलाहाबादी देवबंदी स्कूल का ही समर्थक रहे, पर न तो उसे राष्ट्रवादी (राष्ट्र के व्यापक अर्थ में) कहा जा सकता है न कम खतरनाक माना जा सकता।

जहां तक कांग्रेस में भागीदारी का प्रश्न है, मद्रास (चेन्नै) के जिस अधिवेशन का वह रोना रो रहे थे उसमें यदि ८० मुसलमानों की भागीदारी थी तो इलाहाबाद के चौथे अधिवेशन में, जिसमें उनके इशारे पर सरकार ने कई तरह के अवरोध डाले थे, सम्मेलन का स्थल तीन बार बदला था, एक नौबत यह तक आ गई थी कि सम्मेलन को पांच साल के लिए टाल दिया जाय, फिर भी यह संपन्न हुआ और इसमें मुसलमानों का प्रतिनिधित्व २००से ऊपर था। इसके बाद भी सर सैयद सरकारी योजनाके अनुसार चल रहे थे इसलिए उसका दबाव और भारत से लेकर इंगलैंड तक के अंग्रेजी अखबारों के माध्यम से यह प्रचारित किया जाता रहा कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।

Post – 2018-10-08

इतिहास में हम अपराधी पकड़ने नहीं जाते व्यक्तियों और समूहों से हुई उन गलतियों को समझने जाते हैं जिनका फल हमें भुगतना पड़ता है।

Post – 2018-10-08

#सर_सैयद_अहमद- #सांप्रदायिकता के जनक

सर सैयद के सामने सबसे बड़ा लक्ष्य था अंग्रेजों को अपनी भक्ति से मंत्रमुग्ध कर के इस सेवा के बदले मुसलमानों के लिए सुविधाएं हासिल करना। कांग्रेस के जन्म के साथ 18 57 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद एक नया वैधानिक वैचारिक और नैतिक संग्राम आरंभ हो रहा था। सर सैयद अहमद उसे गलत रूप में प्रस्तुत करते हुए पहली बार सांप्रदायिक सोच को जन्म दे रहे थे उनकी पूरी सोच सांप्रदायिक थी। उनके संस्कार धार्मिक थे परंतु धार्मिकता और सांप्रदायिकता दोनों अलग चीजें हैं यह दूसरी बात है कि हमारी समझ की गड़बड़ी के कारण सांप्रदायिकता के चरित्र को समझने की जगह इसे धार्मिक विभाजन का रंग देकर असाध्य बनाया जाता रहा है।

सर सैयद के विचारों में वे सारी विकृतियां उपस्थित थीं जिनके भुक्तभोगी सबसे अधिक हिंदू रहे हैं और यह भी इसलिए हैं उन्होंने पूरे समाज को जोड़कर रखने की कोशिश की और इसका मूल्य चुकाया। परिस्थितियां ऐसी थी कि उन्हें आसानी से यह समझाया जा सकता था और समझाया गया कि यदि अंग्रेजों को किसी दिन सत्ता छोड़नी पड़ी तो उन्हें हिंदू बहुमत के कारण उसकी अधीनता स्वीकार करके रहना पड़ेगा । हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे, परंतु सर सैयद अहमद ने अपने भाषणों के माध्यम से इसके सभी पक्षों पर विचार करते हुए यही निष्कर्ष निकाला था। हम नहीं कह सकते कि उनके अंदेशे निराधार थे। इसका एक अनुभव तो सचमुच डरावना थाः In Calcutta an old, bearded Mahomedan of noble family met me and said that a terrible calamity had befallen them. In his town there were eighteen elected members, not one of whom was a Mahomedan; all were Hindus.

परन्तु इसका जो समाधान उन्हें दिखाई दे रहा था, वह उससे भी अधिक डरावना था, जिसके लिए अंग्रेजी का मुहावरा है कठौत का पानी फेंकने के साथ बच्चे को भी फेंक देना या बांसुरी के सुर से चिढ़ कर बांस को ही निर्मूल कर देना।

भारत की सामाजिक समस्या थी आपसी विश्वास की कमी। यह मध्यकाल से चली आ रही थी। इसे पैदा करने की कोई कोशिश मुस्लिम समाज की ओर से कभी न की गई। यदि अपने तटस्थता के दावे के बाद भी अलक्ष्य पूर्वाग्रहों के कारण मुझे ऐसी कोई कोशिश मुसलमानों की ओर से होती दिखाई नहीं देती तो मुझे इसकी याद दिलाई जा सकती हे, परन्तु हिंदुओं की ओर से इसकी लगातार जी जान से कोशिश होती रही और हिन्दू सेकुलरिज्म भी इसी का नमूना माना जा सकता है। यह कोशिश इतनी उत्कटता से की जाती रही कि सर सैयद मिथ्या आरोप की हद तक जाकर इसकी शिकायत करते दिखाई देते हैं। हिंदुओं की इस कोशिश का परिणाम यह रहा है कि हिंदुओं को लगातार झुकना पड़ा है और इसी अनुपात में उनकी मांग और अकड़ बढ़ती गई है। जिसे हम आज का हिन्दू सेकुलरिज्म कहते हैं वह झुकते झुकते बिछ जाने की स्थिति है।

सम्मानजनक मेल मिलाप में किसी को झुकना नही होता। वे आपस में छोटे-बड़े हों तो भी। झुकना न केवल अपमानजनक है. यह मेल मिलाप में बाधक भी है। कहें इसमें मैत्री संबंध संभव ही नहीं है। यह झुकने के साथ ही बदल कर सेवक-स्वामी का संबंध बन जाता है। इसलिए दंडवत फैलने की जगह सहज मुद्रा में बैठकर उन कारणों का पता लगाया जाना चाहिए था कि मुसलमान क्यों मिलने का कूटनीतिक दांव तो चल सकता है, पर हिंदुओं से मिल नहीं सकता।

संभव है यह वाक्य आल्डस हक्सले का अपना न हो, पर जब वह एक अखबार में कालम लिखा करते थे तब इतिहास पर लिखते हुए बिना किसी उद्धरण चिन्ह के लेख का आरंभ किया था कि इतिहास से एक ही शिक्षा मिलती है कि कोई इतिहास से सीखता नही है। भारतीय राजनीतिज्ञों से लेकर बुद्धिजीवियों की अक्षौहिणियों की समझ में यह मोटी बात इतने लंबे अनुभवों और खुली लिखावट के बाद भी क्यों नही आती कि आप मुसलमान से प्रेम करने के प्रयासों से उसकी निजता को भंग करते हैं। जरूरी नहीं कि आप ऐसा करें फिर भी आप उससे नफरत करके (तू अलग मैं अलग) तो बचे रह सकते हैं परन्तु प्रेम करके नहीं, क्योंकि इसकी शर्तें पूरी करते हुए आपको तन्मय हो जाना पड़ेगा। भारतीय सेकुलरिज्म तन्मयता की दिशा में अागे बढ़ते जाने का दूसरा नाम है।

सर सैयद ने इस सचाई को बहुत साफ शब्दों में बयान किया है
1….If we join the political movement of the Bengalis our nation will reap loss, for we do not want to become subjects of the Hindus instead of the subjects of the “People of the Book.” And as far as we can we should remain faithful to the English Government

2. If our Hindu brothers of these Provinces, and the Bengalis of Bengal, and the Brahmans of Bombay, and the Hindu Madrasis of Madras, wish to separate themselves from us, let them go, and trouble yourself about it not one whit. We can mix with the English in a social way. We can eat with them, they can eat with us. Whatever hope we have of progress is from them. The Bengalis can in no way assist our progress. And when the Koran itself directs us to be friends with them, then there is no reason why we should not be their friends. But it is necessary for us to act as God has said.
यहां सबसे रोचक है उलटबांसी। जो साथ रखने की कोशिशों के कारण दुष्ट सिद्ध किए जा रहे हैं उन पर ही यह अभियोग कि वे मुसलमानों को अपने से दूर भगा रहे हैं, क्योंकि साथ उनकी शर्तों पर ही हो सकता था। यह शर्त बहुत सीधी है। हिंदू कांग्रेस का साथ छोड़ दें, अधिकारों की मांग छोड़ दें। जो ऐसा नहीं करते हैे वे क्या चाहते हैं some Hindus — I do not speak of all the Hindus but only of some — think that by joining the Congress and by increasing the power of the Hindus, they will perhaps be able to suppress those Mahomedan religious rites which are opposed to their own, and, by all uniting, annihilate them.

यदि सर सैयद की सलाह न मानी गई तो इसके दुष्परिणाम उसे भोगने पड़ेंगे और इन दुष्परिणामों को वह उपद्रव के रूप में प्रस्तुत करते थे ।
But I frankly advise my Hindu friends that if they wish to cherish their religious rites, they can never be successful in this way. If they are to be successful, it can only be by friendship and agreement. The business cannot be done by force; and the greater the enmity and animosity, the greater will be their loss.

हिंदुओं को मिलकर साथ चलने की बात करते हुए वह लगातार यह संकेत देते थे कि हिंदुओं को उनके अनुसार अपने को बदलते हुए मैत्री संबंध बनाए रखना होगाः
If these ideas which I have expressed about the Hindus of these provinces be correct, and their condition be similar to that of the Mahomedans, then they ought to continue to cultivate friendship with us.

ऐसी स्थिति में यदि कोई यह जानना चाहे कि उस भावुक उद्गार का क्या मतलब, जिसमें वह हिंदुओं और मुसलमानों को भारत माता की दो सुंदर आंखें बताते थे, तो इसका एक ही उत्तर है। तमिऴ का एक मुहावरा है- एण्णुं एऴुत्तुं, कण्णे नत्तगुम् – संख्याएं और अक्षर दोनों आंखों के समान हैं और सर सैयद नागरी लिपि को वेकल्पिक लिपि का भी दर्जा देने को तैयार न थे। ऐसी मांग करने वालों को सांप्रदायिक कहते थे। वह चाहते थे कि हिंदू अरबी आंख से देखें। उन्हें अपनी आंख की जरूरत न थी जब कि अरबी लिपि भारतीय भाषाओं के लिए पत्थर की आंख जैसी है।

जो समुदाय बात-बात में कुरान की दुहाई देता हो, और जिसके सुलझे दिमाग के लोग भी इस पर चुप रहते हों उसमें यदि हिंदुओं को काफिर कहा गया हो और याद दिलाया गया हो कि काफिर केसाथ किस तरह काबरताव किया जाना चाहिए वह सांप्रदायिक घृणा को छिपा सकता है पर उससे मुक्त नहीं हो सकता। सर सैयद इसे सुशिक्षित मुसलमानों की चेतना का अंग बनाने के लिए जिम्मेदार हैं।

Post – 2018-10-07

#सरसैयद_अहमद_और_कांग्रेस

हमारे ज्ञान के बाहर अज्ञान का वृत्त होता है। उसकी संधिरेखा का क्षीण आभास हमें होता है परन्तु उससे परे के महा अन्धकार का हमें बोध तक नहीं होता। ज्ञान के विस्तार के साथ अज्ञान का मंडल भी बढ़ता है, इसलिए कम जानने वालों में अपने ज्ञान का जैसा विश्वास होता है वह ज्ञान के विस्तार के साथ संशयों से ग्रस्त होता जाता है क्योंकि तब उसे पता चलता है कि जो अज्ञात है वह ते विराट है ही, जिसे हम जानते हैं उसके भी अज्ञात स्तर हैं और इसलिए हम ज्ञात जगत में अपने उपयोग की एक मामूली या सतही जानकारी रखते हैं, उसे पूरी तरह नहीं जानते। इसलिए किसी भी परिघटना को हम जितनी बार देखते हैं, उसमें कुछ नया दीखता है, और युग युग तक उसे दूसरे देखने वालों को कुछ ऐसा दीखता है जो पहले किसी को दीखा ही न था। इसलिए सभी ज्ञान भ्रम निवारण की अलग अलग मंजिलें हैं, यदि कुछ सच है तो हमारी जिज्ञासा। इसे किसी राग, द्वेष, आग्रह के कारण धूमिल होने से बचाए रखना ज्ञान साधना की अनिवार्य शर्त है।

किसी भी कथन का ठीक वही नहीं होता जो शब्दों से व्यक्त होता है, यह अवसर, श्रोता, वक्ता, कहने की शैली और अनेक दूसरे संदर्भगत तथ्यों पर निर्भर करता है। वाचिक कथन में ये सभी बातें स्पष्ट रहती हैं इसलिए समझने में चूक कम होती है, लिखित में जितने पक्ष उजागर होते हैं वे अपर्याप्त होते हैं आतः हमें इसके अंतर्विरोधों और अपरिहार्यताओं को भी देखना होता है।

सर सैयद जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वह अमीर मुसलमानों का वर्ग था यह बात हम पीछे दुहरा आए हैं परन्तु इसका विवेचन नहीं किया जिसके अभाव में इसकी परिणति को नहीं समझा सकते। हम यह भी नहीं समझ सकते कि जिस कौम की बात सर सैयद कर रहे थे उसका मतलब क्या है। सबसे पहले इन वाक्यों पर ध्यान देः
1- 1887 में उनके लखनऊ भाषण में The audience was mainly Mahomedan, all the great Raïses being present.
2- मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन में No one can say that because these two Raïses took part in it, that therefore the whole nation has joined it.
3- Mirza Ismail Khan, …, told me that no Mahomedan Raïs of Madras took part in the Congress.
4- No Mahomedan Raïs of Bengal took part in it, and the ordinary Bengalis who live in the districts are also as ignorant of it as the Mahomedans.
5- Raïses, men of the middle classes, men of noble family to whom God has given sentiments of honour…

यह याद दिलाना जरूरी है कि रईसों, जमींदारों, नवाबों, राजाओं और अंग्रेजों के हित एक थे और आम हिन्दू और मुसलमान तथा उद्योग तथा व्यापार के अवसरों के छिन जाने या सीमित हो जाने से घुटन अनुभव कर रहे व्यापारी और उद्यमी वर्ग के हित एक और पहले के विपरीत थे।

चार्ल्स ग्रांट के जिस पत्र का हवाला हम हवाला दे आए हैं (Observations on the State of Society among the Asiatic Subjects of Great Britain.1792) जो अंग्रेजों पर हिन्दुत्व के बढ़ते प्रभाव और भविष्य में हिन्दू हो जाने के डर से (धर्म गंवां कर पैसा कमाने के खतरे से) बचाव का एक ही उपाय देख पाया था कि अंग्रेजों को भारतीय भाषाएं पढ़ाने की जगह भारतीयों को राजशक्ति का प्रयोग करते हुए आर्थिक प्रोत्साहन और रोजगार का अवसर देते हुए ईसाई बनाया जाय और अंग्रेजी पढ़ने को बाध्य किया जाय। उसने उस दशा में उस दूसरे खतरे से भी आगाह किया था कि यह कहा जा सकता है कि उस दशा में पाश्चात्य शिक्षा और संस्थाओं से परिचित होने के बाद वे स्वाधीनता की मांग कर सकते हैं। इस भय का निराकरण करते हुए उसने कहा था कि लगान वसूली के तंत्र के कारण बंगाल में (यह 18वीं शताब्दी का अंत था और अभी वे केवल बंगाल के संदर्भ में ही सोचते थे।) जमीदारों का एक तबका अस्तित्व में आ चुका है जिसके हित कंपनी प्रशासन से जुड़े हैं, और वह ऐसी किसी मांग का विरोध करेगा। यह जमींदार तबका हिन्दू था।

यह सच है की कांग्रेस की स्थापना मैं सुरेंद्रनाथ बनर्जी का योगदान निर्णायक था। वह बंगाली थे। हिंदू थे। परंतु इसके कारण कांग्रेस का पूरा संगठन और आंदोलन हिंदू आंदोलन या बंगाली आंदोलन नहीं बन जाता।कांग्रेस बंगाल के हिन्दुओं का नहीं, देश के नवोदित शिक्षित मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी और देश के सभी समुदायों के सुशिक्षित और महत्वाकांक्षी नेता इसके समर्थक थे। पूरे देश के अशिक्षित जन न तो उसका महत्व समझ सकते थे न इसके साथ हो सकते थे, न थे, पर 1858 क्य दमन के भुक्तभोगी और अंग्रेजों के अपमानजनक व्यवहार से आहत लोग इसके समर्धुथक थे। सर सैयद को भी पता था पर इसे भी वह तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे थेः
As regards Bengal, there is, as far as I am aware, in Lower Bengal a much larger proportion of Mahomedans than Bengalis. And if you take the population of the whole of Bengal, nearly half are Mahomedans and something over half are Bengalis. Those Mahomedans are quite unaware of what sort of thing the National Congress is.

साथ ही वह धमकाने का भी प्रयत्न करते हैंः
In Bengal the Mahomedan population is so great that if the aspirations of those Bengalis who are making so loud an agitation be fulfilled, it will be extremely difficult for the Bengalis to remain in peace even in Bengal.

इतिहास का यह भी एक व्यंग्य ही है कि जिस डफरिन की सहमति से कांग्रेस की स्थापना भारतीय जन आक्रोश को कम करने के लिए हुई थी वही सर सैयद अहमद का इस्तेमाल उसे विफल करने के लिए कर रहा था और उन्हें महत्व देते हुए अपनी सलाहकार परिषद में रखा था।

यह विद्रोह 1857 के विद्रोह से चरित्रगत रूप में भिन्न था और इसका दमन शस्त्रबल से संभव न था। इसकी पृष्ठभूमि से सर सैयद परिचित थे। अपने लखनऊ के व्याख्यान में उन्होंने इसका हवाला गलत संदर्भ में दिया थाः
When the Government of India passed out of the hands of the East India Company into those of the Queen, a law was passed saying that all subjects of Her Majesty, whether white or black, European or Indian, should be equally eligible for appointments. This was confirmed by the Queen’s Proclamation.

सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इसी का लाभ उठाकर आईसीएस की परीक्षा पास की थी जिसके बाद भी उन्हें बहाने बनाकर पदापित नहीं किया गया था। अंग्रेजों ने समझा यह मात्र एक बंगाली का मामला है। बंगाली जुझारू नहीं हैं। उन्होंने 1857 में भी भाग नहीं लिया था। असंतोष एक व्यक्ति का है, ठंढा पड़ जाएगा। पर इस भेदभाव और अन्याय से आहत सुरेंद्रनाथ ने पूरे भारत का दौरा किया और जहां भी गए उनका भव्य स्वागत किया गया। उनको सुनने के लिए भारी भीड़ एकत्र हुई और अखबारों मे उनको भरपूर समर्थन मिला। यह सरासर अन्याय था। भारतीयों के साथ खुला भेदभाव था। महारानी के अपने फर्मान और आश्वासन का उल्लंघन था। ब्रिटिश शासन की विश्वसनीयता उसके संसद के सामने भी उतर चुकी थी। इससे घबराकर आसूचना के प्रधान ए ओ ह्यूम की सलाह पर डफरिन ने ह्यूम की पहल से भारतीयों की शिकायतों को सुनने और उनकी जायज मांगों को स्वीकार करने की प्रतिज्ञा के साथ कांग्रेस की स्थापना कराई थी और जिस तरह महारानी के आश्वासन और बनर्जी की सफलता के बाद भी उन्हें नियुक्त नहीं किया था, उसी तरह सरसैयद का इस्तेमाल करके उसने उसी संगठन और आन्दोलन को विफल करने का प्रयत्न किया।

दूसरे शब्दो में कहें तो वह मुसलमानों के हित के लिए चिंतित नहीं थे, रईस मुसलमानों, हिंदू जमीदारों और अंग्रेजी राज के हित में काम कर रहे थे। वह लगातार जानबूझ कर झूठ बोल कर दूसरे मुसलमानों सहित पूरे देश को गुमराह कर रहे थे। उन्हें पता था कि पूरे देश में सुरेंद्रनाथ बनर्जी को समर्थन मिला था जिससे ब्रिटिश प्रशासन घबराया था इसलिए वह झूठ बोल रहे थे कि
1. Everybody knows well that the agitation of the Bengalis is not the agitation of the whole of India. इसे वह धार्मिक रंगत दे कर छिपा रहे थे If our Hindu brothers of these Provinces, and the Bengalis of Bengal, and the Brahmans of Bombay, and the Hindu Madrasis of Madras, wish to separate themselves from us, let them go, and trouble yourself about it not one whit.

2. वह जानते थे कि कांग्रेस बंगाली हिन्दुओ की पार्टी नहीं है क्योंकि उन्हें पता था कि इसमें बंगाली या हिन्दू के नाम पर मुख्यतः सुरेन्द्रनाथ थे और इसमें मुसलमानों के साथ दूसरे सभी समुदायों के प्रतिनिधि थे। यदि उसमें सभी मुसलमानो की भागीदारी न थी तो दूसरे किसी समुदाय की पूरी भागीदारी न थी इसलिए वह श्रोताओं को यह कह कर मूर्ख बनवा रहे थे कि by taking a few Mahomedans with them by pressure or by temptation, they wished to spread, that the whole Mahomedan nation had joined them.

3. उनकी योजना में न पिछड़े हिन्दुओं के लिए स्थान था न मुसलानों के लिएः And it is the universal belief that it is not expedient for Government to bring the men of low rank; and that the men of good social position treat Indian gentlemen with becoming politeness, maintain the prestige of the British race, and impress on the hearts of the people a sense of British justice, and are useful both to Government and to the country. But those who come from England, come from a country so far removed from our eyes that we do not know whether they are the sons of Lords or Dukes or of darzies; and therefore if those who govern us are of humble rank, we cannot perceive the fact. But as regards Indians, the case is different. Men of good family would never like to trust their lives and property to people of low rank with whose humble origin they are well acquainted.
4. वह जानते थे कि मजहब कौमियत का आधार नहीं है, जातीयता है The Hindus of our Province, the Bengalis of the East, and the Mahrattas of the Deccan, do not form one nation.
परन्तु इस झूठ को लगातार पीटा जाता रहा कि काग्रेस हिन्दुओं की पार्टा है और हमारे तड्डूप्रेमी मार्क्सवादियों ने सर सैयद अहमद के आन्दोलन के वर्गीय चरित्र की व्याख्या न करके इसकी उल्टी धार्मिक व्याख्या करके उनको सेकुलर सिद्ध करने का प्रयत्न किया। लड़डू खाने वाले आंखें बन्द कर लेते है कि कहीं कोई लड्डू खाते देख न ले। शुतुरमुर्ग मार्क्सवादी मार्क्सवाद के शत्रु हैं।

Post – 2018-10-06

#सर_सैयद_अहमद -3
दिमाग है तो सही पर दिमाग किसका है?

सर सैयद जल्द से जल्द मुसलमानों को हिन्दुओं की समकक्षता मे लाना और हो सके तो उनसे भी आगे बढ़ाना चाहते थे। इसके लिए वह आधुनिक शिक्षा के महत्व को जानते थे। वह अंग्रेजों की सूझ-बूझ और सभ्यता के इस हद तक कायल थे कि इंगलैंड के दौरे के बाद उनकी तारीफ में जो पत्र लिखा था उनकी गरिमा के अनुरूप न था। इसका एक कारण यह था कि महारानी से लेकर वहां के सांसदों और भद्र वर्ग ने उन्हें जो सम्मान दिया था उससे वह अभिभूत थे। सम्मोहन में मर्यादा का निर्वाह करने तक का ध्यान न रहा। अंग्रेज हर दृष्टि से असाधारण प्रतिभा के लोग थे उनका यह विचार गलत नहीं था, परन्तु अपने समाज को सर्वथा हेय मानते ही आप की प्रतिरोध क्षमता समाप्त हो जाती है।

पशुपालन से लेकर मनुष्यपालन तक का नियम एक ही रहा है। सुरक्षा, भरण-पोषण से लेकर छवि निर्माण तक की तुम्हारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति मैं करूंगा। तुम्हें अपने को पूरी तरह हमारे प्रति समर्पित करना होगा। तू जो भी करेगा हमारी इच्छा को जान कर करेगा। जो भी सोचेगा, हमारे हित का ध्यान रख कर सोचेगा। भक्ति के साथ विश्वास, बुद्धि के हस्तक्षेप से मुक्ति, चाहे वब ईशभक्ति में हो या राजभक्ति में या स्वामिभक्ति में, इसी कारण बढ़ जाता है। अपने कौम की भलाई की चिन्ता में वह स्वेच्छा से इसी मुकाम पर पहुंच कर अपने ही देश के विरुद्ध काम कर रहे थे। उसी की सत्ता में अधिक भागीदारी का विरोध कर रहे थे।
I ask whether there is any example in the world of one nation having conquered and ruled over another nation, and that conquered nation claiming it as a right that they should have representative government

उनका मेरठ का भाषण यदि लिखित होता तो हमारे पास यह मानने के अतिरिक्त कोई चारा न होता कि इसे किसी अंग्रेज ने ब्रिटिश हित के लिए कूटनीतिक चतुराई से उनके मुंह से अपनी प्रशासनिक स्थाइत्व को अनिवार्य और लोकहितकारी सिद्ध करने के लिए लिखा था। संभवतः ऐसा नहीं था, इसलिए कहना होगा उन्हे खुश करने के लिए उन्होंने समग्र समर्पण कर दिया था:
Now, suppose that the English are not in India, and that one of the nations of India has conquered the other, whether the Hindus the Mahomedans, or the Mahomedans the Hindus. At once some other nation of Europe, such as the French, the Germans, the Portuguese, or the Russians, will attack India. Their ships of war, covered with iron and loaded with flashing cannon and weapons, will surround her on all sides. At that time who will protect India? Neither Hindus can save nor Mahomedans; neither the Rajputs nor my brave brothers the Pathans. And what will be the result? The result will be this: that foreigners will rule India, because the state of India is such that if foreign Powers attack her, no one has the power to oppose them.

…It is the duty of the people to give all their money and all their property to the Government, because they are responsible for giving Government all that it may require. And they say: “Yes, yes; take it! Yes; take it. Spend the money. Beat the enemy. Beat the enemy.” These are conditions under which people have a right to decide matters about the Budget.

प्रश्न इस आशंका तक रहता तो बात अलग थी। हम यह भी मान सकते हैं इसकी आड़ में वह कांग्रेस को खुराफात की जड़ सिद्ध करते हुए उसका विरोध कर रहे थे । यह भी मान सकते हैं कि १८५७-58 के दमन के सदमे से जिसमें उन्हें भी अपनी माता को छोड़कर अनेक स्वजनों के प्राण गंवाने पड़े थे, वे मुक्त नहीं हो पाए थे।[1] यह भी संभव है कि मुसलमानों के मन में सुलगती आग को जानते हुए वह उन्हें इस बात का कायल बनाने के लिए यह तर्क दे रहे थे कि रहना तो हमें किसी न किसी विदेसी शासन में है और दूसरों को देखते हुए अंग्रेजों का शासन सबसे न्यायोचित है, इसलिए शासन के प्रति द्वेष का भाव छोड़ कर सहयोग का रास्ता अपनाना ही होगा।

परन्तु यह बात कदापि गले नहीं उतरती कि जो अंग्रेज मुस्लिम शासनकाल की तुतना में अधिक कर ले रहे थे उनको वे बे रोक टोक जितना भी चाहें कर वसूल करें, इस पर किसी तरह की आपत्ति न की जाए और वह इसे उचित ठहराने की सिखाई हुई दलीलें पेश करे। पहली नजर में ही लगता है कि यह उनके सरोकार से बाहर की जानकारियां थीं:

In India, the Government has itself to bear the responsibility of maintaining its authority; and it must, in the way that seems to it fittest, raise money for its army and for the expense of the empire. Government has a right to take a fixed proportion of the produce of the land as land-revenue, and is like a contractor who bargains on this income to maintain the empire. ….The English have conquered India, and all of us along with it. And just as we made the country obedient and our slave, so the English have done with us. Is it then consonant with the principles of empire that they should ask us whether they should fight Burma or not? Is it consistent with any principle of empire? In the times of the Mahomedan empire, would it have been consistent with the principles of rule that, when the Emperor was about to make war on a Province of India, he should have asked his subject-peoples whether he should conquer that country or not? Whom should he have asked? Should he have asked those whom he had conquered and had made slaves, and whose brothers he also wanted to make his slaves? Our nation has itself wielded empire, and people of our nation are even now ruling. Is there any principle of empire by which rule over foreign races may be maintained in this manner?
ऐसी दशा में

निम्न पंक्तियों से ऐसा लगेगा कि कुछ कामों के लिए सरकार की ओर से उन्हें उकसाया जा रहा था और उनसे लगभग सहमति सी बन गई थी:७

The internal trade is entirely in their hands. The external trade is in possession of the English. Let the trade which is with the Hindus remain with them. But try to snatch from their hands the trade in the produce of the county which the English now enjoy and draw profit from. Tell them: “Take no further trouble. We will ourselves take the leather of our country to England and sell it there. Leave off picking up the bones of our country’s animals. We will ourselves collect them and take them to America. Do not fill ships with the corn and cotton of our country. We will fill our own ships and will take it ourselves to Europe!” Never imagine that Government will put difficulties in your way in trade. But the acquisition of all these things depends on education. When you shall have fully acquired education, and true education shall have made its home in your hearts, then you will know what rights you can legitimately demand of the British Government. And the result of this will be that you will also obtain honourable positions in the Government, and will acquire wealth in the higher ranks of trade. But to make friendship with the Bengalis in their mischievous political proposals, and join in them, can bring only harm. If my nation follow my advice they will draw benefit from trade and education. Otherwise, remember that Government will keep a very sharp eye on you because you are very quarrelsome, very brave, great soldiers, and great fighters.

यह राजनीतिक और आर्थिक पक्ष था। सभी के लिए शिक्षा में अग्रता अपेक्षित थी। इंगलैंड से वापस आने के बाद उनकी आकांक्षा कैंब्रिज जैसी एक संस्था तैयार करने की थी। मुसलमान स्वयं ही पिछड़ं थे। यह काम अंग्रेज ही कर सकते थे। दिल्ली कालेज[2] हो या अलीगढ़ विश्वविद्यालय [3], मुस्लिम शिक्षा को अंग्रेजों के हवाले करके उन्होंने अपनी कौमी चेतना के निर्माण और दिशानिर्देशन का काम पूरी तरह उन्हें सौप दिया। सोचते वे रहे, मुस्लिम समाज उस पर अमल करता रहा। सरसैयद को जिन बुराइयों का जनक माना जाता है वे केवल हिंदुओं की नजर में बुराइयां हें क्योंकि उसका नुकसान केवल हिंदुओं को उठाना पड़ा है, मुसलमानोे को इसका तुलनात्मक लाभ मिला है पर इसके पीछे इरादे भले सर सैयद अहमद के हों दिमाग अंगरेजों का काम कर रहा था।

[1] “उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होने उस वक़्त लालच को बुरी F बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।” इंटरनेट,।
[2] दिल्ली कोलिज का इतिहास कुछ टेढ़ा है, It was reorganized as the ‘Anglo Arabic College’ by the British East India Company in 1828 to provide, in addition to its original objectives, an education in English language and literature. The object was “to uplift” what the Company saw as the “uneducated and half-barbarous people of India.” Behind the move was Charles Trevelyan, the brother-in-law of Thomas Babingdon Macaulay, the same infamous Macaulay whose famously declared that “a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia”.]
Rev. Jennings started secret Bible classes in the officially secular Delhi College. In July 1852, two prominent Delhi Hindus, Dr. Chaman Lal, one of Zafar’s personal physicians, and his friend Master Ramchandra,[7] a mathematics lecturer at the Delhi College, baptised a public ceremony at St. James’ Church, Delhi.
Dr. Sprenger, then principal, presided over the founding of the college press, the Matba‘u ’l-‘Ulum and founded the first college periodical, the weekly Qiranu ’s-Sa‘dain, in 1845. विकीपीडिया ।

[3] मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में ‘मदरसतुलउलूम’ एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।

Post – 2018-10-06

देखिए खिलते हैं गुल और भी आगे क्या-क्या
अभी तो लोग सुबह को भी सांझ कहते हैं।

Post – 2018-10-05

#सर_सैयद_अहमद- दो
द्विराष्ट्र और सांप्रदायिक हिंसा और पान-इस्लाम के सिद्धांतकार

कोई व्यक्ति परिस्थितियों से बड़ा नहीं होता। एक सीमा तक उससे ऊपर उठने का प्रयत्न करता है। सर सैयद अहमद खान की असाधारणता इस बात में उन्होंने निस्पृह भाव से अपने वर्ग हित के लिए काम किया। इसे उन्होंने कौम की संज्ञा दी और उनके भाषणों का अनुवाद करने वालों ने कौम को नेशन के रूप में प्रस्तुत किया।

कौम की उनकी समझ सही नहीं थी। किसी अधिक सटीक शब्द के अभाव में उन्होंने इस शब्द का प्रयोग किया, अथवा इसके पीछे कूटनीतिक चालाकी थी, इसका निर्णय हम नहीं कर सकते । भारत में राष्ट्रवाद का विकास अभी तक नहीं हुआ, सांस्कृतिक चेतना की समानता के आधार पर बहुत प्राचीन काल से हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक की एक देश होने की अवधारणा मौजूद थी, जिसके भीतर भाषा, खानपान, विचार, विश्वास, संप्रदाय के भेद थे। राष्ट्र शब्द का व्यवहार समाज के व्यापक अर्थ में किया जाता था। परंतु धर्म के आधार पर जो एकता व्याप्त थी, उसे संप्रदाय कहा जाता था। संप्रदायों में आत्मीयता का अभाव न था। जाति, जातीयता, वर्ण, आदि के अर्थ अलग थे। हम यह बात पहले कह आए हैं कि तुर्कों के साथ भारत में इस्लाम के प्रवेश के कारण भौगोलिक पहचान से अलग हिंदू और तुर्क की धार्मिक पहचान की इकाइयां बनी और बाद में दूसरे क्षेत्रों से मुसलमानों के आने के साथ तुर्क शब्द का स्थान मुसलमान ने लिया। सर सैयद अहमद इसी अर्थ में कौम का प्रयोग करते थे और इस तरह उन्होंने धार्मिक पहचान को सामाजिक पहचान में बदल कर पहली बार द्विराष्ट्र सिद्धांत को जन्म दिया।

कांग्रेस से उनका एक मतभेद इस बात को लेकर था कि कांग्रेस पूरे देश को एक राष्ट्र मानती थी जिसे वह मानने को तैयार नहीं थे।
our friends the Bengalis have shown very warm feeling on political matters. Three years ago they founded a very big assembly, which holds its sittings in various places, and they have given it the name “National Congress.” We and our nation gave no thought to the matter.

इस बात को वह बार-बार कई तरह से दोहराते हैंः
Our Mahomedan nation has hitherto sat silent. It was quite indifferent as to what the Babus of Bengal, the Hindus of these Provinces, and the English and Eurasian inhabitants of India, might be doing.

वह जानते थे की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सभी समुदायों का योगदान था और वे सभी प्रशासन में अधिक भागीदारी के पक्ष में थे। अभी स्वतंत्रता प्राप्त करने का दूर-दूर तक कोई खाका किसी के पास नईहीं था। कांग्रेस में सम्मिलित होने वाले लोगों में मुसलमान भी थे, परंतु उनके विषय में वह गलत प्रचार करते हैं, झूठे आरोप लगाते हैं, और उनको अपमानित करने का प्रयत्न करते हैंः
In some districts they have brought pressure to bear on Mahomedans to make them join the Congress. I am sorry to say that they never said anything to those people who are powerful and are actually Raïses [nobles] and are counted the leaders of the nation; but they brought unfair pressure to bear on such people as could be subjected to their influence.

They even did not hold back from offering the temptation of money. Where is the man that does not know this?Who does not know who were the three or four Mahomedans of the North-West Provinces who took part with them, and why they took part? The simple truth is they were nothing more than hired men.Such people they took to Madras, and having got them there, said, “These are the sons of Nawabs, and these are Raïses of such-and-such districts, and these are such-and-such great Mahomedans,” whilst everybody knows how the men were bought. We [[33]] know very well the people of our own nation, and that they have been induced to go either by pressure, or by folly, or by love of notoriety, or by poverty. If any Raïs on his own inclination and opinion join them, we do not care a lot. …. I should point out to my nation that the few who went to Madras, went by pressure, or from some temptation, or in order to help their profession, or to gain notoriety; or were bought. No Raïs from here took part in it.
This was the cause of my giving a speech at Lucknow [in 1887], contrary to my wont, on the evils of the National Congress; and this is the cause also of today’s speech. And I want to show this: that except Badruddin Tyabji, who is a gentleman of very high position and for whom I have great respect, no leading Mahomedan took part in it.

सचाई यह है कि वह केवल रईसों को अपनी बिरादरी का मानते थे।
उनकी हैसियत में तेजी से जो गिरावट आ रही थी उसको लेकर वह चिंतित थे, और उनकी चेतना के पीछे यदि कहीं यह आशंका भी बनी रही हो जो लोग संगठित होकर इतने शक्तिशाली रूप में जमे हुए ब्रितानी शासन की जड़ें हिला सकते हैं और इस बात की संभावना पैदा कर सकते हैं कि अंग्रेज इतने सौ साल शासन करने के बाद भी यहां से चले जाएं क्या पता अधिक शक्तिशाली हो जाने के बाद किस बात की मांग करने लगें। विदेशी मूल के मुसलमान जिन्होंने यहां की जमीन जायदाद पर कब्जा कर रखा है वे भी इस देश को छोड़कर चले जाएं।

कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता बात की मांग न उठी हो, परंतु अंग्रेजों के दिमाग में यह बात उस समय से ही घर करने लगी थी जब शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाने का प्शिरस्क्षाताव दिया जाने लगा। उन्हे डर था कि अंग्रेजी षिक्षा पाने के बाद ब्रिटेन के इतिहास से परिचित होने के बाद लोकतांत्रिक संस्थाओं से परिचित होने के बाद एक दिन ऐसा आ सकता है जब भारतीय स्वाधीनता की मांग करना आरंभ करेों। यह आशंका चार्ल्स ग्रांट ने कंपनी को लिखे अपने प्रसिद्त्ध पत्र में भी प्रकट किया था परंतु इसका समाधान तलाशहे का प्रयत्न भी किया और इसे अधिक स्पष्ट रूप में मैकाले ने भी अपने भाषण में करते हुए यह कहा था कि यदि भविष्य में ऐसा कोई दिन आया भी तो ब्रिटिश के इतिहास के लिए वह गौरव का दिन होगा।

सैयद अहमद की शिक्षा और पालन-पोषण मुगलकालीन संस्कारों में हुआ था और यह बात उनकी समझ में नहीं आती थी कि मात्र वैधानिक तरीके से कोई भी समाज अपने शासकों को सत्ता से वंचित कर सकता है ।
आशंका यदि उनके मन में थी भी तो इसे ्ंग्रेजों के माध्यम से उनके मन में रोपा गया होगा, जिसे अंग्रेज भले सही माने वह स्वयं मानने को तैयार नहीं थे।

इसके बाद भी यह विकल्प उनकी अंतः चेतना में विद्यमान था । अभी तक जो दो अलग अलग कौमें थी अब वे सीधे टकराव की स्थिति में थीो जिसमें एक को मिटाए बिना अथवा दबाए बिना दूसरा सम्मान के साथ जीवित नहीं रह सकता था, क्योंकि सत्ता में दोनों की भागीदारी उनके लिए अकल्पनीय थी अथवा उन्हें ऐसा समझा दिया गया थाः
Now, suppose that all English, and the whole English army, were to leave India, taking with them all their cannon and their splendid weapons and everything, then who would be rulers of India? Is it possible that under these circumstances two nations — the Mahomedans and the Hindus — could sit on the same throne and remain equal in power? Most certainly not. It is necessary that one of them should conquer the other and thrust it down. To hope that both could remain equal is to desire the impossible and the inconceivable.

इसे टकराव की स्थिति में संख्या बल की समस्या सामने आती थी और इसमें वह मुसलमालों को असुरक्षित पाते थेः
Now our condition is this: that the Hindus, if they wish, can ruin us in an hour.Therefore the method we ought to adopt is this: that we should hold ourselves aloof from this political uproar, and reflect on our condition — that we are behindhand in education and are deficient in wealth. Then we should try to improve the education of our nation

और इसका समाधान उनको संगठित हिंसक उपद्रव में दिखाई देता था। हर हाल में एक कौम को दूसरे को दबा कर या अधीन बना कर रखने के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा ही नहीं है। जब तक मुसलमान हिंदुओं की तुलना में संख्या में कम हैं, शासक हिन्दू है तब तक अकारण भी मुसलमान असुरक्षित क्यों अनुभव करता है, और चाहे पाकिस्तान हो, या बांग्ला देश या भारत का कोई ऐसा भाग जहां जनसंख्या का अनुपात बदल गया हो वहां हिंदुओं पर क्या बीतती है इसकी ओर किसी मुसलिम पत्रकार और बुद्धिजीवी या उससे सेकुलरिज्म का प्रमाण पाने को आतुर बुद्धिजीवियों को या तो कुछ गलत लगता नहीं, या वे डरे रहते हैे कि उनसे सहानुभूति प्रकट करते ही भारतीय मुसलमान उनका प्रमाणपत्र वापस ले लेंगे इस भय से चुप लगा जाते हैे, उसके सूत्र सर सैयद के निम्न कथन को ध्यान से पढ़ने पर मिल जाएगाः
At the same time you must remember that although the number of Mahomedans is less than that of the Hindus, and although they contain far fewer people who have received a high English education, yet they must not be thought insignificant or weak. Probably they would be by themselves enough to maintain their own position. But suppose they were not. Then our Mussalman brothers, the Pathans, would come out as a swarm of locusts from their mountain valleys, and make rivers of blood to flow from their frontier in the north to the extreme end of Bengal. This thing — who, after the departure of the English, would be conquerors — would rest on the will of God. But until one nation had conquered the other and made it obedient, peace could not reign in the land. This conclusion is based on proofs so absolute that no one can deny it.

Post – 2018-10-05

‘नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?’
‘मुट्ठी में है इतिहास हमारा
‘जिसे लड्डू खाके तुमने लिखा है!’
‘नन्हें मुन्ने बच्चे उसे वापस तो कर दे’
‘उसको तो टॅायलेट के वास्ते रखा है।’
‘नन्हे मुन्ने बच्चे उससे सीखा है क्या कुछ?’
‘नफरत सिखाई गई, नफरत किया है।’

Post – 2018-10-04

#भारतीय_मुसलमान -#सैयद_अहमद

सैयद अहमद नाम के दो व्यक्ति थे । दोनों 19 वी शताब्दी की मुस्लिम चेतना की उपज थे। एक तस्करी करता था नशे का कारोबार पंजाब में चलाता था और कम पढ़ा लिखा था। रणजीत सिंह के प्रभुत्व के बाद नशे के कारोबार पर रोक लग गई। गोवध पर रोक लग गई। वह हज के लिए गया, और वहां से लौटने के बाद, अपने को शिक्षित करने के बाद, वह वहाबी आंदोलन का नायक बन गया। उसके असाधारण प्रभाव का इससे बड़ा नमूना नहीं हो सकता कि वह अपने को नया पैगंबर बताने लगा और उसके प्रभाव में आने वाले मुसलमान अपने को नया मुसलमान कहने लगे(But the Caliphs, or Apostolic Successors, whom the Prophet had appointed at Patna, came to the rescue.
यह कुछ तो उसका प्रभाव था और कुछ मुसलमानों में पहले से सुलगती आग कि १८५७ के बाद भी कलकत्ता के अखबारों में महारानी से खुली बगावत की ख़बरें छपती रहीं और मुल्ले इस आशय के फतवे जारी करते रहे (During the past nine months, the leading newspapers in Bengal have filled their columns with discussions as to the duty of the Muhammadans to wage war against the Queen., Page 10). और इसके परिणाम भी सामने आ रहे थे।
राजाओं को हराना आसान होता है, वह आमने सामने की लड़ाई होती है, परन्तु जन विक्षोभ का सामना फौजी ताकत से नहीं हो सकता। उसका कोई न तो मोर्चा होता है, न उस पर डटे शत्रु, अत: १८५८ के क्रूर दमन के बाद भी अंग्रेजों को मुसलमानों के कारण खासी बेचैनी का सामना करना पड़ रहा था (THE Bengal Muhammadans are again in a strange state. For years a Rebel Colony has threatened our Frontier ; from time to time sending forth fanatic swarms, who have attacked our camps, burned our villages, murdered our subjects, and .. a regular organisation had been established for passing up men an् arms from Bengal to the Rebel Camp. At the same time the Patna Magistrate reported that the rebel sect were upon the increase in that City. …… they have, in the first place, the Central Propaganda at Patna, which for a time
defied the British Authorities in that city, and which, although to a certain extent
broken up by repeated State Trials, still exerts an influence throughout all Bengal.Page 68
)
वहाबियों का यह उभार हिंदुओं के लिए भी चिन्ता की बात थी। कम से कम पश्चिमोत्तर सीमान्त के कबायलियों का साथ मिल जाने के कारण रणजीत सिंह के राज्य के लिए भी इससे परेशानी थी। यह उपद्रव इतना बड़ा रूप ले चुका था अंग्रेजों की तीनों को बार इनके दमन के प्रयास में हार का मुंह देखना पड़ा थाThe D Battery P Brigade Royal Artillery, the E Battery 19th Brigade R.A., and the 2-24th Brigade R.A. ; the 1st Battalions of the 6th and 19th Foot; 2 Companies of the 77th; the 16th Bengal Cavalry, the 2nd Gurkha Regiment ; …Page 41)
गोवध पर प्रतिबंध और नशीले पदार्थों की तस्करी पर रोक के कारण रणजीत सिंह क के लिए भी उसने समस्या पैदा की परंतु हिन्दू जवाबी कार्रवाई में कबायलियों की बस्तियों का सफाया कर देते थे। हालत यह की जमीन की लगान कटे हुए शिरों की गिनती से पूरी की जाती थी।
हमारे पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है फिर भी परिस्थितियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि 18 57 के संग्राम में यदि रणजीत सिंह तटस्थ बने रहे तो इसका एक कारण यह हो सकता है कि इन उपद्रवों के कारण उन्हें जो अनुभव हुआ था उसमें वह किसी मुसलिम सम्राट के नेतृत्व में भारत के स्वतंत्रता संग्राम को सफल होते नहीं देख सकते थे। सत्ता मजबूत होने के बाद उनका चरित्र कब बदल जाए इसका कोई भरोसा नहीं था। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने उनके साथ परस्पर हस्तक्षेप न करने की संधि कर ही रखी थी।
हमारा यह आकलन गलत साबित हो तो भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मुख्य समस्या मुस्लिम विद्रोह कम करने और हिंदुओं की प्रशासन में बढ़ती भागीदारी से पैदा होने वाले संकट से बचाने के लिए अंग्रेजों के पास एक ही रास्ता था, मुसलमानों का विश्वास जीतना और उनके मित्रों को हिंदुओं के सीधे विरोध में उभारते हुए अपनी सत्ता मजबूत करना।
इन्ही परिस्थितियों में उन्हे दूसरे सैयद अहमद उपलब्ध हुए थे जिनके नाम के साथ सर लगाना यदि अन्य किसी कारण नहीं तो उनके हम-नाम ले अलग करने के लिए ही जरूरी है।
सर सैयद अहमद ने मुस्लिम चेतना के नव-निर्माण में सर्वाधिक निर्णायक भूमिका निभाई और उनको अलग रख कर मुस्लिम अन्तश्चेतना को समझा ही नहीं जा सकता। शिक्षित मुस्लिम मन की उन ग्रंथियों को जिन पर वह औपचारिक संवाद और व्यवहार में परदा डाले रहता है सर सैयद के माध्यम से ही समझा जा सकता है, क्योंकि वह उसकी अन्तशचेना का अंग हैं।
वह राज राज-भक्ति के संस्कारों में पले बढ़े थे। उनके नाना जी को उस समय भी ऊंचे और जिम्मेदारी के पद दिए गए थे जब आम मुसलमानों पर अंग्रेज भरोसा नहीं करते थे और उन्हें भी संभवत: उसी कारण एक सम्मानजनक पद मिला था। 1857 के खतरनाक दिनों में उन्होंने कुछ अंग्रेज परिवारों को अपने घर में रखकर संरक्षण दिया था। इसके उपरांत जो दमन की कार्रवाई हुई उसमें छोड़ा तो किसी को नहीं गया, परंतु मुसलमानों के प्रति दमन और क्रूरता इसलिए अधिक निर्मम थी क्योंकि बहादुर शाह को बादशाह माना गया था और संभवत: अवध की जनता और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की भागीदारी अधिक सक्रिय और हिंसक थी।
सैयद अहमद ने अपनी वफादारी और अधिकार का प्रयोग करते हुए लोगों के मना करने के बाद भी इसकी आलोचना करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि मुसलमान अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्त हैं उनकी उतनी अधिक गलती नहीं थी जितनी कि मानी जाती है। इसके साथ ही उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन के द्वारा की गई गलतियों का भी हवाला देते हुए अपनी पुस्तिका लिखी, अपने पैसे से छपवाई और वितरित की तथा सरकार को भेजी। लोगों के भय के विपरीत सरकार में इससे उनकी साख बढ़ गई।
यहां से दोनों के लिए एक दूसरे को समझने का और एक दूसरे का इस्तेमाल करने का सुनहला अवसर खुला था।
सर सैयद अहमद की नजर में भारतीय आबादी तीन भागों में बंटी थी । पहली श्रेणी में विदेशी मूल के जमींदार और रईस थे जिन की दशा के बारे में वह सबसे अधिक चिंतित थे। उसके बाद धर्मांतरित मुसलमान संख्या-बल के लिए आते थे। परन्तु उनके लिए उनके पास कोई कार्ययोजना नहीं थी।
वे रईसों की बिगड़ती हालत और उसकी तुलना में बंगाली हिंदुओं की शिक्षा, समृद्धि, और उच्च पदों पर बढ़ते अधिकार, प्रशासन में बढ़ते दखल से घबराए हुए थे। वे उन्हें कभी तो हिंदू दिखाई देते थे कभी बंगाली। जब हिन्दू दिखाई देते तो लगता हिन्दू अधिक शक्तिशाली होते जा रहे हैं, और तब हिंदुओं का व्यापार आदि में आगे आकर डराने लगता। जब बंगाली हिन्दू दिखाई देते थे तो लगत बंगाल के हिंदू पूरे भारत पर अधिकार करना चाहते हैं और तब लगता दूसरे हिंदू भी जो शिक्षा और अवसर में पीछे रह गए हैं, उनके हित मुसलमानों से अलग नहीं हैं। तब वह उनसे एका पैदा करते हुए बंगालियों की बढत को रोकना चाहते थे। पर रोका कैसे जा सकता था? एक ही तरीका था कांग्रेस जिसके माध्यम से वे अधिक अधिकारों का और शासन में अधिक हिस्सेदारी की मांग करना चाहते थे उसमें शामिल होने से सबको रोकना।
पर रोक वह रईस मुसलमानों को भी नहीं पा रहे थे। हिंदुओं को कांग्रेस के अधिवेशनों में जाने से रोका नहीं जा सकता था। जो मुसलमान कांग्रेस में भाग ले रहे थे उन्हें वह बिका हुआ, लालची, बेगैरत मानते थे। इक्के दुक्के रईसों को गुमराह मानते थे। परन्तु कांग्रेस को वह हिंदुओं का संगठन बता कर सांप्रदायिक दहशत पैदा करते हुए अलग कर रहे थे।
परन्तु इससे हिंदुओं की बढ़ती हुई ताकत और डरावना रूप ले लेती थी। इस दहशत का एक उपचार था। राजपूत बंगालियों की गुलामी सहन नहीं करेंगे,उनकी तलवारों की मदद से बंगाली ताकत को रौंदा जा सकेगा। परन्तु राजपूत भी हुए तो हिन्दू ही न। यदि वे बंगालियों के विरुद्ध खड़े न हुए तो ?
उस हालत मे मुसलमानों का एक सीमावर्ती समुदाय था, जिसने हिंदुस्तान को बार बार रौंदा था और जो भारत के मुसलमानों पर संकट आने पर चुप नहीं रह सकता था और इसलिए मुसलमानों की संख्या कम हो तो भी उन्हें किसी से दब कर रहने की जरूरत नहीं।
यह सभी नवचंडी के मेले के अवसर पर मेरठ में दूसरे व्याख्यान में मंच से व्यक्त किए गए उनके उद्गार हैं जिनमें आधी सचाई. आधी कूटनीतिक लफ्फाजी और इसके साथ ही साथ मन में गहरे समाई हुई घबराहट और असुरक्षा की चिन्ता के बीच कोई सम्मानजनक रास्ता निकालने की कोशिश माना जा सकता है। इन सारे कुलाबों के बीच में जो निश्चित और एकमात्र भरोसे का उपाय दिखाई दे रहा था उसे संक्षेप में रखें तो वह निम्न प्रकार होगा:
१. मुसलमानों में तेजी से शिक्षा का प्रसार हो, जिससे हिंदुओं की तरह वे भी सरकारी नौकरियों में सम्मानजनक पदों पर पहुंच सकें।
२. ब्रिटिश सत्ता को अधिक सुदृढ़ और निरंकुश बनाया जाये ( बादशाहों ने कभी रिआया की मर्ज़ी जानकर उस पर शासन किया है?)!
३. उन्हें मनचाही दर पर कर वसूल करने की छूट हो और युद्ध और राज्य-विस्तार, तथा आधुनिकीकृत हथियारों की बढ़ी कीमत को देखते हुए पहले की तुलना में अधिक ऊंची दर से कर वसूलने का अधिकार हो।
४. सरकार के प्रति मुसलमान अधिक वफादार बनें और इसके बदले पुलिस और सेना आदि में मुसलमानों को अधिक से अधिक भरती की जाए।
५. स्वतंत्रता भारत संभव ही नहीं है, यह एक तरह का राजद्रोह है जिसके परिणाम मुसलमानों के लिए अच्छे नहीं हो सकते।
६. भारत में आजादी तभी संभव है जब या तो मुसलमान हिंदुओं को मिटा दें, या हिंदू मुसलमानों को मिटा दें। एक ही तख्त पर दो बादशाह न कभी बैठे हैं, न बैठ सकते हैं।
७. यदि किसी सूरत में हिंदुस्तान आजाद भी हो जाए, खयाल के लिए हम मान लें कि अंग्रेज अपना लाव-लश्कर लेकर यहां से रवाना हो जाए तो हम सामरिक दृष्टि से तैयार न होने के कारण रूस, जर्मनी, फ्रांस आदि में से किसी के हमले का सामना न कर पाने के कारण उनके गुलाम हो जाएंगे जिनका शासन अंग्रेजों से बहुत बुरा होगा।
इसलिए हमारा हित इसी मे है कि हम कांग्रेस के जाल में न फँसे और इसे अपने नापाक हिंदू इरादों मे सफल न होने दें।
इसकी व्याख्या कल।