विश्वासघात
हम पहले देख आए हैं कि मोहम्मद को अपने मत को मनवाने में बहुत कठिनाई हो रही थी। सबसे पहले उनको पैगंबर मारने के लिए पूरे साल में उनकी पत्नी सहित पांच पारिवारिक जन ही तैयार हुए थे। फिर जबर और यासर नाम के दो यहूदी और सुहैब नामक एक यवन मुसलमान बने जो गुलामी से हाल ही में छूटे थे। अबू बक्र (कुमारी के पिता) जिनका पुराना नाम अबदुल्ला बिन उस्मान था और जिनको यह नया नाम बाद में उनकी बेटी आयशा से मुहम्मद के निकाह के बाद मिला, उन्होंने इस्लाम कबूल करने के बाद अन्य कुछ के साथ दस गुलामों को भी मुसलमान बनाया था। फिर कुछ और रिश्तेदार – मां, पत्नी और बेटी के रिश्ते से मुसलमान बने थे। कहें, अरबों के बीच, कुरैशों के बीच उनको पाखंडी ही समझा जा रहा था, इसलिए अपने पैगंबर होने के दावे के अतिरिक्त अपनी साख जमाने के लिए किसी लोकमान्य आधार की जरूरत थी।
उनकी ओर आकर्षित होने वाले हनीफ जिब्रील के आवेश के कारण यह समझते थे कि वह इब्रानी मत का ही प्रचार कर रहे हैं। वह स्वयं भी यह दावा करते रहे कि वह इब्राहिम के मत का प्रचार करने के लिए भेजे गए हैं। कुरान में इब्राहिम का 100 से अधिक बार जिक्र आया है, जिनसे यह ध्वनित होता है कि मोहम्मद इब्राहिम के ही मत था नए ढंग से प्रचार कर रहे हैं। यहां हम उनका सांकेतिक हवाला ही दे सकते है:
Say: “We believe in Allah, and in what has been revealed to us and what was revealed to Abraham, Isma’il, Isaac, Jacob, and the Tribes, and in (the Books) given to Moses, Jesus, and the prophets, from their Lord: We make no distinction between one and another among them, and to Allah do we bow our will (in Islam).” (Surah Al-Imran, 84)
Say: “(Allah) speaketh the Truth: follow the religion of Abraham, the sane in faith; he was not of the Pagans.” (Surah Al-Imran, 95)
We had already given the people of Abraham the Book and Wisdom, and conferred upon them a great kingdom. (Surah An-Nisa�, 54)
And I follow the ways of my fathers,- Abraham, Isaac, and Jacob; and never could we attribute any partners whatever to Allah.that (comes) of the grace of Allah to us and to mankind: yet most men are not grateful. (Surah Yusuf, 38)
यहां तक कि मक्का भी इब्राहिम के कारण पवित्र था:
Behold! We gave the site, to Abraham, of the (Sacred) House, (saying): “Associate not anything (in worship) with Me; and sanctify My House for those who compass it round, or stand up, or bow, or prostrate themselves (therein in prayer). (Surah Al-Hajj, 26)
मदीना पहुंचने के बाद वहां यहूदियों के प्रभाव के कारण वह यह तो दोहराते ही रहे कि इब्राहिम का मजहब सच्चा मजहब है।So We have taught thee the inspired (Message), “Follow the ways of Abraham the True in Faith, and he joined not gods with Allah.” (Surah An-Nahl, 123)
हम देख आए हैं कि यहूदियों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने के लिए उन्होंने उनके साथ एक करार भी किया था, परंतु लूटपाट की आदत पड़ जाने के बाद, जब कुछ हाथ नहीं लगता था तो नजर यहूदियों की दौलत की ओर जाती थी। इसके कारण बहाना खोज कर उनको दोषी सिद्ध करने और लूटमार मार करने की योजनाएं बनती थीं। इसके बाद भी इब्राहिम को तो नकारा नहीं जा सकता था पर यह तो सिद्ध किया ही जा सकता इब्राहिम न तो यहूदी न ही ईसाई:
Abraham was not a Jew nor yet a Christian; but he was true in Faith, and bowed his will to Allah’s (Which is Islam), and he joined not gods with Allah. (Surah Al-Imran, 67)
Surah Al-Baqara.
The Jews say, “Ezra is the son of Allah “; and the Christians say, “The Messiah is the son of Allah .” That is their statement from their mouths; they imitate the saying of those who disbelieved [before them]. May Allah destroy them; how are they deluded?
अब जिब्रील प्रगट हो कर सबसे पहले मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले यहूदियों को मूर्तिपूजक सिद्ध कर देते हैं और उनका सफाया करने का आदेश देते है। करार इसके साथ खत्म हो जाता है और फिर उनके धन दौलत बाल बच्चों और स्वयं उनके साथ क्या किया जाता है इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। किताब के मानने वालों की परिभाषा बदल गई,’O believers kill and fight those who do not believe in God, that is, the Jews who believe in Duality and the Christians who are believers in a Trinity.’
इसी तरह का एक दूसरा करार मोहम्मद ने मक्का के कुरेशों से किया था जिसके अनुसार 10 साल तक शांति रहनी थी। किसी को किसी के साथ किसी तरह का फसाद नहीं करना था। जो लोग इस्लाम कबूल करना चाहे उनको इसे कबूल करने की छूट थी। जो लोग देव पूजा करते थे, उन्हें इसकी छूट थी। यह करार मोहम्मद के मक्का पहुंचने के बाद आठवें साल में तब किया गया था जब उनको हज करने का इलहाम हुआ था।
वह एक बड़े दल के साथ हज करने पहुंचे थे। उन्होंने मक्का से कुछ दूर अपना डेरा डाला था। यह छोटे हज का मौका था। मक्का वालों ने उन्हें भीतर नहीं घुसने दिया, परंतु उसी मौके पर यह संधि हुई जिसके अनुसार इस वर्ष मुहम्मद को दल बल के साथ वापस होना था, और अगले वर्ष उनके हज की बारी थी, जिसमें मक्का वालों को दूर रहना था।
जो मोहम्मद के इल्हाम याने अल्लाह के फर्मान पर हज करने आए थे उनके गले वापसी को भी विजय बताने की बात समझ में आने से रही। मुहम्मद ने जो कुछ समझाया वह भी गले नहीं उतरने वाला था, परंतु मोहम्मद में इतनी विलक्षण प्रतिभा थी कि वह अपने अनुगामियों को कुछ भी समझा सकते थे और वे उनका कहा कुछ भी, आज तक, बिना सोचे विचारे समझते और मानते आए हैं।
हम विस्तार में गए बिना, यह प्रश्न करना चाहेंगे कि क्या इस संधि का मोहम्मद ने निर्वाह किया। यदि किया होता तो अरब का औल दुनिया का इतिहास कुछ अलग होता।
हमने प्रसंग को इस प्रसंग को इसलिए उठाया कि हमारे हिंदू इतिहासकार मध्यकाल की घटनाओं को, विश्वासघात को, वे वादे से मुकरने की प्रवृत्ति को गर्हित समझते रहे हैं, परंतु वह बहुत धार्मिक थे, लगातार मुल्लों से सलाह लेकर काम करते रहे हैं।
उन्होंने केवल अपने धर्म का निर्वाह किया, यदि धर्म ही ऐसा हो जिसमें नैतिकता की जगह न हो परंतु सफलता के लिए सभी तरह के अपराध क्षम्य हों, क्षम्य ही नहीं जन्नत की चाभी हों, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वे सभी मोहम्मद का अनुशरण करते हैं, इसीलिए मोहम्मद अली जो खिलाफत के दिनों मो.क. गांधी के पांव चूमा करते थे, जब यह कहा जघन्य से जघन्य मुसलमान गांधी से तो दूसरे लोग जो कुरान को नहीं जानते थे, इस्लाम को नहीं जानते थे, उन्हें हिंदू पैमाने से मापने की कोशिश करते थे, नाराज हो गए, यह गांधी थे जिन्होंने कुरान और मुस्लिम मानसिकता का गहराई से अध्ययन किया था, उसके बचाव में खड़े हो गए रॉकी एक मुसलमान के रूप में वह जो कुछ कह रहे थे वह धर्म सम्मत था। परंतु यदि मुसलमान की दरिंदगी सभ्यता का मानक बना दी जाए दुनिया का क्या होगा यह जरूर सोचना चाहिए।
किसी को मध्य काल के अत्याचारों को दोष नहीं देना चाहिए, विश्वासघातियों की निंदा नहीं करनी चाहिए, वे अपने धर्म का पालन कर रहे थे। आज भी इसके लिए तत्पर रहते हैं।