Post – 2019-07-21

विश्वासघात

हम पहले देख आए हैं कि मोहम्मद को अपने मत को मनवाने में बहुत कठिनाई हो रही थी। सबसे पहले उनको पैगंबर मारने के लिए पूरे साल में उनकी पत्नी सहित पांच पारिवारिक जन ही तैयार हुए थे। फिर जबर और यासर नाम के दो यहूदी और सुहैब नामक एक यवन मुसलमान बने जो गुलामी से हाल ही में छूटे थे। अबू बक्र (कुमारी के पिता) जिनका पुराना नाम अबदुल्ला बिन उस्मान था और जिनको यह नया नाम बाद में उनकी बेटी आयशा से मुहम्मद के निकाह के बाद मिला, उन्होंने इस्लाम कबूल करने के बाद अन्य कुछ के साथ दस गुलामों को भी मुसलमान बनाया था। फिर कुछ और रिश्तेदार – मां, पत्नी और बेटी के रिश्ते से मुसलमान बने थे। कहें, अरबों के बीच, कुरैशों के बीच उनको पाखंडी ही समझा जा रहा था, इसलिए अपने पैगंबर होने के दावे के अतिरिक्त अपनी साख जमाने के लिए किसी लोकमान्य आधार की जरूरत थी।

उनकी ओर आकर्षित होने वाले हनीफ जिब्रील के आवेश के कारण यह समझते थे कि वह इब्रानी मत का ही प्रचार कर रहे हैं। वह स्वयं भी यह दावा करते रहे कि वह इब्राहिम के मत का प्रचार करने के लिए भेजे गए हैं। कुरान में इब्राहिम का 100 से अधिक बार जिक्र आया है, जिनसे यह ध्वनित होता है कि मोहम्मद इब्राहिम के ही मत था नए ढंग से प्रचार कर रहे हैं। यहां हम उनका सांकेतिक हवाला ही दे सकते है:
Say: “We believe in Allah, and in what has been revealed to us and what was revealed to Abraham, Isma’il, Isaac, Jacob, and the Tribes, and in (the Books) given to Moses, Jesus, and the prophets, from their Lord: We make no distinction between one and another among them, and to Allah do we bow our will (in Islam).” (Surah Al-Imran, 84)
Say: “(Allah) speaketh the Truth: follow the religion of Abraham, the sane in faith; he was not of the Pagans.” (Surah Al-Imran, 95)
We had already given the people of Abraham the Book and Wisdom, and conferred upon them a great kingdom. (Surah An-Nisa�, 54)
And I follow the ways of my fathers,- Abraham, Isaac, and Jacob; and never could we attribute any partners whatever to Allah.that (comes) of the grace of Allah to us and to mankind: yet most men are not grateful. (Surah Yusuf, 38)

यहां तक कि मक्का भी इब्राहिम के कारण पवित्र था:
Behold! We gave the site, to Abraham, of the (Sacred) House, (saying): “Associate not anything (in worship) with Me; and sanctify My House for those who compass it round, or stand up, or bow, or prostrate themselves (therein in prayer). (Surah Al-Hajj, 26)

मदीना पहुंचने के बाद वहां यहूदियों के प्रभाव के कारण वह यह तो दोहराते ही रहे कि इब्राहिम का मजहब सच्चा मजहब है।So We have taught thee the inspired (Message), “Follow the ways of Abraham the True in Faith, and he joined not gods with Allah.” (Surah An-Nahl, 123)

हम देख आए हैं कि यहूदियों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने के लिए उन्होंने उनके साथ एक करार भी किया था, परंतु लूटपाट की आदत पड़ जाने के बाद, जब कुछ हाथ नहीं लगता था तो नजर यहूदियों की दौलत की ओर जाती थी। इसके कारण बहाना खोज कर उनको दोषी सिद्ध करने और लूटमार मार करने की योजनाएं बनती थीं। इसके बाद भी इब्राहिम को तो नकारा नहीं जा सकता था पर यह तो सिद्ध किया ही जा सकता इब्राहिम न तो यहूदी न ही ईसाई:
Abraham was not a Jew nor yet a Christian; but he was true in Faith, and bowed his will to Allah’s (Which is Islam), and he joined not gods with Allah. (Surah Al-Imran, 67)
Surah Al-Baqara.
The Jews say, “Ezra is the son of Allah “; and the Christians say, “The Messiah is the son of Allah .” That is their statement from their mouths; they imitate the saying of those who disbelieved [before them]. May Allah destroy them; how are they deluded?
अब जिब्रील प्रगट हो कर सबसे पहले मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले यहूदियों को मूर्तिपूजक सिद्ध कर देते हैं और उनका सफाया करने का आदेश देते है। करार इसके साथ खत्म हो जाता है और फिर उनके धन दौलत बाल बच्चों और स्वयं उनके साथ क्या किया जाता है इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। किताब के मानने वालों की परिभाषा बदल गई,’O believers kill and fight those who do not believe in God, that is, the Jews who believe in Duality and the Christians who are believers in a Trinity.’

इसी तरह का एक दूसरा करार मोहम्मद ने मक्का के कुरेशों से किया था जिसके अनुसार 10 साल तक शांति रहनी थी। किसी को किसी के साथ किसी तरह का फसाद नहीं करना था। जो लोग इस्लाम कबूल करना चाहे उनको इसे कबूल करने की छूट थी। जो लोग देव पूजा करते थे, उन्हें इसकी छूट थी। यह करार मोहम्मद के मक्का पहुंचने के बाद आठवें साल में तब किया गया था जब उनको हज करने का इलहाम हुआ था।

वह एक बड़े दल के साथ हज करने पहुंचे थे। उन्होंने मक्का से कुछ दूर अपना डेरा डाला था। यह छोटे हज का मौका था। मक्का वालों ने उन्हें भीतर नहीं घुसने दिया, परंतु उसी मौके पर यह संधि हुई जिसके अनुसार इस वर्ष मुहम्मद को दल बल के साथ वापस होना था, और अगले वर्ष उनके हज की बारी थी, जिसमें मक्का वालों को दूर रहना था।

जो मोहम्मद के इल्हाम याने अल्लाह के फर्मान पर हज करने आए थे उनके गले वापसी को भी विजय बताने की बात समझ में आने से रही। मुहम्मद ने जो कुछ समझाया वह भी गले नहीं उतरने वाला था, परंतु मोहम्मद में इतनी विलक्षण प्रतिभा थी कि वह अपने अनुगामियों को कुछ भी समझा सकते थे और वे उनका कहा कुछ भी, आज तक, बिना सोचे विचारे समझते और मानते आए हैं।

हम विस्तार में गए बिना, यह प्रश्न करना चाहेंगे कि क्या इस संधि का मोहम्मद ने निर्वाह किया। यदि किया होता तो अरब का औल दुनिया का इतिहास कुछ अलग होता।
हमने प्रसंग को इस प्रसंग को इसलिए उठाया कि हमारे हिंदू इतिहासकार मध्यकाल की घटनाओं को, विश्वासघात को, वे वादे से मुकरने की प्रवृत्ति को गर्हित समझते रहे हैं, परंतु वह बहुत धार्मिक थे, लगातार मुल्लों से सलाह लेकर काम करते रहे हैं।

उन्होंने केवल अपने धर्म का निर्वाह किया, यदि धर्म ही ऐसा हो जिसमें नैतिकता की जगह न हो परंतु सफलता के लिए सभी तरह के अपराध क्षम्य हों, क्षम्य ही नहीं जन्नत की चाभी हों, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वे सभी मोहम्मद का अनुशरण करते हैं, इसीलिए मोहम्मद अली जो खिलाफत के दिनों मो.क. गांधी के पांव चूमा करते थे, जब यह कहा जघन्य से जघन्य मुसलमान गांधी से तो दूसरे लोग जो कुरान को नहीं जानते थे, इस्लाम को नहीं जानते थे, उन्हें हिंदू पैमाने से मापने की कोशिश करते थे, नाराज हो गए, यह गांधी थे जिन्होंने कुरान और मुस्लिम मानसिकता का गहराई से अध्ययन किया था, उसके बचाव में खड़े हो गए रॉकी एक मुसलमान के रूप में वह जो कुछ कह रहे थे वह धर्म सम्मत था। परंतु यदि मुसलमान की दरिंदगी सभ्यता का मानक बना दी जाए दुनिया का क्या होगा यह जरूर सोचना चाहिए।

किसी को मध्य काल के अत्याचारों को दोष नहीं देना चाहिए, विश्वासघातियों की निंदा नहीं करनी चाहिए, वे अपने धर्म का पालन कर रहे थे। आज भी इसके लिए तत्पर रहते हैं।

Post – 2019-07-21

व्यक्तित्वांतर
क्या यह संभव है कि एक व्यक्ति शांति और सौहार्द का पक्षधर रहा हो वह वह किसी चरण पर दुर्दांत मानवता द्रोही बन जाए? यह उसी तरह संभव है जैसे जो व्यक्ति किसी को इतना प्यार करता हो कि उसके लिए प्राण तक दे दे वह उसका प्राण लेने को तैयार हो जाए। उग्र आवेग अपने प्रतिकूल गुण और धर्म में बदलने की क्षमता रखते हैं। जो स्थाई है वह गुण और धर्म नहीं, उग्रता है।
अपने शैशव और बचपन के अनुभवों से उत्पन्न कुंठाओं और ग्रंथियों से ऊपर उठने की लालसा से एक ओर तो उनके भीतर ईमानदारी, सादगी, दयालुता, सहनशीलता[] और दृढ़ता जैसे दुर्लभ गुणों का विकास किया, दूसरी ओर इनके प्रदर्शन से दूसरे लोगों से अलग और ऊपर सिद्ध होने की प्रवृत्ति ने उनसे इस श्रेष्ठता को स्वीकार कराने, उन पर हावी होने की लालसा – अहंमन्यता – पैदा हुई जो इन विशेषताओं से उत्पन्न व्याधि है, जिसके लिए मेगलमीनिया [megalomaniac (/mɛɡələˈmeɪnɪak) – an unnaturally strong wish for power and control, or the belief that you are very much more important and powerful than you really are ..] का प्रयोग किया जाता है। व्याधि का रूप लेने के कारण व्यक्ति अपनी स्वीकार्यता की जिद में अपने उन गुणों के विपरीत आचरण कर सकता है जिनके बल पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है और इसके साथ ही इस भ्रम का भी शिकार हो सकता है कि अपने सिद्धांत पर चल रहा है।[
मोहम्मद को अपनेआरंभिक उपेक्षित जीवन के अनुभव के कारण दुखी, अपमानिक लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। गुलामों के प्रति, यतीमों के प्रति, अपने अनुयायियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति उनके संपर्क में आने वालों को इतने अटूट भाव से जोड़ देती थी कि वे उनके किसी कथन को असत्य मान ही नहीं सकते थे। इसे बनाए रखने के लिए वह तकियाकलाम की तरह अपने पैगंबर होने का दावा दुहराते रहते हैं, जम कि दूसरे, उन्हें निकट से जानने वाले भी उनमें ऐसा कोई गुण नहीं देख पाते जो मानवेतर हो इसलिए वे उन्हें मक्कार समझ कर तिरस्कृत करते हैंः
‘Then said the chiefs of the people who believed not, “We see in thee but a man like ourselves; and we see not who have followed thee, except our meanest ones of hasty judgement, nor see we any excellence in you above ourselves. Nay, we deem you liars,”‘ Suratu Hud (xi) 29.
And the infidels say, ‘The Qur’an is a pious fraud of his own devising, and others have helped him with it.’
And they say, ‘Tales of the ancients that he hath put in writing! and they were dictated to him morn and even.’ Suratu’l-Furqan (xxv) 5-6.
मदीना में उनको इस तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। धार्मिक आस्था की दृष्टि से यहां का परिवेश उनके अनुकूल था। परंतु मुहाजिरों की बढ़ने के बाद आर्थिक संकट इतना गहरा था कि मोहम्मद आर्तनाद सा करते हैं:
‘O Lord, they (i.e., Muslims,) go on foot, make them riders; they are hungry, satisfy them; they are naked, clothe them; they are poor, enrich them.’ Mudariju’n-Nabuwat, p. 559, cited by Sell in The Battle of Badr, p. 10
ये ही असह्य परिस्थितियां थीं जिनमें उनका पेट भरने के लिए लूटपाट का तरीका अनिवार्य हो जाता है, जिसके लिए कुरैशों के काफिले पर आक्रमण करना उन्हें एक नैतिक ओट देता है उनके अन्याय के कारण ही इन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा, उनके द्वारा ही यह निरंतर अपमानित किए जाते रहे। और इस तरह एक एक कदम आगे बढ़ते हुए बद्र के जंग का वह मोड़ आता है जहां अल्लाह नेपथ्य में चला जाता है और तलवार सभी सवालों का जवाब देने लगती है। कठोरता नृशंसता का रूप लेती चली जाती है, अहंकार पराकाष्ठा पर पहुंचता जाता है। कारण, इन सब के पीछे है, अनुपात और औचित्य का ध्यान नहीं रह जाता, पर पीड़न में आनंद आने लगता। शैतान का बहकावा हो, या अल्लाह की जगह शैतान की दखलअंदाजी हो, शैतान का प्रवेश इसी दौर में होता है। वह पूरी कौम को मजहब की आड़ में शैतानी के रास्ते जाने को मजबूर कर देता है। स्वयं पैगंबर का आचरण ऐसा हो जाता है मानो उनके इस पर उनके सर भूत सवार हो गया हो। इलहाम के पहले अनुभव में उन्हें ऐसा ही लगा था बाद का उनका आचरण उसे प्रमाणित भी करने लगता है। कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है।
यहूदी सरदार किनान को यातना दी जाती है उसका सिर काट दिया जाता है, उसकी रूपवती पत्नी सफिया को गुलाम बना लिया जाता है। वह दहिया के हिस्से में आती। उस पर मुहम्मद की नजर पड़ती है तो वह उससे शादी का प्रस्ताव रखते हैं। वह उसे कबूल भी कर लेती है।
ऐसी ही स्थिति में, निकाह का प्रस्ताव स्वीकार करने वाली एक दूसरी स्त्री जैनब जिन्दा गाड़ दिए गए अपने पति और रिश्तेदारों का बदला लेने के लिए उनके भोजन में जहर मिला देती है। उनकी जान तो बच जाती है, पर इसको जान से हाथ धोना पड़ता है।
उनमें विवाह करने को विवश सभी महिलाओं में विद्रोह की क्षमता नहीं थी, अन्यथा गतायु और शरीर-विज्ञानी कारणों से अक्षम व्यक्ति से विवाह रचने वाली कितनी महिलाएं सचमुच उनसे संबंध रखना चाहती थी यह तय करना कठिन है।
चार विवाह करके समानता का बर्ताव करने का जो नाटक मोहम्मद ने आरंभ किया था उनकी जानकारी में भी व्यर्थ था।
बानी उमैया के कुछ लोग मुसलमान बन गए। उन्हें मदीने की जलवायु रास नहीं आई। मोहम्मद ने कृपा करके उन्हें ऊँट दे कर रेगिस्तानी ढंग से रहने की छूट दे दी। उनकी सेहत में सुधार आ गया पर उनके मन में लोभ पैदा हुआ, वे ऊंटों को लेकर चंपत होने लगे। मोहम्मद को पता चला तो उन्हें पकड़ कर लाया गया अवर्णनीय यातना देकर मारा गया। इसे उचित ठहराने के लिए आयत भी उतर आईः
The recompense of those who war against God and His Apostle, and go about to commit disorders on the earth, shall be that they shall be slain or crucified, or have their alternate hands and feet cut off, or be banished the land. This their disgrace in this world, and in the next, a great torment shall be theirs. Suratu’l-Ma’ida (v) 37.
क्रम में अंतर हैः
[5:33] The just retribution for those who fight GOD and His messenger, and commit horrendous crimes, is to be killed, or crucified, or to have their hands and feet cut off on alternate sides, or to be banished from the land. This is to humiliate them in this life, then they suffer a far worse retribution in the Hereafter.
जिस तरह की लूटपाट मक्का के मुसलमान करने लगे थे, उसी तरह की लूटपाट मदीना के व्यापारियों के काफिलों की भी होने लगी। इसका बदला लेने के लिए जैद को भेजा गया। उसने उस कबीले की एक हैसियत वाली बृद्धा उम्म किरिया के दोनों पांव दो ऊँटों से बाँध कर उल्टी दिशाओं में तब तक चलाया जब तक पूरा शरीर दो फाँक न हो गया। लौट कर उसने अपनी कारस्तानी बयान की तो मुहम्मद ने बाहों में भर कर चूम लिया।
अल्लाह मोहम्मद के साथ रहे हो, परंतु बीच बीच में मुसलमानों को अपने हमलों में पराजय का मुंह देखना पड़ता। ऐसे मामलों में वे यहूदियों को प्रताडित किया करते। खैबर का हमला ऐसा ही था। यहूदियों ने बचाव में अपने को असमर्थ पा कर समर्पण कर दिया। जिब्रील ने सलाह दी कि बानू क़ुराज़िया के किताबवाले मूर्तिपूजकों का सफाया करने से पहले तलवार को रुकने न दो। मुहम्मद ने उसे भरोसा दिया, अल्ला की कसम उसी तरह चूर कर दूँगा जैसे अंडे को पत्थर पर पटक कर किया जाता है। तमाम अनुनय-विनय और उनके साथ क्या सलूक किया जाए, इसके लिए न्याय का दिखावा करने के बाद फैसला यह हुआ कि मर्दों का वध किया जाएगा और औरतों और बच्चों को गुलाम बना कर बेच दिया जाएगा और उनका माल-मता सेना में बांटा जाएगा। मुहम्मद ने कहा, “तुमने अल्ला के फैसले के अनुसार ही फैसला दिया है।” मर्दों को मदीना ले जाया गया। मुहम्मद के आदेश से खंदक खोदी गई । अली और जुबैर को इस फैसले पर कत्ल करने के लिए चुना गया। आठ सौ लोगों के कत्ल से खंदक खून से भर गई। औरतों को आपस में बांट लिया गया। उनमें सबसे सुंदर रेहाना को मुहम्मद के हरम के लिए रख लिया गया।

Post – 2019-07-20

व्यक्तित्वांतर
(संपादन के समय ही संक्षेपण हो पाएगा। )

क्या यह संभव है कि एक व्यक्ति शांति और सौहार्द का पक्षधर रहा हो वह वह किसी चरण पर दुर्दांत मानवता द्रोही बन जाए? यह उसी तरह संभव है जैसे जो व्यक्ति किसी को इतना प्यार करता हो कि उसके लिए प्राण तक दे दे वह उसका प्राण लेने को तैयार हो जाए। उग्र आवेग अपने प्रतिकूल गुण और धर्म में बदलने की क्षमता रखते हैं। जो स्थाई है वह गुण और धर्म नहीं, उग्रता है।

अपने शैशव और बचपन के अनुभवों से उत्पन्न कुंठाओं और ग्रंथियों से ऊपर उठने की लालसा से एक ओर तो उनके भीतर ईमानदारी, सादगी, दयालुता, सहनशीलता[] और दृढ़ता जैसे दुर्लभ गुणों का विकास किया, दूसरी ओर इनके प्रदर्शन से दूसरे लोगों से अलग और ऊपर सिद्ध होने की प्रवृत्ति ने उनसे इस श्रेष्ठता को स्वीकार कराने, उन पर हावी होने की लालसा – अहंमन्यता – पैदा हुई जो इन विशेषताओं से उत्पन्न व्याधि है, जिसके लिए मेगलमीनिया [megalomaniac (/mɛɡələˈmeɪnɪak) – an unnaturally strong wish for power and control, or the belief that you are very much more important and powerful than you really are ..] का प्रयोग किया जाता है। व्याधि का रूप लेने के कारण व्यक्ति अपनी स्वीकार्यता की जिद में अपने उन गुणों के विपरीत आचरण कर सकता है जिनके बल पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करता है और इसके साथ ही इस भ्रम का भी शिकार हो सकता है कि अपने सिद्धांत पर चल रहा है।[

मोहम्मद को अपनेआरंभिक उपेक्षित जीवन के अनुभव के कारण दुखी, अपमानिक लोगों के प्रति गहरी सहानुभूति थी। गुलामों के प्रति, यतीमों के प्रति, अपने अनुयायियों के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति उनके संपर्क में आने वालों को इतने अटूट भाव से जोड़ देती थी कि वे उनके किसी कथन को असत्य मान ही नहीं सकते थे। इसे बनाए रखने के लिए वह तकियाकलाम की तरह अपने पैगंबर होने का दावा दुहराते रहते हैं, जम कि दूसरे, उन्हें निकट से जानने वाले भी उनमें ऐसा कोई गुण नहीं देख पाते जो मानवेतर हो इसलिए वे उन्हें मक्कार समझ कर तिरस्कृत करते हैंः
‘Then said the chiefs of the people who believed not, “We see in thee but a man like ourselves; and we see not who have followed thee, except our meanest ones of hasty judgement, nor see we any excellence in you above ourselves. Nay, we deem you liars,”‘ Suratu Hud (xi) 29.
And the infidels say, ‘The Qur’an is a pious fraud of his own devising, and others have helped him with it.’
And they say, ‘Tales of the ancients that he hath put in writing! and they were dictated to him morn and even.’ Suratu’l-Furqan (xxv) 5-6.

मदीना में उनको इस तरह के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। धार्मिक आस्था की दृष्टि से यहां का परिवेश उनके अनुकूल था। परंतु मुहाजिरों की बढ़ने के बाद आर्थिक संकट इतना गहरा था कि मोहम्मद आर्तनाद सा करते हैं:
‘O Lord, they (i.e., Muslims,) go on foot, make them riders; they are hungry, satisfy them; they are naked, clothe them; they are poor, enrich them.’ Mudariju’n-Nabuwat, p. 559, cited by Sell in The Battle of Badr, p. 10
ये ही असह्य परिस्थितियां थीं जिनमें उनका पेट भरने के लिए लूटपाट का तरीका अनिवार्य हो जाता है, जिसके लिए कुरैशों के काफिले पर आक्रमण करना उन्हें एक नैतिक ओट देता है उनके अन्याय के कारण ही इन्हें अपना सब कुछ छोड़ कर भागना पड़ा, उनके द्वारा ही यह निरंतर अपमानित किए जाते रहे। और इस तरह एक एक कदम आगे बढ़ते हुए बद्र के जंग का वह मोड़ आता है जहां अल्लाह नेपथ्य में चला जाता है और तलवार सभी सवालों का जवाब देने लगती है। कठोरता नृशंसता का रूप लेती चली जाती है, अहंकार पराकाष्ठा पर पहुंचता जाता है। कारण, इन सब के पीछे है, अनुपात और औचित्य का ध्यान नहीं रह जाता, पर पीड़न में आनंद आने लगता। शैतान का बहकावा हो, या अल्लाह की जगह शैतान की दखलअंदाजी हो, शैतान का प्रवेश इसी दौर में होता है। वह पूरी कौम को मजहब की आड़ में शैतानी के रास्ते जाने को मजबूर कर देता है। स्वयं पैगंबर का आचरण ऐसा हो जाता है मानो उनके इस पर उनके सर भूत सवार हो गया हो। इलहाम के पहले अनुभव में उन्हें ऐसा ही लगा था बाद का उनका आचरण उसे प्रमाणित भी करने लगता है। कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। हमारे साथ समस्या यह है कि अनुवाद करें तो जगह कम पड़ेगी, मूल का सहारा ले तो भी राहत नहीं मिलेगी। संक्षेप में कहें विश्वसनीयता का संकट पैदा होगा, फिर भी रास्ता बचता है कि कहा संक्षेप में जाए और टिप्पणी में स्रोत दे दिया चाए।
एक युद्ध में जिस स्त्री का पति मारा गया है, उसे गुलाम बना लिया गया है, उसे को सौंप दिया गया है, अपनी मौत के करीब पहुंचे पैगंबर उससे शादी का प्रस्ताव रखते हैं। वह उसे कबूल भी कर लेती है।
The Jewish chief Kinana was accused of concealing some treasure and according to some accounts, was tortured and beheaded . His wife Safiyya was a daughter of Huyay who had been slaughtered with the Bani Quraiza. She was a woman of great beauty and as she had lived near Madina with her father was probably known to Muhammad. She at first fell to the lot of a man called Dahiya,4 but when Muhammad’s attention was called to the fact of her high position amongst the Jews, he gave compensation to Dahiya and himself sought her in marriage, and strange to say she consented to become his tenth wife.

एक दूसरी ऐसे ही स्थिति में, निकाह का प्रस्ताव स्वीकार करने वाली स्त्री उनसे भोजन में विष मिला देती है, जान उनकी बन जाती है, जाती उसकी है जिसने उनसे बदला लेने की कोशिश की थी परंतु यह इस बात का भी प्रमाण है के बद्र के बाद उन्होंने स्त्रियों को अपमानित करने के लिए उनसे विवाह किया
One woman, Zainab bint Harith, by means of some poisoned goats flesh attempted to kill Muhammad, who had caused her husband and relatives to be put to earth, and atoned for her act by her death.
और उनमें सभी में विद्रोह की क्षमता नहीं थी, अन्यथा गतायु और शरीर-विज्ञानी कारणों से अक्षम व्यक्ति से विवाह रचने वाली सभी महिलाएं उनके अहंकार -तुष्टि का फास्ट बनी कितनी महिलाएं सचमुच उनसे आकर्षित की या संबंध बनाना चाहती थी या तय करना कठिन नहीं है।
चार विवाह करके समानता का बर्ताव करने का जो नाटक मोहम्मद ने आरंभ किया था उनकी जानकारी में भी व्यर्थ थाः
Suratu’n-Nisa’ (iv) 3, which sanctions four wives and the acquired slaves, seems to show that in polygamy there is a danger lest jealousy and ill-feeling may arise. The remedy suggested is monogamy: ‘If ye fear that ye shall not act equitably, then (marry) one only.’ Now Hafasa and ‘Ayisha apparently thought that they did not get equitable treatment and were jealous of Mary the Copt. Muhammad had neglected the Qur’anic remedy for such a state of things and hence all this domestic trouble. The verse quoted from Sura iv and this verse,Ye will not have it at all in your power to treat your wives alike, even though you would fain do so [Suratu’n-Nisa, (iv) 128]. इस तरह बहु विवाह, हरम, महिलाओं की यंत्रणा का एक रूप था और इसी यंत्रणा को आरंभ स्वयं मोहम्मद ने बद्र के जंग के बाद किया था। उनमें एक पर एक महिलाओं को बंदी बनाकर ऐसे संताप में जीने को विवश करना पर पीड़न में आनंद लेने का एक रूप थी।
5. बानी उमैया के कुछ लोग मुसलमान बन गए। उन्हें मदीने की जलवायु रास नहीं आई। मोहम्मद ने कृपा करके उन्हें ऊँट दे कर रेगिस्तानी ढंग से रहने की छूट दे दी। उनकी सेहत में सुधार आ गया पर उनके मन में लोभ पैदा हुआ, वे ऊंटों को लेकर चंपत होने लगे। मोहम्मद को पता चला तोः
The herdsmen who pursued them were cruelly tortured to death. Muhammad was naturally very angry, and when the culprits were captured and brought before him, he ordered that their eyes should be put out, their arms and legs cut off and their bodies impaled until life was extinct. It must, however, be stated that Muhammad seems to have felt that such severe torture in judicial punishments was a doubtful procedure, for he delivered the following
revelation:—

The recompense of those who war against God and His Apostle, and go about to commit disorders on the earth, shall be that they shall be slain or crucified, or have their alternate hands and feet cut off, or be banished the land. This their disgrace in this world, and in the next, a great torment shall be theirs. Suratu’l-Ma’ida (v) 37.
जिस तरह की लूटपाट मक्का के मुसलमान करने लगे थे, उसी तरह की लूटपाट मदीना के व्यापारियों के काफिलों पर भी होने लगे।
The traders at Madina were annoyed,and Zaid was sent with a strong party to punish the robbers. Their stronghold was captured and Umm Qiriya, an old woman, a person of some influence in her tribe, was cruelly put to death. Her legs were tied to camels, which were then driven in opposite directions, until she was torn asunder. Zaid on his return gave an account of his expedition to Muhammad who embraced and kissed him. It is not recorded that he
expressed disapprobation of this cruel deed.
अल्लाह मोहम्मद के साथ रहे हो, परंतु बीच बीच में मुसलमानों को अपने हमलों में पराजय का मुंह देखना पड़ता। ऐसे मामलों में वे यहूदियों को प्रताडित किया करते। खैबर का हमला ऐसा ही था। उन्होंने बचाव में अपने को असमर्थ पा कर समर्पण कर दिया। नतीजाः
The victory won, Gabriel appeared to Muhammad and told him not to put off his arms, for the angels had not done so for forty days. He then gave a direct command: ‘O Muhammad, arise to strike the idolaters who are possessors of the Book, the Bani Quraiza. By Allah I am going to batter their fort and to break it to pieces like the egg of a hen cast against a k.’ Muhammad obeyed and gave the order for the immediate march of an army of three thousand men, with ‘Ali as the standard bearer. The fortress was soon invested and the Jews, who seem to have laid in no stock of provision for a siege, quickly found themselves in great distress. After fifteen days or so had elapsed they requested permission to emigrate as the Bani Nadir had done. This was refused. They then offered to leave all their goods and chattels behind. The reply was that they must surrender unconditionally. …
तमाम विनती और मनुहार के बाद भी फैसला यह हुआ कि
‘This verily is my judgement, that the male captives shall be put to death, that the female captives and the children shall be sold into slavery, and the spoil be divided among the army.’ Any murmuring at this savage decree was at once stayed by
Muhammad who said: ‘Truly thou hast decided according to the judgement of God pronounced. on high from beyond the seven heavens.’ The men were then taken to Madina. Muhammad ordered a trench to be dug. The next day the Jews were brought forth in batches, and ‘Ali and Zubair were directed to slay them. Darkness came on before they had completed their bloody task. Torches were then brought to give light for the completion of this cruel deed. The blood of about eight hundred men flowed into the ditch, on the brink of which the victims were made to knee. Muhammad looked on with approval, and when Huyay bin Akhtab was brought before him said: ‘O enemy of God, at last the Most High has given thee into my hands and has made me thy judge.’ ome of the females were divided amongst the Muslims and the rest were sold as slaves. A beautiful widow, Raihana, whose husband had just been slaughtered, was reserved by Muhammad for his own harem,
कौन कह सकता है कि मुस्लिम आतंकवादी गुमराह हैं?

Post – 2019-07-18

कितना मुश्किल है मुसलमाँ का मुसलमाँ होना

इस्लाम के सभी अध्येता बद्र की जंग को एक निर्णायक मोड़ मानते हैं। मुसलमानों द्वारा इसके लिए प्रयुक्त यौम अल फुरकान, निर्णय का दिन, भी इसी बात की पुष्टि करता है।

यदि यह यह मोड़ है तो किससे मुड़ा या मुकरा जा रहा है?

जो कुरान मक्का में उतरा था वह यदि कुरान है तो जो मदीना में और खास कर हिजरी 2 के 17वें रमजान के बाद उतरता रहा वह क्या था और वह किस आसमान पर रखा गया था कि पहले का सब कुछ उलट गया, सिर्फ नाम नहीं उलटा।

एक को मानने वाला दूसरे को नहीं मान सकता। यदि मानता है तो खंडित चेतना से ग्रस्त, दोहरे व्यक्तित्व और विरोधी आचरण के जैकिल और हाइड की जिंदगी जीने को मजबूर होगा।

मुस्लिम समाज की समस्या यही से आरंभ होती है। मुल्लों, इमामों, और मदरसों द्वारा अपने पूरे समाज को बीमार बना कर रखना, उनके साथ भेड़ बकरियों जैसा व्यवहार करना, उनके हित में तो है परंतु उस समाज के हित में नहीं। इनके द्वारा समाज के दिमाग का नियंत्रण बुद्धिजीवियों का अपमान है। जिस देश में मुल्लों की चलती हो, महंतों की चलती हो उसमें बुद्धिजीवियों की नहीं चल सकती। उसका बुद्धिजीवी भी गुलाम की तरह काम करेगा। अदाओं से रिझाएगा, परंतु रास्ता नहीं दिखा पाएगा,न स्वयं रास्ता ढूंढ पाएगा। मुस्लिम समाज बंधुआ समाज है। उसे उद्धारक की प्रतीक्षा है। उद्धारक उसका बुद्धिजीवी वर्ग ही हो सकता हे जो नजाकत को बौद्धिक दायित्व का निर्वाह मानता है।

आतंकवादियों के साथ कोई समस्या नहीं है। उन्होंने मक्का में उतरी आयतों को अपनी किताब से निकाल दिया है। फाड़ कर फेंक दिया है, परंतु यदि अफवाह भी उठ जाए कि किसी ने उन फेंके हुए पन्नों को फाड़ दिया है, तो इस अपमान का बदला लेने के लिए, यह जानने से पहले कुछ ऐसा करेंगे जिससे लगेगा मक्का और मदीना दोनों की रखवाली वे ही करते हैं।

परंतु उनके कुरान में मक्का गायब है मदीना ही मक्का तक सैलाब की तरह फैला है, और मक्का उसमें डूब गया है।

बाढ़ रेगिस्तान में भी आती है। रेत के तूफान भी वही काम करते हैं, जो रेत की परत के नीचे दब गया वह दबा भले रहे, है तो। मक्का की आयतें तालिबानी कुरान इसी तरह दफ्न हैं, पर है और फसाद के लिए जरूरी होने पर खोद कर सतह पर लाई जा सकती हैं।

अमल वे मदीना की आयतों पर ही करते हैं और इसके कारण लोग उनसे डरते भी हैं, नफरत भी करते हैं।

उनके विषय में बनी हुई धारणा पूरे मुस्लिम समाज के विषय में न बन जाए इसलिए सभी देशों को उनके कारनामों के बाद अपने समाज की शांति और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए क्षुब्ध जनों को शांत करने के लिए यह ज्ञापित करना होता है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, जो सही है।

[]यदि हो जाएं तो दुनिया का नक्शा ही बदल जाए। एक के रहते हैं दूसरों का अस्तित्व संकट में पड़ जाए और यह इतने बड़े दमन चक्र का रूप ले ले कि यह सामाजिक समस्या न रह कर सर्वराष्ट्रीय राजनीतिक समस्या बन जाए। उस विभीषिका की हम कल्पना तक नहीं कर सकते।[]

मुस्लिम आतंकवाद मानवता के हित में नहीं है, स्वयं आतंक का रास्ता अपनाने वालों के हित में नहीं है, इसका विस्तार मुसलमानों के हित में नहीं है।

मैंने ‘मुस्लिम आतंकवाद’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रयोग पर समझदार लोगों को आपत्ति होगी। वे कहेंगे, कहते भी हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। मुस्लिम आतंकवाद हिंदू आतंकवाद जैसे प्रयोग गलत हैं।

मजहब का प्रयोग उसी दशा में गलत जहाँ मजहब आतंकवाद न सिखाता हो। हिंदू आतंकवाद इसलिए गलत है कि कोई भी हिंदू ग्रंथ आतंक का समर्थन नहीं करता। मक्का का इस्लाम शांति और सद्भाव का मजहब है वह आतंकवाद का समर्थन नहीं करता। मुसलमान (शांति और सद्भाव के पक्षधर) हैं जो अपने जीवन व्यवहार में मक्का थे कुरान को अपना कुरान मानते हैं। परन्तु वे भी मदीने के कुरान का विरोध नहीं करते। जब तक विरोध नहीं करते हैं तब तक मुस्लिम आतंकवाद के प्रयोग का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि मुसलमान बात-बात पर कुरान की दुहाई देते हैं। कुरान न केवल आतंकवाद का समर्थन करता है बल्कि इसे जरूरी कर्तव्य भी बताता हैः
Fighting is ordained for you, though it is hateful unto you; but it may happen that ye hate a thing which is good for you, and it mayhappen that ye love a thing which is bad for you. Allah knoweth, ye knownot. 2.216

मोहम्मद को भी पता था, लड़ाई झगड़े से बचना मनुष्य के स्वभाव में। कलह-प्रिय व्यक्ति से लोग नफरत करते हैं, इसके बावजूद वह इसी को संभावित अच्छाई बता कर मुस्लिम समाज को अल्पकालिक लाभ के लिए, मनुष्यता से दूर ले जा रहे थे और और अल्लाह का इस्तेमाल सोचने विचारने से विरत करने के लिए कर रहे थे। दुर्भाग्य से इसमें उन्हें सफलता भी मिली।

इसलिए जो लोग मुस्लिम आतंकवाद को बुरा मानते हैं, उन्हें अल्ला के दिए हुए दिमाग का इस्तेमाल करते हुए, आतंकवादी अंशों को इस्लाम विरोधी मानना चाहिए।

मानसिक द्वंद की लड़ाई बाहर जाकर नहीं लड़ी जाती, इसे अपने भीतर लड़ना होता है। हाइड को जैकिल से लड़ना और उसे परास्त करना होता है। यहाँ भीतर से हमारा आशय अपने भीतर और अपने समाज के भीतर, और उस पर कब्जा जमाने वालों के विरुद्ध तीनों से है। बाहर के लोग तो उनके भुक्तभोगी हैं। जेकिल किल करता है, हाइड उस पर परदा डालता है, जब किलिंग इतना बड़ा आकार ले लेती है कि परदा भी लिथड़ जाए तो उस पर चर्चा करने से बचता है और उस ओर ध्यान दिलाने वालों को ही उपद्रवी करार दे देता है या स्वयं असुरक्षित होने का इजहार करने लगता है।

मुस्लिम बुद्धिजीवियों को चुनना होगा कि कुरान पर भरोसा करें या अपने विवेक पर। यदि कुरान पर भरोसा जरूरी है तो तय करें कौन सा कुरान। मक्के वाला या मदीने वाला। एक ही जिल्द में बँधे होने के कारण या एक ही व्यक्ति की रचना होने के कारण, ये दोनों परस्पर विरोधी पुस्तकें एक नहीं मानी जा सकतीं। एक के फैसले अल्लाह करता है, दूसरे का फैसला तलवार करती है, एक का अल्लाह सिरजनने वाला है, दूसरे का अल्लाह सत्यानाश करने वाला है।

ऐसा ही चुनाव उन्हें मोहम्मद के दो रूपों में करना होगा। एक कुछ सीमाओं के बाद भी साधक, सत्याग्रही और मर्यादित आचरण वाला, दूसरा बद्र के जंग के बाद का जो किसी मर्यादा को नहीं मानता। अपने गलत कामों को सही सिद्ध करने के लिए अल्ला को भी अपना सहयोगी बना लेता है, और बचाव के लिए अल्ला की जगह शैतान पर दोष मढ़ देता है।

चुनाव इसलिए भी जरूरी है कि कुरान की आयतों की तरह मुसलमानों को मोहम्मद साहब के कथनों और कामों को प्रमाण बनाने की बाध्यता बनी रहती है। जिस सिद्धांत पर मोहम्मद बद्र से पहले अमल करते रहे, वह यदि वह इस्लाम था, तो उसे नकार कर दूसरे रास्ते पर चलने को इस्लाम नहीं कहा जा सकता। दूसरा नाम आतंकवाद ही रह जाता है।

बद्र के बाद अल्लाह के हुक्म से या शैतान के हस्तक्षेप से आतंक का दौर आरंभ हुआ जिसका पालन आज के आतंकवादी करते हैं । इसके कारण ही वे पूरी दुनिया से और पूरी दुनिया में लोग उनसे नफरत करते हैं।

बद्र इस्लाम का अंत है जो विफलताओं के बीच भी, विरोध के होते हुए भी, उदात्त लक्ष्य के लिए, बिना किसी दुर्भावना के, संघर्ष करने का, और इसलिए जो असहमत हैं उनसे भी सद्भाव बनाए रखने का अभियान था।

सभी उत्पादन और निर्माण धैर्य, आध्यवसाय, और सतर्कता की अपेक्षा रखते हैं। त्वरित सफलता चाहने वाले अनैतिक और प्रायः गर्हित तरीके अपनाते हैं जैसे जुआडी, लुटेरे, तस्कर, अपराध के अंधलोक, या अंडर-वर्ल्ड के लोग करते हैं। त्वरित सफलता या बड़े भूभाग पर अधिकार किसी उपक्रम के सही होने की कसौटी नहीं हो सकता। यह काम जंगी खान और हलाकू ने मुहम्मद से भी अधिक सफलता से किया था। यदि सफलता अल्ला के रहमो करम से आता है तो अल्ला का रहमो-करम सदा सभ्यता के विरुद्ध और दरिंदों के साथ रहा है।

हलाकू ने मुस्लिम जगत को रौंद कर रख दिया था। इस्लाम की सफलता अल्ला द्वारा सत्य का पक्ष लेने के कारण थी या वहशत के कारण यह तय करने के लिए बहस जरूरी है, परंतु इस पर किसी बहस की जरूरत नहीं कि जितने बड़े साम्राज्य पर जंगी खाँ या हलाकू का अधिकार अपने बल पर हुआ था उतने पर अल्लाह की मदद से भी मोहम्मद को हासिल नहीं हुआ था।[]
[]२९ जनवरी १२५८ में मंगोलों ने बग़दाद को घेरा डाला और ५ फ़रवरी तक वह शहर की रक्षक दीवार के एक हिस्से पर क़ब्ज़ा जमा चुके थे। अब ख़लीफ़ा ने हथियार डालने की सोची लेकिन मंगोलों ने बात करने से इनकार कर दिया और १३ फ़रवरी को बग़दाद शहर में घुस आये। उसके बाद एक हफ़्ते तक उन्होंने वहाँ क़त्ल, बलात्कार और लूट की। जिन नागरिकों ने भागने की कोशिश की उन्हें भी रोककर मारा गया या उनका बलात्कार किया गया। उस समय बग़दाद में एक महान पुस्तकालय था जिसमें खगोलशास्त्र से लेकर चिकित्साशास्त्र तक हर विषय पर अनगिनत दस्तावेज़ और किताबें थीं। मंगोलों ने सभी उठाकर नदी में फेंक दिये। जो शरणार्थी बचकर वहाँ से निकले उन्होंने कहा कि किताबों से बहती हुई स्याही से दजला का पानी काला हो गया था। महल, मस्जिदें, हस्पताल और अन्य महान इमारतें जला दी गई। यहाँ मरने वालों की संख्या कम-से-कम ९०,००० अनुमानित की जाती है।
ख़लीफ़ा पर क्या बीती, इसपर दो अलग वर्णन मिलते हैं। यूरोप से बाद में आने वाले यात्री मार्को पोलो के अनुसार उसे भूखा मारा गया। लेकिन उस से अधिक विश्वसनीय मंगोल और मुस्लिम स्रोतों के अनुसार उसे एक क़ालीन में लपेट दिया गया और उसके ऊपर से तब तक घोड़े दौड़ाए गए जब तक उसने दम नहीं तोड़ दिया। (विकीपीडिया)[]

[][]कहते हैं कि मुसलमानों के लिए तो चंगेज खान और हलाकू खान अल्लाह का कहर था। कहा जाता है कि उसके पास इतना पैसा और जमीन थी कि वह अपने जीवनकाल में भी न तो इसका उपयोग कर पाया और न ही कभी हिसाब-किताब लगा सका। चंगेज खान पर लिखी एक प्रसिद्ध किताब के लेखक जैक वेदरफोर्ड का कहना है कि जीवनभर लूटकर सारी दुनिया से पैसा इकट्‍ठा करने वाले चंगेज खान ने कभी खुद या परिजनों पर खर्च नहीं किया। मरने के बाद भी उसे साधारण तरीके से दफनाया गया था।…
समझा जाता है कि उसके हमलों में तकरीबन 4 करोड़ लोग मारे गए। उसने अपने विजय अभियान के बाद धरती की 22 फीसदी जमीन तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर लिया था।[][]

Post – 2019-07-17

जंगे बद्र का शेष

बद्र के जंग का निचोड़ एक मुसलमान के लिए कुछ और है और एक तटस्थ अध्येता के लिए कुछ और ।
मुहम्मदन के लिए यह भुला देना आसान था कि बद्र का जंग लूटपाट के प्रयत्न का परिणाम था। लूट के ळिए घात एक ऐसे काफिले पर में लगाया गया था जो बहुदेववादियों का था और लुटेरे मुसलमान थे इसलिए यह हको-बातिल का जंग हो गया। यहां से अपना बचाव करने वाला निरपराध गैर मुस्लिम होने के कारण अपराधी या झूठ का सहारा लेने वाला हो गया क्योंकि वह मुसलमान नहीं था, और लूट की तैयारी करने वाले, घात लगाने वाले, सत्य के पक्षधर हो गए। []इसके बाद से किसी गैर मुस्लिम के साथ मुसलमान लूटपाट, हत्या, बलात्कार कुछ भी करे वह धर्म का काम है, और दूसरा अपना बचाव करे तो भी यह अपराध है। इसी कसौटी को अमल में लाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष के विश्वस्त सलाहकार के सुझाव पर वह कानून बनने जा रहा था कि हिंदू और अहिंदू के बीच में कभी कोई विवाद होने पर हिंदू को अपराधी मानकर कार्यवाही आरंभ की जाएगी। मध्यकाल के समस्त अत्याचार धर्म का पालन करने के लिए किए जा रहे थे, इसलिए वे अत्याचार थे ही नहीं। []

यह सोचकर कि काफिले की सुरक्षा के लिए एक दस्ता आ रहा है लुटेरे इस उम्मीद में थे कि कारवां देर-सबेर इसी रास्ते आएगा। यह बाद में पता चला कि काफिले का अनुभवी सरदार, सुफियान खतरे को भांप कर उन्हें चकमा देकर दूसरे रास्ते से निकल गया। खाली हाथ रह गए इसलिए ‘यह किसी आर्थिक प्रलोभन के कारण छिड़ा जंग नहीं था। यह मात्र धर्मयुद्ध था, और क्योंकि थोड़ी संख्या में रहते हुए भी जीत मुसलमानों की हुई थी इसलिए सत्यमेव जयते के सिद्धांत के अनुसार सत्य की विजय विजय हुई थी- “हको-बातिल की कशमकश में यही होता है, हक हमेशा ही फतहयाब हुआ करता है।”

कारवाँ भले निकल गया हो परंतु 1000 लोगों के लिए महीनों का रसद और दूसरे सामान, हथियार और ऊँट तंगी झेल रहे मुहाजिरों के लिए कम न थे। परन्तु अंसर भी माले गनीमत की उम्मीद में ही साथ आए थे। दावा उनका भी था इसलिए बहस छिड़ी कि माले-गनीमत में किसका कितना है हिस्सा होना चाहिए। जिसने जान जोखिम में डालकर माल को कब्जे में लिया उसका हिस्सा उनके बराबर कैसे रह सकता है जो पीछे रह गए। खींचतान इतनी बढ़ गई मोहम्मद को अल्लाह की जरूरत पड़ गई। वैसे भी मुसलमानों का कोई फैसला अल्लाह या मुल्ला के हुक्म या हामी के बिना पक्का नहीं होता, इसलिए मोहम्मद को इलहाम हुआः
They will question thee about the spoils. Say: the spoils are God’s and the Apostle’s. Therefore, fear God and settle this among yourselves; and obey God and his Apostle, if you are true believers. Suratu’l-Anfal (viii) 1.
(ऐ रसूल) तुम से लोग अनफाल (माले ग़नीमत) के बारे में पूछा करते हैं तुम कह दो कि अनफाल मख़सूस ख़ुदा और रसूल के वास्ते है तो ख़ुदा से डरो (और) अपने बाहमी (आपसी) मामलात की इसलाह करो और अगर तुम सच्चे (ईमानदार) हो तो ख़ुदा की और उसके रसूल की इताअत करो। Hindi translation by Suhel Farooq Khan and Saifur Rahman Nadwi

शायद इतने से झगड़े का निपटारा नहीं हो सका, इसलिए एक और इल्हाम जरूरी हुआ जिसका आज तक पालन किया जाता है:
When ye have taken any booty, a fifth part belongeth to God and to the Apostle, and to the near of kin, and to orphans, and to the poor, and to the wayfarer, if ye believe in God, and in that which we have sent down to our servant on the day of discrimination, the day of the meeting of the hosts. Anfal (viii) 42.
और जान लो कि जो कुछ तुम (माल लड़कर) लूटो तो उनमें का पॉचवॉ हिस्सा मख़सूस ख़ुदा और रसूल और (रसूल के) क़राबतदारों और यतीमों और मिस्कीनों और परदेसियों का है अगर तुम ख़ुदा पर और उस (ग़ैबी इमदाद) पर ईमान ला चुके हो जो हमने ख़ास बन्दे (मोहम्मद) पर फ़ैसले के दिन (जंग बदर में) नाज़िल की थी जिस दिन (मुसलमानों और काफिरों की) दो जमाअतें बाहम गुथ गयी थी और ख़ुदा तो हर चीज़ पर क़ादिर है।

जंग हक के लिए मोल लिया गया था, और कशमकश हिस्से को लेकर चल रही थी। मुहम्मदन थे इसलिए अल्लाह का फैसला तो मानना ही था। बँटवारा इसी आधार पर हुआ। पांचवें हिस्से के ऊपर से मुहब्बत को अबू जह्ल का ऊँट मिला। मिली उसकी तलवार भी जिसे उन्होंने अली को दे दिया।

कहते हैं मुनाफिकून ने इल्जाम लगा दिया कि मोहम्मद ने एक खूबसूरत लाल पोशाक अपने पास रख ली। इसके विषय में भी फैसला किसी इलहाम से ही हो सकता था। सेल ने इस संदर्भ में सूरा 3.155 उद्धृत किया है और समर्थन में Tirmidhi, vol. ii, p. 341 and H. D. Qur’an, p. 144, note. का हवाला दिया है।
It is not the Prophet who will defraud you .Sura ‘Imran (iii) 155.

अनुवादों में अंतर है, और संख्या में भी। छानबीन में 155 में तो नहीं पर 3.161 में अवश्य कुछ ऐसे संकेत हैं जिससे यह आरोप सही लगता है:
“और (तुम्हारा गुमान बिल्कुल ग़लत है) किसी नबी की (हरगिज़) ये शान नहीं कि ख्यानत करे और ख्यानत करेगा तो जो चीज़ ख्यानत की है क़यामत के दिन वही चीज़ (बिलकुल वैसा ही) ख़ुदा के सामने लाना होगा फिर हर शख्स अपने किए का पूरा पूरा बदला पाएगा और उनकी किसी तरह हक़तल्फ़ी नहीं की जाएगी।”

अगली घटना जिससे क्रूरता की एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया वह है अबू जह्ल के सिर को काट कर पेश किया जाना और पैगंबर का इस पर खुशी जाहिर करना है:
After the battle was over Muhammad inquired whether Abu Jahl was dead. A servant went forth and saw him wounded but still alive. He then cut off his head and took it to the Prophet who is reported to have said: ‘It is more acceptable to me than the choicest red camel in all Arabia.’

इस तरह की निर्ममता मुहम्मद ने इससे पहले कभी न दिखाई थी। मक्का के मुहम्मद के अल्ला की सलाह थीः
And if you punish [an enemy, O believers], punish with an equivalent of that with which you were harmed. But if you are patient – it is better for those who are patient. मदीने के अल्ला ने भी पहले निर्ममता की हिमायत न की थी। पर अब यह खब्त का रूप लेती चली गई और उसके साथ मुहम्मद का एक नया अवतार हुआ। यह धोखा खाने और माल हाथ से निकल जाने का दबा आक्रोश रहा लगता है क्योकि बाद में सूफियान की हत्या ऐसी ही निर्ममता से की गई।

Post – 2019-07-15

जंगे बद्र

बद्र की जंग इस्लामी इतिहास में एक नए युग का आरंभ था। यह भी रमजान के महीने में 17वें दिन लड़ा गया था। इस दिन को यौम अल फुरकान या फैसले का दिन भी कहते हैं, जिसके साथ कयामत के दिन के फैसले की छाया है। भले हमला लूट के इरादे से किया गया हो, मुस्लिम इसे धर्मयुद्ध के रूप में पेश करते हैं, “The Battle for the sake of Truth. By the people of Truth. Of the purpose of Truth.The battle between Haqq and Baatil, Truth Vs Falsehood. Islam Vs Kufr.

हमारे लिए मुहम्मद के हमलों और विशेषतः, बद्र का महत्व यह है कि हम जिन मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों और आज के आतंकवादियों के कारनामों की भर्त्सना करते हैं वे बद्र की जंग के समय से ही मुहम्मद की रणनीति और कारनामों से प्रेरित हैं और रहे है। यह प्रमुख कारण है कि उदारता और इंसानियत की बातें करने वाले किसी मुस्लिम नेता, विचारक, सुधारक, इतिहासकार, साहित्यकार या कलाकार ने कभी उनमें से किसी की निंदा नहीं की।
विषयान्तर होने के डर से हम इसके विस्तार में नहीं जा सकते। केवल कुछ पहलुओं को उजागर करना ही पर्याप्त होगा।

इस बात की जानकारी मिलने के बाद कि काफिले की सुरक्षा का पूरा इंतजाम कर लिया गया है मोहम्मद ने बहुत सूझ- बूझ से तैयारी की। लूटपाट का रास्ता मोहम्मद में मुहाजिरों की फटेहाली से चिंतित होकर अपनाया था, इसलिए अभी तक उन्हीं का दस्ता इस काम पर लगाया जाता था। पहली बार उन्हें अंसरों की मदद की जरूरत अनुभव हुई। उनके दल में इस बार 350 लोग थे, इनमें मुहाजिरों की संख्या केवल 87 थी, जब कि अंसर 236 थे।

कुरैश ने अबू सुफ़ियान की मदद के लिए 1300 जवानों, 100 घोड़ों और ऊंटों की एक लश्कर रवाना की। इनका नेता अबू जह्ल था। जब इनको यह सूचना मिली सूफियान रास्ता बदलकर इस बार भी आगे निकल गया है, अब मदद की जरूरत नहीं, तब तक वे बद्र के करीब पहुंच चुके थे। जह्ल ने यह तय किया कि बद्र पहुंचकर आराम करेंगे फिर वापस लौटेंगे।[]

[] इस प्रलोभन को गर्मी के दिनों में किसी पहाड़ी पर्यटन स्थल के निकट पहुंचने पर वहां जाने के प्रलोभन के समकक्ष रख कर भी नहीं समझा जा सकता। रेगिस्तान में उत्सव – (क्या आप उत्सव शब्द का अर्थ जानते हैं? =धरती से अपने आप पानी का ऊपर निकलना।
इसका इतिहास जानते हैं?
यह शब्द उसी भाषा में पाया जा सकता है जो अरब के जल-उद्रेकों के सम्मोहन से परिचित हो।
उद्रेक भी उसी अनुभव की उपज है।
परंतु उपद्रव के लिए विदेश नहीं जाना पड़ेगा। पानी के लिए कुआं खोदिए और गलती से उस जगह खोद बैठिए जहाँ ठीक नीचे या आस पास से कोई अंतःसलिला प्रवाहित हो रही हो और उस गहराई पर छेप दे बैठें कि अंतसलिला का ऊपरी बंध टूट जाए और उसके नीचे का पानी सोती या सोते के रूप में नहीं, मुसलाधार ऊपर फूटे। खोदने वाले जीवित वापस नहीं आएंगे।

पर मुझे शक है कि आप मुस, मूसना और मूसल का अर्थ भी नहीं जानते होंगे। कोश मे मिलेगा मुस/मुष- चोरी करना और मूषक- चोरी करने वाला, जिससे क्रिया रूप मुषायति भी बन गया पर यह औखली के मुसल की व्याख्या नहीं कर सकता, इसलिए धातुपाठ और कोश भी भरोसे के नहीं।

अतः मुस का अर्थ हुआ गहराई में उतरना, छेद करना और इसी तर्क से मुसल किसी पौधे की जड़ों में उस प्रधान जड़ को कहते हैं जो चारों ओर फैलती नहीं सीधे नीचे, बहुत नीचे जाती है। पातालभेदी। फैलने वाली जड़ों से सोती और सोते ही निकल सकते हैं. पर नीचे से फूटने वाली धार मूसलधार।
और जब आप मूसलाधार वृष्टि की बात करते हैं तो इसी मूसल(जड़ी बूटियों के मामले में मुसली का प्रयोग करते हैं) जैसी धारा की बात करते हैं। अंग्रेजी के क्लाउड बर्स्ट के लिए हम आसमान फटने और मूसलाधार वृष्टि का प्रयोग करते हैं।[]

बद्र अपने जलोत्सवों के कारण प्रसिद्ध था और यही वह बाध्यता थी कि जाने और लौटने वाले काफिलों को बद्र से होकर गुजरना पड़ता था।

जो भी हो यह सूचना मिलने के बाद कि किसी सहायता की जरूरत नहीं है, किसी के लौटने पर कोई बंदिश नहीं रह गई। उनमें से 300 लोग वापस चले गए। जह्ल के पास केवल 1000 का सैन्य बल रह गया जो लुटेरों के किसी हमले के लिए बहुत काफी था।

सुफियान का काफिला बहुत बड़ा था। इसमें 1000 ऊँट थे जिन पर कीमती सामान लदा हुआ था। यदि वह हाथ आ जाता तो इतिहास की दिशा कुछ और होती। फटेहाल मुहाजिरों की पाचन क्षमता से अधिक की प्राप्ति उन्हें वाणिज्य व्यवसाय की ओर भी मोड़ सकती थी।

युद्ध में सैन्य बल से अधिक महत्व सही मुकाम पर मोर्चेबंदी का होता है और सही रणनीति का होता है योद्धाओं के मनोबल का होता है। हमलावर को सभी घटक उपलब्ध होते हैं , बचाव करने वाले को नहीं।

इसका मुहम्मद को भरपूर लाभ मिला। उन्होंने पानी के सभी उद्रेकों और कुओं पर अधिकार कर लिया और ऐसे मौके पर घात लगाए रहे जहां से बच निकलना असंभव था।

हम इस इतिहास में इतनी गहराई में नहीं जा सकते जो विषय से मेल नहीं खाता,परंतु यह याद दिला सकते हैं कि अनेक बार छोटी सेनाएं लेकर योद्धाओं ने बहुत बड़ी सेनाओं को परास्त किया है या उनके दांत खट्टे किए हैं या उन्हें तबाह कर दिया है। सिकंदर ने दारा तृतीय की विशाल सेना को अपनी छोटी सेना के बल पर जैसी शिकस्त दी थी वैसा ही हाल मोहम्मद और जह्ल के बीच हुए हुई मुठभेड़ का देखने में आता है।

परंतु मोहम्मद साहब को जीत इस कारण मिली कि उनके एक और जिब्रील और दूसरी ओर मिखाइल सफेद बानो में खड़े थे और इसराइल एक हजार फरिश्तों के साथ युद्ध कर रहे थे।
(अधूरा)

Post – 2019-07-14

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (3)

मुझे अरबी का ज्ञान नहीं है इसे आप मेरे कहे बिना भी जानते हैं, सरिया और शरिया/ शरीयत के बीच कोई संबंध है या नहीं यह भी नहीं जानता और इसे बताना पड़ रहा है । जानने की कोशिश की तो इतना ही पता चला कि सरिया का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया जाता था, जिनका नेता या सिपहसालार कोई मुसलमान होता था जिसे उसकी जिम्मेदारी मोहम्मद सौंपते थे। शरिया/शरियत/ शरीयत की परिभाषा कोलिंस शब्दकोश ने यूँ दिया है: the body of canonicalanonical law based on the Koran that lays down certain duties and penalties for Muslims.

लगता है, दोनों में संबंध है, और यदि हो तो मुस्लिम शरिया मुस्लिम समाज को दंडित करने के अधिकार को मुल्लों को सौंपने का दूसरा नाम है। इसमें न्याय के लिए कम जगह है अत्याचार के लिए खुला दायरा है।

गजवा का प्रयोग उन अभियानों के लिए किया गया जिनका नेतृत्व, या जिनकी सिपहसालारी मोहम्मद करते थे।

मैं असमंजस में हूं कि मैं इसका अर्थ सही समझता हूं या नहीं। कारण जब गजवा ए हिंद जैसे जुमलों का सामना होता है , तो लगता है इस जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेने वाले अपने को पैगंबर समझते हैं, या यह मानते हैं कि पैगंबर की जिम्मेदारी निभा रहे हैं अर्थात उनकी समझ के अनुसार और हमारी नासमझी के कारण, यह संदेश जाता है कि मोहम्मद शांति दूत नहीं थे। धार्मिक नहीं थे। मानवतावादी नहीं थे। सिर्फ और सिर्फ उपद्रवकारी थे।
*****

कौन कर रहा है ऐसे काम! मुहम्मद या उनके प्रतिनिधि ?
बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं, जिहादी चुपके से घुसकर गोलियों से उन्हें भून देते हैं। नमाजी मस्जिद में नमाज पढ़ रहे हैं उनको गोलियों से भून दिया जाता है। लोग तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं, घात लगाकर उनकी हत्या कर दी जाती है। हम चारों ओर से यह शोर सुनते हैं कि पवित्र महीने में ऐसा नहीं होना चाहिए था । यह शरीयत के अनुकूल नहीं हैं। मजहब निरीह बच्चों की हत्या की इजाजत नहीं देता। मगर सच यह है कि ऐसी घटनाओं पर परेशान होने वाले मुसलमान यह नहीं जानते कि क्यों उनका आचरण इस्लाम के विरुद्ध और जाहिलिया के अनुरूप है।

इस तरह के कायरतापूर्ण काम जाहिलिया के दौर में ही नहीं किए जाते थे। अरब, राजपूतों की तरह, स्वभाव के सरल, बहादुर और आन के पक्के हुआ करते थे। मक्का में. और कुछ महीनों तक मदीना में भी. मोहम्मद का यही स्वभाव था। इसी का नाम इस्लाम था। इसी का पैगाम. अपनी अंतःसंज्ञा या इलहाम के बल पर दुनिया को एक नई दिशा दिखाने के लिए जो पैगंबर आया था, उसकी मदीना में हत्या हो गई, वह मरा नहीं पुनर्जीवित हुआ एक नए पैगंबर के रूप में। एक नए अल्लाह के साथ, एक नई नैतिकता के साथ जिसमें नैतिकता के लिए जगह नहीं थी। जिसमें वह जो जी में आए करे, वही नैतिकता की कसौटी बन जानी थी। इसे समझना हिंदू या मुसलमान की समस्या नहीं है समूची मानवजाति की समस्या है।

प्रश्न यह है कि कितने प्रतिशत मुसलमान मक्का के अल्ला और मक्का के पैगंबर के साथ अपने को जुड़ा समझते हैं और कितने मदीने के अल्ला और पैगंबर और उनके उन प्रतिनिधियों के साथ जो अपने को मुसलमान नहीं समझते पैगंबर के दर्जे का समझते हैं। यदि ऐसा न होता तो गजवा ए हिंद जैसे शब्द की जरूरत न होती।
******

मोहम्मद साहब ने मदीना में अपने विश्वस्त लोगों की संख्या कम होने के कारण, एक संकटकालीन स्थिति में, जो रास्ता अपनाया उसने उनके अनुयायियों को ऐसे फितरती, धोखेबाज और कायरों की जमात में बदल दिया जिसके सही होने की एकमात्र कसौटी उसका सफल होना था। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते थे। इसके लिए वह कुछ भी करते रहे हैं।

मुसलमानों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जो मक्का के पैगंबर और मक्का के अल्ला को अपना पैगंबर और अल्ला मानते हैं, परंतु यह साहस नहीं जुटा पाते कि कह सकें कि हम मदीना के अल्ला को अल्ला नहीं मानते वह मुसलमानों का नहीं मुल्लों और जिहादियों का अल्लाह है जिसकी चले तो मुसलमान इंसान न रह जायें, और मुसलमान इस्लाम के पाबंद हो जाएं, मक्का के इस्लामी मूल्यों को मानकर चलें, तो आज की उन समस्याओं का निराकरण हो जाए जिन्हें पैदा करके पश्चिमी देश एशिया को, विशेषतः मुसलमानों को, क्योंकि अल्लाह की मेहरबानी से उनकी धरती से पिघला सोना बाहर आने लगा जिस पर इस्लाम विशेष की कृपा से वे अधिकार कर बैठे हैं और इसे छोड़ना नहीं चाहते।

आज की समस्याएं इस्लाम के कारण नहीं है, पूंजीवादी षड्यंत्र के कारण हैं, जिसे न हिंदुत्ववादी समझ पाते हैं न इस्लामपरस्त। दोनों की आवेश गर्भित नामझी वह कंपोस्ट है जिसे पश्चिमी कूटनीति हमारी खेती के लिए अपनी जरूरत से तैयार करती है।
**** *
इसी पृष्ठभूमि में हम मदीने के मोहम्मद को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।
अरबों के बीच प्राचीन परंपरा से कुछ महीनों को ( पहला, सातवाँ, ग्यारहवां और बारहवां) बहुत पवित्र माना जाता था। इनमें उन कबीलों के बीच भी, जिनमें आपस में ठनी रहती थी किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं होती थी। लोग बिना हथियार के कहीं भी आ जा सकते थे। ऐसा लगता है कि मक्का के व्यापारी प्रायः इन्ही महीनों में माल-असबाब के साथ दिसावर के लिए निकलते और वापस लौटते थे। हमारा यह अनुमान इस बात पर आधारित है कि मोहम्मद ने मक्का के काफिलों पर प्रायः इन्हीं महीनों में हमले किए, इसके लिए अल्ला के हुक्म का बहाना भी तलाश लिया। हम पीछे हमजा की सरदारी में लूट की नाकाम कोशिश का उल्लेख कर आए हैं जो रमजान के महीने में किया गया था।

पिछली तीन विफलताओं के बाद हमले की कमान मुहम्मद ने स्वयं सँभाली। इससे पहले के तीनों हमले दूसरे मुहाजिरों के नेतृत्व में किए गए थे, इन्हें सरिया कहा जाता है। अबवा के गज़वा इस्लामी इतिहास का पहला गजवा था। इसके लिए जिल हज्ज का महीना चुना गया था जिसकी पवित्रता के विषय में कहते हैं स्वयं पैगंबर ने कहा था, “No good deeds done on other days are superior to those done on these (first ten days of Dhal Hajja).” Then some companions of the Prophet said, “Not even Jihad?” He replied, “Not even Jihad”, except that of a man who does it by putting himself and his property in danger (for Allah’s sake) and does not return with any of those things.”(Bukhari 15: 86)।

यह हमला भी कुरेशियों के कारवां पर ही ही किया गया था। इसमें भी विफलता हाथ लगी। यही हाल बुवात और उशैरा के गज़वा का रहा। पर इस बीच एक समझौता उन्होंने कुरेशियों के एक कुनबे बानी धमरा से किया कि धनी कुरेशियों पर हमला हो तो वह उलकी सहायता न करे।बानू मुआलिज से संधि की कि मक्का वालों से टक्कर होने पर वे किनारा कस लेंगे। जिस एकमात्र हमले में कुरेशियों के एक काफिले को लूटने मे सफलता मिली वह नखला का सरिया था, पर इसे भी छोटे हज का बहाना बना कर अब्दुल्ला ने उनके तंबू के करीब तंबू लगा कर या उस समय किया जब वे खाना खा रहे थे। जो भी हो इस बार उनके हाथ पहली बार लूट का माल लगा।

बद्र का युद्ध भी कारवाँ लूटने की तैयारी में और पवित्र महीने में हुआ। सीरिया जाते समय अबू सूफियान कुरैश को उशैरा में घेरने का मुहम्मद का जाल बिछता इससे पहले ही वह हाथ से निकल गया था इसलिए वापसी पर सामना होगा इसका उसे अनुमान था। उसने पहले से मक्का से अपने बचाव के लिए मदद मांग रखी थी और बचाव दल रवाना भी हुआ पर उसने अपना रास्ता बदल लिया और यह सोच कर कि वह अब सुरक्षित है बचाव दल को वापस जाने का संदेश भेज दिया। दूसरे सभी लौट गए केवल एक सरदार अबू जह्ल था जिसने बद्र तक जाने का निश्चय किया।

बद्र के जंग का और इसकी पृष्ठभूमि पर विस्तार से विचार करना होगा क्योंकि इस्लामी इतिहास में यह एक निर्णायक मोड़ है।

Post – 2019-07-13

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर (2)

शुरुआत
मुहम्मद मक्का में शांति और सद्भाव के ही पक्षधर थे इसका एक प्रमाण यह भी है कि मदीना से आने वाले जिन पाँच लोगों को उन्होंने 620 के हज के अवसर पर दीक्षित किया था, उनके माध्यम से वहां के लोगों को जो संदेश मिला था वह यह था कि वह सामाजिक शांति और सौहार्द के प्रचारक हैं और इसलिए अगले साल आपसी कलह में डूबे रहने वाते खजराज के साथ अबस कबीले के दो लोग इस आशा और अनुरोध के साथ आए कि वह यथ्रीब चल कर अपनी मध्यस्थता से उनके आपसी कलह का अंत करें।

अगले वर्ष आए पचहत्तर जन भी नया मजहब अपनाने नहीं अपितु अपनी तकरार खत्म करने में उनकी मध्यस्थता की आशा में ही आए थे, यह दूसरी बात है कि उनके साथ संधि में एक दूसरे की प्राणपण से रक्षा करने की शर्त भी थी जो मदीना के इतिहास सामाजिक अशांति को देखते हुए जरूरी थी।

मक्का से रवाना होते समय या मदीने की रास्ते में उन्होंने या दूसरे मुहाजिरों ने ऐसा कुछ नहीं किया जो उपद्रव की श्रेणी में आता हो।

उन्होंने मदीना पहुंचने के बाद की आरंभ में शांति का ही रास्ता अपनाया। यद्यपि उन्होंने तत्काल स्थानीय कलह को कम करने की दिशा में सीधे कुछ नहीं किया, फिर भी जिन दो समुदायों के बीच में सबसे अधिक तकरार दो सौ साल से चलती आई थी उनके कुछ सदस्यों के इस्लाम कबूल कर लेने के कारण आपसी सद्भाव का एक वातावरण तैयार हुआ।

मदीना में पहुंचने वाले मुहाजिरों की आर्थिक दुर्दशा उनकी तात्कालिक समस्या थी। इसे दूर करने के लिए उन्होंने अंसरों (इस्लाम कबूल कर चुके स्थानीय लोगों )से मुहाजिरों का मेलजोल कराते हुए एक दूसरे का दुख सुख बांटने रास्ता निकाला। यतीमों के लिए रहने और गुजारा करने की व्यवस्था उन्होंने मस्जिद इलाके में की थी और मुहाजिरों को एकत्र बसाया था जिसे वे संगठित रह सकें। इन हथकंडों के कारण उनकी लोकप्रियता में और इस्लाम की स्वीकार्यता में बहुत तेजी से वृद्धि हुई।

इस्लाम के प्रसार में कितनी मेल मिलाप की भावना काम कर रहीं थी, कितने जन्नत में अपनी सीट रिजर्व कराने और हूरों के साथ रंगरेलियां करने के सपने कितने सहायक थे, मोहम्मद आप सचमुच पैगंबर हैं इसका प्रचार कितना कारगर था, इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता, परंतु यह कहा जा सकता है मोहम्मद साहब के पास कोई ऐसा विचार नहीं था जिसके आधार पर वह लोगों को अपना अनुयायी बना सकें। एकमात्र विचार राष्ट्रीय एकता शांति और व्यवस्था का था, परंतु कबीलों के सरदारों की अहंमन्यता के कारण उसकी स्वीकार्यता बहुत सीमित थी ।

इसलिए मदीना में उनका आरंभिक प्रयत्न ‘ईमान वालों को’ अधिक ‘ईमानदार’ बनाने अर्थात् अधिक अंधविश्वासी बनाने तक सीमित था जिसका उनसे भी पहले उपयोग भारतीय परिदृश्य में ब्राह्मणों ने किया था और जिसकी चेतना आज भी समाज में विद्यमान है। इनमें स्वर्ग नरक का पुरस्कार और दंड भी था, ईश्वरीय संबंध या विधान से श्रेष्ठता का दावा भी था और उस के बल पर अपने कथन, आशीर्वचन, शाप की शक्ति में अनन्य विश्वास पैदा करने का प्रयत्न भी था। इसी प्रयत्न में मुहम्मद ने ‘ईमान वालों’ को कुछ कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने की शर्त भी रखी।

पहले रमजान के पवित्र महीने में कुछ लोग यदा-कदा उपवास भी करते थे, प्रायश्चित के लिए साधना भी करते थे, परंतु बहुदेववादी समाज में जैसे किसी भी देवता को मानने की और न मानने की छूट होती है, उसी तरह किसी व्रत- नियम को मानने या न मानने की बाध्यता नहीं होती। यह और केवल यह स्वतंत्रता ही बहुदेववाद की सबसे बड़ी शक्ति है, और इसका अभाव इस्लाम को गुलामों की फौज तैयार करने की कूट-योजना में बदल देता है जिसके बाद इसमें धर्मतत्व की छाया तक मिट जाती है। जो भी हो, गुलामों ने मालिकों के हुक्म का सदा पालन किया है, इसलिए जितनी आसानी से वह महाशक्ति में बदल जाते हैं वह स्वतंत्र लोगों के लिए असंभव होता है। मुहम्मद ने पूरे महीने रोजा रखने को अनिवार्य बना दिया।

मदीना में सबसे अधिक संगठित और शक्तिशाली समुदाय यहूदियों का था। मोहम्मद ने उनको नाराज किए बिना, बल्कि उनका सहयोग प्राप्त करते हुए एक करार किया, जिसका मुख्य लक्ष्य था मुसलमानों को संगठित करना और उनमें इस विश्वास को प्रबल बनाना था कि वह अल्लाह के पैगंबर हैं और उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना महा पातक है। यहूदी उनको पैगंबर मानने के लिए तैयार नहीं थे इसलिए उन पर यह बंदिश नहीं थी। कुछ इतिहासकारों ने इसे जिस रूप में पेश किया है उसमें उनकी ओर से किया गया कुछ फेरबदल भी हो सकता है, फिर भी इसकी निम्न पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं:
Whosoever is rebellious, or seeketh to spread iniquity, enmity, or sedition, amongst the believers, the hand of every man shall be against him, even if he be the son of one of themselves. No believer shall be put to death for killing an infidel; nor shall any infidel be supported against a believer. Whosoever of the Jews followeth us shall have aid and succour; they shall not be injured, nor shall any enemy be aided against them. Protection shall not be granted by any unbeliever to the Quraish of Mecca, either in their persons or their property. Whosoever killeth a believer wrongfully shall be liable to retaliation; the Muslims shall join as one man against the murderer.
‘The Jews shall contribute with the Muslims, so long as they are at war with a common enemy. The several branches of the Jews — those attached respectively to the Bani ‘Auf, Bani Najjar, Bani Aws, etc., are one people with the believers. The Jews will maintain their own religion, the Muslims theirs. As with the Jews, so with their adherents; excepting him who shall transgress and do iniquity, he alone shall be punished and his family. No one shall go forth but with the permission of Muhammad. None shall be held back from seeking his lawful revenge, unless it be excessive. The Jews shall be responsible for their own expenditure, the Muslims for theirs. Each, if attacked, shall come to the assistance of the other. Madina shall be as sacred and inviolable for all that join this treaty.

आरंभिक अवस्था में जब उनकी और उनके अनुयायियों की संख्या बहुत कम थी, तब शांति और मेलजोल के मार्ग पर चलने के अलावा उनके पास और कोई चारा भी नहीं था।

मदीने में अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ने के साथ उनको गैर-मुसलमानों को उत्पीड़ित करने की छूट दी गई या मदीना के लोगों के खड़जंगी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने ऐसा करना आरंभ किया, यह पता नहीं । परंतु इसका यह परिणाम हुआ कि यहूदियों को छोड़कर दूसरे सभी अरब या तो इस्लाम कबूल कर बैठे या या दिखावा करने को मजबूर हुए कि वे मुसलमान हैं जबकि वे अपने पुराने रीति रिवाज को छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं थे और इसलिए जिनको मोहम्मद भरोसे लायक नहीं मानते थे। उनकी स्थिति भारत के मेवाती राजपूतों जैसी थी जिन्हें हाल के दिनों में पक्का मुसलमान बनाने के प्रयत्न होते रहे।

मदीना के लोगों में लूटपाट खून खराबा शर्म नहीं गर्व की बात समझी जाती थी। मोहम्मद की अपनी और दूसरे मुहाजिरों की आर्थिक तंगी और मक्का के कुरेशियों के प्रति क्रोध, उनके द्वारा मक्का की अपनी परिसंपत्तियों से वंचित किए जाने के क्षोभ का मिला-जुला परिणाम था कि उन्होंने रमजान के पवित्र महीने में यह पता चलते ही कि कुरेशियों का बहुत बड़ा काफिला सीरिया से मक्का को लौट रहा है, उन्होंने इस महीने की पवित्रता की चिंता किए बिना हम्जा को तीस मुहाजिरों के साथ उस पर कब्जा करने के लिए रवाना किया। रमजान के महीने की पवित्रता भंग करने का आदेश अल्ला से मिलना ही था, इसलिए इसका इलहाम भी हुआ भी था:

They will ask thee concerning war in the sacred mouth: say, ‘To war therein is bad, but to turn aside from the cause of God, and to have no faith in Him and the sacred Temple, and to drive out its people, is worse in the sight of God; and civil strife is worse than bloodshed.’ Suratu’l-Baqara (ii) 214.
अल्लाह के हुक्म के बाद भी लूट के इस प्रयत्न में उन्हें सफलता नहीं मिली। सेल ने इस पर टिप्पणी की है:
There was nothing seriously wrong from an Arab point of view in one tribe attacking the property of another. Muhammad did nothing more than any other Arab chief, and such he now was, would have done; so there seems no reason to ignore the historic fact that the Muslims began the strife of arms, that they, and not the Meccans, were the first to seek for plunder. The former sorely needed it; the latter did not. This is a simple explanation of the fact and nothing is gained by disguising it. In some way or other means of sustenance had to be provided, and so on the seventh day of the month Ramadan, that is, seven months after his arrival in Madina, Muhammad appointed Hamza bin ‘Abdu’l-Muttalib to the charge of a small expedition.

इसके बाद ऐसे ही लूट के छोटे मोटे दो प्रयत्न उबैदा और साद की अगुआई में हुए। ये भी विफल रहे। जो भी हो हथियार उठाने की यही आरंभिक घटनाएं हैं। इन्हें भले मजहबी रंगत देने की कोशिश की गई हो परंंतु ये आर्थिक कारणों से की गई लूटपाट की घटनाएँ, जिसमें हाथ कुछ नहीं आया। एक अधिकारी विद्वान मांटगोमरी वैट्स के अनुसार “Most of the participants in the [early Islamic] expeditions probably thought of nothing more than booty … There was no thought of spreading the religion of Islam.” Ahmed Al-Dawoody (2011), The Islamic Law of War: Justifications and Regulations, p. 87. Palgrave Macmillan. द्वारा उद्धृत, विकीपीडिया, जिहाद.

Post – 2019-07-11

फितरत, हिंसा और क्रूरता का दौर

भूमिका
मोहम्मद के जीवन में आए इस निर्णायक मोड़ की चर्चा इससे पहले दो बातों को जिनका उल्लेख पीछे कर आए हैं दोबारा दोहराना चाहते हैं। पहला उनके ऐसा हो और बचपन से संबंधित है और दूसरा उस योजना से जिसके लिए मोहब्बत को सबसे उपयुक्त पाया। उनके पिता का देहांत जन्म से पहले ही हो गया। जन्म के बाद माता ने नहीं, मां की नजरों से दूर, एक बद्दू स्त्री इनाम की उम्मीद में दूध पिलाया। ऐसी स्त्री तंगहाल ही हो सकती थी। उसे दो बच्चों को पालना पड़ रहा था। आदर्श स्थिति में भी वह अपने बच्चे का दूध भले बांट दे, आश्रित समझकर पोषित बच्चे की देखभाल करे, परंतु मातृस्नेह नहीं बांट सकती थी, जिसका नियंत्रण उसके हाथ में नहीं, महामाया के हाथ में है।

पुरस्कार की आशा में उचित देखभाल के बावजूद सगे शिशु की तुलना में अपने को उपेक्षित अनुभव करने की उस शिशु की पीड़ा को हम समझ नहीं सकते। दो साल की उम्र के बाद जब पोषिका उसको सगी मां के पास लेकर आती है तो मां उसके स्वास्थ्य को देखते हुए मां को इतनी प्रसन्नता हुई कि उन्होंने आगे के पालन पोषण संतुष्ट होकर उसे इनाम इकराम देकर बच्चे को दुबारा उसी के हवाले कर देती है। एक भी विधवा जिसके भावनात्मक संतोष के लिए सबसे जरूरी उसकी संतान होती है, जिसे अभिजात्य की जरूरतों के अनुसार दूसरे का स्तनपान कराने बाध्यता थी, उस बाध्यता के पूरे होने के बाद भी वह उसे अपने साथ नहीं रखना चाहती। दो साल और गुजरने के बाद हलीमा बच्चे को लेकर फिर मक्का आती है। मां ने उसे फिर रेगिस्तानी जिंदगी के अनुभव के लिए उसके हवाले कर देती है। अपने स्वजनों के द्वारा ही ठुकराए जाने की पीड़ा के साथ यह बोध कि मुझे कोई नहीं चाहता, और फिर पाँच साल के बाद पालिका उसके व्यवहार में आई ऐसे परिवर्तनों से जिससे उसके जीवन में भी समस्या पैदा होने लगती है, उसे मां को यह कह कर लौटाती है क्यों उसने कुछ ऐसी विचित्र घटनाएं देखी है जिसके बाद वह इस बच्चे को अपने पास रख ही नहीं सकती। कोई चारा न रह जाने के बाद मां को उसे रखना पड़ता है, परंतु उसका स्नेह और संरक्षण भी उसे नहीं मिल पाता। कुछ यूं जैसे कोई प्यासा पानी का प्याला मुंह से लगाए कि घूंट मरने से पहले ही प्याला हाथ से छूटकर नीचे गिरे और टूट जाए। साल भर के भीतर ही मां भी चल बसी।

पारिवारिक दासी के हाथों दो साल तक दादा की देखरेख में पला कि दादा भी चल बसे। यह बोध कि मैं अवांछित हूं, मेरा कोई नहीं, मैं अपशकुन हूं, मुझे कोई नहीं चाहता, उस शिशु की मानसिकता को कितनी गहराई से प्रभावित करता है इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता। पूरी दुनिया में मेरा सगा कोई नहीं, यह दुनिया मेरी नहीं है, एक ओर यह आंतरिक भटकाव और दूसरी ओर आजीवन किसी संरक्षक की तलाश। कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढे बन माहि। कवि सत्य है परंतु कई बार कविसत्यों के माध्यम से मानव मन की ग्रंथियां जिस तरह उस तरह कोई विश्लेषक उन्हें बयान कर सकता है। पिता के संरक्षण की तलाश मां की ममता की तलाश, जो है नहीं उसकी तलाश, वो मिले तो भी अतृप्ति बनी रहे, नेदं नेदं नान्यं विद्यते (यह नहीं, यह भी नहीं, पर और कुछ न है न संभव है) समझौता करो, जो है उससे अधिक कुछ सुलभ नहीं है। अनाथ होने और अनाथता के बोध की असंख्य अनुभूतियाँ हैं। कोई नहीं जानता कि कौन, किस को, कहां ले जाएगी।

मोहम्मद को संरक्षक दो मिले। अबू तालिब जिनमें वह अपने पिता की छवि ढूंढता पचीस साल तक बच्चे की तरह उनके साथ लगा रहा। अपनी तंगी में उन्हें कहना पड़ा अब बड़ा हो गया, कुछ काम कर और काम कहां मिलेगा यह भी बताया।

संरक्षिका उन्हीं की पत्नी बनकर मिली। कुछ लोगों को यह समझने में दिक्कत होगी कि मोहम्मद ने अनमेल विवाह क्यों किया, और कुछ इसका समाधान उस दौलत में तलाशेंगे जिसकी स्वामिनी खादिजा थीं। परंतु यह दुनिया मेरी नहीं है, इसमें कोई मेरा नहीं है, इस उदासीनता में भटकने वाले युवक की दिलचस्पी दौलत में नहीं हो सकती थी, मोहम्मद की भी कभी नहीं रही। यह खादिजा का निश्छल विश्वास और उसमें दिखाई देने वाली मां की छवि थी जिसने उन्हें अभिभूत कर दिया।

उनकी मृत्यु के बाद मोहम्मद से किसी ने पूछा, ‘आपको उनका अभाव बहुत खल रहा होगा’. तो जवाब में उन्होंने कहा, वह मेरी पत्नी की थी और मां भी। इस जवाब में उन सभी प्रश्नों का हल छिपा है कि खादिजा के जीवन काल में मोहम्मद क्यों उनके आज्ञाकारी पति क्यों बने रहे।

जिस दूसरे तथ्य को दोहराना चाहता हूं, वह है, वह योजना जो खादिजा के दिमाग में थी और जिसके लिए उन्होंने मोहम्मद को सबसे उपयुक्त पाया था। यह थी कबीलाई अहंकार और आपसी तकरार में डूबे हुए अरब जगत में शांति और राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करना, और अबीसीनिया, रोम और फारस के बढ़ते हुए दबाव से मुक्ति, जिसके साथ गौण रूप में यहूदी, ईसाई और ईरानी अग्निपूजकों धार्मिक हस्तक्षेप से मुक्ति अपने आप जुड़ जाती थी।

प्रसंग वश, याद दिला दें, यमन पर अबीसीनिया का 75 साल तक अधिकार रहा था। जब सना में उसने एक विशाल कैथेड्रल बनवाया और उसे मक्का से बड़ा तीर्थ बनाने की कोशिश की और इसके लिए वहां के शासक अब्राहा ने हाथी पर सवार होकर अपनी सेना का संचालन करते हुए काबा को ध्वस्त करने के लिए आक्रमण किया, जिसके कारण आक्रमण के वर्ष को ही हाथी-वर्ष के नाम से जाना जाता है, उसमें उसको भारी पराजय मिली।

जानते हैं कैसे? मक्का की सेना बहुत मामूली थी उसका सामना कर ही नहीं सकती थी। दैव कृपा से पक्षियों का एक बहुत बड़ा झुंड एकाएक आया। एक-एक पक्षी ने तीन-तीन पत्थर ले रखे थे – दो दोनों पंजों में और एक चोंच में। उन्होंने सेना पर पत्थर बरसाए और उसी ने अब्राहा घायल होकर मरते मरते बचा और उसकी सेना का सफाया हो गया। यह उस वर्ष की घटना है जिसमें मोहम्मद का जन्म हुआ बताया जाता है। आप चाहे तो इसे उनके चमत्कार से भी जोड़ सकते हैं।

खैर इसके साथ अबीसीनिया की ताकत घट गई। अरबों ने उन्हें भगाने के लिए फारस से मदद माँगी। वे मदद को आए और ईसाइयों को वहां से भगा दिया, परंतु खुद कब्जा जमा बैठे। मक्का पर कब्जा जमाने के लिए रोम के सम्राट हेराक्लियस ने भी उस्मान को, जो पहले हनीफ था, पर बाद में ईसाई बन गया था, 610 में मक्का का गवर्नर बना कर भेजा था, लेकिन मक्का वालों ने विदेशी शासन कबूल न किया और उसे भागना पड़ा था। मक्का के राजनीतिक और धार्मिक माहौल में यही परिस्थितियां थीं जिनमें एक नया प्रयोग किया जा रहा था, इसलिए मैं इस बात को दोहराना चाहता हूं कि यह अभियान शांति-व्यवस्था, स्वतंत्रता और अरब जगत की एकता के लिए आरंभ हुआ था। राजनीतिक आंदोलन आरंभ नहीं किया जा सकता था क्योंकि उस दशा में कबीलों का अपना अहंकार किसी अन्य के नेतृत्व को स्वीकार करने में बाधक था और इसलिए मोहम्मद की साधना और असाधारण सिद्धि को ओट के रूप में इस्तेमाल किया गया। यह एकेश्वरवाद के विरुद्ध बहुदेववादियों का प्रतिरोध था जिसके कारण अपने मत के प्रचार के लिए उन्हें मदीना उपयुक्त दिखाई दिया और मदीने के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक यथार्थ ने पूरा रास्ता ही बदल दिया।

यहां हम मोहम्मद की मनोग्रंथि के उस पहलू को लेना चाहेंगे जिसमें उन्हें लगता था कि इस दुनिया में कोई मुझे नहीं चाहता। यह दुनिया मेरी नहीं है। इस हीनता ने अपने दोनों संरक्षकों के न रहने पर अवरुद्ध आवेग के जलाशय के टूटे हुए तटबंध का अनियंत्रित रूप ग्रहण कर लिया और जिससे वंचित रहे उसको हर कीमत पर पाने और अपने अधिकार से बाहर न जाने देने की झक क्रमशः उग्र से उग्रतर होती चली गई। एक सुंदर, नवोढ़ा और दूसरी अनुभवी और समर्पित प्रौढ़ा के होते हुए 52 साल के, ढलती उम्र के, किसी व्यक्ति को सुखी रहने ने के लिए कोई और झंझट पालने की जरूरत नहीं थी। झमेला तो एक के बाद दूसरी के आने के साथ ही आरंभ हो गया था, परंतु जो कुछ भी है उस पर कब्जा जमा कर अपना बनाने की वह भूख ही थी जिसने सभी उपलब्ध स्त्रियों को अपनी पत्नी बनाने और उनके अतिरिक्त भी रखेलों का हरम बसाने का कारण बना। यह काम उद्वेग नहीं था, तीतर के खालीपन को भरने का अवचेतन दबाव था, जिसने उनको अपनी समस्याएं बढ़ाने के लिए बाध्य किया।

इसी पृष्ठभूमि में हम उनके निरंतर मानव द्रोही होते जाने वाले आचरण की पड़ताल करेंगे।

Post – 2019-07-10

रीतियां, रूढ़ियां और विश्वास (अन्तिम)

कामदेव की मारक शक्ति की पहचान
मोहम्मद साहब को मनुष्य की है सीमाओं और शक्तियों की बहुत अच्छी समझ थी। वह जानते थे की महान से महान योद्धा सुंदरियों के आगे घुटने टेक देता है। इसे वह अपनी मानवीय दुर्बलता के कारण जानते थे, या मानव स्वभाव की बहुत अच्छी समझ के आधार पर, यह तय करना कठिन है। उन्होंने स्वयं उस ढलती आयु में आत्म संयम खो दिया, जब महिलाएं अनासक्ति का शिकार हो जाती हैं परंतु इसके अतिरिक्त उनका यह आचरण उनकी युवावस्था के संयम को देखते हुए भी अविश्वसनीय प्रतीत होती है।

संभवतः यह भी एक कारण है जिससे मुस्लिम व्याख्याताओं ने उनकी कामान्धता को पर-दुख-कातरता के दुर्लभ नमूने के रूप में पेश किया है। मोहम्मद साहब ने जिस तरह अपने जीवन में सभी मर्यादाओं से मुक्त होकर स्वछंदता का रास्ता अपनाया और अपनी दुर्बलता के लिए अल्लाह को जिम्मेदार ठहराया, उसी तरह उन्होंने प्राणिमात्र की इस दुर्बलता को समझते हुए स्वर्ग की ऐसी कल्पना की जिसमें एक-एक बंदे के हिस्से में बहुभोग्या चिरकिशोरी हूरों का हरम हासिल हो, बल्कि इस जीवन में भी इतनी खुली छूट धार्मिक समर्थन के साथ दी जो आदिम अवस्था के पाशविक स्वैराचार की याद दिलाती है।

विवाह और विवाहेतर संबंध
अरब समाज में पहले विवाहेतर संबंध कुछ पारिवारिक दायरों के बाहर ही चलन में थे। सभी को सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखना होता था। मोहम्मद भी इनका तब तक निर्वाह करते रहे जब तक उनकी निरंतर उग्र होती लालसा में कोई वर्जना बाधक नहीं बनी, क्योंकि उस दशा में अल्लाह का फरमान आ जाता जिसका उल्लंघन वह नहीं कर सकते थे, इसलिए दूसरों पर वह प्रतिबंध लागू रहता, केवल उन्हें उसकी छूट मिल जाती ; –
तुम्हारे लिए हराम है तुम्हारी माएँ (विमाताएं और दादियाँ) बेटियाँ (और पोतियाँ), बहनें (पिता से पैदा, पिता से विवाह से पहले उसी माँ से पैदा) फूफियाँ, मौसियाँ, भतीतियाँ, भाँजिया, और तुम्हारी वे माएँ जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो और दूध के रिश्ते से तुम्हारी बहनें और तुम्हारी सासें और तुम्हारी पत्नियों की बेटियाँ जिनसे तुम सम्भोग कर चुक हो (परन्तु यदि सम्भोग नहीं किया है तो इसमें तुम पर कोई गुनाह नहीं), और तुम्हारे उन बेटों की पत्नियाँ जो तुमसे पैदा हों और यह भी कि तुम दो बहनों (साथ ही उसकी भतीजी, बुआ और मौसी) से एक साथ निकाह कर सकते हो; जो पहले जो हो चुका सो हो चुका। निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है।[]

यह छूट तो सामान्य मुसलमानों के लिए थी। मोहम्मद साहब के लिए ये बंधन लागू नहीं होते थे, पैगंबर बनने के बाद वह सामान्य मनुष्य नहीं रह गए थे। इसलिए:
ऐ नबी हमने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवियों को हलाल कर दिया है जिनको तुम मेहर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौंडियों को (भी) जो खु़दा ने तुमको (बग़ैर लड़े-भिड़े) माले ग़नीमत में अता की है और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और तुम्हारी फूफियों की बेटियाँ और तुम्हारे मामू की बेटियाँ और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियाँ जो तुम्हारे साथ हिजरत करके आयी हैं (हलाल कर दी और हर ईमानवाली औरत (भी हलाल कर दी) अगर वह अपने को (बग़ैर मेहर) नबी को दे दें और नबी भी उससे निकाह करना चाहते हों मगर (ऐ रसूल) ये हुक्म सिर्फ तुम्हारे वास्ते ख़ास है और मोमिनीन के लिए नहीं और हमने जो कुछ (मेहर या क़ीमत) आम मोमिनीन पर उनकी बीवियों और उनकी लौंडियों के बारे में मुक़र्रर कर दिया है हम खू़ब जानते हैं और (तुम्हारी रिआयत इसलिए है) ताकि तुमको (बीवियों की तरफ से) कोई दिक़्क़त न हो और खु़दा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (33.50)

[] Muhammad Farooq Khan and Muhammad Ahmed के अनुवाद में कुछ अंश छूट गए थे, उन्हे हमने पूरा कर दिया है इसलिए अंग्रेजी अनुवाद : 4.23. Forbidden to you (O believing men) are your mothers (including stepmothers and grandmothers) and daughters (including granddaughters), your sisters (including full sisters and half-sisters), your aunts paternal and maternal, your brothers’ daughters, your sisters’ daughters, your mothers who have given suck to you, your milk-sisters (all those as closely related to you through milk as through descent), your wives’ mothers, your stepdaughters – who are your foster-children, born of your wives with whom you have consummated marriage; but if you have not consummated marriage with them, there will be no blame on you (should you marry their daughters) – and the spouses of your sons who are of your loins, and to take two sisters together in marriage (including a niece and her aunt, maternal or paternal) – except what has happened (of that sort) in the past. Surely God is All-Forgiving, All-Compassionate.

इस्लाम के साथ जन्नत बनी
इस्लामी पुराण शास्त्र के अनुसार नरक पहले से था, स्वर्ग की स्थापना इस्लाम कबूल करने वालों में अल्लाह और पैगंबर के कहने के अनुसार चलने वालों के लिए हुई। कहा जाता है कि खादिजा ने मोहम्मद से अपने उन दोनों बच्चों के भविष्य के बारे में पूछा जिनका मोहम्मद को इल्हाम होने से पहले इंतकाल हो गया था, तो पैगंबर ने कहा, वे नरक में हैं, क्योंकि वे इस्लाम से पहले पैदा हुए थे, और मुसलमान बनने से पहले मर गए थे।
[] On the authority of ‘Ali a Tradition is recorded stating that Khadija once asked about the present condition of her two children, who died before the days of Islam. The Prophet said they were in hell, but that her children born after Islam, that is, his children, would be in paradise. Mishkatu’l-Masabih (Madras ed., A.H.1274), p. 23. cited by Sell.

यही हाल मोहम्मद के माता, पिता, दादा और चाचा का भी था। इस्लाम की जन्नत कायनात में सबसे बाद में जुड़ने वाली बस्ती है जिसमें केवल मुसलमान ही प्रवेश कर सकते हैं।

रोजा
रमजान का महीना पहले भी पवित्र माना जाता था और इसमें कुछ लोगों व्रत भी रखते थे और आत्म शुद्धि के लिए साधना भी करते थे यह हम देख आए हैं। परंतु मुसलमानों के लिए इसे अनिवार्य बनाने का मदीना पहुंचने के डेढ़ साल बाद यहूदियों से तालमेल बैठाने के प्रयत्न में आरंभ किया गया और संबंध सुधारने के लिए केवल इतना ही जरूरी नहीं लगा अपितु नमाज काबे की ओर रुक कर के करने की जगह यरुशलम की तरफ करके की जाने लगी क्योंकि यहूदी हर दृष्टि से मदीना में अधिक प्रभावशाली और दूसरों से आगे बढ़े हुए थे।
The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra.
fn. The change of the Qibla and the appointment of the Ramadan fast were made in the second year at Madina, about seventeen or eighteen months after the Hijra. Other changes were also made [See RabbiGeiger in Judaism and Islam (S.P.C.K., Madras), pp 157-9.]. The law laid down in Suratu’l-Baqara (ii) 230 is opposed to Deut, xxiv. 1-4. See H. D. Qur’an, pp. 122-3. Sell, p. 103.

चालीस की संख्या
चालीस की संख्या का इस्लाम में बहुत महत्त्व है, इसका धार्मिक और वैज्ञानिक विश्लेषण करने का भी प्रयत्न किया गया परंतु वास्तविक कारण यह है कि मोहम्मद साहब को 40 वर्ष की आयु में पैगंबरी प्राप्त हुई थी ।

नामकरण
मुसलमानों में नाम के कुछ प्रमुख स्रोत दिखाई देते हैं। एक है इब्रानी परंपरा- इब्राहिम (अब्राहम), इजराइल, याकूब, इद्रीस, इसहाक (आइजैक), दाऊद (डेविड), सुलेमान, हारू, यूसुफ (यीकूब का बेटा) फिरवान (फराऊन), सारा, आसिया, अज़ीज़आदि।

दूसरा है, वे मानवीय गुण जिनकी मुहम्मद ने मक्का के दौर में प्रशंसा की : रज्जाक – रोजी दोनेवाला (अल्लाह), रफीक- मित्र, सहायक, सादिक – सत्यनिष्ठ, सलीम- शांत, शांतिप्रिय,>सलमा>सलामत (हुसेन), सलमान, गफ्फार – क्षमाशील> गफ्फूर> गफरुल्लाह, रफीकुद्दीन। इसी तरह, रहीम, करीम आदि जो एक ओर तो ईश्वरीय गुणों से जुड़े हैं, दूसरी ओर मनुष्यों से जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे इन गुणों को अपनाते हुए आत्मोत्थान करेंगे। नाम के गुण के अनुसार यदि संतान बन पाती तो मेरी चारों ओर पूजा हो रही होती, प्रभाव नहीं होता इसलिए इससे इतना ही पता चलता है किसी समाज की आकांक्षाएं क्या है? परंतु यदि ऐसे ही शब्दों के साथ दीन ( गफूर उद्दीन), करीमुद्दीन लग जाए तो आशय बदल जाता है। सदाकत हुसैन हुसैन के प्रति सत्यनिष्ठ हो सकते हैं, दूसरों के साथ उनके व्यवहार का अनुमान नहीं किया जा सकता।

एक तीसरी परंपरा मुहम्मद साहब के जीवन और उसके दौरान घटित घटनाओं और पात्रों से संबंधित है जिसका विस्तार अपेक्षित नहीं है- उस्मान, जाफर, अब्बास, तालिब,आयशा, कुलसुम, फातिमा, जुवैदा, जैनब, अली, हाशिम, कुरैशी, आदि ।
यहां हम दो बातों ओर ध्यान दिलाना चाहते हैे। पहला है, इब्राहीमी और उसके बाद ईसाई प्रभाव अरब में इतना गहरा हो चुका कि लोग उससे जुड़ने में गर्व अनुभव करते थे, पृष्ठभूमि में भारतीय आकर्षण काम कर रहा था, जिसे अयूब, मरियम, हिंद जैसे नामों में देखा जा सकता ।
दूसरा अल्लाह के पर्यायों का नामकरण में वृद्धि और उसके साथ दासता, दीनता और समर्पण भाव प्रकट करने वाले विशेषण या संज्ञाओं की भरमार। इस्लाम के भारत में आगमन के बाद इस प्रभाव से हिंदुओं में भी देवों देवियों का नामकरण में प्रवेश और उनके साथ दास भाव का गौरवान्वित होना- कबीरदास, तुलसीदास, सूरदास, नाभादास, हरिदास, रविदास, रामदास, राम चरण, शिचरण, कालीचरण – आदि।