Post – 2019-09-11

रामकथा की परंपरा(13)
पहली नजर में यह लग सकता है कि हम रामकथा की परंपरा से अलग हटकर ऋग्वेद कालीन खनन-उद्योग के दलदल में इस तरह फंस गए हैं बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं मिल रहा है। कुछ दूर तक यह आशंका सही भी हो सकती है, क्योंकि हमने पहले से कोई खाका तैयार करके इस विषय पर लिखना आरंभ नहीं किया। लिखने के दौर में ही मुझे स्वयं उन आश्चर्यजनक सच्चाइयों का पता चला जिनकी न तो किसी अन्य लेखक ने कल्पना की थी, न स्वयं मुझे इनका अनुमान था।

परंतु रामायण में ऋग्वेद इस तरह इतने जटिल रूप में उपस्थित है कि हमें लगता है कि बौद्ध धर्म को निष्प्रभाव करने के लिए अपने समय की सबसे लोकप्रिय इतिहास गाथा को महिमामंडित करने के लिए ऋग्वेद की वृत्रकथा का बड़े मनोयोग से समावेश करते हुए, इसे लोकोत्तर बना दिया गया। इसलिए ऋग्वेद के खनन कार्य को समझे बिना रामायण की बारीकियों को समझा ही नहीं जा सकता। उसके अनेक पक्ष या तो धुँधले रह जाते हैं या अनर्गल प्रतीत होते हैं।

ऋग्वेद कालीन आर्थिक गतिविधियां चार दिशाओं में अग्रसर दिखाई देती हैं- पशुपालन, कृषि, व्यापार और उद्योग। उद्योग में हम खनन को भी शामिल कर सकते हैं। यह रोचक है कि रामायण की कथा एक ओर तो कृषि की प्रारंभिक अवस्था की समस्याओं को इस तरह समाहित किए हुए है कि पहली नजर में हमारा ध्यान उधर जाता ही नहीं। वैदिक कालीन कृषि, गोपालन और व्यापार एक पुरानी उपकथा में सिमट कर रह जाते हैं, जिसे हम समुद्र मंथन की जटिल संरचना में बँधा पाते हैं।

यह पहली नजर में एक समस्या प्रतीत होता है, परंतु कुछ रुक कर सोचने पर हमें कृषि और खनिकर्म में गहरी समानता दिखाई देती है। कृषि को धरती का दोहन कहा गया है, और यही बात खनिज संपदा के दोहन पर भी लागू होती है।

इसके साथ पर्वत और बादल का जो आपसी संबंध है, वह इतना मायावी है एक की विशेषता दूसरे पर आसानी से आरोपित की जा सकती है।

हनुमान स्वयं केवल मारुति नहीं है अंजनी के भी पुत्र हैं। अग्नि के भी प्रतिरूप हैं, सूर्य का भी भक्षण कर जाने वाले – लाल देह लाली लसै – हैं। इसीलिए हमें ‘रत्नधातम’ अग्नि की खनन, धातु शोधन, और प्रसाधन में, भूमिका को रेखांकित करना जरूरी प्रतीत होता है। अभी तक अग्नि के तो विविध रूप हमारा ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, परंतु यज्ञ (कृत्रिम उत्पादन) का एक ही पक्ष विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है – यज्ञात् भवति पर्जन्य पर्जन्यात् अन्न संभवः, अन्नात् भवन्ति भूतानि यज्ञो कर्म समुद्भवः। वहां से आगे बढ़ने पर आध्यात्मिक रूप दिया जाता रहा है। इसमें अग्नि का धूमकेतु रूप उजागर है। यज्ञ का वह रूप जिसमें अग्नि के शोचिष्केश रूप को, प्रकाश, लपट और ऊष्मा पैदा करने की उसकी शक्ति को प्रधानता दी जाती रही है, हमारी चिंता के केंद्र में आया ही नहीं। स्वयं मेरी अपनी समझ इस विषय में पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी, जो इस लेख माला के चलते हुई।

मैं जब कहता हूँ कि ऋग्वेद विश्व सभ्यता का शिखर बिंदु है तो इसलिए नहीं कि आज की तुलना में भौतिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक दृष्टि से वह किसी गिनती में आता है, अपितु इसलिए कि सामाजिक न्याय की दृष्टि से विश्व इतिहास का शिखर बिंदु है। यह बात मैं इस कटु सत्य के बाद भी कह रहा हूँ कि पुरुष सूक्त भी ऋग्वेद में ही है। उसका चालाक लोगों ने जो उपयोग किया वह एक अलग कहानी है।

दूसरी बात यह कि वैदिक काल में न तो आर्थिक समानता थी, न ही सामाजिक समानता थी। दुनिया में आज तक संपत्ति पर अधिकार करने वालों का राज्य रहा है। साम्यवाद आदिम अवस्था की अवधारणा है जिसमें भी इसका समुचित निर्वाह नहीं होता था । साम्यवाद के आधुनिक प्रयोग भी इसलिए विफल रहे कि साम्यवाद की भावना का निर्वाह संभव नहीं हुआ, क्योंकि सामान से भिन्न, एक से बहु, एक जैसे से विविधतापूर्ण की उत्पत्ति सृष्टि का नियम है और साम्यवादी दर्शन अपने अहंकार में इस नियम को उलटने का प्रयत्न कर रहा था, और इसके बावजूद अपने को वैज्ञानिक दर्शन सिद्ध कर रहा था। विज्ञान प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं है, उसके नियमों को समझकर उन शक्तियों का समाज हित में उपयोग करने की विद्या है।

हम केवल यह याद दिलाना चाहते हैं कि वैदिक काल में श्रमिकों का उनकी दक्षता के अनुसार इतना सम्मान था कि वे ऋषि माने जाते थे। हड़प्पा की उपादान संस्कृति से भी यह प्रमाणित होता है कि श्रमजीवी वर्ग का जीवन स्तर अन्य प्राचीन और नवीन सभ्यताओं की तुलना में अधिक सम्मानजनक था।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए ही हम आप्री सूक्तों को वैदिक, कवियों को और अग्नि की भूमिका को समझने का प्रयत्न कर सकते हैं।

परंतु आज तो भूमिका ही इतनी भारी पड़ गई कि विषय पर आना भी चाहें तो लोग सिर पकड़ कर बैठ जाएंगे । हनुमान की पूंछ की बात जग जाहिर है, पर हमारा यह लेखन भी कितना बढ़ जाएगा, इसका स्वयं हमें भी अनुमान नहीं।

Post – 2019-09-10

#रामकथा_की_परंपरा(12)

सुरंगों के भीतर अंधेरा बहुत है

अजंता की गुफाओं के अंधेरे में चित्रकारों को प्रकाश कहां से मिलता रहा होगा कि वे अपने चित्र उकेर सकें? इसका उत्तर विस्मय और ऊहा पर छोड़ दिया जाता है। प्रश्न उससे भी दो ढाई हजार साल पीछे जाकर किया जा सकता है, खनिकर्मियों को सुरंग के भीतर प्रकाश कैसे मिलता रहा होगा कि वे अपनी काट छाँट कर सकें? प्रकाश की उनकी आकुलता ही “तमसो मा ज्योतिर्गमय” ( छान्दोग्य, मांडूक्य, मुंडक, बृहादरण्यक) का आध्यात्मिक सूत्र बनती है ? ऋग्वेद में यह कामना भौतिक कारणों से अधिक उत्कट रूप में -उद् वयं तमसस्परि ज्योतिः पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यं अगन्म ज्योतिः उत्तमम् । 1.50.10; त्वं ज्योतिषा वि तमो ववर्थ; सो अन्धे चित् तमसि ज्योतिर्विदन्, जैसे पदों में – व्यक्त हुई है।

हमने चट्टानों को तोड़ने के जिन हथियारों का उल्लेख किया है वे सुरंगों के भीतर किस तरह चलाए जाते थे इसका अनुमान नहीं कर पाता। चट्टानों को ढीला करने के लिए आग जलाने से पैदा धुँए से बचने के लिए वे
क्या तरीका अपनाते थे, इसका सही अनुमान नही कर पाता। उनकी मुख्य समस्या प्रकाश का कोई ऐसा तरीका निकालने की थी जिससे प्रकाश तो मिले परंतु दम घोटू धुँआ न पैदा हो। संभवतः घृतपृष्ठ अग्नि इसी को कहते रहे हों। यज्ञ में भी घी का तर्पण किया जाता है पर वह ईंधन का हिस्सा होता था। घृतवन्तमुप मासि मधुमन्तं तनूनपात्।

छेद करने के लिए उनके पास भृमि और भ्रम (बर्मी और बर्मा) थे़, चिराई और कटाई के लिए चक्र था (अवर्तयत् सूर्यो न चक्रं भिनद् बलमिन्द्रो अंगिरस्वान् ।। 2.11.20) हो सकता है यह सूर्याकार गोल न हो कर अर्धचंद्राकार आरा रहा हो, छेनी, हथौड़ा जैसे दूसरे यन्त्र थे। किनका किस युक्ति से प्रयोग करते थे इसका सही अनुमान संभव नहीं है।

एक विशेष बात जो लक्ष्य की गई है वह यह कि सुरंगों की कटाई खुदाई से निकले पत्थर उन स्थलों पर नहीं मिले हैं जिसका अर्थ है वे किसी भी चीज को बर्वाद नहीं होने देते थे।

बाद के सत्र
खनन का काम एक सत्र में पूरा नहीं हो सकता था। कई बार खुदाई करने वाले उस गर्भ में पहुंच ही नहीं पाते थे जहाँ विपुल भंडार छिपा रहता था। अधूरा काम अगले सत्रों मैं पूरा किया जाता था। हम मैकडनल द्वारा उद्धृत पंचविंश ब्राह्मण के उस कथन पर ध्यान दें, जिसमें वल की कन्दरा को पत्थर से बंद करने का हवाला है- The PB (19.7) speaks of the cave, Vala, of the Asuras being closed by a stone. वास्तव में यह सत्र की समाप्ति पर उस बिल या सुरंग को बंद करने से संबंध रखता है, जिसमें वे काम करते रहे थे। रामायण में बालि की कथा में भी इसका हवाला है, यह हम देख पाए हैं। अगले सत्र में काम आरंभ करने के लिए इस पत्थर को हटाया जाता था। सुरंग को संभवतः वे अपनी गुह्य भाषा में देवी और प्रवेश द्वार को देवी द्वार कहते थे।

इस अवसर पर उसी तरह का अनुष्ठान होता था और इसके लिए जो मंत्र पढ़े जाते थे वे आप्री सूक्तों में उपलब्ध हैं, जैसे मृत्यु और विवाह के (यामायन और सूर्याविवाह के मंत्र जो आज तक पढ़े जाते हैं। हमें इस बात का संदेह है कि आरंभ में आप्री सूक्त एक ही था, परंतु वैदिक काल में उसके कुछ पाठांतर हो गए थे।इनकी चर्चा करने से पहले हम एक दूसरे पक्ष पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं ।

वेदव्यास की चूक(?)
सामान्य विश्वास है कि वेद में कोई दोष नहीं निकाला जा सकता। इसके दो कारण हैं। पहला वेद को आप्त प्रमाण मानना। उसमें जो कुछ लिखा है वह गलत हो ही नहीं सकता, इसलिए उस पर पुनर्विचार किया ही नहीं जा सकता।
यह एक विशाल संग्रह है जिसे जाने किन किन स्रोतों से मूल सामग्री को जुटाकर ग्रंथ का आकार दिया गया और यह प्रयत्न करने वाले व्यक्ति को हम वेदव्यास के रूप में जानते हैं।आप्तता की यह बीमारी भी अनेक दूसरी बातों के साथ सामी पृष्ठभूमि में पहुंची थी। है बहुत खतरनाक।

दूसरा कारण यह है कि इसके संपादन और संरक्षण में इतनी सावधानी बरती गई है कि एक भी अक्षर इधर से उधर न हो सके, कोई बदलाव न किया जा सके, कुछ जोड़ा न जा सके। इसी चिंता से इसके एक एक अक्षर की गिनती की गई। केवल लिखित पाठ पर भरोसा न करके, इसको कंठस्थ करने की विचित्र पद्धतियां निकाली गई, जिनकी चर्चा यहां जरूरी नहीं है। पूरा ऋग्वेद शायद ही कभी किसी को कंठस्थ रहा हो, परंतु विभिन्न अवसरों पर मंत्र के रूप में पढ़े जाने वाले शब्दों को वैदिक कालीन ढंग से सस्वर पाठ या गान करने वाले विद्वानों की कमी नहीं थी। उनको इन सूक्तों का पाठ पूरे विश्वास से करते हुए देखकर यह भ्रम होता है कि कंठाग्र करने की परंपरा से ही वेदों का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता रहा होगा। इस तरह की दलील विशेष रूप से और हठ पूर्वक वे लोग देते हैं जो प्राचीन भारतीय समाज को अक्षर ज्ञान से वंचित सिद्ध करने के लिए कृतसंकल्प रहे हैं।

जो भी हो कुछ गलतियाँ पूरी सावधानी के बाद भी हो ही जाती हैं। वेद में भी गलती हो जाए तो कोई अचरज की बात नहीं।

आप्री सूक्त पूरे ऋग्वेद में दस बार आए हैं। ऋग्वेद में दस मंडल हैं यह हमें पता है। ऐसा लगता है कि प्रत्येक मंडल का एक आप्री सूक्त था। मंडल दो, पाँच, सात और नव में आप्री सूक्त एक-एक हैं। मंडल चार, छह और आठ मे आप्री सूक्त नहीं है। इस कमी को पहला और दसवाँ मंडल पूरा कर देते हैं। पहले मंडल में एक की जगह तीन आ्प्री सूक्त हैं, और दसवें मंडल में दो। संपादन के क्रम में कहीं कोई गड़बड़ी हुई जरूर है।

पहले और दसवें मंडल में सूक्तों की संख्या एक बराबर है, अर्थात् प्रत्येक में 191सूक्त हैं। बीच के मंडलों में सूत्रों की संख्या अलग अलग (क्रमशः 43, 62, 58, 87, 75, 104, 103, 114) है। ऐसा लगता है शून्य और नव से अंत होने वाली संख्याओं के प्रति उसी समय से कुछ पूर्वाग्रह काम करते आए हैं । आज भी यदि किसी को 100 या 10 देना हो तो शुभ अवसर एक बढ़ा कर, अशुभ अवसर पर एक घटाकर, देने का चलन है। यह विश्वास व्यवसाय में भी है। भारतीय व्यापारी तय भार से कुछ बढ़ा कर तोलता है , और आप कुछ झँस लेने को भी तैयार हो जाएं, वह बिल्कुल तैयार नहीं होता। इसी के कारण एक तो पहले और अंतिम मंडल के सूक्तों की संख्या बराबर रख कर संतुलित बनाना था, और दूसरी ओर अंतिम संख्या को शून्य या नव से बचाना था, इसके लिए सबसे अधिक आसान काम तीन मंडलों के आप्री सूक्तों को इनमें जोड़ना प्रतीत हुआ होगा।

सभी आप्री सूक्तों के ऋषियों (पात्रों) में भिन्नता है, परंतु सभी के देवता (वर्ण्यविषय) लगभग एक जैसे। सभी में देवताओं का क्रम तक एक जैसा है। इसे हम मंडल एक के 13वें और 142, वें सूक्तों के ऋषि, देवता और 5वींओ 6ठीं ऋचाओं की तुलना करके देख सकते हैं।

12 मेधातिथिकाण्वः, (आप्रीसूक्तं) – अग्निरूपा देवताः (1 इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, 2 तनूनपात, 3 नराशंसः, 4 इळः, 5 बर्हिः, 6 देवीःद्वारः, 7 उषासानक्ता, 8 दैव्यौ होतारौ, 9 तिस्रो देव्यः-सरस्वतीळाभारत्यः, 10 त्वष्टा, 11 वनस्पतिः, 12 स्वाहाकृतयः। गायत्री।
स्तृणीत बर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिणः ।
यत्रामृतस्य चक्षणम् । 1.13.5
वि श्रयन्तामृतावृधो द्वारो देवीरसश्चतः ।
अद्या नूनं च यष्टवे ।। 1.13.6

13 दीर्घतमा औचथ्यः । (आप्रीसूक्तं ) 1 इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, 2 तनूनपात, 3 नराशंसः, 4 इळः, 5 बर्हिः, 6 देवीः द्वारः, 7 उषासानक्ता, 8 दैव्यौ होतारौ प्रचेतसौ, 9 तिस्रो देव्यः-सरस्वतीळाभारत्यः, 10 त्वष्टा, 11 वनस्पतिः, 12 स्वाहाकृतयः, 13 इन्द्रः। अनुष्टुप् ।
स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे स्वध्वरे ।
वृंजे देवव्यचस्तममिन्द्राय शर्म सप्रथः ।। 1.142.5
वि श्रयन्तामृतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः ।
पावकासः पुरुस्पृहो द्वारः देवीरसश्चतः ।। 1.142.6

परंतु हमारे लिए इन शब्दों का महत्व यह है कि आप्री सूक्त उस अनुष्ठान से संबंधित हैं जिसका आयोजन बाद के सत्रों में पहले की खुदी सुरंगों के बंद किए गए द्वारों को खोलने से पहले किया जाता था।अपने विषय से हम कुछ अधिक भटक गए हैं। अपने विषय पर वापस लौटना होगा।

Post – 2019-09-08

#रामकथा_की_परंपरा (11)
#खनन_का_तंत्र-2

चट्टानों के भीतर किसने हीरे, रतन चाँदी, सोना तथा अन्य धातुओं को छिपा कर रख दिया, यह उत्तरी भारत के मैदानी भाग के लिए, जिसमें न पहाड़ हैं न कोई खनिज धातु, खास करके आश्चर्य की चीज थी। वहां से इन बहुमूल्य खनिजों कहानियां सुनने वालों को यह कुछ और विचित्र लगता था, मानो सब कुछ सोने और चांदी का ही बना हो। इसका बड़ा सुंदर वर्णन रामायण में मिलता है। अंधेरी सुरंग को पार करने के बाद वानरों को एक तपस्वनी मिलती है जिसे वे अपनी व्यथा और हैरानी बताते हैे, “अंधकार से भरे इस बिल में हिम्मत बाँध कर प्रवेश करने वाले हम भूख, प्यास और थकान से निढाल थे और बापर निकले तो जो जो कुछ देखा उसे देख कर दंग रह गए। ऐसा वैभव न सुना या देखा था न देखने को मिलेगा। इसे देख कर तो हमारे होश ही उड़ गए। यहाँ सोने के विशाल भवन (विमानानि) हैं और सामान्य जनों के आवास (गृहाणि) चाँदी के हैं । इतने अलौकिक उत्तम भवन जिसने भी बनाए हों…”
इदं प्रविष्टाः सहसा बिलं तिमिर संवृतम् . क्षुत्पिपासापरिश्रान्ताः परिखिन्नाश्च सर्वशः।
महद् धरण्याविवरं प्रविष्ठाः स्म पिपासिताः इमान् स्तु एवं विधान् भावान् विधान् अद्भुतोपमान्।
दृष्ट्वा वयं प्रव्यथिताः संभ्रान्ता नष्टचेतसः। कांचनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च।
येनेन कांचनं दिव्यं निर्मितं भवनोत्तमम्।
तपस्विनी बताती है, “ऐ वानरोत्तम, मय नाम का एक महातेजस्वी रचनाकार (जो है नहीं, संभव नहीं है उसे अपने कौशल प्रतीत कराने वाला, जिस श्रेणी में हम भी आते हैं) उसी ने अपने असाधारण कौशल से ये कंचन के वन निर्मित किए हैं।”
मयो नाम महातेजा मायावी वानरर्षभ। तेनेदं निर्मितं सर्वं मायया कांचनं वनम्। रा.4.51..2,3,5,10,11

इसी का विस्तार है सोने की लंका (कांचनानि विमानानि राजतानि गृहाणि च।) में होता है। सीता के पास पहुंचे हनुमान भी प्यास से परेशान हैं, बस यहां कंचन वन की जगह सचमुच फलों से लदा उद्यान है परंतु उनकी रुचि फल खाने में उतनी नहीं है जितना इस वन को नष्ट करने में ।
यदि इंद्र अपनी माया से प्रबल हुए, अचल, अभेद्य, दृढ़ मायावी शुष्ण को अपनी इच्छा से. अपने प्रताप से, अपने पर्ववान वज्र के प्रहार से चकनाचूर कर दिया:
अया ह त्यं मायया वावृधानं मनोजुवा स्वतवः पर्वतेन ।
अच्युता चिद्वीळता स्वोजो रुजो वि दृळ्हा धृषता विरप्शिन् ।। 6.22.6
तो लगभग वही काम रावण द्वारा रक्षित लंका के साथ राम नहीं राम का दूत करने जा रहा है। उद्यान उजाड़ने के बाद नगर जला देता है । एक भवन से दूसरे भवन पर पर कूदता हुआ।
ऋग्वेद की भाषा में ‘यत् सानोः सानुमारुहद् भूरि अस्पष्ट कर्त्वंम्।
हनुमान लंका में आग लगा देते हैं मरता कोई नहीं है जीवित सभी रहते हैं हाहाकार चारों ओर मचता है। क्या चट्टानों को तोड़ने से पहले उनको आग से दरकाने की पद्धति का यहां अनुकरण नहीं दिखाई देता ? हम पीछे की ओर लौटते हैं।

अग्नि की भूमिका
चट्टानों को तोड़ना आसान नहीं था । इसमें आग की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पत्थरों के भीतर अदृश्य परतें होती हैं। लंबे समय तक आग से गर्म किए जाने के बाद ये और खुल जाती हैं इन पर प्रहार किया जाए तो तोड़ना आसान हो जाता है। ऋग्वेद में आग अपनी लपट से शिलाओ को तोड़ देते हैं “दृषदं जिह्वया वधीत्।” यह वर्णन आग की इसी भूमिका के लिए है। यह वाक्य जिस ऋचा में आया है वह ध्यान देने योग्य है:
जामि अतीतपे धनुः वयोधा अरुहत् वनं । दृषदं जिह्वयावधीत् ।। 8.72.4
[[इसका भाष्य करने में संदर्भ से अवगत न होने के कारण सायण ग्रिफिथ की तुलना में अधिक भटक गए है। इसमें आग के द्वारा चट्टान को खूब गर्म करके तोड़ने का चित्रण है जिसमें ईंधन से उठती लपलपाती ज्वाला को उसी लकड़ी पर सवार और तेजी से दौड़ते हुए अपनी जिह्वा से तोड़ते दिखाया गया है। ग्रिफिथ का अनुवाद निम्न प्रकार है:
He hath inflamed the twofold plain: lifegiving, he hath climbed the wood,
And with his tongue hath struck the rock.]]
खनन के प्रसंग में अग्नि की वन पर आरोहण और हनुमान का फल चखने के लिए वक्षों पर आरोहण।
भिनति अद्रिं तपसा वि शोचिषा प्र अग्ने तिष्ठ जनान् अति ।। 8.60.16

वज्र प्रहार
दरकी हुई चट्टान को कभी कभी सीधे ऐसे मुग्दर से जिसके गोलक में गाठें उभरी होती थीं (वज्रेण शतपर्वणा) तोड़ा जाता था या सब्बल से।

सब्बल
मरुतों के जिस ऋष्टि को विद्वानों ने भाला (spears) दुधारी तलवार (double edged sword या lance में से कोई या हताशा में any weapon मान लिया और यह तक नहीं सोचा कि तलवार यदि एक धार वाली हो तो भी कंधे पर नहीं रखी जाती (ऋष्टयो वो मरुतो अंशयोरधि सह ओजो बाह्वोर्वो बलं हितम्। 5.57.6), वह हथियार नहीं ऐसा औजार है जो भारी है और कंधे पर ही रखा जा सकता है।

घन
जिस अन्य औजार का प्रयोग चट्टानों को तोड़ने के लिए किया जाता था वह था ‘घन’ (हैमर) ( वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेन एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र )। इसके प्रहार को हनन कहा गया है। वध और हनन दोनों का प्रयोग भंजन के लिए हुआ है।

खनिज दोहन
खनिज पदार्थों के आहरण (extraction) की तुलना दोहन से की गई है, और इस दृष्टि से गायों ( निधियों) को शिलाओं से घेर कर उनकी रक्षा करने वाला वल स्वयं एक गाय बन जाता है
इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघाना करेणेव वि चकर्ता रवेण ।
स्वेदांजिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ।। 10.67.6
[[इसका ग्रिफिथ का अनुवाद:
As with a hand, so with his roaring Indra cleft Vala through, the guardian of the cattle.
Seeking the milk-draught with sweatshining comrades he stole the Pani’s kine and left him weeping.
इसमें केवल इतना ही जोड़ा जा सकता है कि ग्रिफिथ ने अमुष्णात् का अर्थ चुराया किया है, जबकि सायण ने अपाहरण जो संदर्भों को देखते हुए अधिक संगत प्रतीत होता है:
अमुष्णाः (1.131.4) बलादपहृतवानसि, made thine own, अमुष्णात् (6.44.22) अपाहरत्, stole away; अमुष्णीतं (1.93.4) अपाहाष्ट्रं, stole.]]

विशेषज्ञ
वैदिक समाज किसी एक खनिज द्रव्य का अपाहरण नहीं करता था। मणि, माणिक्य, सोना, चांदी, ताँबा, जस्ता, सीसा, करायल, कुछ भी असाधारण दीख जाए, उसका कोई न कोई उपयोग तलाशने का प्रयत्न करता था। धातुओं के शोधन का भी प्रबंध खानों के आसपास ही हुआ करता था। इसीलिए उनके दल में धातु विद्या के विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। यह कितना विविधता पूर्ण दल हुआ करता था इसका अनुमान हम खनन से जुड़ी गतिविधियों में सम्मिलित लोगों के दैवीकरण से कर सकते हैं: ये हैं अग्नि, इंद्र, मरुद्गगण, बृहस्पति, आंगिरस।

पर्वतों का नामकरण
एक दूसरा तथ्य यह है कि कि विभिन्न धातुओं के स्रोतों या पर्वतों का नामकरण अलग अलग असुरों के रूप में किया गया है। पहले जब खनन का दूर-दूर तक अनुमान नहीं किया जा सकता था तब के अध्येताओं द्वारा इन सभी को या तो बादलों का पर्याय मान लिया जाता था या आसुरी शक्तियों का। आक्रमण और आक्रांता के पाले में रहकर सोचने वाले इनको हड़प्पा का प्रतिनिधि तक बना देते थे, जिनके पुरो को आक्रांता आर्यों के नेता इंद्र ने ध्वस्त कर दिया।

पू, पुर *फू(फूलना, फुलाना, full), भू, भूरि और ग्राम का शाब्दिक अर्थ समूह, बहुतों का एकत्र होना, बढ़ना, पूरा होना आदि है। पुर के साथ अग्रता का भाव भी है जिससे इनका अर्थ अग्रता की दिशा में (पुर एता, पुरोहित) और इसके विपरीत,- पुरा, पुराण भी आ जाता है। पुर का भाव व्रज या गोव्रज, गोष्ठ आदि में भी है। खनिज पदार्थों से भरे हुए पर्वतों को भी इसी कारण व्रज, पुर नाम दिया गया था। यह अपने समय की व्यापारिक कूट भाषा की देन था। वे अपना रहस्य उसी कारोबार में लगे हुए दूसरे लोगों को भी नहीं बताते थे,फिर भी एक दायरे में इन्हें समझा ही न जाए तो संचार का लक्ष्य ही पूरा नहीं होगा। इस कूटनाम को गुह्यनाम कहा जाता था। सच कहें तो हम सभी के असली नाम अलग हैं जिन्हें राशि नाम कहा जाता है। जिस नाम का प्रयोग हम दैनिक व्यवहार में करते हैं वह हमारा नकली या काम चलाऊ नाम, या पुकार का नाम है। असली नाम किसी को बताया नहीं जाता।

अभी इस पृष्ठभूमि में हम उन सभी असुरों को लें, जिनका इंद्र भेदन छेदन या विदारण करते हैं तो स्पष्ट हो जाएगा ये खनिज पदार्थों को चुरा कर अपने पास रखने वाले पर्वत हैं और इन्हीं के विदारण के कारण इंद्र का एक नाम पुरंदर पड़ा। विस्तार भय से हम इनका अनुवाद नहीं करेंगे आप केवल ऊपर की क्रियाओं को ध्यान में रखकर स्वयं यह समझने का प्रयत्न कर सकते है। पुर का भेदन तोड़ने के रूप में (पुरं विभेद अश्मन् एव पूर्वी) क्यों किया जा रहा है:
नि अ विध्यत् इलीबिशस्य दृळहा वि शृंगिणं अभिनत् शुष्णं इन्द्रः । 1.33.12
इन्द्रो यद्वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद्वलस्य परिधीँरिव त्रितः ।। 1.52.5
त्वं शता वंगृदस्याभिनत् पुरोऽनानुदः परिषूता ऋजिश्वना ।। 1.53.8
त्वं दिवो बृहतः सानु कोपयोऽव त्मना धृषता शंबरं भिनत् ।
नि यद् वृणक्षि श्वसनस्य मूर्धनि शुष्णस्य चित् व्रन्दिनो रोरुवद् वना ।…1.54.5
वि शुष्णस्य दृंहिता ऐरयत् पुरः ।। 1.51.11
इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ् मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ।। 1.101.2
अध्वर्यवो यः स्वश्नं जघान यः शुष्णमशुषं यो व्यंसम् ।
यः पिप्रुं नमुचिं यो रुधिक्रां तस्मा इन्द्रायान्धसो जुहोत ।। 2.14.5
वज्रेण वज्री नि जघान शुष्णम् ।। 5.32.4
वृणक्पिप्रुं शम्बरं शुष्णमिन्द्रः पुरां च्यौत्नाय शयथाय नू चित् । । 6.18.8
शतैरपद्रन् पणय इन्द्रात्र दशोणये कवयेऽर्कसातौ ।
वधैः शुष्णस्याशुषस्य मायाः पित्वो नारिरेचीत्किं चन प्र ।। 6.20.4
त्वं कुत्सेनाभि शुष्णमिन्द्रा ऽशुषं युध्य कुयवं गविष्टौ ।
दश प्रपित्वे अध सूर्यस्य मुषायश्चक्रमविवे रपांसि ।। 6.31.3
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ।। 8.1.28
नि शुष्ण इन्द्र धर्णसिं वज्रं जघन्था दस्यवि ।
वृषा ह्युग्र शृण्विषे ।। 8.6.14
उतो नु चिद्य ओजसा शुष्णस्याण्डानि भेदति जेषत्स्वर्वतीरपो नभन्तामन्यके समे ।। 8.40.
त्वं शुष्णस्यावातिरो वधत्रैस्त्वं घा इन्द्र शच्येदविन्दः ।। 8.96.17
अहं शुष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्यं नाम दस्यवे ।। 10.49.3
तदिन्न्वस्य परिषद्वानो अग्मन् पुरू सदन्तो नार्षदं बिभित्सन् ।
वि शुष्णस्य संग्रथितमनर्वा विदत्पुरुप्रजातस्य गुहा यत् ।। 10.61.13

और फिर पुर के प्रयोगों पर ध्यान दे सकते हैं:
युधा युधमुप घेदेषि धृष्णुया पुरा पुरं समिदं हंस्योजसा ।
नम्या यदिन्द्र सख्या परावति निबर्हयो नमुचिं नाम मायिनम् ।। 1.53.7
अमात्रं त्वा धिषणा तित्विषे मह्यधा वृत्राणि जिघ्नसे पुरंदर ।। 1.102.7
आ दृळ्हां पुरं विविशुः ।। 5.19.2
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
आ न इन्द्र महीमिषं पुरं न दर्षि गोमतीम्
स गोरश्वस्य वि व्रजं मन्दानः सोम्येभ्यः। पुरं न शूर दर्षसि ।। 8.32.5
प्रति यदस्य वज्रं बाह्नोर्धुर्हत्वी दस्यून् पुर आयसींर्नि तारीत् ।। 2.20.8
वृत्रहणं पुरन्दरम्।। 6.16.14

Post – 2019-09-07

#रामकथा_की_परंपरा (11)
खनन का तंत्र-1

हमारे जातीय विश्वास के अनुसार राम सीता तक पहुँचने के लिए सेतु का निर्माण करते है। इन्द्र श्री तक पहुँचने के लिए सुरंग का निर्माण करते है। सेतु बनाने की दक्षता नल और नील में है जो असुर हैं और राम के सहयोगी बन गए हैं; सुरंग खोदने का काम अगिरा करते हैं, जो भी आसुरी पृष्ठभूमि से आए हैं और देवसमाज की सेवा में तत्पर हैं, जिन्होंने उन्हें ऋषि का सम्मान और सोमपान का अधिकार दे रखा है।

उनके लिए विद्वान विशेषण का प्रयोग हुआ है। रामायण में विद्वान (वीर वानर लोकस्य सर्वशास्त्र विशारदः)) हनुमान कहे गए हैं । नल नील की सहायता के लिए बानर भालु है तो इन्द्र के साथ भी हनुमान के पितर मरुद्गण का यूथ है (तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिः एजति ।। 1.10.2) जो अंगिरसों के साथ पर्वतों के तोड़ने का काम करता है। वानरों के अतिरिक्त भालुओं (भल्लों) का दल है तो अंगिराें की सहायता और सुरक्षा और सहायता के लिए सैन्य बल। और जादुई शक्ति नल-नील में भी है और अंगिरसों में भी जो जादू और कूत्या के वेद के कर्ता है। एक से छूने से ही पत्थर पानी पर तैरने लगते हैं, दूसरे को हुंकार भरते हुए प्रहार करना पड़ता है, परंतु उनकी स्तुति से भी यह काम स्वयं इंद्र कर देते हैे (भिनद् वलं अंगिरोभिः गृणानः)।

पर यदि समुद्र में एक रेखा के रूप में दिखाई देने वाले रामसेतु को देख कर किसी को यह खयाल आया हो कि ये किसी चमत्कार से समुद्र के ऊपर तैरने वाले पत्थर हैं और इसके लिए नल-नील की कल्पना कर ली गई तो यह समझ में आता है। समुद्र के ज्वार भाटे को देखकर यह कल्पना कि किसी के प्रताप से समुद्र पीछे भी हट सकता है कवि कल्पना की परिधि में आता है, परंतु प्राकृत जगत में परिवर्तन श्रम से होता है और माया के दो रूप हैं। एक है बहुरूपियापन , जिसमें कहा गया है, इंद्र माया से तरह-तरह के रूप धारण करते हैं जिनके रथ में हजार अश्व जुते हुए हैं (इंद्र मायाभिः पुरु रूपं ईयते युक्ता हि अस्य हरयः शता दश) जाहिर है यहां हजार अश्वों से आशय किरणों से है इसलिए यहां इंन्द्र का सूर्य रूप है जिसमें प्रातः के रक्ताभ गोलक से तेज और ताप में वृद्धि और मध्याह्न के बाद ह्रास के अनुपात में अनेक रूप प्रकट होते हैं।

असुरों के मामले में इसका अर्थ बदल जाता है। वह आदिम समुदायों के जानवरों की बोली और छद्म आवरण धारण करके उनके निकट पहुंचने और फिर उनका शिकार करने की धोखाधड़ी से जुड़ा है। यह नाट्यकला के विकास में भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

ऋग्वेद मैं माया का दुहरा प्रयोग देखने में आता है। एक में खनिज भंडारों को छिपाने के लिए असुरों का पर्वत का रूप धारण करना। और इन्हीं पर्वतों का पार्श्व भाग या पंख काटकर खनिज भंडार निकालने को उनको अचल बना देने के रूप में कहानियां गढ़ी गई।

इंद्र जब मायावी का वध माया के द्वारा करते हैं तो उस माया को सायण विज्ञान या प्रज्ञान कहते हैं। यह माइनिंग या खनन विद्या की जानकारी से संबंध रखता है। रावण माया से विविध रूप धारण करता है, राम तो विष्णु के मायावी अवतार हैं जो उसका वध करते हैं।

रामायण में सीता हरण के प्रसंग में मायावी मृग का हवाला आता है जिसका वध राम करते हैं। ऋग्वेद में इंद्र उसका वध करते हैं (यत् ह त्यं मायिनं मृगं तमु त्वं मायया अवधीः, 1.80.7) यहां माया तकनीकी जानकारी बन जाती है।

Post – 2019-09-06

#रामकथा_की_परंपरा (10+)
‘#सर्मन_ऑन_दि_माऊंट

क्या आप इसका अर्थ समझते हैं?

सच यह है कि ये धर्मोपदेश ईसा मसीह नहीं दे सकते थे, वहाँ वे शैलगृह और सभाकक्ष थे ही नहीं जहाँ श्रद्धालु या शिष्य गण उपस्थित होते। ये भारत में थे और केवल भारत में थे। ये उपदेश किसी एक जगह पर, केवत एक बार नहीं दिए गए थे। ये भौतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज हैं और इन्हें शिक्षा और दीक्षा के विविध माध्यमों से इस तरह दुहराया जाता रहा कि ये भारतीय मनीषा का अंग बन गए।
ठीक इसी तर्क से मूसा को कोह ए तूर (सिनाई) पर दस महादेशों का किस्सा सही नहीं है:

इन दोनों की अंतर्वस्तु भारतीय है। वे शैलगृह भारत की विशिष्टता है। ये भी न तो ए्क झटके में मिले, न एक बार प्राप्त हुए। इन दोनों का सामी देशों में कभी पालन भी नहीं हुआ। कहा जा रहा है मातृ देवो भव, पितृदेवो भव और व्यवहार में मां बाप यदि ‘धर्मोदय’ से पहले हुए अथवा बाद में भी हुए पर उसे स्वीकार न किया तो शैतान की पकड़ में थे और नरक में ही गए या जाएँगे। यांत्रिक एकेश्वरवाद में इनका निर्वाह न तो संभव था न कभी निर्वाह हुआ।

2
प्रश्न केवल खड़े पहाड़ को ऊपर, भीतर, पार्श्व से काट कर आवास, सभागार, मंदिर बनाने का नहीं है, जिनमें से कुछ, जैसे कैलाश मंदिर को देख कर विश्वास नहीं होता कि यह मनुष्य का काम है अपितु उससे भी आगे, इंजीनियरी के उस कमाल का है जिसमें समुद्र, नदी, नद, नगर, किसी के नीचे या पर्वत को भीतर मीलों सुरंग काट कर मार्ग बनाया जा रहा है, इसका हमारी जानकारी का सबसे पुराना प्रमाण बदख्शाँ की इन खुदाइयों से मिलता है और सबसे पुराना अभिलेखीय प्रमाण ऋग्वेद से।

वेदिक माइथालोजी के लेखक मैकडनल काफी माथापच्ची यह समझने के लिए करते हैं कि आखिर माजरा क्या है:
In various passages Angirasa are associated with Indra in piercing Vala and shattering his strongholds and releasing the cows. p. 64
These cows may represent the waters…or possibly the rays of the sun. 102
Nvagvas and Dashgvas praise Indra and broke open the stalls of the cows. 144

The PB (19.7) speaks of the cave, Vala, of the Asuras being closed by a stone.In several passages the word may have either the primary or personified sense. …

और फिर अपनी समझ की कमी को, ऋग्वेद की कमी मानकर बताते हैं अभी छवि पूरी तैयार नहीं हुई थी :
The transition to personified meaning appears in a passage ( 3.30.10) in which Vala is spoken of as stable (vraja) of cows and as opened (वि-आर) for fear before Indra strikes. That the personification is not fully developed is indicated by the action of indra and others, when they attack Vala, being generally expressed by bhid , ‘to pierce’, sometimes by dr, ‘to cleave’, or ruj ‘to break’, but not, as in the case of Vritra, by han, ‘to slay’. p. 160

जिस बात को इतने साफ ढंग से समझाया गया है, बताया गया है वल का भेदन किया जा रहा है, मैकडनल के शब्दों मे भी पियर्स किया जा रहा हैं, उसके भीतर बिल बनाया जा रहा है, उसे संदर्भ के अभाव में, या गलत संदर्भ को वास्तविकता पर आरोपित करने और उससे टस से मस न होने की जिद के कारण, समझने की सच्ची लगन और श्रम के बाद भी समझ नहीं पाते और अपनी नादानी को ही को सिद्धांत बना कर ऋग्वेद में ही खोट तलाशने लगते हैं।

आज हमारी दृष्टि जिन गुफाओ और शैल गृहों – अजंता, एलोरा, एलिफेंटा, कानेरी की गुफाएं – पर जाती है और जो खड़े पहाड़ों को काट कर बनाई गई है, वे दो-ढाई हजार साल से पुरानी नहीं हैं। इनमें कोई ऐसी नहीं है जो देखने पर विस्मित न करती हो । कैलाश मंदिर को देखकर आज की तकनीकी दक्षता के युग में हम विश्वास नहीं कर पाते हैं कि इसे मनुष्यों ने बनाया है। परंतु ताम्राश्म (chalcolithic) युग की की सीमाओं को देखते हुए पहाड़ पर 350 मीटर की चढ़ाई पर संगमरमर की मोटी परत काटकर निकाली गई स्रुरंगें, 450-500 मीटर की चढ़ाई बनाई गई सुरंगें, विशेषतः वह सुरंग जो 75 फीट लंबी है जिसके अंतिम सिरे पर एक विशाल गुफा सी बन गई है जिसकी चौड़ाई 10 मीटर, लंबाई 340 मीटर और ऊंचाई 25 मीटर है और जिसका खनन क्षेत्र 6 से 8 मीटर तक गहरा है, क्या अविश्वसनीय नहीं लगतीं?

कम से कम दो हजार साल तक, जिसमें कई शताब्दयों तक प्राकृतिक विपर्यय के कारण जीवन रक्षा की चुनौतियां इतनी भयावह हो चुकी थीं कि एक ऐसा समाज जिसका कुम्हार भी लिखना जानता था, उसके पंडित लोग भी अक्षर ज्ञान से वंचित हो गए, इस कौशल को किस रहस्यमय तरीके से बचा कर रखा गया की उचित संरक्षण और प्रोत्साहन मिलने पर यह आश्चर्यजनक की कृतियां उपस्थित हो गई, यह भी पारंपर्य भी कम आश्चर्यजनक नहीं है।

सफलता के समानांतर यदि विफलता की कहानियाँ भी दर्ज हों तो ही इतिहास का पूरा चित्र सामने आ सकता है। उन टोहपरक खुदाइयों पर ध्यान दीजिए, जो लगभग 20 से 50 मीटर लंबी डेढ़ से 3 मीटर गहरी और डेढ़ से 3 मीटर चौड़ी हैं, और जिन से खुदाई करने वाले को कुछ हासिल नहीं हुआ। यह उसी का विलाप है जो हमें ऋग्वेद में सुनाई देता है:
अधा मन्ये श्रत्ते अस्मा अधायि वृषा चोदस्व महते धनाय ।
मा नो अकृते पुरुहूत योनौ इन्द्र क्षुध्यद्भ्यो वय आसुतिं दाः ।। 1.104.7
मा नो वधीरिन्द्र मा परा दा मा नो प्रिया भोजनानि प्रमोषीः ।
आण्डा मा नो मघवन् शक्र निर्भेत् मा नो पात्रा भेत् सहजानुषाणि ।। 1.104.8

भूरिदा भूरि देहि नो मा दभ्रं भूर्या भर ।
भूरि घेदिन्द्र दित्ससि ।।
भूरिदा ह्यसि श्रुतः पुरुत्रा शूर हन् ।
आ नो भजस्व राधसि ।। 4.32.20-21
देवोदेवः सुहवो भूतु मह्यं मा नो माता पृथिवी दुर्मतौ धात् ।। 5.43.15

Post – 2019-09-05

#रामकथा_की_परंपरा (10)

ऋग्वेद ऐसा अक्षय भंडा़र है जिसके सही दरवाजे तक का आज तक पता नहीं लगाया जा सका, उसके भीतर की निधि का आकलन तो उसके बाद ही संभव है। रामायण की अनेक गुत्थियों को समझने में ऋग्वेद हमारी सहायता कर सकता है।

ऋग्वेद के पुरातात्विक पक्ष की समझ ऐतिहासिक काल की हमारी असाधारण उपलब्धियों को समझने में सहायक हो सकती हैं।

ऋग्वेद के माध्यम से हम देव संस्कृति के उस दबदबे को समझ सकते हैं जिसके कारण एक ओर तो इसके प्रभाव क्षेत्र के लोग इसकी भाषा, संस्कृति, जीवनशैली को अपना कर इनके जैसा बनने को आतुर थे तो दूसरी ओर इससे भीतर ही भीतर इतना चिढ़ते थे कि देव को शैतान (ई. दएवा, इं डेविल) का पर्याय मान बैठे थे।

सफल व्यवस्थाएँ भले ही शान्ति का राग अलापें, वे दबंग होती हैं। उन्हें शान्ति अपनी शर्तों पर चाहिए। दूसरों को उनके रास्ते में रुकावट नहीं डालनी चाहिए, अन्यथा उनकी खैर नहीं, यह हम पणियों के रूपक में देख चुके हैं।

परंतु, यदि आप ध्यान दें, तो ऋग्वेद से ही हमें भाषा और संस्कृति के प्रसार की दिशा और तंत्र की भी जानकारी मिल सकती है और अनेक झूठे दावों का निराकरण भी हो सकता है।

आगे चलकर हम देखेंगे कि राम की कथा दक्षिण भारत में खेती के प्रचार और प्रसार से किसी न किसी रूप में जुड़े रही है। इस तरह ऋग्वेद पूरे भारत में उस प्रसार की कहानी को भी प्रतिबिंबित करता है।

हम नहीं समझते कि इतने मनोयोग से ऋग्वेद का अध्ययन करने वाले और आधुनिक दृष्टि संपन्न पाश्चात्य विद्वानों में से किसी का ध्यान उन चीजों की ओर नहीं गया होगा जिनकी कामचलाऊ जानकारी के बावजूद, साधन और समय की सीमाओं के होते हुए भी, हमारे जैस औसत प्रतिभा के व्यक्ति ने लक्ष्य कर लिया।

हमारी अपनी सीमा यह है कि हमारे न चाहते हुए भी विषय का विस्तार होता जा रहा है और यह तय करना तक कठिन है कि इनकी चर्चा करें या बच कर द्विवेदी जी की ओर लौटें जिनकी परंपरा की गलत अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम इस दिशा में इतना आगे बढ़ गए। जो भी हो कुछ बातों को स्पष्ट करना जरूरी लगता है।

ऋग्वेद का पाठ

इस ऋचा पर दुबारा ध्यान दें:
नि सर्वसेन इषुधीरँसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। 1.33.3
सायणाचार्य ने इसमें प्रयुक्त कुछ शब्दों का भाष्य रूप में किया है उसे हमने कोष्ठक के भीतर दिया है:
नि सर्वसेन इषुधीः (निषंगान्) असक्त (नि असक्त नितरां पृष्ठभागे संयोजितवान्) सं अर्यः गा अजति यस्य वष्टि ।
चोष्कूयमाण (अस्मभ्यं प्रयच्छन्) इन्द्र भूरि वामं (धनं) मा पणिः (व्यवहारी) भूः अस्मत्$अधि (अस्मासु) प्रवृद्ध ।। 1.33.3
ग्रिफिथ ने इसका अनुवाद निम्न रूप में किया है:
Mid all his host, he bindeth on the quiver he driveth cattle from what foe he pleaseth:
Gathering up great store of riches, Indra. be thou no trafficker with us, most mighty.
मेरी कई बातों में दोनों से असहमति है। दोनों की सीमा यह है कि प्रयुक्त शब्दों के अर्थ को लेकर खींचतान कर सकते थे, संदर्भ के अभाव में इनका सही आशय नहीं ग्रहण कर सकते थे।

पणि उत्तरी अफगानिस्तान एक कबीला था, जिसे यूनानी लेखकों ने पर्नियन के रूप में पहचाना था। ये उस समय तक भी यायावरी की अवस्था में ही रह गए थे। इसलिए सायण ने इसका जो अर्थ लिया है वह गलत है ग्रिफिथ ने इन्हें रहजन माना है जो पूरी तरह गलत ना होते हुए भी सही नहीं है। पणि का यहां अर्थ है कंजूस या देने से इन्कार करने वाला।

घ्रिफिथ ने ‘नि’ उपसर्ग को इससे आगे के ‘सर्वसेन’ से जोड़कर यह अर्थ किया कि समस्त सेना के होते हुए अकेले इंद्र हैं जो तीर तरकश से सज्जित रहते हैं और जिस भी शत्रु की गोसंपदा को चाहते उसे अकेले ही हाँक ले जाते हैं।

वह जिस साँचे के भीतर समझने का प्रयत्न कर रहे थे उसमे वैदिक प्रतीक विधान को समझा ही नहीं जा सकता था। यह सीमा सभी पश्चिमी अध्येताओं और उन पर भरोसा करने वाले भारतीय विद्वानों की है। संदर्भ का ध्यान उन्हें ही नहीं सकता था।

हम इसका शाब्दिक अनुवाद करने की जगह इससे उभरने वाले निम्न तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं:

1. कारवाँ के सभी सदस्य पूरी तरह तीर तरकश से लैस रहते और संकट की घड़ी में युद्ध के तैयार हो जाते (सर्वसेनः इषुधीः नि असक्त)।

2. दूसरे क्षेत्रों की किसी भी संपदा हासिल करना चाहते थे तो कर ही लेते थे (सं अर्यः गा अजति यस्य वष्टि)।

3. खनन के कार्य में मुख्य भूमिका श्रम करने वालों की होती थी। ये धातु विद्या से परिचित असुर पृष्ठभूमि से आए हुए विशेषज्ञ थे, जिन्हें अंगिरसों और भरद्वाजों के रूप में प्रतीक बद्ध किया गया है (आ इह गमन् ऋषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः, 10.108.8)। इसमें प्रयुक्त अयास्य ( धातु विद्या के जानकार) विशेष ध्यान देने योग्य है। इनको ऋषियों का दर्जा देना, इस बात को प्रकट करता है की श्रमिकों का वैदिक काल में कितना सम्मान था।

4. इस ऋचा से पता चलता है कि इस कारोबार में पहल बड़े व्यापारियों की हुआ करती थी, जिसे इंद्र के रूप में प्रतीकबद्ध किया गया है। श्रमिकों के खाने पीने की जरूरतें, जिसे सोमपान के रूप में इंगित किया गया है (ऋषयः सोमशिता) वही पूरा करता था ।

5. अभियान सफल होने पर खनिज द्रव्य का बँटवारा हुआ करता था, जिसमें महाजन अधिक से अधिक भाग अपने पास रखना चाहता था, और इस कंजूसी पर कटाक्ष करते हुए, कहा गया है तुम्हारे पास इतना माल हमारी मेहनत के कारण आया है (अस्मत् अधि प्रवृद्धः), हमें हमारा हिस्सा देने में इतनी कंजूसी तो न करो (मा पणिः भू)।

यदि वैदिक ऋचाओं को समझना है, तो यह काम योग्य से योग्य व्यक्ति द्वारा अच्छा से अच्छा अनुवाद करके नहीं किया जा सख्त। पहले आधुनिक समझ और पुरातात्विक तथा नृतात्विक संदर्भों को ध्यान में रखते हुए भाष्य किया जाना चाहिए और समझ जब स्पष्ट हो जाए उसके बाद ही कोई अनुवाद प्रामाणिक रूप में किया जा सकता है।

अभी हमने ऊपर उठाए गए प्रश्नों के एक पक्ष पर विचार किया है। दूसरे पक्ष कम महत्व के नहीं हैं।

Post – 2019-09-03

#रामकथा_की_परंपरा(9)

यह बात आसानी से समझ में नहीं आएगी कि किसी क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा उन सभी की है जिन्हें उनकी जरूरत है और जो उनका उपयोग कर सकते हैं। मनुष्य का अधिकार केवल उस पर है, जिसे उसने अपने श्रम से अर्जित किया या रूपांतरित किया हो। यही वह न्याय है जिससे एक बार वन्य भूमि को उर्वरा भूमि में बदलने के बाद ऐसा करने वालों का तो उस पर अधिकार हो ही जाता था, उस पर उसके वंशधरों का अधिकार भी बना रहता था। जिन्होंने ऐसा नहीं किया वे भूमि पर अधिकार जमाए लोगों के आश्रित बने रहे। राजा जिस भूभाग पर विजय प्राप्त कर लेता था उसकी समस्त संपदा पर उसका अधिकार हो जाता था। अब अपने अर्जित क्षेत्र के उत्पाद का एक अंश राजा को देना होता।

प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध हवा, धूप और पानी पर किसी का अधिकार नहीं। सभी उनका उपयोग कर सकते हैं। परंतु जहां राजसत्ता नहीं थी उन क्षेत्रों के कबीले अपने विचरण क्षेत्र की समस्त संपदा का स्वामी अपने को मानते थे। जलाशयों तक पर यक्षों का अधिकार इसी न्याय पर आधारित था, इससे यह भी तय किया जा सकता है कि मूलतः वे किस भौगोलिक क्षेत्र के निवासी थे। इसकी झलक ऋग्वेद में भी जल स्रोतों को बाँध रखने के हवालों में मिलती है। अपने क्षेत्र से होकर गुजरने वाले मार्गों पर वहां के कबीलों का नैतिक दावा इसी का परिणाम रहा हो सकता है। हम आज उन कालों के नियमों का सही अनुमान नहीं लगा सकते।

जो भी हो, सरमा के रूप में प्रतीकबद्ध खोजी जिन ‘गायों’ पर अपना दावा पेश करता है, वे गायें नहीं विपुल निधियाँ है। पणियों के पूछने पर कि सरमा वहां किस लालसा से आई है, वह स्वयं कहती है : ‘मह इच्छन्ती पणयो निधीन् वः’, मैं तुम्हारी विपुल निधियों की चाह से यहां भेजी गई हूं। इस कथन से स्पष्ट है कि जिस धन की तलाश है उस पर इंद्र का स्वामित्व नहीं है, पणियों का दावा अवश्य हो सकता है।

पणियों को यह पता है कि उस द्रव्य के बदले में किसी तरह की वस्तु पाई जा सकती है। वह गोरू हो, अश्व हो या कोई भी दूसरी वस्तु। यह निधि चट्टानों के भीतर (अद्रिबुध्न) है, परंतु ठीक कहाँ मिलेगी, यह भरोसा नहीं (रेकुः पदं, रेकृ शंकायाम्)। पणि इनके स्वामी नहीं हैं बल्कि पूरी तत्परता से इनकी रक्षा करते हैं।
अयं निधिः सरमे अद्रिबुध्नः गोभिः अश्वेभिः वसुभिः नि/ऋष्टः ।
रक्षन्ति तं पणयः ये सुगोपा रेकु पदं अलकं आ जघन्थ ।। 10.108.7

इस कथन के पीछे एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सचाई छिपी हुई है। यह प्रश्न तो मन में उठता ही है कि वैदिक व्यापारियों को यह कैसे पता चला कि किसी पर्वत के भीतर रत्न भरे हुए हैं? जब पता चला तो उन तक वे पहुंचे कैसे?

इस अभियान से बहुत पहले यह सिलसिला आरंभ हुआ था। नदियों के कटाव और बहाव से चट्टानों के टूटने के बाद उनके खंड धारा में बह कर आते थे। नदी का जलस्तर कम होने पर उसकी पेटी मे ये रत्न बिखरे मिलते जिन्हें स्थानीय जन अपने आभूषण के रूप में पहनते रहे हो सकते हैं।

पहले गाय गधा खाने पीने की चीजों के बदले में इन्हें लिया जाता था। फिर क्रमशः इस विषय की जानकारी और खनिकर्म में उन्नति के बाद वे यह निश्चय कर सके कि यदि इन पहाड़ों के भीतर छिपे रत्नों का दोहन कर सकें तो आसानी से बिना कुछ दिए मालामाल हो सकते हैं।

1987 में हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में हमने अफगानी विद्वान ए. नासिरी के The Lapis lazuli in Fghanistan, Afghanistan, xii, 4, 48-56 के साक्ष्य पर लिखा था, “लाजवर्त संगमरमर की मोटी चट्टानों के नीचे पाई जाती है। बदख्शाँ की लाजवर्द की खानों में इसके टुकड़े 1 ग्राम से लेकर अंडे के आकार तक के पाए जाते हैं। सारी सुंग (सर-ए-संग) में पुरदर्रा और रोबोट के चरागाह के बीच पुरदारा मे एक का जो विवरण उन्होंने दिया है उसके अनुसार खान घाटी के तल से 350 मीटर की चढ़ान पर संगमरमर की मोटी परत काटकर निकाली गई है। इसमें कई गलियारे खोदे गए हैं जिनमें उत्तर की ओर जाने वाला गलियारा तो कई हजार वर्ष पहले खोदा गया था और इसकी खुदाई लंबे समय तक चलती रही थी। यह सुरंग 75 फीट लंबी है जिसके अंतिम सिरे पर एक विशाल गुफा सी बन गई है। इस गुफा की चौड़ाई 10 मीटर, लंबाई 340 मीटर और ऊंचाई 25 मीटर है। यहां खनन क्षेत्र 6 से 8 मीटर तक गहरा है। खुदाई करने वालों को खुदाई के लिए इस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए एक पतली सुरंग का प्रयोग करना पड़ता था।

नासिर कुछ दूसरी खानों का भी उल्लेख करते हैं जिन तक पहुंचने का रास्ता अधिक कठिन है और जिनकी ऊंचाई भी बहुत अधिक है उदाहरण के लिए प्रोरा में स्थित चलमक घाटी से 450-500 मीटर के चढ़ान पर स्थित है। वह आगे लिखते हैं, “ प्राचीन काल में टोहपरक खननों के प्रयोग लगभग संगमरमर की सभी चट्टानों पर किए गए हैं। उन्हें जहां कहीं लाजवर्द का तनिक भी आसार दिखाई देता, वे गड्ढे और सुरंग खोदना शुरू कर देते थे। इसी तरह की एक प्रायोगिक सुरंग सर-ए-संग घाटी में मूल खानों के निकट पूर्व-पश्चिम रुख में खोदी गई है। इन खदानों को चार गर्तों में जो विविधआकारों के हैं, पूरा कर लिया गया था। यह लगभग 20 से 50 मीटर लंबी डेढ़ से 3 मीटर गहरी और डेढ़ से 3 मीटर चौड़ी टोहपरक सुरंगे हैं।

रामायण में जिसे क्रौंच पर्वत कहा गया है वह कोकनद या कोकचा नदी से सटा बदख्शाँ का संगमरमरी पहाड़ लगता है। कोकचा के विषय में विकीपीडिया की निम्न पंक्तियां ध्यान देने योग्य हैं:
कोकचा नदी (फ़ारसी और पश्तो: کوکچا‎, अंग्रेज़ी: Kokcha) उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान की एक नदी है। यह आमू दरिया की एक उपनदी है और बदख़्शान प्रान्त में हिन्दू कुश पहाड़ों में बहती है। बदख़्शान प्रान्त की राजधानी फैज़ाबाद इसी नदी के किनारे बसी हुई है। कोकचा नदी की घाटी में सर-ए-संग खान स्थित है जहाँ से हज़ारों सालों से लाजवर्द(लैपिस लैज़्यूली) निकाला जा रहा है।[1] २००० ईसापूर्व में अपने चरम पर सिन्धु घाटी सभ्यता ने भी यहाँ के शोरतुगई इलाक़े के पास एक व्यापारिक बस्ती बनाई थी जिसके ज़रिये लाजवर्द भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा प्राचीन मिस्रऔर मेसोपोटामिया की सभ्यताओं तक भी पहुँचाया जाता था।”

नदी का प्रवाह खतरनाक है। इसमें नौचालन संभव नहीं है। जोखिमपरस्त संतरण के एक साहसी के कथनानुसार यह दुनिया की सबसे खतरनाक नदी है और इन पहाड़ियों तक पहुंचने का दूसरा रास्ता नहीं है। सुरक्षा का यह प्रधान कवच था, परंतु वैदिक साहसी किन तरीकों का इस्तेमाल करते थे कि वे इन तक पहुंचने में ही सफल नहीं हुए थे अपितु खुदाई के मौसम में इसका लगातार दोहन करते रहे। पणियों को इस बात पर आश्चर्य होता है। कैसे, किस तरह, मनचाहा विचरण कर लेती है तू? तू जिस इंद्र की दूती है वह कैसे है, उनकी शक्ल सूरत कैसी है”
और सरमा कहती है, प्रचंड से प्रचंड नदी की धारा इंद्र के रास्ते को रोक नहीं सकती और वह पणियों को धमकाती है कि यदि उन्होंने आपत्ति की प्राण से हाथ धोना पड़ेगा:
न तं गूहन्ति स्रवतो गभीरा हता इन्द्रेण पणयो शयध्वे ।। 10.108.4
जीना समुदायों का जी का का आधार कृषिकर्म नहीं रहा है वे क्रूर जितने भी क्यों ना हो, बहुत बड़ी संख्या में एकत्र नहीं रख सकते थे, और यही अंतर वैदिक व्यापारियों को इंतकाम खतरों से निबटने में सहायक हो

ता था। पणि इस कथा के अनुसार इस बात के लिए तैयार हो जाते हैं कि इन्द्र अनुगामी आएँ और वे उनके अधीन उनके साथ काम करने के लिए तैयार हैं -(आ च गच्छाती मित्रं एना दधाम अथा गवां गोपतिर्नो भवाति ।। 10.108.3) परंतु इससे ही खनन के तरीकों का पता पणियों को चल जाता, इसलिए यह शर्त उन्हें स्वीकार नहीं है। कोई और चारा न रह जाने के बाद वे भी धमकाते हैं ‘हम भी किसी से कम योद्धा नहीं हैं और बिना हमें पराजित किए कोई इनपर एधिका नहीं कर सकता:
कस्त एना अवसृजात् अयुध्वी उत अस्माको आयुधा सन्ति तिग्मा ।। 10.108.5
परंतु सरमा उनके सीमित जत्थे को इंगित करते हुए उनका उपहास करती है:
असेन्या वः पणयो वचांसि अनिषव्याः तन्वो सन्तु पापीः ।
अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था बृहस्पतिर्व उभया न मृळात् ।। 10.108.6

हम रामकथा पर विचार कर रहे हैं। उसमें हड़प्पाकालीन खनन प्रविधियों पर विस्तार से विचार करने की छूट नहीं है, फिर भी कुछ बातों को रेखांकित करना जरूरी लगता है। हमने केवल लाजवर्द की खानों की चर्चा की है, परंतु रामायण में अफगानिस्तान से लेकर उत्तर कुरु तक की समृद्धि का मुक्त कंठ से बखान है, और रत्नों के अतिरिक्त सोने, चाँदी आदि की भी उन्हें इतनी ही व्यग्रता से तलाश थी। कोकनद के ऊपरी सिरे कर इसके लिए शोरतुगई मे एक अड्डा कायम किया गया था जिसके विषय में केनोयर की निम्न पंक्तियों का अवलोकन उपयोगी होगा:
Another source of gold was along the Oxus river valley in northern Afghanistan where a trading colony of the Indus cities has been discovered at Shortughai. Situated far from the Indus Valley itself, this settlement may have been established to obtain gold, copper, tin and lapis lazuli, as well as other exotic goods from Central Asia. Ancient cities of the Indus Valley Civilization, Jonathan Mark Kenoyer, Jonathan Mark Kenoyer, Oxford University Press, Page 96, 1998, ISBN 0-19-577940-1

परन्तु इससे भी अधिक रोचक यह तथ्य है कि उन्होंने खनिज संपदा की खोज में उन रेगिस्तानी क्षेत्रों को छान मारा था जहाँ जाने की रामायण में वर्जना है। उनके अड्डे किजिल कुम (लाल रेत का रेगिस्तान) में भी है, कारा कुम (काली रेत के रेगिस्तान) में भी और गोबी में भी जिनके निवासियों को तुषार के रूप में याद किया गया है और जहाँ से तुषारी (तोखारी क और ख) के भारतीय अभिलेख मिले।

एक अन्य रोचक जानकारी यह कि अफगानिस्तान (आर्याना) के कोकनद की सार्थकता तो समझ में आती हे, इस नाम की आवृत्ति उन्होंने तुर्कमीनिया के खोकन्द और उजबेगिस्तान में फरगाना के कोकन्द में कर रखा था जब कि ये नद नहीं नगर हैं।

इसके अतिरिक्त यह जानकारी भी प्रासंगिक हो सकती है कि हमने डरते हुए ऋग्वेद के संदर्भ देकर यह दिखाया था कि इनमें वैदिक समाज की संलिप्तता थी, और इस तरह का कारोबार प्राचीन भारत में हड़प्पा से ही संभव था, दोनों को एक दूसरे से जोड़ा था, आज यह सर्वमान्य है किजिल कुम के निवासी हड़प्पा के व्यारीे थे।

इस खनि कर्म का अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह है, कि खुदाई के काम में सक्रिय भूमिका अंगिरसों या नवग्यों की है
एह गमन्नृषयः सोमशिता अयास्यो अङ्गिरसो नवग्वाः ।
तं एतमूर्वं वि भजन्त गोनामथैतद्वचः पणयो वमन्नित् ।। 10.108.8

Post – 2019-09-02

#रामकथा_की_परंपरा(8)
#पणियों_का_गोहरण

पणि कौन थे? विचार बहुत हुआ है, पर हाल यह कि एक की बात दूसरे की समझ में नहीं आती। पणियों को फीनीशियन बताने वाले विद्वानों को यह पता न था, कि फीनीशियन नाम साइप्रस पेड़ से उनके लगाव के कारण हेरोदातस (हरिदत्त) द्वारा दिया गया। पण- सिक्का से पणि के संबंध से इसे धनी का पर्याय माना गया। इस साम्य को पणियों की समृद्धि और सायण द्वारा (जैसे, चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ।। 1.33.3, में) पणि का अर्थ ‘व्यवहारी’ करने से भी बल मिलता है। एक स्थल पर यह स्पष्ट कहा गया है कि धनी पणियों के साथ इंद्र की मित्रता नहीं हो सकती (न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।) परंतु इसके अगले ही चरण में उनको नग्न कहा गया है और साथ ही यह कथन भी है कि जो उनकी सेवा नहीं करता है, पकाता नहीं है, वह उनकी दौलत तो छीन ही नहीं लेते हैं, उनका वध भी कर देते हैं (आ अस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्। 4.25.7)। नग्न शब्द के प्रयोग और वैदिक उपासना पद्धति से परहेज के आधार पर, और नग्नों को धनी मानकर, एक उद्भावना यह की गई मानो यह जैन मत की प्राचीनता का प्रमाण हो, और वैदिक आचार पद्धति से जैनियों के बहुत पुराने विरोध को प्रकट करता हो। इसी का दूसरा पाठ यह किया गया कि ऐसा धनी व्यक्ति जो अपनी कंजूसी के कारण दान पुण्य नहीं करता है यज्ञ नहीं करता है, उसके लिए यह प्रयोग है, परंतु नग्न शब्द वहां भी समस्या पैदा करता है। इसके अतिरिक्त दसवें मंडल के 108 वें सूक्त में उन्हें अहिंसा का प्रेमी नहीं, लड़ाकू दिखाया गया है। व्रात्यों के साथ भी इनका संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया गया। एक अन्य स्लथ पर पणि के लिए ‘धनी’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जहाँ उसे दस्यु कहा गया है और यहां भी इंद्र उसका वध मारतौल (हैमर) से करते हैं (वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र, 1.33.4)।

पण्, वण्, भण् किसी चीज के टूटने की आवाज की अनुकृति है। पण्, वण्, भण् तोड़ने, बाँटने, हिंसा करने का भी द्योतक है इसके कारण पणि का प्रयोग उन असभ्य और उपद्रवकारी कबीलों के लिए हो सकता था जो खनिज संपदा से समृद्ध क्षेत्रों में रहते थे, परंतु ना तो उनका दोहन करते थे ना धातु निर्माण करना जानते थे फिर भी यदि बाहर से आया हुआ वही व्यक्ति उनके भूभाग में कोई गतिविधि चलाएं तो उस पर आपत्ति भी करते थे।

पण शब्द बाद में चलन में आया, संभव है इसके नामकरण में उल्टे पणि शब्द की भूमिका हो। पणि का व्याज रूप में प्रयोग धनी, कंजूस, अधर्मी किसी रूप में संभव है, परन्तु ऋग्वेद में जिन पणियों का उल्लेख है उनकी सही पहचान के लिए संदर्भ या उनके भौगोलिक परिवेश पर ध्यान दिया जाना चाहिए था, इसका अभाव ऊपर की सभी कोशिशों में, जिनमें श्री अरबिंद की आध्यात्मिक व्याख्या भी आती है. देखा जा सकता है। सरमा इंद्र की दूती बन कर पणियों के पास जिस देश में जाती है वह उनके उपासकों के देश से “दूरे हि अध्वा जगुरिः पराचैः” बहुत बहुत दूर अगम्य का है।” इसलिए भारतीय भूभाग में किसी उपक्रम या साधना पद्धति या आर्थिक अवस्था की व्यक्तियों से मूल अवधारणा का कोई संबंध नहीं।

पणियों का अपराध
सामान्यतः यह समझा जाता है पणियों ने इंद्र की गायों को चुरा कर किसी कंदरा में छिपा दिया था और उन्हीं की खोज में इन्द्र ओर से सरमा नाम की कुतिया भेजी जाती है (इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि)। परंतु ऋग्वेद के किसी स्थल से चोरी का अभियोग सिद्ध नहीं होता। यह सच है विशेषण के रूप में उनके लिए एक बार दस्यु शब्द का प्रयोग हुआ है। चोर के लिए ऋग्वेद में तस्कर का प्रयोग देखने में आता है। दस्यु का अर्थ समझने में परेशानी हो रही हो तो दस के नासिक्य उच्चारण दंस और इससे निकले डँसना, दंस के बिगड़े या गढ़े रूप दंश से समझिए और फिर भी समझ में न आए तो ऋग्वेद के ‘यो अस्मान् अभिदासति’ – ‘जो हमें तरह तरह से सताता है’, से समझिए। दास का अर्थ गुलामी करने वाला नहीं होता, सताने वाला, उपद्रव करने वाला होता है, पर सेवा करने वाला आशय भी ऋग्वेद में (अर् = चीरने वाला, आर्य = भूमि को चीरने/ जोतने वाला और अरि = आहत करने वाला के तर्क से) प्रयोग में आ रहा था जो सुदास और दिवोदास में है, इसलिए दस्यु का अर्थ उपद्रवी है, न कि लुटेरा. जैसा बाद में प्रचलित हुआ।

घटना के रूप में, केवल एक स्थल पर पणियों के द्वारा गायों को रोक लिए जाने की उपमा जल धाराओं के रुकने के लिए दी गई है। जल के बिल को वृत्र ने उसी तरह रोका था जैसे पणियों ने गायों को। इंद्र ने वृत्र का वध करके जल धाराओं को खोल दिया (दासपत्नीः अहिगोपा अतिष्ठन् निरुद्धा आपः पणिना इव गावः । अपां बिलं अपिहितं यत् आसीत् वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार ।। 1.32.11)।

पानी इंद्र का नहीं था, वह प्रकृति-प्रदत्त था, इसलिए सार्वजनिक था। इसको किसी रूप में, कोई भी, किसी अन्य अन्य को उपयोग करने से रोकता है तो वह उपद्रवी है। इसी तर्क से वैदिक समाज यह मानता था कि हवा पानी की तरह ऐसे खनिज पदार्थ भी जिनका स्थानीय जन दोहन नहीं करते हैं, वह सर्वसुलभ है, और उनके दोहन पर आपत्ति करने वाले, उनको रोककर रखने वाले, ऊपद्रवी हैं।

इसी तर्क से ऋग्वेद में एक सूक्त में मगध क्षेत्र की चांदी की खानों को भी गायों, उनके खनिज भंडार को दूध, उनके शोधन को दूध पका कर दही जमाने के रूप में चित्रित किया गया है और उनके दोहन को अपने अधिकार के रूप में पेश किया गया है:
किं ते कृण्वन्ति कीकटेषु गावो नाशिरं दुह्रे न तपन्ति घर्मम् ।
आ नो भर प्रमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन् रन्धया नः ।। 3.53.14

वही तर्क यहां भी लागू होता है। पणि अपने भूभाग की खनिज संपदा का किसी अन्य के द्वारा दोहन का विरोध करते हैं, और वैदिक व्यापारी प्राकृतिक संपदा को उसकी संपदा मानते हैं जो उनका उपयोग करना चाहता है और जिसे उनके उपयोग से वंचित किया जा रहा है। समस्या अपहरण की नहीं है, चोरी की नहीं है, अपनी क्षेत्रीय प्राकृतिक संपदा पर अपना अधिकार जताने की है।

सरमा का पणियों के देश में पहुँचना
किसी चीज की खोज के लिए कुत्तों, कुतियों का प्रयोग स्वाभाविक है। उनमें इसकी नैसर्गिक क्षमता है। बंदर इसके लिए नहीं जाने जाते, यद्यपि छलांग लगाने के मामले में उनका कोई जवाब नहीं। रामायण में एक बंदर को दूत बना कर भेजना पड़ा इसलिए कपीश्वर को असाधारण बुद्धिमान, अर्थात कवीश्वर भी बनाना पड़ा।

सरमा पणियों के देश में उसी तरह पहुंचती है जिस तरह लंका में हनुमान पहुंचते हैं। हनुमान को अपनी यात्रा में परीक्षा के लिए सुरसा के मुंह में प्रवेश करके उसका ग्रास बनने से बचते हुए बाहर निकलना होता है, तो सरमा को रसा की धारा को पार करना होता है । रसा इतनी विकट नदी है कि इसे पार किया ही नहीं जा सकता। पणि सरमा से पूछते हैं कि उसने रसा को पार कैसे कर लिया (कथं रसायाः अतरः पयांसि), वह बताती है, इन्द्र की कृपा से उसन बिना भयभीत हुए छलांग मार कर उसे पार कर लिया (अतिष्कदो भियसा तन्न आवत्तथा रसाया अतरं पयांसि, 10.108.2)। रामायण में रसा में सु उपसर्ग लगा कर एक विचित्र चरित्र सुरसा का गढ़ना पड़ा, क्योंकि अलंघ्य जल को समुद्र के रूप में कल्पित किया गया।

Post – 2019-09-01

#रामकथा_की_परंपरा (7)

ऋग्वेद में #कुबेर (खैबर) का उल्लेख नहीं है। कहते हैं कुषाण काल के बाद इससे आवागमन बढ़ा। आज तो यह एशियाई महापथ बन चुका है। पहले इससे होकर आवागमन दो कारणों से दुष्कर था। एक तो रास्ता खतरनाक था, दूसरे इसके पचास किलोमीटर के लंबे प्रसार में इसके निकट बसे जत्थे बहुत उपद्रवी रहे हैं। वे इससे होकर आने जाने वाले व्यापारियों से दर्रा सुरक्षित पार कराने के बदले में मनमानी फीस वसूलते रहे हैं। आनाकानी करने पर जान माल के लिए संकट पैदा करते रहे हैं। संभव है किसी न किसी अनुपात में यह समस्या किसी न कि किसी रूप में दूसरे दर्रों के साथ भी रही हो।

ऋग्वेद इनके उत्पीड़न की कहानियों से भरा है। ये विरोध करने पर खाई में फेक देते थे, हाथ-पाँव बाँध कर नदी में फेंक देते थे, अँधेरी गुफा में बन्द कर देते थे, आग से दागते थे। इन यातनाओं के शिकार लोगों में से जिनकी प्राण रक्षा हो सकी थी – रेभं, वन्दन, कण्व, अन्तक, वय्य, शुचन्तिं, अत्रि, वम्र, कलि, पठर्वा, शर्यात, कुत्स, आर्जुनेय, तुर्वीति, ध्वसन्ति, पुरुषन्ति, अन्धतमस आदि – का नाम गिनाते हुए उल्लेख किया गया है। इनके इस आतंक के डर से व्यापारी भारी रिश्वत देने को बाध्य होते थे।

लूट खसोट ही इनकी जीविका का साधन था इसलिए लगता है वे सता कर अधिक उगाही का प्रयत्न तो करते थे पर जान से नहीं मारते थे कि कहीं आवा-जाही पूरी तरह बंद न हो जाए। इन्हीं के डर से व्यापारी मुकाबले की तैयारी के साथ बहुत बड़े दलों (श्रेणियों) में निकलते थे। इसके बाद भी जान माल लेकर सुरक्षित पार जा सकेंगे या नहीं इसकी चिंता बनी रहती थी। इंद्र को रास्तों को पार कराने वाले के रूप में, अश्वनीकुमारों को संकट के उबारने वाले के रूप में इन्हीं आपदाओं के कारण याद किया जाता रहा है।

पार लगाने की गुहार का समुद्री यात्राओं और पर्वतीय यात्राओं दोनों के संबंध है। कहाँ किसका हवाला है इसको संदर्भ के अनुसार ही जाना जा सकता है। हम यहाँ दुर्ग, या दुर्गम पर्वतीय मार्गो से पार लगाने के कुछ हवालों का उल्लेख कर सकते हैं। इनका अनुवाद इसलिए नहीं करते हैं कि हम से कुछ खींच-तान हो सकती है या यह संदेह किया जा सकता है। इसलिए इसमें जो लोग गहरी रुचि रखते हैं वे इंटरनेट पर उपलब्ध अनुवादों का सहारा लेकर इनकी परख कर सकते हैं:
द्विषो नो विश्वतोमुख आति नावेव पारय । अप नः शोशुचत अघम् । 1.97.7
इन्द्र प्र णः पुरएतेव पश्य प्र नो नय प्रतरं वस्यो अच्छ ।
भवा सुपारो अतिपारयो नो भवा सुनीतिरुत वामनीति ।। 6.47.7
जुषेथां यज्ञं द्रविणं च धत्तं अरिष्टैः नः पथिभिः पारयन्ता ।। 6.69.1
पुरा नो बाधाद्दुरिताति पारय क्षेत्रविद्धि दिश आहा विपृच्छते ।। 9.70.9
सहस्राक्षेण शतशारदेन शतायुषा हविषा अहार्षं एनम् ।
शतं यथा इमं शरदो नयाति इन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् ।। 10.161.3

इस मार्ग से गुजरने का केवल एक संकेत मिलता है। यह है बिना हाथ पाँव वाले असुर कुणारु, या कुनर को चूर करने की घटना (सहदानुं पुरुहूत क्षियन्तं अहस्तमिन्द्र सं पिणक् कुणारुम् । अभि वृत्रं वर्धमानं पियारुं अपादं इन्द्र तवसा जघन्थ ।। 3.30.8)।

कुनर के विषय में विकीपीडिया में निम्न जानकारी मिलती है:
कुनर नदी (पश्तो: کونړ سيند‎, कूनड़ सींद; Kunar) पूर्वी अफ़्ग़ानिस्तान और उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान की एक ४८० किमी लम्बी नदी है। यह पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रांत के चित्राल ज़िले में हिन्दु कुश पर्वतों की पिघलती हिमानियों(ग्लेशियरों) से शुरू होती है। यहाँ इसका नाम यरख़ुन नदी होता है और मस्तुज के बाद इसका विलय लुतख़ो नदीसे होता है जिसके बाद इसे मस्तुज नदी के नाम से पुकारा जाता है। चित्राल शहर से गुजरने के बाद इसे चित्राल नदी बुलाया जाता है और फ़िर यह अफ़्ग़ानिस्तान की कुनर घाटी में प्रवेश होती है, जहाँ बाश्गल नदी के साथ संगम के बाद इसका नाम कुनर नदी पड़ जाता है। फ़िर यह जलालाबाद शहर के पूर्व में काबुल नदी में विलय कर जाती है। यह नदी पूर्व में पाकिस्तान में प्रवेश होती है और इसका विलय अटक शहर के पास महान सिन्धु नदी में हो जाता है।

यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि दर्रों के नाम उन नदियों के नाम पर रखे जाते हैं जिनके कटाव या वहाव से उनका निर्माण होता है, और ऋग्वेद में इनको भी असुर के रूप में कल्पित किया गया है। बोलान का वलासुर के रूप में उल्लेख हम कर आए हैं।

जिस साँचे के भीतर रख कर ऋग्वेद का अध्ययन किया जाता रहा उसमें इस बात को समझने की संभावना ही नहीं थी, इसलिए सभी को बादलों का पर्याय मान लिया जाता रहा। इनका इकहरा अर्थ करना इकहरी सोच का परिणाम है। शैतान अल्लाह या गाड का काम बिगाड़ने वाला हो सकता है, दुष्ट भी, और नटखट और प्यारा बच्चा भी, प्रिय मित्र भी और अपनी व्युत्पत्ति में सत को परम सत्ता मानने वाला बुद्धिवादी चिंतक भी जिसका आस्थावादी विश्वासों से सीधा विरोध था और इसलिए इनका दैवीकरण कर दिया गया। इसी तरह नमुचि वर्षा किए बिना बढ़ जाने वाला बादल भी हो सकता है, वह धातुपिंड भी जिससे धातु आसानी से अलग नहीं होती, कंजूस भी, और भारी व्याधि या दबोच लेने वाला शत्रु भी। यही पणि आदि पर भी लागू होता है। इसलिए शब्दार्थ से अधिक संगत है संदर्भ जिसके कई पहलू हैं।

#गोमती(गोमल)
ऋग्वेदिक व्यापारिक गतिविधियों का सबसे व्यस्त मार्ग गोमती अर्थात गोमल का लगता है। इसकी पके हुए फलों से लदी हुई डाल से तुलना गई है। गोमती का भी इकहरा अर्थ (गोधन या गो-उत्पाद) और कुछ आगे बढ़ कर नदी विशेष, इसलिए लिया जाता रहा कि संदर्भ का पता ही नहीं था, गो का अर्थ रत्न भी हो सकता है इसकी ओर तो एक रत्न गोमेद है यह देख कर भी ध्यान नहीं जाता । गोमती का शाब्दिक अर्थ है सुजला (क/कन्/ कम् /को/कू तथा ग /गन्/गम्/गो/गू का मूल अर्थ जल निष्पन्न आशय गति, गमनशील.चमक. चमकनेवाला खनिज, ठंड, आदि है) । ऋग्वेद में जिस आत्मीयता से गोमती को याद किया गया है वह किसी अन्य नदी के साथ देखने में नहीं आता और इसका कारण है इस दर्रे से चलने वाला व्यापार और होने वाली आय:
एवा हि अस्य सूनृता विरप्शी गोमती मही ।
पक्वा शाखा न दाशुषे ।। 1.8.8
आ यातु इन्द्रो दिव आ पृथिव्या मक्षू समुद्रात् इत वा पुरीषात् ।
स्वर्णरात अवसे नो मरुत्वान् परावतो वा सदनात् ऋतस्य ।।
स्थूरस्य रायो बृहतो य ईशे तमु ष्टवाम विदथेषु इन्द्रम् ।
यो वायुना जयति गोमतीषु प्र धृष्णुया नयति वस्यो अच्छ ।। 4.21.3-4
एष क्षेति रथवीतिः मघवा गोमतीरनु । पर्वतेष्वपश्रितः ।। 5.61.19
आ न इन्द्र महीम् इषं पुरं न दर्षि गोमतीम् । उत प्रजां सुवीर्यम् ।। 8.6.23
एषो अपश्रितो वलो गोमतीमव तिष्ठति ।। 8.24.30

इसके बाद भी खनिज संपदा के दोहन के लिए तैयार की गई सुरंगो का अभेदीकरण वल से ही किया गया है, क्योंकि वही सबसे पुराना पारपथ था जब कि खनिज रत्नों की तुलना गो और यदा कदा अश्व से की गई है।

ऋग्वेद में सीता हरण की कथा गो-हरण और गो-आहरण की कथा के रूप में आई है, इसे कल देखेंगे।