बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं (2 ्आगे)
जो संस्कार मिले थे, उसमें छोटे लोग बड़े लोगों से मुंह नहीं लगते, उन्हें जवाब नहीं देते।
मुझे किसी ने कभी यह सीख नहीं दी, कि बड़ों से जबान नहीं लड़ाया जाता है, पर कई संदर्भों में लोगों को दूसरों को इस ढिंठाई पर फटकारते सुनकर, मैंने चुपचाप, शैशव और बचपन के बीच की क्रांति रेखा पार करते ही या हो सकता है, उससे पहले ही, यह ठान लिया था, मैं यह नौबत ही न आने दूंगा कि कोई मुझे जबान चलाने का दोषी पा सके। इस आदर्श पर डटे रहने के कारण, पिट रहे हैं, पर मजाल क्या कि इसकी भनक तक बाबा को लगी हो। मेरे विषय में वह निश्चिंत थे कि मुझे पूरा दुलार मिल रहा है, क्योंकि सभी के पूछने पर मैं हँस कर बताता कि मुझे बहुत प्यार करती है।
बड़ी उम्र का हो जाने पर जिन बातों को भूल जाते हैं उनमें सबसे नासमझी भरी है यह भूल कि बच्चे कितनी कम उम्र में बड़े लोगों को बेवकूफ समझना और बेवकूफ बनाना, अपने फैसले उन पर लादना, सीख जाते हैं और उनकी हर माँग पूरी करते चले जायँ तो ऊपर से बढ़ते दिखाई देते हैं, भीतर से सड़ते चले जाते हैं – निकम्मे, परजीवी, स्वार्थी और निर्मम और खतरनाक।
दो दशक पहले यमन के एक बच्चे की कहानी आप ने पढ़ी होगी। पिता से कोई चीज लाने को कहा था। पिता से चूक हो गई, माँग होने पर बताया, भूल गया, कल ला देगा। लड़के ने पिस्तौल तानी और गोली मार दी।
उसने गलत नहीं किया, इस अनिवार्य परिणति में पिता बच्चे की तुलना में अधिक जिम्मेदार था, यद्यपि दोषी लड़का ही दिखाई देगा। हमारे आसपास यमन का वह बच्चा आए दिन दिखाई देने लगा है, एक छात्र ने नकल करने पर रोकने पर रोकने वाले को गोली मारी, एक आदमी ने टोलटैक्स मांगने पर, किसी दूसरे ने गाड़ी से खरोंच लगने पर, अपने से आगे निकलने पर, चाय या खाने की कीमत माँगने पर गोली मार दी। अमेरिका जैसे देशों में अकारण या रहस्यमय कारणों से एक लड़का पूरी तैयारी से अपनी क्लास में आता है तब तक अंधाधुंध गोलियाँ चलाता और लाशें बिछाता चला जाता है जब तक उसे मार नहीं किया जाता है या उसकी गोलियां खत्म नहीं हो जाती हैं ।
मै यह गलत तार छेड़ बैठा।, इसकी तस्वीर पेश करने के लिए जितनी बड़ी पड़ताल, जितना बड़ा आंकड़ा एकत्र करने वाला दल और इसकी रिपोर्ट तैयार करने वाला जितना कागज चाहिए, वह तो मेरे पास है नहीं।
कहना यह चाहता हूं इन बेचारों का कोई दोष नहीं, यह तो उस खेती की उपज है जो हो अधिकारों के विस्तार और कर्तव्य निर्वाह के संकोच के कारण हमारे समाज के खेत में पैदा किया जा रहा है और जो केवल हमारे देश तक सीमित नहीं है। दुनिया में ऐसे मजहब है, जिनमें अधिकार बोध है, कर्तव्य बोध है ही नहीं. व्यवस्थाएं जिनमें अधिकारों का विस्तार करते हुए समाज का विध्वंस करने का. करते रहने का राजनीतिक लाभ के लिए संकल्प दिखाइए और समाज के प्रति कर्तव्य बोध तक समाप्त हो गया है। अधिकारों का बढ़ना, यमन की बच्चे का समाज पैदा करना है, अधिकारों का समग्र हनन और केवल कर्तव्य की मांग तानाशाही, फॉसिज्म और नात्सीवाद एवन का सूचक है। इनके बीच संतुलन आदर्श व्यवस्था आदर्श नागरिक आदर्श विकास और आदर्श मानसिकता पैदा करने के लिए जरूरी है।
भाई साहब जो बने, उसके लिए मैं अपनी सौतेली मां, माई, को अपराधी नहीं मानता, उसने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया उससे बहुत दुख होता था, परंतु विचित्र बात यह है कि सारा दुख सहने के बाद मैं उसे दोष नहीं दे पाता था।
नहीं, न्याय का तराजू लेकर बैठता नहीं था, सिर्फ यह सोचता था कि भाई ने यह काम किया नहीं, दीदी यह करती नहीं और माई कर नहीं सकती, फिर मेरे सिवा और कौन है जो करेगा।
माई के पक्ष में एक बात और थी। ऐसा नहीं होता कि वह काम न कर रही हो और किसी दूसरे से काम करा रही हो। काम करते हुए उसे ऐसी मदद की जरूरत थी, जिसे वह कर नहीं सकती थी। जैसे ऐसा कोई छोटा मोटा काम जिसके लिए घर से बाहर जाना जरूरी हो। सुबह से शाम तक, उसे मैंने आराम से बैठते नहीं देता।
एक बड़े से घर के लिए, एक अकेली औरत के लिए, झाड़ू लगाने, घर- बर्तन करने, सूप, ओखली, चक्की, जाँत, झरना, चलनी, रसोई के महाचक्र में घिरे रहना। यहां तक कि खाने के लिए अलग-अलग आने वालों को खिलाना भी एक लंबा काम होता था। उसकी अय्याशी का हाल यह, दोपहरी तिपहरी में कभी फुर्सत निकालकर अपनी कमर भी सीधी कर लेती थी।
माई घर में अकेली थी। दीदी इतनी सयानी तो हो ही गई थी कि कामकाज में हाथ बँटा सके और इस तरह वह बुनियादी शिक्षा ग्रहण कर सकें इसके अलावा दूसरी कोई शिक्षा सुलभ भी नहीं थी। भाई और दीदी की जड़ों में पड़ने वाले अतिरिक्त स्नेह ने उनके और माई की पहली दो सन्तानों का जीवन उसी सिंचाई ने सड़ा दिया और मेरी यातना ने मुझे अष्टधातु की प्रतिमा बनाया जिसे जंग न लगे, द्वेष न माई के प्रति, न दीदी और भैया के उसकी संतानों के प्रति।
यातना यह नहीं थी कि मुझे काम करना पड़ता। यातना यह कि जब दूसरे भाग जाते हैं तो काम मैं करता हूँ, वे शिकायत करते,हैं मैं बड़ाई करता हूँ, फिर भी वह मुझे ही क्यों दंडित करती है।
दार्शनिक चिंताएं किन यातनाओं से जुड़ी होती हैं, इसे पहले बुद्ध ने समझा होगा और फिर मैंने। बुद्ध को तप साधना से गुजरना पड़ा और मुझे सौतेली माताओं के अत्याचार के विषय में अमर लोककथाओं, सीत-वसंत, रानी केतकी आदि की कहानियों के माध्यम से आर्यसत्य तक पहुँचना पड़ा
जिनमें से सबसे हृदयविदारक कहानी माई ने ही सुनाई थी।
पुत्र के शत्रुओं से मुठभेड़ में शत्रु को मार कर आने, स्वयं मारे न जाने का जिउतिया (जिवितपुत्रिका) व्रत जो क्षत्राणियों का विशेष व्रत है। इसमें शाम को जहाँ कहीं बरियार का पौधा मिल जाए उसकी पूजा करके वे गाते हुए अपनी कामना जताती हैं,
‘ए अरियार/ का बरिआर/ राम जी से कहि दीहा अमुक के माई जिउतिया भुक्खल बाटी। हमार पूत/ मारि आवें / मरा न आवैं।’
इसमें यदि रास्ते में खेत पड़े और उसमें हराई का निशान दिखाई दे तो वह आघात का प्रतीक होता है इसलिए वह इसे लाँघ कर जाए तो अपशकुन होगा। सौतेली माँ सौतेले बच्चे के साथ, जिस के लिए उसने व्रत रखा था, बरियार पूजने निकली थी। रास्ते में हराई पड़ गई। और कोई चारा न देखकर उसने हराई पर बच्चे को सुलाया और उसकी छाती पर पैर रख कर उसे पार कर गई।
कहानी इतनी बिदारक है कि यदि यह याद दिलाए बिना आगे बढ़ूू तो भारी अन्याय होगा कि यह कहानी उसने स्वयं व्यथित भाव से सुनाया था। इसमें शायद विमाता होने के दुर्भाग्य की व्यथा भी रही हो।
परंतु इसका मेरे मन पर एक तो यह असर पड़ता कि दूसरी विमाताओं की तुलना में वह कितनी दयालु है जो उस तरह की माँग नहीं करती, दूसरे जब धमकाने के लिए जहर दे कर मारने की बात करती तो लगता वह सचमुच ऐसा कर भी सकती है। लेकिन जो सबसे आकुल करने वाला प्रश्न था वह यह कि जो स्त्री अपनी संतान को इतना प्यार करती है वह सौतेली संतान के प्रति ही क्रूर क्यों होती है? सभी स्त्रियाँ भली होती हैं तो सौतेली माताएँ ही क्यों बुरी होती हैं? क्या वे स्वयं चाहती हैं कि उसको सौतेली संतान मिले?
बुद्ध के आर्यप्रश्नों से कुछ अलग थे मेरे आर्य प्रश्न जो ऊपर के प्रश्न से कि जब उसकी सारी सेवा मैं करता हूँ, शिकायत भी नहीं करता, तारीफ भी करता हूँ फिर यह मुझे ही यातना क्यों देती है?
तारीफ!
सच कहें तो मैं तारीफ करता ही नहीं था। चार साल की उस छोटी उम्र में मैने बिना किसी के सिखाए यह समझ लिया था कि यदि किसी से शिकायत करूँगा तो वह किसी बहाने से आकर समझाएगी और यह जान कर कि मैने किसी से शिकायत की है, वह और सताएगी। भैया और दीदी तो भाग कर निकल जाते थे, मैं इतनी तेजी से भाग ही नहीं पाता हूँ, इसलिए यातना बढ़ जाएगी।
आप कहेंगे बकवास। इतनी छोटी उम्र में यह सूझ। मैं कल्पना से गढ़ रहा हूँ। स्वयं मुझे भी हैरानी होती उस पहली बार मगरू तेली की बीवी के पूछे सवाल की शब्द चित्रमय स्मृ्ति पियारे बाबा के घर के सामने पतरकुइयाँ की टूटी फूटी जगत से पास झुक कर मुझे दुलार से बेचारा टूअर कहते हुए, माई के लिए मयभा (मातृवत) शब्द का प्रयोग करते हुए पूछा था यह सवाल।
मेरा सोचना गलत भी नहीं था। सचमुच अपने बारे में मेरे बयान की खबर किसी तरह उसे मिलती थी। वैसे व्यवहार पर प्रशंसा? विश्वास नहीं कर पाती। मुझपर व्यंग्य करते हुए मुझे गबड़घूइस कहती, मुहावरे के साथ, “चरहा भरहा कै अन्त मिलैला, गबड़घुइसे कै नाहीं।” इसकी व्याख्या में न जाऊँगा पर रिश्वत के लिए घूस के प्रयोग की व्युत्पत्ति पर ध्यान दें। आप इसे “छिपे रुस्तम” भी कह सकते हैं। पर कहती हँसते हुए, एक दबे संतोष के साथ।