Post – 2018-06-15

#विषयान्तर

अमेरिका ने भारत को हाल ही में चेताया था अमेरिका या रूस, दोनों में से एक को चुन लो। भारत ने अपनी पुरानी नीति दुहराई, हम किसी एक से बँधकर नहीं रह सकते। अब अमेरिकी हथकंडे शुरूः 1. भारतीय सेना कश्मीर में अत्याचार कर रही है, 2. कश्मीर के भाग्य का निर्णय प्लेबीसाइट से होना चाहिए, 3. संघ और सेना आतंकवादी संगठन हैं। वे क्या हैं आप जानें पर अमेरिका के सुर पर कुर्बान जाने से बचें।

Post – 2018-06-14

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया

शीर्षक के दोनों शब्द कुछ भ्रामक है। देववाणी, देव समाज द्वारा बोली जाने वाली एक अविकसित भाषा की और इसका व्यवहार उस समाज में सभी के द्वारा होता था और उसके बाहर के लोगों के लिए वह बोली या समझी नहीं जाती थी। जिसे हम जनवाणीकरण कह रहे हैं, वह एक विकसित भाषा में रूपान्तरण है, जिसका मूल आधार देववाणी भले रही हो, परंतु कई बोलियों के सोपर्क से अपना रूप बदलते हुए सारस्वत क्षेत्र में पहुंची थी और केवल उस वर्ग द्वारा बोली जाती थी जिसका उत्पादन के साधनों पर अधिकार था और दूसरे कई भाषाई पृष्ठभूमियों के जो लोग उनकी सेवा में लगे थे, वे अपने दायरे में अपनी बोली बोलते थे और दूसरों से संपर्क के लिए उस भाषा का व्यवहार करते थे जिसे उन्हीं की तरह अनेक भाषाई समूह व्यापक संपर्क के लिए अपना चुके थे। जिसे हमने कामचलाऊ रूप में जनवाणी की संज्ञा दी है वह इसी अर्थ में ग्राह्य है कि एक बहुत बड़े दायरे में यह लोक व्यवहार की भाषा थी जब कि उस पूरे क्षेत्र में अनेक प्रकार की बोलियां लोग अपने आपसी कामकाज में बोलते थे।

कहें, हम साहित्य की ओर यह स्पष्ट करने के लिए मुड़े थे कि यह भाषा कई चरणों पर विकसित होते हुए आदि देववाणी से क्रमशः आगे बढ़ते हुए उस ऊंचाई तक पहुंची थी जिसमें रची हुई रचनाओं को ऋग्वेद में पाते हैं परंतु साहित्य रचना की एक लंबी परंपरा रही होगी जो इस अवस्था से पहले के चरणों पर साहित्य का माध्यम बनी होगी, भले वह साहित्य हमारे लिए दुष्प्राप्य हो। साहित्य के अनुपलब्ध होने के बाद भी हम मान सकते हैं की अनेक मिथक और प्रतीक जो उस काल में रचे गए होंगे वे बाद में भी प्रयोग में आते रहे होंगे और ऋग्वेद की रचनाओं में भी इनका प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद का कवि जब कहता है, कि मैं इंद्र के उसे पराक्रम की बात कर रहा हूं जो उसने बहुत पहले (प्रथमानि- पहले पहल) किए थे। उस पराक्रम में वह यह बताता है कि उसने जल को चुरा कर भागने वाले बादलों को मार कर जल की वर्षा कराई और नदियों के द्वारा पर्वतों को विदीर्ण कर दिया। निश्चय ही वैदिक कवि युगों युगों से चली आई रूपकथा का अपनी रचना उपयोग कर रहा था। यह दूसरी बात है कि इतने बड़े और जटिल भूभौतिक कार्य व्यापार का सजीव चित्रण वह दो पंक्तियों में उपस्थित करने की क्षमता अपनी भाषा और काव्य संस्कार में पैदा कर चुका थाः
इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् ।। 1.32.1

इस परिघटना को अनेक तरह से बार बार दोहराया गया है,
त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरुं वज्रेण वज्रिन् पर्वशश्चकर्तिथ ।
अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः सत्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ।। 1.57.6.58
इन्द्रो स्य दोधतः सानुं वज्रेण हीळतः ।
अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्नर्चन्ननु स्वराज्यम् ।। 1.80.5
स धारयत् पृथिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज ।
अहन्नहिमभिनद्रौहिणं व्यहन् व्यंसं मघवा शचीभिः ।। 1.103.2
सद्येव प्राचो विमिमाय मानैर्वज्रेण खान्यतृणन्नदीनाम् ।
वृथासृजत् पथिभिर्दीर्घयाथैः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार ।। 2.15.3
भिनद् गिरिं शवसा वज्रमिष्णन्नाविष्कृण्वानः सहसान ओजः ।
वधीद् वृत्रं वज्रेण मन्दसानः सरन्नापो जवसा हतवृष्णीः ।। 4.17.3
त्वमध प्रथमं जायमानोऽमे विश्वा अधिथा इन्द्र कृष्टीः ।
त्वं प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण मघवन्वि वृश्चः ।। 4.17.7
मैं इस परिघटना का उल्लेख दो कारणों से कर रहा हूं एक तो यह इसी के आधार पर आर्यों के आक्रमण का और अनार्यों के नगरों के ध्वंस का इतिहास खड़ा किया जाता रहा। इतने बड़े पंडितों का इतनी नासमझी भरी व्याख्या का प्रतिवाद करने के लिए ऋग्वेद में प्रचुर सामग्री थी, इसके बाद भी जिन विद्वानों के संस्कृत ज्ञान पर हमें भरोसा है वे इसका प्रभावशाली प्रतिवाद नहीं कर सके या उनकी बात उसी तरह नहीं सुनी गई जिस तरह मेरी अपनी, जिसने 1973 में प्रतिपादित किया था कि भारतीय भाषा और संस्कृति का निर्माण आदिम अवस्था से आगे बढ़ते हुए कई भाषाओं और नस्लों के सहयोग से हुआ है और नागर अवस्था के बाद तथा व्यापारिक प्रसार के क्रम में इसका विस्तार समूचे भारोपीय जगत में हुआ था।

उपेक्षा यदि तार्किक या प्रामाणिक आधार पर की गई होती तो और बात है, परन्तु इसे मानने से इन्कार इसलिए किया जाता रहा कि हमने ज्ञान और विज्ञान तक का सांप्रदायीकरण कर रखा था। ऐसा सांप्रदायीकरण हिंदुत्ववादियों के बस का नहीं था। ऐसा कारनामा हमारे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं और करते रहे। इसीलिए मेरा यह आरोप है कि भारत में सांप्रदायिकता की खेती करने वाले वे रहे हैं जो अपने को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं और इसका दोष सबका साथ सबका सम्मान करने वालों, सभी मतों और विश्वासों को पूरी छूट देने वालों के सिर मढ़ते रहे हैं। 1987 और 1995 में भाषा, साहित्य, पुरातत्व, नृतत्व, देवशास्त्र, जीनविज्ञान सभी के निर्णायक प्रमाण प्रस्तुत करते हुए जब मैंने सभी को निरुत्तर कर दिया उसके बाद भी पिछले दरवाजे से उसी इतिहास को बचाने का प्रयत्न करते रहे। जिन्हें निरुत्तर करने के बाद भी मैं यह नहीं समझा सका कि आर्यों का आक्रमण एक फरेब था, उन्हें यह समझा पाना तो संभव ही नहीं कि पहली बार राष्ट्र निर्माण के संकल्प, और दूर दृष्टि को लेकर इतने क्षेत्रों में कितने तरह के काम और प्रयोग हो रहे हैं जिनके सामने उनकी आंखे चौंधिया जाती है, इसलिए उन्हे दिखाई कुछ नहीं देता, आंखों में चुभन अवस्य पैदा होती है, पर यह चौंध और चुभन उस चश्में के कारण है जिसे वे उतार दें तो अपनी ही नजर से उतर जाएंगे।

राजनीतिप्रेरित दबाव से प्रेरित विषयांतर के लिए क्षमा याचना सहित यह याद दिलाना चाहूंगा ऋग्वैदिक साहित्य हजारों वर्षों की साहित्यिक गतिविधियों का उत्कर्ष है तो उसकी भाषा में भी दसियों हजार पीछे के अनेक भाषाओं से लिए गए तत्व मौजूद हैं। इसी परिपेक्ष्य में हम देववाणी के वैदिक भाषा में रूपांतरण का आभासिक चित्र प्रस्तुत कर सकते हैं।

यह निवेदन किया था देववाणी में अंतस्थ ध्वनियों में केवल संघर्षी ऱ था, ल के विषय में हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकते। ऋ, लृ, ए, ऐ. औ, ण, य, व, श, ष दुनिया निश्चित रूप से नहीं थी। ऐसी स्थिति में जिस वर शब्द पर हम विचार कर रहे थे वह तो उसमें हो ही नहीं सकता था। इसका देववीणी का रूप बऱ था। यह घर्षी ऱ ही ळ, ड़, का जनक था। अब हम दो समानांतर रूपों को रखते हुए इस अंतर को या विकास को समझने का प्रयत्न करेंगे।
बर>वर, बड़ > वरं, बार/बाल > वार, बराअल/बरावल > वारण, बाड़-वार/वाल. बाड़ा >वर्त, बाट> वर्त्म/ वर्ति/ वृत, बर/बिर/बारि/बरि >बर/वृ/विर/वारि, बरस>वृष > बरखा>वृष्टि आदि। ये मेरे अनुमान है जिनमें से कुछ दूसरे विद्वानों के सुझाव के बाद बदले भी जा सकते हैं परंतु इतना स्पष्ट है शब्दसंपदा में वृद्धि एक तो ध्वनि परिवर्तन के कारण समानांतर हुआ, कुछ पुराने शब्दों में, जैसे बल, बलि, बली, बिल को रहने दिया गया। यद्यपि बाद में बिल को भी विवर बना दिया गया परंतु ऋग्वेद में बिल बचा हुआ है और उसी का दूसरा रूप वल पैदा हो चुका है।
कल की कल।

Post – 2018-06-13

#विषयान्तर
किसानों की कर्ज_माफी

किसानों की कर्ज माफी के तीन पक्ष हैं- राजनीतिक, अार्थिक और मनोवैज्ञानिक। पहले से चुनाव जीतने की उम्मीद की जाती है, दूसरे से विकास की दूसरे मदों के लिए अपेक्षित धन राशि का अपयोजन होता है, और तीसरे से किसानों को आत्महत्या का रास्ता अपनाना पड़ता है।
कर्ज की राशि किसी न किसी अनुपात में जरूरतमंद किसानों को भी मिलती ही होगी परंतु अधिकांशतः चालाक, पहुंच वाले और हेराफेरी करने में कुशल लोगों को ही मिल पाती है। बात आज से 20 साल पहले की होगी जब मैं अपने गांव गया था। मेरे समवयस्क एक व्यक्ति के यहां कर्ज की राशि चुकाने का परवाना लेकर कोई कारिंदा मेरे सामने ही पहुंचा था, और उसे उन्होंने अपने तरीके से निपटा लिया था। मैंने पूछा, तुम्हारी आर्थिक हालत अच्छी है, विदेश से पैसा भी आता है, तुमने कर्जा क्यों ले रखा है और पीछे का कर्जा चुकाए बिना तुम्हें नया कर्ज मिल कैसे गया था। मेरी बात सुनकर वह हंसने लगा। कहा आप नहीं समझेंगे इस बात को। कर्ज लेने के तरीके हैं। इलेक्शन आ रहा है। माफ हो जाएगा।

कर्ज देते समय बैंक कर्मचारी और बिचौलिए इस बात का ध्यान रखते हैं कि उस आदमी की भुगतान की हैसियत है या नहीं। इसलिए यह अक्सर औसत से अच्छी आर्थिक दशा वाले लोगों को ही मिल पाता है। यह एक सच्चाई है।

दूसरी सचाई यह है कि यह कांग्रेस का पुराना, आजमाया हुआ, हथकंडा है। कर्ज कांग्रेस प्रशासन से बिचौलियों को पार्टी के प्रति निष्ठावान बनाए रखने के लिए दिया और माफ किया जाता रहा है । बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद और इंदिरा जी के शासन से असंतोष पैदा होने के साथ इस हथकंडे को अपनाया गया। दूसरे दलों के काडर किन्ही सिद्धांतों में निष्ठा रखने के कारण तैयार किए जाते हैं कांग्रेस का काडर खाने पीने के सिद्धांत पर पलता और पनपता रहा है। यह सिलसिला किसी न किसी रूप में स्वतंत्रता के बाद ही आरंभ हो गया था, जब नेहरू जी को अपने परिवार और नातेदार लोगों को कुछ न कुछ देते देखकर दूसरों को अपने अपने हिस्से की याद आई थी और पहली बार दुर्भाग्य से मंदी के सहयोग से कालाबाजारी आरंभ हुई थी। इंदिरा जी ने उसे तार्किक परिणति पर पहुंचा दिया और जैसा कि राजीव जी ने भोलेपन से स्वीकार किया था विकास के लिए केंद्र से चला हुआ एक रुपया अंतिम मुकाम तक पहुंचने पर 25पैसा रह जाता है। इसलिए, जब पंजाब के मुख्यमंत्री ने कर्ज माफी की घोषणा की मैं हैरान नहीं हुआ था। राहुल जी ने जब कहा कि वह मध्य प्रदेश के किसानों का कर्जा माफ कर देंगे तुम मुझे अविश्वास नहीं हुआ । जब गायब होने वाले पैसों पर पलने वाले लोगों ने कांग्रेस शासन का अंत देखकर हल्ला मचाना शुरू किया था तब भी मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। कांग्रेस का काडर अदृश्य होता है, अपनी हितबद्धता के कारण इतनी मजबूती से उसके साथ खड़ा होता है कि उसके सत्ता से बाहर होने के साथ ही अर्ध विक्षिप्त हो जाता है।

तीसरी बात, कर्ज सभी किसानों को न तो मिल सकता है नहीं मिलता है, इसलिए जो लोग इस तरह का कर्जा लेते हैं और मौज मस्ती में उड़ा देते हैं उनसे दूसरे किसान जिनकी संख्या बहुत अधिक होती है, भीतर ही भीतर जलते हैं। इसके बावजूद अपनी वाचालता और हैसियत का लाभ उठाते हुए कुछ सीमा तक जनमत को मोड़ने में भी इनकी भूमिका होती है। परंतु अकेले कर्जमाफी के बल पर कोई इलेक्शन न तो जीता जा सकता है, न जीता गया है। पंजाब में इसके बावजूद यदि सफलता मिली तो वह कर्जमाफी के कारण नहीं, बल्कि इसलिए मिली अकाली दल से लोगों का वैसा ही मोहभंग हुआ था जैसे मनमोहन सिंह सरकार से। अकाली दल के कारनामों और नशे के बढ़ते कारोबार के कारण लोग किसी अन्य को चुनने के लिए तैयार थे। दिल्ली में बिजली पानी की रियायत या रिश्वत काम आई थी क्योंकि उससे अधिकांश लोग लाभांवित हो रहे थे। आर्थिक प्रलोभन देकर चुनाव जीतने वाला व्यक्ति लिखित रूप में यह स्वीकार करता है उसके पास सत्ता में आने या बने रहने का न तो नैतिक अधिकार है, न प्रशासनिक दक्षता, और न ही भविष्य कोई खाका।

आर्थिक पक्ष यह कि कर्ज की पूरी रकम का एक हिस्सा बैंक कर्मचारियों और बिचौलियों के पास चला जाता है यह जानते हुए भी कर्ज लेने वाला इसलिए निश्चिंत रहता है कि अगले चुनाव में कर्ज माफी होगी और जब नहीं होती है या बैंकों की खस्ता हालत के कारण वसूली पर जोर दिया जाता है तो मोहभंग की वह नौबत आती है जिसमें किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती और संचार माध्यमों को हाय हाय करने का नया मसाला मिल जाता है। बैंकों में भ्रष्टाचार बढ़ता है और उस के अनुपात में बैंकों की हालत लड़खड़ाने लगती है। विकास की राशि बर्बाद होती है। निठल्ले बिचौलियों का एक तबका खतरनाक रूप से बढ़ता है।

मनोवैज्ञानिक पक्ष यह कि राष्ट्रीय स्तर पर मनोबल गिरता है, आत्मनिष्ठता के अनुपात में राष्ट्रनिष्ठा और समाज की चिन्ता का ह्रास होता है, आत्माभिमान घटता है, नैतिक का प्रतिरोध क्षीण होता है लालच बेशर्मी से बढ़ती चली जाती है
नैतिक ह्रास के विस्तार के चलते आपराधिक तरीकों से जल्दी से जल्दी धनी और उससे भी धनी बनने की लालसा का निर्लज्जतापूर्ण विस्तार होता है जिसमें मिलावट, कमीनापन और जघन्य अपराधों की बृद्धि में तेजी आती है, दहेज की मांग, रिश्वत की मांग ही नहीं बढ़ती है, हरामखोरी के साथ कामचोरी भी बढ़ती है। देश कुलांचे भरना तो दूर सीधी चाल से जलना तक भूल कर रेंगते हुए सरकता है। नैतिक मनोबल का हास नैतिकता से जुड़े सम्मान को भी खत्म कर देता है जो कि अनेक कष्टों को सहते हुए भी मनुष्य को नैतिक बने रहने का आत्मबल देता है। । किसी भी कीमत पर सफलता श्रेष्ठता का मानदंड बन जाती है।

Post – 2018-06-12

#वैदिककविता

शब्द प्रयोग
वैदिक कविता के सौंदर्य पक्ष पर बात करने के प्रलोभन के बाद भी, अपने को इसलिए रोकना पड़ता है क्योंकि उसके चलते प्रस्तुत विषय से इतनी दूर चले जाने का डर है कि फिर भाषा के पक्ष पर वापसी हो ही न पाए। वे ऋचाओं, या अर्द्धालिओं में ही पूरा चित्र नहीं खड़ा कर लेते थे, अपितु कुछ कवि शब्दों में ही पूरा दृश्य उपस्थित कर देते थे। चित्रभानु – रंग बिरंगी रश्मियांं विकीर्ण करने वाला, पर्जन्यक्रन्द -वर्षा के घनगर्जना सी ध्वनि करने वाला, विश्वचर्षणी समस्त जगत का अवलोकन करने वाला, दशभुजी पृथ्वी- दसों दिशाओं के रूप में अपनी भुजाएं फैलाकर ब्रह्मांड को समाहित करने वाली भूदेवी, विश्वमिन्व – समस्त जगत को धन धान्य और आनंद से पूर्ण करने वाला/वाली, प्रातर्यावाना- प्रातः काल ही यात्रा पर चल देने वाले, उषर्बुध- उषा की रेखा के साथ ही नींद से उठ जाने वाले, विश्वपेशस् – बहुविधरूपयुक्तं, विश्वभानु – सर्वतः व्याप्ततेजस्क, विश्वभोजस – समस्त भोग्य पदार्थों से युक्त, विश्व भेषज- समस्त रोगों का निवारण करने वाला, समुद्रवासस- बादलों का वस्त्र पहने हुए (अग्निदेव), ज्योतिर्वसाना – ज्योतिका वस्त्र पहने हुए (उषा ), तविषीभिरावृतम् – ज्योतियों(शक्तियो) से आवृत, दुरोकशोचि- दष्प्राप्य तेज वाला, स्वर्दृशीक – स्वर्गोपम/ सूर्योपम, स्वाधी, विश्वधाय- समस्त विश्व को धारण (पालन) करने वाला, हिरण्यवर्तनी- अपने बहाव का मार्ग निरंतर बदलती रहने वाली या अपने प्रदेश को धन धान्य से पूर्ण करती रहने वाली,, सिषासु -धन जोड़ने की फिक्र में रहने वाला, शुक्रवास – श्वेत वस्त्र धारण करने वाला, , जिह्मबार – जिह्ममधस्ताद्वर्तमानतया वक्रं वारं द्वारं यस्य, समुद्रज्येष्ठ – समुद्रो अर्णवो प्रशस्तमो यासां मध्ये, जल भंडारों में सबसे विशाल (महासागर), समुद्रव्यचसं – समुद्र की गर्जना जैसा स्वर (इन्द्रं विश्वावीवृधन्त् समुद्रव्यचसं गिरः, जिसके लिए इसी से प्रेरित मेघमन्द्ररव गढ़ा गया।

शब्दों की नवीनता और सटीकता की तुलना भाषाविदों की सहायता से तैयार की गई शब्दावली से करें तो अन्तर स्पष्ट हो जाएगाः सत्यमन्त्रा, ऋजूयवः, अन्तरिक्षप्रां, मदच्युतं, संभृतक्रतु, बद्बधान, अद्रिदुग्ध, स्वतवस, रघुष्यदः, धनस्पृत, . इस गणना को और आगे बढ़ाते जा सकते हैं, परंतु उसका कोई लाभ नहीं। इतना ही पर्याप्त है कि हमारी तकनीकी शब्दावली के सवसे सटीक शब्द वे हैं जो ऋग्वेद से लिए गए हैं।

अधिक रोचक यह बात है कि वे शब्द निर्माण में कितनी छूट लेते थे और युक्तियों का प्रयोग करते थे। जाहिर है क्यों उनके बहुत से प्रयोग आगे चल ही नहीं पाए और इसका एक कारण यह था इसके बाद प्राकृतिक आपदा के लंबे दौर में नष्टप्राय हो चुकी सभ्यता में इनका कोई उपयोगिता नहीं रह गई थी। अभाव के कारण नागर सभ्यता से जुड़े हुए सभी लक्षण लगभग मिट्टी में मिल चुके थे और अगली पीढ़ियों को अपने नाखून से खोदते हुए टूटी फूटी विरासत को बचाना था, जिसमें उन्नत भाषा के लिए सबसे कम अवकाश था इसलिए जुटाए गए साहित्य में तो वे बचे रहे पर

कुछ शब्दों के बारे में यह शिकायत भी की जा सकती है कि उनके निर्माण में प्रयोगधर्मिता कुछ आगे बढ़ गई थी। इसमें छोटे शब्द भी आते हैं और दीर्घकाय शब्द भी। सर्वनाम के साथ सामान्यता संधि नहीं होती परंतु वैदिक प्रयोगशीलों के लिए कोई बंधन मान्य नहीं थाः सः+इमम्= सेमं, उपसर्ग धातुओं के साथ लगते हैं, संज्ञा के साथ नहीं, परंतु वेदिक कवियों को इसकी चिंता नहीं थी – आ+इंद्र = ऐन्द्र, उपसर्ग धातु से पहले लगते हैं वैदिक कवि पूरी पंक्ति में आगे पीछे शब्दों के अंतराल के बाद कहीं भी रख सकते थे ‘आ तू न इन्द्र शंसय‘ में संशय से दो शब्द पहले ही उपसर्ग को रख दिया गया। आगमत की जगह आ घा गमत् , आ स्वश्व्यं दधीत = स्वश्व्यं आदधीत आदि. अपनी कल्पना से वे तरह-तरह के नए संयोजन कर रहे थे अकामकर्षण, अकृत्तरुक, परंतु सबसे मजेदार है आ+इत+अ+याम+उप = एतायामोप. इहेहमातरा = इह+इह+माता – सर्वत्र माता ययोस्तादृशौ स्थः, सास्युक्थ्यः = सः+असि+उक्थ्यः, स्वेदुहव्यैः = स्व+इत्+उ+ हव्यैः, सचोतेधि = सचा+उत+एधि;।

वैचित्र्य का एक कारण भाषा का व्यवहार कई भाषाई पृष्ठभूमियों से आए हुए और देव भाषा सीखने के प्रयत्न में लगे हुए लोगों के प्रयोग की विचलनें हैं जिन्हें संभवतः वे स्वयं लक्ष्य भी न कर पाते रहे हों, इसलिए सः> स्यः (यः स्यः दूतो न आजगन् ), स्वयं – स्वेन (स्वेना हि वृत्रं शवसा जघन्थ ), कुण्वैते, ब्रवैते, वितन्तसैते, इयत्तक/इयत्तिका; जैसे प्रयोग देवभाषा के लोगों द्वारा किए जाते रहे हो सकते हैं, परंतु इसके लिए जितना विस्तृत ज्ञान होना चाहिए उसके लिए मेरे पास समय नहीं है परंतु इत्ता सा, इत्ती सी जैसे प्रयोग भोजपुरी में चलते हैं। देभुः, वन्दारु, सनेरु, जबारू, कुणारु, निचेरुः,अभ्यारुः, तितिरुः, कारु,पेरुः,शरुः, विभंजनु, वंकू में भोजपुरी प्रत्यय साफ देखा जा सकता है।

Post – 2018-06-12

#विषयान्तर
दूरदर्शन को मोदीदर्शन न बनाएं

घटनाओं का होना, दुर्घटनाओं का बढ़ना, समाचारों का लोप, विचारों की दरबाबंदी मिलकर एक ऐसे अंधलोक की सृष्टि करते हैं जिसमें मनुष्य की भावुकता को मनजाही हदों तक उभारा और उनका विनाशकारी उपयोग किया जा सकता है। यह सचेत रूप में हो या अचेत रूप में, परिणाम एक ही होता है। हम इसी दौर से गुजर रहे हैं। निजी संचार माध्यमों के बाजारीकरण के बाद कोई भी पैसा देकर उनसे किसी भी विचारयो व्कायभिचार का प्रसार करा सकता है, रुचि को किसी भी दिशा में मोड़ सकता है, विकल्प के अभाव में कुरुचिपूर्ण, अश्लील, उपद्रवकारी सामग्री की आदत पैदा कर सकता है और हम इन योजनाओं के पीछे काम करने वाले व्यक्तियों के हाथ में नाचने वाली कठपुतली जैसा आचरण करने को विवश हो सकते हैं। समाचार पत्रों का हाल दृश्य और श्रव्य माध्यमों से अधिक अच्छा नहीं है।

मैं, सूचना के लिए पहले केवल दूरदर्शन को देखता था। अब दूरदर्शन पर केवल मोदी जी दिखाई देते हैं। अपने विरुद्ध विचारों का प्रसार करने का इससे अधिक मूर्खतापूर्ण कोई तरीका नहीं हो सकता। दूसरे दल, आपस में मिलकर या अलग अलग जो कुछ कर रहे हैं उसका लाभ भाजपा को मिलेगा इसे वे नहीं समझते, और भाजपा अपने प्रचार के लिए जो कुछ कर रही है उसका नुकसान सबसे अधिक उसी को उठाना पड़ेगा यह मुझे पक्का विश्वास है ।

प्रचार की अति और आत्म प्रशंसा विरक्ति पैदा करते हैं, इसका पाठ भाजपा को, इंडिया शाइनिंग के परिणाम से पढ़ लेना चाहिए था। वास्तव में उन दिनों जनमत का झुकाव भाजपा की ओर था। इसी से उत्साहित होकर अपना कार्यकाल पूरा करने से पहले ही वाजपेई जी ने निर्वाचन का विकल्प चुना था। परंतु प्रचार में दूरदर्शन तथा अन्य सूचना माध्यमों से इंडिया शाइनिंग का जो अंधड़ चलाया गया, उसके परिणाम का पूर्वानुमान करते हुए मैंने एक बहुत नाजुक अवसर पर, बहुत गलत तरीके से, कुछ अशोभन लहजे में, तत्कालीन एनसीईआरटी के निदेशक से कहा था -आपको केवल 3 महीने मिले हैं इस बीच इतिहास की पुस्तक में जो कमियां हैं उन्हें दुरुस्त करा लें जिससे किताब आगे भी बढ़ाई जा सके अन्यथा सत्ता बदलने वाली है और यह किताब हटा दी जाएगी ।

इस अवसर पर दवे जी, विजय बहादुर सिंह और चित्रा मुद्गल भी उपस्थित थे। निदेशक महोदय ने जितनी शालीनता से मेरी कटूक्ति को सहन कर लिया था उसके कारण मेरे मन में एक व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान सदा के लिए बढ़ गया यह अलग बात है।

परंतु जब सभी लोग भाजपा की जीत के सपने देख रहे थे, मैं इंडिया शाइनिंग के अति प्रचार के कारण भाजपा के संकट को निश्चित मान रहा था। आज भी सभी अपनी अपनी भाषा में स्वीकार करते हैं कि मोदी का कोई विकल्प नहीं है। अनेक गलतियों के बाद भी मोदी ने जो काम किए हैं वे उन गलतियों से कई गुना इष्टकर हैं। मैं उन लोगों में हूं जो मानते हैं कि मोदी को छोड़ कर किसी के हाथ में भारतीय शासन का जाना देश के लिए अनिष्टकर है इसलिए मैं चाहता हूं कि मोदी और भाजपा के लोग प्रचार के गलत हथकंडे न अपनाएं, अतिप्रचार से बचें। उनके प्रचार का काम उनके विरोधियों के कथन और काम स्वयं करते जा रहे हैं और आगे भी करेंगे। मेरा एक छोटा सा स्वार्थ है कि दूरदर्शन को दूरदर्शन रहने दिया जाए मोदीदर्शन न बनने दिया जाए।

Post – 2018-06-10

#वैदिककविता

काव्य प्रयोग

मैं यहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूंगा। श्री अरविंद ने भावी कविता के विषय में कुछ विचार रखे थे जो उनके देहावसान के बाद धर्मयुग में प्रकाशित हुए थे। इसमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में कविता उस ऊंचाई पर पहुंच सकती है जो ऋग्वेद में पाई जाती है। यह अपने आप में वैदिक कविता की अर्थगर्भिता और सौंदर्य बोध पर एक सार्थक टिप्पणी है।

इससे पहले छन्द पर कवियों के प्रयोगों के प्रसंग में, प्रचलित छंद में कुछ काट-ब्यौत करने की बात की थी। परंतु इस प्रयोग का एक पक्ष शब्दलाघव से जुड़ा है। ऐसा कवि उसी बात को कम से कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से कहने का दावा भी करता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एकपदा विराट हैः

उरौ देवा अनिबाधे स्याम। 5.42.17

इस छोटी सी ऋचा का अर्थ समझने के लिए हमें उन व्यापारिक सार्थों की चिंता को समझना होगा जो जंगलों झाड़-झंखाड़ों या उबड़ खाबड़ इलाकों से हो कर गुजरते थे घबराए रहते कि कहीं रात बिताने के लिए खुली जगह ही ना मिले या ऐसा इलाका मिल जाए जहां उपद्रवी लोगों की बस्ती हो, माल और जान के लिए खतरा हो। पंक्ति का अर्थ है हे भगवान, हमें खुली जगह मिले और किसी तरह की बाधा न उपस्थित हो।

इसी भाव बोध की एक दूसरी ऋचा हैः
आ वां सुम्ने वरिमनत्सूरिभिः ष्याम् ।। 6.63.11
तुम्हारी कृपा से हम खुली जगह में शांति से अपने स्वजनों के साथ रहें।

द्विपदाविराट की यह ऋचाछ

तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासो अमेभिरेषाम् ।। 7.34.19
विशाल सेनाएं रखने वाले अपनी प्रबलता शत्रुओं को उसी तरह दग्ध करते हैं जैसे तपता हुआ सूर्य धरती को।

ऋग्वेद की ऋचाएं स्वतंत्र कविताएं हैं जिनको सूक्तों में संकलित किया गया है। प्रत्येक ऋचा दोहों, चौपाइयों यह उर्दू के शेरों की तरह अपनी बात पूरी तरह कह लेती है। एक विषय या केंद्रीय भावभूमि से जुड़े होने के कारण उन्हें एक सूक्त में रखा गया है। पूरी कविता एक पंक्ति की भी हो सकती है यह पहले मेरी समझ में नहीं आता था। पहले इस और भी ध्यान नहीं गया था के सूत्र कथन का विकास एकपदा विराट से हुआ हो सकता है।
यह निर्विवाद है किसी बात को प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में कह लेने की कोशिश ऋग्वैदिक काव्य भाषा का प्रधान गुण है। कुछ ही शब्दों में वर्ण्य विषय या कथ्य को मूर्त करने की क्षमता चकित करने वाली है ।

कुश-कास से जमीन को साफ करने के लिए आग का प्रयोग किया जाता था ऐसे ही एक दृश्य का चित्र एक ऋचा में हैः

यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ।। 10.142.4

आग ऊंची नीची भूमि पर झाड़-झंखाड़ का भक्षण करती हुई हुई आगे रही है और इसी बीच मुख्य धारा से अलग होकर बढ़कर जलाने लगती है, जैसे सेना का अग्रिम दस्ता हो।और इसके साथ प्रवाहित होने वाली हवा का योग मिलता है तो एक झटके में दूर तक इस तरह सफाया हो जाता है मानो नाई ने धरती की दाढ़ी का सफाया कर दिया हो।
इसमें सूक्ष्म अन्वीक्षण के साथ पूरे चित्र को एक ऋचा में चित्रित करने की क्षमता और भाषा पर ऐसा अधिकार कितने कवियों में हो सकता है, इस पर कोई टिप्पणी आवश्यक नहीं।

हम जानते हैं कि अपने विस्तार के क्रम में हड़प्पा सभ्यता का अंतर्देशीय प्रसार हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय शब्द का यदि हम कुछ रियायत के साथ प्रयोग करें तो अंतर्राष्ट्रीय प्रसार भी हुआ था। अंतर्देशीय प्रसार के इसी क्रम में इसका विस्तार सौराष्ट्र और कच्छ में हुआ था। यह काम एक झटके में आक्रमणकारियों जैसी तैयारी के साथ नहीं हुआ था बल्कि धीरे धीरे जमाव बढ़ता चला गया था। मुख्य भूमि समुद्र तट तक पहुंचने की यात्रा का एक ऋचा में हुआ में हुआ है।

इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । 10.46.2

जैसे चोरी गए हुए पशु को खोजने के लिए उसके पांवों का निशान देखते हुए उस तक पहुंचा जाता है उसी तरह अग्नि परिचर्या करते हुए पहले के जाने वालों के राख आदि को देखते हुए सही रकस्वेता पहचानते हुए वे समुद्रतट तक पहुंचे। इस प्रसंग में याद दिला दें कि पशुओं की चोरी करने वाले, प्रायः स्वयं उनके मालिक के पास सहानुभूति जताने के बहाने पहुंच जाते थे और खोज कर लाने का वादा भी करते थे परंतु इसके लिए उससे जो फीस वसूल करते थे उसे पनहा कहा जाता अर्थात पांव के निशान निहारते हुए खोए हुए पशु तक पहुंचने की फीस।

एक गायत्री छंद में उसकी पहली पंक्ति में इद्र का वर्णन हैः

तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो मदे ।
इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ।। 8.17.8

मोटी गर्दन, फूले हुए पेट, कसी हुई भुजाओं वाले इंद्र सोमरस से उल्लसित होकर वृत्रों का संहार करते हैं।

यदि निकली हुई तोंद के कारण इंद्र के बलशाली होने पर संदेह हो भीम के लिए प्रयुक्त वृकोदर पर ध्यान दे सकते हैं और जापान के सूमो
पहलवानों की शक्ल को देख सकते हैं। आदर्श मल्लयोद्धा की यही प्राचीन छवि थी, और लंगोटी का भी वही रूप था जिसे सूमो पहलवानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ अपनाया था।

कवियों की उद्भावनाएं, उपमाएं, रूपक इतने अनूठे हैं कि कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, तुलसीदास सभी उनके अनुकरण की कोशिश करते हैं और कभी-कभी उनके समकक्ष पहुंच पाते हैं।

उनकी उपमाओं में इतनी जीवंतता है कि उनके आधार पर देवों के चित्र ही नहीं, बल्कि कथाएं भी गढी जाती रहीं और इनका प्रसार अपने समय की दूसरी सभ्यताओं तक हुआ। मैं इसको मात्र एक उदाहरण से प्रस्तुत करना चाहूंगा जिससे आप सभी परिचित हैं परंतु यह नहीं जानते इसका स्रोत क्या है, तार्किक संगति क्या है, और अज्ञान के कारण इसकी सम्मोहकता और बढ़ जाती है। यह है उस काल्पनिक पक्षी की कहानी, जो अमर है और उसकी अमरता इस रहस्य मे छिपी है कि यह जलकर भस्म हो जाता है और फिर अपनी ही राख से अग्नि-विहंग बनकर आकाश की ओर उड़ चलता है। इसे हम फीनिक्स के नाम से जानते हैं, परंतु यह नहीं जानते, कि यह आग से जलकर बुझने उसकी किसी चिंगारी से पुनः प्रज्वलित हो जाने का रूपक है जो ऋग्वेद में अनेक रूपों में आता है।

इनमें आग की लपटों को आसमान तक पहुंचने की उसकी क्षमता को पक्षी के उड़ान भरने के रूप में बार-बार चित्रित किया गया हैः

तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः ।
यमृद्विजर्वृजने मानुषासः प्रयस्वन्त आयवो जीजनन्त ।। 1.60.3

वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।
वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनां उपमिद् ययन्थ ।। 1.59.1

साकं हि शुचिनायो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

उभयं ते न क्षीयते वसव्यं दिवेदिवे जायमानस्य दस्म ।2.9.5

यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।
यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ।। 5.1.1

आ रोदसी अपृणा जायमान उत प्र रिक्था अध नु प्रयज्यो ।
दिवश्चिदग्ने महिना पृथिव्या वच्यन्तां ते वह्नयः सप्तजिह्नाः ।। 3.6.2

समिधा यस्त आहुतिं निशितिं मत्र्यो नशत् ।
वयावन्त स पुष्यति क्षयमग्ने शतायुषम् ।। 6.2.5

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना ।
तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ।। 6.7.6

यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वयाइव ।
विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ।। 8.19.33

अच्छा होता यदि मैं इन ऋचाओं का हिंदी अनुवाद भी देता। परंतु समय नहीं है। साथ ही एक अन्य रूपक की ओर ध्यान दिलाने का प्रलोभन रोक नहीं पा रहा। यह है हिरण्यकशिपु के वध के लिए पत्थर के खंभे से नृसिंह का अवतार। अग्नि की तुलना सिंह से की गई हैः

रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3

पत्थर पर चोट करने पर उसे चिंगारी निकलती है, पत्थर के कण-कण में अग्नि विद्यमान हैं।

Post – 2018-06-10

काव्य प्रयोग

मैं यहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का प्रयत्न करूंगा। श्री अरविंद ने भावी कविता के विषय में कुछ विचार रखे थे जो उनके देहावसान के बाद धर्मयुग में प्रकाशित हुए थे। इसमें उन्होंने यह आशा व्यक्त की थी कि भविष्य में कविता उस ऊंचाई पर पहुंच सकती है जो ऋग्वेद में पाई जाती है। यह अपने आप में वैदिक कविता की अर्थगर्भिता और सौंदर्य बोध पर एक सार्थक टिप्पणी है।

इससे पहले छन्द पर कवियों के प्रयोगों के प्रसंग में, प्रचलित छंद में कुछ काट-ब्यौत करने की बात की थी। परंतु इस प्रयोग का एक पक्ष शब्दलाघव से जुड़ा है। ऐसा कवि उसी बात को कम से कम शब्दों में अधिक प्रभावशाली ढंग से कहने का दावा भी करता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण एकपदा विराट हैः

उरौ देवा अनिबाधे स्याम। 5.42.17

इस छोटी सी ऋचा का अर्थ समझने के लिए हमें उन व्यापारिक सार्थों की चिंता को समझना होगा जो जंगलों झाड़-झंखाड़ों या उबड़ खाबड़ इलाकों से हो कर गुजरते थे घबराए रहते कि कहीं रात बिताने के लिए खुली जगह ही ना मिले या ऐसा इलाका मिल जाए जहां उपद्रवी लोगों की बस्ती हो, माल और जान के लिए खतरा हो। पंक्ति का अर्थ है हे भगवान, हमें खुली जगह मिले और किसी तरह की बाधा न उपस्थित हो।

इसी भाव बोध की एक दूसरी ऋचा हैः
आ वां सुम्ने वरिमनत्सूरिभिः ष्याम् ।। 6.63.11
तुम्हारी कृपा से हम खुली जगह में शांति से अपने स्वजनों के साथ रहें।

द्विपदाविराट की यह ऋचाछ

तपन्ति शत्रुं स्वर्ण भूमा महासेनासो अमेभिरेषाम् ।। 7.34.19
विशाल सेनाएं रखने वाले अपनी प्रबलता शत्रुओं को उसी तरह दग्ध करते हैं जैसे तपता हुआ सूर्य धरती को।

ऋग्वेद की ऋचाएं स्वतंत्र कविताएं हैं जिनको सूक्तों में संकलित किया गया है। प्रत्येक ऋचा दोहों, चौपाइयों यह उर्दू के शेरों की तरह अपनी बात पूरी तरह कह लेती है। एक विषय या केंद्रीय भावभूमि से जुड़े होने के कारण उन्हें एक सूक्त में रखा गया है। पूरी कविता एक पंक्ति की भी हो सकती है यह पहले मेरी समझ में नहीं आता था। पहले इस और भी ध्यान नहीं गया था के सूत्र कथन का विकास एकपदा विराट से हुआ हो सकता है।
यह निर्विवाद है किसी बात को प्रभावशाली ढंग से कम से कम शब्दों में कह लेने की कोशिश ऋग्वैदिक काव्य भाषा का प्रधान गुण है। कुछ ही शब्दों में वर्ण्य विषय या कथ्य को मूर्त करने की क्षमता चकित करने वाली है ।

कुश-कास से जमीन को साफ करने के लिए आग का प्रयोग किया जाता था ऐसे ही एक दृश्य का चित्र एक ऋचा में हैः

यदुद्वतो निवतो यासि बप्सत्पृथगेषि प्रगर्धिनीव सेना ।
यदा ते वातो अनुवाति शोचिर्वप्तेव श्मश्रु वपसि प्र भूम ।। 10.142.4

आग ऊंची नीची भूमि पर झाड़-झंखाड़ का भक्षण करती हुई हुई आगे रही है और इसी बीच मुख्य धारा से अलग होकर बढ़कर जलाने लगती है, जैसे सेना का अग्रिम दस्ता हो।और इसके साथ प्रवाहित होने वाली हवा का योग मिलता है तो एक झटके में दूर तक इस तरह सफाया हो जाता है मानो नाई ने धरती की दाढ़ी का सफाया कर दिया हो।
इसमें सूक्ष्म अन्वीक्षण के साथ पूरे चित्र को एक ऋचा में चित्रित करने की क्षमता और भाषा पर ऐसा अधिकार कितने कवियों में हो सकता है, इस पर कोई टिप्पणी आवश्यक नहीं।

हम जानते हैं कि अपने विस्तार के क्रम में हड़प्पा सभ्यता का अंतर्देशीय प्रसार हुआ था और अंतर्राष्ट्रीय शब्द का यदि हम कुछ रियायत के साथ प्रयोग करें तो अंतर्राष्ट्रीय प्रसार भी हुआ था। अंतर्देशीय प्रसार के इसी क्रम में इसका विस्तार सौराष्ट्र और कच्छ में हुआ था। यह काम एक झटके में आक्रमणकारियों जैसी तैयारी के साथ नहीं हुआ था बल्कि धीरे धीरे जमाव बढ़ता चला गया था। मुख्य भूमि समुद्र तट तक पहुंचने की यात्रा का एक ऋचा में हुआ में हुआ है।

इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । 10.46.2

जैसे चोरी गए हुए पशु को खोजने के लिए उसके पांवों का निशान देखते हुए उस तक पहुंचा जाता है उसी तरह अग्नि परिचर्या करते हुए पहले के जाने वालों के राख आदि को देखते हुए सही रकस्वेता पहचानते हुए वे समुद्रतट तक पहुंचे। इस प्रसंग में याद दिला दें कि पशुओं की चोरी करने वाले, प्रायः स्वयं उनके मालिक के पास सहानुभूति जताने के बहाने पहुंच जाते थे और खोज कर लाने का वादा भी करते थे परंतु इसके लिए उससे जो फीस वसूल करते थे उसे पनहा कहा जाता अर्थात पांव के निशान निहारते हुए खोए हुए पशु तक पहुंचने की फीस।

एक गायत्री छंद में उसकी पहली पंक्ति में इद्र का वर्णन हैः

तुविग्रीवो वपोदरः सुबाहुरन्धसो मदे ।
इन्द्रो वृत्राणि जिघ्नते ।। 8.17.8

मोटी गर्दन, फूले हुए पेट, कसी हुई भुजाओं वाले इंद्र सोमरस से उल्लसित होकर वृत्रों का संहार करते हैं।

यदि निकली हुई तोंद के कारण इंद्र के बलशाली होने पर संदेह हो भीम के लिए प्रयुक्त वृकोदर पर ध्यान दे सकते हैं और जापान के सूमो
पहलवानों की शक्ल को देख सकते हैं। आदर्श मल्लयोद्धा की यही प्राचीन छवि थी, और लगोटी का भी वही रूप था जो सूमो पहलवानों ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ अपनाया था।
कवियों की उद्भावनाएं, उपमाएं, रूपक इतने अनूठे हैं कि कालिदास, वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, तुलसीदास सभी उनके अनुकरण की कोशिश करते हैं और कभी-कभी उनके समकक्ष पहुंच पाते हैं।
उनकी उपमाओं में इतनी जीवंतता है कि उनके आधार पर देवों के चित्र ही नहीं, बल्कि कथाएं भी गढी जाती रहीं और इनका प्रसार अपने समय की दूसरी सभ्यताओं तक नहीं हुआ। मैं इसको मात्र एक उदाहरण से प्रस्तुत करना चाहूंगा जिससे आप सभी परिचित हैं परंतु यह नहीं जानते इसका स्रोत क्या है और तार्किक संगति क्या है अज्ञान के कारण इसकी सम्मोहकता और बढ़ जाती है। यह है उसे काल्पनिक पक्षी की कहानी, जो अमर है और उसकी अमरता इस रहस्य मे छिपी है कि यह जलकर भस्म हो जाता है और फिर अपनी ही राख से अग्नि-विहंग बनकर उड़ चलता है। इसे हम फीनिक्स के नाम से जानते हैं, परंतु यह नहीं जानते, कि यह आग से जलकर बुझने उसकी किसी चिंगारी से पुनः प्रज्वलित हो जाने का रूपक है जो ऋग्वेद में अनेक रूपों में आता है। इनमें आग की लपटों को आसमान तक पहुंचने की उसकी क्षमता को पक्षी के उड़ान भरने के रूप में बार-बार चित्रित किया गया हैः
वया इदग्ने अग्नयस्ते अन्ये त्वे विश्वे अमृता मादयन्ते ।
वैश्वानर नाभिरसि क्षितीनां स्थूणेव जनां उपमिद् ययन्थ ।। 1.59.1

साकं हि शुचिनायो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

यो अप्स्वा शुचिना दैव्येन ऋतावाजस्र उर्विया विभाति ।
वया इदन्या भुवनान्यस्य प्र जायन्ते वीरुधश्च प्रजाभिः ।। 2.35.8

अबोध्यग्निः समिधा जनानां प्रति धेनुमिवायतीमुषासम् ।
यह्वा इव प्र वयामुज्जिहानाः प्र भानवः सिस्रते नाकमच्छ ।। 5.1.1

समिधा यस्त आहुतिं निशितिं मत्र्यो नशत् ।
वयावन्त स पुष्यति क्षयमग्ने शतायुषम् ।। 6.2.5

वैश्वानरस्य विमितानि चक्षसा सानूनि दिवो अमृतस्य केतुना ।
तस्येदु विश्वा भुवनाधि मूर्धनि वया इव रुरुहुः सप्त विस्रुहः ।। 6.7.6

यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वयाइव ।
विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ।। 8.19.33

अच्छा होता यदि मैं इन ऋचाओं का हिंदी अनुवाद भी देता। परंतु समय नहीं है। साथ ही एक अन्य रूपक की ओर ध्यान दिलाने का प्रलोभन रोक नहीं पा रहा। यह है हिरण्यकशिपु के वध के लिए पत्थर के खंभे से नृसिंह का अवतार। अग्नि की तुलना सिंह से की गई हैः
रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ।। 1.174.3
पत्थर पर चोट करने पर उसे चिंगारी निकलती है, पत्थर के कण-कण में अग्नि विद्यमान है।

Post – 2018-06-09

#वैदिककविता

छंद विधान

लगभग सभी प्रयोगशील कवियों ने छंदों में प्रयोग किए है । ऐसा लगता है कि छंद में प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। नए कवियों ने उसे पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया। प्रश्न यह नहीं है कि वे नए छंद रचने का प्रयत्न कर रहे थे, बल्कि ऐसा सचेत रूप में कर रहे थे। प्रयोग के लिए प्रयोग कर रहे थे। अपने को दूसरों से कुछ बढ़कर या अलग दिखाने के प्रयत्न करते हुए प्रयोग कर रहे थे।

छंदशास्त्र को लेकर मेरा अलग से कोई अध्ययन नहीं है, इसलिए मैंने सोचा अधिकारी विद्वानों ने जो कुछ लिखा है उस पर एक सरसरी दृष्टि डाल लें। इसी तैयारी में 2 दिन मौन रहना पड़ा। परंतु जो कुछ पढ़ा वह समस्या को सुलझाने की जगह और उलझाता है। इसके अनुसार वैदिक छंद शास्त्र पर सबसे आधिकारिक काम आचार्य पिंगल का है। उन्होंने छन्दशास्त्र पर आठ अन्य आचार्यों के नाम गिनाए हैं और बताया है इनके ग्रंथ तो नहीं मिलते परंतु इन्होंने एक एक छन्द का नामकरण किया था। यह निम्न प्रकार हैः
क्रौष्टुकिकृत – स्कन्धोग्रीवी
यास्ककृत – उरोवृहती
वाण्डिकृत – सतोवृहती
सैतवकृत – विपुलानुष्टुप और उद्धर्षिणी
काश्यपकृत – सिंहोन्नता
शाकल्यकृत – मधु माधवी
मांडव्यकृत – चंड वृष्टिप्रपात
रातकृत — चंड वृष्टिप्रपात

मांडव्य और रात के नाम से एक ही छन्द है। वैदिक साहित्य के संदर्भ में छन्द का महत्व यह था कि इसे वेद के छह अंगों मैं स्थान दिया गया था। जिस साहित्य में उच्चारण और गायन का इतना महत्व हो कि वे जादू का सा असर रखते हों, उसके अनेक अध्येताओं का होना बहुत स्वाभाविक है। परंतु हमारी समस्या यह है की ऊपर के आचार्यों द्वारा सुझाए गए छन्दों में से 3 को छोड़कर शेष ऋग्वेद में नहीं आए हैं। उन्होंने छंदों का निर्धारण चारों वेदों के संदर्भ में किया है इसलिए संभवतः वे दूसरे वेदों में प्रयोग में आए होगे।

वैदिक कवियों ने अपनी रचनाओं में छन्जोदों के जो प्रयोग किए थे उनके लिए संज्ञा बाद के आचार्यों द्वारा दी गई प्रतीत होती है। इससे मेरी इस धारणा को बल मिलता है ( हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, 1987) कि सूक्तों के साथ आए ऋषि नाम और देवता नाम प्रयत्न से जुटाए गए सूक्तों मैं नहीं थे, अपितु संपादकों ने सूक्तों की अंतर्वस्तु के आधार पर स्वयं निश्चित किया। छन्दों के नामकरण पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था। अब लगता है इनको वर्तमान संज्ञा वेदों के छन्शादस्त्र पर काम करने वाले मनीषियों ने दी है।

ऋग्वेद के सभी छंद वर्णिक है। आचार्य राम किशोर मिश्र के जिस लेख (वेद के विविध छन्द और छन्दोनुशासन-ग्रन्थ) से मैंने ऊपर के शास्त्रकारों का उल्लेख किया है उसमें ऋग्वेद में मात्र तेरह छन्द प्रयोग में आए हैं। हमने उनके द्वारा दी गई तालिका के शाथ उदाहरणस्वरूप एक एक छन्द जोड़ दिए । इनकी वर्णसंख्या पर ध्यान देना जरूरी हैः
गायत्री- 24
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् । 1.1.1

2. उष्णिक् 28
आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब ।
वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ।। 5.40.1

3. अनुष्टुप् 32
उरोष्ट इन्द्र राधसो विभ्वी रातिः शतक्रतो ।
अधा नो विश्वचर्षणे द्युम्नं सुक्षत्र मंहय ।। 5.38.1

4. बृहती- 36
त्वमंग प्र शंसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् ।
न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ।। 1.84.19

5. पंक्तिः – 40
शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु हा ।
बलं दधान आत्मनि करिष्यन् वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्रव ।। 9.113.1

6. त्रिष्टुप – 44
आ ते हनू हरिवः शूर शिप्रे, रुहत्सोमो न पर्वतस्य पृष्ठे ।
अनु त्वा राजन्नर्वतो न हिन्वन्गीर्भिर्मदेम पुरुहूत विश्वे ।। 5.36.2

7. जगती-48
वैश्वानराय धिषणामृतावृधे, घृतं न पूतमग्नये जनामसि ।
द्विता होतारं मनुषश्च वाघतो, धिया रथं न कुलिशः समृण्वति ।। 3.2.1

8. अतिजगती- 52
कथा दाशेम नमसा सुदानूनेवया मरुतो अच्छोक्तौ प्रश्रवसो मरुतो अच्छोक्तौ ।
मा नोऽहिर्बुध्न्यो रिषे धादस्माकं भूदुपमातिवनिः ।। 5.41.16

9. शक्वरी – 56
त्वं शतान्यव शम्बरस्य पुरो जघन्थाप्रतीनि दस्योः ।
अशिक्षो यत्र शच्या शचीवो दिवोदासाय सुन्वते सुतक्रे भरद्वाजाय गृणते वसूनि ।। 6.31.4

10. अतिशक्वरी- 60
प्रप्रा वो अस्मे स्वयशोभिरूती परिवर्ग¬ इन्द्रो दुर्मतीनां दरीमन् दुर्मतीनाम्
स्वयं सा रिषयध्यै या न उपेषे अत्रैः ।
हतेमसन्न वक्षति क्षिप्ता जूर्णिर्न वक्षति ।। 1.129.8

11. अष्टि- 64
त्वं नो वायवेषामपूर्व्यः सोमानां प्रथमः पीतिमर्हसि सुतानां पीतिमर्हसि ।
उतो विहुत्मतीनां विशां ववर्जुषीणाम् ।
विश्वा इत् ते धेनवो दुह्र आशिरं घृतं दुह्रत आशिरम् । 1.134.6

12. अत्यष्टि- 64,
अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो जातवेदसं विप्रं न जातवेदसम्
य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा ।
घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्वानस्य सर्पिषः ।। 1.127.1

13. धृति – 70-72
अवर्मह इन्द्र दादृहि श्रुधी नः शुशोच हि द्यौः क्षा न भीषाँ अद्रिवो घृणान्न भीषा अद्रिवः ।
शुष्मिन्तमो हि शुष्मिभिर्वधैरुग्रेभिरीयसे ।
अपूरुषघ्नो अप्रतीत शूर सत्वभिस्त्रिसप्तैः शूर सत्वभिः ।। 1.133.6

वैदिक संशोधन मंडल पुणे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद संहिता मे कुछ और छन्दों और उनके प्रभेदो का उल्लेख है जिससे यह प्रकट होता है की पिंगल शास्त्र के रचयिता के बाद भी दूसरे अध्येताओं ने नए प्रयोगों की खोज की और उन्हें संज्ञा दी। जिन छन्दों का मैं उल्लेख कर रहा हूं वे निम्न प्रकार हैः

विराट् ।
अग्ने दिवः सूनुरसि प्रचेतास्तना पृथिव्या उत विश्ववेदाः ।
ऋधग्देवाँ इह यत्रा चिकित्वः ।। 3.25.1

विराटस्थाना
बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम ।
अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परि ष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।।10.10.13

एकपदा विराट
असिक्न्यां यजमानो न होता ।। 4.17.15 {23}

द्विपदा विराट् ।
परि प्र धन्वेन्द्राय सोम स्वादुर्मित्राय पूष्णे भगाय ।। 9.109.1

सतोबृहती
इमं नरो मरुतः सश्चता वृधं यस्मिन् रायः शेवृधासः ।
अभि ये सन्ति पृतनासु दूढ्यो विश्वाहा शत्रुमादभुः ।। 3.16.2

महाबृहती।
नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम्
सर्वासामग्रभं नामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.13

अतिधृति ।
स हि शर्धः न मारुतं तुविष्वणिरप्नस्वतीषूर्वरास्विष्टनिरार्तनास्विष्टनिः ।
आदद्धव्यान्याददिर्यज्ञस्य केतुरर्हणा ।
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त पन्थां नरः शुभे न पन्थाम् । 1.127.6

प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
बृहदु गायिषे वचोऽसुर्या नदीनाम् ।
सरस्वतीमिन्महया सुवृक्तिभिः स्तोमैर्वसिष्ठ रोदसी ।। 7.96.1

पदपक्तिः
आभिष्टे अद्य गीर्भिगृणन्तोऽग्ने दाशेम ।
प्र ते दिवो न स्तनयन्ति शुष्माः ।। 4.10.4

महापंक्तिः 48
इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम् ।
सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामाऽऽरे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ।। 1.191.11
भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती ।
गृणाना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3

महापदपंक्तिः
तव स्वादिष्ठाऽग्ने संदृष्टिरिदा चिदह्न इदा चिदक्तोः ।
श्रिये रुक्मो न रोचते उपाके ।। 4.10.5

पुरस्तारज्योतिः48
आ सूर्या यातु सप्ताश्वः क्षेत्रं यदस्योर्विया दीर्घयाथे ।
रघुः श्येनः पतयदन्धो अच्छा युवा कविर्दीदयद् गोषु गच्छन् ।। 5.45.9

जगती त्रिष्टुब्वा 48
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः ।
स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ।। 5.51.11

अति जगती
स भ्रातरं वरुणमग्न आ ववृत्स्व देवाँ अच्छा सुमती यज्ञवनसं ज्येष्ठं यज्ञवनसम् ।
ऋतावानमादित्यं चर्षणीधृतं राजानं चर्षणीधृतम् ।। 4.1.2

निचृत्। 28
आ वां रथो रथानां येष्ठो यात्वश्विना ।
पुरू चिदस्मयुस्तिर आङ्गूषो मर्त्येष्वा ।। 5.74.8

पादनिचृत्।
अभी सु णः सखीनामविता जरितृणाम् ।
शतं भवास्यूतिभिः ।। 4.31.3

इससे भी प्रकट है, छंदों का नाम बाद के आचार्यों द्वारा दिया गया है और कुछ के विषय में वे भी, अनिश्चय में रहने के कारण, दो संभावनाओं का संकेत करते हैं । उदाहरण के लिए मंडल 5 के सूक्त 51 की ग्यारहवी से तेरहवी ऋचाओं के विषय में कहा गया है कि इनका छन्द या तो जगती है अथवा त्रिष्टुप्। जो इस संभावना को वास्तविकता में बदल देता है। अब हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि छंदों के प्रयोग तो वैदिक कवियों के हैं पर उनका नामकरण बाद के आचार्यों द्वारा किया गया है।

अनुमानतः सभी छन्दों का आधार अनुष्टुप है। इसी में कुछ जोड़-तोड़ करते हुए दूसरे छंद बनाए गए हैं। ऐसा लगता है कि छंदों के प्रयोग पुराने कवियों द्वारा भी किए जा रहे थे। इसी के चलते अनुष्टुप के आठ आठ वर्णों के चार पदों में से 1 को कम कर के 24 वर्णों का गायत्री छंद बनाया गया था। इसको एक पाद कम होने को लेकर एक कहानी भी गढ़ ली गई थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है गायत्री के दोनों चरण समान वर्णों के थे। इस कहानी में छंद के चरणों को पक्षी के पंखों की तुलना में रखा गया है। कहानी बहुत रोचक है और उससे जुड़े कई वैज्ञानिक तथ्य और काल्पनिक कथाएं भी मिल जाती हैं परंतु यहां हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि इस कहानी में यह बताया गया है पक्षी का एक पंख कट गया था।

मुझे डर है कि मैंने अनुष्टुप को आधार बनाकर सभी छन्दों की रचना को संभव मानते हुए इकहरेपन से काम लिया है। कारण यह संभव है अनेक छन्द लोकगीतों के आधार पर चुने गए या अपनाए गए हो सकते हैं। मैं ऐसा संशय इसलिए प्रकट कर रहा हूं कि गायत्री से मिलता-जुलता एक राग भोजपुरी में दिखाई देता है और वह है कहँरवां । यह बहुत गेय छंद है जिसे पालकी धोते हुए कहार अपने श्रम से ध्यान हटाने के लिए बड़े उल्लास से गाते थे। असंभव नहीं कि छन्द बहुत पुराना हो और गायत्री छंद लोक से अपनाया गया हो। इसमें चार की जगह कि तीन ही पाद होते हैं इसलिए यह कहानी गढ़ ली गई हो।

एक रोचक बात यह है कि हमारे जातीय छन्द वेद से प्रेरित हैं, न कि संस्कृत से जो प्रयत्न पूर्वक लोक से दूर किए जाने के बाद भी लौकिक संस्कृत इसलिए कही जाती है कि वेद की भाषा को देववाणी माना जाता रहा है जब की स्थिति ठीक उल्टी है। वैदिक भाषा लोक व्यवहार की भाषा थी उसके छंद और मुहावरे लोक के सर्वाधिक निकट है और आज तक भाषा में परिवर्तन के बावजूद वे लोग में प्रचलित हैं जबकि संस्कृत केवल ब्राह्मणों के बीच और वह भी सौभाग्य से सुशिक्षित ब्राह्मणों के बीच ही सीमित रही है इसलिए उसका लोक से संबंध कभी रहा ही नहीं। यह सवाल बार-बार उठाया जाता है कि संस्कृत किसी क्षेत्र की बोली रही ही नहीं। सच यह है कि ब्राह्मणों के स्वार्थ के कारण वह शिष्ट व्यवहार की भाषा रहने नहीं दी गई।

परन्तु इस आरोप के पीछे पश्चिमी विद्वानों की एक शरारत है। वे यह दिखाना चाहते रहे हैं कि संस्कृत किसी भारतीय क्षेत्र की भाषा कभी रही नहीं, इसलिए यहां नहीं बोली जाती थी, कहीं अन्यत्र से आई है और इसी के चलते, यह जानते हुए कि वैदिक उससे बहुत पुरानी है वे बार-बार तुलना के लिए संस्कृत का नाम लेते हैं, न कि वैदिक का। वे अपने गहन अध्ययन के माध्यम से यह जान चुके थे कि वैदिक तो लोक व्यवहार की भाषा थी और उसके निर्माण में अन्य भारतीय भाषाओं की सक्रिय भूमिका रही है। यदि वैदिक बोल चाल की भाषा न होती तो भारत से लेकर यूरोप तक किताबों के माध्यम से नहीं पहुंच सकती थी, क्योंकि यदि कोई जमाने में नहीं थी तो वह थी व्यापक साक्षरता।

Post – 2018-06-07

जो गालियों के बिना बात नहीं कर पाते, विचारभिन्नता को भी गालियों में बदल देते हैं वे गलीज होते हैं। उनसे संवाद संभव नहीं।

Post – 2018-06-06

#वैदिककविता
ऋग्वेद में नई कविता(ख)

मैंने कल जो उद्धरण दिए थे, वे परिचयात्मक हैं, समापी नहीं। हम कविता पर बात करने से बचना चाहते हैं, क्योंकि इसका सम्यक विवेचन एक पुस्तक की अपेक्षा रखता है, और इससे भाषा के काम में बाधा पैदा होगी। परंतु यदि, प्रसंगवश ही सही इसकी चर्चा चल ही गई, तो यह बताना जरूरी है की बीसवीं शताब्दी के नई कविता आंदोलन से वैदिक कवियों की नई कविता आंदोलन का क्या अंतर था। दूसरा केवल यह कह देने से कि मैं नई कविता कर रहा हूं, यह पता नहीं चलता कि कवि सचमुच, सचेत रूप में, कविता में नए प्रयोग कर रहा था। इस दावे की परख तो तब होती जब हमें पुरानी कविता के कुछ नमूने प्राप्त होते, पर उनके अभाव में हमें छन्द, अलंकार, शब्द चयन, भाव और विचार संयोजन के क्षेत्र में किए गए ऐसे प्रयोगों से ही संतोष करना पड़ेगा।

बीसवीं शताब्दी का प्रयोगवाद हो या नई कविता आन्दोलन दोनों नवस्वतंत्र भारत की ‘catch up with the West’ की भाववादी लालसा की अभिव्यक्ति और पश्चिमी साहित्य से प्रेरित थे। नाम से लेकर काम तक वही। उसे समझने की कोशिश करने वाले को पश्चिमी आन्दोलनों से जुड़े कलाकारों, वास्तुकारों और रचनाकारों के कृतित्व से ही नहीं उनके आलोचकों की सैद्धान्तिकी और व्यावहारिक आलोचना तक से परिचित होना पड़ता था। हिन्दी की नई कविता की आलोचना पश्चिमी आलोचना का अनुवाद करते हुए की जाती थी, केवल उदाहरण के लिए हिंदी कवियों की पंक्तियां जड़ दी जाती थी। इस मूलोच्छिन्नता की एक परिणति यह थी कि इसमें ‘नयामाल’ ‘ताजामाल’ की ऊंची पुकार के साथ पहले के कवियों को ‘बासी’ और ‘गुजरे जमाने का कवि, उनकी रुचि और सौन्दर्यबोध’ को पिछड़ा सिद्ध करने अन्दाज में उनके महत्व को नकारने का बाजारू प्रयत्न किया गया था।

इसके विपरीत वैदिक कवि यह दावा तो करता है कि वह नई रचना कर रहा है (उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15; इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14) परन्तु उसके मन में अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति गहरा सम्मान और यह स्वीकार भाव है कि वह उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ा रहा9 हैः
(अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2) ’प्राचीन काल की अमर रचनाओं की तरह ही मैं नई रचना का निर्माण कर रहा हूं।’

देव शक्तियों तक का अनुस्मरण वे उसी भावना से करते हैं जैसे पूर्वज किया करते थे (अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9) ‘अप्रतिभट इन्द्र तुम्हें, जिसे हमारे पुरखे, अपने पुराने निवास से पुकारते थे, हम भी उन्हीं की तरह गुहार रहे हैं।’

यह ऋचा कुछ दृष्टियों से काफी रोचक है। इसके रचयिता विश्वामित्र के दत्तक पुत्र देवरात बताए गए हैं। इसमें तीन शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। पुरातन निवास, (प्रत्न ओकस), पूर्वं (प्राचीन काल) और पिता (पूर्वज)। इससे इतना तो स्पष्ट है कि जहां से रचना की जा रही है वहां से पितरों का निवास दूर था, परंतु उसकी ठीक स्थिति क्या थी, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। कवि कितनी प्राचीनता की बात कर रहा है यह भी स्पष्ट नहीं है। परंतु यह भाव स्पष्ट है कि वह अपने पितरों की परंपरा का निर्वाह कर रहा है।

प्रथम मंडल को अपेक्षाकृत नया मंडल माना जाता है इसलिए एक संभावना यह पैदा होती है कि कवि का अपना निवास क्षेत्र सिंधु घाटी में है और ऐसी स्थिति में संभव है यह पूर्ववर्ती निवास सरस्वती घाटी में या उससे भी पीछे के किसी क्षेत्र में रहा हो। यही स्थिति एक दूसरी पंक्ति की भी है जो नवे मंडल में आई है और जिस में भी प्राचीन निवास की याद की गई है, (स प्रत्नवन्नवीयसा ऽग्ने द्युम्नेन संयता । बृहत्ततन्थ भानुना । 6.16.21) ।

परन्तु यदि यह सोचना चाहें कि नए कवियों के प्रयोग क्षेत्र परिवर्न के कारण थे तो यह सही न होगा। पहली बात यह कि जनसमाज वही हो, परम्परा से जुड़ाव इतना गहरा हो तो स्थान परिवर्तन से फर्क नहीं पड़ता। दूसरे यह कि यह दावा उन ऋचाओं में भी है जिनकी रचना निस्सन्देह सरस्वती की उपत्यका में हुआ है. इसलिए इसकी प्रेरणा का स्रोत कोई भिन्न है और उसकी पहचान पश्चिमी जगत के नई कविता आन्दोलन और वैदिक आन्दोलन की समानता और नई कविता के समय से चले आ रहे पश्चिम के छायाजीवी भारतीय साहित्य के खोखलेपन और अपने ही समाज से इसके उखड़ेपन को समझने में सहायक हो सकता है।

ऋग्वेद का काल विज्ञान, उद्योग, व्यापार, और इनसे जुड़े (नागर योजना, वास्तु निर्माण, नौवहन आदि) क्षेत्रों में असाधारण सक्रियता का काल है और अपने शिल्पियों की तरह ही रचनाकार भी अपने क्षेत्र में उसी दक्षता से काम करना चाहता है और अपनी रचना में इसका दावा भी करता है – (अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय । गिरश्च गिर्वाहसे सुवृक्तीन्द्राय विश्वमिन्वं मेधिराय ।। 1.61.4) जैसे बढ़ई माल ढोने के लिए (तत् सिनाय) लिए रथ को बनाता है, उसी तरह कवित्व के वाहक मेधावी इन्द्र (मेधिराय) को वहन करने के लिए ऐसी सुन्दर रचना कर रहा जो उनके यश को पूरे विश्व में फैला दे। (इमं स्वस्मै हृद आ सुतष्टं मन्त्रं वोचेम कुविदस्य वेदत् । 2.35.2) मैं पूरे मनोयोग से सुन्दरता से गढ़े ( हृद आ सुतष्टं) मंत्र का पाठ कर रहा हूं, क्या इसे कोई समझ पाएगा (कुवित् अस्य वेदत् )। (आ ते अग्न ऋचा हविर्हृदा तष्टं भरामसि । 6.16.47)’अग्निदेव, मैं पूरी हार्दिकता से रचेी हुई ऋचा तुम्हें अर्पित कर रहा हूं।’

विस्तार में न जाकर हम केवल यह क’हना चाहते हैं कि पश्चिम की कविता अपने परिवेश प्रतिस्पर्धा भरी सरगर्मी की उपज थी, वैदिक कविता के नए प्रयोग अपने समय की तकनीकी और औद्योगिक गतिविधियों की, अपने भौतिक यथार्थ की उपज थी। मध्य उन्नीसवीं सदी से अबतक के हिन्दी साहित्य के प्रयोग कहीं और के भौतिक यथार्थ में रचे जाने वाले साहित्य के दर्पण प्रतिबिंब की उपज हैं – भीतर से निःसत्व ऊपर से कलात्मक आयास और रचनाकारों की अपनी क्षमता के कारण कौंधती हुई, अपने ही यथार्थ और समाज से कटी हुई।

(आगे कविता की चर्चा कभी और के लिए स्थगित रखनी होगी)व