Post – 2018-06-05

#वैदिककविता

ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन

एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन।’ वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है। यह शीर्षक मैने सनसनी पैदा करने के लिए नहीं दिया था, अपितु पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद दिया था। आज उसे फिर इसलिए चुना कि यह दावे के साथ कह सकूं किः
1. ऋग्वेद धर्मग्रन्थ नहीं साहित्यिक कृति है, जिसके वर्ण्यविषय देवता,अर्थात् प्राकृतिक शक्तियां हैं। कवि का दर्जा उस समाज में स्रष्टा से ठीक नीचे था, इसलिए देवशक्तियां (प्रकृति की चालक शक्तियां) और ऐसी विभूतियां ही जिनमें देवत्व का निवास था, काव्य का विषय हो सकती थीं। यह विश्वास तो बहुत बाद तक, सच कहें तो किसी हद तक आजतक बना रह गया है कि काव्यबद्ध कथन यदि सच्चे भाव से व्यक्त हो तो वह निष्फल नहीं हो सकता यह रहस्य हनुमानचालीसा का पाठ करने वाले तक जानते हैं जिसे वाल्मीकि ने सलीके से रखा था – पादबद्धोSक्षर समो तन्त्रीलय समन्वितः, शोकार्तस्य प्रवृत्तो मे श्लोकः भवतु नान्यथा। इसी के कारण यह विश्वास बना रहा, और इस विश्वास को जिलाए रखने का प्रयास किया गया कि वेदोक्त गलत नहीं हो सकता। नैतिक आदर्श और कतिपय सृष्टि विषयक दार्शनिक प्रतीत होने वाली रचनाओं ने और वेद को अपना मालघर बनाने के ब्राह्मणों के आग्रह के कारण इसे धर्मग्रन्थ की रंगत मिली। पर यह भी सच है कि विश्व के सभी धर्मों का प्रेरणास्रोत भी वेद ही रहा है।

2. ऋग्वेद में उपलब्ध ऋचाएं एक अकल्पनीय प्राकृतिक आपदा में नष्ट हो चुके विशाल साहित्य का क्षुद्र अंश है जिनका रचनाकाल ढाई हजार साल की लंबी अवधि में फैला हुआ है। इसका प्राचीन अंश सारस्वत प्रदेश में और नया भाग सिन्धु घाटी क्षेत्र में रचा साहित्य है।

3. यह पूरा साहित्य नई कविता है, फिर पुरानी कविता का क्या हुआ? हम यह मानने को विवश हैं कि इससे पहले के दौर में लेखन का इस स्तर का विकास नहीं हो पाया था कि वाणी को संकेतबद्ध किया जा सके इसलिए यदि वह उपलव्ध था भी तो श्रुत रूप में ही, इसलिए आपदा के लंबे दौर में वह पूरी तरह नष्ट हो गया, जब कि लिखित का क्षुद्र अंश दुर्धर्ष प्रयत्न से जहां तहां से जुटाया जा सका।

4. नई कविता का यह दौर पुरानी कविता के दौर की तुलना में सभी दृष्टियों से अनुर्वर काल है। जिन मिथकों, रूपकों का प्रयोग नए कवि कर रहे थे यहां तक कि जिन घटनाओं को वे दुहरा रहे थे वे भी उसी इतिहास का हिस्सा थीं। तकनीकी दृष्टि से भी यह ठहराव का काल था, क्योंकि लगभग सभी आविष्कार इस समय तक पूरे हो चुके थे। यह परिष्कार, कलात्मक निखार, क्षेत्रीय विस्तार और समृद्धि का और उस समृद्धि में अपने अपने हिस्से की होड़ का काल था। जब हम वैदिककाल का आस्थागर्भित पाठ करते हैं तब इस यथार्थ से मुंह नहीं मोड़ सकते कि एक वैदिक कवि का नाम कुशीदी (व्याज वसूलने वाला) काण्व था, न ही दानस्तुतियों पर दाता का यशगान और गोष्ठियों और सभाओं में दूसरों को मात देने की होड़ की उपेक्षा कर सकते हैं। नये कवियों की छन्द, अलंकार के प्रयोग ही नहीं अपनी नवीनता की बखान को भी इसी सन्दर्भ में रख कर देखना जरूरी हो जाता है।

5. हम प्रस्तुत लेखमाला में भाषा पर विचार कर रहे हैं इसलिए यह भी याद रखना होगा कि भाषा का यह रूप सारस्वत क्षेत्र में दो तीन हजार साल के बाद का है जब देववाणी का चरित्र बहुत बदल चुका था, इसलिए इससे आरंभिक समस्याओं का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हमने ऋचाओं का बाहुल्य यह दिखाने के लिए किया कि यह समझा जा सके कि पहले मंडल से लेकर दसवें तक केवल नए कवि ही भरे पड़े हैं।

1. स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
2. तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
3. अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
4. नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
5. स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
6. प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
7. तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
8. अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
9. तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
10. स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
11. समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
12. इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
13. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
14. प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
15. सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
17. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
18. स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
19. प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2
20. उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
21. धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
22. तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
23. इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
24. इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
25. इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
26. विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
27. परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
28. नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
29. अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
30. इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
31. इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13

Post – 2018-06-05

#राजकिशोर का जाना

राजकिशोर पंचतत्व में लीन हो गए। उनकी मृत्यु और अंत्येष्टि का समाचार विलंब से मिला। अपनी युवा और होनहार पुत्र की मृत्यु के वज्रपात को दार्शनिक तटस्थता से सहन करने का प्रयत्न कर रहे थे,जिसे देख कर मुझे डर लगा और उन से अनुरोध किया था कि सार्वजनिक रूप से नहीं तो एकांत में ही सही जी भर कर रो अवश्य लें। दबे हुए आवेग, अपनी निकास के खतरनाक रास्ते तैयार कर लेते हैं जिससे होने वाली क्षति का हम पूर्वानुमान नहीं कर सकते।

कई साल पहले, ज्ञानपीठ के एक साहित्यिक आयोजन में उनसे मुलाकात हुई थी तो मुझे वह भीतर से टूटे हुए और निराश लगे थे। स्वास्थ्य की चिंता न करते हुए वह पाइप का इतना लंबा कश लेकर धुंए को निगलने का प्रयत्न कर रहे थे जो मुझे परेशान करने के लिए काफी था, परंतु मैं इसके लिए उन्हे टोक नही सकता था न इसका कुछ लाभ था , क्योंकि जो बातें मैं उन्हें समझा सकता था, वे उन्हें वे स्वयं जानते थे। अनुमान है सहज, स्वाभाविक और अविचलित दिखने के प्रयास में उनका धूम्रपान और सांध्य पान बढ़ गया होगा। खराबी पहले की थी, चोर दरवाजे से दबी वेदना के साथ एक दूसरे वज्रपात के रूप में आघात, हुआ संभल न पाए।

वह निर्भीक और अपनी सीमा में वस्तुपरक सोच रखने वाले लेखक थे। उनसे पहली मुलाकात कोलकाता के काफी घर में हुई थी । शंभूनाथ अध्यापक हो चुके थे और उन्होंने उनका परिचय एक तेजस्वी युवा के रूप में कराया था। उनका नाम स्मृति में बचा रह गया था। बाद में सुरेंद्र प्रताप सिंह के सहकर्मी के रूप में उन्होंने पत्रकारिता आरंभ की। मैं तब से उनको यदा कदा पढ़ता आया था और उनकी लोहियावादी सोच, समझ, आतुरता और प्रखरता का प्रशंसक था।

उनके विचारों में गहराई नहीं थी, पर निर्भीकता थी, समाज को बदलने की बेचैनी थी, किसी प्रकार की संकीर्णता से परहेज था और इसके चलते उन्होंने स्वयं एक संकीर्णता का निर्माण कर लिया था, जिससे वह मुक्त नहीं हो सकते थे।

इतिहास की समझ की कमी लोहिया में भी थी। अतीत का एक कामचलाऊ ज्ञान लोहिया में भी था जिसे वह पर्याप्त मानते थे। यह कमी लोहियावादियों में भी दिखाई देती है। वेअपने ध्येय के अनुसार, इतिहास की उसी कामचलाऊ जानकारी के आधार पर, एक ठोस और अपरिवर्तनीय इतिहास तैयार कर लेते हैं, जिसमें किसी परिवर्तन की संभावना नहीं होती, इसलिए उससे टकराकर प्रमाण भी व्यर्थ हो जाते हैं। अतीत की विरासत हो या वर्तमान की जटिलता, सभी की कसौटी लक्ष्यों की पूर्ति में उनकी उपयोगी भूमिका रह जाती है, इसलिए ऐसे लोग किसी समस्या का समाधान नहीं करते, अपितु नई समस्याएं पैदा करते हैं और पुरानी समस्याओं को अधिक उलझा देते हैं। जिस लक्ष्य को लेकर चलते हैं उनकी सिद्ध नहीं हो पाती, बल्कि व्यवधान पैदा होता है।

यदि कोई पूछे, इसके बाद भी आप उनको महत्व क्यों देते हैं, उनके अभाव से इतना आहत क्यों अनुभव करते हैं, तो मैं कहूंगा, उनकी निष्कपटता, निर्भीकता और ईमानदारी के कारण, क्योंकि सही होना किसी के सही होने की कसौटी नहीं है। वह सही या गलत एक विचार या विश्वास से जुड़े लोगों को ही प्रतीत होता है। सही फैसले तो इतिहास किया करता है जिसमें सैद्धांतिक रूप में सही व्यवहार में गलत हो जाता है और सैद्धांतिक रूप में जघन्य तक अपने कारनामों के कारण शिरोधार्य हो जाता है। सही लोगों ने दुनिया को गलत लोगों सो भी अधिक बर्वाद किया है।

इसलिए विचारों की भिन्नता को जीवित रखना और अपने से भिन्न विचारों का सम्मान करना, ज्ञान के सभी स्तरों के, पर अपने अपने तरीके से सोचने वालों का सम्मान करना, विचारों को जीवित रखने की पहली शर्त है। इसलिए सही नहीं, बिना किसी प्रलोभन और दबाव के अपने विचारों को निर्भीकता से प्रकट करने वाला, वह मेरी आलोचना करता है तो भी, मेरा विरोध करता है तो भी, मेरे लिए सम्मान का पात्र बना रहता है। ऐसे लोगों की कमी होती जा रही और केवल इस दृष्टि से राजकिशोर का चला जाना एक खालीपन पैदा करता है और मुझे विचलित करता है।

मैं हिंदू हूं। मैं हिंदू हितों की चिंता करता हूं। परंतु हिंदू हित यदि किसी के अनिष्ट का कारण बनते हैं तो वह हिंदू का भी अहित करते हैं। मानवता के समक्ष हिंदुओं की छवि को मलिन करते हैं, हमारे इतिहास को भी कलंकित करते हैं और वर्तमान को भी। इसलिए मैं हिंदुत्व के प्रति सम्मान के कारण दूसरे समुदायों के हित का ध्यान और उनके विश्वास का आदर करता हूं।

मेरे मित्रों में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपना परिचय देते हुए ‘हिन्दू कुल में जनमिया, हिन्दू मगर न आहि’ जोड़ना जरूरी मानते हैं। उनके मन में महामानव का एक सपना है जिसे छूने की कोशिश में वे हिन्दू समाज को और केवल हिन्दू समाज को महामानवों का एक विराट क्लब बनाना चाहते हैं। समाज कोई भी हो, उसे निर्धारित योग्यता प्राप्त सदस्यों का क्लब बनानेवालों के सोच को मैं बचकाना मानता हूं, पर उनके सपनों का आदर करता हूं। इसके कारण उनके ऐसे विचार और काम और विश्वास यदि हिंदू के लिए अहितकर सिद्ध होते हैं तो मैं उनकी आलोचना करता हूं, विरोध करता हूं, उनसे सावधान रहने की आवश्यकता भी अनुभव करता हूं।

हिंदू होना मेरा चुनाव नहीं है, न भारत में पैदा होना मेरा चुनाव था, इसके बावजूद जिस परंपरा और परिवेश में पैदा हुआ हूं उसका सम्मान करना, उसके हित की चिंता करना मेरा दायित्व बन जाता है। सामाजिकता का दायित्व बुरे लोगों के साथ भी अच्छे बर्ताव और अच्छे संबंध की मांग करता है। जिनको मैं गलत कहता हूं उनकी नजर में मैं गलत हो सकता हूं, यह छूट देने का दायित्व मेरा बनता है।

हमारे मित्रों में बहुत से ऐसे हैं जो कुछ हिंदू परिवार में पैदा हुए परंतु अपने परिवार, जाति, समाज और इतिहास से बाहर चले गए और हिंदू समाज के प्रति उग्र और आक्रामक विचार रखते हैं एक ओर तो वे विश्वमानवता की नागरिकता के लिए अपनी सामुदायिक पहचान को छोड़ने के सपने देखते हैं और अपनी कसौटी पर अपने समाज को पूरा न उतरते देख अपने ही समाज को तोड़ते भी हैं। तोड़ने का काम तोड़ी जाने वाली चीज से बाहर रहकर ही किया जा सकता है, शायद इसी विवशता में उन्हें बाहर जाना पड़ता है और दूर होे होते कभी लौट नहीं पाते या कुछ और बन जाते हैं। परन्तु जब तक वे अपने सद्विवेक से, भय और प्रलोभन से मुक्त होकर ऐसा करते हैं, वे मेरे सम्मान के पात्र बने रहते हैं। विचार से लेकर आत्मसम्मान तक की सौदेबाजी के इस युग में ऐसे लोगों की भी कमी होती जा रही है। राजकिशोर इसी कोटि में आते हैं।

Post – 2018-06-05

संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया (11)

ऋग्वेद की रचना से मतलब उपलब्ध ऋग्वेद की ऋचाओ की रचना से है इन सभी में ऐसा भाव है ये कवि अपने को नया कवि बता रहे थे। अपने से पहले के कवियों की रचनाओं का उन्हें पता था, उनका भी नाम भी लेते हैं, परंतु वे किसी कारण सुरक्षित नहीं रखी जा सकी थीं। एक बार मैंने ज्ञानोदय में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ऋग्वेद में नई कविता आंदोलन। वास्तव में पूरा उपलब्ध ऋग्वेद उनके अपने समय की नई कविता है, इसकी याद वे स्वयं किसी ना किसी बहाने दिलाते रहते हैंः
स नः स्तवान आ भर गायत्रेण नवीयसा 1.12.11
तं नव्यसी हृद आ जायमानमस्मत् सुकीर्तिर्मधुजिह्वमश्याः, 1.60.3
अस्येदु प्र ब्रूहि पू्र्व्याणि तुरस्य कर्माणि नव्य उक्थैः, 1.61.13
नव्यमतक्षद्ब्रह्म हरि योजनाय, 1.62.13
स्तोमं जनयामि नव्यम्, 1.109.2
प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे, 1.143.1
तं वां रथं वयमद्या हुवेम स्तोमैरश्विना सुविताय नव्यम्, 1.180.10
अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः, 1.190.1
तदस्मै नव्यमंगिरस्वदर्चत शुष्मा यदस्य प्रत्नथोदीरते, 2.17.1.
स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवयाः उपस्तिरे, 2.31.5
समानमर्थं चरणीयमाना चक्रमिव नव्यस्या ववृत्स्व, 3.61.3
इयं ते पूषन्नाघृणे सुष्टुतिर्देव नव्यसी, 3.62.7
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्, 5.42.13
प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम् ।
य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः, 5.42.13
सुवीरं त्वा स्वायुधं सुवज्रमा ब्रह्म नव्यमवसे ववृत्यात्, 6.17.13
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता, 6.49.1
प्र पूर्वजे पितरा नव्यसीभिर्गीर्भिः कृणुध्वं सदने ऋतस्य, 7.53.2

उक्थं नवीयो जनयस्व यज्ञैः, 6.18.15
धियो रथेष्ठामजरं नवीयो रयिर्विभूतिरीयते वचस्या, 6.21.1
तं वो धिया नव्यस्या शविष्ठं प्रत्ना प्रत्नवत्परितंसयध्यै, 6.22.7
इदं ब्रह्म क्रियमाणं नवीयः, 7.35.14
इमां वां मित्रावरुणा सुवृक्तिमिषं न कृण्वे असुरा नवीयः, 7.36.2
इयं त ऋत्वियावती धीतिरेति नवीयसी, 8.12.10
विद्मा ह्यस्य सुमतिं नवीयसीं गमेम गोमति व्रजे, 8.51.5
परि त्रिधातुरध्वरं जूर्णिमति नवीयसी, 8.72.9
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः, प्रत्नवद् रोचया रुचः, 9.9.8
अनु प्रत्नास आयवः पदं नवीयो अक्रमुः, 9.23.2
इदमकर्म नमो अभ्रियाय यो पूर्वीरन्वानोनवीति, 10.68.12
इमां प्रत्नाय सुष्टुतिं नवीयसीं वोचेयमस्मा उशते शृणोतु नो,10.91.13

अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्, यं ते पूर्वं पिता हुवे, 1.30.9
प्रत्नवज्जनया गिरः शृणुधी जरितुर्हवम्, 8.13.7
अनु प्रत्नस्यौकसः प्रियमेधास एषाम्, 8.69.18
प्रत्नवद् रोचयन्वरुचः, 9.49.5
धन्वन्निव प्रपा असि त्वमग्न इयक्षवे पूरवे प्रत्न राजन्,10.4.1
प्राचीनेन मनसा बर्हणावता यदद्या चित्कृणवः कस्त्वा परि, 1.54.5
ये अर्वाञ्चस्ताँ उ पराच आहुर्ये पराञ्चस्तॉ उ अर्वाच आहुः । 1.164.19
अर्वाचीनं सु ते मन उत चक्षुः शतक्रतो । 3.37.2
अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा ।
यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि ।। 4.57.6
अर्वाची ते पथ्या राय एतु स्याम ते सुमताविन्द्र शर्मन् ।। 7.18.3

असाधु प्रयोग – धैथे धारयथः, हुवतः अभिष्टुवतो, हुवन्यति आह्वयति, हुवानः स्तूयमानः, ूमद पदअवामकय हूमहे आह्वयामः, ामय 0इमस्य (8.13.21) अस्य, वि जीपेय एवथा न भन्दनास्तुत्या
स्पूर्धन्स्पर्धमानाः, चिष्चा, कयस्यकस्य, आगासि आगच्छसि,
कृतिदेव यहां

के बारे में हम आश्वस्त हैं इनमें से एक देव समाज के लोग थे और दूसरे सारस्वत क्षेत्र में बसे हुए योग जो अभिजात वर्ग की भाषा सीख रहे थे परंतु उसके उच्चारण में गलतियां कर रहे थे। यह तीसरा समुदाय उन कुशल कर्मियों का था जो खनन, धातु विद्या और, उपयोगी वस्तुओं के निर्माण की दक्षता रखते थे जीने के ऊपर उनकी नागरिक सुविधाएं और उद्योग तथा व्यापार निर्भर करता था

ऋग्वेद में दो तरह के नामकरण मिलते हैं 1 व्यक्तियों के नाम से और दूसरा कौशल के नाम से जो सामूहिक नाम है, ऋभुगण, अश्विनी कुमार, रुद्र गण, वसु गण, इसी कोटि में आते हैं। इनके लिए जातिवाचक शब्दों का प्रयोग होता है परंतु कुशल कर्मियों मैं एक बर्ग ऐसा है जिसके व्यक्ति जिसके सदस्यों के लिए व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग किया गया। हम कह सकते हैं ये या तो बहुत पहले से देव समाज के सहयोगी बन चुके थे, अथवा इनकी भूमिका अर्थव्यवस्था में दूसरे सहयोगियों की तुलना में अधिक प्रधान थी। महत्वपूर्ण बात यह है यह इंद्र की प्रधानता को नहीं स्वीकार करते यज्ञ यज्ञ का विरोध करते हैं परंतु अग्नि की उपासना करते हैं इनमें भृगु गण और आंगिरस आते हैं। शिक्षा दर्शन विज्ञान विविध क्षेत्रों में इनके योगदान को या सम्मान के साथ याद किया जाता है। अरायुक्त पहिए का आविष्कार, रथ का आविष्कार यह मोटे तौर पर बढ़ईगीरी से जुड़े
सभी उपक्रमों में इनकी भूमिका दिखाई देती है

ऋग्वेद की भाषा केवल स्थानीय भाषा के प्रभाव से बदली हुई भाषा नहीं है। इस चरण पर है नगर सभ्यता का विकास वह चुका था और हुआ है तनाव की स्थिति में थी। उद्योग धंधों का विकास आगे बढ़ चुका था और विश्व बाजार में इसके सो देतो पहुंचते थे उन देशो से सोने चांदी की अतिरिक्त केवल सूखे मेवे जिनम में खजूर प्रमुख घोड़ों का आयात अवश्य होता था। परंतु वहां का निर्मित सामान यदि आता था तो उसका हम है ना तो साहित्य से पता चलता है नहीं हड़प्पा के पुरातत्व से। इस तथ्य को हम इसलिए रेखांकित कर रहे हैं यह याद दिला सके यह समाज विभिन्न कौशलों में दक्ष जनों की विशेषज्ञता का लाभ उठा रहा था और वे यहां तो इसके नागर बस्तियों मैं रहते थे यहां यदि उनकी बसावट अलग थी
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. वृत, वृक, , वृक्ष, वृत्त, ववृत्, आवृत्, निवृत, संवृत, विवृत (सुविवृतं), वृध, वृण, वृक्त, वृजिन, वृज्यते, वृश्चत्, परीवृतम् ,त्रिवृतं, वृश्च, वि वृहामि, वृक्तबर्हिषः, वृष्णि, वृक्षि, अभीवृतं कृशनैर्विश्वरूपं, सहोवृधं,अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्रुरूतयः ।प्रवृक्त,
अपावृतम्, अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः, वृथा, नि वावृतुः,
परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः

आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम् ।
वृतेव यन्तं बहुभिर्वसव्यैः, 6.1.3
वर्तिर्याथस्तनयाय त्मने च ।। 6.49.5

न या अदेवो वरते न देव आभिर्याहि तूयमा मद्य्रद्रिक् ।। 6.22.11
वृणते नान्यं त्वत् ।। 10.91.8

मा न इन्द्र परा वृणक् ।। 8.97.7
वृकश्चिदस्य वारणं, 8.66.8
वृष्णर्वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्,1.32.7

वर्ष्मन्तस्थौ वरिमन्ना पृथिव्याः ।
एतत् त्यत् त इन्द्र वृष्ण उक्थं वार्षागिरा अभि गृणन्ति राधः,1.100.17
वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ।। 1.175.1

या जामयो वृष्ण इच्छन्ति शक्तिं नमस्यन्तीर्जानते गर्भमस्मिन् ।
अच्छा पुत्रं धेनवो वावशाना महश्चरन्ति बिभ्रतं वपूंषि ।। 3.57.3
प्र धेनवः सिस्रते वृष्ण ऊध्नः
वृष्णस्ते वृष्ण्यं शवो वृषा वना वृषा मदः ।
सत्यं वृषन् वृषेदसि ।। 9.64.2
अंजन्त्येनं मध्वो रसेनेन्द्राय वृष्ण इन्दुं मदाय ।। 9.109.20
शिरो बिभेद वृष्णिना ।। 8.6.6

विश्वायु शवसे अपावृतम् ।। 1.57.1
अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार
तष्टेव वृक्षं वनिनो निवृश्चसि परश्वेव नि वृश्चसि ।। 1.130.4
इषः परीवृताः

Post – 2018-06-04

शब्द भी छोड़ते हैं साथ दुख के क्षणों में
राजकिशोर

Post – 2018-06-03

#विषयान्तर

पाणिनि और आज की राजनीति

मेरे सामने है यह प्रश्न लगातार बना रहा है कि जो बातें मुझे दिखाई देती हैं, दुनिया के दूसरे देशों के लोगों को दिखाई देती हैं, अपने देश की जनता को दिखाई देती है वे हमारे बुद्धिजीवियों को क्यों नहीं दिखाई देती। मैं इस
समस्या मैं उलझा था कि पाणिनि हाजिर हो गए। उनके भूले सूत्रों में से कुछ सूत्र एक पर एक समस्या का समाधान करने के लिए कतार में खड़े हो गए।

मेरी समझ में नहीं आया पाणिनि व्याकरण लिख रहे थे, या 21वीं शताब्दी के भारतीय राजनीतिक यथार्थ पर टिप्पणी कर रहे थे। उनके भाषा ज्ञान का कायल था, उनके भविष्यवक्ता रुप को पहली बार देख पाया। और तभी मुझको यह भी पता चला मोदी विरोधी इतिहास में पहुंचकर भी कितना अनर्थ कर सकते हैं। वह सिंह जो पाणिनि को खा गया था उसे जरूर आज के मोदी विरोधियों ने भेजा होगा। वे भारत पर हमला करने के लिए इतिहास में आर्य भेज सकते हैं तो शेर तो चिड़ियाघर का पिंजड़ा खोल कर भी भेज सकते बैं। पाणिनि को खाने के पहले उसने दहाड़ते हुए कहा था, ‘तुम मुझे सही रास्ता दिखाओगे तो मैं तुम्हें खा जाऊंगा।’ यह दूसरी बात है उसका यह वाक्य ढाई हजार साल बाद अकेले मैं ही सुन पाया।

गलती पाणिनि की थी। उन्होंने मेरी शंका का समाधान करते हुए कहा थाः
‘अदर्शनं लोपः’, अर्थात जब देखो ही नहीं तो जो है वह है ही नहीं। यदि आपको लगता हो कि मैं खींचतान कर रहा हूं, तो देखिए इसको समझाते हुए काशिका सूत्रवृत्ति भी कहती है, ‘यत् भूत्वा न भवति, तत् अदर्शनम्’ जो हो कर भी न हो वह अदर्शन है। कुछ और समझाते हुए कहा ‘अनुपलब्धिः वर्णविनाशः’ जिनको कुछ मिलता रहा है, मिलना बन्द हो जाय तो उनका विनाश हो जाता है। मैं पहले समझा चुका हूं कि वर्ण का मतलब अपर पक्ष भी होता है।

विपक्ष की समझ में केवल इतनी बात आई कि इस मोदी के कारण अब हमारे विनाश के दिन आ गए हैं। इसे हटाओ नहीं तो हम कहीं के न रह जाएंगे। राजनीतिक दलों को ऐसा लगे तो हैरानी की बात नहीं, परंतु बुद्धिजीवियों को भी ऐसा लगने लगा, यह कुछ मनोरंजक बात अवश्य है।

जो भी हो बुद्धिजीवियों के सहयोग से राजनीतिक दलों ने सोचा मरना ही है तो साथ मरेंगे इसलिए सभी मिलकर इकट्ठा हो जाओ, पाणिनि इस पर भी कटाक्ष कर बैठेः
‘सर्वादीनि सर्वनामानि॥’ अरे भाई, कोई एक नाम तो चुनते ह, कोई एक नेता तो होता, सबका नाम जिसमें अल्लाह की जीत, एक दूसरे का निषेध करता हुआ क्रास, जय भीम सेना, और कर्णी सेना, कुकरनी सेना सभी शामिल हो जाएं, यह कैसे चलेगा । एक व्याकरण के जानकार बुद्धिजीवी ने उलट कर बताया, ‘सर्व’ के आगे जो आपने ‘आदीनि’ लगाया है उसके कारण ऐसों को लिया तो तैसों के भी लेना पड़ा।

पाणिनि बोले वह सब तो ठीक है, परंतु आपस में इतने अलग होते हुए भी सभी एक ही बात क्यों बोलते हो ‘मोदी हटाओ मोदी हटाओ।’ तुम जानते हो जब सभी लोग एक ही बात कहें तो इसका अर्थ होता है, किसी ने कुछ कहा ही नहीं। किसी के पास विचार ही नहीं हैः
‘स्वं रूपं शब्दस्याशब्दसंज्ञा’ । एक ही रूप वाले शब्दों को अशब्द कहा जाता है। हजार बार चिल्लाओ किसी को सुनाई न देगा।

अब आप ही सोचिए, जो राजनीति का विरोध होने पर आदमी की हत्या कर के पेड़ के ऊपर टांग देते हैं, वे इतनी तंज बर्दाश्त करने के बाद पाणिनि को मारने के लिए शेर नहीं भेजते तो और क्या करते।

परन्तु जब वह शेर झपटा तो पाणिनि ने क्या शाप दिया वह भी केवल मुझे सुनाई दियाः

‘लोपः साकल्यस्य’, इन सबका लोप होगा। कुछ लोग कहेंगे, शुद्ध पाठ तो ‘लोपः शाकल्यस्य’ है, वे कहते हैं तो कहने दीजिए। मैं, आधुनिक चिंताधारा के प्रभाव में, जो लिखा है उसे उस रूप में पढ़ना चाहता हूं, जिससे मैं जो चाहता हूं उसे सिद्ध कर सकूं।

Post – 2018-06-02

क्या होता है
जब कुछ नहीं होता
सब कुछ करने के बाद?

यह समझ पैदा होती है
‘तरीका गलत था।’

क्या होता है
यदि समझ भी न हो पैदा?

येचुरी पैदा होता है
दहाड़ के साथ
‘हम जगह पैदा कर रहे हैं
दूसरों के होने के लिए।’

Post – 2018-06-01

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया((10)

कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम समझ तो लेते हैं परंतु मानने में दिक्कत होती है। विश्वास नहीं कर पाते कि जो है, या हो रहा है, वह हो भी सकता है। हमने कहा कि हलन्त और सरल स्वरयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में सारस्वत प्रदेश के मूल निवासियों को कठिनाई होती थी और ऐसी कठिनाई आकर बसे लोगों (देवों) को व्यंजन संयोग वाली ध्वनियों के उच्चारण में होती थी, तो उदाहरण सहित अपनी बात कहने के बाद भी कुछ को यह विश्वास नहीं हो सका कि सचमुच ऐसा होता था। इसलिए हम ऋग्वेद से उच्चारण की इस खींचतान के नमूने पेश करना चाहेंगे जिससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि संस्कृत में व्यंजन प्रधानता होते हुए भी स्वरयुक्त और अजंत शब्द कैसे ही बचे रह गए।

इसे हम भाषाई समीभवन के रूप में देखते हैं जिसमें देवों और उनके वंशधरों ने अपनी भाषा की रक्षा के प्रयत्न के बावजूद संयुक्ताक्षर का उचारण सीखा और संयुक्ताक्षर प्रेमियों ने अजंत शब्दों और स्वर युक्त ध्वनियों का उच्चारण करना सीखा। इसका ही परिणाम है एक ही अर्थ में दोनों प्रकार के शब्द ऋग्वेद में प्रयोग में आ रहे थे । दूसरा यह कि जिन शब्दों का उच्चारण ‘वृ’ लगाने के बाद पश्चिमी प्रदेश के लोगों को जिन शब्दों के उच्चारण सुविधा होती थी उनमें से बहुत से शब्दों में से ऋ-कार और ण- कार हट गया। पहले के नमूने हम ऋग्वेद से देंगे और बाद के ऋग्वेद और लौकिक संस्कृत की तुलना से समझा जा सकता है।

ऋग्वेद में ‘वर’-श्रेष्ठ और ‘वरते’ – वरण करते हैं (दैव्यं सहो वरते अप्रतीतम्, 4.42.6) व्यवहार में हैं इसलिए, वरं वृणते,10.164.2 को वरं वरते बोलना किसी तरह की समस्या पैदा नहीं करता, परंतु वरं के साथ वृणते का प्रयोग उस खींचतान को मूर्त करता है, जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं।

तीन हजार सालों के लंबे दौर में भले वे भूसंपदा के स्वामी बन चुके थे, उन्हें स्थानीय बोली अपना लेनी चाहिए थी, अधिक से अधिक उनकी भाषा के कुछ तकनीकी शब्द स्थानीय भाषा में बचे रह सकते थे, परन्तु वे अपनी भाषा की शुद्धता बचाए रखने के लिए कृतसंकल्प थे। न वै भाषा म्लेच्छितव्या। वे भाषा में सत्य से विचलन और उच्चारण की अशुद्धता को पाप का प्रवेश मानते थे,संभव है इसके पीछे देवभाषा की सुरक्षा की वही हठधर्मिता रही हो जिसे हम बाद में संस्कृत के साथ पाते हैं।

ऋग्वेद में ‘म्लेच्छ’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है इसके स्थान पर ‘वधृवाच’ और ‘मृध्रवाच’ का प्रयोग देखने में आता है, परंतु इसका प्रयोग स्थानीय अशिक्षित या अशुद्ध भाषा बोलने वालों के लिए नहीं अपितु उनके यात्रा और व्यापार के क्रम में संपर्क में आने वाले दूसरे जनों की भाषा के लिए किया गया है।

इसके व्यौरे में अभी जाने से विषयान्तर होगा, परन्तु दो तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। पहला यह कि हड़प्पा सभ्यता के व्यापारिक सन्दर्भ में ऊर से कुछ दूरी पर हड़प्पन व्यापारियों की एक बस्ती थी जिसे मिलुक्खा कहा जाता था, दूसरे मिलुक्खा से भारतीय माल लेकर जाने वाले जहाजों का हवाला मिलता है। इसे कई तरह से पहचानने का प्रयत्न किया गया है। जिसका अर्थ है साहित्यिक प्रयोग में भले इस शब्द का को न पाया जाता हो, ऋग्वेद के समय में भी यह शब्द व्यवहार में था और बाद में तो प्रचलित था ही।

इसकी व्याख्या करते हुए सुझाया गया है म्लै का अर्थ अस्पष्ट उच्चारण करना है, परंतु इसका आधार समझ में नहीं आता, अन्य किसी शब्द के साथ म्लै का प्रयोग देखने में नहीं आता इसलिए हमें लगता है यह भी देव भाषा का शब्द है जो घालमेल मिलावट में पाए जाने वाले मिल का सारस्वत उच्चारण है और सामान्यतः इसका प्रयोग भाषा की शुद्धता के लिए चिंतित लोगों द्वारा अशुद्ध उच्चारण करने वालों के लिए किया जाता था।

यह मात्र हमारा सुझाव है और इसके समर्थन में केवल दो बातें रखी जा सकती है। पहली यह की सुमेरियन अभिलेखों में मिलुक्खा पाठ किया गया है , दूसरा यह वैदिक अभिजात वर्ग अपनी भाषा के विषय में बहुत आग्रहशील था और इसके बल पर ही वे अपनी भाषा को यथासंभव सुरक्षित रखने में सफल हुए थे । जो परिवर्तन हुए थे स्थानीय जनों के प्रयत्नों के बावजूद लगातार व्यवहार में आने के कारण विवशता में स्वीकार कर लिए गए थे।

अब इस पृष्ठभूमि मैं ही हम दोनों तरह के प्रयोगों के एक साथ चलने के नमूनों पर दृष्टिपात कर सकते हैः

अपावर (अपावर् अद्रिवो बिलम् 1.11.5; अप द्रुहस्तम आवर,7.75.1, >अपावृक्त (अपावृक्तअरत्नयः, 8.80.8).
वरते (न या अदेवो वरते न देव, 6.22.11> वृणते (अग्निं वृणाना वृणते कविक्रतुम्, 5.11.4).
परिवारयति> परि वृणक्ति (परि वृणक्ति 3.29.6 – परिततः वारयति)
परिवारयसि> परिवृणक्षि (शूर मर्त्यं परिवृणक्षि मर्त्यम् , 1.129.3).
ववार (वृत्रं जघन्वाँ अप तद् ववार, 1.32.11) – वृणक् (अपावृणोदिष इन्द्रः परीवृता द्वार इषः परीवृताः, 1.130.3)
परावर>परा वृणक् (मा न इन्द्र परा वृणक्, 8.97.7).
परिवर्जयतु (गमद्धवं न परि वर्जति, 8.1.27) परिवृणक्तु, (परि सा वृणक्तु, 7.46.3, परित्यजतु, 7.6-.9 परिवर्जयतु)
परं वरामहे (को अस्य शुष्मं तविषी वरात, 5.32.9 > प्र वृणीमहे (प्र पूषणं वृणीमहे-8.4.15) – प्रकर्षेण संभजामहे

Post – 2018-06-01

सूरज को भी आईना दिखाता था देखिए
नन्हा सा वह जर्रा जिसे कल पांव से रौंदा।
——————
खयालों के घर में झरोखे बहुत हैं।
जिधर देखिए रोशनी आ रही है ।।

Post – 2018-06-01

यह धरती आसमां में है तुम्हें इसका पता होगा
मुझे क्यों आसमां छूने को कहते हो मेरे यारो!

Post – 2018-05-31

#संस्कृत_की_निर्माण_प्रक्रिया(
(9)

इस लंबी परिक्रमा के बाद अब हम पुनः ‘वर’ शब्द की ओर लौट सकते हैं। यदि हम समझे कि व्यंजन संयोग से पूर्वी के लोगों को समस्या होती थी, परंतु संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण से सारस्वत प्रदेश के लोगों को किसी तरह की असुविधा नहीं हो सकती थी तो गलत होगा। स्वर के कारण व्यंजन प्रधान बोली के प्रवाह में रुकावट पड़ती थी । यदि पूर्व की भाषा का प्रधान गुण माधुर्य था, तो सारस्वत भाषा का प्रधान गुण डैश या ओज था और इस पर उन्हें गर्व था।

पूरब के लोग आर्य थे, संभ्रांत जन, अर्थतंत्र पर उनका अधिकार था, परंतु संख्या में कम थे, इसके बाद भी उनकी भाषा का वर्चस्व था और उसे स्थानीय जन भी यथासंभव शुद्ध रूप में अपनाने को उत्सुक थे, परंतु प्रयत्न के बाद भी इसमें सफल नहीं हो रहे थे।

समस्या केवल बोलने की नहीं थी बल्कि सुनने में ही गड्डमड्ड हो जाता था। इसे मैं एक उदाहरण से समझाना चाहूंगा। एक सरदार जी ने अपने ढाबे के सामने एक विज्ञापन लगा रखा था। विज्ञापन की इबारत तो याद नहीं परंतु उसमें कृप्या का प्रयोग हुआ था। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश कि शुद्ध प्रयोग कृपया है। उन्होंने उत्तर दिया, हां हां जानता हूं कृप्या ही लिखा है। मैंने हंसते हुए कई बार दोहराया और हर बार वही उत्तर मिला। अर्थात वह कृपया को कृप्या सुन रहे थे और वही उन्होंने लिखा था।

इसका दूसरा रोचक पहलू यह है कि मैं शुद्ध को सुद्ध बोल रहा था और आज भी यही बोलता हूं क्योंकि भोजपुरी में केवल दंत्य स होता है। 87 साल की उम्र में 26 साल भोजपुरी क्षेत्र में कटे होंगे , 56 साल से दिल्ली में हूं परंतु ‘श’ बोलने के लिए अतिरिक्त सजगता बरतनी होती है, सामान्यतः नहीं बोलता। प्रयत्न के बाद भी उच्चारण शुद्ध ही होता है यह दावा नहीं कर सकता। हम यह याद दिलाना चाहते हैं जिसे हम उच्चारण की समस्या कहते हैं वह श्रुति की समस्या भी है और इसका सामना एक ही भाषा बोलने वाले मूल भाषाभाषी और प्रौढ़ावस्था में आधुनिक यंत्रों की सहायता के बिना सीखने वाले व्यक्ति को प्रायः करना पड़ता है।

भोजपुरी में ‘वीर’ शब्द था, ‘बीरन’/’बिरना’- सगा भाई (अजीब बात है यह शब्द केवल महिलाओं के शब्दकोष में ही बचा रह गया है ) का पंजाबी में बना रहना चकित करने वाला है। इसका अर्थविकास ध्यान देने योग्य है
इर/ विर/ चिर/ सिर सभी का अर्थ जल है। जल अर्थात् ‘रेतस्’ से तुलना का आधार यह है कि वृष्टि से ही वनस्पतियां आदि उत्पन्न होती हैं अतः ‘वीर’ प्रजननक्षम जल ‘वीर्य बन जाता है। जल पोषण और शक्ति का भी स्रोत है, इसलिए इसका प्रयोग इस आशय में (वीरवतीमिषम्, 1.12.1) भी हुआ है, और फिर शौर्य के लिए इसका प्रयोग आसान हो जाता है (असि हि वीर सेन्यो, 1.81.2); वीर्य स्वयं भी शौर्य के लिए प्रयोग में आता है (सुप्रवाचनं तव वीर वीर्यं, 2.13.11)।

भाई के आशय में वीर का प्रयोग, सहजन्मा या सगे भाई के अशय में है न कि शूर के आशय में। इस दृष्टि से यह बिरवा > वीरुध से निकटता रखता है। यह रोचक है की बिरवा का संस्कृतीकरण करके वीरुध बना लिया गया, और अब इसमें एक नए अर्थ की उद्भावना कर ली गई कि यह आकाश की ओर उठता है, इसलिए इसका वीरुध नाम पड़ा, इसके बाद तो यह सोचना आसान हो ही जाता है, बिरवा वीरुध का अपभ्रंश है।

अपेक्षाकृत अधिक रोचक है बीज, जो अर्थ की दृष्टि से वीर्य से निकटता(कृते योनौ वपतेह बीजम्) और ध्वनि की दृष्टि से ‘विर’- जल से आभासिक निकटता रखता है। संस्कृत में बीज का निर्वचन नहीं हो सकता। आश्चर्य की बात यह भी है कि इसमें सारस्वत प्रभाव के चलते ‘ब’-कार का ‘व’-कार नहीं किया गया। इसकी उत्पत्ति जिस ‘बिस’ शब्द से हुई लगती है उसका जल के अर्थ में प्रयोग, कुछ नामों (बिसवनिया, बिस्टौली, बिसवां) में बना रह गया है और विषाक्त होने की प्रक्रिया ‘बास’- गंध, ‘बासी’, ‘बस्साना’ – दुर्गंध देना, ‘बिस्साइन’- विषाक्त में देखा जा सकता है।

ऋग्वेद में विष का प्रयोग सामान्यतः विष (वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम्, 1.191.16; यदोषधीभ्यः परि जायते विषम्, 7.50.3; केशी विषस्य पात्रेण यद् रुद्रेणापिबत्सह, 10.136.7) हुआ है, पर ‘उत नो ब्रह्मन्नविष’, 3.13.6 ‘अविषः’ का अर्थ पालय किया है और एक बार व्याप्ति के आशय में (ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विषः स देवानां भवत्येकमंगम्, 10.109.5) देखने में आता है। बीज ‘बिस’ से व्युत्पन्न हुआ हो जिसमें बी बिस- जल का प्रथम अक्षर ‘बी’ और ‘ज’ जनन का सूचक हो सकता है।

हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि ‘वीर’ का उच्चारण सारस्वत क्षेत्र निवासियों के लिए कठिन था, जिससे उन्होंने ‘व्री’ बना दिया, उनका उच्चारण पूर्वी अभिजात वर्ग के लिए दुष्कर था, इसलिए उसने इसे ‘वृ’ बना दिया और इससे पुरानी अवधारणाओं के लिए समानांतर शब्द तो बने ही, नई व्यंजनओं के लिए नई शब्दावली तैयार हुई जिसकी चर्चा हम कल करेंगे।

इसका परिणाम था ‘बिस’ का ‘विष’ बन कर जहर के आशय में रूढ़ हो जाना, व्याप्ति के आशय में ‘विश’ और ‘विषु’ हो जाना और जल के आशय में बदल कर ‘वृष्’ बन जाना।

हमारे लिए संतोष की बात यह कि जल का आशय ‘विषमेभ्यो अस्रवो वाजि
नीवति’, 6.61.3 में (विषं – उदकं) में बचा रह गया है अन्यथा सामान्यतः इसका प्रयोग समग्रता और व्याप्ति के लिए हुआ है। यह जल की की विशेषता के कारण है कि वैविध्य के आशय मैं भी इसका प्रयोग किया गया है (परि त्मना विषुरूपा जिगाति, 7.84.1) – स्वयं विविध रूपों में विचरण करता है।

व्याप्ति की दृष्टि से है इसका सबसे रोचक शब्दभंडार विषुव, विष्णु और विश्व और इनके प्रत्यय, उत्तरपद, लगाते हुए तैयार किया गया हैः विश्वं (1.57.6) -व्याप्तं, विश्वकाय – ऋषि नाम, विश्वकृष्टीः (1.169.2) राज्यत्वेन सर्वजनवन्तः, विश्वगूर्तः (1.61.9) सर्वस्मिन्कार्ये समर्थः, (8.1.22) सर्वेषु कार्येषु उद्यतः, विश्वगूर्ती (1.180.2) सर्वस्तुत्यौ सर्वदा उद्गूर्णो वा, विश्वचक्षसे (1.50.2) विष्वचन्द्राः (1.165.8) सर्वाह्लादकाः, विश्वचर्षणिम् (6.44.4) सर्वस्यद्रष्टारं, विश्वचर्षणे (1.9.3) सर्वमनुष्ययुक्त, विश्वजन्यं (7.76.1) विष्वेषां जनानां हितकरः, विश्वजन्याः (6.36.1) सर्वजनहिता, विश्वजन्यां (1.169.8) विश्वेप्राणिनः उत्पादनीया, विश्वजित (2.21.1) सर्वस्य जेता, विश्वतूर्तिः (2.3.8) सर्वविषयगता वाक्, विश्वतः (1.1.4; 1.7.10) सर्वाषु दिक्षु; सर्वेभ्यः, विश्वप्स्न्याय (2.13.2) विश्वासामपां आश्रयभूताय समुद्राय।

इस शब्द गणना को कई पन्नों तक फैलाया जा सकता है, परन्तु उसका कोई लाभ नहीं। हां हमारे लिए यह विचारणीय अवश्य हो सकता है कि क्या ‘बिस’ – जल का परिवर्तन ‘भिस्’ में हुआ था या नहीं और भिषज और भेषज कि व्यत्पत्ति भी उसी से हुई या नहीं और बहुवचन सूचक ‘भिस्’ विभक्ति इसी का ऋणी है या नहीं।