Post – 2018-06-27

#तुकबन्दियाँ

कुछ न पाया, मैं कहीं था ही नहीं
आईने को करीब से देखा।

Post – 2018-06-26

#आइए_शब्दों_से_खेलें (7)

भौंह
भौंह के लिए संस्कृत में भ्रू का प्रयोग होता है जो अंग्रेजी में महाप्राणता के लोप के कारण ब्रू (brow) हो गया है। कोई चूक न होने पाए इसलिए इससे पहले आई (eye) लगाना जरूरी समझा गया। पर दोनों के योग से और भौंह की आकृति से यह भ्रम हो सकता है कि ब्राउ का सगोत कहीं बाउ=धनुष न हो, जिससे इसकी तुलना की जाती है। भ्रू का वैकल्पिक रूप भृकुटि है। इसमें कुटि का कुटीर उद्योग से कोई संबन्ध नहीं, कुटिलता से अवश्य है जिसके लिए कौटिल्य को जाना जाता है।

भौंहों को लेकर इतने मुहावरे हैं कि उनसे ही पता चल जाता हैं कि इनका आंखों से निकट का नाता है। जो भी हो भ्रू और भृकुटि दोनों में से कोई, देववाणी में क्या भोजपुरी तक में नहीं चल सकता। इसके बाद भी घोष-महाप्राणता के कारण यह मानना होगा कि इसका निर्गमन देववाणी से ही हुआ हो सकता है। देववाणी में हिन्दी की भौंह तक का प्रवेश नहीं, उसमें ऐ, औ की ध्वनि ही नहीं। भोजपुरी में भउहां और भउहीं दोनों चलते हैं।

संस्कृत पर्यायों को यह संज्ञा क्यों मिली इसका पता नहीं चलता, पर भउहाँ और भउहीं के भउ को आप भउरा और भउरी की मदद से समझ सकते हैं। भउ का अर्थ मद्धिम ताप की आग जो भूसी, सूखी पत्ती आदि जलाने से पैदा होती है और रा/री=वाला, वाली। ये र/रा/री देववाणी के प्रत्यय हैं जो यूरोप तक पहुंचे हैं: राउ=राजा, समक्ष उपस्थित आदरणीय व्यक्ति। राउर =आपका, you>your.अत: भउ=मद्धिम आंच, भउरा=मद्धिम आँचवाला, भउरी= मद्धिम आँच पर पकाई हुई। इसका नतीजा यह कि आप आँखों से आग बरसा सकते हैं पर भौंहें सिकोड़ कर भी नाराजगी जताने से आगे नहीं बढ़ सकते।

खैर हम पाते हैं कि (१) मूलत: यह संज्ञा, देववाणी की है जिसके भउ और र/रा दोनों का कचूमर करने से संस्कृत का भ्रू बना है, (२) आंखों के पड़ोस का लाभ यह कि इसका भी प्रकाश का सीधा नाता न सही, भावप्रकाशन का नाता तो है ही।

Post – 2018-06-26

#तुकबन्दियाँ
वह जिन्दगी नहीं थी जिसे खोजता रहा
एक ख्वाब था जो अपनी खिजाँ ढूँढ़ रहा है।
दर दर भटक रहा है उधर क्यों जुनूने इश्क
मैं इस तरफ हूँ मुझको कहाँ ढूँढ़ रहा है।।

Post – 2018-06-26

#विषयान्तर

सत्ता की राजनीति करने वाले अपने स्वार्थ में अन्धे हो कर मोटी समझ भी खो देते हैं। भाजपा आज इमर्जेंसी की याद में काला दिवस मना रही है। इसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा। राहुल नीत कांग्रेस को इन्दिरा नीत कांग्रेस का तुलना का लाभ। इन्दिरा जी के सौ गुनाह गिना सकता हूं, इसके बाद भी वह भारत की सबसे कद्दावर हस्ती थीं और जनमानस में उनकी यह छवि मिटी नहीं है।

Post – 2018-06-25

#आइए_शब्दों_से_खेले (6)

शरीर के अंगों पर आगे बात करने से पहले हम एक गंभीर समस्या के समाधान का प्रयत्न करेंगे, क्योंकि उसका विचार इस चर्चा के दौरान ही पैदा हुआ है।

लगभग सभी भाषा विज्ञानी इस विषय में एकमत रहे हैं कि भाषा का आरंभ परिवेश की ध्वनियों के अनुकरण से अर्थात अनुकारी, अनुनादी, प्रतिनादी कहे जाने वाले शब्द भंडार से होना चाहिए, परंतु वे अनुकारी ध्वनियों से आगे निर्मित होने वाली शब्दावली के प्रति सचेत नहीं रहे और फिर उन्हें इस बात की आशंका बनी रही कि भाषा का इतना जटिल ढांचा केवल अनुनादी शब्दों के द्वारा तैयार नहीं हो सकता।

इस जटिल है तंत्र में संज्ञा, क्रिया और विशेषण के लिए शब्द तो अनुनादी स्रोत से उत्पन्न किए जा सकते थे परंतु समस्या उपसर्गों, कारक चिन्हों और विभक्तियों को लेकर थी। हम पहले यह दिखा आए हैं कि उपसर्गों के लिए घटक जल की ध्वनियों और विविध क्रियाओं से प्राप्त हुए है। यहां हम केवल एक विभक्ति चिन्ह के बारे में बात करना जरूरी समझते हैं।

हम जल के लिए प्रयुक्त इख>इष के अर्थ विस्तार >रस>सोमरस> गति (इष्यति/एषति)> इच्छा (एषणा)> का संकेत भी पहले कर आए हैं। पिछली पोस्ट में हमने देखा कि भविष्य काल के लिए पहले कोई विभक्ति नहीं थी। यदि राजवाडे ने इस विषय में कुछ स्थापनाएं न की होती तो मेरा ध्यान इस ओर नहीं जाता । देववाणी में जिसे वह रानटी या जंगली (भदेस) भाषा कहते थे, लिंग, वचन, विभक्ति आदि का विधान नहीं था। वचन का काम वास्तविक संख्या से चल जाता था भाषा समास प्रधान थी। उसे हम रूप में समझ सके हैं वह निम्न प्रकार है
राम मारा।
राम रावण मारा।
राम दस रावण चारबाण मारा।
उन्होंने एक लंबा समस्त पदवाला वाक्य रचा था जिसमें सभी विभक्तियों का समावेश हो जाता है और अर्थ संचार में कोई बाधा नहीं पड़ती। हम उनके विश्लेषण की कतिपय बारीकियों को नहीं समझ पाते।

जो भी हम पाते हैं कि भूतकाल का बोध क्रिया के दोहराव से व्यक्त किया जाता था (कार-कार चकार, दर्श+दर्श> ददर्श =देखा ( को ददर्श प्रथमं जायमानम्- सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले को किसने देखा), ) और वर्तमान के लिए (ददृशे = दिखाई देता है (ददृशे न रूपम्- रूप दिखाई नहीं देता, रुशद् दृशे ददृशे नक्तया चिद् -देखने में जगमगाता सा है और रात को भी दीखता है। (दृशेयं पितरं मातरं च, अपने माता पिता को देखूं; ज्योक् च सूर्यं दृशे – देर तक सूरज दिखे)। जहां, भविष्यसूचक विभक्ति का भ्रम होता है, वहां भी क्रिया वर्तमान की हैः क्षेति पुष्यति – पाता, और पालता है; वनुयाम वनुष्यतः – जो हमारा वध करते हैं उनका वध हम करें (वनुयाम)। परन्तु एक स्थल है जहां आकांक्षा भविष्यकालिक अर्थ रखती दिखाई देती है – न जातो न जनिष्यते- न पैदा हुआ, न पैदा होगा।

वर्तमान में हम काम करते हैं, इसलिए क्रिया रूप आना जरूरी है। भूत में क्रिया हो चुकी, कुछ करने को नहीं है, इसलिए इसको क्रिया को दुहरा कर काम के पूरेपन को प्रकट किया जाता था। भविष्य में हम कुछ कर नहीं सकते, केवल उसकी इच्छा या योजना होती है, इसलिे उसी इष से क्रिया की इच्छा जुड़ गई। इसे अधिक स्पष्ट रूप में अंग्रेजी के ’विल’ में देखा जा सकता है। मैं जाने की इच्छा करता हूं = मैं जाऊंगा। कहें हम यहां भविष्यसूचक विभक्ति को जन्म लेते देखते हैं।

Post – 2018-06-24

#विषयान्तर

यह मेल मैने 22.6.18 को इस आशा में भेजी थी कि वह अपनी भूल सुधारते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह करने वाले अधिकारी के विरुद्ध की गई कार्रवाई वापस लेंगी। अब तक उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया इसलिए इसे सार्वजनिक कर रहा हूंः
Bhagwan Singh
22 जून (3 दिन पहले)
eam
सुषमा जी,

मैं एक लेखक हूँ। यदि आप पढ़ने में रुचि लेती हैं तो संभव है नाम से
परिचित हों। उम्र 87 साल। जिस समय सभी लेखकों और पत्रकारों ने भाजपा के
विरुद्ध विद्रोही तेवर अपना कर दुष्प्रचार आरंभ किया, मैं अकेला था जिसने
संघ के प्रति आलोचनात्मक रुख और भाजपा से कोई नाता न रखते हुए भी फेसबुक
पर नरेन्द्र भाई मोदी के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा का लगातार समर्थन
करते हुए लेख लिखे, जो भारतीय रीजनीति में मोदी फैक्टर के नाम से किताब
घर से प्रकाशित है। मैं आप की संवेदनशीलता का भी प्रशंसक रहा हूँ।

आप ने हाल ही में एक पासपोर्ट के केस में जो फैसले किए उनसे आप के और
भाजपा के विषय में मेरी राय बदल दी है। अब आप मेरी नजर में सस्ती
लोकप्रियता की भूखी, कामनसेंस से रहित, दिमागी तौर पर तानाशाह और
दूरदर्शिता से शून्य राजनीतिज्ञ प्रतीत होती हैं, परन्तु यदि आपका इरादा
भाजपा को भारी क्षति पहुंचाने का हो, तो मैं अपनी राय बदल कर यह मानने को
तैयार हूँ कि आप बहुत दूरदर्शी नेता हैं।

मुझे खेद है कि मुझे आप के लिए कठोर विशेषणों का प्रयोग करना पड़ा, इसलिए
इसका आधार क्या है यह बताना जरूरी हैः

1. लगता है, सहानुभूति के नाम पर आपने संवेदनशीलता से अधिक प्रचार
और प्रदर्शनप्रियता का ध्यान रखा, अन्यथा सब कुछ इस तरह आयोजित न होता कि
आप मणिशंकर ऐयर की छाया प्रतीत हों।

2. कामन सेंस होता तो आप अपने फर्जी नाम से रहस्मय कारणों से
पासपोर्ट बनवाने वाले जालसाज की सहायक न बनतीं।

3. तानाशाह न होतीं तो अपने कर्तव्य का तत्परता से निर्वहन करने
वाले अधिकारी को कारण बताने का अवसर दिए बिना दंडित न करतीं।

4. दूरदर्शिता होती तो यह समझ पातीं कि इससे सरकारी कर्मचारियों
में क्या सन्देश जाएगा? उनके मनोबल पर क्या असर पड़ेगा? भाजपा के समर्थक
हिन्दुओं पर क्या असर पड़ेगा? पूरे हिन्दू समाज में दूसरे दर्जे का
नागरिक माने जाने का बोध पैदा होगा और मुसलमानों में अहम्मन्यता पैदा
होगी। संशय में रहने वाले हिंदुओं के बड़े हिस्से को लगेगा कि जब इनका भी
वही हाल है तो कोंग्रेस में ही क्या बुराई है।

Post – 2018-06-24

#आइए_शब्दों_से_खेलें (5)

यहां आरंभ में ही हम यह स्पष्ट कर दें कि हमारी समझ से शब्द दो प्रकार के होते हैंः नैसर्गिक और कृत्रिम। जिन्हें हम नैसर्गिक कह रहे हैं उनके निर्माण में भी मनुष्य की भूमिका होती है। वह प्राकृतिक ध्वनि को जैसा सुनता है उसी रूप में उसका अनुकरण करना चाहता है। यह सुनना और उच्चारण करना दोनों उसकी बोली की ध्वनि व्यवस्था से नियंत्रित होता है। दोनों में इतनी निकटता होती है कि हम पहचान सकते हैं यह अनुकारी शब्द है। दूसरे में हम व्याकरण के नियमों से अथवा अनुकारी शब्दों से ही आगे बढ़ कर अपनी जरूरत के अनुसार नए शब्द गढ़ लेते हैं इनको हमने कृत्रिम कहा है। उदाहरण के लिए पद नैसर्गिक शब्द है जमीन पर पांव के पढ़ने से जो ध्वनि निकलती है उससे उस अंग की संज्ञा निर्धारित। परंतु पथ कृत्रिम है क्योंकि इससे कोई ध्वनि नहीं निकलती अपितु जिस पर हम चलते हैं पद रखते हैं उसके लिए पद में ध्वनि परिवर्तन करके संज्ञा सचेत रूप में बनाई गई है। देव वाणी में नैसर्गिक शब्दों की बहुलता थी क्योंकि मनुष्य की आवश्यकताएं स्वल्रप शब्दावली और उसमें परिवर्तन से ही पूरी हो जाती थी।

लोचन

आंख के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों में एक शब्द ऐसा है जो न हो तो आलोचकों का कारोबार ठप हो जाए। यह है लोचन। यह हैरानी की बात नहीं है कि ऋग्वेद में लोचन का प्रयोग नहीं हुआ है, इसके स्थान पर रोचन का प्रयोग हुआ, जिससे रूचि, रुचिर, का भी संबंध हो सकता है। भोजपुरी मैं वहां भी र का प्रयोग मिलता है जहां दूसरी बोलियों में ल पाया जाता है फल>फर, तले>तरे, कवल>कौरा, मूसल>मूसर, बाल> बार, बेला> बेर । सुनीति कुमार चटर्जी अशोक के शिलालेखों में पूर्वी भाग में राजा की जगह लाजा (देवानां पिय पियदसि लाजिना लेखापिता) के हवाले यह समझाया था पूर्वी हिंदी में ‘र’ के स्थान पर ‘ल’ का प्रयोग होता था, इसका खंडन रामविलास जी ने करते हुए अपने तर्क और प्रमाण दिए हैं।

ऋग्वेद में ऋग्वेद में ऐसे अनेक शब्द हैं जिनमें र का प्रयोग हुआ है जबकि संस्कृत में उनको ल में बदल दिया गया है जैसे रघु रोका । ऋग्वेद के समय तक अधिकांश शब्दों में ‘र’ ‘ल’ में बदल चुका थाः
जठर> जठल, फर>फलम्, सरिर>सलिल, अरं>अलं, अररा कर या हरहराकर >अललाभवन्ती।अनेक शब्द ऐेसे हैं जिनके सांस्कृतिक स्तर को देखते हुए परवर्ती विकास से जोड़ सकते हैं या यह मान सकते हैं कि ‘ल’ की ध्वनि को देववाणी में स्थान तो प्रस्थान के समय तक मिल चुका था, परन्तु उसकी स्थिति दुर्बल थी। ये शब्द हैं वल, बिल, कलश, पलस्ति, लांगल, प्रकलवित्, आखण्डल, अलर्ति, उपलप्रक्षिणी, किल, अलंबु, शीपाल, लयन्ताम्, लक्ष्म आदि।

ऋग्वेद में लोचन तो नहीं है, इसके स्थान पर रोचनहै जिससे फा. रोशन और रोशनी की उत्पत्ति हुई है, परंतु भारतीय भाषाओं में यह लोचन में बदल गया। रोचन केवल गोरोचन मैं बचा रह गया। यहां संगत बात यह है रोचन का प्रयोग केवल प्रकाश (आकीं सूर्यस्य रोचनाद्, विश्वमा भासि रोचनम् ) और चमक के लिए हुआ है आंख के लिए एक बार भी इसका प्रयोग देखने में नहीं आता। ऐसा लगता है संस्कृत के आचार्यों ने प्रकाश से इसके संबंध को देखते हुए इसे आंखों के एक पर्याय के रूप में जोड़ लिया।

नयन
नयन या नैन भी देववाणी के शब्द नहीं हो सकते। इनका सीधा संबंध किसी नैसर्गिक ध्वनि से नहीं है। यह एक अवधारणा की उपज हैं, गो वह अवधारणा जल और उसकी गति से संबंधित हो सकती है। ऋग्वेद में नय का प्रयोग कई रूपों में देखने में आता है परंतु यह केवल राह दिखाने या बचा कर लेकर चलने के संदर्भ में क्रिया के रूप में प्रयोग में आया हैः
अग्निः नयन्नववास्त्वं बृहद्रथं तुर्वीतिं..
देवा यज्ञं नयन्तु नः
नयन्ति दुरिता तिरः
यं यज्ञं नयथा नर आदित्या ऋजुना पथा ।
अभि सूयवसं नय न नवज्वारो ध्वने ।
इनमें न तो कहीं प्रकाश का भाव है और ना ही दृष्टि से सीधा संबंध। यह भी कृत्रिम शब्द है और किंचित अनावश्यक भी। किसी वस्तु या क्रिया के लिए यदि पहले से कोई संज्ञा उपलब्ध है तो उसके लिए नए शब्द गणना व्यर्थ का आडंबर है। इससे भाषा बोझिल होती है और उसकी गतिशीलता बाधित होती। संस्कृत पंडितों ने पर्याय गढ़ने के शौक को झक तक पहुंचा दिया। यह दूसरी बात है कि यह उन थोड़े से शब्दों में है जिनकी पहुंच लोकभाषा तक हो सकी।

नेत्र
जोमाटो जो बात नयन के विषय में कहीं गई है वही नेत्र पर भी लागू होती है इसका भी मूल वही है। जिस नी/नय से नयन बना है उसी से नायक नेता नेत्री आदि भी बने हैं और नेत्र शब्द भी गढ़ लिया गया। जहां इस मूल से नायक नेता अभिनेता अभिनय विनायक सन्नय प्रणय, परिणय, आनय आदि बहुत ही सार्थक और आवश्यक शब्द निर्मित हुए हैं वहां नेत्र किंचित अनावश्यक बोझ है क्योंकि यह अन्य शब्दों से भिन्न या किसी विशेष अर्थ को व्यक्त नहीं करता। जो भी हो ऋग्वेद में नेता और नेत्री दोनों का प्रयोग हुआ है परंतु नेत्र का नहीं। इसकी आवश्यकता भी न थी । नेता का प्रयोग ले आने वाले (यो अपां नेता स जनास इन्द्रः) आगे चलने वाले (नेता वृषभ चर्षणीनाम् )और बचाने वाले (अयं हि नेता वरुण ऋतस्य) तीनों अर्थों मैं हुआ लगता है। भूमिका कोई अलग है परंतु प्रयोग तो अभिनेता का भी हुआ है (विश्वानरः समिधेषु प्रहावान् वस्वो राशिं अभिनेतासि भूरिम् ) इन्द्र तुम सर्वोपरि योद्धा हो, समरभूमि में प्रहार करते हो, अपार धनराशि प्राप्त कराने वाले हो।

उषा के लिए नेत्री का प्रयोग कई बार हुआ हैः
भास्वती नेत्री सूनृतानां दिवः स्तवे दुहिता गोतमेभिः।
यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरर्कैः ।
गवां नेत्री वाजपत्नी न उच्छोषः सुजाते प्रथमा जरस्व ।
एषा नेत्री राधसः सूनृतानामुषा उच्छन्ती रिभ्यते वसिष्ठैः ।
परंतु एक बार भी द्रष्टा के रूप में या चमकने वाले के रूप में नेत्री का प्रयोग नहीं हुआ सर्वत्र नेतृत्व करने वाली के रूप में हुआ है। इसलिए हम सोच सकते हैं कि नेत्र शब्द नयन की भांति गढ़ा हुआ शब्द है और इसकी सृष्टि बहुत बाद में हुई है।

दृग
हम ऊपर दृष्टि और दीठि पर विचार कर चुके हैं। वास्तव में दृष्टि दृग की ही नैसर्गिक शक्ति का नाम है। यह जल की तर/तिर/दर/दिर/थर/थिर आदि रूपों में श्रुत और अनुनादित शब्दों की विशाल श्रृंखला से जुड़ा हुआ एक शब्द है जिसमें, तिल से लेकर तरु तक, तृप्ति लेकर तृषा, त्रास और संत्रास तक, तिल से लेकर तिलक तक, तरीका से लेकर तड़प तक, तीर्थ से लेकर तिरस्कार तक, तरंग से लेकर तुरंग तक, तर्पण से लेकर दर्प और दर्पण तक इतने शब्द आते हैं कि इनकी नाम गणना के लिए कई पन्ने जरूरी होंगे। पानी में चमक होती है और उसी से प्रकाश और प्रकाश का स्रोत अर्थात आंख के लिए दृग शब्द निकला है। इस श्रृंखला के ट्री, ट्रिप, ड्रा, ड्राप, ड्राट, ड्रेन, थर्स्ट, थ्रिल आदि बहुत से शब्द अंग्रेजी तक पहुंचे हैं परंतु देखने या देखने से संबंधित कोई शब्द दिखाई नहीं देता, जबकि भारत में बोलियों से लेकर संस्कृत और वैदिक तक ऐसे शब्दों का बाहुल्य है।

ऋग्वेद में संदृक्षसे, अदृक्षत, दृशे, दृशेयं, दृशये, ददृश्रे, दृशीकं, मिथूदृशा, भ्राजदृष्टयः, अदृश्रम,संदृग्, सुसंदृशं, सदृङ्ङसि, अदृप्तो, ददृशे, विसदृश, ददृशान, अप्रदृपितः,अदृपिताय, दिदृक्षेण्यः,दिदृक्षेयः, दूरेदृशः, अदृष्टा, विश्वदृष्टा, प्रत्यदृश्रन्, दृशानम्, दृश्यान्, ददृश्वानः, यादृक्, तादृग्, दृशि, दृशतिः, दृशीकम्, सुदृशी, सदृशीः, सुदृशीकरूपः, चित्रदृशीक, दर्शतम्, दर्शता, ददर्श, दर्शनाय, सुदर्शतरः, आदि प्रयोग देखने में आते हैं। परन्तु हम अभी तक यह तय नहीं कर सके हैं कि देववाणी में इसका कोई पूर्वरूप था या नहीं और यदि था तो क्या। क्या यह तिक था जो टीका, टकटकी, ती्क, प्रतीक, तिग्म था? देववाणी का आदि इकार सारस्वत में ऋकार में बदलता तो है, पर इसे हम अभी दूर की कौड़ी ही कहेंगे।

Post – 2018-06-23

#विषयान्तर

यदि कोई पूछे, धारा ३७० के विषय में तुम्हारा क्या विचार है?
मैं कहूंगा, इसे हटाने का अधिकार केवल कश्मीर की राज्य सरकार को है, उसका सम्मान किया जाना चाहिए। गलत या सही, जो भी अनुबंथ हैं उनका पालन करने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं, दल कोई भी हो सरकार एक ही होती है।
यदि कोई पूछे, ‘मोदी सरकार उसे हटाने की बात कर रही है। इसके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?
मैं कहूंगा, ‘धारा ३७० हटाई जा चुकी है, पिछली विधान सभा ने रोहिंग्या को बसाने के लिए यह कानून बनाया कि जो भी जहां है वहां की भूमि पर कब्जा करके उसका मालिक बन सकता है, उसका कश्मीर का मूल निवासी होना जरूरी नहीं और इसके माध्यम से जम्मू को भी मुस्लिम बहुल बनाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग किया, वह केवल मुसलमानों तक सीमित नहीं रह सकता। सहबूबा मुफ्ती को पूरी छूट देते हुए, उनसे सहयोग करते हुए भाजपा ने एक ही सफलता हासिल की, वह है धारा ३७० का हटाया जाना। हटाई जा चुकी धारा को दुबारा हटाने की जरूरत नहीं। जरूरत है सैन्य बल की सुरक्षा में कश्मीरी पंडितों और वहा नए उद्योग, व्यवसाय के लिए इच्छुक लोगों को योजनाबद्ध रूप में बसाना। धारा ३७० के चलते वहां एक ही उद्योग पनप सका, पत्थबाजी का उद्योग। कश्मीर के युवकों की बेरोजगारी दूर करने के लिए अब दूसरे उद्योगों का आरंभ हो। शिक्षा संस्थाएं चल सकें। अभी तक का हाल यह रहा है कि पत्थरबाजी उद्योग के निदेशकों के ही बच्चे पढ़ पाते थेऔर इसके लिए भी उन्हें बाहर जाना पड़ता था। अपने ही समाज को जाहिल बना कर अपना राज करने वालों का दौर समाप्त होगा, शिक्षित लोगों और नए काम के लिए तैयारी करने वालों की संख्या बढ़ेगी तभी वहां लोकतंत्र कायम हो सकता है, वहां का सही विकास होसकता है, और तभी अपने भाग्य का निर्णय करने की समझ पैदा हो सकती है।

Post – 2018-06-23

#विषयान्तर

कुछ हिन्दू जितना जितना इस्लाम की बुराइयों के बारे में चिन्तित रहते हैं, उतना हिन्दू समाज की बुराइयों के बारे में नहीं। यह क्छ वैसा ही है जैसे आप दूसरों की बीमारियों को लेकर अधिक चिन्तित हों, अपनी बीमारियों पर ध्यान ही न देते हों।

Post – 2018-06-22

#आइए_शब्दों_से_खेलें ( 4)

आंख पर बात करते हुए अपने बीजमंत्र को एक बार फिर याद दिलाना चाहेंगे कि जब हम पर्यायों पर, उनकी विभिन्न बोलियों से संबंध पर, बात कर रहे हैं तो हमारा ध्यान उनकी ध्वनि व्यवस्था पर है। शब्दो की व्युत्पत्ति पर नहीं। केवल यदा कदा ही उलझन को सुलझाने के लिए उसका स्पष्ट उल्लेख करते हैं, परन्तु आप स्वयं ध्यान दें तो उस नियम को सर्वत्र घटित होते पाएंगे।

विशेष भाषा भाषियों के संचलन, संपर्क, एकीकरण को व्युत्पत्ति से नहीं समझा जा सकता, क्योंकि भूभौतिक परिस्थितियां समान होने के कारण, सभी पर उत्पत्ति के वे ही नियम घटित होते रहे हैं, और यह प्रधान कारण है जिससे हमारे शब्दभंडार का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसके विषय में हम यह तय नहीं कर पाते कि मूलतः यह किस बोली का शब्द है। जैसे क्न, ग्न, ज्न में से सबसे पुराना कौन सा है।

ध्वनि नियमों पर एकान्त भरोसा करने वाला यह मान कर चलता है कि उसकी कल्पित भाषा में ये सभी ध्वनियां या तो थीं या कालक्रम से उच्चारण स्थान में परिवर्तन के कारण उत्पन्न हो सकती थीं और हुईं। इसलिए वह इस भिन्नता को एक ही भाषा के आंतरिक ध्वनि नियमों में परिवर्तन का परिणाम मानता है और इस रुप में इनकी व्याख्या भी कर लेता है। इस मामले में हमारा अपना परंपरागत तरीका पश्चिम के विद्वानों द्वारा भी अपनाया गया, इसलिए हम दोनों में इसी सीमा को लक्ष्य करते हैं।

इस तर्क से ज्+न भी ज् +ञ मैं बदल कर ज्ञ हो जाता है। सीमा इसलिए कहना पड़ रहा है कि अपनी पड़ताल में हम पाते हैं कि आदिम समाजों में बहुत कम ध्वनियों और एक सीमित संख्या के शब्दों से काम चल जाता था । आज भी किसी भाषा या बोली में सभी ध्वनियां नहीं पाई जाती। यहां तक की अ, ई जैसी मूलभूत प्रतीत होने वाली ध्वनियों तक का अनेक भाषाओं में अभाव है।

दूसरे, इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि भारत में ये सभी ध्वनियां क्यों पाई जाती हैं और यूरोप में एक में क्न (know/ knowledge)मिलता है तो दूसरे में ग्न (gnos) और एक से दूसरे में पहुंची शब्दावली में γιγνώσκειν (gignṓskein में पहली ध्वनि सुरक्षित रहती है, जो ज्ञान ही नहीं जिज्ञासा की भी याद दिलाती है। Old English cnāwan (earlier gecnāwan ) ‘recognize, identify’, of Germanic origin; from an Indo-European root shared by Latin ( g)noscere, Greek gignōskein, also by can1 and ken.विक्शनरी

वास्तविकता यह है कि जिसे हम ध्वनि नियम से समझने का प्रयत्न करते हैं उसे विभिन्न भाषाओं की ध्वनिगत सीमाओं से समझने का प्रयत्न करें तो चित्र अधिक स्पष्ट होगा। ध्वनिपरिवर्तन पर वहां भी ध्यान देना होगा, परंतु तब हम भाषा पर शुद्धतावादी या नस्लवादी सोच से बाहर निकल सकेंगे और पहले के अध्येताओं द्वारा किए गए विश्लेषण और जुटाई गई सामग्री का अधिक सार्थक और वैज्ञानिक उपयोग कर सकेंगे।

काल्डवेल ने अपनी विख्यात पुस्तक में आर्य भाषाओं से अलग द्रविड़ परिवार की स्थापना के लिए कुछ शब्दों की तालिका यह दिखाने के लिए बनाई थी कि अमुक के लिए अमुक शब्द का प्रयोग संस्कृत में होता है और तमिल मेंअमुक का। यह बहुत सतही और भ्रामक वर्गीकरण है जिसमें यह मानकर चला गया है कि दोनों परिवारों में किसी एक वस्तु के लिए यदि एक शब्द का प्रयोग होता था दूसरे का नहीं या जिसमें जिस रूप में उसका प्रयोग होता था दूसरे में उससे भिन्न रूप में उसका प्रयोग नहीं हो सकता था।

उस वर्गीकरण में उन्होंने यह दिखाया था की आंख के लिए संस्कृत में अक्षि का प्रयोग होता था और तमिल में कण् का। संस्कृत में आंख के लिए अक्षि, चक्षु, लोचन, दृग, नयन, नेत्र आदि अनेक शब्दों का प्रयोग होता था काडवेल को अक्षि की याद इसलिए बनी रही, क्योंकि अंग्रेजी के आई से उसका साम्य दिखाई दे रहा था। परंतु उनको इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए था कि भले कन् का अर्थ आंख हो, तमिल में देखने के लिए पार् और नोक्कु का इस्तेमाल किया जाता है।

संस्कृत में देखने के लिए सबसे अधिक प्रयोग दृग,का होता है परंतु द्रष्टा के लिए कण्व और दृष्टिबाधित के लिए काणा का प्रयोग प्रचलित रहा है और आँख का पुतली के लिए कनीनिका का। भारतीय भाषाएं एक दूसरे में इतनी घुली-मिली हैं कि यह तय करना कठिन है कि किसी भाषा के समग्र शब्द भंडार का कितना प्रतिशत उसका अपना है।

दृग, नेत्र जैसे शब्द देववाणी में नहीं हो सकते थे। अक्षि देववाणी का शब्द नहीं है। देववाणी में इसके लिए आंख शब्द का प्रयोग होता है। ऐसा लगता है कि पहले इसके लिए अक्क/अक्ख का प्रयोग होता था और यही सारस्वत भाषा में अक्ष बना। संभवतः अक्क / अक्ख का एक वैकल्पिक रूप इक्क/इक्ख भी था।

वास्तव में हम एक बहुत जोखिम भरे प्रस्ताव की ओर बढ़ रहे हैं। जिसे हमने परवर्ती सीमाओं के कारण क्ख के रूप में रखा है, संभव है वह ख्ख रहा हो। हम इसको इसकी तार्किक परिणति पर पहुंचाते हुए यह प्रस्ताव रखना चाहते हैं कि जैसे तमिल में वर्ग की प्रथम और पंचम ध्वनियां ही हैं उसी तरह देव वाणी में प्रथमतः केवल महाप्राण ध्वनियां ही रही हो सकती हैं। जो भी हो यह प्रस्ताव इतना उलझाने वाला है और इसका पक्का दावा करने के लिए जितने विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण की आवश्यकता है वह न तो एक व्यक्ति से संभव है, न ही जितना एक व्यक्ति से संभव है वह भी मेरे लिए सक्य है। हमारे इस सुझाव का आधार केवल यह था कि जिसे ऋग्वेद में इष- जल, रस, सोमरस, > इक्षु के रूप में लिखा पाते हैं उसका भोजपुरी में इख, ईख हो जाता है। काशी के पुराने संस्कृत विद्वान भी ष का उच्चारण ख के रूप में करते हैं। यह उसी पुरानी ध्वनि सीमा के कारण लगता है।

भोजपुरी में आंख का प्रयोग लगभग उन सभी प्राथमिक आशयों में होता है, जिनमें संस्कृत में अक्ष का प्रयोग होता है। संस्कृत में अक्ष और अक्षि मैं अर्थभेद किया जाता है, परंतु वैदिक में दोनों में कोई अंतर नहीं है (शतं चक्षाणो अक्षभिः)। यही स्थिति चक्ष और चक्षु की है (इन्द्र त्वा सूरचक्षसः /दिवीव चक्षुराततम् ) जिससे बांग्ला का चोख निकला है। भोजपुरी में चोख पैने या तेज के अर्थ में सीमित रह गया है। हम केवल यह समझा सकते हैं कि संस्कृत में देववाणी आंख के आशय में अक्क/अक्ख, इक्क/इक्ख, चक्क/चक्ख गया और सारस्वत क्षेत्र में पहुंचने के बाद रूपांतरित हुआ है। चक, चकित, चकचकाना, चाकचिक्य में प्रकाश का आभास बना रह गया है। रोचक यह है कि ऋग्वेद में निचिरा नि चिक्यतुः, विदथा निचिक्यत् , चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् जैसे प्रयोग बचे रह गए हैं।