Post – 2016-06-20

क्षेपक

उसने मुझसे पूछा, “नई जगह कैसी लगी।”
मैंने कहा, “पहले तो बहुत पसन्द आई, सोचा यहाँ के लोग खासे शरीफ हैं. पर अब पता चला कई ने कुत्ते पाल रखे हैं।”
“क्यों क्या तुम कुत्ता पालने वालों को शरीफ नहीं समझते?”
भई, सोहबत का असर तो पड़ेगा न!”
“तुम्हारे फेसबुक मित्रों में भी बहुतों ने पाल रखे होंगे । गालियां देंगे तुम्हें ।”
“कुत्ते की संगत में रह कर और दे भी क्या सकते हैं !”
तुम्हे कुत्ता पालने वालों से इतनी चिढ़ क्यों है यार ?”
“तुमने कुछ सुविधाओं से वंचित इलाको में फुटपाथ पर निबटते लोगों को देखा होगा । गुस्सा भी आया होगा और उनकी विवशता पर दया भी आई होगी पर इनके बारे में क्या कहोगे जो बीच फुटपाथ पर शौकिकया, अकड़ के साथ बाइ प्राक्सी लीद करते हैं । इसे सोहबत का असर नहीं कहोगे तो और क्‍या कहोगे।

Post – 2016-06-19

सो जानइ जेहि देइ जनाई

”तुम्हें पता है नेपाल के उनहत्तर साल के एक आदमी ने स्कूल में बच्चो के साथ पढ़ने की ठानी है।”

‘’देखा तो मैंने भी था। बहुत दिलेर आदमी है।‘’

‘’तुम कब भर्ती हो रहे हो?‘’

’’मैं हंसने लगा तो बोला, “तुम्हारी गणित बहुत अच्छी है, पूरे सौ तक की गिनती एक सांस में गिन सकते हो सीधी भी उल्टी भी। भरती हो जाओ तो औवल आओगे।‘’

उसने ठहाका लगाया तो उसमें मैं भी शामिल हो गया। संभला तो बोला, ‘’जब तुम किसी विषय की व्याख्या करते हो तो तुम्हांरे निष्कर्ष इतने साफ और अकाट्य लगते हैं जैसे दो धन दो बराबर चार का गणित। लेकिन जब असलियत पर गौर करो तो तस्वीर उल्टी दिखाई देती है। तुम क्या सोचते हो तुम्हारे कहने से दलित और पिछड़े और तंगहाल लोग शिक्षा में अवसर की समानता की जंग छेड़ देंगे।‘’

’’मैं इतना आशावादी नहीं हूं। तुमने ठीक कहा, मैं केवल गणित ही लगा सकता हूं कि यदि ऐसा हो जाय तो इसे रोका नहीं जा सकता, परन्तु वैसा क्यों नहीं हो रहा, या हो पाया और आगे आसानी से क्यों नहीं होगा, यह भी जानता हूं। इसके लिए जिस स्तर की जागरूकता चाहिए वह किसी में नहीं है। मैंने ज़ारा कैथरीन के हवाले से जो बात कही थी, वह भारत पर भी उतने ही सटीक ढंग से लागू होती है। तुम कैथरीन की सफलता की तुलना में नेहरू को नहीं रख सकते परन्तु आभामंडल में नेहरू जी अपनी लोकप्रियता के दौर में उससे कम नहीं थे और पश्चिम की नकल पर पूरब को ढालने और नवजागृति की प्रतीति कराने में उसके समान ही थे। और जो कड़वी सचाई मैं रखने जा रहा हूं वह यह कि जैसे कैथरीन ने अपने शिक्षा निदेशक के यह कहने पर कि हमने स्कूल तो खोल दिए पर उसमें पढ़ने वाले ही नहीं आ रहे हैं, यह कहा था कि निदेशक महोदय, हमने स्कू ल तो इसलिए खोले हैं कि दुनिया को बता सकें कि हम सभ्य हैं, परन्तु जिस दिन लोग उनमें पढ़ने आने लगेंगे उसके बाद न तो मैं इस जगह पर हूंगी न आप अपनी जगह पर, कुछ वैसा ही खयाल नेहरू जी का भी था। वह अभिजात वर्ग के आभिजात्य की रक्षा करते हुए प्रगतिशीलता का भ्रम न पैदा कर रहे होते तो उन्होंने स्वयं भारतीय भाषाओं को उच्च तम शिक्षा और प्रतियोगिता की भाषा बनाने की दिशा में पहल की होती। उन जैसा सुशिक्षित व्य‍क्ति शिक्षा के महत्व को न समझ सके यह सोच कर हैरानी होती है।‘’

’’इतना घालमेल ! इतना घालमेल ! मैं अपना पहला फैसला वापस लेता हूं कि तुम गणित में सही हिसाब लगा लेते। तुम तो सादे जोड़ की जरूरत हो तो टिगनामिट्री घुसा कर हल को हलाल कर सकते हो।‘’

“मैं यह कह रहा था कि आरंभ से ही हमने शिक्षा के महत्व को समझा ही नहीं। नेहरू जी को लीगियों के साथ मिली जुली सरकार चलाने में जो कुछ भुगतना पड़ा था, उसे देखते हुए उन्हों ने बाद में भी किसी मुसलमान को कभी भरोसे का नहीं समझा, मात्र दिखावा करते रहे और इसलिए ग़ृह, रक्षा, विेदेश, वित्त आदि पर किसी की नियुक्ति न की। ले दे कर शिक्षा, डाक, आपूर्ति आदि जैसे विभाग थे जिन पर उनको लगाए रखा। पाकिस्तान बन जाने के बाद कोई मुसलमान नेता खुल कर इस तरह के दावे भी नहीं कर सकता था, या करता तो इसके साथ ही सन्देह के घेरे में आ जाता।

“अब हम दुबारा प्राणिजगत की और लौटें तो हम पाएंगे हमारा पूरा अस्तित्व शिक्षा पर निर्भर है. वह हमारी मनोरचना हो, स्वास्थ्य हो, सुरक्षा हो या आहार और आनंद के साधन और माध्‍यम हों, सभी सही शिक्षा से सुनिश्चित किये जा सकते है और विकृत शिक्षा से इन सभी में विकृति पैदा की जा सकती है, इसलिए यह प्रतिरक्षा हो या गृह या विदेश के मामले हों, कोई भी महत्व की दृष्टि से शिक्षा विभाग की समता में नहीं ठहरता. परन्तु केवल भारत में नही पूरे विश्व में कहीं भी शिक्षा को वह महत्व नहीं दिया गया जो अन्य प्राणियों में दिया जाता है और जो विश्वसभ्यता के उत्थान के लिए ज़रूरी था. इसका कारण है कि दुनिया का कोई देश विश्वसमाज को सभ्य बनाना या देखना नही चाहता, क्योंकि यदि ऐसा हो गया तो अपने कमीने तरीकों से आगे बढे और बहुत अधिक शक्तिशाली हो चुके देशो का वही हाल होगा जिससे अपनी महानता और आधुनिकता और सभ्यता का दिखावा करनेवाली कैथरीन डरती थी.

सोच कर हैरानी होती है की ज्ञान और विज्ञान में इतना आगे बढ़ जाने कि बाद भी अपनी सभ्यता की मुनादी पीटते दुनिया के सभी अग्र्णी देश अपने समाज को अपने अपने ढंग से कुशिक्षित कर रहे हैं वर्ना जितने धन की बर्वादी सेना, पुलिस, न्याय, और जेलखानों और पागलखानों पर होती है उसका आधा भी मानव जाति को एक प्रजाति के रूप में, समग्र के हित में, शिक्षित करने पर खर्च किया जाए तो इन समस्त विकृतियों से बचा जा सकता है और इतना सुखी संसार बसाया जा सकता है जो अपनी ऎसी समस्याओं का भी समाधान निकाल ले जो आज असाध्य प्रतीत हो रही हैं और बढ़ती हुई जनसंख्या और घटते हुए संसाधनों के कारण मानव समाज मानवनिर्मित अकाल, सूखे और महामारी से भरे भविष्य की और मूढ़भाव से बढ़ता चला जा रहा है.”

“कभी अपनी सीमा में रहकर बातें किया करो यार! बात बात में फर्रांटे भरने लगते हो कि जमीन से नाता ही टूट जाता है.”

“खैर, मैं कह रहा था की यूँ तो पूरी दुनिया में कही भी मनुष्य को मनुष्य बनाने की तुलना में आदमशक्ल पशु बनाने की ही शिक्षा दी जा रही है जो दूसरों से छीन और लूट कर अपना पेट इस हद तक भरने का आदी होता जाए कि विश्व मानव की कल्पना तक न कर सके पर पिछड़े समाज यह मूर्खता नही कर सकते या करेंगे तो उनके ही ग्रास बनते रहेंगे जिन के सदियों से बनते आ रहे हैं.”

“कई बार जी में आता है तुम्हारे साथ बात करने के लिए एक छड़ी लेकर बैठना चाहिए जिससे तुम इधर उधर भागने लगो तो एक दो लगा कर सही लीक पर लाया जा सके.”

“मैं कहना यह चाहता था की शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी किसी ऐसे व्यक्ति को न सौंपनी चाहिए थी जिसका लगाव फारसी और अरबी से या संस्कृत से बोलचाल की भाषा की तुलना में अधिक हो. ऐसे व्यक्ति को दूर देश या सुदूर काल की भाषा से कोई दुराव नही हो सकता. हमारे पहले शिक्ष मंत्री तो अपने भाषणों में भी फारसी बोझिल जबान बोलते थे मानो पूरा भारतीय समाज रईस मुसलमानों का समाज हो. नेहरू जी की उस गांठ के कारण जो, एक दो अपवादों को छोड़कर, आगे भी चलता रहा शिक्षा का भार ऐसे लोगों पर रहा जो इस देश की संस्कृति से, इसके इतिहास से, इसकी मूल्य प्रणाली से, इसके विविध मतों और विश्वासों से परहेज़ करते थे और इसलिए उनकी योजना में एक स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर, महत्वाकांक्षी समाज के निर्माण की कामना के विपरीत इसे एक दबा हुआ, कुचला हुआ, इतिहास में बार बार कुचला जाता हुआ, निःसत्व् और कातर समाज के रूप में प्रस्तुत करने की ललक थी और इसी दिशा में उन्होंने काम किया. तो एक तो सबसे बड़ी कमी जो पूरे राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई देती है वह है आत्मविश्वास की कमी, आत्माभिमान की कमी, राष्ट्रनिष्ठा की कमी और इनके चलते अपनी भाषाओँ के सामर्थ्य पर विश्वास की कमी जिसे दूर करने की इच्छाशक्ति तक की कमी दिखाई देती है.

“तुम्हारी एक कमी ने दिन में तारे दिखा दिए, अब आगे बढे तो एम्बुलेंस की जरूरत पड़ जायेगी! अप्पन तो खिसके.”

Post – 2016-06-19

जांच दल के सामने एक बयान

हम वो नहीं हैं जिनके कसीदे पढ़े गए
हम वो हैं जिनको अपने ही घर में जगह नहीं
पूछे हैं खैरियत तो है, क्यों हो उदास कुछ
कहते हैं रंजो ग़म की तो कोई वजह नहीं।
गलियों में भटकते हैं तो कहते हैं लोग बाग
हम चाहते अमन हैं, कहीं भी कलह नहीं।
हम वो नहीं हैं जिनको शहरबद्र कर दिया
हम वो है जिनकी शाम है लेकिन सुबह नहीं।
19 जून 2016

Post – 2016-06-18

हम भी सोचेंगे कि वह दौरे सितम था कि नहीं
हम भी समझेंगे कि यह दौरे सितम है कि नहीं।
तेरी बातों में फरेबों के भी अन्द र हैं फरेब
हम भी देखेंगे तू जल्लाद से कम है कि नहीं।

Post – 2016-06-18

पीछे की दास्तां और आगे का रास्ता

उसने बैठने के साथ ही छेड़ा, ”हां तो तुम कुंठाओं और पूर्वाग्रहों का क्या उपचार सुझा रहे थे?”

”यदि उपचार का पता होता तो मैं स्वयं अपनी कुंठाओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त न हो लेता।”

” लेकिन कल तो तुमने…”

मैंने उसे अपना वाक्‍य पूरा करने न दिया, ” कल की बात तो कल कही थी, तुमसे छुट्टी पाने के लिए।” में हंसने लगा तो उसका चेहरा देखने लायक था।

उसकी बेचैनी को कुछ और बढ़ाते हुए मैंने कहा, ‘’और जो बात कही थी उसे तो तुमने ध्यान से सुना तक नहीं।‘’

”अजीब अहमक आदमी हो।”

मैंने कहा था, ‘’कुंठाओं और पूर्वाग्रहों का उपचार क्या हो सकता है इस पर हम कल बात करेंगे।। यह तो नहीं कहा था कि उपचार कर देंगे या उपचार मुझे मालूम है।‘’

उसकी मुद्रा से लग रहा था कि वह छला गया सा अनुभव कर रहा है। थोड़ी बहुत शरारत तो मेरी ओर से हुई भी थी। अब मैं गंभीर हो गया। ’’देखो पूर्वाग्रहों से मुक्ति का पहला उपाय यह है कि यदि कोई व्यक्ति कुछ कह रहा है तो उसे ध्यान से सुनो। पहले से ही यह न सोच लो कि वह अमुक है इसलिए अमुक बात या अमुक इरादे से कोई बात कहेगा। इसका मतलब यह नहीं कि उसकी जाति, धर्म, देश, अंचल, समाज, लिंग, आर्थिक दशा, और विचारधारा आदि असंख्य विशेषताओं से वह मुक्त है, मतलब केवल यह कि तुम इनके आधार पर बने अपने पूर्वाग्रहों को उस पर पहले से ही लाद कर उसे न सुनो, इस स्थिति में तुम उसे पूरी तरह न सुन पाओगे न समझ पाओगे। फिर उसकी सीमाओं से उसे बाहर लाने का तो प्रयत्न कर ही नहीं सकते, उल्टे उसे धक्का दे कर उसी सीमा में रहने को विवश कर दोगे।‘’

अब वह कुछ व्यवस्थित हुआ, ‘’मैंने अपनी ओर से कुछ लादा नहीं था। तुम्हारे कथन में ही तुम्हारे वर्गीय, जातीय आग्रह थे और उनकी ओर ध्यान दिलाते हुए तुमसे इनसे मुक्ते होने को कहा था।‘’

’’मैंने तो इतिहास और समाज की तस्वीर पेश की थी, अपनी ओर से तो कुछ कहा ही नहीं था। तुम देख नहीं पाते या जो दीख रहा है उसे अपनी इच्छा के अनुसार तोड़ मरोड़ कर देखना चाहते हो तो दोष तुम्हारे पूर्वाग्रहों या सदिच्छाओं का है। समझते समय सचाई को सद्भावना से भी नहीं बदलना चाहिए नहीं तो तुम उसके चरित्र को समझ ही न सकोगे। समझने के बाद वर्तमान को बदलते समय सद्भावना से काम लिया जाना चाहिए जब कि तुम मेरे ही प्रति दुर्भावना प्रकट कर रहे थे।

”सामाजिक न्याय की बात करते समय कुछ बुनियादी सचाइयों से मुंह मोड़ोगे तो यह बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ पाएगा। पहली बात यह कि समाज सबके साथ समान स्तर पर आने पर अपने अधिकतम उल्लास और आनन्द की अवस्थान में होता है, यह सामूहिक भोजों और भागीदारी के अन्‍य क्षणों में आज भी दिखाई देता है। यह सहभागिता क्षणिक होती है जब कि आदिम अवस्थार में यह अपनी पूर्णता पर था इसलिए आहार संग्रह के उस चरण को सतयुग की संज्ञा दी गई। परन्तु उस अवस्था में मनुष्य विविध जानवरों के बीच डरा सहमा हुआ एक जानवर ही था जिसके अभाव के दिन बहुत कष्टदायी थे। आज के आदिम जनों की दशा से उस काल के मनुष्‍य की तुलना नहीं की जा सकती। आज का आदिम जन भी या तो किसी पैमाने पर खेती करता है या कृषि उत्पााद उसे बदले में मिल जाते हैं। खेती से पहले, उन दिनों, जब कन्द मूल फल शाक का अभाव हो जाता था, दुर्भिक्ष की सी स्थिति होती थी। इसी ने किसी मनस्वी के मन में यह स्वप्न जगाया था कि यदि उन अनाजों का जिन्हें वन्य ओषधियों से जुटा कर खाया जाता है, अधिक मात्रा में उत्पादन एकत्र किया जा सके और उसे दूसरे जानवरों से बचाया जा सके तो दुर्दिन न देखने पड़ें और उसने अपने जत्थे के लोगों को अपने विचार का कायल कर दिया था और इसके लिए उन्होंने इस प्रयोग को किसी भी कीमत पर सफल करने का संकल्प ले लिया था। उस व्यक्ति को हम नहीं जान सकते। उसे मनु कह लो।”

”तुम पुराणों से बाहर नहीं निकल सकते, यह मुझे पता है।”

”मनु का अर्थ ही है मनस्‍वी व्यक्ति, जिसके लिए होमो सापिएन सापिएन का प्रयोग किया जाता है। यदि वाचिक संकेत प्रणाली का, जिसे हम भाषा कहते हैं, आविष्कार करने वाला होमो सापिएन अफ्रीका में पैदा हुआ तो कृषिकर्म की सूझ वाला यह होमो सापिएन सापिएन भारतीय परिवेश में पैदा हुआ।

”जिन लोगों ने यह महान प्रयोग किया, वे वलिदान दिए जिसको प्रतीक रूप में ब्राह्मणों के खून से भरे घडे से सीता या हराई का या कृषिभूमि का जन्म बताया जाता रहा है, वे अपने को ब्राह्मण कहते थे और इस भूमि को समतल, सुषिर, उर्वर, सिंचित बनाने और अपने श्रम और तप से, प्रकृति की समस्त क्रूरताओं को झेलते हुए कृषि भूमि बनाने वाले समूची धरती को कभी अपनी संपत्ति होने की कल्पना करते रहे तो इसके लिए वे उपहास, उपेक्षा या अपमान के पात्र तो नहीं हैं, न ही जिन लोगों ने इस पहल में लगातार बाधा पहुंचाई और पिछड़े रह गए और उनमें से अधिकांश को हार कर भूसंपदा पर अधिकार करने वाले इन लोगों की सेवा में विविध योग्यताओं के साथ जुटना पड़ा उनकी इस विवशता को उनका त्या,ग कह कर महिमामंडित करने की आवश्यकता है।

”मैं यह समझा रहा था कि यहीं से वह आधार तैयार होता है जहां संपत्ति पर अधिकार करके, बाद में श्रमकार्य से विरत रह कर भी, दूसरों से श्रम करा कर, उनके श्रम पर पलने वालो का अन्तर पैदा होता है और आगे बढ़ता जाता है। श्रम के अभाव में भी लाभ पर अधिकार के लिए संस्थाओं का संगठनों का, उसे उचित ठहराने के लिए विचित्र अवधारणाओं का सहारा तो लिया ही जाता है साथ ही संगठित सैन्य बल की नींव पड़ती है और इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि श्रम करने वाले संगठित न होने पाएं और उनके पास औजार तो हों परन्तु हथियार नहीं, औजार भी इतने विकसित न होने पाएं कि वे हथियारों से अधिक प्रभावशाली हो जाएं। विषमता को जारी रखने के लिए जिस तन्त्र का या तामझाम का विकास होता है उसी का दूसरा नाम सभ्यता है जिसे मानवीय दृष्टि से बर्बरता भी कहा जा सकता है।

इसलिए पूरे इतिहास में आदिम अवस्था के बाद कभी समता स्थापित न हुई। समता की अवधारणा और ऐसी दूसरी मोहक आकांक्षाएं जो सबका मन मोह लें, दबे और पिछड़े या अभावग्रस्त लोगों की आवाज रही है और इसकी शक्ति नैतिकता और औचित्य के कारण रही है और कुछ सतयुग की बची हुई याद के कारण। मेरी जानकारी में सबके अभाव मुक्‍त होने की बात करने वाला पहला कवि ऋग्वेद का भिक्षु आंगिरस है।

” इस नैतिक आग्रह के कारण दान, सदावर्त और लंगर और दूसरी ऐसी संस्था ओं का भी जन्म हुआ जो आज के सौ‍ दिन के काम या मिड डे मील, आरक्षण आदि के पुराने रूप रहे हैं। ये भी दूसरे घटाटोपों की तरह ढकोसले हैं और इनसे आर्थिक बराबरी नही आ सकती थी, उसमें रुकावट अवश्य पड़ सकती थी। इनसे परजीवी और दबे कुचले, आरामतब और कामचोर जमात पैदा होती है । समता, स्वतन्त्रता और भाईचारा की पुरानी आकांक्षाओं का प्रयोग उस बोर्जुआ वर्ग ने एक झांसे के रूप में फ्यूडलिज्‍म के बंधन से मजदूरों को मुक्‍त करा कर अपने उपयोग में लाने के लिए किया जिसके साथ अन्या‍य और शोषण और उग्र हुआ परन्तु उसी नारे से और उस असफल क्रान्ति की राख से पैदा हुई वह विचारधारा जिसके जनक के नाम पर हम इसे मार्क्सवाद कहते हैं।

”इस विचारधारा ने कुछ देशों में क्रान्ति की यह इसकी सफलता नहीं है, जहां कुछ नहीं हुआ, इसके प्रवेश के रास्तेे रोकने के लिए भी रियायते देते हुए एक नयी सभ्य ता की नींव पड़ी जिसमें समानता एक अधिकार बन जाता है और इसे लोकतन्‍त्र ने एक संभावना में बदला, भले इसे सचाई में बदलने के रास्ते में असंख्य बाधाएं खड़ी की जायें।

”जब तक वे संस्थाएं अस्तित्व में हैं जो विषमता और अन्या य को जारी रखने के लिए बनाई गई हैं तब तक समानता एक रिरियाहट ही बनी रहेगी।

”अब तुम मेरी बात को समझो, विषमता को कायम रखने के लिए शस्त्र बल, समाज और व्यहवस्था को नियन्त्रित करने वाली शिक्षा पर उस वर्ग का अधिकार रहा है जिसका संपदा पर अधिकार है। लोकतन्त्र ने और वयस्क मताधिकार ने पहली बार विपन्न वर्ग के पास भी सत्ता के चरित्र को बदलने का एक हथियार दिया है। वह इसका सही इस्तेमाल करे तो समतामूलक समाज की स्थापना संभव है, परन्तु उसे बांटने और बहकाने के प्रयत्न भी जारी हैं। ज्ञान और शिक्षा की भाषा को शासक वर्ग आम लोगों के लिए सदा से दुर्बोध बनाता रहा है। आज भी ऐसा ही है। अवसर की समानता का आश्‍वासन और शिक्षा तक सबकी समान पहुंच का अभाव, यह सुनिश्चित करने के लिए कि विषमता का ढांचा जस का तस बना रहे। यह एकाधिकार शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने से ही टूटेगा है और वह सर्वसुलभ भाषा को सर्वोच्च आसनों तक पहुंचाने वाली भाषा बनाने पर ही हो सकता है।

”इसलिए जो सचमुच सामाजिक आर्थिक भेद को दूर करने की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, उन्हें एकलव्य के अंगूठे की लड़ाई नहीं, अपनी जबान को आवाज देने की लड़ाई के लिए समाज में चेतना फैलानी चाहिए। यह पहले मोर्चे पर विजय होगी। इसके पूरा होने पर अगली मंजिलों का रास्ता खुलेगा। संस्कृत और ब्राह्मणवाद अब खिलौने के हाथी और शेर जैसे हैं, आज के आर्थिक जंगल के खतरनाक जानवर अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजियत और आन्तरिक उपनिवेशवाद है।‘’

उसने लंबी हुंकारी भरी । पता नहीं सहमति में या असंतोष में।

मैंने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा, ‘जब यह बात समझ में आ जाएगी तो कुंठाएं भी दूर होंगी और पूर्वाग्रहों में भी कमी आनी आरंभ होगी।‘’

Post – 2016-06-17

अल्पज्ञता आत्‍मविश्वास की जननी है

“ देखो, तुम तर्क अच्छे दे लेते हो, विरोधी को चुप भी करा देते हो, पर खुद अपनी जाँच करके यह नहीं देखते कि तुम्हारी पूरी सोच में एक दकियानूसीपन है। तुम्हारी उदारता में अपनी संकीर्णता को छिपाने की एक कोशिश रहती है । उदार बन नहीं सकते, उदारता का पाखंड रच सकते हो।‘’

मेरा खीझना स्वाभाविक था, ‘’मैंने तुमसे बहस क्यों शुरू की थी याद है।‘’

इतनी पुरानी बात उसे याद कैसे रहती ।

‘’मैं तुम्हे अच्छा कम्युनिस्ट बनाना चाहता था, पर तुम ठान बैठे हो की हम अपनी चाल ढाल बदलेंगे नही. नया कुछ सीखेंगे नहीं । मैं लगातार याद दिलाता आया हूँ की तुम फासिस्टों की भाषा बोलते हो और कम्युनिस्ट होने का दावा करते हो और इस भाषा के कारण फासिज्म और कम्युनिज्म में जो फर्क हो सकता था, उसे भी मिटा दिया है।‘’

बोला, ’’मैं तुम्हारे ढोंग को उजागर कर रहा था ! इसमें फासिस्टों की भाषा कहां से आ गई।‘’

’’ तुम लोग क्या फासिस्टों की तरह अभियोग, लांछन और भर्त्सना की भाषा में घृणा फैलाने का कारोबार नही करते हो? एक मार्क्संवादी को जो गलत लगे उसका खंडन करना चाहिए। कारण और प्रमाण पेश करते हुए अपनी बात सिद्ध करनी चाहिए। यह बात तुम्हारे पाठकों और श्रोताओं को तुम्हारे पक्ष को समझने में और अपनी मान्यताएं बदलने में सहायक होती। पर तुम ऐसा समझाने के बाद भी नही कर पाते। जिनसे असहमत हो उनके प्रति घृणा पैदा करने की कोशिश करते हो और तुम्हारी इस कोशिश के समानान्तर ही लोगों को तुमसे विरक्ति होने लगती है। मार्क्सवाद का आधार लगातार क्षीण होने का इन्तजाम खुद करते हो और रोते हो कि जिसे तुम घृणित सिद्ध करने के लिए लगातार चीख रखे थे उसने तुम्‍हारी चेतावनी के बाद भी लोगों को भ्रमित कर दिया। तुम उसे मूर्ख सिद्ध करना चाहते हो जब कि वह अपनी बात लोगों को समझा लेता है और तुम अपनी बात समझा नहीं पाते। मूर्ख कौन सिद्ध होता है। मैंने बार बार यह दुहराया है कि नफरत करने वाला जिससे नफरत करता है उससे दूर भागता है इसलिए उसे समझ नहीं पाता। जिसे तुम समझ नहीं पाते उसे परास्त कैसे कर सकते हो। तुम नफरत पैदा करते हो और सोचते हो इससे तुम्हारी पवित्रता स्वत: सिद्ध हो जाएगी परन्तु लोग तुम्हें बदजबान मान कर तुमसे ही नफरत करने लगते हैं । समझ के इतने धनी कि इतनी मोटी सी बात समझ में नहीं आती।”

उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें दिखाई दी, फिर वह संभल गया, ‘’भाई मैं तुम्हारे दुहरे चरित्र को उजागर करते हुए तुम्हें सुधारना चाहता था। तुम अपनी घबराहट में इसे अभियोग समझ लो तो मैं क्या कर सकता हूं ।‘’

‘’तुम मुझे दुहरे चरित्रवाला या दकियानूस कहने की जगह उन तथ्यों और तर्कों को तो रख सकते थे जिनके आधार पर यह धारणा बना ली । अपने विरोधी की लकीर को काट कर बड़ा बनने की जगह एक उससे बड़ी लकीर तो खींच सकते थे। यह तो सोच सकते थे कि पाजिटिव सजेशन हो या निगेटिव दोनों जिस पर केन्द्रित होते हैं वह लोगों की चेतना के केन्द्र में बना रहता है और दूसरे धूमिल पड़ते जाते हैं। समाचार माध्यमों से लेकर समाचारपत्रों और अपने को प्रगतिशील सिद्ध करने को आतुर बुद्धिजीवियों और अन्य पार्टियों के लोगों के पास सारे दिन यहां तक की सपने में भी लगातार एक ही बात करते पाता हूँ । तुम कहोगे निन्दा करके उसे मिटाने के लिए सभी एकजुट हो रहे हैं, पर सचाई यह है इस प्रयत्न में वे स्वयं टूट और बिखर रहे हैं, उनका गला बैठ रहा है, वे चीखते हैं और आवाज़ फट जाती है! वे उखड़ भी रहे हैं और बिखर भी रहे हैं। तुम सभी मिल कर मोदी का काम कर रहे हो और मोदी अपना काम कर रहा है. ऐसे दौर इतिहास में बहुत कम आते हैं जब पूरा देश एक ही आदमी का काम कर रहा हो. एक ही चादर बुनी जा रही है आधे इस ओर सं बुन रहे हैं आधे उस ओर से और यह झोल उस हाथी का बनेगा जिस पर मोदी सवार है।

“मैं बार बार यह दुहराता हूं कि मुझसे ऐसी गलतियां हो सकती हैं जिनकी ओर मेरी नजर न जाए और यदि कोई दूसरा उनकी ओर संकेत करे तो मैं उसे सुधारते हुए अपना निर्णय भी बदल सकता हूं। इसे कहते हैं एक मार्क्सतवादी का तरीका, वह दुनिया या समाज या उसके किसी हिस्सेि को मिटाता नहीं है, बल्कि बदलता है और इस क्रम में अपने अनुभव से अपने को भी बदलता है । यदि उसने आज या पहले, यहां या कहीं, किसी को मिटाने का काम किया तो वह उसी अनुपात में निहिलिस्ट या सर्वनाशवादी है। तुम लोग इन दोनों भूमिकाओं में फर्क करना भूल चुके हो। तुम्हारी रक्त पि‍पाशा दुनिया को बदलने आकांक्षा की तुलना में अधिक उग्र है।‘’

वह हंसने लगा, यार मैं जानता हूं तुम बात को कहीं से कहीं घुमा सकते हो, और सच को गलत और गलत को सच साबित कर सकते हो, पर गलत सिद्ध होने के बाद भी सच सच ही रहता है, उसके बारे में लोगों की समझ गलत अवश्य बन जाती है। मैं तुम्हारी शर्त मानते हुए अपनी आपत्ति रखता हूं। कल जब तुम बोल रहे थे तो देखा होगा बीच बीच में मैं अपने सेलफोन में कुछ नोट भी कर रहा था, इसलिए मैं तुम्हारी ही बातों से तुम्हारी उस पिछड़ी सोच को उजागर करता हूं जिसे तुम तर्क जाल में छिपा लेते हो।

“पहली बात तो तुमने आर्थिक और सामाजिक विषमता को सर्जनात्मकता से जुड़ा बता कर विषमता का समर्थन किया और यह कहा था कि समता केवल आदिम अवस्था में ही संभव है। अर्थात तुम आगे भी समानता की सम्भावना को असम्भव बताते हो.

“दूसरी, तुमने कहा मनुष्य की चेतना में सत्ता के प्रयोग से विकृति ही आ सकती है इसलिए समाज की सोच में परिवर्तन लाने के लिए राजनीति से विमुख रहना जरूरी है। अन्त में यह भी मान लिया कि वजीफे वगैरह से समाज को नहीं बदला जा सकता और इस तरह तुम समाज के पिछड़े वर्गों को मिलने वाली सहायता और आरंक्षण के एक मात्र सहारे को भी उनसे छीनने की परोक्ष वकालत कर रहे थे।

”अब मैं बताउं ऐसा तुम्हारी प्रकट सदाशयता के बाद भी क्यों होता है। क्योंकि तुम भी तुलसी की तरह सवर्ण हो और जिन्हें आज तक दबा कर रखा गया है उनको अपनी बराबरी पर नहीं आने देना चाहते। तुम अपने को उदार दिखाने के लिए सोच के स्तर पर मानवतावादी बनते हो, पर अवचेतन स्तर पर, जिसको तुम स्वयं भी समझ नहीं पाते, पुराने भेदभाव को बनाए रखना चाहते हो। सत्ता से बहुत कुछ होता है, पर कुछ ऐसा भी है जो केवल सत्ता से नहीं हो सकता, यह मानता हूं, परन्तु जो कुछ हो सकता है या हुआ है, तुम उसको नहीं देख पाते, जैसे जाति का नाम लेकर संबोधन को अपराध मानना, अश्पृश्यता को अपराध मानना, स्त्री को समान अधिकार प्रदान करना, यह सब क्या कोई समाज-सुधारक कर सकता है या दर्शन बघारने से हो सकता है। और जो इन अवसरों का लाभ उठा कर उन्हींं पिछड़े जनों में से आगे आते हैं और अपना पक्ष जोरदार ढंग से रखते हैं, वह क्या अन्यथा हो सकता था। तुम इन सबकी अनदेखी करके एक तो सत्ता और समाज में न पटने वाली दूरी पैदा करते हो, और फिर ऐसे सुझाव देते हो जिन पर चला जाय तो समाज का भेदभाव कभी समाप्त हो ही नहीं। समझे।‘’

उसने विजेता के दंभ से मुझे देखा ही नहीं, उसका हाथ उस जगह पर भी चला गया जहां मूछ हुआ करती है, भले इस समय वह साफ थी। मैं चुप रहा, उसके विजयोल्लास का मजा लेता रहा, जब लगा कि वह मेरी बात भी सुन सकता है तो धीरे से कहा, ‘’तुम्हारा यह कहना बहुत सही है कि हमारे बहुत सारे संस्का र और पूर्वाग्रह हमारे अवचेतन में उतर चुके होते हैं और वे हमारे सोच और विचार को बहुत सूक्ष्म रूप में प्रभावित करते हैं जिसके प्रति हम सचेत हो ही नहीं सकते। हठ पूर्वक सचेत होने चलें तो सोचना संभव ही न होगा, उसकी गुत्थियां ही सुलझाते रह जाएंगे। परन्तु जिस पर हमारा वश नहीं उसके लिए हम दोषी तो नहीं हो सकते। कानून तो बेहोशी, बदहवासी, प्रमाद या उन्माीद में किए गए हमारे व्यवहार के लिए भी दण्ड का नहीं उपचार का समर्थन करता है। इसलिए विचार केवल हमारे सचेत व्यवहार और प्रयत्न‍ की परिधि में ही संभव है और उसी के आधार पर हमारा मूल्यांकन हो सकता है।

’तुम्हांरी एक दूसरी बात भी बहुत सही लगी कि सत्ता की परिवर्तनकारी भूमिका को मैंने समझने में कुछ शिथिलता बरती, समाज और सत्ता दोनों अन्योन्याश्रित हैं। बहुत कुछ उसी तरह जैसे हमारी भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन हमारी चेतना में भी गुणात्मोक परिवर्तन करता है और इसी तरह हमारे बौद्धिक प्रयास से हमारी भौतिक परिस्थितियों में भी परिवर्तन आता है।

“परन्तु, जो बात तुम्हा्री समझ में नहीं आई वह यह कि मैं चिंतक, रचनाकार, शिक्षक को सक्रिय राजनीति अलग रखने या रहने की बात कर रहा था, सत्ता से दूरी बना कर रहने की बात कर रहा था क्योंकि इससे इनकी वैचारिक आप्तता समाप्त होती है. दूसरे, मनुष्य को मनुष्य बनाने की दृष्टि से इनका अपना क्षेत्र अधिक प्रभावशाली है और राजनीतिक पक्षधरता उनकी अपने अधिकार क्षेत्र की सक्रियता को प्रभावित करती है. जिस तरह एक जज को, एक चिकित्सक को, एक विश्लेषक को राजनीति की समझ तो रखनी चाहिए राजनीतिज्ञों का औज़ार नहीं बनना चाहिए, सत्ता से प्रभावित नही होना चाहिए उसी तरह अध्यापकों और छात्रों को भी राजनीतिक दलों का औज़ार बनने की जगह अपनी ऊर्जा अपने विषय पर अधिकार प्राप्त करने पर लगाना चाहिए। जो काम वे राजनीतिक सक्रियता के नाम पर कर रहे हैं उसके लिए तो पढ़ाई से अधिक फेफड़े की ताकत की ज़रुरत है। जितना ही कम जानोगे उतनी ही ऊंची आवाज़ में और अधिक आत्मविश्वास से गर्जना कर सकोगे। अल्पज्ञता आत्मविश्वास की जननी है । सोचना यह है कि यदि हमारे मन में पूर्वाग्रह बने रहते हैं तो वे अकेले तथाकथित सवर्णों के मन में नहीं बने रहते, पिछड़ों की कुंठा तो अकूत है। इसका उपचार क्या हो सकता है इस पर हम कल बात करेंगे।

Post – 2016-06-16

दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय

उसने बेकार की बहस से पिंड छुड़ाने के लिए सुझाया, ‘’हम अपनी बात शिक्षा तक सीमित रखें तो अधिक अच्छा हो!’’

‘’शिक्षा नहीं सामाजिक न्याय! देखो अधिक पाने, अधिक जुटाने, केवल अपनी सुरक्षा की अधिक चिन्ता से श्रम और प्रयत्न का रूप भी बदलता है, सृजनात्मकता भी आती है और आर्थिक विषमता भी पैदा होती है और इस आर्थिक विषमता के चलते सामाजिक विषमता भी पैदा होती है, भले वह शिलीभूत हो या न हो! यह एक प्रक्रिया है! प्रगति विषमतामूलक है! यथास्थितिवाद समतामूलक हो सकता है, यद्यपि यह केवल आदिम समाज और आदिम जीवनशैली तक सही था।”

‘’तुम्हें नहीं लगता, इस बहाने तुम आर्थिक विषमता को भी बनाए रखना चाहते हो और सामाजिक भेदभाव का भी समर्थन कर रहे हो! इन दोनों में से किसी से मुक्ति की चिन्ता तुम्हें नहीं है!’’

‘’आकांक्षा और सदभावना से यथार्थ की जटिल और कुटिल बनावट को नहीं समझा जा सकता! बिना किसी वस्तु के चरित्र को समझे उसे नहीं बदला जा सकता! तुम उल्टी दिशा से काम करते हो! बदलने की जल्दबाजी में समझने की जरूरत ही नहीं समझते, बल्कि समझ को उत्साह का शत्रु मान कर उससे काम लेने को कायरता या पलायनवाद कह कर उसे हतोत्साहित करते हो! बीच में सोचने की गुंजायश नहीं बचती! इसलिए आदर्श से आकर्षित हो कर पढ़े-लिखे, संवेदनशील लोगों की संख्या वामपंथ में भले बहुत बड़ी हो, अपने आकार और मुखरता के कारण, वह डरावना भले लगे, परन्तु जहाँ तक अक्ल से काम लेने का सवाल है इनमें और उन विचारधाराओं या विश्वासधाराओं से इनका कोई अन्तर नहीं है जिन्हें ये प्रतिक्रियावादी कह कर उनके लेखन को समझने का प्रयत्न तक नहीं करते कि वे अपने प्रभावक्षेत्र में किन तरीकों से, किस आधार पर किस मानसिकता का निर्माण कर रहे हैं । यही काम वे भी अपने से भिन्न विचारों के लेखन के विषय में करते हैं परन्तु् वामपंथियों से कुछ कम। वैचारिकता को ऐसे सभी संगठन हतोत्साहित करते हैं जो साध्य को सिद्ध करना चाहते हैं और इस बात की चिन्ता नहीं करते कि उनके साधन क्या और कैसे हैं। केवल युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज नहीं है, ‘जो पाना है उसे पाकर रहेंगे’, ‘लक्ष्य हासिल करके ही दम लेंगे’, ‘सफलता किसी भी कीमत पर’ जैसे प्रेरक वाक्यों से परिचालित सभी संगठनों में सोचना हासिल करने के तरीके से आगे या इधर-उधर नहीं जा सकता । इस माने में सेना, पुलिस, राजनीतिक संगठन, सामाजिक आन्दोलन सभी का चरित्र ‘कुछ भी जायज है’ के सिद्धान्त से ही परिचालित होता है ! इनकी सफलता का यह हाल कि जिन समस्याओं के कारण ये अस्तित्व में आते हैं वे कभी खत्म होने ही नहीं पातीं! समस्याओं के समाधान का आश्वासन देते हुए भी ये स्वयं समस्याओं के जनक बने रहते हैं!’’

‘’वाह! ‘इक जरा छेड़िए फिर देखिए क्या होता है!’ सीधे नहीं कह सकते थे कि मैं सामाजिक और आर्थिक विषमता को दूर करने का पक्षधर हूँ!’’

‘’कह तो सकता था, पर उस दशा में यह न कह पाता कि सामाजिक आर्थिक विषमता के नाम पर लोगों को संगठित करने वाले तुम स्वयं अपने अस्तित्व के लिए इनको दूर होने ही नहीं देना चाहते! समस्या सुलझ गई तो तुम्हारा क्या होगा? बेरोजगार हो जाओगे! इसलिए ‘विषमताओं को दूर करने के लिए पहले तुमको मिटाना या रास्ते से हटाना जरूरी है’, यह सन्देश तो दे ही नहीं पाता! और दूसरी ओर यदि मैं इतने संक्षेप में कह देता कि मैं इनके उन्मूलन में तुमसे अधिक रुचि रखता हूँ तो क्या तुम विश्वास कर लेते? कहते शब्दों से ‘हां’ कह रहा हूँ और अपनी व्याख्या से ‘ना’ कह रहा हूँ, क्योंकि मेरी व्याख्या तुम्हारी इच्छापूर्ति तो कर नहीं रही थी! उसमें तो बाधाओं, रुकावटों और संभावित खतरों को समझने तक की इच्छा नहीं है फिर नासमझी में किए गए कामों के परिणामों से बचा कैसे जा सकता है।”

‘’तुम परिवर्तन के लिए प्रयत्नतशील सभी संगठनों को समाप्त करते हुए, जो-चल-रहा-है-चलने-दो का समर्थन नहीं कर रहे हो? सीने पर हाथ रख कर कहो, क्या तुम सत्ता के साथ मिले हुए नहीं हो और इसीलिए यह चाहते ही नहीं कि कहीं कोई बदलाव आये। बदलाव के नाम पर दर्शन जरूर बघार देते हो, जिसका तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक उसे अमल में न लाया जाय।‘’

‘जिन्हें तुम परिवर्तन के लिए प्रयत्न शील संगठन कह रहे हो, वे परिवर्तन का सपना दिखा कर सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए प्रयत्नशील संगठन हैं, इसे समझो। सत्ता से जुड़ाव को मैं बुद्धिजीवी के लिए शुभ लक्षण नहीं मानता। मैं कहता हूं सत्ता् का खेल खेलने वाले उतना ही परिवर्तन लाते हैं जिससे लगे कुछ हो रहा है, परन्तु समस्या बनी रहे और अधिक अच्छाा हो कि वह और विकृत रूप लेती चली जाए जिससे तुम बता सको कि हमारे इतने प्रयत्न के बाद भी यह हाल है तो तुम न रहे तब तो सत्यानाश हो जाएगा, जब कि सत्यानाश तुम्हारे कारण हो रहा है।‘’

वह झुंझला उठा, ‘’जब कोई संगठन ही न रहेगा तब परिवर्तन कैसे आयेगा यह बता सकते हो।‘’

’’विचार से। ऐसे विचार से जो सत्ता पर अधिकार करने के इरादे से न पैदा हुआ हो, समाज को बदलने के संकल्प से पैदा हुआ हो। तुम्हारे सोचने में और मेरे सोचने में एक मामूली सा फर्क है। तुम समझते हो सभी परिवर्तन राजनीति या सत्ता के माध्यम से ही संभव हैं इसलिए सत्ता पर अधिकार परिवर्तन के लिए जरूरी है। मैं मानता हूं चेतना के रूप में परिवर्तन, हमारी संवेदना में परिवर्तन सत्ता के माध्यम से संभव नहीं, परन्तु इन क्षेत्रों में सत्ता के हस्तेक्षेप से विकृतियां आ सकती हैं, गिरावट आ सकती है, सत्यानाश तक हो सकता है।

”तुम मान बैठे हो कि दर्शन वही सही है जिसके आधार पर संगठित हो कर परिवर्तन का प्रयत्न किया जाय, दूसरे दर्शन, साहित्य, कला आदि केवल बौद्धिक ऐयाशी है, जब कि मैं मानता हूं चेतना को बदलने का काम इनके द्वारा ही संभव है। तुम मानते हो सम्मान का एकमात्र मानदंड शक्तिसंचय है, मैं मानता हूं समाज को बदलने के लिए शक्ति, वैभव और अधिकार के प्रति उपेक्षा भाव रखते हुए काम करना है। जनमन में इसके प्रति गहन सम्मान होता है और इस सम्मान के कारण ऐसे व्यक्ति के कथन और आचरण का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इसी के कारण या इसी का प्रदर्शन करके, अपने जीवन में संयम और त्याग भाव को उतारने के कारण ब्राहमणों ने राजशक्ति, धनशक्ति और शस्त्रबल से रहित होते हुए भी अपनी प्रतिष्ठा कायम रखी और इसी काे न समझ पाने के कारण बौद्धमठ मौजमस्ती के अड्डों में बदल गए और अपनी चरम गिरावट में वे उस पंचमकारी गिरावट के शिकार हुए जिसे द्विवेदी जी लोक धर्म कहते थे और मैं गुरुत्वाीकर्षण के सम्मु ख अपने को निढाल छोड़ देना मानता हूं।‘’

’’मैं यह जानता था तुम अपनी ही व्याख्या से सिद्ध कर दोगे कि तुम वर्णवाद को मिटाने की सोच ही नहीं सकते क्योंकि तुम्हारी नजर में ब्राह्मण त्याग तपस्या की मूर्ति है और शूद्र नराधम जिसे उस दशा में रहना ही चाहिए जिसमें वह है।‘’

‘’तुम्हारी बुद्धि पर तरस आता है और उस हीन भावना पर भी जिसके कारण तुम उपमा में भी ब्राह्मण के किसी गुण की बात की जाय तो समझने की जगह मौके का फायदा उठाने को बेताब हो जाते हो। सिद्धों और सन्तों की बात करूं तो शायद तुम्हा‍री खोपड़ी में मेरी बात उतर जाये। सिद्ध आनन्दवादी थे, उनके चमत्काकर के उसी तरह चर्च थे जैसे उन्हीं की नकल पर असाधारण सिद्धि का प्रचार करने वाले सूफियों के, इसलिए व्यापक जनसमाज पर इनका उस तरह का प्रभाव न पड़ा जो आचार की शुचिता, त्याग, आदि के उन गुणों के कारण सन्तों की वाणी का समाज पर पड़ा और कुछ ने तो छोटी मोटी सामाजिक क्रान्ति ही कर दी, जैसे कबीर, नानक देव, और नामदेव आदि ने। समाज की चेतना को किसी सम्राट के किसी दान या फर्मान ने उतना प्रभावित न किया होगा जितना इन्होंने किया जो सत्ता , शक्ति और वैभव के प्रति उदासीन थे और सामाजिक विषमता से कातर।

’’ऐसे लोग जो समाज को बदलना चाहते हों, अपने जीवन को जनजीवन के समकक्ष रखते हुए उनमें इस बात की मांग को निर्णायक मांग बना दें कि हमें और कोई बराबरी तुम नहीं दे सकते शिक्षा की बराबरी दो, हमारी भाषा में हमारी उच्चरतम आकांक्षाओं की पूर्ति का अवसर प्रदान करो तो लोकतन्त्री में सत्ताम पर अधिकार जमाए बिना जनजागरण से वह असंभव प्रतीत होने वाला काम संभव हो सकता है। लोकतन्त्र् की मर्यादा की रक्षा करते हुए जनचेतना को बदलने से जैसे परिवर्तन संभव हैं वे सत्ता। में आ कर पुलिस और फौज या वजीफों के बल पर नहीं।‘’

‘’मैं तुम्हारी बात से पूरी तरह सहमत नहीं। पर इस पर आज बहस करना बेकार है। अब चलू?‘’

Post – 2016-06-15

भारतीय सभ्यता की विडंबना

तुम्हें कामायनी की वे पंक्तियाँ याद हैं ?

वह मेरा मुंह देखने लगा की मैं किन पंक्तियों की बात कर रहा हूँ !

“ज्ञान अलग कुछ क्रिया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की ।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडंबना है जीवन की।”

“यह उनके जीवन का भी सत्य था और हमारे समाज का भी !”

“यह भारतीय सभ्यता की विडम्बना है और इसके पीछे रहा है हमारे समाज का स्तरभेद ! ज्ञान पर ब्राह्मणों का एकाधिकार और श्रम और कौशल का बोझ उनपर जिन को अक्षर ज्ञान और सैद्धांतिक विमर्श से इतना अलग करने का प्रयत्न किया गया कि वेद शास्त्र उनको सुनने तक को न मिलें! श्रमभेद सभी सभ्यताओं में रहा है। इसके बिना कोई समाज आगे बढ़ ही नही सकता, परन्तु इस तरह का सुनियोजित विधान किसी दूसरी सभ्यता में नही मिलेगा।”

‘’तुम अपने वेद पुराण की बात करो, वहाँ तक तो ठीक है, क्योंकि उसके बारे में मेरी जानकारी कुछ कम है, पर दूसरी सभ्यताओं की बात मुझे समझाने की कोशिश मत करो। तुमको पता है सुमेरिया में सेव के बागानों में काम करने वालों की आँखें फोड़ दी जाती थी और उन्हें टटोल कर फल तोडना और इकट्ठा करना पड़ता था। नये मजदूर पर चौकसी रखी जाती और यदि उसने फल खाने की कोशिश की या काम में ढील दी तो कोडे़ मारे जाते थे ! इसके बाद वे इतनी दहशत में रहते थे कि कोई पहरे पर हो या नहीं वे अपना काम पूरी मुस्तैदी से करते थे।‘’

‘’तुम कहीं मेरी ही लिखी बात को अपनी बनाकर मुझे ही तो नहीं सुना रहे हो ? भाई, जो लोग जल्दबाजी में पढ़ते हैं, और अधिक पढ़ते हैं, वे अक्सर भूल जाते हैं की कौन सी बात कहाँ पढ़ी थी। दोष तुम्हारा नहीं फास्ट फ़ूड और फास्ट लर्निंग के इस ज़माने का है, जिसमे जड़ों का पता नहीं चलता, पर पल्लवग्राही बुद्धि का चमत्कार दिखाने का लोभ संवरण नही हो पाता !

”अब तुमने इसे छेड़ ही दिया तो यह भी जान लो कि आदम और हौवा की कहानी में आँखों पर पट्टी बाँधे देवों के सेव के उद्यान में काम करने वाला पर फल को न चखने वाला आदम इन्हीं के आधार पर रचा गया है, जिसको सेव खाने के दण्ड स्वरूप स्वर्ग से नीचे फेंक दिया जाता है! इस स्वर्ग के देवता सुमेर के शासक पुजारी हैं जो स्वयं भी देवों से छले जाकर पाताल या समुद्र पार शरण लेने पर विवस हुए थे और जिनका प्रतीकात्मक इतिहास बलि-वामन की कथा या ‘बलि पठयो पाताल’ की उक्ति में सूत्रबद्ध है और ऊपर से तुर्रा यह की धरती पर आकर खेती करने वाले और इस्लामी संस्करण में सेव की जगह गंदुम खाने वाले आदम कृषि के आरम्भ में देवासुर संघर्ष में पराजित होकर पलायन करने वाले और पश्चिम के उर्वर खेत्र में पहुँचने वाले जन स्वयं थे, जिनको देव या असुर ठहराने के लिए कुछ और अध्ययन की आवश्यकता है। अधिक संभावना यह है कि बारी बारी से दोनों उस क्षेत्र में पहुंचे थे, क्योंकि आहार-संग्रह के चरण पर ही पश्चिमी भारत से लेकर भूमध्य सागर के तट तक एक संपर्कक्षेत्र बन चुका था ! फसाद तो कृषि के चरण पर आरम्भ हुआ, कृषि के लिए कृतसंकल्प जत्थों और इसके कट्टर विरोधियों के बीच, जिसमे पहले खेती की दिशा में आगे बढ़ने वाले इधर-उधर मारे मारे फिरते रहे और फिर जब ये संगठित और शक्तिशाली हो गए तो जो जब दूसरे पर भारी पड़ता था वह दूसरे को भागने पर मजबूर कर देता था!’’

’’असुरों के निर्वासन की कहानियों से तो इस देश का अनपढ़ भी परिचित है, पर देवों या आर्यों के पलायन की बात तो कभी सुनी नहीं गई. ऎसी बातें तुम कहां से गढ़ लेते हो?’’

‘’यार, मैं तो अपनी बात सलीके से कहना तक नहीं सीख पाया, गढ़ने की कला कैसे सीख सकता था। जो पढ़ते हैं, वे गढ़ते हैं; जो देखते हैं वे समझ नहीं पाते कि इसे कैसे बयान करें। मेरी मजबूरी इस देखने से और अपने देखे पर शास्‍त्र-
चक्षु से अधिक भरोसा करने की है, जो एक साथ मजबूरी भी है और उपलब्धि भी।

” इतने लंबे समय तक ‘आर्य आए, हमला किया, स्थानीय लोगों को मार भगाया’ का जाप चलता रहा, साथ ही अपनी प्राणरक्षा और आगे बयान बदलने के लिए यह भी स्वीकार किया जाता रहा कि आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं है, पर वेदों पर अनन्य अधिकार रखने का दावा करने वालों को क्यों उन साक्ष्यों में से कोई मुझसे पहले दिखाई नहीं दिया, जिसे प्रस्तुत करते हुए मैंने उन समस्त मान्यताओं को उलट दिया। अब उसे गलत सिद्ध करने की जगह ऋग्वेद को उससे भी बहुत पहले ले जा कर उस साम्य को विस्थापित करके, ऐसे युग में ले जाकर, उसकी जड़ों को खिसकाने के प्रयत्न उन लोगों द्वारा होने लगे जो इसे नरम दिमाग के लोगों द्वारा मान्य बनाने के बाद इतर कारणों से हास्यास्पद बता कर पुरानी आधारहीन पर पश्चिम को रुचने पचने वाली मान्यता की वापसी के लिए प्रयत्नशील हैं। इस कुचाल को समझने में उतावले लोगों द्वारा चूक ही नहीं की जा रही है, अपितु इसे बढ़ावा दिया जा रहा है।‘’

‘’इसमें इतना क्षुब्धे होने की जरूरत क्या है, मैं तो मानता ही हूं कि तुम्हारे जैसी प्रतिभा न पहले पैदा हुई, न आज है, न भविष्य में पैदा होगी। कहो तो मैं यह बात एफीडेविट, क्या कहते हो तुम, शपथपत्र, या जो भी कहते हो तुम, उस पर लिख कर दे दूं।‘’

‘’तुम्हारा फिकरा सिर माथे, पर यह समझ लो कि जो तरीका तुमने अपनाया ठीक वही तरीका उन्होंने अपनाया है। किसने किससे सीखा, इसका पता लगाना होगा। परन्तु यदि मुझे पता न होता कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक देर से समझता हूं, दूसरों की अपेक्षा अधिक मन्द गति से पढ़ पाता हूं, यहां तक कि दृश्‍य माध्‍यमों की बैनर लाइनें मुझे समझ में नहीं आतीं इससे पहले ही बदल जाती हैं इसलिए उन्‍हें पढ़ नहीं पाता, किसी सवाल या समस्या का तत्काल न जवाब सूझता है, न समाधान, और लंबे अरसे तक यह-या-वह की पेंगें भरता रहता हूं और मैं जो कहना चाहता हूं उसे लाख तैयारी के बाद भी ठीक ठीक नहीं कह पाता हूं, तो मैं भी तुम्‍हारी बात मान लेता। मैं इस बारे में आश्वस्त हूं कि मैं मन्दबुद्धि हूं और इसी से सन्देह पैदा होता है कि जो सचाई मुझ जैसे मन्दबुद्धि को दिखाई दी, जिसे नकारने की ताकत किसी में नहीं है, वह मुझसे पहले के अधिक मेधावी, कुशाग्र और वाग्विद विद्वानों को अगर नहीं सूझीं, तो इसलिए कि वे जो देखते थे उसे नकारते हुए आगे बढ़ जाते थे। कारण कई हो सकते हैं। इस समय इसके दो ही कारण ठीक लगते हैं, यूरोपीय विद्वानों के मामले में नस्लवादी हेकड़ी और उसके विपरीत पड़ने वाले किसी भी साक्ष्य को सुनने या किसी भी दृष्टान्त को देखने से इन्कार कर देना, या सत्ता ऐसे लोगों के हाथ में होने के कारण, अपनी असहमति को उनके लिए स्वीकार्य बना कर प्रस्तुत करना या किसी ऐसे क्षेत्र में काम न कर पाना जिसमें जमीन को आसमान से अधिक अपना और अधिक भरोसे का समझा जाता है।‘’

‘’तुमने लफ्फाजी में इतना समय बर्वाद कर दिया। क्या यह बताओगे कि कहीं इस बात का कोई प्रमाण है कि इस भूभाग से कभी देवों या बाद के आर्यो को निष्कासित किया गया।‘’

‘’ऋग्वेद की एक ऋचा है। हमारे विरोधी या निन्दक कहते हैं, कि यहां से भाग कर कहीं दूर चले जाओ , और अपने साथ अपनी इंद्र-भक्ति को भी लेते जाओ अर्थात् भाड़ में जाओ तुम और भाड़ में जाए तुम्‍हारा इन्‍द्र :

उत ब्रुवन्तु नो निद: नि: अन्यत: चित् आरत ।
दधाना इन्द्रे इद दुवः ! 1-4-5

“संस्कृत तो तुम्हें आती नहीं, वैदिक सांप की बांबी है, इसलिए पल्ले तो कुछ पड़ा न होगा। समझ लो मैंने जो कहा है वही, उस ऋचा में लिखा है, मैंने अपनी ओर से कुछ गढ़ा नहीं। वैदिक समझने की योग्यता भी सन्दिग्ध है, पर गढ़ने की योग्यता तो है ही नहीं।

“हमारा पूरा साहित्य देवों के विरुद्ध असुरों के अत्याचार और देवों की त्राहि त्राहि से भरा है। यह आक्रमणवादियों को न दिखाई दिया, न हमने अपनी जातीय स्‍मृति के महत्व को समझा।”

“प्रसाद जी को सबसे बड़ी विडंबना जो भी दिखाई दी हो, पर हमारी विडंबना यह है कि विषय अलग व्याख्यान भिन्न है, चर्चा क्यों पूरी हो दिन की। अब न बैठने का धीरज है यही व्यथा है मेरे मन की।”

आप समझ सकते हैं कि इसके बाद बैठे रहना या आगे कुछ सुन पाना उसकी शान के खिलाफ था और ग्लानि तो विषयान्तर की मुझे भी हो रही थी।

Post – 2016-06-14

घूम कर बात फिर वहीं पहुँची

‘’तुमने तो सारा गुड़ ही गोबर कर दिया यार । कहां ऋषियों मुनियों का आध्यात्मिक ज्ञान और भारतीय मानस में उनकी छवि और कहां तुमने कह दिया कि अन्तर्वेदी व्यक्ति का चरित्र बहुत ऊँचा हो यह जरूरी नहीं। उनको तुमने हमारी बिरादरी में ला कर रख दिया ।‘’

‘’मैं कहता आया हूँ कि भावना में बहने से बचते हुए, अपने विवेक से काम लेते हुए हम किसी परिघटना का मूल्यांकन करें तो ही उसके साथ और स्वयं अपने साथ न्याय कर सकते हैं। पहली बात तो यह है कि आत्मिक उत्थान या आध्यात्मिक प्रगति के लिए अन्त: साधना जरूरी नहीं। हम अन्यथा भी काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मात्सर्य से बच सकते हैं और इनसे बचने के अनुपात में ही हमारा व्यक्तित्व अधिक गरिमामय होता है। अन्त:साधना एक तरह का अभ्यास है, उसकी एक पद्धति है, उस पद्धति का अनुगमन करते हुए हम अपने ध्यान को उस एकाग्रता तक पहुंचा सकते हैं जिसमें कतिपय असाधारण क्षमताओं के पैदा होने की बात की जाती है। यदि यही इनका लक्ष्य हो तो विज्ञान उनकी अपेक्षा अधिक आसानी से और सुनिश्चित रूप में इनकी पूर्ति कर सकता है। तुमने सुना होगा एक साधक के बारे में प्रचलित कहानी कि उन्होंने बारह साल की साधना में बाद ऎसी सिद्धि प्राप्त कर ली कि वह पानी की धारा को चल कर पार कर सकते थे। इसे सुन कर किसी ने कहा इतनी छोटी सी बात के लिए इतने साल बर्वाद कर दिये। इसे तो मल्लाह को दो आने दे कर कोई भी पार कर सकता है।

असाधारण क्षमताओं को अर्जित करने में विज्ञान अन्त:साधना से अधिक सक्षम है और इसकी उपलब्धियां व्यक्ति तक सीमित नहीं रहतीं, सर्वसुलभ हो जाती हैं।‘’

“परन्तु नैतिक उत्थान की बात को तो झुठलाया नहीं जा सकता.”

‘’जहां तक नैतिक उत्थान की बात है, तुम जानते हो तान्त्रिक साधकों को जिनकी अलौकिक क्षमताओं की कहानियां कही जाती है, परन्तु उनके साथ पंच मकार का चक्कर भी रहा है। कहें नैतिकता के लिए कोई विशेष चिन्ता ही नहीं थी। यदि हम इस अन्तर को नहीं समझेंगे तो सम्मोहन आदि के द्वारा अपनी असाधारण सिद्धि का प्रचार करके तरह-तरह के अपराधों में लिप्त बाबाओं, सधुक्कडों और योगियों को आत्मसंयम और समर्पित सांसारिक जीवन जीने वाले व्याक्तियों के बीच अन्तर नहीं कर पाएंगे और अपराधियों को हिन्दुत्व का संरक्षक मान कर उनके बचाव में खड़े हो जायेंगे जिससे हिन्दुत्व की समझ भी विकृत होगी, हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा भी घटेगी, और देश की वर्तमान और भावी दिशा भी स्पष्ट‍ न हो पाएगी।‘’

‘’तुम तो बहुत खतरनाक आदमी हो यार! यह भी नही सोचते कि जिनकी तुम वकालत करते हो वे क्या कहेंगे ?‘’

‘’मैं किसी सिद्धि को, वह ज्ञान, विज्ञान, क्रीड़ा, कला, साहित्य, साधना किसी भी क्षेत्र में हो, उसे नैतिकता निरपेक्ष मानता हूं, अर्थात् उसके होने से व्यक्ति अनैतिक हो जाए या नैतिकता में दूसरों से ऊपर सिद्ध हो यह जरूरी नहीं। कुछ सिद्धियां प्राप्त करने और सिद्धावस्था को जीवन में उतारने में भी अन्तर है। हमारे लिए सिद्धों और सन्तों का महत्व उनकी निजी आनन्दावस्था के कारण नहीं है,जिसका न तो मुझे ज्ञान हो सकता है न प्रतीति, न उस पर राय देने का अधिकार जो उन्हीं तक सीमित रहा हो, बल्कि इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक स्तर पर क्या किया. मसलन सिद्धों ने सामाजिक भेदभाव का विरोध किया और कर्मकांड को आत्मिक उत्थान में बाधक माना। साधकों में ध्यान केन्द्रित करने के लिए चरस, भांग, मदिरा आदि के सेवन की प्रवृत्ति रही है, गो इसके असंख्य अपवाद भी मिलेंगे। नशीले पदार्थों से यदि आनन्दावस्था की प्राप्ति होती है तो ‘दम मारो दम, मिट जाये गम’ की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। सिद्धावस्था का आनन्द क्या होता है, यह जानना संभव नहीं, उसके लिए प्रयत्न करने के लिए जितना फालतू समय चाहिए वह मेरे पास कभी रहा नहीं, पर ऐसे लोगों का आचरण जो बात अध्यात्म की करते हैं और उसे कारोबार बना कर भौतिक संपत्ति का पहाड़ खड़ा करते चले जाते हैं, य‍ह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि उनकी नजर में भी भौतिक सुख उस आनन्दावस्था से ऊपर है.?

’’इसलिए अन्त:प्रकृति और बाह्य प्रकृति पर जिस विजय की बात मैं करता हूं उसके लिए अन्त:साधना जरूरी नहीं, वह भौतिक उन्नति के समकक्ष नैतिक उत्थान मात्र से संभव है। यह मूल्य व्यवस्था से जुड़ा प्रश्न है। और यह मत भूलो कि मूल्य व्यवस्था का भी अपना अर्थशास्त्र होता है। भौतिक संपन्नता के अभाव में आत्म‍संयम और आत्मोत्थान की बात करना मूर्खतापूर्ण है।‘’

मैं उसके मन की बात कर रहा था, ‘’तुम ठीक कहते हो, इस अध्यात्मवाद ने इस देश का जितना अहित किया उतना कोई दुश्मन भी नहीं कर सकता। इसने हमे ज्ञान विज्ञान में इतना पीछे छोड़ दिया जब कि दूसरे देश हमसे आगे बढ़ गए।‘’

‘’कुछ दिन किताबें पढ़ना बन्द कर दो तो तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि आध्यात्मिकता, ध्यान और सिद्धि जिज्ञासा और अन्वेषण की दिशाओं में से एक है और इसकी जड़ें बहुत पुरानी हैं, उस युग तक प‍हुंची हुई जब भारत ज्ञान विज्ञान में विश्व में सर्वोपरि था।‘’

’’गई भैंस पानी में । तुम फिर पहुंचे रिगबेद पर ।‘’

‘’तुम्हारे दिमाग में इतना भूसा भर दिया गया है कि तुम सम्मांन से एक अनन्य कृति का नाम तक नहीं ले सकते। पर अनुमान तुम्हारा ठीक है मैं ऋग्वेद की ही बात कर रहा हूं या वेदों से भी पहले की स्थिति की बात कर रहा हूं क्योंकि ऋग्वेंद में वातरशना मुनियों का हवाला और योग का संकेत तो है ही अथर्ववेद में व्रात्य की चमत्कांरपूर्ण सिद्धियों की भी बात है जो वैदिक चिन्ताधारा के समानान्तरर प्रवा‍हित होता रहा परन्तु इस तरह की चमत्कारपूर्ण साधनाओं और उपलब्धियों का वैदिक समाज कृत्याा, यातुविद्या आदि कह कर आलोचना करता रहा और इसलिए लम्बे समय तक अथर्ववेद को वेद माना ही नहीं गया फिर धीरे धीरे इसके प्रति समवेशिता विकसित हुई। जिस मगध से ईरान पहुंचने वाले और उससे भी आगे जाने वाले मगों का संबंध है और जिनकी भारत में प्राचीन काल से ही उपस्थिति का प्रमाण महगरा, मगहर, गहमर आदि हैं, उनको जादू या मैजिक के लिए जाना जाता रहा और अर्थवों का अवेस्ता में भी सम्मान है. भारत में यदि वैदिक समाज उनकी निन्दा करता रहा तो ईरान में इनके प्रभाव से देवों की निन्दा होती रही। उन्हें शैतान के रूप में चित्रित किया जाता रहा.‘’

‘’तुम हर चीज को इतना फैला देते हो कि कई बार लगता है तुमको धुनिया का पेशा अधिक रास आता ।‘’

’’मैं कह यह रहा था कि भारत में केवल एक ही समुदाय ने सभ्यता का वह विशाल और व्या्पक ढांचा नहीं तैयार किया । पारस्परिक प्रतिस्पमर्धा में अनेक समुदाय लम्बे समय तक लगे रहे, आपस में टकराते रहे और अपनी श्रेस्थता का दावा करते रहे. उनकी अपनी क्रिया प्रतिक्रिया के कारण अन्वेषण और आविष्कार की अनगिनत दिशाओं में काम होता रहा जिसका शिखर बिन्दु, किन्तु साथ ही ठहराव का काल भी, सरस्वती-सिंधु का नागर चरण है। अत: इसके कारण भारत की ज्ञान और विज्ञान की प्रगति नहीं रूकी। उसमें यदि ठहराव आया तो हमारी वर्णव्य।वस्था और उससे उत्पन्न शिक्षा और कौशल के विकास में आई बाधाओं के कारण। पश्चिमी विद्वानों ने सचेत रूप में इसकी उपलब्धियों को नकारने के लिए जो जाल रचा तुम उसके शिकार हो, इसलिए न उसे ध्यान से पढ़ने की जरूरत समझी, न समझने की, बल्कि समझने तक से दहशत खाते रहे ।‘’
उसने राहत की लम्बीि सांस ली, ‘’चलो इतने चक्कूर लगा कर शिक्षा की समस्या पर आए तो सही। पर आज तो जो सूखा चना चबाना पड़ा उसी को पचाने की समस्या है।‘’

वह उठने लगा तो मैं भी साथ ही उठ लिया।
14 जून 2016

Post – 2016-06-13

सितारों से आगे जहां और भी हैं (सावधान! पोस्ट लंबा भी है और गरिष्ठ भी!)

इतनी सारी भाषाओं का उदय देश को जोड़ने के लिए! शेखचिल्ली भी इतनी उूंची उड़ान न भरते रहे होंगे।‘’

‘’वह उड़ान भरते थे मैं जमीन की बात कर रहा हूं। उड़ने वाले परिन्दों को जमीन की छोटी चीजें तक उूंचाई से भी दिखाई दे जाती है, पर जमीन पर बैठे उूंची हांकने वालों को न जमीन दिखाई देती है न आसमान, न अपने पिछले अनुभवों का परिणाम।

‘’मैं जब इतनी सारी भाषाओं को उनका सम्मान और अधिकार दिलाने की बात कर रहा हूं तो इसलिए कि अंग्रेजी की हुकूमत उनके उदय से ही समाप्त होगी। अंग्रेजी रहेगी पर अपने दायरे में सिकुड़ कर। ये उच्च्तम आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बनेंगी तो ही अपनी बिरादरी की गरिमा की ओर भी ध्यान जाएगा और इससे वह आत्मी्यता स्थाापित होगी जो भाषा की भिन्नता के बाद भी पहले थी और जिसे नष्ट कर के अंग्रेजी ने अपने लिए स्थान बनाने के लिए उन्हें पंगु भी बनाया और परस्‍पर द्वेषी भी।
‘’इसी तरह जब अन्तर्जगत की बात कर रहा था तो विषय से दूर नहीं जा रहा था। मैं उस पहलू की बात कर रहा था जिसकी पश्चिम ने उपेक्षा की और जिसके कारण उसकी उपलब्धियों का सकल परिणाम सृष्टि और मानव सभ्यता के लिए घाटे का रहा है। हम आगे नहीं बढ़े हैं, हम उच्चितर जीवन की आकांक्षा में एक चक्रवात में उूपर उठते चले गए हैं और जमीन हमसे छूटती चली गई है। विज्ञान ने अल्पसुलभ को सर्वसुलभ बनाया है, कष्टसाध्यउ को सुकर बनाया है, कल्पनातीत को यथार्थ का हिस्सा बनाया है और इस तरह कुछ लोगों के लिए स्वंर्ग का भी तिरस्कार करने वाला सुख वैभव का संसार रचा है तो दूसरी ओर असंख्य लोगों में लिए नरक को उनके यथार्थ का हिस्सा बना दिया है और शेष को तुलनात्मक दृष्टि से हेय । यदि उसका भौतिक और आत्मिक विकास समरूप हुआ होता, यदि बाह्य प्रकृति पर विजय की लालसा के समानान्तर ही अन्त:प्रकृति को भी समझने का उतना ही उत्कहट प्रयास किया गया होता तो सर्वनाशी प्रगति से बचा जा सकता था और अरबों वर्षों की प्रकृति की संचित निधि को उन्मत्तों की तरह इस तरह बर्वाद न किया गया होता कि आसमान भी काला हो जाय और हमारा भविष्य भी। और समृद्धि के बीच हम सब कुछ गंवा कर कंगाल हो जायें।‘’

‘’तुम चाहते हो अब विज्ञान को अपनी प्रगति से संतोष कर लेना चाहिए और वैज्ञानिकों को अध्यात्म की ओर मुड़ जाना चाहिए। आधुनिक युग को भारतीय अतीत में घुस कर दफ्न हो जाना चाहिए या हिमालय की कन्दंराओं की ओर लौटना चाहिए।‘’

‘’तुम्हा।री जैसी समझ है उसमें इससे उूंची कोई बात सोच ही नहीं सकते। फिर से सुनो, मैं कहता हूं यदि अन्तर और बहिर् का सन्तुलित और समानान्तर विकास हो तो वह लड़खड़ाहट नहीं पैदा हो जिसमें ‘अब गिरे, अब मरे, अब मिटे, की दहशत बनी हुई है। मैं कह रहा हूं ज्ञान को पूर्ण होना चाहिए या अपने को पूर्ण बनाने की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए, केवल बाह्य प्रकृति के ज्ञान को समग्र का ज्ञान नहीं मान लेना चाहिए, विज्ञान को उस विराट की ओर भी ध्यान देना चाहिए जिसे वह आब्सकक्यो्र कह कर खारिज कर दिया करता है। यदि धुंधला है तो रौशन करो। देखो धुंधलके में क्या क्या निधियां छिपी हुई हैं।‘’

‘’कमाल है तुम्हारा भी। तुम कुंडली मार कर फिर उसी विषय पर आ गए। चलो, यही सही। तुमने आध्यात्मिकता का ढोंग करके सौ तरह के कुकर्म करने वालों को, अध्यात्म का नाम ले कर भौतिक समृद्धि का प्रबन्ध करने वालों को नहीं देखा है तो तुम्हें कैसे समझा सकता हूं कि यह एक ऐसी दलदल है जिसमें ज्ञान तो संभव ही नहीं। चौंको नहीं, तुम्हीं कहते हो अतीन्द्रिय क्षेत्र है और ज्ञान तो इन्द्रिय ग्राह्य होता है, यही उसकी सीमा है। ज्ञान के बाद बच रहता है विश्वांस जिसे तुम्हीं बता चुके हो कि मनुष्य को ऐसी अतर्क्य और असंभव, यहां तक कि आत्महननकारी और अपमानजनक चीजों में विश्वा्स करने को बाध्य किया जा सकता है या इसकी आदत डाली जा सकती है जिसकी हम कल्पना तो कर ही नहीं सकते, देखने पर भी विश्वास न हो।‘’

‘’ज्ञान के बाद अज्ञान और विश्वास ही नहीं बचता, अनुभूति नाम की एक चीज भी होती है जो वर्णनातीत होती है। विश्वास न सदा अतर्क्य होता है, न ज्ञानातीत, वह झूठ और कुतर्क का सहारा ले कर भी, धर्म और दर्शन बघारते हुए भी,पैदा किया जाता है, जिससे तुम भी मुक्त नहीं हो। यह उस विश्वास से भिन्न होता है जो अपने अनुभव और वर्णनातीत बोध से पैदा होता है। यह तुम्हारा उपयोग अपने लिए या अपने अच्छे बुरे लक्ष्य के लिए तुम्हारे दिमाग की धुलाई करते, भजन के सम्मो हन से पैदा किया जाता है।

‘’इस भ्रम में न रहो कि हम अपने समस्त इन्द्रियग्राह्य अनुभवों का वर्णन कर सकते हैं या ज्ञान केवल वर्ण्य तक सीमित होता है। हमारी भाषा केवल श्रुत और मित ध्वनियों तक सीमित है, उसी का अनुकरण करते हुए हम अपनी बात कहते हैं और दूसरों के विचार ग्रहण करते है। इसलिए हमारा ज्ञान किसी न किसी के कहे और सुने या पढ़े के सीमित दायरे में ही सिमटा रहता है। इससे आगे का सब कुछ वर्णनातीत होता है, या वर्णन करके हम उसका सत्यानाश कर डालते हैं। हमारे रस, रूप, गन्ध , स्पर्श इन्द्रिय ग्राह्य होकर भी वर्णनातीत है, केवल अनुभवगम्य हैं। अपारक्रम्य हैं। यहां तक कि संगीत जो नाद पर आधारित है और श्रुति ग्राह्य भी है, वह तक शब्दा्तीत होने के कारण वर्णनातीत और अनुभूूति गम्य है। एक का अनुभव दूसरे तक नहीं पहुंचाया जा सकता, अपने ही जीवन के एक क्षण का अनुभव दूसरे किसी क्षण में नहीं अन्तरित किया जा सकता। इसलिए ये ज्ञेय भी नहीं है। हमारा ज्ञान शब्द जगत तक सीमित है पर हमारा बोध जो अनुभूत होता है, इसे पूर्णता देता है।

‘’अब रही बात उस पाखंड और धूर्तता की जिसे अध्यात्म के नाम पर चलाया जाता है, और इसके कारण तुम उसको समग्रत: खारिज कर देते हो। ठीक यही बात विज्ञान और ज्ञान के दुरुपोग और जघन्यजतम उपयोग के विषय में की जा सकती है, वह फरेब, वह दुष्प्रचार जो वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करते हुए होता है वह मिलावट जिसमें तुम नकली जहर को दूध के इतने निकट पहुंचा सकते हो कि अच्छे अच्छे धोखा खा जायं। इससे विज्ञान को ही खारिज तो नहीं किया जा सकता।

‘’इसलिए अतीन्द्रिय बोध को नकारना अवैज्ञानिक है।‘’

उसने जोरदार ठहाका लगाया, ‘’फिर वैज्ञानिक क्या है।‘’

’’वैज्ञानिक यह है कि जिस विषय के बारे में नहीं जानते उसके बारे में चुप रहो। न उसका समर्थन करो न ही उसका निषेध। सीधी बात करो कि यह हमारा क्षेत्र नहीं है, इसका हमें ज्ञान या अनुभव नहीं है इसलिए इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता।‘’

‘’अच्छा, अब तुम सच सच बताओ कि जिस अन्तर्जगत की इतने समय से वकालत कर रहे हो उसका तुम्हें अनुभव है?’’
‘’अनुभव नहीं है, प्रयत्न करने पर ध्या्न को एकाग्र नहीं कर सका, परन्तुे मैं उसकी वकालत नहीं कर रहा हूं। मैं जिस क्षेत्र का हमें ज्ञान नहीं है और कुछ आप्त पुरुषों का दावा है कि ऐसा अनुभव होता है, उसे जाने बिना नकारना गलत है। और सुनो, एक विचित्र बात कि मुझे जीवन में दर्जनों बार पूर्वप्रतीति हुई है और एक संकेत है जिसको मैंने कभी गलत नहीं पाया और वह भी पूर्वप्रतीति से जुड़ा है। पहली स्ववप्नावस्था में होती रही और उस स्वप्न के साथ ही मुझे यह विश्वास हो जाता है कि यह दूसरे सपनों से भिन्न है और सच होने वाला है। सपने याद नहीं रहते परन्तु इसका एक एक दृश्य् और कथन याद रहता है, फिर भी इस पर मेरा अधिकार नहीं है कि किसी समस्या‍ पर ध्यान केन्द्रित करके सोउूं और सपने में उसकी पूर्वप्रतीति हो जाये। जिस संकेत की बात करता हूं वह हास्याेस्पादक प्रतीत होगा परन्तु कभी गलत नहीं गया और यह केवल इस बात का संकेत होता है कि कार्य में कोई व्यवधान है। इसके बाद भी मैं इन दोनों के प्रभाव में नहीं आता यद्यपि यदि कोई दूसरा भी साथ हुआ तो उसे बता देता हूं कि चल तो रहे हैं परन्तु जाना व्यीर्थ होगा। वैज्ञानिक तरीका तो यह है कि जब यह अचूक संकेत होता है तो मैं अपना समय, धन और श्रम बचा लूं और आगे बढ़ूं ही नहीं, पर मैं इससे हार नहीं मानता और इस अनुभव को उसकी प्रामाणिकता पुन: पुष्टि के रूप में लेता हूं।‘’

‘’अब इस पर कहा क्या जा सकता है। या तो कहूं तुम मक्कार हो जो या भ्रष्‍टचेत, पर कह नहीं सकता।‘’

‘’तुम न कह सको परन्तु मैं यह कहना चाहता हूं कि अन्त‍र्जगत की यात्रा बहिर्जगत की यात्रा जैसीी ही है, इनका नैतिकता से कोई संबंन्ध नहीं। अन्त‍र्विद नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट् और सामाजिक दृष्टि से अनिष्टकारी, झूठा और मक्‍कार भी हो सकता है जैसे विज्ञान और ज्ञान संपन्नध व्य क्ति खतरनाक, भ्रष्ट, कुटिल कुछ भी हो सकता है। मैं बाह्यप्रकृति और अन्त :प्रकृति पर विजय की बात कर रहा हूं जो अन्तर्ज्ञान और भौतिक ज्ञान से भिन्न है और मनुष्यता के लिए जरूरी।