Post – 2016-07-26

निदाान – 3
मरइनारिटी सिंड्रोम (1)

शास्‍त्री जी ने मुझे आरंभ में ही सचेत किया, ”डाक्‍साब, आप कुछ विषयों को अपने विचार के बीच में न लायें तो अच्‍छा रहे।”

मैं जानता था उनका संकेत किस ओर है, ”आप इतने विवेकशील हो कर ऐसा कहते हैं। और आप तो संस्‍कृत के इतने बड़े विद्वान हैं। क्‍या आपने उत्‍तर रामचरित नहीं पढ़ा है। वसिष्‍ठ के आगमन पर उनके स्‍वागत सत्‍कार का प्रसंग। क्‍या मानव धर्मसूत्र में ‘न अमांसो मधुपर्क: स्‍यात् ‘ का कोई शाकाहारी अर्थ लगाएंगे। यह असहिष्‍णुता भी हमारे बीच उसी कूटनीति के तहत प्रबल की गई जिसे हम भांप न सके और इसका बीजारोपण करने वालों ने हर चरण पर इसका ध्‍यान रखा कि यह इस हद तक बढ़ता रहे कि दरारों को फैलने से डर लगने लगे। पहले ऐसा नहीं था।”

”पहले क्‍या था क्‍या नहीं था, इसे छोडि़ये, इसकी चर्चा के बिना भी बात चल सकती है।”

”शास्‍त्री जी हम तो माइनारिटी सिंड्रोम पर बात करने वाले थे। आपने ही यह विषय ला दिया। मैं केवल यह याद दिलाने लगा कि यदि हमारी भावना की प्रबलता के कारण कुछ विचार-वर्ज्‍य क्षेत्र हैं तो दूसरों की भावना के भी वर्ज्‍यक्षेत्र होंगे। हम उनसे बच भी सकते हैं, बचें भी, परन्‍तु एक ऐसा समाज जिसकी भावुकता के क्षेत्र इतने प्रबल हों कि वह उनका जिक्र तक बर्दाश्‍त न कर सके उसके साथ आप संलाप कैसे कर सकते हैं? आप उसके साथ् खुल कर बात नहीं कर सकते। जानना होना नहीं है, जानना करना नहीं है। जानने और चर्चा से बचने वाला समाज अपनी समस्‍याओं का सामना नहीं कर पाता है। उसके उस कोने से कोई उस पर हमला कर सकता है और अपनी असावधानी के कारण वह उस हमले का न तो पूर्वानुमान लगा सकता है न उसका निवारण कर सकता है। फूट डालने वालों ने उस अति- संवेदनशीलता को पहले से अधिक उग्र करके उसका इस्‍तेमाल अपनी राजनीति के लिए किया। इसलिए आज हम आपके सुझाव का सम्‍मान करेंगे, पर साथ ही आप से भी चाहेंगे कि आप तर्क और विवेक के औजारों का इस्‍तेमाल करते हुए अपनी अतिसंवेदनशीलता से लड़ने की आदत डालें। यह हितकर उपाय है।”

शास्‍त्री जी मेरे कथन से प्रभावित नहीं लगे फिर भी उन्‍होंने कुछ कहा नहीं।

”हम अपने विषय पर आएं। भारत के हिन्‍दुओं और मुसलमानों में एक तरह से कहें तो दो तरह के संबंन्‍ध थे। एक उनका जो अपने को विदेशी मूल का मानते थे और अपनी नस्‍ली शुद्धता बनाए रखने के लिए स्‍थानीय अमीरों तक से शादी व्‍याह का रिश्‍ता नहीं रखते थे और यह प्रयत्‍न करते थे कि उन्‍हें अपने वतन की लड़की विवाह के लिए मिल जाय, या यदि मिल गई तो इसे अपना सौमाग्‍य मानते थे । उनमें से अधिकांश के साथ उनके पितृदेश के, या मुहम्‍मद साहब के खानदान से संबंध रखने वाले उपनाम भी निभाए जाते। अब्‍दुल्‍ला बुखारी ऐसी ही उपाधि है। हाशमी ऐसा ही उपनाम है। गालिब की वंश परंपरा की एक वृद्धा ने इस बात पर फख्र जताया था कि उनके खानदान में ईरान से ही शादी का रिश्‍ता रखा जाता था। कुछ मामलों में ये दावे नकली भी होते हैं फिर भी विदेशी मूल से जुड़े लोगों का भारतीय मुसलमानों तक से बहुत अकड़ भरा संबन्‍ध था जिसे सामान्‍यत: पोशीदा रखा जाता था, पर गरूर दिखाने का अवसर आने पर यह खुल कर प्रकट हो जाता था। अपने को अमीर या रईस कहने वाले मुसलमान, कहें मुगलकाल में मनसब आदि पा कर छोटी नवाबी या जमींदारी वाले मुसलमान इसी कोटि में आते थे, जो मुसलमानों की अपनी आबादी का भी एक दो प्रतिशत ही होंगे या उससे भी कम। अभी किसी सज्‍जन ने मुसलमानों में भेद और बराव और पृथक पहचान को ले कर फेस बुक पर एक पोस्‍ट किया था जिसमें वही केले के पातों जैसा अलगाव और फिर भी केले के खंभे जैसी एकता का हवाला था। उसके तथ्‍य मुझे ठीक लगे पर भावना नहीं, इसलिए लाइक तक न भेज सका। इस तरह देखिए तो अल्‍पमत की परिभाषा इस हद तक बदल जाती है कि अल्‍पमत के भी अल्‍पमतों के हित, पहचान और लगाव के दायरे उभर आते हैं। अौर अब उनमें पहचानना होगा कि वास्‍तविक अल्‍पमत कौन ? वह किनसे असुरक्षा अनुभव करता है, किसे अपना मानता है और किनके साथ जाना चाहता है। ”

”विदेशी मूल पर गर्व करने वाले इन रईसों का भारत से या भारतीय समाज से रिश्‍ता कटु ही रहा हो यह कहना गलत होगा। सच तो यह है कि अपने आश्‍वस्ति काल में यह सोच कर कि अब उसे इसी देश में रहना है, इससे अच्‍छा कोई देश और ऐसे सुख वैभव के सामान अन्‍यत्र कहीं नहीं मिलने, उसने प्रयत्‍न पूर्वक अपने को इस देश के रंग में ढालने के प्रयत्‍न किए। यह बात खुसरो में भी मिलेगी जो हिन्‍दुओं से नफरत करता था और हिन्‍दुस्‍तान की श्रेष्‍ठता का सम्‍मान और इस जमीन और जलवायु और इसकी बोलियों से प्‍यार। परन्‍तु मुगल शासन के गिरावट के साथ असुरक्षा की भावना के बढ़ने के कारण इसमें भी कई तरह की हीन ग्रन्थियां पैदा हुई जिन्‍हें वैभव और दंभ प्रदर्शन की आड़ में छिपाया गया। इसमें फिर एक मूलोच्छिन्‍नता की चेतना ने घर किया और हिन्‍दुओं से इसके तनावपूर्ण रिश्‍ते जो पहले भी थे, अधिक मजबूत हुए जिसे भी पोशीदा रखने की कोशिश की जाती रही पर प्रकट होती रहती थी।

”भीतर से इनका मानना था कि हिन्‍दू हमारे गुलाम रहे हैं और इस्‍लाम कबूल करने वाले मुसलमानों को भी वे उन्‍हीं गुलामों का हिस्‍सा मानते थे और उन्‍हें अपनी इच्‍छानुसार चलाना चाहते थे। इसका मुझे पहले ज्ञान न था, सैयद अहमद के मेरठ के नौचंडी मेले के अवसर पर 1888 में दिए गए भाषण को पढ़ने पर ही समझ सका।

”अब इस्‍लाम कबूल करने वाले हिन्‍दुओं में कई प्रकार के मुसलमान थे और इन सभी के हिन्‍दुओं से संबन्‍ध आत्‍मीय थे। पहले में वे आते हैं जिन्‍हें कर आदि चुकाने में विलंब या असमर्थता की स्थिति में जबरन मुसलमान बनाया गया था। मेरे जन्‍मस्‍थान के पड़ाेस मे शिहाइतपार में ऐसी ही स्थिति में दंड स्‍वरूप गोमांस खिलाया गया और वह धर्मच्‍युत हो कर अपने भाइयों का धर्म बचाने के लिए स्‍वेच्‍छा से अलग रहने लगे।

मैंने कहना चाहा कि गोमांस के प‍्रति आपकी अतिसंवेदनश्‍ाीलता ने केवल हिन्‍दुओं का अहित किया है, परन्‍तु प्रतिज्ञा कर चुका था कि इस विषय पर चर्चा न करेंगे इसलिए अपने को संयत कर लिया। कहा, ”उसका आधा गांव शाही लिखता है और क्षत्रियों से नाता-गोता रखता है, आधा खान जो इस्‍लामी रीति का निर्वाह करता है । पर संबन्‍ध सदा भाइयों जैसे ही रहे।

”दूसरा वर्ग उन पेशों से जुड़े लोगों का था जिनके यहां कुछ माल ताल तैयार पड़ा रहता था और धार्मिक उपद्रवियों के द्वारा शासन के बल पर बार बार लूट हड़प लिया जाता था। बुनकरों, रंगसाजों, बिसातियों, खटिको का समुदाय इन्‍हीं में था।

”एक अलग वर्ग उनका था जिनकी योग्‍यता या पेशे का उपयोग नवाबों और बादशाहों के यहां हो सकता था। नट, पीलवान और औजार हथियार बनाने वालों का तबका इसी में आता है।

”इन सबसे अलग था सूफियों और पीरों के चमत्‍कार के प्रभाव में आकर उनके प्रसाद ग्रहण आदि के कारण धर्मान्‍तरित माने जाने वालों का समुदाय।

”इन सभी की जड़ें भारतीय थीं इसलिए इनमें असुरक्षा की कोई भावना या जिसे हम माइनारिटी सिंड्रोम कहते हैं, वह नहीं था। क्‍योंकि यह देश ही असंख्‍य अल्‍पसंख्‍यकों की अन्‍तर्निर्भरता से बना देश है और हिन्‍दू समाज उस ढीले बंधन का नाम है जिसमे जुड़ाव के भीतर हिलने, डुलने और नए समायोजन बनाने की संभावनाएं बची हुई हैं।

”माइनारिटी सिंंड्रोम केवल विदेशी मूल पर गर्व करने वाले ताल्‍लुकेदारों, रईसों, मुल्‍लों, मौल‍वियों में व्‍याप्‍त था इसलिए सांप्रदायिकता शहरी समस्‍या थी और सभी शहरों की भी समस्‍या नहीं थी। उदाहरण के लिए गोरखपुर जिले में देश विभाजन के समय भी कभी कोई उपद्रव नहीं हुआ जब कि वह गोरखनाथ मंदिर के कारण हिन्‍दुत्‍व का गढ़ माना जाता था और वहां नवाबी काल में अवध से बसाए गए मुसलमानों की बड़ी संख्‍या थी। वहां विदेशी पहचान का दावा यदि कोई कर सकता था तो वहां का इमाम। विभाजन के बाद कुछ लोग वहां से भी पाकिस्‍तान तो गए होंगे, परन्‍तु पूरे जिले में दंगों का कोई इतिहास न पहले था न आगे हैहीं।

”परन्‍तु विदेशी मूल से जुड़े रईसों और ताल्‍लुकेदारों में उनकी संवेदनशीलता को देखते हुए माइनारिटी सिंड्रोम पैदा किया गया और इसका कारण यह था कि 1857 से पहले भी विदेशी मूल और और अपनी धार्मिक कट्टरता के अतिरिक्‍त इस बात से खिन्‍न हो कर कि अंग्रेजों ने मुसलमानों का राज्‍य हड़पा है बंगाल में लगातार किसी न किसी पैमाने पर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह होते आ रहे थे और 1858 के बाद भी कुछ कोनों में मुसलमानों ने मोर्चा संभाल रखा था। यही कारण था कि मुसलमानों को अपने से विमुख मान कर कंपनी शासन ने बंगाल के हिन्‍दुओं को नौकरियां दीं और सेवा का अवसर दिया। इसे दूसरी तरह यह भी कहा जा सकता है कि मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति कटुता इतनी प्रबल थी कि उन्‍होंने न तो उनकी शिक्षा ग्रहण की न उनकी नौकरी में जाना पसन्‍द किया, यद्यपि इसके अपवाद भी तलाशे जा सकते हैं। इसलिए 1857 के बाद साम्‍प्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए इसी वर्ग में माइनारिटी सिंड्रोम पेदा करने के प्रयास किए गए और इसमें उन्‍हें सैयद अहमद के कार्य और प्रभाव से आशातीत सफलता मिली।

”शास्‍त्री जी मैं जानता हूं कि आप ऊब रहे हैं। मुझे तो अभी ऐसा लगा आप ऊँघ भी रहे हैं, मैं …”

शास्‍त्री जी पूर्ण चैतन्‍य में आ गए, ” ऊब या ऊँघ नहीं रहा था। मैं आपके कथन को बहुत ध्‍यान से सुन रहा था। आंख बन्‍द अवश्‍य थी परन्‍तु एकाग्रता के कारण, ऊब के कारण नहीं।”

”खैर आज तो मैं इतना ही कहूंगा कि सैयद अहमद ब्रितानी उपयोग के लिए पहले से बने बनाए एक ऐसा औजार थे जो स्‍वयं आग्रह कर रहा था कि आ मुझे संभाल और अपना संकट टालने के लिए मेरा उपयोग कर। परन्‍तु शिक्षित मुस्लिम समाज में उनके प्रति इतनी गहन श्रद्धा है कि उनकी खरी आलोचना सुनने के लिए वे उसी तरह तैयार नहीं हो सकते जिस तरह आप गाय पर आगे कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए इस पर कल कुछ विस्‍तार से विचार करेंगे। आज तो इतना ही समझ लीजिए कि इस देश मे अनगिनत, मेरा मतलब असंख्‍य से नहीं है, इससे है कि अभी इनकी गिनती हुई ही नहीं, अल्‍पमत हैं और जो वास्‍तव में अल्‍पतम हैं उन्‍हें कोई शिकायत नहीं। जो अन्‍य अल्‍पमत हैं वे जुझारू दस्‍ता बन नहीं सकते थे, इसलिए अल्‍पसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक की परिभाषाएं बदली गईं। अल्‍पसंखक को इतना जाेड़ कर रखा गया कि वह प्रतिरोध करके शासकों का मंसूबा पूरा कर सके और जिसे बहुसंख्‍यक बताया गया उसे लगातार तोडा गया कि वह उसका प्रतिरोध न कर सके। आज के बुद्धिजीवी जिस स्‍तर पर उतर कर बुद्धिजीवी बनते हैं उस स्‍तर पर वैचारिक होली खेली जाती है जिसमें कीचड़ और गोबर तक का प्रयोग वर्जित नहीं होता, और जिस स्‍तर पर राजनीति की जाती है वह मलमग्‍नता में सबसे जघन्‍य का चयन बन कर रह जाता है, इसलिए इन दोनों को यही अपेक्षा होगी कि गिनती का यह काम भी कोई विेदेशी आकर ‘हमारे’ लिए कर जाएगा और वे उसी को, यह सोचे जाने बिना कि उसने किसी अन्‍य योजना से धन, समर्थन और साधन प्राप्‍त करके यह काम उसके लिए, और हमारे विरुद्ध, किया है और उसे प्रमाण मानना उसके फन्‍दे में अपना गला डालने जैसा है। शास्‍त्री जी आप के लोग इस मामले में दूसरों से आगे हैं, पर अब हम इस पर कल बात करेंगे।

Post – 2016-07-26

अभिनय भावनाओं को मूर्त करने की कला है और शायरी शब्‍दों का खेेल जिसका अभिनेता या शायर की निजी जिन्‍दगी से संबंध नहीं होता, पर अपने भीतर वह आग पैदा करना या वह सर्जनात्‍मक दबाव पूरी तरह अपने नियंत्रण में नहीं होता यहीं नाटकबाजी और अभिनय, पद्य और कविता का अन्‍तर हे, यद्यपि कलाभ्‍यास से सब कुछ आसान हो जाता है और शायर संगीतकार के निर्दशक की बताई धुन और कहानी की मांग के अनुसार गाने लिखते हुए भी कभी कभी अच्‍छी शायरी कर जाते हैं। कुछ इन्‍ही कारणों से अपना मजाक उड़ाते हुए अपनी रचनाओं को शायरी की जगह तुकबन्दियां कहता हूं। पर सावधानी का एक और पहलू है। गजल तो प्रेम और इसकी पीर का क्षेत्र ही हुआ, दुख भरी सांकेतिक इबारतेंं लिख कर शायर जब निहाल हो जाते हैं तो इसका एक फर्जी सन्‍देश जाता है कि बेचारे हिन्‍दुस्‍तान में कितने दुखी हैं और इस दुख को साझा करने के लिए फर्जी साहित्‍य भी लिखा जाने लगता है। दूसरी किसी भाषा की तुलना में हिन्‍दी साहित्‍य इससे भरा पड़ा है।

वह दिल जिसके लिए बदनाम था पूरे जमाने में
कि अक्सर महफिलें लगती थीं इसके शामियाने में।

फसादों के भी मौके आए दिन आया ही करते थे
पहुंचता था कभी चौकी कभी मैं खास थाने मे।

रकीबों को जलन होती थी इतनी आप मत पूछो
मगर मैं देर करता था नहीं दमकल बुलाने में।

उसी का हाल है यह ठोकरों पर ठोकरें हासिल
नहीं पर बाज आता शर्म आती है बताने में।

हसीनों की जगह अब डाक्टर को याद करता है
जो कहता है समय लो, फीस दो, बैठो सिवाने में।

अगर मिलने न जाऊँ तो वही बेचैन होता है
कहां दिक्कत हुई वह पूछता है आने जाने में।

अगर यह आप पर आए बुरा मत मानना इसका
पुरानी लत है, टाइम तो लगेगा ही छुड़ाने में।

यह क्यों भगवान ने सोचा कि इसको ठीक कर देगा
निकाला घर से तो दे दी जगह दीवानखाने मे ।
25 जुलाई 2016

2
पश्चिमी धाक और सांस्‍कृतिक विजय अभियान के विरुद्ध

जमीं तो हार चुके हैं कब के
हम तुम्‍हें आसमां नहीं देंगे
पास हाेने का फेल होने का
हम तुम्‍हें इम्‍तहां नहीं देंगे।

जहां सपने छिपा के रखे है
उस जगह की तलाश है तुमको
जान लो अपनी जान देंगे पर
तुमको उसका पता नहीं देंगे।

जानते हैं कि किस जमाने से
चल रही है तुम्‍हारी तैयारी
हम अभी एक जुट नहीं हैं गो
पर मुकम्‍मल जहां नहीं देंगे।

बनाओ बम मिसाइलें बेहतर
लगाओ आयुधों के तुम अंबार
हम जगाएंगे बाकी दुनिया का
जंग का रास्‍ता नहीं लेंगे।

जानते हैं तुम्‍हारे कारिन्‍दे
हमारे बीच काम करते हैं
उनके खाते खिताब देखेंगे
मशविरा उनका हां, नहीं लेंगे।

एक दिन में न सीख पाए जो
वे तजुर्बों से सीख जाएंगे।
कहा भगवान ने पियो गुस्‍सा
वर्ना बदनाम कर मिटा देंगे ।।
25/26 जुलाई

Post – 2016-07-25

निदान – 2
इगल्‍फमेंट सिंड्रोम

”शास्‍त्री जी, मुझे सबसे अधिक शिकायत आप लोगों की इतिहास की समझ से है। आप इसे शौर्यगान बना कर रख देना चाहते हैंं। अपने शासकों से आपने यह भी नहीं सीखा कि विजय के लिए जितने गहन ऐतिहासकि अध्‍ययन की जरूरत होती है, आत्‍मरक्षा और मुक्ति के लिए उससे कम समर्पित और गहन अध्‍ययन की जरूरत नहीं होती। इतिहास का अध्‍ययन बहुत जिम्‍मेदारी का काम है। मात्र इतिहास की शरारतपूर्ण व्‍याख्‍या से किसी समाज, समुदाय या जाति के भीतर असुरक्षा या आशंका पैदा की जा सकती है। इसलिए इतिहास को वर्तमान से अलग करके नहीं देखना चाहिए। किसी देश पर भौतिक विजय शस्‍त्रबल से पाई जाती है और उसकी चेतना पर विजय उसके इतिहास की तोड़ मरोड़ से, इसलिए यदि व्‍याख्‍याकार वह हो जो आप पर शासन है, या जो आप पर शासन करना चाहता है, या उस जाति का हो जो अपने को आपसे नस्‍ली तौर पर श्रेष्‍ठ सिद्ध करके आपके मनोबल को तोड़ना और गुलामी की भावना को प्रबल बनाना चाहती हो तो उस इतिहास को इतनी सावधानी से और हर इबारत के पीछे की मंशा को भांपते हुए पढ़ना चाहिए। नये सिरे सामग्री जुटा कर अपना इतिहास अपने हितों की सुरक्षा और मानसिक दासता से मुक्ति के लिए लिखना चाहिए। आश्‍चर्य नहीं है कि आरंभ से ही हमारे राष्‍ट्रीय चेतना के अग्रणी जनों ने इतिहास को समझने और उस पर लिखने की जरूरत समझी। वह तिलक हों या लाजपत राय, गांधी, नेहरू, अंबेडकर, संपूर्णानन्‍द, नरंन्‍द्रदेव। जिन्‍होंने इतिहास का विधिवत अध्‍ययन नहीं किया उनकी राजनीतिक समझ में भी गहनता का अभाव मिलेगा।”

”आप उनके इतिहासलेखन से सन्‍तुष्‍ट है़? मुझे उनमें कोई बहुत, स्‍तरीय नहीं लगता।”

”इसलिए कि उसमें शिवा जी आदि को नायक के रूप में प्रस्‍तुत नहीं किया गया?”

”डाक्‍साब, आप मेरी उम्र का तो ध्‍यान रखा करें। आप मुझसे व्‍यंग में बात करेंगे तो मै जवाब कैसे दे पाऊँगा। सर की बात दूसरी है, आप लोगों की छनती भी है और ठनती भी।”

शास्‍त्री जी ने अपने विनय के बावजूद पटकनी तो दे ही दी। मैं संभल गया और कुछ झेंप भरे स्‍वर में पूछा, ‘आपको उनके इतिहास में क्‍या कमी दिखाई देती है ?”

”पहली तो यही कि वे सभी उसी अखाड़े में खेल के लगभग उन्‍हीं नियमों को मानते हुए प्रतिवाद करते या आरोप लगाते हुए या क्षतिपूर्ति का प्रयास करते हुए अपना इतिहास लिखते हैं जो अपने हितों को ध्‍यान रखते हुए अंग्रेजों ने और दूसरे यूरोपीय विद्वानों ने तैयार किया था। वे बताते रहे कि आर्य आज से साढ़ेतीन हजार साल पहले मध्‍येशिया से आए तो तिलक कहते हैं कि नहीं, साढ़े तीन हजार नहीं सात हजार साल पहले और मध्‍येशिया से नहीं, उत्‍तरी ध्रुव से, पर मान वह भी लेते हैं कि बाहर से आए थे। मैंने मात्र एक दृष्‍टान्‍त दिया।”

शास्‍त्री ने तो मुझे चौंका दिया। इस आदमी की नजर इतनी पैनी है यह तो सोचा ही नहीं था।

”आप ठीक कहते हैं। हमने न अपने इतिहास के स्रोतों की खोज की, न उनका सही प्रतिवाद कर सके, न ही उन विषबीजों को निर्मूल करने की दिशा में कोई काम कर सके। सच तो यह है कि हमने उन विषबीजों काे सींच कर पेड़ उगा लिए और उनके फलों का कारोबार करते रहे।

”उन्‍होंने सिद्ध किया कि तनिक भी शिथिलता बरती जाय, प्रेम दिखाया जाय तो हिन्‍दू धीरे धीरे पूरी की पूरी कौम को सीधे हिन्‍दू बना लेते हैं। इसके दो पाठ बने एक हिन्‍दुओं के लिए मिथ्‍या आत्‍मतोष का कि हमारी मूल्‍य प्रणाली इतनी श्रेष्‍ठ है कि इससे परिचित होने के बाद दूसरे सभी हिन्‍दू मूल्‍यों और रीतियों को अपना लेते हैं और दूसरा मुसलमानों के लिए दहशत का कि यदि किसी तरह की उदारता या रियायत से काम लिया, अपिक प्रेम बढ़ाया तो तुम्‍हें भी हजम कर जाएंगे, इसलिए अगर अपने अस्तित्‍व की रक्षा चाहते हो तो मिल कर नहीं, तन कर रहो और लगाव नहीं अलगाव की तरकीबें ईजाद करो। मुझे इकबाल की उन प‍ंक्तियां भी इसी से प्रेरित लगती हैं, ”न संभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्‍दोस्‍तां वालो, तुम्‍हारी दास्‍तांं तक भी न होगी दास्‍तानों में।” इसे लैंग ने इनगल्‍फमेंट सिंड्रोम की संज्ञा दी है।

”भारतीय मुसलमानों पर उनकी कौन सी पुस्‍तक है जिसका उल्‍लेख कर रहे हैं आप। कहां से पढ़ने को मिलेगी।”

उन्‍होंने भारतीय मुसलमानों या हिन्‍दुओं पर या यूराेप के ईसाइयों पर कुछ नहीं लिखा है। उनकी पुस्‍तक है दि डिवाइडेड सेल्‍फ । यह प्रेम की व्‍याख्‍या है। यदि कोई किसी दूसरे से अपेक्षा से अधिक प्‍यार करने लगे, उनका अपेक्षा से अधिक ध्‍यान रखने लगे, अपनापा दिखाने लगे तो व्‍यक्ति को अपनी अस्मिता का संकट अनुभव होने लगता है। वह अपनी रक्षा के लिए इस प्‍यार के अनुपात में ही दूरी बढ़ाने लगता है। इसके उग्र हो जाने पर उसे लगता है वह मुझे खा जाएगा। यह मानसिक असंतुलन और छिन्‍न मनस्‍कता का रूप ले लेता है। हिन्‍दू यदि मुसलमानों से अधिक लाड़ दिखाए तो उन्‍हें वह इतिहास याद आने लगता है जो अंग्रेज व्‍याख्‍याकारों ने समझाया था। इसीलिए मैंने कहा था, गांधी का ईश्‍वर अल्‍ला तेरे नाम भी उनमें बेचैनी पैदा करता था।

”हिन्‍दू समाज के विषय में यह दुष्‍प्रचार है। हिन्‍दू किसी को अपने में मिलाता नहीं उल्‍टे दूर भगाता है। वह उसको भी अपनाने को तैयार नहीं था जो उसके ही घर परिवार का था और एक बार किसी चूक, दबाव या अन्‍याय से विधर्मी हो गया। उसका एक जवाब है कि भाई तुम अपने ढंग से रहो, हमारे नजदीक मत आओ। हमारी पवित्रता भंग हो जाएगी। हिन्‍दू नाम का कोई समुदाय नहीं है जिसमें कोई मंत्र पढ़ कर किसी को शामिल कर लिया जाए । आर्य समाजियों ने कलमा की तर्ज पर गायत्री मंत्र को शुद्धि मंत्र बनाया तो पर चला नहीं। हिन्‍दू बनने के लिए दूसरों को स्‍वयं अलग रहो अलग रहो सुनने के बाद भी किसी जाति में होने का दावा करना पड़ता है, लंबे प्रयत्‍न के बाद उस जाति वालों से रिश्‍ता नाता जुड़ता है और फिर तो यदि उस जाति का हो गया तो हिन्‍दू हो गया। यही विदेशी आक्रमणकारियों को करना पड़ा, परन्‍तु जो अपने धर्म, विश्‍वास और रीति नीति से रहना चाहे उसकी निजता या पाकदामनी पर हिन्‍दू की ओर से कोई आंच नहीं आने वाली। इसी के कारण लाखों यहूदी भारत में लंबे समय तक रहे, आज भी होगे, और उनके मत विश्‍वास पर कोई आंच न आई। पारसी अपनी मान्‍यताओं के साथ, धर्म विश्‍वास के मामले में बिल्‍कुल अलग और अन्‍य सभी मामलों में पक्के भारतीय बने रहे और आज भी हैं।”

” इस पक्ष की ओर तो मेरा ध्‍यान ही नहीं गया था।” शास्‍त्री जी ने स्‍वीकार किया।

”आपका ही नहीं, मेरा स्‍वयं का ध्‍यान इस पहलू की ओर आज से पहले नहीं गया था और मानता रहा कि अंग्रेजो की व्‍याख्‍या सच है। आठ दस साल पहले नामवर जी से बात हो रही थी तो उन्‍होंने लोठार लुत्‍से के इसी कथन को दुहराते हुए इसकी पुष्टि की थी कि हिन्‍दू व्‍यक्तियों का धर्मान्‍तरण नहीं करता, पूरी कौम को आत्‍मसात कर लेता है। वही निगल जाने वाली बात और उस समय मुझे भी यह ठीक लगा था। इसीलिए कहा, उन्‍होंने इसे प्रचारित ही नहीं किया अपनी ज्ञानव्‍यवस्‍था में भी शामिल कर लिया, पर विश्‍लेषण करने पर हम पाते हैं कि यह गलत है। जो अपने धर्म और विश्‍वास के साथ रहना चाहे उसके लिए हिन्‍दू समाज जैसा सुरक्षित कोई समाज नहीं मिलेगा। वह एक ही जरूरी शर्त है कि उसे अलग रहने की आदत डालनी होगी क्‍योंकि हिन्‍दू किसी को मिलाता नहीं। यह हिन्‍दू मुसलिम सिख इसाई सब आपस में भाई भाई जैसा गाना भी स्‍वतन्‍त्रता आंदोलन से सभी को जोड़ने और अंग्रेजों द्वारा फैलाए गए विद्वेष को कम करने के लिए लगता रहा परन्‍तु इसका परिणाम उल्‍टा रहा। जितना ही प्रेमगान गाया उतना ही अलगाव बढ़ा। इसलिए मुसलमान की आशंका को आप मेल जोल बढ़ा कर कम नहीं कर सकते। सुरक्षित दूरी रख कर, अलग रख कर ही सहयोगी बना सकते हैं। ”

”यह विचित्र गणित है अलगाव और सहयोग, जैसे ऋण और धन साथ।”

”गणित में भी ऋण ऋण धन हो जाता है। समाज में भी अपनी निजता और पृथकता की रक्षा करते हुए साथ काम किया जाता है और इसे समझ लें तो अधिक भरोसे विश्‍वास के साथ किया जा सकता है। इन्‍गल्‍फमेंट सिंड्रोम का सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों को ही हुआ। अपनी दूरी बनाए रखने के लिए उस भाषा को जिसका आरंभ्‍ा उन्‍होंने किया था, अरबी-फारसी बोझिल बना कर बोलचाल से इतनी दूर कर दिया कि वह चन्‍द अमीर घरानों में सिमट कर रह गई। वे सोचते रहे यह शरीफों की भाषा है।”
शास्‍त्री जी अपने को रोक न पाए, ” हम तो देवताओं की भाषा की सीमा जानते हैं जिसे सयानों ने खारा कुप जल कह कर जन भाषा को बहता नीर बताया।”

”ठीक कहा आपने। इसी तरह अरबी लिपि पर इतना एक तरफा जोर देते रहे कि यदि नागरी का भी प्रयोग होने लगा तो इसे हिन्‍दू सांप्रदायिकता का प्रमाण मान लिया। जब कि उर्दू भारतीय आर्यभाषाओं में से एक है यह बात बाबा-ए-उर्दू अब्‍दुल हक कवायदे उर्दू में समझा चुके थे और उसके लिए अरबी लिपि और उच्‍चारण की शुद्धता पर अधिक जोर अवैज्ञानिक है यह पाकिस्‍तानी भाषाविज्ञानी तारिक रहमान को समझाना पड़ा । परन्‍तु हम चाहेगे वे जितनी कठिन भाषा, अपाठ्य लिपि जैसे शिकस्‍ता, अपनायें, यह उनका चुनाव है। हमें उसमें कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए। रीति विश्‍वास से ले कर खानपान तक। सहअस्तित्‍व की सम्‍मानजनक शर्त यही है। मुसलमान क्‍या खाएगा, यह मीनू हिन्‍दू को तय नहीं करना चाहिए। न यह अधिकार मुसलमान को हो सकता है कि वह हिन्‍दू का मीनू तैयार करे।” ‘

शास्‍त्री जी कुछ बेचैन अनुभव करने लगे। ”अब हम माइनारिटी सिंड्रोम को समझ सकते हैं। पर आज आज नहीं ।”

Post – 2016-07-25

रचना प्रक्रिया

कल की अपनी पोस्ट लिखने के साथ अन्‍तर्यामी ने जो रची वह एक दर्पोक्ति थी, पर थी कमाल की:
मैं भी देखूंगा बुलन्दी तेरे सैयारे की
बहुत मुमकिन है वह मेरे करीब आ पहुंचे ।।
२४ जुलाई २०१६

फिर सोचा यह तो बड़बोला पन हो गया पर अवचेतन का क्या करें, क्षतिपूर्ति के आयोजन वही करता है और अनुपात का ध्यान होता तो क्या अवचेतन रहता। इस सोच के साथ मन डांवाडोल हो गया और हकीकत का एक पहलू उभर आया। उसे भी दर्ज कर लिया:
कल कहा आप की खिदमत में पेश होना है
आज घर आए कहा अपना इन्तजाम करो।
२४ जुलाई २०१६

समय था, दूसरों की डाक और प्रतिक्रियाएं टटोलने लगा तो फिर एक दबाव और उसे भी टांका और उसमें कुछ जोड़ा भी:

निदान है भी कहीं या कि कहीं है ही नहीं
जिस जमीं पर हूं वहां आसमान है ही नहीं।

मरीज कहते हैं इस मर्ज से है प्यार मुझे
अपनी बीमारी का अन्‍दाज उन्हें है ही नहीं।

”मेरी हस्ती को ही बीमारी समझते हो जनाब
”आप की मानें तो कल तक थे, आज हैं ही नहीं।

”बुरा हो उनका, बुरा कहते थे जो लोग हमे
दुरुस्त थे, दुरुस्त हैं, दुरुस्त हैं भी नहीं ।

”जैसे को तैसा नहीं, तैसा और तैश के साथ
”यह न्याय होना है, होगा भी, अभी है ही नहीं।

लाेग कहते हैं कि भगवान से उम्मीद न कर
कल तक वह था, मगर देख्‍ाो तो आज है ही नहीं।

‘दुअा करो सही जन्नत नसीब हो उसको’
‘पता दोजख का है, जन्नत का पता है ही नहीं ।’

तेरी किस्मत में जो था मान ले पाया तूने
मान लूंं? जो हिसाब में था, यहां है ही नहीं।
२४ जुलाई २०१६

Post – 2016-07-24

निदान -1

“शास्‍त्री जी, आपको पता है संघ की योजना और इसके संगठन के बारे में मेरी अच्‍छी राय नहीं है।”

”कारण बताएं तो मैं भी अपना अहोभाग्‍य समझूं।” शास्‍त्री जी ने अपना आदर भाव कम किए बिना किंचित् व्‍यंग्‍य भरे तेवर में प्रतिवाद किया।

”हमारे देश से, हमारे विचारों से, ग्रन्‍थों से परिचित होने से पहले पश्चिम के लोग धर्म प्रचार तक के लिए हिंसा और केवल हिंसा का सहारा लिया करते थे। विचारों से दुनिया बदली जा सकती है, विचार भी एक शक्ति है जाे अधिक मारक है, इसका उन्‍हें पता नहीं था, इसलिए फ्रांस की क्रान्तियां हों या सोवियत संघ की उनमें जितना रक्‍तपात हुआ उतना परिवर्तन नहीं। चीन पूरब का देश था इसलिए इसमें हिंसा कम हुई पर दर्शन हिंसा वाला ही रहे तो पूरब पश्चिम क्‍या करेगा। भारतीय संपर्क में आने के बाद सबसे पहले पुर्तगालियों को अपने क्रूर और उत्‍पीड़नकारी हथकंडों को त्‍यागना पड़ा और उसके बाद सभी ने अल्‍पतम हिंसा और अधिकतम कूटनीतिक चातुरी से उन्‍हीं लक्ष्‍यों को पाने का रास्‍ता अपनाया। यह भारतीय नीतिकारों से परिचय के बाद हुआ और यह परिचय मेरी समझ से सबसे पहले पंचतन्‍त्र से आरंंभ हुआ, और धीरे धीरे वे कौटिल्‍य तक पहुंचे और बहुत चतुराई से दूसरी स्‍मृतियों को जो गुप्‍त काल में मान्‍य थीं उनको किनारे डाल कर मनुस्‍मृति काे हिन्‍दुओं की मान्‍य स्‍मृति बनाया जिसे भारतीय न्‍यायप्रणाली को गर्हित सिद्ध करने के लिए जेन्टू Gentoo Codeकोड के रूप में किसी ने अनुवाद किया था। ये बातें आप जानते होंगे, मैं केवल अपना पक्ष रखने के लिए आप को इनकी मात्र याद दिला रहा हूं। यह याद दिला रहा हूं कि जिस देश में धन और बाहुबल के अभाव में भी बौद्धिक जगत पर ब्राह्मणों ने नियन्‍त्रण रखा हो, जिसमें बच्‍चों तक को खरहे और शेर की कहानी से सिखाया जाता रहा हो कि बुद्धिर्यस्‍य बलं तस्‍य, उसे आपके संगठन ने भुला दिया और पश्चिम के लोगों ने अपना लिया। बुद्धि और कूटनीतिक तरीके, विचारों से दुनिया बदलने के तरीके हमारे पास थे उसे उन्‍होंने अपना लिया, कोई बात नहीं, दुखद यह कि आप ने उसे छोड़ दिया और उनके बाहुबल वाला हथियार ले कर शक्तिशाली बनने का सपना देखने लगे। अध्‍ययन, चिन्‍तन, विचार-‍विमर्श को आपके संगठन में सबसे अधिक हतोत्‍साहित किया जाता रहा। हथियार को ही कारगर मानने वाले कम्‍युनिस्‍टों तक ने स्‍टडी सर्कल आदि चलाते हुए, विचार विमर्श को महत्‍व देते हुए शिक्षित समाज को नये ढंग से शिक्षित करना आरंभ किया जब कि आप उनको लाठी भांजना सिखाते रहे जिसका जीवन में कभी उपयोग किया ही नहीं। कम्‍युनिस्‍टों ने इसका भी उपयोग आप से अधिक कुशलता से किया और सच कहें तो इसका नुकसान भी झेला। अनुशासन पर सबसे अधिक बल देने वाले इन दोनों विचारधाओं को मैं मूर्खता का जनक मानता हूं परन्‍तु आप लोगाें को उनका बड़ा भाई, गो पैदा एक ही सन में हुए। प्रचारतन्‍त्र का जितनी कुशलता से और जितने प्रभावशाली ढंग से पश्चिमी जगत ने प्रयोग किया है, वह ब्राह्मणों के प्रचारतन्‍त्र से बहुत बड़ा, बहुत प्रभावशाली है, यह देखते हुए भी दोनों ने कभी इसके महत्‍व को समझा ही नहीं। वे तो निश्चित रूप से और आप लोग भी प्रच्‍छन्‍न रूप से वैचारिक स्‍वतन्‍त्रता के विरोधी रहे जो एक उन्‍नत प्रचार तन्‍त्र की बुनियादी शर्त है।”

”डाक्‍साब, अब मैं आपसे क्‍या कह सकता हूं परन्‍तु यदि यही आपका निर्विषीकरण है तो आप तो मुझे अपमानित करके मेरे मन को विषाक्‍त न भी सही, खट्टा तो कर ही रहे हैं।”

”मेरा ऐसा इरादा नहीं था और आपको तो मैं इतना सम्‍मान देता हूं कि सोचता हूं जब कभी किसी प्रसंग में दुविधा या संदेह पैदा हो तो आप से शंकानिवारण कर लिया करूं, फिर भी मैं आपकाे शाक ट्रीटमेंट से अपनी आगे की बातों को अधिक ध्‍यान से सुनने के लिए तो तैयार कर ही रहा था।”

शास्‍त्री जी इस बार कुछ बोले नहीं। अधिक दत्‍तचित्‍त अवश्‍य हो गए।

”आप जरा चाणक्‍य को फिर से पढ़िए और इस बात पर ध्‍यान दीजिए कि किसी शत्रु या स्‍वतंत्र राज्‍य में विक्षोभ पैदा करने के लिए, वहां से सूचना जुटाने के लिए, उसके बुद्धिजीवियों को सम्‍मानित करके शेष में क्षोभ पैदा करके यह दिखाने के लिए कि उनकी सच्‍ची कद्र वह राजा ही कर सकता है, उसमें विष प्रचार और अफवाह फैलाने के लिए जो भी तरीके चाणक्‍य ने सुझाए हैं ठीक उन्‍हीं का अधिक परिष्‍कार करते हुए अधिक बड़े पैमाने पर पश्चिम अपनी सत्‍ता सुदृढ करने और अपना वर्चस्‍व कायम रखने के लिए करता जा रहा है और आपने, आपसे मेरा मतलब है हम सबने, उनमें से किसी का सहारा लेना तो दूर उनको भुलाने को आधुनिकता का पर्याय मान लिया और उनसे भी कपड़े उतारना और लिंचिंग और दंगे तो सीखे, जो उनको ही क्षति पहुंचाते हैं, परन्‍तु इन परिमार्जित पद्धतियों को जिनकी नींव आपकी थी, जिनकी सबसे अधिक जरूरत आपको थी, अपनाने की जरूरत ही नहीं समझी। पहली बार मोदी ने इसके महत्‍व को समझा पर यह भी हवा में नहीं होती और उस ओर हम गए तो विषयान्‍तर हो जाएगा, लेकिन यदि आप अपने समाज को जिसमें सभी आते हैं उस विष के प्रभाव से मुक्‍त करना चाहते हैं तो उसकी कुछ शर्तें हैं।”

मुझे आशा थी कि इस बार तो शास्‍त्री जी पुछेंगे ही कि वे शर्ते क्‍या हैं, परन्‍तु वह कुछ बोले नहीं, न ही उनकी एकाग्रता भंग हुई ।

”पहली तो यह कि हम यह न सोचें कि उपाय सुझाते ही विष उतर आएगा। प्रभाव गहरा हो तो विषाक्‍त व्‍यक्ति या समाज को मरने से बचाया नहीं जा सकता, जहां बचाया जा सकता है वहां भी जरूरी नहीं कि उसे पूरी तरह निर्विष किया जा सके, जहर का कुछ असर उस पर बाकी न रह जाय या इसके कारण उसके मार्मिक अंगों में जो क्षति हो चुकी है उसे ठीक ही किया जा सके । इसलिए उपचार का प्रयत्‍न जरूरी है, परिणाम सदा अनिश्चित ही रहते हैं।

”दूसरी बात यह कि विष प्रचार में, जहर देने या मिलाने में एक पल का समय लगता है, परन्‍तु इसके निदान से ले कर उपचार तक में लंबा समय लगता है इसलिए धैर्य रखना जरूरी है और अनुकूल परिणाम न आने पर उससे प्रभावित व्‍यक्ति को दोष दे कर छुट्टी पा जाना सही तरीका नहीं है।

”तीसरे विष के कुछ रूप ऐसे होते हैं जिनका शिकार तत्‍काल मरता नहीं, और उसकी मादकता का आनन्‍द लेने लगता है, क्‍योंकि यह हमें अपने चारों ओर के नीरस जगत से एक अन्‍य लोक में पहुंचा देता है, जो उन ड्रग्‍स के मामले में होता है जिसके भुक्‍तभोगी को स्‍वयं उसकी लत लग जाती है। उसे छोड़ने पर बेचैनी इतनी प्रबल हो जाती है कि व्‍यक्ति उसे झेल नहीं पाता, इसलिए यह जानते हुए भी कि उसका जीवन व्‍यर्थ हो चुका है और मृत्‍यु निकट से निकटतर आ रही है, वह उसे छोड़ने को तैयार नहीं होता। यहां निर्विषीकरण का प्रयास बहुत लंबा और जटिल हो जाता है। इसके मामले में धैर्य न खोना, प्रयत्‍न में लगे रहना और कुछ गहन उपायों के लिए तैयार रहना चाहिए, भले शतप्रतिशत सफलता की आशा न हो। जितनों को ही उबारा जा सका वही बहुत बड़ा लाभ।

”यह तो रही द्रव्‍य रूप विष या विषवत पदार्थो के प्रभाव में आने की बात। मन को विषाक्‍त करने के लिए जिन उपायों का सहारा लिया जाता है, वे जहां तक मेरी नजर में आते हैं अब बताता हूं:

१. इतिहास की ऐसी व्‍याख्‍या जिससे पारस्‍परिक अविश्‍वास और घृणा का विस्‍तार हो। दुर्भाग्‍य से इसका सहारा औपनिविेशिक काल की तुलना में स्‍वतन्‍त्र भारत में अपने को पेशेवर इतिहासकार कहने वालों द्वारा अधिक निर्लज्‍जता से लिया गया क्‍योंकि बांटो और राज करो कि जिस नीति पर विदेशी शासक चले थे, उसकी तुलना में अधिक जघन्‍य, अधिक गर्हित रूप में समाज को बांटने और पारस्परिक घृणा फैलाने का काम वोटबैंक बनाने की होड़ में किया गया और किया जा रहा है।

2. धार्मिक या जातीय श्रेष्‍ठताबोध को उभार कर, जिसके कारण ऐसा व्‍यक्ति और समुदाय दूसरे धर्मों या जातियों के लोगों को अपने से हेय समझने लगता है और मन की खटास बढ़ती जाती है। इस श्रेष्‍ठताबोध के शिकार भी ऊँचे आदर्शों की दुहाई देते हैं, परन्‍तु मिल जुल कर रहने की उनकी शर्त होती है कि उनकी श्रेष्‍ठता को मान कर शान्तिपूर्वक उनके नेतृत्‍व में आगे बढ़ा जाय और उनकी श्रेष्‍ठता को सनातन बनाए रखा जाय।

३. शिक्षा के माध्‍यम से या शिक्षा संस्‍थाओं का चरित्र और सरोकार बदल कर।

4ृ यदि सत्‍ता पर अधिकार है तो सत्तालभ्‍य अवसरों और अधिकारों का शतरंज की गोटों की तरह इस्‍तेमाल करके ।

5. हितैषी का नाटक करते हुए व्‍यक्तिगत संपर्क के माध्‍यम से कान भरने का काम।

“यह तो हुआ वह मोटा खाका जिसे हमें समझते हुए यह देखना होगा कि उन्‍होंने इनका कितनी सफलता और विफलता से प्रयोग किया और आज भी कैसे किया जा रहा है। फिर हम देखेंगे विष का कितना असर किन किन रूपों में हो चुका है और हमारे अपने विश्‍लेषण के क्‍या तरीके हो सकते हैं, क्‍योंकि हथियार के रूप में एक बौद्धिक के पास केवल यही होता है। पर आज तो लगता है आपको नींद सी आ रही है।”

Post – 2016-07-24

मैंने पहले भी कहा है कि लेख मैं लिखता हूं उसके समानान्‍तर, शायद, तुकबन्दियां मेरे अवचेतन में कोई करता चलता है । विषय कभी वही कभी उससे अलग। लेख जितना ही उलझाने वाला तुकबन्‍दी उतनी ही लंबी या एक दो तक पहुंचने वाली। कभी कभी निहायत वाहियात भी। पहले उपेक्षा कर देता था इधर टांकने लगा। कल लेख पोस्‍ट किया और उसके कुछ ही बात अवचेतन साहब ने अपना कारनामा पेश कर दिया। तुकबन्‍दी पढते समय इसका ध्‍यान अवश्‍य रहे। वह जैसी भी मेरे वश में नही है:
कभी कुछ किया कभी कुछ कहा
जो किया कहा वो दुरुस्त था।
न विचार कर के किया, कहा
क्योंकि आदमी वो दुरुस्त था।

जो किसी ने उसको सिखा दिया
जो किसी ने उसको पढा दिया
वह सिखाता दूसरो को रहा
क्योकि आदमी वह दुरुस्त था।

मैने पूछा उसका पता जहां
कहा मेरे ठौर अनेक हैं
रहूं संघ में या कुसंग में
क्योंकि आदमी वह दुरुस्त था।

कभी कह के सोचा न बाद में
कभी करके देखा न बाद में
न तो पूछा कैसी रही बता
क्योंकि आदमी वो दुरुस्त था।

वह हजारों साल जिया मगर
था वह जैसा वैसा बना रहा
न डिगा न आगे बढ़ा कभी
क्योंकि आदमी वो दुरुस्त था।

मुझे डांटता वो रहा सदा
तू संभल जा मौका है आखिरी
मेरा खैरख्वाह था सोचिए
क्यो कि आदमी वो दुरुस्त था।

न तो मैंने उसको सही कहा
न गलत हूं ऐसा वो मानता
वह प्रमा, प्रमेय, प्रमाण था
क्योकि आदमी वो दुरुस्त था।

उसे देर हो या सवेर हो
जो पहुँच गया तो पहुचगया
सभी कहते वक्त दुरुस्त है
क्योकि आदमी वो दुरुस्त था।

कई देश उसको निहारते
कई देश उसको पुकारते
कई खा के उसको डकारते
क्योकि आदमी वो दुरुस्त था।

मैंने पूछा मुझको बता सही
ये दुरुस्त होते हैं किस तरह
भगवान खुद ही गलत लगा
क्योंकि आदमी वो दुरुस्त था ।।
23 जुलाई 16 22:25

Post – 2016-07-23

निर्विषीकरण की चुनौती

शास्त्री जी, मेरे मुहल्ले‍ में एक सज्जन रहते थे। खासे आलसी थे। कुछ भी करना हो तो उनका एक ही जवाब होता था, बहुत हो गया। बहुत कर लिया। अब अपने बस का नहीं। हम बच्चे थे उनके इस जवाब को सुन कर हंसते थे। हंसने का एक कारण यह था कि उनका लड़का मेरा सहपाठी था। वह अपनी मां से फीस वगैरह ले कर भरता था। वह भी उनकी इस आदत के कारण उनका मजाक उड़ाने के लिए कई बार उनसे ही फीस मांगता और उनका वही जवाब ‘बहुत हो गया, बहुत पढ़ लिए, अब मेरे बस का नहीं।’ वह नाटक में मुंह लटका कर सामने से चल देता और पीठ पीछे होते ही हंसते हुए कहता, ‘बहुत हो गया। अब मेरे बस का नहीं।’ और हम सभी हंस पड़ते। लेकिन अब उसकी याद आती है तो हंसी नहीं आती, उदास हो जाता हूें कि निकम्मापन हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है और हम पहल करना तक नहीं जानते और मान लेते हैं कि अब तक जो कुछ भी हो गया वही बहुत हो गया। आगे कुछ करने को नहीं।”

शास्त्री जी भांप गए कि मैं क्या कह रहा हूं। बोले, ”अाप ही सुझाएं क्या किया जा सकता है।”

”पहली बात तो यह कि हमें नकल करने की आदत छोड़ कर अपने से अनुभवी लोगों से कुछ सीखना होगा। इनमें वे भी हैं जो हम पर कल तक शासन करते रहे और वे भी हैं जो हमें तोड़ने, बांधने और अपने ऊपर अधिकाधिक निर्भर रहने के लिए जाल फैला रहे हैं, और विचार के मामले में मतसंख्या के दबाव से मुक्त रहना होगा।”

”मैं समझ नहीं पाया कि आप क्या कह रहे हैं, या मुझसे क्या करने को कह रहे हैं। उस सज्जन ने जो तर्क दिए थे वे सभी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मुसलमानों में जो अपने सेकुलर तेवर दिखाते हैं उनके मन में भी कम से कम एक हिन्दू को मुसलमान बनाओ और इस तरह अपनी संख्या बढ़ाओ की योजना प्रेम विवाह के रूप में फलीभूत होती है! ऐसे लोग अधिक खतरनाक होते हैं क्योंकि ये दोस्त बन कर भितरघात करते हैं। सेक्युलर शब्द और सेक्युलर सिद्ध होने की व्यग्रता केवल हिन्दुओं में मिलती है और यह व्यग्रता उस रिक्तता की उपज है जो क्रान्‍ित का दावा करने वालों में स्‍वयं अपने झूठे दावों से मोहभंग होने से पैदा हुई। कहावत है चोर चोरी से जाएगा, हेराफेरी से नहीं जाएगा। इसका मतलब यह है कि मुसलमानों में सच्चे मन से कोई कम्युनिस्टं भी नहीं था। वे इस तेवर के साथ उसमें इसलिए घुसे थे कि कम्युनिज्म की आड़ में अपना सांप्रदायिक लक्ष्य पूरा कर सकें। यह प्रवृत्ति देशव्यापी या कहें विश्वव्यापी स्तर पर न होती तो मैं ऐसा नहीं सोचता। इतने सालों तक कम्युनिज्म का अभिनय करते हुए भी सोवियत संघ के मुस्लिम चुप साधे रहे परन्तुु तनिक सी ढील मिलते ही, अपनी पूरी कट्टरता के साथ सामने आ गए। चीन कम्युुनिस्ट देश है या ऐसा होने का दावा करता है पर उसके मुस्लिम बहुल क्षेत्र चीन के कब्जे में है, पर कम्युनिस्ट नहीं है। ये जहां भी है, जिस भी प्रदेश में या विश्व के जिस भी देश में इनका एकमात्र लक्ष्य संख्या-वृ‍द्धि करते हुए बहुमत में आ कर पूरे संसार का इस्ला्मीकरण करना है।”

मैं हंसने लगा तो शास्त्री जी सहमे नहीं। उनके स्वर में पहले से अधिक दृढ़ता आ गई, ”नहीं, यह हंसने की बात नहीं है डाक्साब। मेरी उन सज्जन से लंबी बहस हुई और मुझे पहले जो सोचा था उस पर दुबारा सोचना पड़ गया। देखिए तीन शक्तियां एक साथ विश्व को अस्थिर करके, पूरी धरती को विनाश के कगार तक ले जा कर भी अपनी विश्वविजय की अभिलाषा पूरी करने के लिए प्रयत्नशील है। तीन दशक पहले तक एेसी केवल दो ही शक्तियां थीं – पूंजीवाद और साम्यजवाद । साम्यवाद ने हथियार डाल दिए तो एक नया समीकरण या उलट कर कहें एक नया असंतुलन पैदा हो गया जिसमें पूंजीवाद विनाशकारी आयुधवाद के रूप में अमेरिका की सुदूर विश्वविजय की योजना का अंग है जिसमें दूसरे देशों को लड़ाते हुए एक साथ तीन काम किए जा रहे हैं, उनमें युद्धोन्माद पैदा करके उनके विकास को रोकना, उनको अपने हथियारों का गाहक बनाना, उनको कमजोर करना और लड़ते हुए मिटने के कगार पर लाना और समर्थन के लिए अपने ऊपर अधिकाधिक निर्भर बनाते जाना और इस क्रम में उनके साथ चूहे बिल्ली का खेल खेलना। दूसरी ओर पूंजीवादी विकास है जो आपसी होड़ में जल्द से जल्द बहुत थोड़े समय में विश्वव की समस्त खनिज संपदा काे फालतू उत्पादन द्वारा नष्ट करके पर्यावरण को विनाश के कगार पर पहुंचा रहा है और तीसरी ओर इस्लाम का यह नया अभियान है जो जनसंख्याा विस्फोट के द्वारा मानवता का संतुलन नष्ट करता हुआ विश्व‍ के सभी देशों को मुस्लिम बहुल बनाते उस स्थिति में पहुंचाने की योजना पर काम कर रहा है जिसमें या तो दूसरे मुसलमान हो जायं तभी बचे रह सकते है या हीन और अमानवीय कार्यो के लिए बाध्य किए जा सकते हैं जैसा कि मध्यकाल में हारे हुए राजपूतो को भंगी का काम करने पर विवश करके किया गया।”

मैं इस बार हंस नहीं सकता था । पूछा, ”आपकी बात पूरी हो गई ।”

पूरी होने को कहां है, ”पूरी मान लीजिए तो पूरी है, पर यह एक एेसी भयावह स्थिति है कि …”

”आपका सुझाव है कि दूसरों को भी अब बहुत तेजी से अपना संख्या विस्तार करना चाहिए अन्यथा इस संकट से बचने का उपाय नहीं।”

”यही तो नहीं होगा। उसका परिणाम होगा अन्न, पानी, हवा, रहने के ठौर, जीवनस्तर सभी का विनाश और पूरी दुनिया का अमोघ स्लम में बदल जाना। उन्हें पता है, दूसरे सभ्य और जिम्मेदार लोग हैं, इसलिए वे तो ऐसा करेंगे नहीं और इसका लाभ उन्हें मिलेगा।”

”इतनी बड़ी योजना, इतनी दूरगामी। इसका योजनाकार तो कोई होगा ही।”

”आग लगाने के लिए योजना की जरूरत नहीं होती, सिर्फ खब्त की जरूरत होती है। वह तो आप जानते ही हैं अपने को खलीफा बनाना ही चाहता है।”

”पर उसने तो अभी तक सबसे अधिक मुसलमानों को ही नुकसान पहुंचाया है। उनको नष्ट भी किया है, उनको बदनाम भी किया है और अपनी योजनाओं के द्वारा जिन देशों में उनको खुली पनाह मिलती थी उनमें उनकी छवि खराब करके उनके हितों को, रोजगार को, आर्थिक अवसरों को और इस्लाम से जुड़ी हर चीज को यहां तक कि उनकी सुरक्षा को भी क्षति पहुंचाई है। यह योजना किसी मुसलिम चिंतक की तो नहीं लगती। यह उसकी योजना अवश्य हो सकती है जिसको कल तक आप पहचानते थे और आज भूल गए हैं या आज उसके पैशाचित इरादों को मानवीय बना रहे हैं। देखिए कल तक स्थिति यह थी कि पहली बार अमेरिका का राष्ट्रपति एक मुसलमान है और आज एक ऐसे उम्मीदवार को लगातार शह मिलती जा रही है जो मुसलमानों काे मिटा देना चाहता है। इस योजना का तो लाभ मुसलमानाें को नहीं मिलता दिखाई देता। आप दुबारा सोचिए।”

”रही बात उन तथ्योंं की जिनके आंकड़े आप दे रहे थे या जिनको सांख्यिकीय तर्क से सही बता रहे थे। इसको मैं हंस कर उड़ाना नहीं चाहता, पर यह बताना चाहता हूं कि यह भी किसी उतने ही घुटे, मजे कूटनीतिकार का पाठ है जिसे समझने में मुसलिम समुदाय से चूक हुई और हमसे भी अौर जिसके कई कुपरिणाम सामने आए।

”इसीलिए कह रहा था कि उन मजे हुए कौटिल्यशिष्यों से शिक्षा लेने का समय है, घबराने वाला आदमी अपना होश गवां देता है। आप जो कह रहे हैं, उससे केवल घबराहट बढाई जा सकती है और जिनको रक्तचाप की शिकायत है उनकी उम्र छोटी की जा सकती है। पहले यह देखिए कि ऐसी संभावनाएं पैदा होने पर उन्होंने किस कूटनीतिक चतुराई से अपनी ओर तने हुए खंजर को अपने शत्रुआ की ओर मोड़ ही नहीं दिया, उसे अधिकाधिक विषाक्त करते चले गए और दोनो के हितैषी होने और न्यायपरायण होने का नाटक भी जारी रखा। पर आज आप का रक्तचाप अपने ही विचारों से इतना बढ़ गया होगा कि मैं समझाना चाहूं भी तो आपको समझा नहीं पाऊंगा। हमें इस विषाक्‍त वातावरण में निर्विषीकरण की जटिल और गंभीर समस्‍या से जूझना है। कल बात करेंगे उस पाठ की जो भारतीय मुसलमानों को ही नहीं पढ़ाया गया अपितु जिसे यूरोपीय सोच का हिस्सा भी बना दिया गया और हिन्दू बुद्धिजीवी भी इसे ही सच मानते रहे ।‘’

शास्त्री जी मेरी बात से शायद पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं हुए । वह थके हुए स्वर में बोले, ”चलिए, कल ही सही।”

Post – 2016-07-23

जो जाहिल है उनको परिवार कम रखने के ही नहीं बच्‍चों को स्‍वस्‍थ रखने तक के आयोजनों से यह कर दूर रखा जाता है कि पोलियो, टिटनस आदि के ड्राप्‍स देने से वह आगे चल कर नपुंसक हो जायगा, इसलिए इससे बचाओ। जो मिली जुली संस्‍कृति के हामी उनके बीच ऐतिहासिक और सांस्‍कृतिक कारणों से बचे रह गए हैं उन्‍हें कट्रर बनाने का अभियान जारी है, यह जाली टोपी मात्र टोपी नहीं है, यह कट्ररता की घोषणा है।”

मैंने शास्‍त्री जी को बीच में ही टोक दिया, ”जैसे कोई चंदन टीका लगा कर अपने को पक्‍का हिन्‍दू या कहिए पक्‍का ब्राहमण होने की घोषणा करता है।”

”आप ठीक कहते हैं, या शायद ठीक नहीं भी कह रहे हों, क्‍योंकि यह पेशे से जुड़ा माजरा अधिक है, यह कि मैं पक्‍का, परंपरावादी, धर्मकर्म जानने वाला ब्राह्मण हूं, यदि आपको पूजा पाठ की आवश्‍यकता हो तो मेरी सेवाएं लें। परन्‍तु जाली टोपी मुसलमानों में भी एक नई प्रवृत्ति है और एक भिन्‍न संदेश देने वाली है।”

”कुछ वैसी ही जैसी एक बार आपके नेताओं में से कुछ ने कहा था, ‘गर्व से कहो मैं हिन्‍दू हूं। और कोई यह कहता चले तो उसे लोग पागल समझेंगे इस‍लिए उनका मतलव हिन्‍दू प्रतीकों को अपनाओ, चोटी तिलक की अपनाओ।”

”हां यह ठीक है और यही हिन्‍दू और मुस्लिम समुदाय का अन्‍तर है। उनकी इस खुली घोषणा के बाद भी हिन्‍दुओं ने उनकी बात नहीं मानी, और यहां चुप चुप ही यह प्रवृत्ति तेजी से फैली है। मैं इसे पहचान तो सकता हूं और इससे आतंकित भी अनुभव कर सकता हूं क्‍योंकि आप जैसे लोग भी इन सवालों पर उनके साथ खड़े हो जाते है, दूसरों की तो बात ही अलग। हमारे करने को कुछ रहता नहीं, करना तो उन्‍हें ही है और जो कर रहे हैं वह उल्‍टा है।”

”करने के नाम पर पहला काम तो आप यह कर सकते हैं कि इन सवालों को ले कर हंगामा मचाना छोडि़ए, इसलिए नहीं कि यह प्रवृत्ति सही है, बल्कि इसलिए कि आप के हंगामे से इस प्रवृत्ति के बढ़ने में सहायता मिलती है। आप ठीक कहते हैं कि मेरे जैसे लोग भी आप के हंगामे को गलत कहते हैं और इससे उनको परोक्ष समर्थन मिलता है कि वे जो कर रहे हैं ठीक है, उनकी आलोचना करने वाले गलत है। उनकी विवशता है, वे आपके हंगामे का साथ नहीं दे सकते क्‍योंकि इससे अकारण तनाव और बवाल पैदा होता है। देखिए, आज मुस्लिम समाज में एक नये सैयद अहमद की जरूरत है। वह नहीं हैं तो उनके बुद्धिजीवियों में से किसी को बनना होगा। सैयद अहमद बहुत बड़े नेता हैं और कुछ अन्‍तर्विरोधों वाले नेता भी, उनकी चिन्‍ता का केन्‍द्र है मुसलमानोंं का हित और इस हित के लिए उन्‍होंने न केवल शिक्षा पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया अपितु कुरान की भी ऐसी व्‍याख्‍या आरंभ की जिससे इसकी आयतों का मानवतावादी और तर्कसंगत आशय लिया और अवैज्ञानिक धारणाओं को खारिज किया जा सके। उन्‍होंने 1889 में तफसीर का लेखन आरंभ किया जो लिखने के साथ ही प्रकाशित भी होता रहा। इस पर मुल्‍लाओं ने और कुछ दूसरे विद्वानों ने बहुत हंगामा मचाया जिस पर मौलाना हाली ने एक फिकरा कसा था, ”तुम्‍हारी बातें ही बातें हैं अहमद काम करता है।” मुझे तफसीर अगर मिल भी जाए तो जितनी उर्दू जानता हूं उसमें कुछ पल्‍ले शायद ही पडं, पर अंग्रेजी माध्‍यम से जो सुलभ है उसमें संभवत: आमुख के रूप में जो कुछ लिखा था उसका एक अंश यूं है:
there could be nothing in the Qur’ân that is against the principles on which nature works… as far as the supernatural is concerned, I state it clearly that they are impossible, just like it is impossible for the Word of God to be false… I know that some of my brothers would be angry to [read this] and they would present verses of the Qur’ân that mention miracles and supernatural events but we will listen to them without annoyance and ask: could there could not be another meaning of these verses that is consonant with Arabic idiom and the Qur’ânic usage? And if they could prove that it is not possible, then we will accept that our principle is wrong… but until they do so, we will insist that God does not do anything that is against the principles of nature that He has Himself established.
तो एक तो हमें ऐसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों का सम्‍मान करना चाहिए जो इस कट्टरता के बरख्‍श खड़े हो कर एक आधुनिक सोच वाला मुस्लिम समुदाय की चिन्‍ता रखते है और समाज को मध्‍यकाल में वापस ले जाने या बांध कर रखने वालों के खिलाफ मोर्चा संभालते हैं।”

”जैसे सलमान रश्‍दी।” शास्‍त्री जी अपने को रोक न पाए।

”नहीं, रश्‍दी नहीं, रश्‍दी नहीं। वह तो पश्चिमी दुनिया का काम करता है। अपनी कौम की तौहीन करके, उसके समादृत व्‍यक्तियों को गर्हित दिखा कर आप कुरान के अन्‍तर्विरोधों की ओर भी उससे बंधे समाज में आत्‍मालोचन का भाव नहीं पैदा कर सकते। तसलीमा नसरीन अवश्‍य उनसे सोच और समझ के स्‍तर पर बड़ी है, और अपने प्रयोजन को देखते शिल्‍प के स्‍तर पर भी। रश्‍दी शैलीवादी हैे और उनकी शैली थकान पैदा करती है। देखिए, आप ने मुझे भटका दिया। मैं बौद्धिक नेत़त्‍व की बात कर रहा था और हां हाली के जुमले को दुहराते हुए आप लोगों से कहना चाहता हूें कि आपकी बातें ही बातें हैं और पश्चिम काम करता है और इतने दबे दबे करता है कि खटका तक नहीं होता और नतीजा दिखाई देता है। तो आप करने के नाम पर स्‍वयं वाणी पर नियंत्रण कर सकते हैं और अध्‍ययन और चिन्‍तन कर सकते हैं जिसे आपके यहां अनुशासनप्रियता के नाते हतोत्‍साहित किया जा सकता है और भारतीय इतिहास और संस्‍क़ति पर बात करना बंद कर सकते हैं क्‍योंकि उसकी समझ आप लोगों की बहुत उथली, गलत और भ्रामक तो है ही समाज के लिए अनर्थकारी भी।”

”डाक्‍साब, कभी कभी आपकी बातें सुन कर हैरानी होती है कि यह आप कह रहे हैं।”

”बतलाइये, बात क्‍या है।”

”एक बात हो तो कहूं, आप तो एक ओर हमारी जबान बन्‍द कर देना चाहते हैं।

Post – 2016-07-23

उस तरफ देखा करे है, इस तरफ भी देखता।
मैं भी तुझको देखता, और तू भी मुझको देखता।

तेरी ख्वाहिश थी कि मैं तुझ पर फिदा होता रहूं
मर मिटा मैं फिर भी कितनी बार मिट कर देखता।

जुमले वाले मर भी जाते है हजारों बार पर
काश कोई जुमलों से बाहर निकल कर देखता।

छोटा सा दिल है मगर कितनी जगह घेरे हुए
जिस तरह मैं देखता हूँ उस तरह भी देखता।

खून दौड़े है जहां तक दिल भी धड़के है जरूर
हाथ लेता हाथ में नाड़ी पकड़ कर देखता ।

ऐ मेरे सैयाद तेरी भूख काफी तेज थी
वर्ना मेरी धड़कनों को खुद भी पढ़ कर देखता।

तुझको मक्के की पड़ी है मुझको मक्की की पड़ी
तू भी अपनी भूख को मजहब बना कर देखता।

क्या कहा भगवान ने यह याद तक आता नहीं
काश अपने अक्श को अपना समझ कर देखता।
21/22 जुलाई 2016

Post – 2016-07-22

इस गांठ को खोलो तो नई गांठ बने है।
है पेश एक पेंच हर एक पेंच के आगे।।
”डाक्‍साब, आप जब कुछ कहते हैं, या सलाह देते हैं तो मैं कुछ बोल नहीं पाता, परन्‍तु हम विश्‍लेषण करते हैं, या मनोचिकित्‍सक जब मूल कारण की पहचान कर लेता है और रोगी को बता भी दे तो भी उसे उससे मुक्‍त होने में काफी लंबा समय लगता है और डिप्रेशन का दुबारा दौरा पडने की संभावना बनी रहती है। विश्‍लेषण गणित के सवाल हल करने की तरह हैं, परन्‍तु गणित की वे ही समस्‍याएं सामाजिक स्‍तर पर हल हो कर भी हल नहीं हो पातीं। आप कहते हैं तो लगता है कि यह तो किसी के भी समझ में आ जाएगा। लो किया और हुआ। पर होता नहीं है या होता उल्‍टा भी है।”
”आप यह भूमिका किस चीज की बना रहे हैं, मैं नहीं समझ पाया।”
”भूमिका नहीं बना रहा हूं, अपना अनुभव बता रहा था। हमारे बौद्धिकों में प्रश्‍न करने और असहमत होने की पूरी छूट है। कम से कम मैं जिस शाखा का प्रमुख हूं उसमें ऐसा ही होता है। उसमें आने वाले कुछ लोग काफी पढ़े लिखे हैं। यहां का परिवेश ही ऐसा है। मैंने जब आपका आदेश मानते हुए कल अपनी ही बात को समझाते हुए कहा और सुझाया कि हमें मुस्लिम विरोध से हट कर असली शत्रु को पहचानना चाहिए जो हम दोनों का ही नहीं आज तो विश्‍वशान्ति का शत्रु है क्‍योंकि उसके पास अपना कहने को केवल आयुध निर्माण का काम है। उपभोक्‍ता वस्‍तुओं का ठेका उसने कम्‍युनिस्‍टों को पूंजीवादी राह पर लाने के लिए उन्‍हें दे रखा है, इसलिए वह अपना माल बेचने के लिए हितैषी बन कर भी हमें भड़काएगा और आपस में लड़ाता और अपने लिए जगह खाली कराने के लिए भी हमें मिटाने की योजनाओं पर काम करता रहेगा, इसलिए सभी को मिल जुट कर उस बडे़ दुश्‍मन से लड़ना चाहिए, आपस के झगड़े उसके बाद हम स्‍वयं निबटा लेंगे।’ तो जानते हैं एक सज्‍जन से क्‍या सुनने को मिला। उन्‍होंने आप की ही कही बात काे दुहराते हुए कि “कोई भी एक घटना या परिघटना असंख्‍य द़ृश्‍य अदृश्‍य कारकों का संगम होता है जिनमें कुछ को तो हम जानते तक नहीं और कुछ की जानते हुए अवज्ञा कर जाते हैं और इन घटकों में से किसी एक के घटने या बढ़ने से उसका चरित्र तो बदलता है, पूरा समाधान नहीं मिल जाता।” मुझे सुनाकर यह समझाने लगे कि यह एक खयाली पुलाव है। आप कैसे सोचते हैं कि आपके बदलने से दूसरा भी बदल जाएगा।
उन्‍होंने पिछले दौर के वाजपेयी शासन का हवाला देते हुए कहा, ‘यह सभी मानते हैं कि उनका शासन हिन्‍दू मुसलिम सबके लिए पहले के शासनों से कुछ अच्‍छा ही था। पाकिस्‍तान से भी उन्‍होंने रिश्‍ते सुधारने के प्रयत्‍न किए। परन्‍तु सत्‍ता के भूखे, वोट बैंक के लिए जाति धर्म की राजनीति करने वालों के दुष्‍प्रचार के प्रभाव को उनका अपना काम और नीतियों का बदलाव कम कर पाया? मोदी जी लगातार सबके साथ और सबके विकास की बात करते आए हैं, परन्‍तु क्‍या किसी का साथ मिला?’
”शास्‍त्री जी, लगता है आपने भी किताबी विश्‍लेषण और किताबी समाधान हीं तलाशे थे, पर न आपका विश्‍लेषण गलत था न उनकी आपत्ति। पहली बात तो यह है कि हमें सामाजिक और राष्‍ट्रीय समस्‍याओं को राजनीति से अलग रख कर उन पर विचार करना चाहिए। राजनीति में सभी सही होते हैं, कोई अपने को गलत नहीं मानता और इतने सारे लोगों की सही समझ के कारण जो सही होता है उसमें भी नई बुराइयां पैदा हो जाती हैं। जो भी लोग किसी भी विचारधारा से जुड़े होते हैं उन्‍हें आप लाख कोशिश करके भी, व जिसे वे सही मानते आए हैं उससे अलग नहीं कर सकते। उन्‍हीं प्रमाणों की वे ऐसी व्‍याख्‍या करेंगे जिससे लगे कि जब से उस विचारधारा से वे जुड़े तब से आज तक न वे गलत हुए है न कहीं कुछ नया घटित हुआ है। आप बाजपेयी जी या मोदी जी के सही या गलत होने की बात भी मत कीजिए। उनके साथ जो लोग जुड़े होते हैं वे अपनी जगह क्‍या कर गुजरेंगे यह उनके वश में भी नहीं रहता । अकबर मिल्‍लत और दीन इलाही की बात करता था, और उसी के समय में उनका ही एक सिपहसालार टुकड़िया ने जितने मन्दिरों को तोड़ा और हिन्‍दुओं काे सताया उसका हिसाब नहीं। उसी के समय में तुलसीदास हिन्‍दुओं के साथ हो रही गुंडागर्दी का जो चित्र प्रस्‍तुत करते हैं वह किसी अन्‍यायी शासक से भिन्‍न नहीं था। हम जानते हैं कि राजनीतिज्ञों के अच्‍छे या बुरे निर्णयों का समाज पर गहरा असर पड़ता है परन्‍तु एक विचारक की दृष्टि और रचनाकार की सृष्टि का भी असर पड़ता है जो इन कुकृत्‍यों के बावजूद असर डालता है, कई बार सत्‍ता से टकराते हुए असर डालता है गो सत्‍ता से टकराना उसकी जरूरत नहीं, और हां उसका असर अधिक स्‍थायी होता है। अकबर का दौर खत्‍म हो जाता है तब भी तुलसी और कबीर का दौर जारी रहता है और जिस भी पैमाने पर हो समाज को संस्‍कारित करता रहता है। बुद्धिजीवियों को सबसे पहले राजनीति से बाहर आना होगा, शिक्षा संस्‍थानो को राजनीति से बाहर आना होगा। विचारों और संस्‍कारों का क्षेत्र सत्‍ता की कीचड़ से जितना अलग रहेगा उतना ही सत्‍ता के चरित्र को समझने में भी सहायक होगा । राजनीति के प्रवेश के कारण लोग सभी विषयों को राजनीति में रिड्यूस करके उनकी गरिमा और सार्थकता को नष्‍ट कर देते हैं। राजनीति से बाहर रह कर ही इनको भी बचाया जा सकता है।”
”राजनीति से बाहर है कौन ?”
”यही कह रहा हूं कि जो उस दलदल में गिर गए उन्‍होंने उन चीजों का जिनसे वे जुड़े थे और स्‍वयं अपना हाल क्‍या किया। प्रगतिशीलता के नाम पर साहित्‍य का जो राजनीतीकरण आरंभ हुआ उसे सत्‍ता से जुड़कर प्रसाद पाने के कौशल में बदल दिया गया। मध्‍यकाल में दूसरा कोई चारा न होने के कारण कवि और कलाकार दरबारी आश्रय की तलाश में रहते थे परन्‍तु उनमें भी उस स्‍तर की गिरावट नहीं आने पाती थी जो ज्ञान और अधीति के राजनीतिक न्‍यूनीकरण से आई। इसने साहित्‍यकारों और विचारकों काे सभी सुविधाओं के बाद भी कुछ अधिक की तलाश में राजश्रयी बना दिया। में तो चाहूंगा शास्‍त्री जी आप स्‍वयं भी संगठित राजनीति से बाहर आएँ और अपनी प्रतिभा का समाजहित में उपयोग करें। अाप में बहुत संभावनाएं हैंं ।”
जब तक मैं बोलता रहा तब तक शास्‍त्री जी सुनते रहे, जब चुप हुआ तो बोले, ‘मैं अभी अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था। इसे कहने में कुछ संकोच भी होता है पर जो सचाई है उसकाे जानेगे ही नहीं तो उसका सामना कैसे करेगे। एक दूसरे सज्‍जन ने जो एक अखबार में हैं, उन्‍होंने कहा, सद्भावना में असावधानी से काम करने के परिणाम उससे कम मूर्खतापूर्ण नहीं होते जो नासमझी में‍ किए कामों के होते हैं। इसलिए तथ्‍य पहले, सद्भावना बाद में। उन्‍होंने तीन चुनौतियां दीं। कहा पता लगाइये:
1. जिन परिस्थितियों में हिन्‍दू मुस्लिम अधिक खुलकर मिलते जुलते हैं, कहिए जिनमें दोनों एक दूसरे से प्‍यार करते हैं, उनमें कितने हिन्‍दू मुसलिम लड़कियों से विवाह करते हैं और कितने मुसलमान हिन्‍दू लड़कियों से। यह सांख्यिकी का मामला है और सांख्यिकी विज्ञानों में भी सबसे विश्‍वसनीय शाखा है। फिर इसके बाद सोचिए इसका कारण क्‍या है और परिणाम क्‍या है।
2. 2011 की जनगणना में बहुत लंबे समय बाद जाति और धर्म आ‍धारित आंकड़े आए हैं, प्रत्‍येक क्षेत्र में जनसंख्‍या में बृद्धि तो हुई ही है, परन्‍तु इनका अनुपात बदला है या नहीं और बदला है तो किस दिशा में और इसके परिणाम क्‍या होंगे?
3. अपने को सेक्‍युलर कहने वालों में हिन्‍दुओं और मुसलमानों का अनुपात क्‍या है। मुस्लिम सेक्‍युलरिस्‍टों में कितने हैं जो अपने मुल्‍लों का विरोध कर सकें, अपनी संस्‍कृति की आलोचना कर सकें, धर्मग्रन्‍थ पर कोई टिप्‍पणी कर सकें और हिन्‍दुओं में कितने हैं जो ऐसा करने से अपने को रोक सकें?
उस सज्‍जन ने मेरे प्रस्‍ताव का उपहास करते हुए कहा, देखिए भाई भाई का नाटक स्‍टेज के लिए तो ठीक है, व्‍यावहारिक जिन्‍दगी में अपनी गुलामी से मुक्ति की लडाई मुस्लिम बुद्धिजीवियों काे लड़नी है। गुलामों से संवाद नहीं हो सकता। संवाद हो तो कोई लाभ नहीं। उनसे मैत्री भी उचित नहीं है। वे किसी अन्‍य की योजना पर काम कर रहे हैं। जिन्‍होंने उनको गुलाम बना रखा है उनसे हम बात करें तो कोई लाभ नहीं । उसका उल्‍टा असर होगा। वे अपनी मिल्कियत छोड़ने की जगह उसकी पकड़ और मजबूत करेंगे। कट्टरता और जड़ता बढ़ाएंगे। इसलिए जो उपदेश आप हमें दे रहे हैं उसे मुस्लिम नौजवानों और विशेषत- बुद्धिजीवियों को दीजिए। उनकी पहल के बिना इस गांठ का फन्‍दा सरक तक नहीं सकता, खुलना तो दूर।”
शास्‍त्री जी चुप हो गए पर मुझे तत्‍काल न सूझा कि मैं अब क्‍या कहूं। यह सांप और सीढ़ी का खेल है पर इसे खेल से आगे तो ले ही जाना होगा। परिणाम की आशा थी हाथ लगे यक्ष प्रश्‍न । प्रश्‍नों से बच कर तो समाधान मिलेगा नहीं।