निदाान – 3
मरइनारिटी सिंड्रोम (1)
शास्त्री जी ने मुझे आरंभ में ही सचेत किया, ”डाक्साब, आप कुछ विषयों को अपने विचार के बीच में न लायें तो अच्छा रहे।”
मैं जानता था उनका संकेत किस ओर है, ”आप इतने विवेकशील हो कर ऐसा कहते हैं। और आप तो संस्कृत के इतने बड़े विद्वान हैं। क्या आपने उत्तर रामचरित नहीं पढ़ा है। वसिष्ठ के आगमन पर उनके स्वागत सत्कार का प्रसंग। क्या मानव धर्मसूत्र में ‘न अमांसो मधुपर्क: स्यात् ‘ का कोई शाकाहारी अर्थ लगाएंगे। यह असहिष्णुता भी हमारे बीच उसी कूटनीति के तहत प्रबल की गई जिसे हम भांप न सके और इसका बीजारोपण करने वालों ने हर चरण पर इसका ध्यान रखा कि यह इस हद तक बढ़ता रहे कि दरारों को फैलने से डर लगने लगे। पहले ऐसा नहीं था।”
”पहले क्या था क्या नहीं था, इसे छोडि़ये, इसकी चर्चा के बिना भी बात चल सकती है।”
”शास्त्री जी हम तो माइनारिटी सिंड्रोम पर बात करने वाले थे। आपने ही यह विषय ला दिया। मैं केवल यह याद दिलाने लगा कि यदि हमारी भावना की प्रबलता के कारण कुछ विचार-वर्ज्य क्षेत्र हैं तो दूसरों की भावना के भी वर्ज्यक्षेत्र होंगे। हम उनसे बच भी सकते हैं, बचें भी, परन्तु एक ऐसा समाज जिसकी भावुकता के क्षेत्र इतने प्रबल हों कि वह उनका जिक्र तक बर्दाश्त न कर सके उसके साथ आप संलाप कैसे कर सकते हैं? आप उसके साथ् खुल कर बात नहीं कर सकते। जानना होना नहीं है, जानना करना नहीं है। जानने और चर्चा से बचने वाला समाज अपनी समस्याओं का सामना नहीं कर पाता है। उसके उस कोने से कोई उस पर हमला कर सकता है और अपनी असावधानी के कारण वह उस हमले का न तो पूर्वानुमान लगा सकता है न उसका निवारण कर सकता है। फूट डालने वालों ने उस अति- संवेदनशीलता को पहले से अधिक उग्र करके उसका इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए किया। इसलिए आज हम आपके सुझाव का सम्मान करेंगे, पर साथ ही आप से भी चाहेंगे कि आप तर्क और विवेक के औजारों का इस्तेमाल करते हुए अपनी अतिसंवेदनशीलता से लड़ने की आदत डालें। यह हितकर उपाय है।”
शास्त्री जी मेरे कथन से प्रभावित नहीं लगे फिर भी उन्होंने कुछ कहा नहीं।
”हम अपने विषय पर आएं। भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों में एक तरह से कहें तो दो तरह के संबंन्ध थे। एक उनका जो अपने को विदेशी मूल का मानते थे और अपनी नस्ली शुद्धता बनाए रखने के लिए स्थानीय अमीरों तक से शादी व्याह का रिश्ता नहीं रखते थे और यह प्रयत्न करते थे कि उन्हें अपने वतन की लड़की विवाह के लिए मिल जाय, या यदि मिल गई तो इसे अपना सौमाग्य मानते थे । उनमें से अधिकांश के साथ उनके पितृदेश के, या मुहम्मद साहब के खानदान से संबंध रखने वाले उपनाम भी निभाए जाते। अब्दुल्ला बुखारी ऐसी ही उपाधि है। हाशमी ऐसा ही उपनाम है। गालिब की वंश परंपरा की एक वृद्धा ने इस बात पर फख्र जताया था कि उनके खानदान में ईरान से ही शादी का रिश्ता रखा जाता था। कुछ मामलों में ये दावे नकली भी होते हैं फिर भी विदेशी मूल से जुड़े लोगों का भारतीय मुसलमानों तक से बहुत अकड़ भरा संबन्ध था जिसे सामान्यत: पोशीदा रखा जाता था, पर गरूर दिखाने का अवसर आने पर यह खुल कर प्रकट हो जाता था। अपने को अमीर या रईस कहने वाले मुसलमान, कहें मुगलकाल में मनसब आदि पा कर छोटी नवाबी या जमींदारी वाले मुसलमान इसी कोटि में आते थे, जो मुसलमानों की अपनी आबादी का भी एक दो प्रतिशत ही होंगे या उससे भी कम। अभी किसी सज्जन ने मुसलमानों में भेद और बराव और पृथक पहचान को ले कर फेस बुक पर एक पोस्ट किया था जिसमें वही केले के पातों जैसा अलगाव और फिर भी केले के खंभे जैसी एकता का हवाला था। उसके तथ्य मुझे ठीक लगे पर भावना नहीं, इसलिए लाइक तक न भेज सका। इस तरह देखिए तो अल्पमत की परिभाषा इस हद तक बदल जाती है कि अल्पमत के भी अल्पमतों के हित, पहचान और लगाव के दायरे उभर आते हैं। अौर अब उनमें पहचानना होगा कि वास्तविक अल्पमत कौन ? वह किनसे असुरक्षा अनुभव करता है, किसे अपना मानता है और किनके साथ जाना चाहता है। ”
”विदेशी मूल पर गर्व करने वाले इन रईसों का भारत से या भारतीय समाज से रिश्ता कटु ही रहा हो यह कहना गलत होगा। सच तो यह है कि अपने आश्वस्ति काल में यह सोच कर कि अब उसे इसी देश में रहना है, इससे अच्छा कोई देश और ऐसे सुख वैभव के सामान अन्यत्र कहीं नहीं मिलने, उसने प्रयत्न पूर्वक अपने को इस देश के रंग में ढालने के प्रयत्न किए। यह बात खुसरो में भी मिलेगी जो हिन्दुओं से नफरत करता था और हिन्दुस्तान की श्रेष्ठता का सम्मान और इस जमीन और जलवायु और इसकी बोलियों से प्यार। परन्तु मुगल शासन के गिरावट के साथ असुरक्षा की भावना के बढ़ने के कारण इसमें भी कई तरह की हीन ग्रन्थियां पैदा हुई जिन्हें वैभव और दंभ प्रदर्शन की आड़ में छिपाया गया। इसमें फिर एक मूलोच्छिन्नता की चेतना ने घर किया और हिन्दुओं से इसके तनावपूर्ण रिश्ते जो पहले भी थे, अधिक मजबूत हुए जिसे भी पोशीदा रखने की कोशिश की जाती रही पर प्रकट होती रहती थी।
”भीतर से इनका मानना था कि हिन्दू हमारे गुलाम रहे हैं और इस्लाम कबूल करने वाले मुसलमानों को भी वे उन्हीं गुलामों का हिस्सा मानते थे और उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते थे। इसका मुझे पहले ज्ञान न था, सैयद अहमद के मेरठ के नौचंडी मेले के अवसर पर 1888 में दिए गए भाषण को पढ़ने पर ही समझ सका।
”अब इस्लाम कबूल करने वाले हिन्दुओं में कई प्रकार के मुसलमान थे और इन सभी के हिन्दुओं से संबन्ध आत्मीय थे। पहले में वे आते हैं जिन्हें कर आदि चुकाने में विलंब या असमर्थता की स्थिति में जबरन मुसलमान बनाया गया था। मेरे जन्मस्थान के पड़ाेस मे शिहाइतपार में ऐसी ही स्थिति में दंड स्वरूप गोमांस खिलाया गया और वह धर्मच्युत हो कर अपने भाइयों का धर्म बचाने के लिए स्वेच्छा से अलग रहने लगे।
मैंने कहना चाहा कि गोमांस के प्रति आपकी अतिसंवेदनश्ाीलता ने केवल हिन्दुओं का अहित किया है, परन्तु प्रतिज्ञा कर चुका था कि इस विषय पर चर्चा न करेंगे इसलिए अपने को संयत कर लिया। कहा, ”उसका आधा गांव शाही लिखता है और क्षत्रियों से नाता-गोता रखता है, आधा खान जो इस्लामी रीति का निर्वाह करता है । पर संबन्ध सदा भाइयों जैसे ही रहे।
”दूसरा वर्ग उन पेशों से जुड़े लोगों का था जिनके यहां कुछ माल ताल तैयार पड़ा रहता था और धार्मिक उपद्रवियों के द्वारा शासन के बल पर बार बार लूट हड़प लिया जाता था। बुनकरों, रंगसाजों, बिसातियों, खटिको का समुदाय इन्हीं में था।
”एक अलग वर्ग उनका था जिनकी योग्यता या पेशे का उपयोग नवाबों और बादशाहों के यहां हो सकता था। नट, पीलवान और औजार हथियार बनाने वालों का तबका इसी में आता है।
”इन सबसे अलग था सूफियों और पीरों के चमत्कार के प्रभाव में आकर उनके प्रसाद ग्रहण आदि के कारण धर्मान्तरित माने जाने वालों का समुदाय।
”इन सभी की जड़ें भारतीय थीं इसलिए इनमें असुरक्षा की कोई भावना या जिसे हम माइनारिटी सिंड्रोम कहते हैं, वह नहीं था। क्योंकि यह देश ही असंख्य अल्पसंख्यकों की अन्तर्निर्भरता से बना देश है और हिन्दू समाज उस ढीले बंधन का नाम है जिसमे जुड़ाव के भीतर हिलने, डुलने और नए समायोजन बनाने की संभावनाएं बची हुई हैं।
”माइनारिटी सिंंड्रोम केवल विदेशी मूल पर गर्व करने वाले ताल्लुकेदारों, रईसों, मुल्लों, मौलवियों में व्याप्त था इसलिए सांप्रदायिकता शहरी समस्या थी और सभी शहरों की भी समस्या नहीं थी। उदाहरण के लिए गोरखपुर जिले में देश विभाजन के समय भी कभी कोई उपद्रव नहीं हुआ जब कि वह गोरखनाथ मंदिर के कारण हिन्दुत्व का गढ़ माना जाता था और वहां नवाबी काल में अवध से बसाए गए मुसलमानों की बड़ी संख्या थी। वहां विदेशी पहचान का दावा यदि कोई कर सकता था तो वहां का इमाम। विभाजन के बाद कुछ लोग वहां से भी पाकिस्तान तो गए होंगे, परन्तु पूरे जिले में दंगों का कोई इतिहास न पहले था न आगे हैहीं।
”परन्तु विदेशी मूल से जुड़े रईसों और ताल्लुकेदारों में उनकी संवेदनशीलता को देखते हुए माइनारिटी सिंड्रोम पैदा किया गया और इसका कारण यह था कि 1857 से पहले भी विदेशी मूल और और अपनी धार्मिक कट्टरता के अतिरिक्त इस बात से खिन्न हो कर कि अंग्रेजों ने मुसलमानों का राज्य हड़पा है बंगाल में लगातार किसी न किसी पैमाने पर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह होते आ रहे थे और 1858 के बाद भी कुछ कोनों में मुसलमानों ने मोर्चा संभाल रखा था। यही कारण था कि मुसलमानों को अपने से विमुख मान कर कंपनी शासन ने बंगाल के हिन्दुओं को नौकरियां दीं और सेवा का अवसर दिया। इसे दूसरी तरह यह भी कहा जा सकता है कि मुसलमानों के मन में अंग्रेजों के प्रति कटुता इतनी प्रबल थी कि उन्होंने न तो उनकी शिक्षा ग्रहण की न उनकी नौकरी में जाना पसन्द किया, यद्यपि इसके अपवाद भी तलाशे जा सकते हैं। इसलिए 1857 के बाद साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए इसी वर्ग में माइनारिटी सिंड्रोम पेदा करने के प्रयास किए गए और इसमें उन्हें सैयद अहमद के कार्य और प्रभाव से आशातीत सफलता मिली।
”शास्त्री जी मैं जानता हूं कि आप ऊब रहे हैं। मुझे तो अभी ऐसा लगा आप ऊँघ भी रहे हैं, मैं …”
शास्त्री जी पूर्ण चैतन्य में आ गए, ” ऊब या ऊँघ नहीं रहा था। मैं आपके कथन को बहुत ध्यान से सुन रहा था। आंख बन्द अवश्य थी परन्तु एकाग्रता के कारण, ऊब के कारण नहीं।”
”खैर आज तो मैं इतना ही कहूंगा कि सैयद अहमद ब्रितानी उपयोग के लिए पहले से बने बनाए एक ऐसा औजार थे जो स्वयं आग्रह कर रहा था कि आ मुझे संभाल और अपना संकट टालने के लिए मेरा उपयोग कर। परन्तु शिक्षित मुस्लिम समाज में उनके प्रति इतनी गहन श्रद्धा है कि उनकी खरी आलोचना सुनने के लिए वे उसी तरह तैयार नहीं हो सकते जिस तरह आप गाय पर आगे कुछ सुनने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए इस पर कल कुछ विस्तार से विचार करेंगे। आज तो इतना ही समझ लीजिए कि इस देश मे अनगिनत, मेरा मतलब असंख्य से नहीं है, इससे है कि अभी इनकी गिनती हुई ही नहीं, अल्पमत हैं और जो वास्तव में अल्पतम हैं उन्हें कोई शिकायत नहीं। जो अन्य अल्पमत हैं वे जुझारू दस्ता बन नहीं सकते थे, इसलिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषाएं बदली गईं। अल्पसंखक को इतना जाेड़ कर रखा गया कि वह प्रतिरोध करके शासकों का मंसूबा पूरा कर सके और जिसे बहुसंख्यक बताया गया उसे लगातार तोडा गया कि वह उसका प्रतिरोध न कर सके। आज के बुद्धिजीवी जिस स्तर पर उतर कर बुद्धिजीवी बनते हैं उस स्तर पर वैचारिक होली खेली जाती है जिसमें कीचड़ और गोबर तक का प्रयोग वर्जित नहीं होता, और जिस स्तर पर राजनीति की जाती है वह मलमग्नता में सबसे जघन्य का चयन बन कर रह जाता है, इसलिए इन दोनों को यही अपेक्षा होगी कि गिनती का यह काम भी कोई विेदेशी आकर ‘हमारे’ लिए कर जाएगा और वे उसी को, यह सोचे जाने बिना कि उसने किसी अन्य योजना से धन, समर्थन और साधन प्राप्त करके यह काम उसके लिए, और हमारे विरुद्ध, किया है और उसे प्रमाण मानना उसके फन्दे में अपना गला डालने जैसा है। शास्त्री जी आप के लोग इस मामले में दूसरों से आगे हैं, पर अब हम इस पर कल बात करेंगे।