Post – 2016-07-10

कबहुं न छाड़ें खेत

शास्‍त्री जी मैंदान छोड़ने वालों में से नहीं हैं। मैंने कहा था आज आने के लिए तो वह पहले से मोर्चा संभाले मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंंने विनोद में यह बताया तो हंसने लगे, ”नहीं, इसमें मोर्चा संभालने जैसी कोई बात नहीं है। मैं ब्राह्म बेला में ही जग जाता हूं, इसलिए मेरा दिन विलम्‍ब से जगने वालों की तुलना में कुछ लम्‍बा होता है।”

”और अपने बराबर की उम्र वालों की तुलना में आप की आयु भी कुछ लम्‍बी होती है।” सुन कर वह प्रसन्‍न हो गए, ”हां, यह भी कह लीजिए।”

”शास्‍त्री जी, मैं अपनी कही कुछ और बातों की याद दिलाना चाहता था। पहली यह कि मनुष्‍य में प्रशंसा की भूख इतनी प्रबल होती है कि वह इसके लिए गर्हित से गर्हित और असंभव से असंभव काम कर सकता है। और यह किसी भी आदमी या किसी भी समाज में संभव है, शर्त यह कि उसकी मूल्‍य प्रणाली ऐसी बना दी जाए।”

शास्‍त्री जी की स्‍मृति मेरे मित्र की तुलना में अच्‍छी है, ओजोन पूरित मलयानिल का सेवन करने वाले हुए, इसलिए उन्‍होंने यह भी याद दिलाया कि पवित्रता और न्‍यायप्रियता के नाम पर ईसाई मिशनरियों और पोपों ने स्‍वयं कितने अमानवीय कुकृत्‍य, कितने बड़ पैमाने पर किये, और वह भी फ्रांस जैसे देश में भी जो कला और संस्‍कृति में अपने को अनन्‍य मानने का भ्रम पालता है, यह भी एक बार मैंने कहा था। बस एक बात पर उन्‍हें सन्‍देह था कि अपने समाज में भी ऐसा हो सकता है सो कुछ ऐसे प्रचलनों की याद दिलानी पड़ी तो दबे मन से मान लिया, ‘हां, था तो पर अपने यहां… ” फिर आगे कुछ कहे बिना ही उदास से हो गए।

”मैंने यह भी कहा था कि कोई भी कथन या कृत्‍य इतने असंख्‍य ज्ञात और अज्ञात कारकों की परिणति होता है कि उसको देखते हुए जो घटित हुआ उसके अतिरिक्‍त कुछ घट ही नहीं सकता था और इस दृष्टि से विचार करने पर पर पाते हैं कि हमसे जो हुआ वह हमने किया नहीं, मात्र निमित्‍त बने रहे। करने वाला कोई और है। उस समय भी मैंने कहा था वह और भौतिक और सामाजिक और आर्थिक कारको का संकेन्‍द्रण भी हो सकता है।”

”नहीं, पहली बात तो आपने ठीक इसी तरह कही थी पर बाद वाली बात आज जोड़ रहे हैं।”

मैं हैरान रह गया, शास्‍त्री जी की स्‍मृति इतनी स्‍वच्‍छ है। जो सूचना वहां पहुंच गई वह बिना किसी जोड़-तोड, फेर-बदल के फ्रीज रहती है। खैर, ”मैंने उन असंख्‍य घटकों का हवाला दिया था जिसमें हमारे गर्भ काल से लेकर बाद के समय के अनुभव, हमारी जननी को मिले पोषण, हमारी वंशागत व्‍याधियाें, गुणसूृत्रों, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों, पोषण, संपर्क और व्‍यक्तिगत अनुभव सभी का योग होता है और सबसे अधिक योग उस शिक्षा का होता है जिसकी संस्‍थाएं गुरुजन, परिजन, मित्रमंडली, लब्‍ध परंपरा और इतिहास पुराण, शिक्षा केन्‍द्र आदि हैं और उूपर से सामयिक घटनाओं आदि के दबाव में हम जो कुछ करते हैं हम मान लेते हैं कि हम कर रहे हैं, जब कि वह हमारे माध्‍यम से घटित हो रहा है।”

शास्‍त्री जी को मानना चाहिए था कि मैंने उूपर जिसे संक्षेप में कहा था उसे कुछ विस्‍तार से समझाते हुए कह आया था, पर अपनी बात कटते देख भड़क गए, ”आपके पास अब कहने को कुछ नया नहीं बचा है कि जो पहले कहते रहे हैं उसी को दुहरा रहे हैं। सुनिये, जो कुछ आपने कहा था उसमें यह भी कहा था कि कुछ मामलों में विरल अपवादों को छोड़ वृहत्‍तर समुदायों का आचरण एक जैसा होता है और मुझे मुसलमानों से यही शिकायत है। ये जहां भी हैं, जिस भी देश में हैं, जिस भी समाज ने इन्‍हें बसने और रहने की स‍ुविधाएं दी हैं, सभी में इनका यही चरित्र है। हुए ये दोस्‍त जिसके दुश्‍मन उसका आसमां क्‍यों हो।’

”वाह! क्‍या कही है आपने। परन्‍तु मैंने यह कहा था कि एक विचारक की भूमिका चिकित्‍सक की होनी चाहिए न कि अपराध शाखा के पुलिस की। यदि कोई विकृति या व्‍याधि बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो भी हमारे पास एक ही उपाय है कि हम उन घटकों का पता लगाएं जिनका परिणाम कोई प्रवृत्ति या कार्य है। महामारी में आप रोगी को नहीं उस अदृश्‍य विषाणु को दोष देते हैं जिसने उसमें प्रवेश कर लिया है, उस माध्‍यम या संवाहक का पता लगाएंगे जिनके संसर्ग में आने से यह व्‍याधि फैली है, न कि रोगी को दोष देते हुए बदले की कार्रवाई के रूप में स्‍वयं उसी व्‍याधि से ग्रस्‍त होना चाहेगे।”

शास्‍त्री जी को गुस्‍सा कम आता है लेकिन मेरे समझाने में कोई चूक रही होगी कि वह भीतर ही भीतर कसमसाने लगे थे और यह कसमसाहट उनके चेहरे पर बढ़े रक्‍त के दबाव में प्रकट हो रही थी। चेहरे पर बढ़ती लाली की ओर ध्‍यान गया तो हठात् एक विनोद सूझा और वातावरण को हल्‍का बनाने के लिए कहना चाहा, ”शास्‍त्री जी आपके सिर पर तो खून सवार होता जा रहा है।” परन्‍तु उनसे अपने मित्र जैसी प्रगाढ़ता न थी, फिर उम्र का भी अन्‍तर था, इसका उल्‍टा ही असर होता, इसलिए चुप तो कर गया पर कुछ देर तक मजा लेते हुए मुस्‍कराता रहा।

हम बातों में इतने लीन थे कि यह पता ही न चला कि मेरा मित्र कब आ कर मेरी बगल में बैठ गया था। इस वाक्‍य की सूझ और फिर मुस्‍कराहट से जो राहत मिली उसका यह लाभ हुआ कि उसकी उपस्थिति का भी आभास हो गया।

शास्‍त्री जी अपने विचारों पर पूरी तरह द़ढ़ थे, ‘देखिए, आप मुसलमानों को नहीं जानते। यदि आप कहते हैं कि समाज और व्‍यक्ति के निर्माण में परंपरा का भी हाथ होता है तो यह समझ लीजिए कि इनकी परंपरा ही विश्‍वासघात की रही है। कर्बला से ले कर आज तक, और हो सकता है उससे पहले से ही, मुहम्‍मद साहब ने खुद क्‍या किया था, उन पर आयद होने वाली आयतों तक में यह मौकापरस्‍ती देखी जा सकती है। आस्‍तीन का सांप, पीठ में खंजर घोंपने, जैसे मुहावरे यहां तक कि दगा, फरेब जैसे शब्‍द हमारी भाषाओं में न मिलेंगे क्‍योंकि यह हमारे आचरण में न था। हां, एक मुहावरा अवश्‍य मिलेगा, तिलगुड़ भोजन, तुरुक मिताई, आगे मीठ पीछे पछताई । आप समझे मेरी बात ?”

मेरा मित्र अभी तक चुप सुन रहा था, अब उससे न रहा गया तो मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने हस्‍तक्षेप कर दिया, ”शास्‍त्री जी आप से ज्‍यादती हो रही है। इस तरह की सोच से झगड़ा फसाद तो किया जा सकता है, मिल जुल कर रहा नहीं जा सकता।”

शास्‍त्री जी उत्‍तेजित हो गए, ”मिल-जुल कर रहना कौन चाहता है, उनके साथ?”

मेरा दोस्‍त फिर बीच में कूद गया, ”मिल जुल कर तो आप हिन्‍दुओं के साथ भी नहीं रह सकते, इसकी तो आपको आदत ही नहीं है, आप तो अपनी छाया तक से नफरत करते हैं, आप किसी दूसरे के साथ मिल जुल कर कैसे रह सकते हैं। आप मिलिए या बिदकिए आपका काम उनके बिना चलता नहीं है। इस समाज के तार इस तरह गुंथे मिले हैं कि इसकी आप को समझ ही नहीं हो सकती।”

शास्‍त्री जी हैरानी में उसका मुंह देखने लगे। बिना कुछ बोले ही उनके चेहरे से यह भाव प्रकट हो रहा था कि कल तो यह आदमी मेरे साथ था और आज इसे क्‍या हो गया। दोनों के स्‍वर में आई कर्कशता मुझे भी खल रही थी। इससे तो सोच समझ का रास्‍ता ही बन्‍द हो जाएगा, ”आप किसी को डांट कर या पीट कर तो कोई बात समझा नहीं सकते, तैश में क्‍यों आ गए आप लोग। हम तो अपने मन के भीतर के उस जहर को बाहर निकालना चाहते थे जिसे भला बने रहने के लिए हम छिपाए या दबाए रहते हैं। मन को स्‍वच्‍छ बनाने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं। उस मवाद को बाहर आने दीजिए तभी घाव भरेगा। पर नश्‍तर इतने आवेश में न लगाएंं कि घाव गहरा हो जाय ।”

मेरे हस्‍तक्षेप का इतना असर तो हुआ ही कि दोनों का चेहरा उतर गया, कहिए तनाव कम हो गया। मैने शास्‍त्री जी को समझाना चाहा, ‘देखिए जोड़ने का काम अर्थव्‍यवस्‍था करती है और तोड़ने का काम धर्मशास्‍त्र करते हैं। खैर अब तो मिलों का बोलबाला है, लेकिन आज भी बुनने का काम जुलाहे करते हैं। उनको अलग कर देते तो नंगे रह जाते आप। दर्जी का काम मुसलमान करते है। रंगने का काम रंगरेज करते हैं। …”

शास्‍त्री जी फिर तैश में आ गए, ”हैं, मुसलमान हैं, पर आपही कह चुके हैं कि जिन पेशों में घर में कुछ तैयार सामान पड़ा रहता था ज‍ि‍जिया आदि के नाम पर उनकी लूट पाट होती रहती थी इसलिए उन्‍होंने सामूहिकत धर्म परिवर्तन कर लिया। वे थे तो हिन्‍दू ही और हिन्‍दू मूल्‍यों के प्रति कितनी गहरी ललक थी। कबीर को कभी इस नजर से पढें तो बहुत सारे भ्रम दूर हो जाएंगे।”

मैंने अपने को संयत रखा, ”हिन्‍दू थे, अब नहीं हैं। अब मुसलमान हैं। उन्‍हें पहले इस्‍लाम कबूल करने के लिए बाध्‍य होना पड़ा पर अपने पुराने रीति व्‍यवहार वे निभाते रहे। जिस तरह का कीर्तन भजन करते थे उसी तरह का दरगाहों पर करने लगे।‍ जिस तरह की मनौतियां अपने देवताओं से मांगते रहे अब पीरों और फकीरों से मांगने लगे। आज तो आप हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर जाइये तो वहां कौवालियां गाते कौवाल मिल जाएंगे, पर जब खुसरौ ने निजामुद्दीन औलिया से कहा कुछ हिन्‍दूू जो हाल ही में मुसलमान बने हैं, आपकी महिमा गाते बजाते आना चाहते हैं तो औलिया ने क्‍या कहा था, ‘ इस्‍लाम में गाना बजाना मना है।”

पूछा, तालियां बजाते हुए गा सकते है, तो जवाब मिला ताली बजाना भी मना है। पर कीर्तन करने वालों को तो समर्पण भाव के लिए भजन कीर्तन जरूरी था ही। आज यह हाल है कि कोई दरगाह और कौवाली को अलग करके देख ही नहीं सकता। जिसकी जिन्‍दा रहते अनुमति नहीं दी, उनके मरते ही उन्‍हीं की महिमा में उसे करके दिखा दिया।

विवशता में मुुसलमान बने, अन्‍तरात्‍मा इतनी जल्‍द नहीं बदलती। बहुतेरे बाहर मुसलमान रहते घरों के भीतर हिन्‍दू हो जाते, अपने देवी देवताओं की पूजा दूसरे हिन्‍दुओं की तरह करते जिनके मन्दिर गिरा दिए जाते थे । घरों में मन्दिर और पूजा का कोना उसके बाद ही आरंभ हुआ लगता है। इस्‍लाम कबूल कर लिया और उपनिषदों की चिन्‍ताधारा में समाज समीक्षा करते रहे और भरथरी के गान गाते हुए घूमते भीख मांगते रहे। मेवात के राजपूत तो लंबे समय तक अपने पुराने संस्‍कारों से पूरी तरह कटने को तैयार न थे। इसी तरह के अवशेषों से बनी थी वह संस्‍कृति जिसे गंगाजमुनी तहजीब कहते रहे हैं।”

”आप यह भी तो कहिए कि गंगा जमुनी संस्‍कृति को हिन्‍दुओं ने बनाया और मुसलमानों ने मिटाया है और आज तक मिटाने पर उतारू हैं।

”गंगाजमुनी संस्‍क़ति के शत्रु आप भी थे। एक बार हिन्‍दू समाज से किसी भी विवशता में बाहर गए हुए लोगों को वापस लेने और अपने समाज में मिलाने की क्षमता आप जैसे लोगों के कारण हिन्‍दू समाज में न रही इसलिए उन्‍हें धीरे धीरे अधूरे मुसलमान से पूरा मुसलमान बनाने वाले या कहें तबलीग के नुमाइंदे कट्टर बनाते रहे। केवल जुलाहे और रंगरेज ही नहीं, पंचानबे प्रतिशत मुसलमान आपके भाई हैं। उनके भीतर वही रक्‍त है जो आपके भीतर । उनकी चेतना के अन्‍धलोक में वही मूल्‍यप्रणाली लाख मिटाने के बाद भी किसी न किसी अंश में बनी रह गई है जो आप में है। जिन विश्‍वासघातियों की परंपरा का ज्ञान आपको है वे सभी पशुचारी जमातो के थे और जिनकी जीविका का एक साधन ही लूट पाट था। लुटेरो और आयुधजीवियों में जवानों की कद्र अधिक होती है, बूढ़ो, अशक्‍तों को उनका बचा हुआ ही मिलता है इसलिए उस तरह की पितृभक्ति पहले उनमें न थी पर आज के मुसलमान के विषय में आप यह नहीं कह सकते। जरूरत उनसे दूर जाने की नही, न हड़बडी में एकमेक हो जाने की है, बल्कि साथ रहने की तमीज पैदा करने की है। इसकी अपनी समस्‍याये हैं। हमारे चाहने से ऐसा न होगा, बल्कि उल्‍टा असर पड़ेगा, यह काम उनके बुद्धिजीवियों का है और हमें उनसे पूछना होगा कि वे अपने धर्म दायादों की पशुता को कम करने के लिए किस तरह का और कितना हस्‍तक्षेप करते हैं। यदि नहीं तो क्‍या वे मानेंगे कि मुस्लिम चिन्‍तक या साहित्‍यकार अपने ही हम पेशा हिन्‍दुओं से अधिक कायर या कमतर होता है ।”

शास्‍त्री जी को मेरी बात सही लगी नहीं शायद । वह बिना कुछ बोले उठ कर चल दिए । चलते चलते कहा, ‘आज तो बस इतना ही।’

Post – 2016-07-09

मध्‍यकाल से बाहर का रास्‍ता

आज वह मुझसे पहले ही पहुंच गया था। साथ में एक शास्‍त्री जी भी थे। मैं अभी नजदीक पहुंच रहा था तभी बोल पड़ा, ‘आ इधर आ तेरी सामत तुझे बुलाती है।’

बैठने के साथ मैंने हंसते हुए ही जवाब दिया, ‘अब तो लगता है तू सचमुच आदमी बन जाएगा। जिस आदमी को कविता करना आ जाय, उसकी जड़ता तो खत्‍म होने ही लगती है। बात क्‍या हुई, इतने उत्‍साह में दीख रहे हो?’

”पहले आप से मिलो, ये हैं शास्‍त्री जी।”

”मै जानता हूं शास्‍त्री जी को, और यह भी जानता हूं कि इनकी उपाधि नकली नहीं है, बल्कि गलत है।”

”क्‍या कहा?”

”कहा यह कि आप शास्‍त्री नहीं आचार्य हैं, परन्‍तु इनके शास्‍त्री होते ही लोगों ने इनकाे शास्‍त्री कहना शुरू कर दिया और इनको भी उसमें इतना मजा आने लगा कि किसी को रोका नहीं, कि भई शास्‍त्री मत कहो, अभी मैं आचार्य करने वाला हूं, साे शास्‍त्री नाम के साथ जुड़ गया आैर इनके प्रथम श्रेणी से आचार्यत्‍व प्राप्‍त करने के बावजूद, आचार्य जी कहलाने की प्रबल इच्‍छा के बावजूद, लाख धक्‍का देने पर भी शास्‍त्री टस से मस न हुआ। कई लोगों सेे भूल सुधारने का आग्रह किया, कि मै अब आचार्य हो चुका हूं, परन्‍तु सुनने वाले खुशी बांटने के लिए तालियां बजाते हुए दूसरो से कहते, देखा, शास्‍त्री जी ने आचार्य भी कर लिया ।” शास्‍त्री जी मेरी बात पर मुस्‍कराते रहे, न ‘हां’ कहा, न ‘ना’ और न कोई पादटिप्‍पणी जोड़ी।

उसी ने अचरज प्रकट किया, ”शास्‍त्री जी आप मुस्‍करा रहे हैं, कल तो आप इतने लाल पीले हो रहे थे कि लगा यह नामुराद मिल गया तो इसकी छुट्टी कर देंगे और इसकी बक बक से मुझे भी छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन आज तो आप समझौता करने के मूड में आ गए हैं। इसने कुछ खिला पिता तो नहीं दिया, इसका कोई भरोसा नहीं।”

”अाप को तो मुझ पर भी भरोसा नहीं लगता और मुझे खाने पीने वालों में गिन लिया । वैसे खाने पीने के लिए बदनाम तो हम युगों से रहे हैं।’ वह मेरी ओर मुड़े, ” मैं तो आप का बहुत सम्‍मान करता हूं, परन्‍तु कल लगा यह किसी समस्‍या को गहराई तक समझे बिना ही दूसरों को सलाह देने के लिए बेचैन हो जाते हैं। अभिप्राय तो उत्‍कृष्‍ट ही होता है, पर अभिप्राय से क्‍या लाभ यदि उसके परिणाम निकृष्‍ट निकलें।”

वह उछल पड़ा, ”यह रहीं। अब बता भाई।”

मैं हंसने लगा, ”पहले उनको अपनी बात तो पूरी करने दो। अभी तो वह इरादों की बात कर रहे थे, जो किसी कथन या कार्य में प्रकट होते हैं, तुम्‍हारे पास अक्‍ल नहीं है, तो धीरज से तो काम लो, उस पर अक्‍ल भी खर्च नहीं होती।”

शास्‍त्री जी इस बीच चुप थे, फिर मेरी ओर मुड़े, ”यह बताइये आपने इस्‍लाम का इतिहास पढ़ा है ?”

मुझे मानना पड़ा कि मेरी जानकारी बहुत मामूली है।

‘कुरआन आपने कितनी बार पढ़ा है?”

”एक दो बार उलटा-पलटा है।”

”हदीस आपने पढ़ी है ? आप जानते हैं हदीस के कितने पाठभेद हैं ?”

”लोगों के मुंह से दो चार बातें सुनी हैं।”

”मुल्‍लाओं ने जो फतवे जारी किए हैं उनकी जानकारी तो होगी ही।”

”जब अखबार में छपता है कि अमुक ने अमुक बात पर अमुक फतवा जारी‍ किया है, तो जान लेता हूं फिर जैसा कि अखबारी सूचनाओं के साथ होता है भूल जाता हूं।”

”भारत का मध्‍यकालीन इतिहास आपने ध्‍यान से पढ़ा है, जिसमें कोई मुसलमान किसी का सगा नहीं होता था, कोई किसी पर विश्‍वास नहीं करता था, सुल्‍तानों का काल विश्‍वासघातियों की करतूतों से रंगा हुआ है और मुगल मुसलमानों पर भरोसा न होने के कारण राजपूत राजाओं को सेना का कमान देते थे और वे भी कहीं दगा न दे दें, इसलिए आधे मुसलिम सिपहसालार रखते थे। हिन्‍दुू प्रजा के साथ किसने क्‍या सलूक किया, यह तो मालूम ही होगा।”

इतनी बार नहीं करने के बाद कम से कम इस पर तो हां कर के बच ही सकता था, पर झूठ बोलने की आदत नहीं, इसलिए बताया कि मेरा सारा इतिहास ज्ञान प्राचीन काल तक सीमित है, बल्कि उसके भी वैदिक काल तक पर सच कहें तो केवल ऋग्‍वेदिक काल तक । दूसरे कालों के विषय में यहां वहां से कुछ क‍हानियां किस्‍से ही मालूम हैं।”

”गांधी जी ने मुसलमानों को अपना भाई बिरादर समझ कर खिलाफत के उनके आन्‍दोलन को कांग्रेस का आन्‍दोलन बना दिया और उसके बाद पता है क्‍या हुआ?”

”इसके बाद अंग्रेजों के दुष्‍प्रचार के कारण सुनते हैं बोराें के हाथों हिन्‍दुओं का नरसंहार हुआ था, जो गांधी जी को भी बहुत बुरा लगा था। लेकिन इसकी कोई खास जानकारी नहीं।”

”आपको पता है कि आज के दिन जितने भी राज्‍य ऐसे दलों के हाथ में हैं जो अपने को सेक्‍युलर प्रमाणित करने के लिए मुसलमानों को कुछ ढील देते हैं उनमे आतंकवादियों के अडडे बन जाते हैं, बम बनाने के कारखाने काम करने लगते हैं और जिनमें जनतादल का शासन है उनमें से किसी से कम से कम यह शिकायत सुनने कें नहीं आती।”

अब मुझसे जवाब देते ही न बना । चुप लगा गया। मेरे चेहरे पर मेरी परेशानी अवश्‍य अपनी छाप छोड़ रही होगी।

शास्‍त्री जी ने अब अपना मन्‍तव्‍य प्रकट किया, ”क्षमा करें, भगवान सिंह जी, आप वयोवृद्ध हैं, पर ज्ञानवृद्ध नहीं। आप मनुष्‍य बहुत अच्‍छे हैं, सबका भला चाहते हैं पर यह नहीं जानते कि सबका भला की परिभाषा में कसाई और गाय दोनों के भले में हमें एक को चुनना होगा। लिखने का अन्‍दाज भी मुझे आपका पसन्‍द है, लेकिन देखिए , बुरा मत मानिएगा, जब आप किसी चीज को अच्‍छी तरह जानते नहीं तो दूसरों को उपदेश्‍ा देने क्‍यों दौड़ पड़ते हैं। कम से कम चुप तो रह सकते हैं, चुप रहने से भरम तो बना रहता। इतना सारा बवंडर, एक थमा नहीं कि दूसरा, अरे साहब जिस काम की जानकारी नहीं है उसे कुछ सलीके से करने के लिए उन लोगों पर तो छोड़ ही सकते थे, जो इसकी अच्‍छी जानकारी रखते हैं।”

मेरा दोस्‍त खड़ा हो कर दोनों हाथ भांगड़े वाले अन्‍दाज में उठा कर नाचने लगा, और फिर तालियां बजाता हुआ बेंच पर वापस आ बैठा। उसके मन की मुराद बहुत दिनों बाद पूरी हुई थी।

मैंने बिना हत्‍प्रभ हुए सिर उठाया और हल्‍की मुस्‍कराहट के साथ कहा, ”मैं तो आपको केवल संस्‍कृत का विद्वान समझता था। वह भी आपके नाम के साथ जुड़ी उपाधि के कारण, नहीं तो मेरी संस्‍कृत की जानकारी भी वैसी ही है जैसी दूसरे विषयों की। मैं समय समय पर मित्रों को अपनी जानकारी की सीमा की याद दिलाता रहता हूं फिर भी जो सबसे आसान काम है, याने चुप लगा जाना, वह मुझसे सध नहीं पाता। आप ने मेरे गहन अज्ञान के बाद भी मुझे पढ़ा सुना है, यह आपकी अनुकंपा है। मैंने जो समय समय पर कहा है उसके कुछ सूत्रों का आप को स्‍मरण करा दूं तो संभव है हम एक दूसरे को समझ सकें और उनसे ही आपकी शंकाओं का भी निवारण हो जाय। मैंने जिन शब्‍दों या मुहावरो में इन्‍हें पहले कहा है ठीक उन्‍हीं में न दुहरा पाउूंगा:

” मैंने कहा था, ‘यह मत सोचो कि जब पूर्ण ज्ञान हो जायेगा उसके बाद ही अपने दिमाग से काम लोगे। पूर्ण ज्ञान कभी होगा ही नहीं। जितना भी ज्ञान है, उसी से काम लो, किसी दूसरों के कहने में न आओ। क्‍या आपने इसे ध्‍यान से सुना था?’

शास्‍त्री जी ने हामी भरी, और सहमत हो गए कि बात लाख टके की है।

”मैंने कहा था, इतिहास में बहुत जहर भरा है, (अमृत तो लोगों से बचने ही नहीे पाता)। यह तुम्‍हें तय करना है कि उस विष को शोधित पारे की तरह अपने उपयोग में लाना है, या उसे छोड़ देना है या उसका संग्रह और सेवन करना है।’ आपकाे यह कैसा लगा था?’

शास्‍त्री जी इस बार कुछ असमंजस में पड़ गए । मैंने आगे कहा, ”देखिए, आज जहर का भी बहुत बड़ा कारोबार है। पूरी पीढ़ी की पीढ़ी इसके पीछे पागल हो रही है और आत्‍मविनाश निश्चित है यह जानते हुए भी अपनी मौज मस्‍ती छोड़ना नहीं चाह रही। आप चाहें तो इतिहास से इसे मुफ्त उठा कर इसका कारोबार कर सकते हैं और रातों रात मालामाल हो सकते हैं। क्‍या आप इस कारोबार में जाना पसंद करेंगे ? या इस जहर का शोधन करके इससे विवेक और नई दृष्टि पैदा करना चाहेंगे ?”

शास्‍त्री जी का संशय पहले से अधिक बढ़ गया था। पर कुछ कराहते हुए स्‍वर में उन्‍होंने कहा, ”सुनने में तो ये बातें अच्‍छी हैं, परन्‍तु जो इतिहास नहीं है, वर्तमान है उसका क्‍या करें? आप कहते हैं मध्‍यकाल में बहुत कुछ अनर्थकारी हुआ उसे भूल जाओ, परन्‍तु यह जो मुस्लिम समाज है वह मध्‍यकाल से बाहर आना ही नहीं चाहता। पहले उसे यह डर था कि स्‍वतन्‍त्र भारत के लोकतन्‍त्र में बहुमत हिन्‍दुओं का होगा, शासन उनके हाथ में होगा, वे मध्‍यकालीन अत्‍याचारों का बदला लेंगे इसलिए शान्ति और सम्‍मान से जीने के लिए अलग राज्‍य जरूरी है, परन्‍तु अलग राज्‍य होने पर मध्‍यकालीन अत्‍याचारों को उन्‍होंने फिर दुहराया और आज भी दुहरा रहे हैं। उन देशों में हिन्‍दुओं के घटते अनुपात और उनकी दुर्दशा का कुछ तो पता होगा ही आपको। मैं इतिहास के जहर काे इतिहास में छोड़ आउूं पर इस वर्तमान में जीवित और बार बार दुहराए जाने वाले मध्‍यकाल से कैसे पिंड छुड़ाया जा सकता है? है कोई योजना आपके पास?’

एक क्षण को लगा, सारा उपदेश संदेश बेकार हो गया। मुझसे कुछ कहते न बन रहा था। मैंने एक लम्‍बी सांस ली, और कुछ संभला तो पूछा, ”मेरे पास तत्‍काल तो कोई योजना नहीं है, परन्‍तु आपके पास कोई योजना है? ऐसी योजना हो जिस पर अमल करके आप उनसे छुट्टी भी पा सकें और बचे भी रह सकें?”

”है क्‍यों नहीं, जैसा वे मुस्लिम बहुल देशों में करते हैं वैसा ही उनके साथ किया जाय ?”

मैंने कहा, ‘मुस्लिम देशों में लोकतन्‍त्र नहीं है, लोकतन्‍त्र में लाख कमियां हों, वह मानवीयता को नष्‍ट होने की बड़ी कीमत दे कर भी उसकी रक्षा करना चाहता है।”

”लोकतन्‍त्र हमें नहीं बचा सकता तो लोकतन्‍त्र ले कर क्‍या करेंगे?”

”आज के लिए इतना ही। आप लोकतन्‍त्र को नष्‍ट करके उनके मध्‍ययुग को अपना वर्तमान बनाना चाहते हैं। उन जैसा बन कर जिनसे आप को नफरत है, अपने को बचाना चाहते हैं। यदि आपकी योजना सफल हो जाये तो जीत तो उन्‍हीं योजनाओं की हुई जो आपको मिटाने के लिए तैयार की गई हैं। इसमें आप ही नही हैं, वे भी हैं जिनको आप मिटाना चाहते हैं पर सचाई यह है कि मिटाने वाला अदृश्‍य भी नहीं है फिर भी आप उसे देखने से इन्‍कार कर रहे हैं। वे भी इन्‍कार कर रहे हैं। मध्‍ययुग के औजारों से आधुनिक काल का युद्ध नहीं जीता जा सकता। मध्‍यकाल की समझ से आगे नहीं बढ़ा जा सकता। जो आधुनिक युग में पहुंच चुके हैं और शेष दुनिया को मध्‍य युग में रख कर उसी के अन्‍तर्कलह से उसे मिटाने पर आमादा हैं, और उनको मिटा कर अपने लिए जगह बनाना चाहते हैं असली लड़ाई उनसे है। इसके लिए आपको किसी के मध्‍यकाल में जाना न होगा, ऐसा उपाय करना होगा कि उन्‍हें उनके मध्‍ययुग से बाहर निकाला जा सके। ऐसा पर्यावरण तैयार करना होगा, जिससे उनके बुद्धिजीवी अपने समाज को बदलने के लिए काम कर सकें।”

”मेरी समझ में आप की गोलमोल बातें नहीं आई श्रीमान्।”

”जानता हूं, वज्रकूट दिमाग को पोरस होने मे समय लगता है। हम कल फिर बात करेंगे।”

शास्‍त्री जी मेरे मित्र के साथ बैठे रहे, यह पहला मौका था जब मुझे पहले उठना पड़ रहा था। क्‍या मैं समस्‍या से भाग रहा था?

Post – 2016-07-09

सुबूही
हम दूर, बहुत दूर, तुम्हें ढूढ़ते फिरे
तुम इतने पास थे कि अक्श तक नही दीखा।
हम तुम को प्यार करते हुए खुद पर मर मिटे
मिटने के साथ जिन्‍दगी का क्या नहीं दीखा !
०८ जुलाई २०१६

हम भी उन जुल्फों के देखो तो सताए निकले
फर्क यह है कि पेचो खम बहुत जियादा था।
किस तरन्नु से बात करता था सैयाद मेरा
जबान मीठी थी फन्दा भी कितना सादा था।।
हम उस पर मर नहीं मिटते तो और क्या करते
गो कि कुछ दिन अभी जीने का भी इरादा था।
न उसने आंख उठाई न मिलाई मैंने ।
नरम हो उसका कलेजा न मेरा वादा था।
०८ जुलाई २०१६

Post – 2016-07-08

गंगा-जमुनी तहजीब की शर्त

“उस नौजवान स्‍कालर ने तो अपनी बात को वजनी बनाने के लिए, पाकिस्‍तान जाने की बात कर दी और तुमने उसे समाज को बांटने वाला और जाने क्‍या क्‍या कह दिया, पर तुम तो इतने अनुभवी हो कर समाज को बांटने का काम कर रहे हो और इसकी तुम्‍हें खबर तक नहीं।”

”मुझमें तुममे एक अन्‍तर है । तुम राेग निदान के समय ही पसीज जाते हो। यदि किसी भयानक बीमारी के लक्षण दिखाई पड़ भी गए तो अपने को समझाते हो, नहीं नहीं, इतना प्‍यारा और अपना सगा आदमी है, इसे यह कैसे हो सकता है। टीबी के लक्षण देख कर भी मान लेते हो, खांसी है। मुंह से खून आ गया तो समझा लिया पान चबा रहा होगा और फिर इसका नतीजा जो होता है वह तुम्‍हारे लिए भी अहितकर होता है और मरीज को तो जान से ही जाना होता है। यदि किसी और के पास जाने से जान बच गई, तो वह तुम से घृणा करता है और बीमारी बढ़ाने के लिए कोसता है।”

”मैं निदान के समय निर्मम रहता हूं। निर्मम का मतलब जानते हो, अपने-पराए के लगाव दुराव से मुक्‍त। किसी लक्षण की गहराई में उतर कर और जिन भी कोणों से जांच पड़ताल होनी है सही बीमारी तक पहुंचता हूं और उसके कारणों को समझने के लिए केस हिस्‍ट्री भी पता लगाता हूं कि रोग कितना पुराना है। परन्‍तु उपचार के समय उसके साथ उससे अधिक सदाशयता से पेश आता हूं इसलिए मेरा रोगी चंगा हो कर ही लौटता है। कम से कम उसकी वही दशा नहीं रह जाती जो पहले थी और वह सुधार के लिए मेरा जीवन भर ऋणी रहता है। बात समझ में आई।

”और एक बात और तुम्‍हें बता दूं जैसे मैंने कहा था कि आज के मिशनरी ईसा के उपदेश के ठीक उलट काम करते है, उसी तरह मुझे लगता है, आज के कट्टर और भावुक मुसलमान स्‍वयं मुहम्‍मद साहब के इरादों के उलट काम करते हैं। यदि उनके कहे पर चलें तो इनकी मुश्किलें आसान हो जायं।”

”क्‍या लंबी कुलांच मारी है। अरबी का ऐन नहीं जानते और कुरान का मर्म समझाने लगे।

”कुरान नहीं कुरआन शरीफ कहो । मैंने उसे हिन्‍दी में पढ़ा है। उसमें बहुत सी कमियां निकाली जा सकती हैं, परन्‍तु दुनिया का कोई धर्मग्रन्‍थ नहीं है जिसमें कमियां न निकाली जा सकें। बाहरी आदमी की नजर कमियों पर ही होती है इसलिए गीता में भी ऐसे अंश निकाले जा सकते हैं, जैसे शूद्रों और स्त्रियों के लिए पापयोनि का प्रयोग । हम गीता को शूद्रों और स्त्रियों के लिए आए इस प्रयोग को देख तक नहीं पाते, क्‍योंकि हमारे लिए इसके मोहक अंश कुछ दूसरे हैं। यदि हम अपनी दृष्टि में इतना सा परिवर्तन ला दें कि हम कहीं भी जायं, वहां से उसका उत्‍तम अंश ही लाएंगे सड़ी गली चीजों को नहीं तो वह कोई जगह हो, या ग्रन्‍थ, या व्‍यक्ति वह हमें पहले से अधिक समृद्ध, अधिक पवित्र, अधिक मानवीय और अधिक संवेदनशील बनाएगा। और बाइबिल और कुरआन शरीफ और गीता में एक बहुत गहरी समानता है यह तो तुम जानते ही नहीं।”

“वह चौंक गया, ‘क्‍या कहा, फिर से कहना।”

“गीता का रचना काल जानते हो ।”

“चौथी शताब्‍दी या इसके आस पास । यही कोसंबी ने कहीं लिखा है।”
“हां लिखा है और कोसंबी को पढ़ने वालें को ज्ञान का भूत ऐसे सवार हो जाता है कि वह उनके जुमलों को मुग्‍दर की तरह भांजने लगता है। सोचने जांचने की जरूरत ही अनुभव नहीं करता। यह भूत कभी मुझपर भी सवार रहा करतर था, सो मैंने भी आज मे चालीस साल पहले एक सज्‍जन से डीग हांकते हुए इसे दूहरा दिया। वह बड़े अल्‍पभाषी और सौम्‍य से व्‍यक्ति थे। उन्‍होंने बताया कि गीता के कुछ श्‍लोक अमुक शिलालेख पर टंके हैं और उसका काल है दूसरी शताब्‍दी इस्‍वीपूर्व। इसके आगे कोई तर्क, हास, उपहास नहीं। मैं कोसंबी से गिरा तो तारे दिखाई देने लगे। इसलिए यह विचार जो बाइबिल और कुरआन दोनों में आया है वह गीता से या कहो उस भक्तिचेतना से वहां पहुंचा हो जिसकी प्रेरणा से गीता लिखी गई तो बात जंचेगी।”

वह झुझलाहट अनुभव कर रहा था, ”यार, पहले यह तो बता कि समानता किस बात में है।”

”गीता का कहना है कि ज्ञान, योग, कर्म सभी मोक्ष के साधन हैं, परन्‍तु सभी के साथ कुछ चक्‍कर है। इसलिए सबसे सुरक्षित है भक्ति मार्ग। तुम मुझे समर्पित करते हुए जो जी में आए करो, तम्‍हें कोई पाप नहीं लगेगा। तुम्‍हें किसी सोच फिकिर में पड़ने की जरूरत ही नहीं। मेरा नाम लो, अपना काम करो और सब मुझ पर छोड़ दो। फिकिर न गम, सारे पाप माफ करेंगे हम।

मन्‍मना भव मद् भक्‍तो मद्याजी मां नमस्‍कुरु ।
अहं त्‍वां सर्व पापेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच: ।।

”गीता का यह अधूरा सन्‍देश ही पश्चिमी सामी क्षेत्र में पहुंचा ।”

”किसके माध्‍यम से, यह भी बतादो तो ताली बजाउूं, काफी देर से हाथ खुजला रहा है।”

”ईसाई परंपरा और मैथ्यूे के गास्पेल के अनुसार पूर्व से तीन (पूर्वी, विशेषत: सीरियन चर्चो में इनकी संख्याl 12 बताई गई है) दार्शनिक जिनके नाम तो नहीं दिए गए हैं पर जिन्हें मागी कहा गया है ईसा के जन्म के समय उपहार के साथ पहुंचे थे। इनका परिचय देते हुए बाइबिल इनफोकाम में लिखा है:
The three wise men, also known as magi, were men belonging to various educated classes. Our English word magician comes from this same root. But these wise men were not magicians in the modern sense of sleight-of-hand performers. They were of noble birth, educated, wealthy, and influential. They were philosophers, the counselors of rulers, learned in all the wisdom of the ancient East. The wise men who came seeking the Christ child were not idolaters; they were upright men of integrity. Bible Info.com

”वे ईसा के जन्म के समय पहुंचे थे यह तो बाइबिल का पौराणिक पक्ष हुआ । परन्तु पूर्व से, कहें मगध से अपने विचारों का प्रचार करने वाले लोग पश्चिम एशिया तक पहुंचते रहे और उन्‍हें असाधारण ज्ञान और प्रतिभासम्पन्न माना जाता रहा यह इसका ऐतिहासिक सत्‍य है।

”तो हम कह सकते हैं कि ईसाइयत की सैल्वे‍शन या सभी पापों से मुक्ति दिलाने वाले ईसा की भूमिका का प्रेरणा स्रोत संभवत: बौद्धमत की प्रतिक्रिया में उपजी मगध क्षेत्र की वह विचारधारा थी जो भक्ति को बौद्ध मत से अधिक सुगम और सर्वसाधक बताई जा रही थी जिसमें मोक्ष का भी प्रबन्‍ध था, स्‍वर्गसुख का भी और भौतिक सुख का भी – हतो वा प्राप्स्‍यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
र्इसाइयत और इस्लाम दोनों भक्तिप्रधान मजहब है। दोनों में गर्हित से गर्हित पाप से मुक्ति दान का विधान है। वह अगर दुनिया भर के लोगों का संहार कर दे तो भी उसे कोई पाप न लगेगा:

यस्य नाहंकुतोभाव बुद्धिर्यस्य न लिप्येते ।
हत्वाSपि स इमान्लोकान् न हन्ति न निबध्नते ।।

और फिर :

सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।

”बड़ा खुराफाती दिमाग है तुम्हारा, कहां कहां की कौड़ी जुटा कर तमाशा खड़ा कर देते हो। पर एक बात बताओ, यदि यही सन्‍देश था तो फिर भारतीयों ने अपने धर्म प्रचार के लिए उस तरह के रक्‍तपात का सहारा क्‍यों नहीं लिया जब कि इसकी पूरी छूट थी, और ईसाइयत और इस्‍लाम ने तलवार का जोर आजमाते हुए धर्म प्रचार किया।”

”इसका उत्‍तर तो तुमको तलाशना होगा। मैं क्‍या सर्वज्ञ हूं कि सारे प्रश्‍नों का जवाब मेरे पास मिल जाए । हां अनुमान लगा सकता हूं कि यही बौद्धमत और जैन मत की और उपनिषदीय चिन्‍तन की ओर वैदिक काल से चली आ रही शान्ति और स्‍वस्ति कामना की विजय है कि इसमें अहिंसक विचार बहुत तेजी से फैलते और अपनाए जाते हैं, पर रक्‍तपात विकर्षक लगता है। उससे उन लोगों का भी चित्‍त विचलित होता है जो मांसाहार करते हैं। परन्‍तु गीता स्‍वयं भी उन अहिंसा आदि के परंपरागत मूल्‍यों का आदर करती है और उसमें कुछ और जटिलताएं भी हैं। एक ऐसे परिवेश में जिसमें समाज चरवाही प्रधान रहा हो, हिंसा, लूट पाट आम रहा है इसलिए वहां इसे अपनाने में किसी तरह की मनोबाधा न रही होगी।”

”लेकिन, लेकिन … छोड़ो। रहने दो नहीं तो …”

”अपनी बात तो कहो।”

”‍तुमने स्‍वयं कहा था कि ईसाइयत के संगठन पर बौद्ध मठों का प्रभाव है और आज कह रहे हो, बौद्ध मत के विरोध में खड़ी विचारधारा का प्रभाव पड़ा है।”

”प्रभाव दोनों का पड़ा लगता है। एक का संगठन और पदक्रम व्‍यवस्‍था, घंटी घंटे तक सीमित रहा तो दूसरे की हिंसक उपायों से धर्मप्रचार का । वह सेना तो तुम जानते ही हो कुरक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में ही जुटी थी। रचना यह बाद की है, यह ध्‍यान रखो। इसमें एक दबा संकेत है कि यदि अधर्म अर्थात् बौद्ध और जैन मत अपनाए हुए स्‍वजनों का भी वध करना पड़ता है तो घबराने की बात नहीं और सोचो तो पुष्‍यमित्र शुंग ने इसे कर भी दिखाया था।”

”दिमाग चकरा जाता है तुमसे बात करते हुए । जो बातें सही लगती हैं उन पर भी विश्‍वास नहीं होता। जैसे यही कि इतने दूर से अपने धर्म और दर्शन का प्रचार करने वाले लोग भारत से पश्चिमी एशिया में पहुंचे होगे और उनकी धर्मद़ष्टि इनके विचारों से प्रभा‍वित हुई होगी।”

डेविड डिरिंजर नाम के एक लिपि विज्ञान के बहुत अधिकारी व्‍यक्ति हैं। उन्‍होंने प्रचुर पुरातात्विक साक्ष्‍यों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि अरब में ईसा के आरंभिक वर्षों में जो कारवां चलते थे उनमें भारतीय आर्यभाषा बोलने वाले लोग भी थे। भारत उतना कटा और अपने में सिकुड़ा देश कभी नहीं रहा और जैसे आज हम ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम से आतंकित हैं, भारत की यह घौंस कई हजार साल तक बनी रही।

”खैर, तो मैं कह रहा था कि हमें इस्‍लाम के उस भावुक पक्ष को गालियां देने की जगह उसकी जड़ों काे समझा जाना चाहिए और इसे समझने में उनकी भी मदद करनी चाहिए कि भावुकता में बुद्धि काम नहीं कर पाती। आदमी की सोचने की शक्ति घट कर औचित्‍यस्‍थापन तक सिमट आती है और ऐसा समाज अपने आप में मगन भले रहे आगे बढ़ नहीं सकता। इस्‍लाम ने ईसाइयत के माध्‍यम से यहूदी और ईसाई नामों, त्‍यौहारो, विचारों, विश्‍वासों, पुराणकथाओं सभी को लिया है। यदि मुहम्‍मद साहब होते जो मानते थे कि ज्ञान चीन जैसे सुदूर देश से भी लिया जा सकता है, जिन्‍होंने पश्चिम से इतनी सामग्री ली भी, तो आज कहते हमे पश्चिमी देशों की तरह भावुकता से मुक्ति पा कर विज्ञान और विकास की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। जिस हिन्‍दुस्‍तान से उन्‍हें ठंडी हवाएं आती दिखाई देती थीं, या कहें जहां के विचारों से उन्‍हें सुकून मिलता था, उसमें रहते हुए मुसलमानों को ठंडे दिमाग से सोचना और कुछ ग्रहण करना चाहिए। गंगा जमुनी तहजीब की यह जरूरी शर्त है। इसके बिना हम टकराते घड़ों की तरह टूटते तो रह सकते हैं, कुछ बन नहीं सकते, सिवाय मूर्ख बनने के ।

Post – 2016-07-07

घरों, गलियों में बात होती है।
गालियों में भी बात होती है ।।
काम चलता नहीं जबां से जब
गोलियों से भी बात होती है ।।

गंगा भी नहीं जमुना भी नहीं दजला पर पहुंच कर देखेंगे।
गर ठौर वहां पर मिल न सका तो वापस आ कर देखेंगे।
खुद अपने कभी तो बन न सके गैरों के बनेंगे क्यों हमदम
हम खुद को बदल पाते ही नहीं, पर उनको बदल कर देखेंगे।

‘तुमने कभी फेस बुक की दुनिया देखी है।’

‘फेसबुक क्‍या है यह जाना ही नहीं।’

‘ठीक कहते हो, जब मुंह दिखाने के काबिल न रहे तो फेसबुक पर आने में घबराहट तो होगी ही। खैर, मैं कभी फुर्सत मिली तो इधर उधर की टोह ले लेता हूं। दुनिया को समझने का इससे अच्‍छा कोई मंच नहीं। हर तरह के लोग, हर तरह की जबान, लोग नंगे हो कर भी सामने आ जाते हैं। नंगई पर भी आमादा हो जाते हैं और यह वहम पाले रहते हैं कि वे बहस कर रहे हैं, या दूसरे की मिजाजपुर्सी कर रहे हैं। इसी पर यह पता चलता है कि हिन्‍दुओं का एक हिस्‍सा आ‍दित्‍य नाथ जोगी की या वह कौन सी साध्‍वी है यार जब मुह खोलती है तो अम़त झरने लगता है, उनसे भाषा सीखते और बोलते हैं और आधे मुसलमान, हो सकता है वे दो तिहाई हों यार, मुसलमान तो जज्‍बाती होने के लिए कर्बला के समय से ही बदनाम हैं, चलो अनुपात पर बाद में समझौता कर लेंगे, पर वे बोलते औवैसी और भैंस चोरी करा कर पुलिस मुहकमे केा उसके पीछे लगा कर अपनी औकात दिखाने वाला वह आदमी जिसका भी नाम इस ऐन मौके पर भूल गया, उसकी जबान हैं। बुढ़ापा भी क्‍या बुरी चीज है, अपनी मौत की तारीख तक याद नहीं रहती।’

‘वह मुझे याद है, तुम फिक्र मत करो, होनी तो मेरे ही हाथों है। लेकिन तुमने यह कैसे सोच लिया कि भैंसे उसी ने गायब कराई थीं।’

‘इतनी मोटी अक्‍ल है तुम्‍हारी। अरे भई भैंसे बरामद हो गई चोर बरामद नहीं हुआ। ओर जानते हो उनको खोजने के लिए पुलिस कौन थी। जानोगे कैसे, मैंने यह बताया ही नहीं। वह मुख्‍यमंत्री की सुरक्षा गार्डों की टुकड़ी थी और आजम खां को यह सन्‍देश देना था कि मेरी भैसों की सुरक्षा मुख्‍यमंत्री की सुरक्षा से अधिक महत्‍वपूर्ण है। बेचारा तीन तीन सुपर मुख्‍यमन्त्रियों के नीचे काम करने वाला, तनहा आदमी जो हाथ जोड़ते और माफी मागते हुए दूसरों के किए को अपने सर लेता है।”

”फिर गया दिमाग, अब हो गई गंगा-जमुनी तहजीब की छुट्टी।”

”वह कब थी यार? कभी थी ही नहीं? जहां मुसलमान हों वहां गंगाजमुनी तहजीब हो ही नहीं सकती। यह उनके भूभौतिक यथार्थ से भी मेल नहीं खाता, मनोसामाजिक यथार्थ से भी नहीं और मजहबी यथार्थ से भी नहीं। देखो तो दजला और फरात कितनी लम्‍बी दूरी तक एक दूसरे के इतने करीब बहती हैं और मजाल कि बाढ़ के दिनों में भी मिल कर दिखा दें। तुम्‍हें पता है भारत में पहला सांप्रदायिक दंगा शिया-सुन्‍नी के बीच हुआ था और पाकिस्‍तान में हिन्‍दू इतने दबे हुए हैं कि विरोध और दंगा करने की भी जरूरत नहीं पड़ती तो सारे दंगे और बवाल शियाओं के साथ ही होते हैं। यह उनके फितरत में है ही नहीं, क्‍योंकि एकोहं द्वितीयो नास्ति, का वे अलग अर्थ करते हैं। यही कारण है आबादी का अनुपात बढ़ते ही दूसरों का उनके साथ रहना तो मुश्किल हो ही जाता है, उनके अपनों का यदि वे कुछ खुले खयाल के हुए तो, जीना मुश्किल हो जाता है इसलिए वे कुछ मसलों पर मुंह सी लेते हैं, कुछ पर सिले हुए मुंह से बात करते हैं नहीं तो जिन्‍दा बच भी जायं तो तस्‍लीमा का तरह देशबद्र होना पड़ जाय। वे उनके गुनाहों पर चुप रहते हैं और आप की ओर से छोटी से छोटी असुविधा पर देश छोड़ने की धमकी देने लगते हैं और लोग घबरा जाते हैं कि यदि यह रतन न रहा तो हमारा तो बाजार भाव ही गिर जाएगा।’

‘यह तुम्‍हारा कौन सा चेहरा है, इसे अब तक कहां छिपा रखा था यार। तुम्‍हें यह नहीं लगता कि तुम तिल का ताड़ बना रहे हो ।’

‘मैंं तिल का ताड़ बनाना तो दूर मैं तिल को सरसों तक नही बना सकता। सच इतना सादा और इसके बाद भी इतना डरावना होता है कि लोग उसका सामना नहीं कर पाते। सामना नहीं करेंगे तो हेरा फेरी करेंगे और समस्‍याओं काे सुलझाने की जगह और उलझाएंगे और सुलझाने का नाटक करते हुए परेशान दिखेंगे और फिर दोष किसी दूसरे पर मढ़ेंगे, कि मेरे इतने प्रयत्‍न के बावजूद अमुक के कारण समस्‍या सुलझ ही नहीं पाई। मैंने जो अभियोग लगाया वह तुम्‍हें अतिरंजित और काल्‍पनिक तक लगा होगा, इसलिए मैं माइक्रो लेवल की दो स्‍टडीज पेश करता हूं।

”राजेन्‍द्र यादव जब जीवित थे, हंस के जन्‍म दिन पर एक गोष्‍ठी किया करते थे, यह तुम भी जानते हो। एक गोष्‍ठी मे एक सबाल्‍टर्न हिस्‍टोरियन थे, जो संयोगवश मुसलमान थे और उनका अध्‍ययन चौरीचौरा कांड पर था जिसमें उन्‍होंने सिद्ध किया था कि उस कांड के नेता और शहीद होने वाले लोग मुसलमान थे। रहे होंगे। उन्‍हें शिकायत यह थी कि वह ज़ेर और जब्र के निशान अपने हिन्‍दी लेखों में बड़ी सावधानी से लगा कर भेजते हैं तब भी हिन्‍दी वाले उनका ध्‍यान नहीं रखते। यह तो एक तथ्‍य कथन था जिसके कारण रहे हो सकते है। हिन्‍दी में वैसे भी जलील और ज़लील में किसका मतलब क्‍या है यह सभी नहीं जानते। बिन्‍दी न रहने पर जानकार सन्‍दर्भ के अनुसार उसका अर्थ कर सकते हैं, नुक्‍ता गलत लग गया तो अनर्थ हो सकता है इसलिए अच्‍छा है हिन्‍दी में नुक्‍ताें से भी बचें और, चींं चां चूं से भी बचा जाय। पर उनको इसका इतना रंज था कि उन्‍होंने क्षुब्‍ध हो कर कहा कि क्‍या इसके लिए मुझे पाकिस्‍तान जाना पड़ेगा?

राजेन्‍द्र जी तो थे ही, नामवर जी थे, देशपांडे जी थे और दूसरे बहुत से लोग थे। सब उनकी आहत भावना से स्‍वयं आहत। अकेला मैं था जिसे इतनी छोटी सी वजह पर इतना बड़ा बखेड़ा सेक्‍युलरिज्‍म की परिभाषा से मेल खाती न लगी। उसके बाद मुझे बोलना था। मै सेक्‍युलर हूं और इसलिए कभी कह कर यह जताने की जरूरत नहीं समझी, और एेसे दागों से सेक्‍युलरिज्‍म की चुनरी बचाने की भी कोशिश नहीं की क्‍योंकि उसे कभी पहना नहीं आत्‍मसात किए रहा। उसके बाद मुझे किसी विषय पर बोलना था पर विषयान्‍तर हो कर भी मैंने इस पर कुछ कहा था, क्‍या, यह याद नहीं, पर सुन कर गमजदा चेहरों की चमक लौट आई थी।

” मैं यहां यह अर्ज कर रहा था कि भारतीय मुसलमान हिन्‍दुओं की सदाशयता में वृद्धि के अनुपात में ही इतना हाइपर सेन्सिटिव होता गया कि वह लिपि के सवाल पर देश और समाज को बांट सकता है और उस बंटे हुए देश के बचे हुए देश में रहते हुए नुक्‍ते के सवाल पर भी वही काम कर सकता है, और हमारे बुद्धिजीवी उनसे नुक्‍ते के छूटने के दर्द से इतने आहत हो सकते हैं कि किसी को यह याद दिलाने की भी हिम्‍मत नहीं हुई कि वह इतनी छोटी सी बात पर बौखला क्‍यों गया।

नुक्‍ते के छूटने के पीछे जिसमें किसी तरह की दुर्भावना नहीं थी, वह बुद्धिजीवी और कुछ दूर तक सेकुलर समझा जाने वाला नौजवान, लगेगा देश छोड़ने की धमकी दे रहा थाा ध्‍यान से सुनिए तो वह कह रहा था कि जब इस देश में मुसलमानों के नुक्‍ते तक के लिए जगह नहीं रह गई है तो मुसलमानों के लिए क्‍या होगी। पहले देश टूटा था अब वह समाज को तोड़ने का प्रयत्‍न कर रहा था। वह भी यह जानते हुए कि जिस पाकिस्‍तान में जाने की वह धमकी दे रहा है उसमें पहुंचे हुओं को इस नुक्‍ते के कारण ही लोग नफरत करते हैं, क्‍योंकि इसके साथ उन्‍हें गुश्‍ताखी की गंध आती है और इसलिए तब के गए हुए आज तक वहां मुहाजिर या शरणार्थी की बने रह गए हैं।

इस नुक्‍ते के लिए भारतीय भाषाओं में जगह नहीं और पाकिस्‍तान की बोलियां भी यहीं की बोलियां हैं इसलिए नुक्‍ते के सही उच्‍चारण में उनसे चूक होती है और इसके कारण उनकी फजीहत की जाती है। इस नुक्‍ते के कारण पाकिस्‍तान में भाषाई अस्मिताएं उर्दू के विरोध में खड़ी हो गईं और सिन्धियों ने ‘सिन्‍ध जिन्‍दावाब’ कहना आरंभ कर दिया पर इन्‍हीं शबदों में नहीं। उनका नारा था ‘जीये सिन्‍ध देश’ । पाकिस्‍तान जिन्‍दाबाद पाइन्‍दाबाद के मुकाबले, जीये सिन्‍ध देश । यह है इस अतिरिक्‍त जज्‍बाती आग्रह का नतीजा।

‘और एक दूसरा …।’

‘चुप कर यार। कल तुम्‍हीं ने तो गंगाजमुनी संस्‍क‍ृति की बात की थी आैर आज यह हाल…’

‘ वह कल की बात थी। मैं तुम्‍हारी तरह जड़ तो हूं नहीं कि एक बात हारिल की लकड़ी की तरह पकड़ कर लटका रहूं। ‘

‘मौकापरस्‍त हो यह तो देख ही रहा हूू।’

‘यदि तुम कुछ देख पाते तो सबसे पहले यह देखते कि यह गंगा-जमुनी संस्‍कृति वह है जिसे बनाए रखने के लिए इकतरफा कुर्बानियां दी जाती रही। गंगाजमुनी गाने गाए जाते रहे, ‘अल्‍ला ईश्‍वर तेरे नाम’ से ले कर सेक्‍युलर भारत में इफ्तार पार्टियों से ले कर हज के लिए राजकीय अंशदान तक। इसको बनाए रखने के लिए क्‍या क्‍या प्रयत्‍न कब कब किसी मुसलमान ने किए है, इसकी एक तालिका बनाओ।

‘पर यार सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि मुझे लगता है मैं जो कुछ कहता हूैं उसका उूपर से विरोध करते हुए भी तुम उसे अक्षरश- मान लेते हो नहीं तो कल के वादे की याद न दिलाते। मेरे साथ दिक्‍कत यह है कि मैं सोचता हूें और कई बार तो अभी जो सोचा उस पर दुबारा सोचने पर उसी समय उसे गलत पाता हूं और बदल देता हूं। तुम भी सोचने की आदत डालो, चालीस साल से जहां थे वहीं खड़े हो, जिन मुहावरों में बात करते थे उन्‍हीं में आज तक बात करते हो। यथार्थ बदलता है, मुहावरे नहीं बदलते। यथार्थ का उन्‍हीं मुहावरो में समायोजन हो जाता है इसलिए तुम यथार्थ को नहीं देख पाते, मुहावरों पर टकटकी लगाए रहते हो। शब्‍द भंडार इतना सीमित कि खुले विचारों के लिए न जगह न शब्‍द।

‘दोस्‍ती अपनी जगह, विरोध अपनी जगह, पर मैं जो कहूं उसे मान लिया तो खासे अहमक आदमी हो । आज जो अभी कह रहा हूं उस पर भी विश्‍वास न करो। इसकी जांच करो। अभी तो मैं आंकड़े पेश कर रहा था। और तुमने बीच में ही रोक दिया। कल के लिए बहुत कुछ छूट गया है।’

‘तुमने आज तक ये जो तुम्‍हारे मुंहफट लोग और लुगाइयां हैं, जो कहते हैं जो भारत में रहने की उनकी शर्त नहीं मानेगा उसे बंगाल की खाड़ी में फेंक देंगे, पाकिस्‍तान भेज देंगे, उनकी आज तक, कभी, तुमने आलोचना की है?”

‘जरूरत नहीं समझता। वे वेचारे तो चीत्‍कार रहे हैं। चीत्‍कार इसलिए करते हैं कि कोई उनकी सुनता नहीं, वह तुमको दहाड़ सुनाई दे रही है तो अपने कानों की दवा कराओ। और फिर फुर्सत मिले तो मुहावरो की कोई किताब पढ़ो, कहीं न कहीं जरूर लिखा मिलेगा वार्किग डाग्‍स सेल्‍डक बाइट । भौंकने वाले कुत्‍ते काटते नहीं। काटने वाले काटने के पहले भी नहींं भौकते और बाद में भी नहीं भौंकते। मुझे चीखने वालों से डर नहीं लगता, चुप्‍पों से अंदेशा बना रहता है।’

‘भौंकने वाले माहौलन तो बिगाड़ते ही हैं।”

”उससे रौद्र रस की स़ृष्टि नहीं होती, हास्‍य रस की सृष्टि होती है, इसलिए तुम जिसे गंगाजमुनी तहजीब कहते हो उसे बिगाड़ने में इनकी भूमिका नहीं दिखाई देगी, यह तो विगड़ी हुई तहजीब के प्रकट लक्षण हैं और उनका तुर्की ब तुर्की जवाब देने वाले दोनों ओर होते हैं। यह उनका आपसी संवाद है। वे अपने समाज के लिए नहीं अपने अस्तित्‍व के लिए चिन्तित रहते है और माहौल की शान्ति और सुकून के बावजूद भौंकते हैं। समाज इसका आदी हो जाता है पर उस पर इनका असर नहीं पड़ता, असर कारगुजारियों का पड़ता है।

‘कमाल है भई। कमाल है। माहौल की शान्ति और सुकून के बावजूद भौंकते हैं परन्‍तु माहौल बिगाड़ते नहीं।

‘इनका होना जरूरी है। ये एक जरूरी काम करते हैं।सभी समाजों में ऐसे लोग होते हैं। तुम इन्‍हें पागल कह सकते हो, पर इनके होने से ही पता चलता है कि समाज जीवन्‍त है, यन्‍त्रचालित नहीं।

‘क्‍या कहें? इसका कोई जवाब हो सकता है?’

‘कहना चाहो तो कह सकते हो, अभी तक तो तुम मोदी की ही वकालत करते थे, अब बार्किंग डाग्‍स की भी करने लगे। पर तब जवाब में मुझे कहना पड़ेगा, तुम ठीक समझते हो, मैं बाइटिंग डाग्‍स की वकालत नहीं कर सकता। बार्किंग डाग्‍स तो वाच डाग्‍स होते हैं और फेस बुक पर तो ठट्ट के ठट्ट मिलते हैं। ”

Post – 2016-07-06

गंगा जमुनी संस्‍कृति

”तुमने कभी इस बात पर ध्‍यान दिया है कि इस देश में साम्‍प्रदायिक मेलजोल की एक संस्‍कृति युगों से रही है, उसे कुछ तत्‍वों द्वारा नष्‍ट किया जा रहा है।”

”अफसोस है कि वह नष्‍ट हो रही है, परन्‍तु न तो कभी यह समझने की कोशिश की गई कि यह संस्‍कृति थी क्‍या, न यह चिन्‍ता की गई कि इसे कैसे बचाया जाय। हालत यह है कि यदि कोई कहे ‘सबका साथ सबका विकास’ और इसकी कोशिश करता भी दिखाई दे, तो भी वह डरावना लगता है। उसे समझने की जगह इस बात की कोशिश की जाती है कि कहीं लोग उसकी बात मान कर साथ जुड़ने और आगे बढ़ने की कोशिश न करने लगें।”

”तुम कहां की बात कहां पहुंचा देते हो । मैं राजनीति की बात नहीं कर रहा था। यहां तो दिलफरेब नारे दिए ही जाते हैं वोट बटोरने के लिए, और फिर सत्‍ता पाते ही उन्‍हें भुला दिया जाता ह। मैं सामाजिक मेल जोल की बात कर रहा था।”

”मैं भी उसी की बात कर रहा था। उसी समाज की सोच का। उसी के डर का। उसी के बुद्धिजीवियों के मानसिक दिवालियापन का जो चमकदार नारों के पीछे लगातार इस बात की कोशिश करते रहे हैं, कालिमा बनी रहे, नफरत बढ़ती रहे, लोग टकराते रहें और उनका कारोबार चलता रहे। यदि ऐसा न करते तो वे उन दिलफरेब नारों को अमल में लाये जाने का प्रयत्‍न करतेाा सांप्रदायिक, जातिवादी, वर्णवादी और अापराधिक प्रव़ृत्तियों को रोकने के इस मौखिक आश्‍वासन को क्रियान्वित करने की मांग करते, न कि उनके पक्ष में खडें हो कर इस भगीरथ संकल्‍प को विफल करने का प्रयत्‍न करते।”

”तुम क्या इतने नासमझ को कि यह न समझ पाओ कि मेरे रोकने पर भी तुम फिर घूम फिर कर राजनीति पर आ गए और इसका तुम्हे पता तक न चलाा।”

”समाज की बहुत सी विकृतियां सत्‍ता प्रेरित होती है। सत्‍ता के पास साधन, धन, और लोकतन्‍त्र में तो अपने दल से जुड़े जनों की भी उपलब्‍धता होती है जिसके बल पर वह करामात से लेकर खुराफात तक जो चाहे कर सकती है और करती आई है। जिस विलगाव या पारस्‍परिक विमुखता की तुम शिकायत कर रहे हो उसको भी उभारने में बांटो और राज करो की नीति ही परिणाम है। अाज यदि जोड़ो आैर राज करो की नीति पर काम करना चाहता है तो बांटने और अपनी अपनी चौहद्दी में राज करने की आदी हो चुकी ताकतें उसे सफल होने ही नहीं देना चाहतीं। वह उन्‍हें राक्षस नजर आता है जब कि स्‍वत: उसने वोट पाने के लिए जो कहा था उसी पर सही उतरने के लिए लगातार काम कर रहा है।”

”राजनीति में बहुत भोले हो तुम। यहां जो कहा जाता है उसका वही अर्थ नहीं होता जो किया जाता है।”

”देखो, यह नारा किसी दल का नहीं है, एक व्‍यक्ति का है जिसने उस दल को भी यह समझाने में सफलता पाई कि अल्‍प में सुख नहीं विराट बनना होगा। राष्‍ट्रीयता बन कर नहीं देश बन कर दुनिया के अग्रणी देशों की समकक्षता में आना होगा। नाल्‍पे सुखमस्ति भूमैव सुखम्’ और यह मंत्र उसने राजनीति से नहीं सीखा है, अपितु सन्‍यासियों और वैरागियों की संगत में आने के बाद अपनी खोजयात्रा में प्राप्‍त किया था और उनकी ही सलाह पर राजनीति में लौटा । उसने कुछ भी ऐसा नहीं किया है जिसे उसके चुनावी वादों और बाद के कारनामों में खाई के रूप में देखा जा सके। खाईयाँ खोदने का काम तुम लोग कर रहे हो और खाइयाँ चिकनी रेत में खोदी जा रही खाई की तरह खोदने के साथ ही अपने आप भरने लगती हैं। तुम्‍हें अपनी कल्‍पना में दिखाई देती हैं पर जनता को दिखाई ही नहीं देतीं। जो दिखाई देता है वह यह कि चिकनी रेत में तुम स्‍वत: धंसते जा रहे हो धीरे धीर। शारीरिक रूप से भी और दिमागी रूप से भी नहीं तो समझ पाते कि जिसे तुमने गंगा जमुनी संस्‍कृति कहा उसी का एक पर्याय ‘सबका साथ और सबका विकास’ है । मुल्‍लों ने भारतीय मुसलमानों को उतना मुसलमान नहीं बनाया होगा, जितना तुमने उन्‍हें बनाया है, अन्‍यथा वे इसका लाभ उठा कर अपने सहयोग से राष्‍ट्रीय सोच की दिशा बदल देते। भारतीय सेक्‍युलरिस्‍ट कम्‍युनलिस्‍टों के जनक, पालक और अभिभावक हैं।”

”बेवकूफी तो सबसे कभी न कभी होती ही है, पर तुम तो हद पार कर जाते हो।”

”तुम ठीक कहते हो। बेवकूफी की हद से आगे समझदारी का इलाका है। मेरा मन वहीं लगता है। जिस इलाके में तुम विचरते हो वहाँ से तुम मुझे समझ नहीं सकते, अपने इलाके की समझ से मेरे बारे में कुछ उल्‍टी सीधी सोच अवश्‍य सकते हो। मैं कह यह रहा था कि जनता अपने स्वभाव से ही मिल जुल कर रहना चाहती है, ये बाँटने की राजनीति करने वाले हैं जो उनका मन खट्टा करते रहते हैं। सत्‍ता में पहुंचने के लिए आतुर और सत्‍ता में बने रहने के लिए कटिबद्ध लोग उसकी एकता को तोड़ कर अपने उपयोग में लाना चाहते हैं।

”मैं दूसरी बात यह कह रहा था कि मोदी एक सामाजिक, राजनयिक और आर्थिक दर्शन ले कर आगे बढ़ना चाहता है, तुम्‍हारे पास, ये जितने लोग उसके खिलाफ शोर मचा रहे हैं, उनके पास बांटने, छांटने, लूटने और अपना हिस्‍सा पाने की छटपटाहट के सिवा कुछ नहीं है। अपने को प्रासंगकि बनाए रखने के लिए वे विनाशकारी काम कर सकते हैं, विघटनकारियों का साथ दे सकते है, और क्विक सैंड में मोदी के लिए गड्ढा खोदते हुए खुद उसमें समा सकते हैं।”

”रेत में धसने की कल्‍पना तुम्‍हीं कर सकते हो। हमने तो रेत की दीवार का ही मुहावरा सुना था, जो तुम्‍हारा मोदी बनाने का प्रयत्‍न कर रहा है पर बन कुछ नहीं पा रहा है। सपने बेचने वाले इस बात का प्रबन्‍ध रखते हैं कि लोगों की नींद टूट न जाय और वे सचाई का सामना करके चौंक न पड़ें। और तुम, माफ करना, मुझे पक्‍का यकीन हो चला है कि तुमने इनको बेचने का इजारा ले रखा है। फायदे का कारोबार है, कभी न कभी तो फल मिलेगा ही। तुमको यह नहीं दिखाई देता कि उसके मन में जो है, वह उन लोगों को कहने देता है जो बोलना तक नहीं जानते, और दुनिया को भरमाने के शिगूफे वह मन की बात में करता है।”

”जिन्‍हें बोलने तक नहीं आता उनको वह आदमी अपना प्रवक्‍ता बनाएगा जिसके मुहावरे तक तुम नहीं समझ पाते और मुंह चिढ़ाने की भाषा में छेडते हो, ‘तुम्‍हारे खाते में इतने लाख आए? अच्‍छे दिन आए? जिनसे तुम यह मसखरी करते हो वे मुहावरो का अर्थ जानते हैं, मुहावरों में बात करते हैं। वे हंसते हुए कहते हैं, नहीं। वे कुंछ न पाने पर नहीं हंसते हैं, तुम्‍हारी नादानी पर हंसते है, क्‍याकि उन्हें पता है कि बुरे दिनों के बीतने से ही अच्‍छे दिन शुरू हो जाते है। जानते हैं कि जनता के खाते में देश का मिलने वाला काला धन नहीं आता, न उन्‍हें पचता है, यह आशा उन्‍होंने तब भी न की थी, पर वे आश्‍चर्य इस बात कर करते हैं जिन बैकों के भीतर कभी उन्‍हें जाने का साहस न होता था उनमें उनके बैक खाते खुल जाते है और उन्‍हें या उनके नाम पर चलने वाला वह धन जो बीच में लुट या घट कर आधा हो जाता था वह सीधे उसके पास पहुंचने लगता है। उनके लिए यह दो पैस पाना ही लाखों पाने जैसा है। कि उनके साथ कोई अनहोनी हो जाय तो दो लाख उनके खते में आ जाएंगे। कल्‍पनातीत है उनके लिए जिन्‍होंने लाख की संख्‍या को सुना था, देखा नहीं। यह बुरे दिनों में नहीं होता था। वे इस बात से आश्‍वस्‍त हैं अच्‍छे दिन का वादा करने वाले अच्‍छे से अच्‍छे दिन लाने के लिए प्रयत्‍नशील हैं और यही उनकी सफलता है।”

”हो गई छुट्टी गंगाजमुनी तहजीब की।”

”हां, यार इसे तो भूल ही गया था। गंगाजमुनी तहजीब की बात करने वाले और इसका रोना रोने वाले ही गंगाजमुनी तहजीब को नष्‍ट करने की दिशा में लगातार काम करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं।”

”ऐसे बददिमाग से कोई बात की जा सकती है, भला।”

वह उठने लगा तो मैंने रोका नही, कहा, ”थक गए होगे।” कल नाश्ता करके आना।

Post – 2016-07-05

भारतीय मुसलमान
”मैं तो तुम जानते हो, जो हूं उसमें कुछ भी वर्जित नहीं है, परन्‍तु तुम गांधीवादी हो कर भी छानते हो, इसे तो छोड़ो। जानते हो गांधी जी इसके कितने खिलाफ थे।”
”पूरा गांधीवादी कोई हो ही नहीं सकता। उतनी विराटता, उतनी नि:संगता, उतना आत्‍मबल किसी एक व्‍यक्ति में केन्द्रित होना एक आश्‍चर्य है। परन्‍तु गांधी के जीवन और कर्म से एक तिनका उठा कर और अपने व्‍यवहार में ला कर कोई नए कीर्तिमान स्‍थापित कर सकता है और इस दृष्टि से गांधी के जितने अंशभागी हैं उतने बहुत कम के हुए होंगे और आने वाले दिनों में इनकी संख्‍या में वृद्धि होगी क्‍योंकि गांधीवाद ही अकेला दर्शन या मूल्‍यप्रणाली है जिससे मानवता के विनाश को रोका जा सकता है। मैंने कभी गांधीवादी बनने का प्रयत्‍न नहीं किया, पर हो सकता है कुछ अनायास आ गया हो। उनमें एक है, बुराई पर परदा डाल कर महान बनने का प्रयत्‍न न करो। अपने विषय में यदि दूसरों से कुछ बताना हो तो सबसे पहले अपनी बुराइयां बताओ। उनके बाद भी तुम जितने बचे रहते हो वही तुम हो, उससे अधिक सम्मान की अपेक्षा मत करो। और हां, एक बात और । डरो नहीं, जो सच है उसे कहने का साहस दिखाओ, जो तुम्हरा अर्जित नहीं है, उसे पाने की चेष्‍टा न करो। मैं नहीं जानता इसका गांधीवाद से कोई सीधा संबंध है या नहीं।”
”ईसाइयों के बारे में तुम्‍हारी राय अच्‍छी नहीं लगती, मुसलमानों के बारे में तुम्‍हारा क्‍या खयाल है।”
”राय तो हिन्‍दुओं के बारे में भी तुम्हें अच्‍छी नहीं लगेगी। मुसलमानों को मैं उससे भी कम जानता हूं जितना ईसाइयों को। उनके इरादे भांप लेना आसान है, उनमें दंभ, छल, कपट बहुत है, इसके बाद भी, या संभवत: उसी के कारण वे दूर होते हुए भी आसानी से समझ में आ जाते हैं, परन्‍तु मुसलमानों में एक दुराव है, भारतीय मुसलमानों में भी एक असमंजस का भाव है, जिसमें वे सामने या आस पास होते हुए भी कुछ छिपते, बचते और बचाते हुए बात करते हैं। कुछ मिलता जुलता व्‍यवहार हिन्‍दुओं का भी मुसलमानों के साथ होता है। इसका ही नतीजा है कि कोई मुसलमान किसी हिन्‍दू पर पूरी तरह विश्‍वास नहीं करता और कोई गैर मुसलमान किसी मुसलमान पर विश्‍वास नहीं करता। हमारी निकटता के बीच भी एक सतर्कता बनी रहती है।”
”जिन्‍ना ने एक बात कही थी कि हिन्‍दुओं के साथ मुसलमान चैन से नहीं रह सकते। तुम उसी को उलट कर कह रहे हो कि मुसलमानों से साथ हिन्‍दू चैन से नहीं रह सकते।”
”जिन्‍ना ने भारतीय समाज को समझा नहीं था। सचाई यह है कि यदि सत्‍ता के भूखे समाज में कलह न पैदा करें तो दोनों समुदाय एक दूसरे पर पूरी तरह विश्‍वास किए बिना भी एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए, एक दूसरे के हितों की चिन्‍ता करते हुए, बहुत प्रेम से रह सकते हैं।”
”मजेदार बात है भई, सन्‍देह भी और प्रेम भी । उलटबासियां कोई तुमसे सीखे।”
”प्रेम में तो हमेशा सन्‍देह बना रहता है यार। प्रिय विषये हि शंका। मैंने तो कहा था कि प्रेम के चुंबक का उल्‍टा सिरा घृणा है, और फिर भी प्रेम हम करते हैं, या कहो प्रेम के बिनाा हमारा जीवन ही निस्‍सार है। तुम अपनी पत्‍नी और प्रेमिका के अपने ही बच्‍चों बच्चियों के विषय में उनके बहकने वाले दौरों में सतर्क रहते हो, और यदि नहीं रहते तो मूर्ख हो। ठीक यही बात पत्‍नी के विषय में कही जा सकती है जो तुम्‍हें प्‍यार भी करती है और तुम पर नजर भी रखती है।”
”पर यहां तुम उस तरह के अविश्‍वास, उस तरह की सतर्कता की बात नहीं कर रहे हो । पूरे धार्मिक समुदाय को एकपिंडीय बना कर देख रहे हो, सबकेा एक ही रंग में रंग रहे हो।”
”जैसे तुम लोग सैफ्रन और सैफ्रनाइजेशन कह कर करते रहते हो ? यही कह रहे हो न? देखो, कुछ मामलों में हम व्‍यक्ति होते हैं, कुछ मामलों में एक वृहत्‍तर समुदाय का हिस्‍सा जिसमें हम अलग दिखाई नहीं देते, उसी का अंश बन कर गति करते हैं, कई बार भौतिक द्रव्‍यों के समुच्‍चय के रूप में। इसी से हम विदेश में हों और वहां कोई भारतीय मिल जाय, यहां भारत से मेरा तात्‍पर्य हिमालय के दक्षिणी भूभाग से है, तो धर्म, जाति, आदि की भिन्‍नता को न जानते हुए भी, उसके ज्ञान और हैसियत से अवगत न होते हुए भी हम पहली ही नजर में उसे पहचान जाते या स्वयं पहचान लिए जाते हैं कि यह आदमी भारतीय है अर्थात् उस मूल्‍य परंपरा से जुड़ा है जो विविध अनुपातों में परन्‍तु सर्वनिष्‍ठ रूप में भारत, पाकिस्तान , बांग्‍लादेश , श्रीलंका और नेपाल में फैला है। इसी के कारण मुस्लिम देशों में भी भारतीय मुस्लिम, मुस्लिम बाद में, हिन्‍दी रूप में पहले पहचाना जाता है और हिन्‍दी ही कहा जाता है।”
”यार इस विराट में तो हिन्‍दू, मुसलिम सभी सिमट आए, फिर तुम इनके बीच भेद क्‍यों करते हो। इस विश्‍वास के बीच सन्‍देह और अविश्‍वास की दीवार तो तुम खड़ी कर रहे हो।”
”बृहत्‍तर सामुदायिकता के भीतर कई स्‍तरों की लघुतर सामाजिकताएं भी होती है जिनमें कुछ अलगाव ऐसे होते हैं जिनको विरल अपवादों को छोड़ कर सभी साझा करते हैं और इसी में धार्मिक समुदायों की पहचानें होती हैं। तुम किसी मुसलमान के कितने भी अच्‍छे मित्र क्‍यों न हो उसे तुम्‍हारे सामने और तुम्‍हे उसके सामने पूरी तरह खुलने में कठिनाई होगी। हमारे साथ सार्वजनिक और निजी दायरे बने रहेंगे। वह जितने खुल कर एक मुसलमान से धर्म और विश्‍वास संबंधी विचारों को रख और उस पर बात कर सकता है उस तरह तुम्‍हारे साथ नहीं। मेरे कुछ अपने मुस्लिम िमत्र हैं िजनके साथ मैंने कई मोर्चे सँभाले हैं, पर मजहबी मामलों में मैं कोई सवाल नहीं करता । वे नमाजी हैं, बातचीत में कभी समय का ध्यान न रहा तो कई बार मैं याद दिलाता हूँ, तुम्हारी नमाज का समय हो गया । पर वह एक अलग दायरा है जिसमें इससे आगे मेरी कोई जिज्ञासा नहीं । ये दायरे छोटे होते होते घर परिवार के निजी दायरों तक पहुंचते है। सच तो यह है कि आदमी अपने सामने भी पूरी तरह नंगा नहीं हो पाता। कुछ ऐसे विचार और भाव होते हैं जिनको हमारा अवचेतन सामने आने ही नहीं देता या जिनके मूर्त होते ही उनकी अप्रियता के कारण हम उनकी परिभाषाएं ही बदल देते हैं और इस तरह स्‍वयं अपने अंधलोक में पहुंचा देते हैं। इसलिए मनुष्‍यों के मामले मे सदा यह रियायत देते हुए ही सोचा जा सकता है कि संभव है हमारी राय गलत हो, अन्‍यथा हम मनुष्‍य के रूप में नहीं, जानवर के रूप में सोच रहे होंगे जो मानव समाज को जानवरों का समाज बना सकता है। दुर्भाग्यवश अधिकांश लोग यह सावधानी नहीं बरतते ।”
वह सचमुच कुछ आजिज लग रहा था, ”तुम बात करते हो तो परते उतारते उतारते वहां पहुंच जाते हो जहाँ विषय ही गायब हो जाता है।”
“मैं यह कह रहा था कि हमारा विकास अनन्‍त संघातों के बीच होता है परन्‍तु इनमें सबसे प्रबल है हमारी शिक्षा। इसके कई संस्‍थान और कई आचार्य है। माता, पिता, कुल की परंपरा, धर्म और व्‍यवसाय, हमारा परिवेश और समाज सभी हमें अपने अपने ढंग से शिक्षित करते हैं और इनके साथ ही हमारे शिक्षा संस्‍थानों और उन विचारधाराओं की भी भूमिका होती है जिनसे हम जुड़ते हैं। इन सबकी भूमिका को समझना समझाना मेरे वश में भी नहीं, परन्‍तु यहां केवल उस पक्ष पर बल अवश्‍य दिया जा सकता है जिसके कारण हम धार्मिक समुदायों में बंटे होते हैं।
“धार्मिक पहचान में ईश्‍वर और धर्मशास्‍त्र या ग्रंथ से अधिक बड़ी भूमिका यह है कि यह हमें पारस्‍परिक सुरक्षा से जोड़ता है इसलिए ईश्‍वर को नकार भी दो तो भी धार्मिक पहचान को मिटाना संभव नहीं है। अपने को नास्तिक या सेक्‍युलर कहने वाले भी इससे बच नहीं सकते। जैसे संसार देशों में बंटा है, वैसे ही धर्म सीमाओं में भी बंटा है और देशों के बीच बफर लैंड या ऐसा भूभाग भी होता है जो किसी के अधिकार में नहीं होता, जिसे नोमैन्‍स लैंड कहते हैं। शायद ऐसा ही एक नो रिलिजन्‍स लैंड अपने धर्म समुदायों से छिटके परन्‍तु अभी तक किसी अन्‍य धर्म सीमा में प्रवेश से कतराने वालों का होता है। यहां वह अधिक असुरक्षित रहता है।”
”जानते हो मैं कल क्‍या करने वाला हूं ।”
”मैंने तुम्‍हें बताए बिना तुम्‍हारी बकवास को टेपरेकार्डर में दर्ज कर लिया है। कल पार्क के सभी लोगों को बुलाकर उसे सुनाऊँगा और जो उसमें से कुछ भी समझ पाया, उसे सौ रुपये इनाम में दूंगा।”
”पत्‍थर से करो बात तो अनुनाद तो होगा।
“पर आदमी पत्‍थर हो तो वह भी नहीं होगा।। चलो उठो ।”

Post – 2016-07-05

‘तुम गांधी के विरुद्ध किस पाठशाला के चलले की बात कर रहे थे जिसके पास धूर्तता और धन और शक्ति केन्द्रित है अौर जो गांधी को गर्हित सिद्ध करने के लिए काम कर रही है।”
पहले तुम यह समझो कि गांधी जी पश्चिमी ईसाइयत को ईसा के अपने सिद्धान्तों के विपरीत मानते थे। मैं तुमसे पहले एक बार कह आया हूं कि ईसा का धर्म पोप के साम्राज्य के तन्‍त्र के ठीक उलट है। यह ईसाइयत धर्म नहीं है, धर्म की अाड़ में सत्‍ता पर कब्‍जा करने की एक जुगत है। ऐसे ईसाई भी रह हैं जो ईसा के बताए मार्ग पर चलते रहे हैं धर्म की उस आत्मा का पालन करते रहे हैं जिसकी शिक्षा ईसा के उपदेशों में मिलती है। इसका इतिहास भी मैंने तुम्हें बताया था। मैंने कल जब ईसाइयत के उस अभियान के विषय में सामग्री जुटाने के क्रम में गांधी जी के अपने विचारों काे समझने का प्रयत्न किया तो मुझे यह जान कर प्रसन्नता हुई कि ठीक ये ही विचार उनके भी थे। उनके शब्दोंे में कहें तो
I consider Western Christianity in its practical working a negation of Christ’s Christianity. I cannot conceive Jesus, if he was living in the flesh in our midst, approving of modern Christian organizations, public worship or modern ministry. (Young India, Sept. 22, 1921)।
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In my humble opinion, much of what passes as Christianity is a negation of the Sermon on the Mount.(वही, Dec.8, 1927)।
”ईसाइयत के प्रति मेरी आलोचनादृष्टि का एक कारण मुझे साम्राज्यवाद से इसका गठजोड़ लगता है और इस माने में मैं इसकी उपस्थिति को उन देशों के लिए घातक मानता हूं जिसमें यह सक्रिय है। आश्चर्य यह कि ठीक यही यही कारण ईसाइयत के वर्तमान रूप के विरोध का गांधी जी के लिए भी था। अन्तर केवल यह कि वह इसका चोली-दामन साथ ब्रितानी सत्ता से जोडते थे, पश्चिमी भौतिकवादी सभ्यता से और दबंग गोरी जातियों द्वारा दुनिया की दूसरी कमजोर जातियों के साम्राज्यवादी शोषण से मानते थे और मैं इसे अमेरिकी कुचक्र का हिस्सा और दूसरे देशों के भीतर अपने देशहित से विमुख और विदेशी इशारों पर चलने वाला धार्मिक-सांस्कृतिक कलेवर के भीतर छिपा आन्तरिक उपनिवेशवाद कहता आया हूं:
Christianity in India has been inextricably mixed up for the last one hundred and fifty years with the British Rule. It appears to us as synonymous with materialistic civilization and imperialistic exploitation by the stronger white races of the weaker races of the world. (वही, March 21, 1929)।
”मैं पुरातनपंथी या रूढि़वादी ईसाइयत उने मानता आया हूं जो ईसा के मूल मन्त्रt को अपनी निष्ठा का हिस्सा मानते हुए उत्पीड़न और शोषण का विरोध करता रहा है और जिसने समय समय पर साम्राज्यथवादी हस्ताक्षेप के विरुद्ध क्रान्तिकारी भूमिका निभाई है जब कि गांधी जी पोप के साम्राज्य और साम्राज्य वादी मंसूबों से जुडे उस संगठित ईसाइयत को आर्थोडाक्स् या रूढि़वादी मानते है। शब्दों के इस मामूली अन्तर को छोड़ दें तो रोमन सम्राट के समर्थन के बाद हमलावर ईसाइयत का विरोध गांधी जी स्वयं भी करते थे:
I rebel against Orthodox Christianity, as it has distorted the message of Jesus. He was an Asiatic whose message was delivered through many media, and when it had the backing of a Roman Emperor it became an imperialist faith as it remains to this day. (Harijan : May 30, 1936)।
”यह गांधी उन ईसाइयों से जो फ्रीडम की अपनी समझ का विस्‍तार करते हुए इनसेस्‍ट और कम्‍युनिज्‍म विरोध के बूते बुकर तक पहुचे हैं, या उन धर्मनिरपेक्षियों से जो अपनी पहचान से जुड़े मत, संस्‍कृति और रीति-नीजि को गर्हित सिद्ध करने की बख्‍शीश के रूप में बुकर या मैगसेसे तक की मंजिलें तय करते हैं, या जो अपनी हैसियत उूंची करने के लिए भूमैव सुखम की तलाश में ईसाइयत का रास्‍ता पकड़ लेते या वे सेक्‍युलरिस्‍ट जो सामी धर्मों की कट्टरता को भी सेक्‍युलरिज्‍म मान कर केवल हिन्‍दू मूल्‍यों, मान्‍यताओं, प्रतीकों और‍ विश्‍वासों पर प्रहार करते हैं तिरस्‍कार और लांछना के अतिरिक्‍त क्‍या पा सकते हैं। इनका एक अदृश्‍य तार ईसाइयत के उस भ्रष्‍ट चरित्र से जुड़ा हुआ है जिसका विवेचन यदि तुम चाहोगे तो आगे कभी करूंगा। ईसाइयत को भारत विजय के लिए इतना अधिक धन मिल रहा है कि सुना एक एक आदिवासी काे दो तीन लाख और उूपर से कुछ सुविधाएं देकर पुराने धर्म और विश्‍वास में विमुख किया जा रहा है। क्रास उठाओ और अपनी अधोगति को क्रास कर जाओ। मानवाधिकार आदि के मुखौटों के पीछे काम करने वाले एनजीओ उसी विघटनकारी तन्‍त्र से समर्थित और पोषित रहे हैं और इनकी शक्ति इतनी बढ़ गई है कि यह सरकारी तन्‍त्र को चुनौती दे सकता है । नक्‍सल गतिविधियों का भी इनसे याराना और इनका रास्‍ता रोकने वालों से दुश्‍मनी तो है ही।
”गांधी धर्म परिवर्तन के विरोधी नहीं थे। यदि किसी धर्म को आप छोड़ न सकें, उसे उसकी जड़ता के साथ, अतर्क्‍य विश्‍वासों के साथ आप को मानने को बाध्‍य होना पड़े तो यह धर्म नहीं है, दासता का एक रूप है। परन्‍तु यह निर्णय व्‍यक्ति का अपना होना चाहिए। उसके लिए किसी दूसरे का नहीं, क्‍योंकि उस दशा में आप उसके गुलाम की तरह व्‍यवहार करेंगे। इसलिए धर्मान्‍तरएा की छूट के साथ वह इसके लिए किसी तरह के दबाव, बहकावे या प्रलोभन के विरुद्ध थे, जब कि ईसाइयत इन्‍हीं हथियारों का प्रयोग करते हुए अपना विस्‍तार कर रही है-
Conversion without a clean heart is denial of God and religion. (Harijan: Dec. 9. 1936)।
I am not against conversion. But I am against modern methods of it. Conversion nowadays has become a matter of business, like any other business.(Christian Missions, p. 7)
I claim to be a man of God. Humbler than the humblest man or woman. My object ever is to make Muslims better Muslims. Hindus better Hindus. Christians better Christians. Parsis better Parsees. I never invite anyone to change his or her religion (. Harijan : Feb 23, 1947)।
”अपनी सरलता में भी इतना जटिल, नम्रता में भी इतना अनम्‍य कोई व्‍यक्ति मुझे दीखता नहीं जो सत्‍ता और भौतिक सुख सुविधा से उदासीन रहने के कारण उन परिघटनाओं के गूढ़ रहस्‍यों और उद्देश्‍यों को भी भांप लेता था और वर्तमान दासता से मुक्ति के लिए ही प्रयासरत नहीं था, अपितु धर्मतन्‍त्र के मुखोटे के साथ प्रवेश कर रही नवउपनिवेशी और विघटनकारी शक्तियों के प्रसार का भी विरोध कर रहा था। ऐसे व्‍यक्ति को, उसके विचार को कलंकित करना ईसाइयत की योजना का हिस्‍सा रहा है और उसने लगातार कदम बढ़ाते हुए शिक्षा और चिकित्‍सा जैसे तन्‍त्रों पर कब्‍जा कर लिया है क्‍योंकि नेहरू या उनके बाद के नेताओं में वह दूर दर्शिता नहीं थी जो गांधी में थी। ईसाइयत के प्रचार के दो सबसे प्रमुख कार्यक्रम रहे हैं शिक्षा और चिकित्‍सा। अकेली, इन्दिरा जी ने कुछ दूर तक इस खतरे को समझा था पर बहुत देर से, तब तक ईसाइयत उनके ही घर में प्रवेश कर चुकी थी और कौन जान किसकी योजनाओं के परिणाम स्‍वरूप उनको ही रास्‍ते से हटा दिया गया और असलियत से ध्‍यान हटाने के लिए सिख संहार का तांडव किया गया। ऐसे लोगों को क्‍या गांधी से घ़णा न होगी जिसकी याद तक उनको नाभदान में बजबजाते संख्‍यावृद्धि करते दोलों में बदल देती है।
”आज उस अंतिम जन के भीतर से, उन अकिंंचनों, दलितो और पिछड़ों के बीच से एक ऐसा महत्‍वाकांक्षी तबका उभरा है जो अपने अभ्‍यूदय के लिए दलित समाज से अपने नाभिनालबद्ध होने का जयकारा लगाता हुआ अपनों को ही छोड़ कर उूची छलांगे लगाता हुआ अल्‍पतम आयास से अधिकतम पाना चाहता है और ईसाइयत इन चारा लोलुप परिन्‍दों को अपने पिटारे में रखने की योजना पर कार्यरत है। इनसक अपने ही समुदाय के प्रति विश्‍वासघात और विघटनकारी योजनाओं में भागीदारी से अलग क्‍या उम्‍मीद करते हो।”
”यार हम पी भी रहे थे, बक भी रहे थे, नोट और प्रोनोट भी देख रहे थे, कुछ उल्‍टा सीधा तो न बक गए ।”
”होश में हम नही कह पाए,
किसी ने न कहा।
तुमने मदहोशी में वह कह दिया
घबराते हुए। ”
”अरे यार, तू भी कविता करेगा तो मेरा क्‍या होगा। उठ बहुत हो गया।”

Post – 2016-07-03

वह विषपायी शिव से बड़ा था
”तुम संक्षेप में बता सकते हो कि गांधी और अंबेडकर में क्‍या अन्‍तर है।’
‘नहीं। संक्षेप में फतवे दिए जाते हैं, या समान ज्ञान और अनुभव वाले व्‍यक्ति से बात हो पाती है, सामान्‍य संवाद में संक्षेप में नहीं, अनावश्‍यक विस्‍तार से बचते हुए ही बात की जा सकती है।”
”तुम बात बात में सिद्धान्‍त बघारने लगते हो और उसमें बहुत समय चला जाता है।”
”यदि तुम सिद्धान्‍त से परिचित हो तो यह अनावश्‍यक विस्‍तार माना जाएगा। यदि नहीं तो सिद्धान्‍त को समझ लेने पर अल्‍पतम श्रम से किसी विचार को स्‍पष्‍ट किया जा सकता है। दुखद स्थिति यह है कि आज के प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग भी तर्क, प्रमाण, औचित्‍य और सिद्धान्‍त की चिन्‍ता किए बिना पूर्वाग्रहों या अफवाहो के आधार पर बात करने लगे हैं और ऐसे विचारों के लिए तैयार बाजार में अपनी गहरी पहुंच देख कर इस बात से सन्‍तुष्‍ट भी अनुभव करते हैं कि वे सार्थक और समयोचित हस्‍तक्षेप कर रहे हैं। इनसे बचने का बवच है सिद्धान्‍त की समझ और उसका निरूपण। पूर्वाग्रह, आत्‍मरति और भावुकता से बचने का एक ही तरीका है कि हम उस प्रकृति को समझे जिसके तर्क और दबाव में कोई काम होता है। इसी का दूसरा नाम सिद्धान्‍त निरूपण है। ”
”मैं इस बहस में नहीं पड़ूंगा, तुम विषय पर आओ। बता सकते हो गांधी और अंबेडकर में क्‍या अन्‍तर है।”
”सूत्र रूप में कहें तो गांधी ने मानव समाज को सुखी और गरिमामय बनाने के लिए अपना सब कुछ उत्‍सर्ग कर दिया.परन्‍तु उसके बदले उन्‍हें आजीवन उन लोगों से घृणा मिली जो अपने लिए सब कुछ पाना चाहते थे या सत्‍य की आवाज को दबाना चाहते थे, लोगों को गुमराह करके उनका अपने लिए इस्‍तेमाल करना चाहते थे। ऐसे लोगों की लंबी सूची है, अंबेडकर उनमें से एक हैं। अंबेडकर उनका सम्‍मान करते थे यह मेरा विश्‍वास है, परन्‍तु उसके एक क्षुद्र अंश पर एकाधिकार करने में उन्‍हें बाधक पा कर उनसे मन ही मन घृणा और मुखर रूप में विरोध करने लगे।”
”क्‍या कहते हो तुम ।”
”जनता से मिले अपार सम्‍मान के कारण बाद में भी वह उनका आदर भी करते थे और उनसे घृणा भी करते थे।”
वह हंसने लगा, ‘आदर भी करते थे और घृणा भी करते थे। तालियां ।’
‘प्रेम और घृणा, ये दो मानव आवेगों में सबसे प्रबल हैं और आवेगों के उत्‍तरी और दक्षिणी ध्रुव हैं, एक ही चुंबक के अनिवार्य सिरे हैं। उत्‍कट प्रेम को उत्‍कट घृणा में बदलने के लिए सिर्फ एक झटका चाहिए कि अापका प्रिय आप काे अपना सर्वस्‍व नहीं सौंप सकता, या आप जिसके प्रेम में पागल हैं, वह आपको प्‍यार नहीं करता, या वह आपके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य को भी प्‍यार करता है। फिर तो वह उत्‍कट प्‍यार उतनी ही उत्कट घृणा में बदल कर कोई भी अनर्थ कर सकता है।
”प्रेम, घ्‍ाृणा, भक्ति, श्रद्धा आदि में जो सर्वनिष्‍ठ है वह है तर्क और बुद्धि का लोप। जो मानते हैं उससे अलग कुछ सुनने तक को अपना अपमान समझना। इनमेंं बुद्धि से केवल इतना ही काम लिया जाता है कि अाप अपनी मान्‍यता के अनुरूप साक्ष्‍यों की तलाश करते हैं और उसी का इतना विस्‍तार कर लेते हैं कि दूसरे पक्ष तिरोहित हो जाते हैं। गांधी ने जिस दिन भारतीय स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन का नेतृत्‍व संभाला तब से उनके सामने देश का दुखी प्राणी था जिसके पास तन ढकने को पूरे कपड़े नहीं, पेट भरने को पूरा भोजन नहीं, उपवास और फांकों से आए दिन जूझना, उसकी जाति और धर्म कोई हो। गांधी ने बिना इसका दावा किए और कभी कभी तो जवाब देते हुए उसी स्‍तर पर अपने को ला कर देश का नेतृत्‍व संभाला। इससे पहले अफ्रीका में भी उन्‍होंने कभी उपवास को हथियार के रूप में काम में लिया था इसका पता लगाना होगा। शायद नहीं। साप्‍ताहिक उपवास, प्रतिरोध के रूप में उपवास, आधे तन की धोती, पगड़ी को छोटा कर गांधी टोपी, और जीवन में अविश्‍वसनीय सादगी, अपनी गन्‍दगी को स्‍वयं साफ करने की जिम्‍मेदारी। गांधी को तुम टुकड़ों में बांट कर नहीं समझ सकते। गांधी की राजनीति पीर हरने की राजनीति थी, सत्‍ता पाने की राजनीति नहींं और इसमे इतनी ताकत थी कि पूरा मारतीय समाज उसके एक इशारे पर आन्‍दोलित हो जाता था, इसलिए ब्रितानी राजनीति स्‍वतंन्‍त्रता आंदोलन को कमजोर करने के लिए इंग्‍लैंड में शिक्षा के लिए मेधावी युवकों को गांधी के प्रति उच्‍चाटन और कांग्रेस के कार्यक्रमों को उनके भाग्‍योदय में बाधक बताते हुए उनके कान भरने काे अपनी शिक्षा प्रणाली का अंग बना चुका था, इसलिए शिक्षा के लिए पहले विश्‍वयुद्ध के बाद जाने वाले तरुण यदि मुस्लिम हुए तो अधिक कट्छर और अपने संप्रदाय की चिन्‍ता से कातर हो कर लौटते, अन्‍यथा कम्‍युनिस्‍ट बन कर आते। अंबेडकर अपवाद थे। पर उनके भीतर गांधी के हिन्‍दु होने और वर्णसीमा के प्रति खुला विद्रोह न करने का संकेत दे कर उनके अछूतोद्धार के प्रयत्‍न को या तो पाखंड बताना या अव्‍यावहारिक सिद्ध करना आसान था। भारत में मिशनरियों द्वारा वर्ण विरोधी तेवर वाले जुझारू नेता पैदा करने में उन्‍हें सफलता मिल चुकी थी। मैं इस के सकल प्रभाव में अंबेडकर की पीड़ा, सरोकार, आकांक्षा और निजी महत्‍वकांक्षा को रख कर ही उनके आचरण और व्‍यवहार को समझने का प्रयत्‍न करता हूं और उनको असंगतियों और विसंगतियों का पुंज पाता।”
”मैं समझा नहीं, तुम कहना क्‍या चाहते हो। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह जान कर कि अंबेडकरवादी गांधी से घृणा करते हैं, अंबेडकर स्‍वयं भी घृणा करते रहे हो सकते है, तुम गांधी प्रेम में अंबेडकर से उसका बदला लेने पर उतारू हो गए हो।”
”यह हो तो सकता है, और हो तो दुर्भाग्‍यपूर्ण है इसलिए मैं उन तथ्‍यों का उल्‍लेख करूंगा जिनके आधार पर मैंने अपना अभिमत बनाया है। यदि तुमको लगे कि वे ऐसी धारणा के लिए पर्याप्‍त नहीं हैं तो मानना होगा, इसमें मेरे राग-द्वेष का हस्‍तक्षेप हुआ होगा। तुम इन बातों पर गौर करो:
1. बाबा साहब ने केवल गांधी को ही दलित उद्धार के कार्यक्रम से अलग करने का प्रयत्‍न किया, आर्यसमाज के जो लोग इस कार्यक्रम से जुड़े हुए थे, उन को भी अपर्याप्‍त बता कर राह से हटाया। कांग्रेस से जिन हरिजन नेताओं ने सहयोग किया था और अपने समुदाय के हित के लिए भी चिन्तित थे, उनको दरकिनार करते हुए अपने को एकमात्र दलितों का प्रतिनिधि सिद्ध करते हुए मंच पर प्रवेश किया जब कि इससे पहले उन्‍होंने कुछ इस दिशा में कुछ खास काम नहीं किया था। कहें, वह समस्‍त दलित समाज का अपने ढंग से इस्‍तेमाल कर रहे थे, यम मेरी आशंका है।
2. दलितों के बीच बोलते हुए उन्‍होंने बडे़ ओजस्‍वी ढंग से यह शिकायत की थी कि इनके शासन से पहले आपकी यह दशा थी, और आज तक उसमें कोई सुधार नहीं हुआ। इसमें उनका स्‍पष्‍ट मत था कि जब तक स्‍वाधीनता नहीं मिल जाती, सामाजिक बराबरी नहीं मिलती तब तक हालत में सुधार नहीं हो सकता। इसके बाद भी वह स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन में बाधा क्‍यों पहुंचाते रहे यह समझ में नहीं आता।”
मैं अागे बढ़ता इससे पहले की वह बोल पड़ा, ”तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा, परन्‍तु वह जिस स्‍वाधीनता की मांग कर रहे थे वह तुम्‍हीं कह चुके हो कि पाकिस्‍तान की तरह एक दलितस्‍तान की मांग थी जिसमें सभी दलित बराबरी और भाईचारे के साथ रह पाएंगे। वर्णसमाज के साथ रह कर अस्‍प़ृश्‍यता से मुक्ति का वह कोई उपाय देखते ही नहीं थे और वह समस्‍या आज तक इसीलिए बनी रह गई है।”
हो सकता है, पर यह एक असंभव शर्त थी यह ब्रितानी सरकार भी मान रही थी। खैर, तीसरी बात जो मैं कहना चाहता था, अंबेडकर बार बार अपनी अडंगेबाजी के कारण सरकार से पद और पुरस्‍कार पाते रहे और हर बार यह बहाना बनाते कि मैंने उसे इसलिए स्‍वीकार किया कि हो सकता है वहां रह कर दलित समाज के लिए कुछ कर सकूं पर यह नहीं बताया कि वहां रह कर किया क्‍या। यह उनके अपराधबोध की उपज प्रतीत होता है।
अब गांधी को सामने रखें तो उनमें दलित पीड़ा उनके जीवन में समाई हुई है और बाबा साहब पद, प्रतिष्‍ठा और वेशभूषा तक सांवले अंग्रेजो की भारतीय जमात के सदस्‍य बने रहे।
गांधी वर्णव्‍यस्‍था को नहीं मानते थे, वह उसे झटके से तोड़ने के विरुद्ध थे। उसे भीतर से बदलना चाहते थे। वह बनिया थे और मेहतर भी थे। उनके जो मुवक्किल अफ्रीका में आते थे उनके ठहरने का प्रबन्‍ध उनके अपने आवास में ही होता। उनके पेशाब के लिए कमरों में एक पात्र होता। जो पुराने और समझदार लोग थे वे उसे सुबह स्‍वयं ले जा कर ठिकाने लगाते, नये या जड़ भरत नहीं कर पाते। गांधी उनको इसकी याद भी नहीं दिलाते। स्‍वयं उसे उठा कर ले चलने को उद्यत। बा अपने रहते ऐसा होने नहीं दे सकतीं और स्‍वयं ऐसा करने को तैयार न होते हुए गहरी पीड़ा के साथ एेसा करतीं। यह था गांधी का वर्णवाद। वह इसकी कठोर मान्‍यताओं को भीतर से बदलना चाहते थे। वह अकेले थे जिन्‍हें गरीबों की चिंता इतनी गहरी कि उन्‍हें सभ्‍य आचार सिखाने के लिए उठने, बैठने, थूकने, गंदगी फेंकने, सफाई रखने के तरीके सुझाते, वे अंग्रेजी दवाएं नहीं कर सकते जिनके लिए पैसा देना होता। इसके लिए कितनी बीमारियों को पानी, मिट्टी, उपवास, सही आहार, आदि की प्रकृत चिकित्‍सा से दूर किया जा सकता है इस पर प्रयोग करते रहे। अकेले वह थे जिन्‍हें अंग्रेजों को हटाने से अधिक महिलाओं को पर्दे से बाहर लाने, अशिक्षितों को यहां तक कि प्रोढ़ों को भी शिक्षित करने की चिन्‍ता थी। जीविका के लिए कौशल सिखाने की चिन्‍ता था और उनके अपने श्रम से अपनी जीविका अर्जित करने के लिए कुटीर उद्योग और मुकदमेबाजी से बचाने के लिए ग्राम समाज और ग्राम पंचायतों के पनरुज्‍जीवित करने की चिन्‍ता थी। ऐसे अन्‍त- बाह्य एक व्‍यक्ति को जो अपना अहित करने वालों को भी घृणा नहीं करता था, तुम भले न समझ पाओं, जैसा पहले कह चुका हूं, आइंस्‍टाइन ही समझ सकते थे और कह सकते थे कि लोगों को विश्‍वास न होगा कि ऐसा कोई आदमी इस धरती पर कभी हुआ भी। यह सच है कि उसका अस्तित्‍व ही नहीं उसका नाम भी अपने हित के लिए अपने समाज, देश और इसकी संपदा का उपयोग करने वालों को कशाघात देता रहता है और उससे बचने के‍ लिए वे घ़णा को बवच के रूप में इस्‍तेमाल करते हैं। परन्‍तु आज कल इस घ़णा की एक ऐसी पाठशाला चल रही है जिसके पास धूर्तता और धन और शक्ति केन्द्रित है जिसका वह इसके लिए उपयोग कर रहा है।”
”यह बताओ, तुम चुप लगाने की क्‍या फीस लोगे।”
मुझे चुप तो लगाना ही था।

Post – 2016-07-02

अम्‍बेडकरवाद का मनोविश्‍लेषण

‘‘तुम जानते हो दलित गांधी से कितनी नफरत करते हैं !’’

‘‘नफरत का मनोविज्ञान जानते हो ?’’

‘‘नहीं जानता तो तुम समझा दो!’’

‘‘इसका कारण है तुम्हारा सड़ जाना! जिसने तुम्हारा लगातार उपकार किया हो या कम से कम कोई अपकार न किया हो, उसकी उदारता के दबाव में अपनी क्षुद्रता के बोध के कारण उसके प्रति कोई अक्षम्य अपकार कर बैठना, या उपकृत रहने की हीन भावना के कारण उूपर से सम्मान दिखाना पर मन ही मन अपमानित अनुभव करना और अपने ही अन्तःकरण के समझ अपराधी बन जाना!
”घृणा करने वाला अपने आप से घृणा करता है और डिफेंस मैकेनिज्म के चलते उसे इसका बोध हो इससे पहले वह उस पर इसका प्रक्षेपण कर देता है जिससे उपकृत रहा या अपनी तुलनात्मक लघुता का बोध अनुभव करता रहा । इसी का परिणाम हम अनेक मामलों में पाते हैं – जिस व्यक्ति ने किसी अनाथ को अपने पुत्र की तरह पाला, शिक्षित किया, उसे यदि इस बात की स्मृति बनी रहती है, या लालन पालन के दौरान किसी तरह यह भेद खुल जाता है कि वह अनाथ था, तो एक कुंठा भाव उसमें पैदा हो जाता है! अपने संरक्षक की दी हुई सुविधाओं का भोग करते हुए भी वह भीतर से खीझा रहता है, एेसे प्रस्‍ताव रखता है जिससे उसे कष्‍ट हो। तुमने ऐपल के अाचिष्‍कारक स्‍टीव जाब की आत्‍मकथा पढ़ी है? न पढ़ी है तो फिर ध्‍यान से पढ़ना और सोचना इतना प्रतिभाशाली व्‍यक्ति क्‍या ऐसा कर सकता था और फिर इस सचाई का सामना करना कि उसने ऐसा किया।

”कई बार पोषित अपने पोषक की हत्या तक कर देता है । यह इस कुठा से पैदा निष्ठुरता तो है, पर इसमें एक तत्‍व और मिल जाता है। उसकी संपत्ति को हड़प कर स्वयं स्वामी बन कर उससे उपकृत होने की हीनता से मुक्ति पाना। ऐसा उच्च शिक्षा प्राप्त पोष्यपुत्र भी कर बैठते हैं, इसलिए इसका ज्ञान और प्रतिभा से सीधा संबन्ध नहीं है, यह आवेग से जुड़ी समस्या है।’’

‘‘कहां का ज्ञान बघारते हो तुम? मैंने कई ऐसे बच्चे देखे हैं जो पोषितपुत्र रहे हैं और अपने अभिभावक पिता का पितृवत सम्मान करते रहे हैं।’’

‘‘कोई बीमारी महामारी का रूप ग्रहण करले तो भी शत प्रतिशत को नहीं होती। केवल उनको होती है जिनकी प्रतिरोध क्षमता क्षीण होती है। महत्वाकंक्षा, लोभ, यहां तक कि अपनी परनिर्भरता से मुक्ति की आकांक्षा भी इस मामले में प्रतिरोध क्षमता को कम करती है! अपने लिए सब कुछ या अधिकतम चाहने वालों को नैतिकता की चिन्ता नहीं होती।’’

”तुमको मेरी बात समझने में कुछ कठिनाई इसलिए होगी कि पहले में अपनी व्याख्या में एक निष्कर्ष निकाल चुका हूं और अब तुमको लगेगा मैं उसी को सही ठहराने के लिए मनोविज्ञान की सहायता ले रहा हूं। तुम्हें यह पता है कि मेरी बहुत पहले से मनोविज्ञान में रुचि रही है, परन्तु मैं उसका अधिकारी व्यक्ति तो नहीं हो सकता कि मेरे दावों को तुम स्वीकार कर लो, इसलिए मैं इंटरनेट से सुलभ निबन्धों और शोधकार्यों का अवलोकन करता रहा कि उसमें कुछ काम की सामग्री मिल जाय। मैं एक विश्लेषण के कतिपय सूत्रों को बिना अनुवाद किए तुम्हारे सामने पेश करना चाहूंगा। यह अध्ययन लगता है स्किनर्स को केन्द्र में रखते हुए घृणा के मनोविज्ञान को समझने के लिए किया गया था इसलिए यह घृणा पर आधारित किसी दूसरे आन्दोलन के चरित्र को समझने में सहायक हो सकता है।

Hate masks personal insecurities. Not all insecure people are haters, but all haters are insecure people. Hate elevates the hater above the hated. Haters cannot stop hating without exposing their personal insecurities. Haters can only stop hating when they face their insecurities.
Haters rarely hate alone. They feel compelled, almost driven, to entreat others to hate as they do. Peer validation bolsters a sense of self-worth and, at the same time, prevents introspection, which reveals personal insecurities. Individuals who are otherwise ineffective become empowered when they join groups, which also provide anonymity and diminished accountability.
Hate groups, especially skinhead groups, usually incorporate some form of self-sacrifice, which allows haters to willingly jeopardize their well-being for the greater good of the cause. Giving one’s life to a cause provides the ultimate sense of value and worth to life.
Hate is the glue that binds haters to one another and to a common cause. By verbally debasing the object of their hate, haters enhance their self-image, as well as their group status.
The life span of aggressive impulses increases with ideation. In other words, the more often a person thinks about aggression, the greater the chance for aggressive behavior to occur. Thus, after constant verbal denigration, haters progress to the next more acrimonious stage.
Each successive anger-provoking thought or action builds on residual adrenaline and triggers a more violent response than the one that originally initiated the sequence. Anger builds on anger.

पहले इस अंश को ध्यान से दो तीन बार पढ़ो और फिर तीन तथ्यों पर ध्यान दोः
1. यदि वर्णभेद या सामाजिक ऊँच-नीच का इतिहास बहुत लम्बा है तो इसके प्रतिरोध का इतिहास भी बहुत लंबा है। उदाहरण के लिए जिस ऋग्वेद में पुरुष सूक्त है, जिसमें वर्ण-विभाग का औचित्य गढ़ा गया है, उसी में सुजात, सजात और आपस में न कोई छोटा न बड़ा न मझला समझे जाने वाले गणों की प्रशंसा भी है जो इस विषय में सामाजिक कसमसाहट को प्रकट करती है। उपनिषदों का ब्रह्म और उसकी सर्वत्र व्याप्ति के तर्क से कौन किस जाति का है यह सोचा ही नहीं जा सकता !

”उपनिषदों के ही चरित्रों में सनक सनातन सनन्दन का चिर बाल रूप आता है जो काल की चिरन्तनता नित नवीनता और उसके भूत वर्तमान और भविष्य के रूप में पहचाने जाने का प्रतीक विधान है। इनके आगे विष्णु भी तुच्छ है और वह नारद भी जो निगुर्ण भक्ति के व्याख्याता हैं!

”उपनिषद का यह सन्देश कि जो सभी प्राणियों को अपने भीतर देखता और सभी प्राणियों में अपने को देखता है वह किसी से नफरत नहीं कर सकता, भारतीय मानस का अंग बन गया था, इसलिए सन्त आन्दोलन उन्हीं विचारों से प्रेरित है जिनका पुनराख्यान रामानन्द ने किया था। इसी प्रभाव में तुलसी को भी धर्मसंकट में कहना पड़ता है कि सियाराम मय सब जब जानी, करउं प्रणाम जोरि जुग पानी, जब कि वह वर्णवाद को और कर्मकांड का समर्थन करते हैं। ब्रह्मसमाज जिसने उपनिषदों से प्रेरणा ली थी, आर्य समाज जिसने वेदों के वर्णवदमुक्त समाज को आधार बना कर यह प्रचारित किया था कि जाति, वर्ण, कर्मकांड और दूसरी कुरीतियों – बाल विवाह, विधवा विवाह, मूर्तिपूजा, परदाप्रथा , स्त्री शिक्षा का निषेध – शामिल था। प्रार्थना सभा में वर्णवाद के लिए जगह नहीं थी। अम्बेडकर की नजर तो वेद तक जाती है, दूसरी सभ्यताओं में सामाजिक स्तरभेद की ओर जाती है परन्तु अंबेडकरवादी इतिहास में पेरियार और ज्योतिबा फूले से पीछे का इतिहास लुप्त है। यह ईसाई पहल में भारतीय समाज को तोड़ कर जो बेघर हो जाएं उन्‍हें अपनी झोली में भरने के लिए पैदा किए गए कुटिल द्रोह से आरंभ होता है जिसे सही विद्रोह भी नहीं कहा जा सकता।

हम कह सकते हैं कि उन प्राचीन अवस्थाओं से वर्णवाद के विरुद्ध अभियान जारी रहा तो यह बुराई बनी क्यों रह गई ?’’

” इसका उत्तर पुनः एक प्रश्न के रूप में ही सामने आता है कि इस दूसरे दौर की खलबलाहट के बाद भी यह बुराई खत्म क्यों नहीं हो रही ? और इसके बाद उत्तर इन दोनों के समाहार से तैयार होगा कि समस्या बहुत गहरी है! इसे बनाए रखने में उनकी भी सक्रिय या निष्क्रिय भूमिका रही है जो अपने को इससे प्रताडि़त अनुभव करते हैं। साथ ही कुछ मानव स्वभाव की सीमाएं हैं और जो सामाजिक स्तरभेद को मिटाना चाहता है उसे इसके इतिहास, इसके समाजशास्त्र और इसके मनोविज्ञान का गहराई से विवेचन करना होगा जिस दिशा में कोई प्रयत्न हुआ ही नहीं। निदान गायब, दवा चालू और दवा सही दवाई भी नहीं, कुछ दो कुछ दो और जल्दी दो की है!

अब इस पृष्ठभूमि में उक्त सूत्रों का विश्लेषण करो तो इन प्रश्‍नों का उत्तर तलाशने का प्रयत्न करो किः

1. अम्बेडकर का स्वयं अम्बेडकरवादियों से क्या संबंध है?
2. अंबेडकरवादियों का इतिहासबोध क्या है और वस्तुबोध क्या है ?
3. उनकी भाषा में गालियों और भर्त्‍सनाओं का अर्थ क्या है?
‘‘इसके बाद भी जो बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगी उनको कल समझने का प्रयत्न हम दोनों मिल कर करेंगे! मंजूर?’’

‘‘मंजूर!’’