Post – 2016-09-19

इस शोर के बाहर हो और भीतर भी तुम्‍हीं हो
हर ओर हो हर जिन्‍स के भीतर भी तुम्‍हीें हो
फितरत है तुम्‍हारी इसे सब जान चुके है
खोदी थी कब्र, कब्र के भीतर भी तुम्‍हीं हो।
जो गर्द है ऊपर उसे झाड़ो तो उठोगे
उस गर्द के बाहर भी और भीतर भी तुम्‍हीं हो।
मरने का पता है नहीं पर फैलने की चाह
हर इस सड़ांध गन्‍ध के भीतर भी तुम्‍ही हो।
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भगवान तुझे क्‍या हुआ तू खुद ही रो पड़ा
मैंने तो जमाने की शिकायत भी न की थी।
21.9.16 : 15:47gा

Post – 2016-09-19

To,
Director Horticulture
NDMC, East, Kadkad Duma
Delhi- 10032

Sub: Irresponsibility and mischief of the gardeners and sorry state of the park behind City Apartments, Vasundhara Enclave, Delhi.

Dear sir,
Ours is a very small park approximating 2 acres surrounded/approached by some eleven densely populated high-rise column societies, visited in addition by workforce and settlers of Dallupura and strangers with an element of nuisance. Earlier there was one gardener namely Balkishan who was handicapped by necessary tools and equippments, but yet the maintenance was not as hopeless as now as a result of posting of notorious hands as gardeners who either do not work or work contrary to the interests of the park.
There have been frequent burning of leaves piled under trees that scorched four trees in a go. We had requested for a compost pit to be dug at safe distance from the trees to check the frequency of such occurrence, which was heeded to, but the pit was dug at the same location. Any way the pit cannot collect the leaves if the same is thrown recklessly around the pit resulting into conflagration as witnessed recently, due to reckless passing smokers.
… We do not want any recurrence of the pile burning. We request that timely irrigation, weeding out, sweeping and cleaning, pruning and mowing be ensured. If things are not in your control there is yet time for you to reconsider the request for adoption of the park by elected body of the citizens as proposed initially by Dy. Commissioner, in his absolute wisdom after he was apprised of the specific nature of the problems with regard to this park, at the time of his personal visit some five years back, which was flouted by those who have other interests than proper maintenance of the parks. We want action.
Thanking you,
Representatives of the beneficiaries of the park

Copy to the Dy Commissioner, MCD, East, Delhi- 110032
15-9-2015

Post – 2016-09-19

दिल तो छोटा था, न इतना कि मुहल्‍ला न बसे
मारने वालों, जिलाने की फिकर वालों का
खोटी किस्मत थी, न इतनी कि तुम्‍हें पा न सकूं
दिल जले, जलता रहे, तुम पर मरने वालों का।
उम्र थोड़ी थी, न इतनी कि गिला कर न सकूं
जख्‍म गहरा था, अधिक कुछ है देने वालों का।
ऐ मेरे दोस्‍त तुम्‍हें पा के भी अपना न सका
था करिश्‍मा हमें बर्वाद करने वालों का ।
तुमने पूछा कि तुम्‍हें प्‍यार किया था कि नहीं
जवाब था न मेरे पास इन सवालों का।
चलो भगवान से लें राय, सही था क्‍या जवाब
‘जिन्‍दगी पर तो है अधिकार मरने वालों का।’

Post – 2016-09-18

कुछ और प्रयोग

समस्‍यायें होती नहीं हैं, पैदा होती रहती हैं

समस्‍यायें कभी पूरी तरह नहीं सुलझतीं। एक को सुलझाओ तो उसी से दूसरी प्रकट हो जाती है,या पैदा हो जाती हैं इसलिए कोई ऐसा सुखद दिन न आएगा जब हम उनसे मुक्‍त हो जायँ। प्रलय से पहले आदमी समस्‍या से निजात नहीं पा सकता । सो राेइये जार जार क्‍या कीजिए हाय हाय क्‍यों । वे भौतिक हों या सामाजिक, उनको सुलझाने में जुटे हुए लोगों को हाय हाय करने की न जरूरत होती है न फुरसत। उनके फैसलों में अपने हाय तौबा से बाधा पहुँचाने से अधिक सही है उनकी देशनिष्‍ठा, कार्यनिष्‍ठा और निर्णयशक्ति पर हमें भरोसा है। यह बात उन पर लागू नहीं होती जिनके लिए कभी प्रदीप ने कहा था, ‘संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से’ जिनकी राष्‍ट्रनिष्‍ठा सदा से सन्दिग्‍ध रही है, और इसे वे फासिज्‍म का पर्याय बता कर दूसरों के सद्विश्‍वास को भी कम करते रहे हैं। वे आज भी वही कर रहे हैं। कई बार समस्‍याओं का चरित्र दुहरा होता, आफत लगने वाली स्थिति भी प्रगति या नयी संभावना का संकेत बन कर आती है । आप जो काम सबसे अच्‍छी तरह कर सकते हैं वह ईमानदारी से करें, और दूसरों के एेसे काम का समर्थन करे, इसी का नाम राष्‍ट्रभक्ति है। अत:

प्रयोग-7
वे तोड़ते कुछ नहीं, बस टूट जाता है

राह चलने के शऊर की दूसरी परख भी किसी पार्क में ही हो सकती है, खास कर हमारे पार्क में जहां वाकवे से सटे फूलों के पौदे लगे हुए थे। लोग, खास करके नौजवान, चले आ रहे हैं, आपस में बात करते या अकेले दुकेले। उनका हाथ अपने आप बढ़ जाता है, वह एक दो पत्तियां तोड़ लेता है कुछ देर मसलता रहता फिर हाथ उुगलियॉं अलग हो जाती हैं, वह नीचे गिर जाता है और अगले पौधे के निकट पहुंचने तक खाली रहता है और फिर वही क्रिया। आप पूछें यह क्‍या करते हैं आप ? वह चौंक कर आपको देखने लगेगा, ”मैने क्‍या किया? मैंने तो कुछ किया ही नहीं ।”

वह सचमुच नहीं जानता कि उसने कुछ किया है, इस ओर उसका ध्‍यान ही नहीं था। आदत। रिफलेक्‍स ऐक्‍शन। अब उसे पीछे टूट कर गिरी हुई पत्‍ती को दिखाइये तो घबरा कर अपना सर पीट लेगा, ”अरे।” शर्म से कहेगा, ”अब आगे से ऐसा नहीं करूँगा। ” यह चलती राह कुछ न कुछ तोड़ते छेड़ते, इस विषय में सचेत हुए बिना कि वे किसी चीज को बर्वाद कर रहे हैं, बर्वाद करते हुए, चलने वालों की यह मात्र एक कोटि है जिसके कारण फूलों के फूलों और कलियों की जो गत होती थी वह तो आप देख ही चुके हैं परन्‍तु उनकी पत्तियों का जो हाल होता है वह उससे भी दर्दनाक होता उनके डंठल दीखते, पत्तियॉं आधी फटी या टूटी नहीं तो टहनी पर अपने होने का निशान छोड़ कर गायब । टहनियॉं टूटी हुई, लटकी हुई, सूखती हुई।

एक अलग कोटि उनकी जिनको पत्‍ते तोड़ना आकर्षक लगता था। इसका पता कुछ देर से चला। यह बच्‍चों के मामले मे होता, वे अड़हुल की पत्‍ती तोड़ कर हथेली पर रखते और दूसरे हाथ से उस पर मारते तो पटाखे जैसी आवाज होती ।

डांटने, समझाने, लज्जित करने और हल्‍के दंडित करने के कई तरीके अपनाने पड़े। एक सज्‍जन ने अपने घर में मेरा जिक्र किया तो उनकी पुत्रबधू ने जानना चाहा क्‍या वही जो किसी को पत्‍ती तक तोड़ने नहीं देते हैं। शायद यह कुछ के लिए यह मेरी पहचान बन गया था। दंड की बात यह कि पत्‍ती तोडने के बाद कोई लड़का सामने पड़ जाता या दीख जाता तो बुला लेता और कहता, जाओ, दो पत्तियो हमारे लिए भी तोड़ कर लाओ, मैं भी इसी तरह फेंकूंगा।

कई बार वे लौट भी पड़ते फिर समझ में बात आती तो हाथ जोड़ लेते, ‘आगे से नहीं करूंगा।’ उनमें कितनो को यह प्रतिज्ञा याद रहती यह तो नहीं कह सकता, परन्‍तु अब आपको उन पर पत्तियां साबित दिखाई देंगी। चोरी से एक पत्‍ती तोड़ कर पटाखा बजाने वाले इक्‍के दुक्‍के फिर भी मिल जाएंगे।

प्रयोग – 8
गालियॉं आत्‍मीयता प्रकट करती हैं

यदि कोई युवा बंगाली है और ”शाला” अर्थात् साला का प्रयोग विरामचिन्‍हों के रूप में नहीं करता तो उसको दूसरा कोई बंगाली मान भी ले पर बंगाली उसे बंगाली मानने को तैयार ही नहीं होते। जिसे वह इस संबंधसूचक से संबोधित करता है वह भी यदि इसका प्रयोग न हो तो उसकी आत्‍मीयता पर शक करने लगता है।

यह जो बहन की गाली है इसका तो इतिहास भी बहुत पुराना है, पूषा की तो ऋग्‍वेद में बहन का यार कह कर कई बार खिल्‍ली उड़ाई गई है – स्वसुर्याे जार उच्यते ; स्वसुर्जारः षृणोतु नः। प्रकृति का वर्णन करते हुए कवि क्रीड़ाभाव से कई बार ऐसी चुहल करते हैं। दिन के पीछे रात पड़ी है, दोनों एक ही कालदेव की सन्‍तानें यम और यमी हैं । रात दिन के साथ होने की बेताबी में लगातार उसका पीछा कर रही है, और यम कहता है, यह उचित नहीं है, पर आने वाले युगों में इसका भी लिहाज न रह जायेगा – आ घा ते गच्‍छन् उत्‍तरा युगानि यत्र जामय कृण्‍वन्‍नजामि ।

जहॉं इनसेस्‍ट की अवधारणाएं काम करती हैं वहां वर्जित संबंधों को ले कर संवेदनाएं अधिक प्रखर होती हैं। ऐसी गालियों का मनोविज्ञान यही है । किसी का भी इनसे मर्माहत होना स्‍वाभाविक है, परन्‍तु कुछ जनों या सभ्‍यता और शिक्षा से बंचित स्‍तरों पर इनका खुल कर प्रयोग होता है। गालियां देने वालों के बारे में हमारे मन में तिरस्‍कार भाव पैदा होता है इसलिए गालियां देने वाला अपनी आदत के कारण अनिवार्य रूप में अपमानित हाेता है, गाली जिसे दी जाती है उसे अक्‍सर पता भी नहीं चलता और उस पर असर भी नहीं पड़ता।

परन्‍तु अपने कथन को अधिक मार्मिक, अधिक वेधक बनाने के लिए भी
गालियों का प्रयोग किया जाता है, और शौर्य या समझ की कमी के लिए भी ऐसे पूर्वपद लगाए जाते हैं अश्‍लील होते हैं।

परन्‍तु कुछ समाजों या स्‍तरों पर भाषा इन गुप्‍त अंगों और क्रियाओं का प्रयोग विरामचिन्‍हों के रूप में अपना जीवट दिखाने के लिए धड़ल्‍ले के साथ किया जाता है। किसानी पृष्‍ठभूमि से आए गूजरों के साथ यही है। उनके ही बच्‍चे पार्क के एक ट्रैक से हो कर अपने स्‍कूल के लिए आते जाते थे और ऊंची आवाज में बातें करते और विरामचिन्‍हों का प्रयोग करते गुजरते । उनका जत्‍था होता। जिस लड़के के मुंह तेरी मां बहन वाली उक्ति निकली उसे एक दो सेकंड के बाद मैंने पास बुलाया। पूछा ‘क्‍या तुम लोग अपनी मां बहन के साथ यही करते हो जो अभी कह रहे थे। बारी बारी से तुम लोग आपस में यही करते हो और किसी को बुरा तक नहीं ?’

उसने कान पकड़ा, ‘आगे से नहीं।’

वह लौटा तो उसके साथियों ने पूछा क्‍या बात हुई तो सुन कर सभी सकपका गए । पर मुझसे दूर, गेट के पास पहुंच कर ऊंची आवाज में मुझे सुनाते हुए एक दूसरे को वही गालियॉं देने लगे। मैं निराश नहीं था। जानता था बात सही निशाने पर पहुंची है। यह अहंकार कि किसी के समझाने से हम मानने वाले नहीं, उन्‍हें यह दिखाने को प्रेरित कर रहा है, कि हम तो नहीं छोड़ते अपनी आदत। क्‍या कर लोगे।’ पर अगले दिन से गालियों में कमी आने लगी । मुझे देखते, मुंह में आई गाली झटके से रोक लेते। धीरे धीर उनकी यह आदत छूट गई। दुबारा याद भी दिलाना नहीं पड़ा।

प्रयोग – 9
समाधान समस्‍या का जनक है

अब तक हमारे यहां कुछ लोगों ने पार्क के रखरखाव के लिए एक कार्यकारिणी भी बना ली थी। उसके इतिहास में जाने का यह स्‍थान नहीं, परन्‍तु उनके सहयोग काउंसलर विनोद कुमार विनी की सक्रियता से ट्रैक पर टाइल लग गया था, बेचों के लिए चबूतरे बन गए थे और उनकी संख्‍या में भी वृद्धि हो गई थी।

इस बीच एक और विकास हो गया था। पार्क से दो सौ गज की दूरी पर अग्रसेन कालेज चालू हो गया था और उसके छात्रों छात्राओं में से कुछ को अपनी क्‍लास से अधिक आकर्षक यह पार्क लगने लगा था और उन्‍होंने इसमें अड्डा जमाना आरंभ कर दिया। उनके आगमन का समय टहलने वालों के बाद आरंभ होता और शाम की हवाखोरी से पहले समाप्‍त हो जाता इसलिए टहलने घूमने वालों को उनसे अधिक शिकायत नहीं थी। उनकी चंचलता भी सामान्‍य चंचलता के दायरे मे ही आती थी। उनमें दम लगाने वालों का भी एक दल था जो आ कर एक खास कोने में बैठते।

जाड़े के दिनों में मैं सामान्‍यत: स्‍माग से बचने के लिए नव बजे निकलता और यथानियम एक दो घंटे बिताता, इसलिए टहलते समय उस कोने पर पहुंच कर उनकी क्‍लास लेने खड़ा हो गया। हस्‍तक्षेप करते हुए मेरा हमेशा, अन्‍त:करण से यह भाव होता कि ये हमारे ही बच्‍चे हैं, या हम जैसे परिवारों के ही बच्‍चे हैं। मैंने बढ़ते हुए पोल्‍यूशन से भीतर पहुंचने वाली गैसों के कारण उत्‍पन्‍न परेशानियों के बीच ऊपर से इस लत से होने वाली समस्‍या, बाद में इस आदत को छोड़ना कितना कठिन हो सकता है यह अपने उदाहरण से समझाते हुए जिसका वे अभी अनुमान तक नहीं लगा सकते थे, दुखी मन से सिगरेट पीने से बरता और अनुरोध किया कि वे स्‍वयं भी इसे समझें, अपने दोस्‍तों में भी इस विषय में चेतना फैलाएँ अौर अन्‍त में यह याद दिलाया कि सार्वजनिक स्‍थान पर धूम्रपान तो दंडनीय अपराध भी है।

उनको सिगरेट बुझानी पड़ी, विश्‍वास दिलाना पड़ा कि आगे से ऐसा नहीं करेंगे । पर मैं जानता था आदतें न इतनी आसानी से जाती हैं, न नुकसान के डर से समझदार से समझदार आदमी ने कभी कोई शिक्षा ग्रहण की है। चर्चिल तो चेन स्‍मोकर था। एक बार किसी डाक्‍टर ने बताया कि एक सिगरेट या सिगार पीने के जिन्‍दगी कितने मिनट कम हो जाती है तो चर्चिल ने हिसाब लगा कर कहा, यदि ऐसा है तो मुझे पैदा होने से इतने दिन पहले ही मर जाना चाहिए था। आदत अक्‍ल पर भारी पड़ती है और कुलत तो उससे भी दूनी भारी पड़ती है।

परन्‍तु इस समझाने के बाद कहीं होई सिगरेट लिए घुसता दीखता या दूर से ही आभास हो जाता कि वहां बैठा काेई सिगरेट पी रहा था मैं उसे पार्क से बाहर निकल जाने को कहता। मेरा दोस्‍त साथ होता तो डर जाता । उतने मुस्‍तंड है, उनसे झगड़ा करोगे। मैं उत्तर न देता, जो करना होता वही करता। और एक बार भी न तो उन्‍होंने मुझे चुनौती दी कि वे तो पिएंगे, आप को जो करना हो कर लो, न निकाल जाने पर उलट कर जवाब दिया। केवल एक बार एक लड़का अड़ गया, वे दो तीन थे मैं अकेला, ‘मैं तो नहीं फेंकता।’

मेरा कठोर निर्णय था, ‘बाहर निकलो।’ उसने अकड़ में सिगरेट मुंह से लगाना चाहा। मैंने उसे उतने ही निर्णायक स्‍वर में डॉंटा, ‘ मेरी बात सुनो। यदि तुम नहीं निकलोगे तो मैं इस छड़ी से पहले तुम्‍हारा हाथ तोड़ दूंगा और उसके बाद छड़ी तुम्‍हें दे दूंगा, तुम मेरा सिर तोड़ देना, लेकिन सिगरेट लेकर भीतर तो नहीं घुस सकते।’ कुछ उसकी समझ में आया कुछ उसके दोस्‍तों के, वे उसे पकड़ कर बाहर निकल गये।

परन्‍तु उनकी आदत तो मैं नहीं ही छुड़वा सका। वे बैठते तो बातें तो राजनीति की या किसी दूसरे संगत विषय की करते रहते। मेरे पीठ पीछे होने चोरी से सिगरेट जला लेते और जहां देखते कि मैं उधर को आ रहा हूं वे सिगरे बुझा देते या छिपा देते । उधर से गुजरते हुए धुंए की गन्‍ध से पता चल जाता और फिर मुझे अपनी सांस की बीमारी के अनुभव के कारण आतर हो कर एक लेक्‍चर सुनाना पड़ता। ऐसा लगता है कि सिगरेट कंपनियां या तो जर्दे के साथ अफीम का या किसी दूसरे ड्रग का इतना हल्‍का पुट देने लगी हैं कि आसानी से पकड़ में न आएं और कोई कार्रवाई न हो, पर एक दो बार सिगरेट पीने के बाद अादत आसानी से नहीं छूटती। यह मैं इस आधार पर अनुमान से कह रहा हूं कि पिछले कुछ वर्षों में सिगरेट पीने वालों की संख्‍या में वृद्धि होने लगी है जब कि इस विषय में जागरूकता बढ़ने के साथ पिछले बीस तीस साल से इसमें गिरावट आ रही थी।

Post – 2016-09-17

राह चलने का शऊर
प्रयोग – 6

मुहावरा है ‘जिन्‍हें राह चलने का शऊर नहीं, वे भी …’

पर परख कर देखिए अपने देश में 95 प्रतिशत को राह चलने का शऊर नहीं है। यह हिसाब मैंने उस दूसरे पार्क में कुछ समय तक गिनती करने के बाद लगाया था जो उन दिनों हरा भरा हुआ करता था जिन दिनों अपना पार्क उजड़ा और उपेक्षित पड़ा था। टहलने के लिए कुछ समय उसी में जाता रहा। परन्‍तु उसके दो द्वारों के बीच केवल सौ फुट का ही अन्‍तर था जिसे ट्रैक पकड़ कर चलने पर दूरी बीस एक फुट बढ़ जाती थी। उतनी दूरी का श्रम बचाने के लिए लोग फेंस फलांग कर पार्क के लान को तिरछे काटते हुए चल देते जो उस हरियाली के बीच लोगों के चलने से एक चौड़ी पगडंडी में बदल गया था और ऑंखों को चुभता था। इसे रोकने के लिए एक बार उसे तार से रोकने का प्रबन्‍ध किसी ने किया पर वह अगले दिन नीचे पड़ा मिला। फिर एक लंबी पट्टी दोनों सिरों पर लगाई गई, कुछ उस तरह की जैसी लोगों की सज्‍जनता के भरोसे लगा दी जाती हैं, वे टूटी मिली। एक सज्‍जन ने, क्‍योंकि एमसीडी तो इस तरह की तत्‍परता दिखा ही नहीं सकता था, प्‍लास्टिक की जाली वाली बाड़ उस हिस्‍से पर लगा दिया। अब उसके दोनों सिरों से घूम कर प्रवेश और निकास जारी रहा । इस से उस निचाट लकीर की चौड़ाई और बढ़ गई । इतनी मामूली सी दूरी को कम करने के लिए 95 प्रतिशत लोग, इतना कुछ तोड़ने, गिराने और टेढ़े मेढ़े रास्‍ते निकालने के लिए तैयार थे, परन्‍तु ट्रैक से चलने को तैयार न थे।

इसके पीछे एक मामूली सा कारण था। यदि वहॉं भी हरी भरी घास होती तो फेंस का सम्‍मान करने हुए कम से कम 95 प्रतिशत ट्रैक से ही गुजरते, परन्‍तु किसी बुराई के लिए एक प्रतिशत ही काफी होता है, कई बार एक मच्‍छर तक। पांच प्रतिशत से तो महाव्‍याधि पैदा हो जाती है। उन पांच प्रतिशत आलसी लोगों ने समय और दूरी बचाने के लिए जो शार्टकट अपनाया तो निशान, गहरा होने और घासरहित होने के साथ प्रतिशत में वृ‍द्धि होती चली गई अौर इस तरह जो पॉंच प्रतिशत था वह 95 प्रतिशत में बदल गया। ये वे लोग थे जो सोचते, जब धूल मिट्टी ही है तो मेरे चलने से तो कोई नुकसान तो हाेगा नहीं। अब पहले का 95 प्रतिशत पॉंच प्रतिशत रह गया। इस आदत को बदलने के लिए माली ने अपनी आेर से कुछ प्रयत्‍न किए। पहले इस भाग को पानी से भर देता और रास्‍ता कुछ गहरा पहले से हो चुके होने के कारण कीचपथ में बदल जाता। इस बीच रास्‍ते से चलने वालों की संख्‍या कुछ बढ़ जाती फिर भी इतनी नहीं कि 95 प्रतिशत हो जाय। उन्‍होंने इस रास्‍ते के आगे पांच पाच चंपा के कुंज बना कर रास्‍ता अवरुद्ध करना चाहा पर दस पन्‍द्रह दिनों बाद उनका इतना निशान ही बच रहा कि पौधे इन्‍हीं थालों में पौधे लगाए गए थे। इसलिए पाया यह कि समाज के केवल पाँच प्रतिशत ही लोग ऐसे होते हैं जिनको सही रास्‍ते पर चलना पसन्‍द होता है, परन्‍तु इन पॉंच प्रतिशत में भी चलने की तमीज होती है यह तभी तक जब तक उनमें कोई पान न खाता हो।

एशियाई देश जिस बात के लिए जगद्विख्‍यात रहे हैं और आज भी हैं वह यह कि इन्‍हें थूकते रहने से इतना प्रेम है कि आप सावधानी से न चलें ताे आगे वाले के थूक की चपेट में आ सकते हैं। थूकने में आसानी हो इसके लिए वे पान खाते हैं जिससे अधिक से अधिक थूक का उत्‍पादन किया जा सके और पान की पीक घुल कर भीतर न चली जाए, इसलिए उसमें जर्दे का इस्‍तेमाल करते हैं कि थूकने का कर्तव्‍य पूरी तत्‍परता से निभा सकें। इसके बाद दीवारों पर सड़कों पर, यहां तक कि अस्‍पतालों और मन्दिरों तक में थूकने का अधिकार मिल जाता है। मध्‍यकाल में तो हैसियत का आदमी वह समझा जाता था जो थूकने का शौक पूरा करने के लिए उगलदान साथ लिए चलता था।

परन्‍तु जो बात मुझे सबसे असह्य लगती वह फिर 95 प्रतिशत की एक अलग श्रेणी का निर्माण करती। इसकी परीक्षा पार्कों में ही की जा सकती है जहॉं ट्रैक के निकट ही फूलों की कतारें लगी होतीं। फूलों के फूलों और कलियों की जो गत होती थी वह तो आप देख ही चुके हैं परन्‍तु उनकी पत्तियों का जो हाल होता है वह उससे भी दर्दनाक होता उनके डंठल दीखते, पत्तियॉं आधी फटी या टूटी नहीं तो टहनी पर अपने होने का निशान छोड़ कर गायब ।

अगले पार्क के अनुभवों का लाभ उठा कर मैंने अपने पार्क में हरियाली लौटने के बाद इस बात का पयत्‍न करना था कि वे बातें यहां न दुहराई जाऍं । परन्‍तु पहले आप यह तो समझ लें कि कुमार्ग बनते कैसे हैं, पत्तियॉं टूटती क्‍यों हैं। शार्ट कट अपनाने वालों की नजर रास्‍ते पर होती ही नहीं, वह लक्ष्‍य पर टिकी रहती है अर्थात् वह मंजिल जहां पहुंच कर आगे की मंजिल तय करनी है इसलिए उन्‍हें बीच का कुछ दिखाई ही नहीं देता। पांव अपने आप अपना रास्‍ता तैयार कर लेते हैं। हमारे पार्क में इसके खतरे अधिक थे। कारण प्रवेश और निकास के बीच की दूरी कम होने के कारण उसका एक छोटा सा हिस्‍सा उससे प्रभावित था। हमारे पार्क के मामले में यह पार्क की लंबाई के दोनों सिरों पर था जिसमें बीच का भी एक ट्रैक बना था और कई शार्टकट बनते थे। इसके लिए मैं बैठा होता और निकट से कोई राह छोड़ शार्टकट अपनाता तो उसे आवाज देकर बुला लेता । उसकी उम्र , भद्रता और लिंग का ध्यान रखते हुए कई तरह के जुमलों का सहारा लेना पड़ता जिनमें कुछ निम्न प्रकार हैं:
१. वयोवृद्ध सज्जन से:
क. क्षमा कीजिएगा । एक अनुरोध था । यदि हम बड़े बूढ़े ही सही राह न चलेंगे तो बच्चे तो गलत राह अपनाएंगे ही ।
ख . आप से एक छोटी सी मदद चाहिए । वह उन्मुख होते तो निवेदन करता, ‘हम इस कोशिश में हैं कि इस पार्क की हालत भी अगले पार्क जैसी न हो जाय। क्या इसमें आपका सहयोग मिलेगा ?
ग. बहन जी या भाइ साब, (आगे शब्द से काम न लेकर हँस कर हाथ से रास्ता दिदखाने से काम चल जाता।
२. नौजवाानों से:
क. इस उम्र में यह हाल, चार कदम अधिक चलना पड़ा तो बेहोश हो जाओग?
ख. आप मेरा एक काम करेंगे ? वह अनुरोध को ठुकरा कैसे सकता था । ‘आप कृपा करके इस रास्ते से उस । जगह जायँ जहाँ से आप ट्रैक से उतरे थेऔर िफर सही रासते से चल कर आगे जायँ ।’ इसका पालन करबद्ध क्षमायाचना और इस प्रतिज्ञा में होता कि आगे से ऐसा नहीं होगा।
३. कम उम्र के झुंड बना कर या अकेले दुकेलेलड़कों लड़कियों के मामले में: क. भेंड़ बकरियों की तक तरह चलते हो । आदमी की तरह चलना कब सीखोगे। पीछे जाओ रास्ते से आओ।
ख . रास्ते से चलना भी नहीं आता फिर पढ़ाई क्‍या करते होगे?
ग. चलो इधर। इधर से जाओ। रास्‍ता दिखाई नहीं देता।
ये कुछ नमूने हैं । वाक्‍य, भंगी, सब बदलता रहता और इस‍का पहला लक्ष्‍य होता सुनने वाले को अप्रत्‍याशित झटका लगे और वह बहस करने की जगह अनुपालन को तैयार हो जाय।
लोगों को यह जरूरी हस्‍तक्षेप भी लगता और लगता यह आदमी है क्‍या। न उम्र का खयाल न इज्‍जत बेइज्‍जत का । थकता भी नहीं। यह तो कोई नहीं कहता कि पागल तो नहीं हाे गया है क्‍योंकि बीच बीच में किसी न किसी प्रसंग में बात चीत का अवसर मिल ही जाता जिससे यह भ्रम दूर हो सके, परन्‍तु यह सोच कर कि किसी को क्‍या अधिकार है कि दूसरों को अपने अनुसार चलाए। किसी देश में किसी भी सभ्‍य समाज में किसी दूसरे के अटपटे व्‍यवहार पर चेहरे की भावभंगी से लोग अपनी असहमति या उपेक्षा भले प्रकट कर दें, सीधे कोई हस्‍तक्षेप नहीं करता न करना उचित माना जाता है। यह काम जरूरी होने पर पुलिस का है। परन्‍तु इस देश की विलक्षणता यह है कि आजादी का अर्थ हम काम न करने की आजादी या जो काम फायदे का हो उसे करने की आजादी समझते हैं इसलिए कोई अपना काम नहीं करता। लोग रिश्‍वत दे कर या बहुत बडी कीमत चुका कर योग्‍यताएं अर्जित करते हैं और नौकरी के बाद उसकी वसूली आरंभ कर देते हैं इसलिए चिकित्‍सा तक का व्‍यवसाय बूचड़खाने के करीब पहुंच गया है। निष्‍ठुरता में भी, भ्रष्‍टता में भी । जो अपवाद हैं वे देवतुल्‍य लगते हैं। ऐसे में नागरिक हस्‍तक्षेक की अपरिहार्यता बढ़ जाती है, परन्‍तु देश वही ठहरा इसलिए नागरिक भी समझते हैं, मुफ्त का सरदर्द क्‍यों लेना। कुछ लाभ हो तो धक्‍कामुक्‍की होने लगेगी। ऐसे देश और समाज को जहां जाना चाहिए वहीं जा रहा है। पता नहीं मोदी इसे कितना बदल पाएंगे। भींगा हुआ उपला यदि सुलग भी गया तो धुंआ देगा, आग की कल्‍पना करनी होगी।

परन्‍तु मैं एक प्रयोग कर रहा था। व्‍यावहारिक शिक्षा का जिसमें मेरे छात्र सभी उम्रों, लिेंगों, जातियों, भाषाओं, धर्मों और क्षेत्रों के लोग थे। यह एक ऐसा अनूठा विश्‍वविद्यालय था जिसके चरित्र को केवल मैं जानता था क्‍योंकि मैं इसका कुलपति, अध्‍यापक, चपरासी, चौकीदार सब था।

यह जानता था उन्‍हें मैं एक पहेली जैसा लगता रहा हाेऊंगा। एक साथ सभी योजनाओं पर काम करते हुए लोग हैरान होते कि यह थकता या ऊबता क्‍यों नहीं। विनोद में अपना मूल्‍यांकन स्‍वयं करते हुए बताता इस पार्क में मेरे सिवा एक मेरा सीनियर भी है, और उस पागल की याद दिलाता जो लगभग पूरे दिन पार्क में ही बिताता, खिन्‍न बैठा रहता। बेंच पर नहीं, चबूतरे के किनारे और फिर दंड बैठक लगाने लगता। उम्र कोई तीस की होगी। किसी को तंग नहीं करता। एक बार पुलिस वाले दूसरे असामाजिक तत्‍वों की तरह उसे भी भगाने लगे तो मैंने रोक दिया। कभी कभी ही वह हैल्‍युसिनेशन के दौर से गुजरता जिसमें किसी अदृश्‍य से बाते करता और कुछ भंगियां भी करता परन्‍तु कभी कोई ऐसा व्‍यवहार नहीं जिससे किसी को आपत्ति हो। एक बार मैंने उसको गाते सुना, कोई फिल्‍मी गीत गुनगनाते हुए चल रहा था। स्‍वर बहुत अच्‍छा था परन्‍तु पांच छह साल के बीच ही उसका वजन कुछ कम हो गया था, अौर बालों में सफेदी आने लगी थी। मैं बताता, मेरा सीनियर वह है मैं उसके अंडर काम करता हूँ तो सुनने वाला या किसी बात पर जिद करने वाला कंधा डाल देता। मेरा सुबह शाम मिला कर चार घंटे पार्क में ही बीतता। वहीं अखबार पढ़ना और कुछ लिखना पढ़ना भी परन्‍तु यह काम मुझे उतना ही जरूरी और महत्‍वपूर्ण लगता और इसमें उतना ही सर्जनात्‍मक आनन्‍द आता जैसा लिखने में।

परन्‍तु यदि ऊपर के विवरण से यह लगे कि केवल समझाने से ही पूरा काम हो गया तो यह भ्रम होगा। कुछ स्‍थलों को पहचान कर राह रोकने के लिए ट्रीगार्ड के साथ पौधे भी लगवाने पड़े । यह सन्‍तोष जरूर है कि उस तरह की पगडंडियां जिनका आभास मिलने लगा था नहीं बन पाईं न ही उन पौधों से छेडछाड हुई। चलने का शऊर कितनों को आया यह तो आज भी नहीं कह सकता। पार्क से गुजरते हुए उनका चाल चलन अवश्‍य सुधर गया। विरल अपवाद आज भी देखे जा सकते हैं परन्‍तु वह पहली बार पार्क में आने वालों के साथ ही देखने में आता है। वह तो रहेगा ही नहीं तो पार्क कैदखाने में बदल जाय।

Post – 2016-09-16

पत्रं पुष्‍पं फलं चैव यो उद्याने विलुंचति। तं अहं सर्वपेभ्‍यो मोक्षयिष्‍यामि मा शुच ।
प्रयोग – पांच

हमें जिस संस्‍कृति पर गर्व है उसका सारसूत्र यह है कि हम जिसे प्‍यार करते हैं उसे लोभ और मूढ़ता के कारण नष्‍ट कर देते हैं। यह नियम सार्वजनिक क्षेत्र में ही काम करता है। हमसे पहले यह किसी दूसरे के हाथ न लग जाय इस चिन्‍ता के कारण इस सद्कार्य में बहुत तेजी दिखानी होती है । यही कारण है जब तक फौजी पहरे का इन्‍तजाम न हो, नीम का कोई पौदा उग तो सकता है पर पेड़ बनने का सौभाग्‍य नहीं पा सकता। पार्को में फूल के पौदे लगे हो पर फूल नजर नहीं आगए तो समझिये यहॉं हिन्‍दू नहीं रहते, या रहते हैं तो संस्‍कृति-च्‍युत हो गए हैं।

पानी का प्रबन्‍ध कई उपायों से करना पड़ा। सोच में बदलाव से क्‍या नहीं होता। मैंने सोच लिया कि यह पार्क तो मेरी सहन जैसा है तो उस पर कुछ पैसा लगाना अपनी चीज पर लगाने जैसा लगता, पर ध्‍यान यह रखना होता कि यह किसी को कब्‍जा जमाने जैसा न लगे। जो पौधे सूखने के कगार पर थे उनको बचाने के लिए स्‍वयं पानी भर कर ले जाता। पार्क के गेट पर बैठने वाले गार्ड को एक बाल्‍टी पानी पांच रूपये के हिसाब से पर किसी को पता न चले कि मेरे कहने से ऐसा किया जा रहा है। और दूसरे भी उपाय किए जिनका उल्‍लेख आत्‍मरति होगा। फिर माली की नियुक्ति भी हो गई क्‍योंकि डीडीए से एमसीडी को हस्‍तान्‍तरण की प्रक्रिया इस बीच पूरी हो गई थी। पंप भी चल पड़ा।

पौधों में जान आई तो फूल के पौधे और फूल की झाडियों ने फूल कर दिखा दिया कि हम मरी नहीं थी

इस‍की सूचना किसी तरह हिन्‍दू देवताओं तक पहुँची तो उन्‍होंने पहले प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के लिए कृतसंकल्‍प राक्षसों का संहार करने की अपनी भूमिका की याद करते हुए पहले तो अवतार लेने की सोची
:
यदा यदा च पार्कस्‍य विकास: भवति भारत ।
फुल्‍लनं च प्रसूनानां तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम् ।।

फिर दुबारा सोचने पर उन्‍हें लगा, अवतार की झंझट में क्‍यों पड़ो। इतनी सारी मूरतें, इतने सारे मन्दिर, इतने सार भक्‍त। इनको जगा दो, उद्यान के सत्‍यानाश के लिए ये ही पर्याप्‍त हैं।

अब क्‍या था। इतना सारा सौन्‍दर्य अपने ठीक पड़ोस मे सहन न कर पाने के कारण लोगों के घरों में बैठे भगवान फूल मांगने लगे, फल मिले तो वह भी लाना और कुछ न मिले तो पत्तियॉं तक नोच लाना।

भक्‍तजन और जन‍नियॉं, उनकी सन्‍ततियां सभी पोलीथिन की पन्नियां और थैलियां ले कर इस इरादे से लेकर आने लगे कि पार्क को भले अपने छोटे से फ्लैट में रखने की जगह न हो पर फूल और खुशबू तो अट ही सकते हैं। बटवारा यह कि पार्क का भूभाग उसमें घूमने टहलने वालों का, और गंध भाग हमारा टहलने के समय को भजगोविन्‍दं भजगोविन्‍दं पर समर्पित करने वालों का।

मुझे फूल तोड़ने वालों से उससे अधिक चिढ़ है जितनी कुत्‍ता पालने वालों से । पुष्‍पलुंचक मुझे मानवता के भी शत्रु लगते हैं और सौन्‍दर्य, सुरुचि और नैतिक विवेक से भी वंचित ।

फूल देखते ही यह आकर्षण तो स्‍वाभाविक है कि उसे अधिक निकट से देखा जाय – ज्‍यों ज्‍याें निहारिए नेरे ह्वै नैन‍नि त्‍यों त्‍यों खरी निखरी सी निकाई – और इसकी गंध को अपने प्राणों में भर लिया जाय। अगर आप विश्‍वास कर सकें तो इस पर अज्ञेय जी की एक कविता भी है जो इस समय आधी याद और आधी याद से परे रह गई है। सौन्‍दर्य को आत्‍मसात् करना सत्‍य और आनन्‍द दोनों को आत्‍मसात् करने का पर्याय है। आ तू आ, मेरी अनगढ़ता को ढक ले और मेरे रूप को अपने योग ने निखार दे।

फूलों को आभरण बनाना और फिर टिकाऊ आनम्‍य धातुओं और फिर मूल्यवान और चमकदार धातुओं से फूल बना कर अपने को सजाया जाय यही तो अलंकरण का इतिहास है। काया को कांचन या रजत पुष्‍पगुच्‍छों से सजाते हुए पुष्पित वृक्ष में बदल कर इतराना इसी पर तो इतनी नाजुक इबारतें लिखी गई हैं कि साहित्‍य जिन्‍दगी की जरूरत बन जाता है। इस निकटता के साथ तो हमारी सौन्‍दर्यचेतना जुड़ी है।

परन्‍तु भगवान के नाम पर उस सौंदर्य का सत्‍यानाश करने वाले जिस तरह फूल तोड़ते है और जिस तरह उसे थैलों में भरते हैं उसमें सौन्‍दर्य चेतना का स्‍पर्श तक नहीं होता। केवल एक भाव प्रबल कि मुफ्त का है अधिक से अधिक नोच लो ।
फूल नोचे नहीं जाते, लोढ़े जाते हैं। लोढ़े से आपको सिलबट्टे की याद आएगी, पर सिलबट्टे को यह नाम इसके उस वर्तुल वेलनाकार के कारण मिला है। आशय है स्‍पर्शमात्र से या अल्‍पतम आयास से उसका अपने दंड भाग से अलग हो कर लुढ़कते हुए आपके हाथ में आ जाना। लढिया और लढ़ा इसी अल्‍पतम प्रयास से चक्रगति से आगे बढ़ने के कारण कही जाती है जौर जहां रलयोरभेद: की छूट मिलती है यह लढ़ा रेढ़ा और रेढू या रोलर बन जाता है।

अनायास, छूटे ही लुढ़क कर आपकी हथेली में आ गिरना पूर्णविकच फूलों के मामले में ही संभव है जिनका पुष्‍पदंड से संबंध कमजोर पड़ने लगा है। जो अपना जीवन लगभग पूरा कर चुके हैं। दंड से आने वाला दूध सूखने वाला है और यदि उन्‍हें लुढ़काया न जाय तो वे स्‍वत: अपने गंधभार सहित नीचे आ गिरेंगे। यदि इसका चयन किया जाय तो सर्वोत्‍तम। फूल का अवतरण कराया जाता है, उतारा जाता है, चयन किया जाता है, लोढ़ा जाता है, उसे तोड़ा या नोचा नहीं जाता । तोड़ना और नोचना क्रूरता है। इसलिए किसी को एक दो फूलों से अधिक उतार कर जेब में या थैले में भरते देख कर मुझे बेचैनी होती है। यह मेरे उसी स्‍वभाव का हिस्‍सा है जिसे मैंने आयासपूर्वक अपनाया नहीं, किसी अज्ञात प्रक्रिया से बन गया है।

पार्क के सौन्‍दर्य को नष्‍ट करने के इरादे से तड़के भोर से ही हमला करने वाले अपने काम पर जुट गए हैं। झोलियॉं थैलियॉं लिए पौधों को झुका झुका कर फूल तोड़ रहे हैं । महिलाऍं भी, बच्‍चे भी, कुछ वृद्ध भी। कुछ अपनी सोसायटियों के शिक्षित और देखने में सुसंस्‍कृत लोग और पार्क हमारा है इस अधिकार बोध से भरे हुए और कुछ सुना है उस पार्क में फूल बहुत हैं की शाेहरत सुन कर पास पड़ोस की बस्तियों के लोग जो इससे पहले इधर रुख नहीं करते थे। अजीब असमंजस की स्थिति ।

अपने को रोक नहीं पाता, ”यह क्‍या कर रहे हैं आप?”

”फूल तोड़ रहे हैं’, कहना चाहते, ऑख फूट गई है, देखते नहीं, लेकिन उम्र का खयाल करके कहते, ”देख तो रहे हैं, फिर पूछने का मतलब?”

”ये फूल पार्क की सुन्‍दरता के लिए लगाए गए हैं, इसे उजाड़ने वालों के लिए नही।”

”फूल तो होते ही तोड़ने के लिए हैं, नहीं तोड़ेंगे तो दो दिन बाद खुद ही झर जाऍंगे।”

जी में आता कहें, ”आपको किसी न किसी दिन मरना है, यह सोच कर उससे पहले आपका गला तो नहीं उतारा जा सकता, पर इसका अनुकूल असर तो पड़ता नहीं, झगड़े का शौक हो तो बात अलग। इसलिए चिन्तित स्‍वर में कहता, ”क्‍या करेंगे इतने फूलों का।”

”भगवान को चढ़ाने के लिए । पूजा के लिए ।”

चाहता समझाऊं कि यदि भगवान सचमुच है तो वह इतना मूर्ख नहीं हो सकता है कि कहे जिसे मैंने सिरजा है उसका सत्‍यानाश करके मेरे चरणों में अर्पित कर, परन्‍तु भावुक लोग दिमाग से कोरे होते हैं, कोई लाभ न होता, कहता, ”इन वृक्षों को ही भगवान मान लीजिए । हमारे यहां तो वृक्षों को सूर्य (नीम), वासुदेव (पीपल), शिव (वट) मानने की परंपरा है ही, इन फूलों को उन्‍हें अर्पित मान कर यहीं ध्‍यान लगाइये और मन्‍त्र पढ़ कर नमस्‍कार कीजिए। मैं तो यही करता हूँ।”

वे अनसुनी कर देते ।

”पूजा के लिए तो ध्‍यान और भक्तिभाव चाहिए फूलों की क्‍या जरूरत । और फिर इतने फूलों का क्‍या करेगे। श्रद्धा के लिए तो एक दो फूल ही काफी है।”

”बड़ेे नास्तिक हैं आप। लोगों की भावना तक को नहीं समझते।”

पार्क में पांच तरह फूल थे । एक चांदनी जिसमें गन्‍ध नहीं होती और जिस फूल में गन्‍ध न हो उसे देवता को नहीं चढ़ाया जाता, परन्‍तु इसको ही सबसे अधिक झेलना पड़ता। इसकी झाडि़यां फूलों से लद जातीं। पूरी पॉंत थी इनकी । एक डेढ़ घंटे के भीतर फूल गायब और टहनियॉं तुड़ी, मुडी, झुकी हुई ।

दूसरा कनेर इसके पौधे दस बारह ही थे पर इसकी टहनियों को उछल उछल कर पकड़ते हुए नीचे लाते और उछाल की पहुंच की टहनियों पर फूल तो रह नहीं जाते, टहनियां भी टूटी, ऐंठी मिलतीं।

तीसरा कटीली चंपा इसने जो सहा वह किसी दुश्‍मन को भी न सहना पड़े।

चौथा अड़़हुुुल इसके पौधों की परिक्रमा करते हुए इसकी कलियां तक उतार ली जाती। उस पार्क के इतिहास में कलियां तो अनगिनत दीखी होंगी पर फूल एक भी नहीं।

पांचवां हरंसिंगार जिसका एक ही पौधा था परन्‍तु उसके विषय में सबको पता है कि तोड़ने के लिए हाथ बढ़ाने की सोचें उससे पहले ही वह नीचे आ गिरता है, इसलिए उसे नीचे से ही चुना जा सकता है।

बेगुन बेलिया को तो कागजी फूल की नकल पर प्रकृति ने कांटे सजा कर बनाया था । कॉंटों के कारण कठिनाई होती पर उसे भी हाथ लगाने से बाज न आते।

यह केवल हमारे देश में होता है कि हम सार्वजनिक जगहों की ऐसी कोई चीज जो वहां से हटाई जा सकती हो, वह हमें पसन्‍द आ जाय तो हम उसे ले न मरे। जो ऐसा करना उचित नहीं समझते वे लोग इतने सभ्‍य हैं कि उनके सामने यह हो रहा है पर कुछ बोलते नहीं, ‘जाता है तो जाय, अपना क्‍या जाता है।’ रोकने वाले को बहुत नम्र उत्‍तर मिलेगा, ‘तुम रोकने वाले कौन होते हो, यह तुम्‍हारे बाप का है। जो चीज आपके बाप की नहीं हो सकती वह स्‍वयं सिद्धि से ही उसके बाप की हो जाती है।

यदि महाव्‍याधि हो तो आपको यह सोच कर घबराहट होती है कि किस मुर्दे को हाथ लगाऍं और किसे सड़ने दें। किसी विकार का बड़े पैमाने पर घटित होना अपना औचित्‍य स्‍वयं तलाश लेता है। समझ में नहीं आता करें क्‍या। यदि वे केवल अपनी पहुंच के भीतर के फूलों को तोड़ते तो उतनी तकलीफ न होती। वे अपनी पहुंच से बाहर के फूलों के लिए डालियों टहनियों को झुकाते और इस क्रम में उनके टूटने पर भी कोई मलाल नहीं, जल्‍दी जल्‍दी फूल तोड़ थैली के हवाले करते इससे पीड़ा होती।

चंपा की तो तो जैसा कहा, शामत थी। चंपा के दस पौधे परन्‍तु कोई ऐसा नहीं जिसका कई बार अंगभंग न हुआ हो और उसकी शक्‍ल न बिगड़ी हो।

पौधों की टहनियाँ झुकाने पर वे यदि टूटती नहीं भी थींं तो उनके झुकने से रास्‍ता भी रुकता जिसके लिए उन्‍हें काटना ही पड़ता।

इस समय तक दो तीन लोगों की रुचि भी पार्क के रख रखाव में हो गई थी और रोकने बरजने में उनका भी सहयोग मिलने लगा था। पर किसी के लिए एेसे प्रसून प्रेमियों को समझाना आसान नहीं था। फिर भी हमने अपना प्रयत्‍न आरंभ किया। उनमें से एक के पास पहुंचो तो उनका तर्क ‘आप दूसरे किसी को तो रोकते नहीं।’

”सबको एक साथ तो रोका नहीं जा सकता । आप भी चलिए, हम दोनों मिल कर उनको रोकते हैं।”

”मैं क्‍या रोकूंगा, मैं क्‍या आप की तरह नास्तिक हूँ। फूल तो होते ही पूजा के लिए हैं।”

”जिस चीज को आपने पैदा नहीं किया, जो सार्वजनिक है, जो पार्क की सुन्‍दरता और वातावरण को सुगन्धित बनाए रखने के लिए है, उसे इस तरह उतारना तो चोरी है।”

”भगवान तो खुद ही माखनचोर हैं।”

त‍र्क करने का असर नहीं पड़ता, उल्‍टे हठ बढ़ता । अब हमने कठोरता का रास्‍ता अपनाया। पर केवल उन मामलों में जिनमें फूलों से झोलियॉं भरने की सनक देखने में आती।” उनके पास जा कर खड़े हो जाते, उनको वितृष्‍णा से देखते और इस पर भी हा‍थ न रुकता तो, कठोर निर्णायक स्‍वर, ‘निकलो यहां से । भागो।’ उनके हाथ रुक जाते और वे खिसक लेते। मेरे पार्क में कहीं किसी कोने में रहते यदि किसी ने किसी फूल की डाल झुकाने की कोशिश की तो वहीं से ऊची आवाज में ‘छोडिए उसे। दूर। दूर हटो।’ ऊ़ॅची आवाज इसलिए जरूरी होती कि यदि वहॉं पहुंच कर रोकने बरजने का प्रयत्‍न करते तब तक डाल टूट चुकी होती।’ विरल अपवादों को छोड़ कर परिणाम आशा के अनुरूप होता, जहॉं नहीं होता वहॉं तेजी से चल कर वहां पहुँच जाता, और फटकार के साथ छोड़ो उसे, बेवकूफ । पूरे पार्क का सत्‍यानाश कर दिया।”

परन्‍तु यदि समझें कि हम पूरी तरह सफल हुए तो गलत होगा। माली को समझा कर उछाल की पहुँच में आने वाली डालियों टहनियों को कटवाना पड़ा और जो उछाल के भीतर थे उन पर कोई वश नहीं चला क्‍योंकि वे हमारे पार्क पहुंचने से पहले अंधेरे मुंह ही अपना काम कर जाते। फिर भी स्थिति सुधरी। सभी प्रयोग सफल नहीं होते। कुछ प्रश्‍न छोड़ जाते हैं । भावना से जुड़े सवालों का तार्किक समाधान हो तो सकता है पर यह आसान नहीं।

Post – 2016-09-15

न विश्‍वसेत अविश्‍वस्‍ते
अर्थात् कुत्‍तोंं की संगत में रहने वालों पर भरोसा न करें
प्रयोग – 4

उपेक्षित पड़े पार्क की केवल कुत्‍ता पालने वाले उपेक्षा नहीं करते। उनकी दिलचस्‍पी के कारण ऐसे छोटे पार्क का, जिसका एक पूरा चक्‍कर लगाने के लिए 450 डग ही काफी होते है, नजारा कुछ ऐसा हो जाता है जिसके रास्‍ते पर या तो कुत्‍ते आराम से चल सकते है या उनके मालिक जो कुत्‍ता प्‍लस आदमशक्‍ल प्राणी होते हैं। आप कुत्‍तों की भाषा नहीं जानते तो कुत्‍ता पालने वालों से बात नहीं कर सकते। कुत्‍तों की संगत में रहते रहते वे इन्‍सानों की भाषा भूल चुके होते हैं । कुत्‍तों की भाषा इस हद तक समझ लेते हैं कि यदि कुत्‍ता उनकी गोद में सर रख कर गर्दन ऊपर किए उनकी ऑंखों में ऑंखें डाल दे तो वे तुरत समझ जाते है यह गुदगुदी करने को कह रहा है और उसकी उंगलियॉं उसके गले पेट, पीठ पर बड़ी नजाकत से उसे स्पर्शसुख देते हुए घूमने लगती है और मात्र इस बोध से कि उसे स्‍पर्श सुख अनुभव हो रहा है ये स्‍वयं स्‍पर्शसुख अनुभव करने लगते हैं और यदि अपने परिवार के साथ बैठे हों तो पूरे परिवार को स्‍पर्शसुख की अनुभूति होने लगती है। आप यह नहीं समझ सकते कि कुत्‍ता हंसता भी है, वे समझते हैं, क्‍योंकि कुत्‍ते के दीनता में दॉंत चियारने और पुलकित भाव से हॅसने की सूक्ष्‍म भेदरेखा को वे लक्ष्‍य कर लेते हैं, दोनों अवस्‍थाओं में उनकी पुतलियों की धुंध और चमक में भी जाे अन्‍तर होता है, उसे वे जानते हैं। हम नहीं जान पाते। गरज कि कुत्‍तों की सोहबत में रहने के कारण कुत्‍ते की आत्‍मा उनमें प्रवेश कर जाती है, जिसे वह नहीं समझ सकता जो मनुष्‍य है और मनुष्‍यता से कोई पाशविक समझौता नहीं करना चाहता।

समस्‍या हमारी यह थी कि हम किससे बात करें, कुत्‍तों से या उनके मालिकों से। कुत्‍तों की भाषा जानते होते तो उन्‍हें समझा लेते। उनसे कहते अजीजों, तुम जो यह जान चुके हो कि यह तुम्‍हारे भी घूमने टहलने की जगह है और इस पर तुम्‍हारा भी हक है । उस पर हम कुछ नहीं कहते। जब तक तुम्‍हारे साथ एक आदमी है, तुम्‍हारा सोचना ठीक हो सकता है। आओ, पर घर से फारिग हो कर तो आया करो। या यह नहीं कर सकते तो तब तक जब्‍त तो रखो जब तक तुम्‍हारा मालिक थक कर बैठ नहीं जाता और उसके बैठेने के बाद उसकी गोद में बैठ कर तेरी तुझको सौंपता गाते हुए जो करने के इरादे से लाए गए थे वह कर दिया करो। मेरे आत्‍मविश्‍वास का स्‍तर पिछले अनुभवों से इतना बढ़ा हुआ था कि मुझे पूरा विश्‍वास था कि कुत्‍ते उसी तरह मेरी बात मान लेते जैसे वे बच्‍चे मेरे समझाने से मान गए थे, जब कि उनके अभिभावकों को समझाने में मैं नाकाम रहा था।

विवशता थी कि हमें उनसे बात करनी थी जो मनुष्‍यों की भाषा ही नहीं, कभी कभी कई भाषाऍं जानते थे परन्‍तु कुत्‍तो की सोहबत में स्‍वभाषा की जगह श्‍वभाषा में बात करना अधिक पसन्‍द करते थे। श्‍वभाषी संख्‍या में नगण्‍य होने के बाद भी पूरे स्‍वभाषी समाज को इस हद तक आतंकित कर चुके थे कि वह न उनके सामने आने का साहस नहीं कर सकता था।

यदि श्‍वभाषा के साथ स्‍वभाषा को भी चलने दिया जाय तो भी श्‍वभाषा के आतंक से स्‍वभाषा उठ ही न पाएगी, चलने की तो बात ही अलग। साे, यह देश्‍ा श्‍वभाषियों के नियन्‍त्रण में है, स्‍वभाषियों को उन्‍होंने इतनी ही रियायत दे रखी है कि साल में एक दिन स्‍वभाषा दिवस मना लो या अधिक से अधिक स्‍वभाषा पखवाड़ा जिसमें तुम श्‍वभाषियों को गालियॉं देने की छूट तो पा सकते हो, परन्‍तु उन दिनों पर भी पूरे तन्‍त्र को श्‍वभाषा ही सँभाले रहेगी।

श्‍वभाषा का सीधा संबंध हैसियत से है। जो कुत्‍ता पालते हैं, कुत्‍ता लेकर चलते हैं वे अपनी हैसियत कुत्‍ते से ही ऑंकते हैं, गरज कि किसका कुत्‍ता कितना दुर्लभ, कितना मँहगा है, और उसके रख रखाव पर कितना खर्च करना पड़ता है, उसकी सेवा के लिए कितने आदमी लगे हैं। इसलिए श्‍वभाषियों के बीच भी हैसियत का अन्‍तर बना रहता है, परन्‍तु जिसने कुत्‍ता पाला ही नहीं उसे वे अपने आगे इतना तुच्‍छ समझते हैं कि वह कुछ कहे तो वे सुनते तक नहीं, यह आभास देना तक अपनी तौहीन समझते हैं कि उसकी आवाज उनके कानों तक पहुँच गई है। इन्‍हें समझाने की समस्‍या आसान नहीं थी, परन्‍तु इस बार दो तीन लोगों ने इससे निबटने में सहयोग किया अत: उनके प्रवेश का आभास मिलते ही उनके सामने उपस्थित हो कर करबद्ध हो जाते। महानुभाव यह पार्क आदमियों के लिए है। उन्‍हें कुत्‍तों से डर लगता है। कुत्‍ते जाे कुछ कर गुजरते हैं उससे रास्‍ता चलना मुश्किल हो जाता है । वे समझाते, नहीं, यह काटेगा नहीं।

काटेगा तो नहीं लेकिन उनके डर को तो दूर नहीं करेगा। यहां पहुंच कर यह कुछ भी करेगा, वह पार्क के हित में तो नहीं ही होगा। धीरे धीरे उनकी भी समझ में आ गया परन्‍तु सबसे विलंब से समझ में आया उस सज्‍जन के जो सीबीआई में किसी पद पर थे और जिन्‍होंने जुड़वॉं कुत्‍ते पाल रखे थे । आश्‍चर्य यह कि उन पर भी एक वाक्‍य काम कर गया, ”यदि आप भी नियम कायदे का ध्‍यान नहीं रखेंगे तो अपने विभाग में आप क्‍या करते होंगे।”

इतनी बड़ी सफलता, पर सफल हुए क्‍या ! टहलने के लिए आने वाले एक दंपति ऐसे जो स्‍वभाव से खासे शालीन, किसी से बात भी नहीं करते, उनकी पत्‍नी उठतीं बाहर चली आतीं और आवारा कुत्‍तों को दूध पिलातीं। फिर उनके पूरे दल को इतनी पसन्‍द आने लगीं कि वे उनको घेरे हुए पार्क तक चले आते और यहां भी कुछ बिस्किट वगैरह मिल जाता। अब दूध पिलाने का काम भी यहीं होने लगा। जीवदया का यह प्रसंग संभवत: किसी मनौती से जुड़ा था परन्‍तु इसके बाद जो आवारा कुत्‍तों का प्रवेश हुआ तो वे तो समझाने पर मान गये और फिर बाहर जा कर ही उन्‍हें दूध बिस्‍कट देतीं, पर उनका अधिकार पूरे पार्क पर हो गया। उनको बाहर निकालने का कोई उपाय हमारे पास भी नहीं रह गया। गनीमत इन कुत्‍तों के साथ यही कि ये कभी रास्‍ते पर विसर्जन नहीं करते, इसके लिए उन्‍हें गन्‍दी जगह ही पसन्‍द है। रास्‍ते पर दौड़ भाग भी नहीं लगाते । किसी को इनसे डर भी नहीं लगता। इनकी संख्‍या में कमी तब आई जब हमारे फुटपाथ पर एक आदमी ने पर्दा लगा कर सामने लिखा ‘चाइनीज रेस्‍त्रॉं।” कुत्‍तों की संख्‍या घटने लगी और अब वे नहीं दिखाई देते। यदि आप भी इस समस्‍या से परेशान हैं तो अपने इलाके में चाइनीज रेस्‍त्रां लिखवा कर टॉंग दीजिए । इस नाम में ही कुछ ऐसी विशेषता है कि कुत्‍तों की संख्‍या कम हो जाती है ।

Post – 2016-09-13

आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी – प्रयोग 2

जिन लड़कों को दूसरे शैतान समझते थे, सोचते थे वे मारपीट कर देंगे, जो आपस में लड़ते और गाली गलौज करते रहते थे, उनके बारे में मेरा यह खयाल था कि ये बच्चे हैं जिनको सही परिवेश नहीं मिली, जिनका समुचित विकास नहीं हुआ है और समझ की कमी के कारण शैतानी करते हैं, परन्तु़ शैतान नहीं हैं। उनके डर से हमारी सोसायटियों के बच्‍चे मैदान में नहीं आते। यदि आते तो वे मारपीट कर, गाली दे कर भगा देते। बच्‍चे ही नहीं बड़े भी उनसे डरते थे यह तो हम देख ही चुके हैं। मुझे विश्‍वास था कि टइनको सही राह पर लाया जा सकता है। मैं उनके पास पहुंच नहीं सकता था। एक तो वे बिखरे हुए होते, दूसरे आप उनमें से जिसके पास पहुंचते वह बहस करने लगता और आप चल कर उसके पास पहुंचे थे, इसलिए आपका सिरा दबा हुआ होता।

मैं उनको आदेश के स्‍वर में आवाज देता, ”चलो इधर, इधर आआे। नहीं एक दो नहीं, सभी के सभी, उनको भी बुलाओ जो उधर ठिठके हुए हैं ।” वे चले आते।

मेरे पास आने के साथ ही उनके उस तनाव में कमी आ जाती जो उस दशा में होती जब मैं स्वयं उनके पास गया होता। मैं पूछता, तुम लोग पढ़े लिखे हो। मुसीबत यह कि उनमें आधे अनपढ़ या पढ़ना लिखना छोड़ चुके थे और दूसरे ऐसे जिनका पढ़ने में मन नहीं लगता। कुछ तेज भी निकलते। कम से कम बात चीत में तेज। अब एक दूसरी समस्या विभिन्न स्तरों, संस्कारों और योग्य़ताओं वाले बच्चों के साथ ऐसा संवाद जो इस बात का कुछ अनुमान करके आए हैं कि आप उनको बरजने वाले हैं इसलिए आधे अकड़े, आधे सिकुड़े और असरानी गणित से आधे सहमे हुए। वार्तालाप की एक कड़ी यह रही:

”तुम लोग जानते हो यहॉं लोग शान्ति से बैठने और थोड़ी ताजी हवा के लिए आते हैं और तुम लोगों के शाेर, धूल धक्‍कड़ से परेशान होते हैं, एक दो बार तुम्‍हारी गेंद भी लग चुकी है। उन्‍हें यह हुड़दंग पसन्‍द नहीं, फिर भी कोई बोलता नहीं।”

इसका क्‍या जवाब हो सकता था, उन्‍होंने सिर झुका लिए । एक दो यह कयास लगाते हुए देखने लगे कि यह भूमिका है किस बात की है।

”वे इसलिए नहीं बोलते हैं कि उनकी हिम्‍मत नहीं होती है। वे सोचते हैं तुम लोग गुंडे-बदमाश हो। मेरे साथ भी कोई आ कर तुमसे बात करने को तैयार नहीं। मैंने कहा, ये बच्‍चे उतने ही अच्‍छे हैं जितने आपके अपने बच्‍चे। और इसी विश्‍वास से मैं अकेले तुमको बुला कर बात कर रहा हूँ और जैसे गलती करने या शरारत करने पर अपने बच्‍चों को डॉंटता हूँ उसी तरह तुमको डॉंटने भी आया हूँ और रोकने भी। तुम यह खेल बंद करो।”

आप समझ सकते हैं इसकी क्‍या प्रतिक्रिया होती थी। उसमें सबसे अधिक घबराहट उन बच्‍चों को होती जो कुछ सयाने होते और दूसरों पर रोब दाब रखते थे।

”अंकल, बस थोड़ा सा खेल लें । बस पॉंच मिनट।” वे ही रिरियाते।

”नहीं, एक मिनट भी नहीं। अगर कोई चीज गलत है तो पॉंच मिनट भी क्‍यों। बिल्‍कुल बन्‍द ।”

आप मानेंगे विश्‍वास कायम रखना और विश्‍वास पैदा करना बल प्रयोग से अधिक कारगर हथियार है ? मानेंगे कि आनेस्‍टी इज द बेस्‍ट पालिसी मुहावरा केवल शब्‍दों का खेल नहीं है, अनुभव का निचोड़ है । परन्‍तु इस पालिसी का एक अगला मंत्र यह कि आप सब कुछ बक न दें । किन्‍हीं परिस्थितियों में दूसरा व्‍यक्ति अभी या देर से जो कुछ जान सकता, या अनुमान कर सकता या जिसका उसे तनिक भी सन्‍देह हो सकता है, उसे छिपाइये नहीं, स्‍वयं कह दीजिए । प्रथम दृष्टि में वह आपके लिए अहितकर प्रतीत हो तो भी। इसके बाद जो आत्‍मविश्‍वास का सेतु बनेगा उससे होने वाला लाभ इससे कई गुना होगा।

दूसरे, दूसरों की भलमनसाहत पर किताबी ढंग से मत सोचिए कि किसी को अच्‍छा समझेंगे तो दूसरा आपके साथ अच्‍छा ही व्‍यवहार करेगा। यह भोलापन आपको खतरे में डाल सकता है। लोग कितने अच्‍छे होते हैं और किन स्थितियों में अच्‍छे लोग बुरे हो जाते हैं, और कितनी चालाकी से एक दुष्‍ट आदमी अच्‍छे होने का फरेब रच सकता है यह जीवन के अनुभवों से हम सभी जानते हैं। जिस आधार पर दूसरे उन बच्‍चों को दुष्‍ट, झगड़ालू, जंगली समझ रहे थे वह उसके घरेलू परिवेश का हिस्‍सा था। उसी में वे पूरे सुकून के साथ रह सकते हैं। परन्‍तु परिवेश बदल दीजिए तो उनके आचरण में बदलाव अवश्‍यंभावी है। मेरी नजर में कोई समुदाय, कोई जाति, किसी धर्म के लोग जिनको सतही सूचनाओं, अफवाहों और अपने एक आध बार के बुरे अनुभवों के कारण हम भी दुष्‍ट मान लेते हैं, वे उतने ही अच्‍छे या बुरे होते हैं जितने वे जिनके बारे में हमारे खयाल बहुत अच्‍छे होते हैं। इसके पीछे किसी दार्शनिक का सूत्र नहीं, यह अनुभव है, कि यदि दो चार उपद्रवी तत्‍व हों तो पूरे इलाके का जीना हराम हो जाता है, यदि ये सारे लोग दुष्‍ट हों तो समाज एक पल भी चल नहीं सकता। चल रहा है यही इस बात का प्रमाण है कि हमारी पुरानी सोच में कहीं गड़बड़ है और इसी सोच का परिणाम था कि जहां वे दल बल के साथ, संख्‍या में अधिक होने पर भी जाने से डरते थे, वहाँ मैं अकेले उनकी सामूहिक ताकत के सामने खड़ा हो कर अपनी बात मनवा सकता था।

एक और मंत्र बता दूं। सबको एक साथ जुटा लेने के पीछे मेरी एक चाल भी थी। अकेला आदमी अधिक मीनमेख निकालता है, बहस करता है, भीड़ बन जाने के बाद उसमें पैसिविटी बढ़ जाती है। प्रत्‍येक इस प्रतीक्षा में रहता है कि कोई दूसरा कुछ कहेगा, फिर यह सोच कर चुप रह जाता है कि जब दूसरा कोई नहीं बोलता तो मैं ही क्‍यों बोलूँ। इसलिए यदि आपकी बात तर्क संगत लगती है तो वे सभी चुपचाप मान लेते हैं। परन्‍तु यदि आपसे तनिक भी चूक हुई और किसी में भी उत्‍तेजना पैदा हुई तो वही पैसिविटी उन्‍मत्‍त व्‍यवहार में बदल सकती है और यदि आप बल प्रयोग पर आमादा है तो अपना सिर फोड़वा कर ही वापस आएंगे जैसा कि इससे पहले हुआ था।

परन्‍तु मैंने जो यह विवरण दिया है वह विस्‍तार से बचने के लिए एक संक्षेप है ।इस समस्‍या का समाधान न उतना आसान था न ही किसी भी अन्‍य समस्‍या का समाधान उतना आसान होता जितना हमारे विवरण में आया है। फिर जिस जत्‍थे को समझा चुका खिलाडि़यों में केवल वही नहीं होता। एक ही नुस्‍खा हर बार काम नहीं करता। मेरे सामने जो निरुत्‍तर हो जाते वे मन से ऐसा मान ही नहीं लेते। मेरे आंख से ओझल होते ही वे फिर लौट आते और कई बार मुझे दुबारा आना पड़ता। बात केवल उन उजड्ड लड़कों तक सीमित न थी। उनके विदा होन के बाद जो उनके रहते खेल के लिए आने का साहस नहीं करते थे उनका शौक जाग जाता। वे पढ़ लिखे और जब तक सुशिक्षित भी होते ।

मैं कहता, तुम गलत काम कर रहे हो, यह खेलने की जगह नहीं है। वे बताते पार्क में नहीं खेलेंगे तो कहॉं खेलेंगे। मैं बताता, खेल का मैदान अमुक जगह है। यह पार्क है। खेल के मैदान में पेड़ पौधे नहीं होते जिस पर गेंद या शटल जा कर टंग जाय। बेंच या ऐसा कोई अवरोध नहीं होता जिससे भागते समय टक्कतर लगे। और फिर गाडी पार्क करने की जगह का हवाला दे कर समझाता कि यह ठहरने या बैठने की जगह होती है। उनसे ही पार्क का मतलब पूछता। वे उलझन में पड़ते तो बताता कि पार्क पर्च शब्द से निकला है। चिडि़या जब थक कर किसी डाल या झाड़ी पर आराम से बैठती है उसे पर्च कहते हैं। यह सिर्फ बैठने की जगह है, दौड़ लगाने, टहलने की जगह है, पर गेंद खेलने की जगह नहीं जिससे चलते फिरते लोगों को चोट लगे।

एक आध बार पुलिस की भी मदद लेनी पड़ी, पर वह भी बेकार। पुलिस को आते देख वे भाग खड़े होते, उसके चले जाने के बाद फिर इकट्ठा हो जाते। पर मैं अपने प्रयत्न में लगा रहा और वे मित्र जो इस हुडदंग से चिन्तित रहते थे, उन्हें अब भी मेरे साथ खड़े होने में संकोच होता। अब समस्‍या दूसरी थी। साथ खड़े होने का मतलब मेरा वर्चस्‍व स्‍वीकार करना। कुछ को वातावरण में इस सुधार से भी कुछ शिकायत बनी रहती, लगता सारा श्रेय इस आदमी को मिल रहा है, जब कि मुझे मिलने को एक ही चीज मिल सकती थी, उन बच्‍चों की बददुआएं और गालियां जिनको समझा बुझा कर भगा देता था या जो बाद में मेरे पार्क में पहुंचते ही बिना मेरे कहे ही खिसकने लगते थे।

लुका छिपी का यह खेल लंबे समय तक चलता रहा। जब तक इस पर रोक नहीं लगती तब तक खुली जगह को धूल धक्‍कड़ से बचाया नहीं जा सकता था । इसके लिए मुझ उसके बीच में एक वृत्‍ताकार घेरे में फाइकस के बारह पौधे लगवाने पड़े ।

Post – 2016-09-12

संचार भी हथियार है: समस्‍या की पहचान- 2

क्‍या हम हितबद्ध लोगों के अपने स्‍वार्थ के विरुद्ध खड़े हो कर उनको परास्‍त कर सकते हैं। यहॉं हम हितबद्धता के उन रूपों को छोड़ दें जिनको हम नैतिक मूल्‍यों या दृष्टिकोण की भिन्‍नता के कारण दूसरे को अपनी मान्‍यता का कायल बनाना चाहते हैं, जैसे आपकी लड़की या लड़के के आपकी मान्‍यता से भिन्‍न प्रेमप्रसंग के मामले में आता है। यहाँ दोनों के पास अपना तर्क और औचित्‍य होता है और इसमें जीत अक्‍सर नई पीढ़ी की होती है, और कुछ मामलों उसमें ‘समझ’ भी पैदा हो जाती है और वह ‘स‍ही’ रास्‍ते पर आ जाते हैं। यहाँ हम उस स्थिति की बात कर रहे हैं जिसमें एक व्‍यक्ति जानता तो है कि वह गलत कर रहा है, कम से कम ठीक तो नहीं ही कर रहा है, और इससे प्रभावित लोग खिन्‍न अनुभव कर रहे हैं फिर भी वह इसे तब तक छोड़ना नहीं चाहता जब तक इसके लिए बाध्‍य न कर दिया जाय। यह बाध्‍यता ऐसी हो जिससे वह भी सहमत हो जाए कि जो हुआ वह ठीक ही हुआ है और आगे उसकी भूमिका उसको विफल करने की न हो ।

यह विचार को नैतिक सहभागिता के स्‍तर पर पहुँचाने की समस्‍या है। मैं इसे जीवन में लगातार प्रयोग करता रहा हूँ और इसका इतना लाभ मिला है जो चालाकी करने वालों को भी नहीं मिलता। उदाहरण मैं इस पार्क का ले रहा हूँ परन्‍तु अकेले उन विकारों को दूर करने के साहस के पीछे मेरा पुराना अनुभव था। दूसरों को साथ खड़ा रखने के प्रयत्‍न के पीछे मेरी आकांक्षा इसे लोकतान्त्रिक बनाए रखने की थी, क्‍योंकि इससे सशक्‍त आज तक कोई दूसरा तन्‍त्र नहीं। इसकी बुनियाद ही नैतिकता, समानता, स्‍वतंत्रता और बन्‍धुत्‍व पर है। यह दूसरी बात है कि नैतिकता या औचित्‍य को फ्रांसीसी नारे में शामिल नहीं किया गया इसलिए हम इसे भूल जाया करते हैं।

हमारे सामने तीन हितबद्ध कोटियॉं थीं। वे बच्‍चे जिनको खेल से नहीं, ऊधम मचाते हुए अपना समय थ्रिल में गुजारना था। वास्‍तव में ये दल्‍लूपुरा के उन परिवारों के बच्‍चे नहीं थे जो यहॉं की जमीन पर अपना खयाली कब्‍जा छोड़ना नहीं चाहते थे। उनकी अलग समस्‍या थी और अलग से निपटायी जानी थी। ये लड़के सामान्‍यत: उन परिवारों के थे जो पढ़ाई लिखाई में रुचि न ले पाने, या शिक्षा के माध्‍यम के कारण यह सोच बैठे थे कि वे कुछ भी कर लें मुकाबले में ठहर नहीं सकते। उनका कोई भविष्‍य नहीं है इसलिए वे अपनी किशोर वय काे मौजमस्‍ती का एकमात्र दौर मान कर खेल में भी कोई भविष्‍य न देख कर, हुड़दंग मचाते है, परन्‍तु सभी दृष्टियों से लक्ष्‍यहीन हैं।

मुझे इनके विषय में दृढ़ता अपनाने के साथ एक नैितक अन्तर्द्वन्द्व से गुजरना पड़ा । ये हमारे ही दरबानो, ड्राइवरों, घरों में मदद करने वाली महिलाओं के बच्‍चे हैं, जिनके भविष्‍य को हमारी शिक्षाप्रणाली ने बन्‍द कर रखा है, जिनको उल्‍लास और आत्‍मविश्‍वास का कोई अवसर उनकी जिन्‍दगी देने वाली नहीं है, क्‍या हमें जिनके पास औचित्‍य के विरुद्ध बहुत कुछ है, इन्‍हें इस सुख से वंचित करने का अधिकार है ? स्‍वार्थ हो या दर्शन, मुझे ऐसे अवसरों पर बीए के समय से ही मेरे जीवनादर्श कांट और उनके सिद्धान्‍त याद आ जाते । गीता की इस उलझन का कि क्‍या करें क्‍या न करें इस पर समझदार लोग भी भ्रमित हो जाते हैं – किं कर्मं किं अकर्मेति कवय: अपि अत्र मोहिता: – इसके दो जवाब मुझे सुझते थे, कांट का कि जिस क्रिया को सर्वसुलभ न बनाया जा सके वह अनैतिक है। अर्थात् यदि इसी आर्थिक और सामाजिक स्‍तर के सभी बच्‍चे इसका लाभ नहीं उठा सकते तो इसका औचित्‍य नहीं। और इसका भारतीय पाठ ‘महाजना: येन गत: स पन्‍था’ महान लोगों या आदर्श लोगों के आचरण के अनुरूप हो तो इस का पालन किया जा सकता है। यह दोनों कसौटियों पर गलत सिद्ध हाेता था और हमारे लिए समस्‍या तो था ही इसलिए इससे निपटना था।

दूसरी समस्‍या कुत्‍ता पालकों से निपटने की थी। वे ट्रैक को चलने के योग्‍य रहने ही नहीं देते थे। पर वे अपने कुत्‍तों को घुमाने कहॉं ले जायँ ? समस्‍या उनको समझाने की थी कि पार्क कुत्‍तों के लिए नहीं आदमियों के लिए होते हैं। मानता मैं तब भी था कि सोहबत के असर से बचना आसान नहीं और जो कुत्‍ता पालते हैं उनपर कुत्‍तों के स्‍वभाव का असर होगा ही, इसलिए इनको समझाते समय कुत्‍तों से अधिक उनके व्‍यवहार से ही डर लगता था।

और तीसरी समस्‍या, पत्रं पुष्‍पं फलं तोयं यो मे भक्‍त्‍या प्रयच्‍छति से प्रेरित फूल के पौधों और झाडि़यों से ऑंचल भर ही नहीं टोकरी भर फूल उतारने के प्रयत्‍न में उनकी डालियॉं झुकाने अौर झुकाने के साथ उन्‍हें तोड़ देने वालो की थी। इनमें उत्‍साह महिलाओं का ही अधिक होता है और उन्‍हें समझाने के बारे में जो कहावतें है मैं उन्‍हें दुहराए बिना भी सही मानता हूँ और इसके लिए यदि महिला आयोग बुलाए तो उसके सामने अपने बयान देने के बाद, उसकी सन्‍तुष्टि न होने पर दंड झेलने को तैयार हूँ पर यह टिप्‍पणी वापस लेने के लिए तैयार नहीं। मणिका माहिनी के यह चीखने के बाद भी कि यह क्‍या कर दिया आपने, इसके लिए तो हम तैयार नहीं थे। यह लिंगभेद और वह भी आपके द्वारा जिन्‍हें हम नारी सरोकारों का समर्थक मानते आए थे। बालहठ राजहठ त्रियाहठ में समानता है, यह तो मुझे फूल की टोकरियॉं भरने के बाद भी टहनियों को झुकाने वाली महिलाओं और समझाने के दायरे से ऊपर पड़ने वाली महिलाओं के माध्‍यम से ही जाना।

इन सभी पर न तो एक तरीका काम कर सकता था न किया। क्‍या किया और कितना सफल हुआ यह कल बताएंगे।yy

Post – 2016-09-11

हम उसकी गली से भी परेशान ही निकले ।
उसने हमें जांचा तो हम इन्‍सान ही निकले।
ऐसों का यहॉ काम क्या जो सोचते भी हो
आदम की तरह खुल्‍द से हैरान ही निकले ।