Post – 2016-09-11

हम लौहे उफक पर यह सबक लिखते रहेंगे ।
कोई न पढ़े फिर भी सबक लिखते रहेंगे ।
समझें इसे गुरूर न, मजबूरियां समझें
कुछ और न सीखा है फकत लिखते रहेंगे ।।

Post – 2016-09-11

संचार काव्‍यशास्‍त्रीय समस्‍या नहीं है : एक प्रयोग

संचार की समस्या का एक पक्ष इस बात से जुड़ा है कि जो विमुख है उसे क्या उन्मुख बनाया जा सकता है? जो सुन कर भी नहीं सुन पाता उसकी मानसिक बधिरता को कम किया जा सकता है? जो जिस गर्हित स्तर पर है, और बोलचाल में अपने भदेसपन पर गर्व करता है उसे यह समझाया जा सकता है कि इससे तुम अपने का ही अपमानित कर रहे हो?

हम जिस समाज में रहते हैं उसमें ये सभी मनोवृत्तियाँ पाई जाती हैं। जो मेरा लिखा पढ़ते हैं और ‘लाइक’ करते हैं, हो सकता है, उसे पसन्द भी करते हों, और यह भी सोचते हों कि इससे मैं तुष्ट अनुभव करता हूँ। परन्‍तु फेसबुक की महिमा से हम जानते हैं कि गालियॉं देने और फूहड़ मजाक करने वालों को पसन्द करने वालों की संख्या मुझे पसन्द करने वालों से कहीं अधिक है। यह बोध नम्र बनाता है।

मैं प्रशंसा की चिन्‍ता न कर, अपमान झेल कर भी अपनी पहुँच के दायरे में आने वाले समाज को उस रास्तेे पर लाना चाहता हूँ जिसे वह भी सही मानता हैं पर लोग जिसके निर्वाह की चिन्ता नहीं करते।

मैं गलत चीज, गलत विचार, गलत व्यवहार के विरोध में इसलिए खड़ा होता हूँ कि इसके बिना मेरे जीने का कोई अर्थ नहीं, और इसमें अपमान झेलने के भी क्षण आते है जिनसे खीझ होती है पर अगले ही क्षण यह बोध भी पैदा होता है कि अपमानित करने वाला हार गया। आज अपने भीतर अपने को बदलने का साहस नहीं पैदा कर सका है, शायद किसी दूसरे के सुझाव पर बदलाव लाने को अपनी प्रतिष्‍ठा के विपरीत पा रहा हो, पर उसकी अभद्रता के बाद भी मेरी दृढ़ता से वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। खीझ का स्‍थान मुस्‍कराहट में तो नहीं, पर होठो की चमक में अवश्य बदल जाती है। और बाद में पाता परिणाम अनुमान के अनुरूप हुआ । जहॉं भी रहूँ यह ‘पंगेबाजी’ मुझे अपने जीवन का पर्याय प्रतीत होती है।

यह व्यवहार की समस्‍या नहीं, संचार को क्रिया में रूपान्‍तरित करने या उसकी संभावना पैदा करने की समस्‍या है। केवल साहित्‍य की या विचार की समस्‍या नहीं है इससे जुड़े बहुत सारे पहलू हैं । इसे एक प्रयोग से समझा जा सकता है।

मैंने आज से साढ़ आठ साल पहले वसुन्धरा एन्क्‍लेव के जिस फ्लैट को पसन्द किया उसके पीछे आकर्षण यह था कि मेरे फ्लैट के बिल्कुकल पास, इतने पास कि उसे अपना लान समझा जा सके, एक पार्क था। वह वीरान और उपेक्षित था। कुल दो एकड़ का पार्क और उसको घेरे छह बहुमंजिली सोसाटियों का घेरा, जिनके लिए वही सांस लेने की खुुली जगह, पर पेड़ अधमरे, हरियाली नदारद। मौसमी पेड़ पौदे सूखे हुए । मौसम भी पतझड़ का। सिंचाई का प्रबन्‍ध नहीं। उस पर डीडीए का बोर्ड जिस पर लिखा मिला दो माली और दो पहरेदारों का नाम। इस बीच उसको म्‍युनिस्‍पैलिटी को सौंपा जाना था इसलिए न कोई माली, न ही पहरेदार । पंप टूटा हुआ और लोग उदासीन । कुछ लोग उसका उपयोग कुत्ते घुमाने और जिन प्रयोजनों से वे कुत्ते घुमाने निकलते हैं उसके लिए करते थे। निकट के गॉंव, दल्‍लूपुरा, के एक डेढ़ दर्जन बच्चेे उसमें क्रिकेट खेलते और खेल का पूरा मजा लेने के लिए शोर मचाते और गालियों में बात करते। उस सूखे मैदान में उनके बल्ले और जमीन की टकराहट और दौड़ भाग के कारण धूल चारों ओर फैलती। सांस की बीमारी के कारण मेरी घुटन बढ़ जाती । जिस आकर्षण से चुनाव किया था उसका उल्टा असर। दो चार लोग जो खुली जगह में आ कर बैठ जाते थे, खीझे से रहते।

समस्‍या यह कि क्‍या इस स्थिति को झेला जाय या इसमें बदलाव लाया जाय। लोगों से बात की कि इस स्थिति में बदलाव लाना चाहिए तो उसे असंभव मान कर वे मुस्कराने लगे। कुछ लोगों को सुझाया कि यदि क्रिकेट को रोका जा सके तो डस्ट पोल्यूशन तो कम होगी। उन्होंने बताया, ये दल्लूंपुरा के लड़के हैं, रोकिएगा तो पूरा गांव पहुंच जाएगा। एक बार ऐसा किया था तो एक सज्जन का सर फूट गया था। दल्‍लूपुरा के निवासियों का मानना था कि सरकार ने यह जमीन उनसे ही ली थी। यहां उनके खेत हुआ करते थे। इसलिए इमारतें जिनके भी कब्‍जे में हों, बाकी जगह तो उनकी ही है।

मुझे यह समस्‍या जटिल ताे लगती थी परन्‍तु यहीं तो प्रयोग और प्रयत्‍न की कसौटी होती है । मैंने समझाया, इस बार सर मेरा फूटेगा, आपलोग केवल मेरे साथ खडे़ हो जायँ। तीन चार लोग ही सही। इससे उन्‍हें लगेगा कि हम सभी यह सोचते हैं। इतना जोखिम उठाने के लिए भी कोई तैयार नहीं। पत्‍थर चलेगा तो अकेले मेरा सिर तो फूटेगा नहीं। मुझे लगता पत्‍थर इसलिए चला होगा कि संचार स्‍थापित ही न हो सका होगा।

किताबों से नहीं, जिन्‍दगी से आरंभ होती है संचार की समस्या और जिन्‍दगी के लिए ही जरूरी है इसका स्‍थापित होता। यहीं से उसके अनुरूप शैली और युक्ति के आविष्कार की समस्या पैदा होती है। यहीं इसके वे पहलू सामने आते हैं जो संचार प्रणाली पर पोथे पढ़ने वालों की कल्‍पना तक में नहीं आते। इन पहलुओं पर हम अपने प्रयोग और परिणाम अगले खंड में देखेंगे । यहॉं पर समस्‍या का रूप यह कि लंबी, पुश्‍त दर पुश्‍त की जान पहचान वाले समुदायों में, चाहे वे पुराने शहरों के स्‍थायी निवासी हो या ग्रामीण समाज, संवाद कायम करना अधिक आसान होता है। नये विकसित नगरों, उनकी नई बस्तियों में यह कम होता है। महानगरों में यह अभाव अपने चरम पर होता है । अस्‍थायी संपर्क के दौरान जैसे यात्रा के दौरान यह सतही होता है। एक ही मत या विश्‍वास से जुड़े दूरस्‍थ लोगों के बीच यह अधिक प्रगाढ़ होता है, सुशिक्षित शहरी लोगों के बीच यह दिखावटी होता है और एक ही विभाग में काम करने वालों के बीच यह कार्यसाधक होता है। संचार भंग की स्थिति संदेह होने पर एक ही परिवार में, पति पत्‍नी तक के बीच दूरी पैदा हो सकती है या की जा सकती है । अत: संचार की पहली शर्त है पारस्‍परिक विश्‍वास, स्‍थायी जान पहचान, स्‍थायी हितबद्धता और बन्‍धुता या बराबरी का भाव । इसलिए राेबदार पद पर बैठा, या मौज मस्‍ती का जीवन जीने वाला व्‍यक्ति अपने समाज से सही संपर्क स्‍थापित कर ही नहीं सकता । हमारे साहित्‍य का अपने समाज से कटने का एक कारण साहित्यिक जगत का शैक्षिक व आर्थिक आभिजात्‍य है इसलिए वह लफ्फाजी कर सकता है, कलात्‍मक हथकंडे दिखा सकता है, नायाब अनुभूतियों को कलाग्राहकों के समक्ष पेश कर सकता है परन्‍तु जनसाधारण के अनुभवों से जुड़ नहीं सकता। मुझे ऐसा लगता है। क्‍या आप लोगों को भी ऐसा ही लगता ?

Post – 2016-09-10

रामसेवक श्रीवास्‍तव

न कुछ किया न करेंगे आगे । उठ कर चल देंगे बिन बताए हुए।

पंक्तियां तो मेरी हैं पर रामसेवक पर शायद मुझसे अधिक लागू होती हैं। रामसेवक श्रीवास्‍तव का जन्‍म सन् 1930 के संक्रान्ति के दिन हुआ था। दोनों जहां को छोड़ कर वापस जाने से पहले हमसे पहली तारीख, को मेरे क्रासिंग रिपवब्लिक के आवास पर आए तो हम लोग इस बात पर विचार कर रहे थे कि उन्‍हें घुटन भरे अपने प्रेस एन्‍क्‍लेव के आवास को छोड़ कर मेरे पड़ोस मे एक फ्लैट किराए पर ले लेना चाहिए और पुराना मकान जब तक बिकता नहीं है तब तक उसे किराए पर दे देना चाहिए। आर्थिक समस्‍याओं का भी समाधान हो जाएगा। विचार हो ही रहा था कि उस शख्‍स ने फैसला ही बदल दिया, घर छोडना ही पड़े ताे इस दुनिया में क्‍या रखा है। पांच दिन में इतने अलामात जुटा लिए और मैक्‍स में दाखिल हुए तो डाक्‍टरों ने दिन गिनने का समय दिया, जिन्‍दगी लौटाने का आश्‍वासन नहीं। 7 को उनकी दशा देखी तो केवल इस कामना के साथ आइसीयू से बाहर आया कि ऐ कालदेव इसे जल्‍द से जल्‍द दुखों से मुक्ति दे। नीलम सिंह से यह नहीं कह सकता था। आठ सितंबर को 10 बजे के आसपास फोन आया वह नहीं रहे। परिचय या समाधिलेख लिखना हो तो लिखा जाएगा:
रामसेवक श्रीवास्‍तव (जन्‍म 13 या 14 जनवरी 1930 : मृत्‍यु 8 सितंबर 2016) यह न लिखा जायेगा कि 86 साल 197 दिन उम्रखाते जमा।
यह न लिखा जाएगा कि उसके स्‍वभाव और व्‍यवहार में एक ऋजुता थी जिसके कारण वह संभ्रान्‍त समझे जाने वालों की कुटिलता को लक्ष्‍य कर सकता था और अपनी बिरादरी के विषय में भी आलोचनात्‍मक रुख अपना सकता था।
रामसेवक से मेरी प्रगाढ़ता तब बढ़ी थी जब मैं सातवीं या आठवीं में अपने उस किसान हाई स्‍कूल का छात्र था जहॉं के अध्‍यापकों में सभी मिडिल पास थे पर एक मात्र हाई स्‍कूल पास था उसका प्रधानाध्‍यापक। नहीं, यह सही नहीं है। बात इससे पहले की होनी चाहिए। कारण इस समय तक तो मेरे लिए भारती सदन पुस्‍तकालय का भंडार खुल गया था, जब कि जिस समय की बात कर रहा हूँ, मैं पाठ्य सामग्री के लिए आतुर कुछ भी पढ़ने के लिए ललकता था। मेरी बहन की एक सहली कुछ अमीर थी, वह पढ़ी लिखी थी। चिनगारी पत्रिका के कुछ अंक उसी से मिले थे। कुशवाहा कान्‍त की लेखन शैली, भाषा का मैं इतना कायल हो गया कि रामसेवक से जो तब बांसगांव में हाई स्‍कूल में पढ़ते थे, मिलने पर उसकी जो प्रशंसा की उसे पढ़ कर, उससे अभिभूत हो कर अपनी फाकामस्‍ती के बीच से वह मिर्जापुर जाने की जुगत निकाल ही बैठे, पर आज तो शहर का नाम भी गलत लगता है। वह जो भी रहा हो, वहां पहुंचने पर पता चला कि वह तो बनारस अमुक जगह पहुंचे हुए हैं। रामसेवक के वहॉं पहुंचने पर पता चला, वह आए तो थे पर लौट गए। रामसेवक वहां से फिर वापस लौटे और कुशवाहा कान्‍त को नोबेल मिलने से वह प्रसन्‍नता नहीं हो सकती थी जो एक बालक के उसकी लेखनशैली की प्रशंसा से हुई । उसने अपनी पुस्‍तकों का सेट और बहुत सारी आत्‍मीयता उस बालक को समर्पित कीं।

मैं व्‍यक्तियों और उनकी प्रतिभा की पहचान इसी से करता हूँ। क्‍या उसमें,‍ जिसे वह अपना समझता है, उसमें कुछ करने का जुनून है या नहीं। और यह वह बिन्‍दु था हमारी आत्‍मीयता का।

रामसेवक अच्‍छा लिखते थे। मूल प्रकृति कविता की थी। कविता के कारण ही नीलम से आत्‍मीयता हुई थी और लीजिए दोनों को मेरा ही घर पसंद था कि नीलम ने तय किया कि मैं अपने जीवन सहचर का निर्णय स्‍वयं करूँगी, दूसरा कोई नहीं, और यदि यह संभव नहीं तो उस बन्‍धन को ही तोड़ दूँगी और वह घर छोड़ कर दिल्‍ली पहुंच गई। नीलम में भी काफी आग थी, नारीवाद के नारे लगाने वालों को भी अपने योद्धाओं का पता नहीं। रामसेवक ने नीलम की कविताओं से प्रभावित हो कर कविता लिखना छोड़ दिया, बाकी रही पत्रकारिता। पर नीलम ने कविता लिखना क्‍यों छोड़ दिया यह मेरी समझ में आज तक नहीं आ सका या यदि आ सका तो यह कि उस कविता आन्‍दोलन में झाग था, सत्‍व न था और नीलम को कहीं इसका आभास हुआ होगा।

परन्‍तु मैं तो क्रम का ध्‍यान रख ही नहीं पाता। रामसेवक ने मिडिल स्‍कूल तो घर की रोटी से पास कर लिया, पर गॉंव में आगे का रास्‍ता बन्‍द था जो रोटी से नहीं, चांदी से खुलता था। उन्‍होंने मिडिल स्‍कूल के बाद आवारगी शुरू कर दी। तास खेलना, जुआ खेलना, जब कि घर में चूहे तक भागने का निर्णय ले चुके हो। और जिस जन्‍मदिन का उन्‍हें याद था उसी दिन घर में खाने को कुछ न था और जुए में उन्‍होंने इकन्‍नी जीती थी और उसी से खरीदे चावल और दाल से उस दिन पेट भर खाने को मिला था।

वे परिस्थियॉं मुझे मालूम नहीं जिनमें बांसगांव के एक नि:सन्‍तान वकील से उनका परिचय हुआ जो अपनी नि:सन्‍तानता की पूर्ति अपने भाइयों की कन्‍याओं, साधनहीन छात्रों को पुत्रवत पालन से करते थे: नाम जहां तक याद है, था, ब्रहमदेव श्रीवास्‍तव परन्‍तु उनके संरक्षण में पलने वाले बच्‍चे जाति सीमा से बाहर के भी होते थे।

उनके संरक्षण में ही रामसेवक ने हाई स्‍कूल पास किया पर आगे फिर साधनहीनता। संभवत: उन्‍हीं के संपर्कों से रामसेवक नये नये खुले आपूर्ति विभाग के सुपरवाइजर बन गए । इस बार उनसे दुबारा संपर्क हुआ। राशन का अनाज मिलता न था। बाहर का अनाज कई गुना मँहगा होता था, इसलिए जिन्‍हें राशन का अनाज बिना कालाबाजारी के मिल गया, वे भाग्‍यशाली थे। मैं रामसेवक से पूर्व परिचित होने के कारण सौभाग्‍यशाली था।

फिर वे आपूर्ति विभाग से हट गए और शिक्षा की तड़प को पूरा करने के लिए प्रयत्‍नशील हुए। इन कवायदों में उन्‍होंने जो वर्ष गँवाए उनके प्रताप से हम कालेज के स्‍तर पर सहपाठी हो गए और यह सिलसिला एम ए तक बना रहा।

बीए में हमारे श्रद्धेय अध्‍यापक राम अधार सिंह कहते रामसेवक की अंग्रेजी तुमसे अच्‍छी है। यह अन्‍त तक अच्‍छी रही। यह दूसरी बात है कि हम दोनों में किसी ने अंग्रेजी से एम ए करने का निर्णय नहीं किया। एम ए में हम साथ थे और आप आश्‍चर्य न मानें तो कहें, आठ अंक से हम दोनों प्रथम श्रेणी चूके थे। अंक भी बराबर।

हम दोनों ने साधनहीनता के कारण रेलवे में क्‍लर्की करते हुए एम ए किया था और हम दोनों से अधिक अंक किसी अन्‍य का न था।

मैं यह पता चलने पर कि गोरखपुर विश्‍वविद्यालय चाकरी करने वालों को शोध का अवसर नहीं देगा, नौकरी छोड़ कर भाग्‍य आजमाने कलकत्‍ता पहुंच गया और इस बीच रामसेवक जो इससे पहले एक साहित्यिक पत्रिका के कुछ अंक रचना नाम की पत्रिका के निकाल चुके थे, दैनिक जागरण के भोपाल संस्‍करण के संपादक हो कर चले गए और फिर जब दिनमान में पहुुँचे तो मैं दिल्‍ली में अपना ठिकाना बना चुका था। उसके बाद घर अलग और परिवार एक जैसा संबन्‍ध अंत तक बना रहा।
विदा होना तो पड़ता है
विदा कहना तो पड़ता है
न जाता है न जाएगा
उसे रखना भी पड़ता है।

Post – 2016-09-10

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संचार की समस्‍या और विचार का संकट

मुझे भी दूसरों की तरह यह सुन कर अच्‍छा लगता है कि लोगों को मेरा लिखा पसन्‍द आता है। उर्दू मुशायरों में तो जितना समय लोग शेर पढ़ने पर लगाते हैं उससे अधिक समय घूम घूम कर ‘आदाब, आदाब, आदाब कहने में लगाते हैं और तारीफ नहीं हुई तो ”गौर फरमाइये जनाब” कहते हुए अपने मानीखेज शेर को दो तीन बार पढ़ते हैं और तारीफ हो गई तो आदाब बजाने के बाद थोड़ी साँस ले कर वही शेर फिर पढते हैं। पर मेरी जरूरत इससे पूरी नहीं होती।

मैंने फेसबुक पर लिखने का यह फैसला हमारे बौद्धिक पर्यावरण में आई उस गिरावट से अपने को और अपने मित्रों को बाहर निकालने के लिए किया जो शोर तो मचाते हैं, पर कुछ कह नहीं पाते। जिस शोर की पहुँच शोर मचाने वालों तक है और वे ही एक दूसरे को दाद दे कर शोर को सरापा तक पहुँचा देते हैं और अपनी ही व्‍यर्थताबोध से बोलने और लिखने के क्षणों में भी अप्रासंगकि सा महसूस करते हैं।

जरूरी नहीं कि आप जिनको विचलन से बचाना चाहते हैं वे आपकी बात सुनें या कि यह मानें कि वे विचलित है और आप सही रास्‍ते पर हैं। आपकी बात न मानने का एक कारण यह भी है कि शिक्षा देने वाला या सुधार करने वाला जिनको सिखाना या सुधारना चाहता है वहां उसके इस भूमिका में आने के साथ ही यह प्रयास श्रेष्‍ठता और कनिष्‍ठता का भाव जुड़ जाता है। सुधारने वाला यह कहे बिना भी सिद्ध करता है कि वह सही है, दूसरे गलत। गलत लोग अपनी गलती छोड़ कर उसके बराबर हो सकते हैं। इससे आत्‍मरक्षा का एक तन्‍त्र गलत मान लिए गए लोगों में, इस विषय में सचेत हुए बिना भी खड़ा हो जाता है जिसमें वह आपको पूरा सुनने से पहले, आपका इरादा भॉंप कर ही आपका विरोध करने लगता है या अपने कान बन्‍द कर लेता है। जहॉं चुप रह जाना पड़ता है वहॉं भी उस अवसर की तलाश करता रहता है जब आप से कोई बड़ी चूक हो और वह आपको नंगा कर दे। जिन बुराइयों के सभी कायल हैं, जिससे वे स्‍वयं भी बचना चाहते हैं, परन्‍तु आदत गुलामी का दूसरा नाम है सो उससे बच नहीं पाते, जैसे शराबनोशी, उसे भी छोड़ने की सलाह देने वालों को शराबियो से गालियां और फब्तियाँ ही सुननी पड़ती हैं। सुधारकों के बीच फूट और अपराधियों के बीच एक दूसरे के लिए जान देने तक की तैयारी से भी यह समझा जा सकता है कि बुराई का डंका बजाने वालों के बीच इतनी एक जुटता होती है क्‍यों होती है। कारण वे जानते हैं अकेले वे अपना बचाव नहीं कर सकते। संघबद्ध हो कर ही बचाव कर सकते हैं। अपने संगठन के बल पर अपनी हर‍कतें भी जारी रख सकते है और अपने आलोचकों को ही अपराधी सिद्ध कर सकते हैं।

हम अपने भाव या विचार दूसरों तक पहुँचाने के लिए बोलते या लिखते हैं। यदि संचार ही बाधित हो जाय तो यह लेखक, वक्‍ता, कलाकार सभी के इस गर्व को चूर करने के लिए पर्याप्‍त है कि वे बड़े लेखक हैं। वे उस काम की सफलता से ही बड़े हो सकते हैं जिसे वे कर रहे हैं, और उसकी व्‍यर्थता से ही वे कहीं के नहीं रह जाते। हमारे बुद्धिजीवियों, कवियों और कलाकारों को इस बात का प्रखर बोध है कि वे अपने ही समाज से कटे हुए हैं। उनका अपना ही समाज उनसे अलग थलग पड़ गया है। भतृहरि ने कहा था, जो लोग साहित्‍य, संगीत और कला से रहित हैं वे बिना सींग और पूँछ वाले पशु हैं। हमारे बुद्धिजीवी स्‍वयं अपनी कला और साहित्‍य से कट गए हैं। उसकी परंपरा से कट ही नहीं गए हैं, वह उन्‍हें व्‍यर्थ लगती है। वे कलाबाजी में कमाल रखने वाले एक तरह के पशु बन गए हैं तो उनका समाज साहित्‍य, संगीत, और कला से वचित हो कर एक दूसरी तरह के पशुओं के झुंड में बदलता गया है। भर्तृहरि को सही सिद्ध करने के लिए अपराध आज का सबसे बड़ा मनोरंजन, सबसे बड़ा समाचार और सबसे बड़ा कारोबार बनता चला गया है।

हमारे आलोचकों में यदि थोड़ी भी समझ होती तो वे पहले इस समस्‍या से जूझते कि ऐसा हुआ क्‍यों और हम अपने ही समाज से वैचारिक, साहित्यिक और कलात्‍मक संवाद कैसे स्‍थापित कर सकते हैं। इसलिए मैं उन्‍हें उन पशुओं में रखने को बाध्‍य अनुभव करता हूँ जिनकी पूछ भी है और इसलिए पूँछ भी है, गो है बकरी जैसी छोटी क्‍याेंकि यह पूछ सताज से कटे हुए उस मंडली तक ही है। सींग तो मुर्रा भेड़े को भी मात देती हुई पूरी शान से निकली और घूम कर अपने ही माथे में गड़ती हुई । इसलिए इस समस्‍या के चरित्र को समझने में भी वे असमर्थ है, इसको समझने की तैयारी तो उनसे हो नहीं सकती। पचास साल तक वे सभी चीजों का मूल्‍यांकन इस कसौटी पर करते रहे कि इसमें मार्क्‍सवाद है या नहीं और है तो कितने परसेंट। अब लगता है पैमाइश बदल गई है और देखा यह जा रहा है कि इसमें कहीं हिन्‍दू तो नहीं घुस आया है, यदि है तो कितने परसेंट। यह देखने वाला कोई नहीं कि इसमे जिन्‍दगी और समाज कितने परसेंट है और उसमें अपने समाज तक पहुँचने की क्षमता कितने परसेंट बची रह गई है और इस स्थिति से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है।

जब मैं कहता हूँ कि मुझे दाद से सन्‍तोष नहीं है, मैं जानना चाहता हूँ भाषा और संचार की इस समस्‍या को दूर करने में मेरे मित्र अपनी भाषा और अभिव्‍यक्ति में सुधार करते हुए इसे कितनी सार्वजनिक बना सकते हैं कि लोग सुनें भी, समझें भी, बदलें भी । आप में से कोई ऐसा नाकारा नहीं जो जैसा वह सोचता और लिखता है उससे अच्‍छा सोच और लिख न सके और इसे अपनी प्रतिक्रियाओं में भी प्रमाणित न कर सके। प्रतिभा लोक से आती है, परलोक से नहीं। साधारण लोगों की समझ और अभिव्‍यक्ति में निखार आता है तो अधिक संवेदनशील और सक्षम लोग उसे निखार देते हुए वह संवादी साहित्‍य और कला रच पाते हैं जिसके अभाव में हम अपनी अतीत का गौरवगान करने वाले एक उजड्ड समाज के बदल गए हैं।

Post – 2016-09-10

[मैंने कल की पोस्‍ट में जिस बचपन की वापसी का जिक्र किया उसका अर्थ यह कि इस तिथि से आगे मैं अपनी पोस्‍ट छोटी टिप्‍पणियों के साथ उन विषयों को अलग रखते हुए करूँगा, जो एक दूसरे से जुड़े होने के कारण जरूरी भी लगते हैं, फेसबुक की सीमाओं में कुछ थकान भी पैदा करते हैं। सभी टिप्‍पणियों के शीर्षक ऊपर होंगे, जिसे जिसमें अधिक रुचि हो उसे पढ़ सकता है और बाकी से बच सकता है। मेरे दो आत्‍मीय मित्र कमलेश और रामसेवक इस वर्ष चले गए। कमलेश के विषय में इतना भी नहीं लिख सका। शैली में यह परिवर्तन उनके प्रति मेरी श्रद्धांजलि बने । हॉं मैं अपना दैनिक कोटा पूरा करूँगा, इसलिए टिप्‍पणियॉं पहले अलग अलग आऍेगी, एकाधिक होंगी, पर जरूरी नहीं कि आप सभी को पढ़े । अगले दिन ये उस तिथि के खाते में एक साथ संकलित हाेंगी। कोशिश करूँगा भाषा सरल हो सके। सबसे पहले यही समस्‍या:]

विचार और भाषा

विचार की स्‍पष्‍टता, भाषा की सरलता में व्‍यक्‍त होती है। बोझिल और उलझे हुए प्रयोग नहीं आते। वाक्‍य सरल होते हैं। वाक्‍यरचना संयुक्‍त वाक्‍यों का रूप ले भी ले, जटिल या गु‍ंफित वाक्‍यों से बचा जाता है। परन्‍तु यह विचार और भाषा की सिद्धावस्‍था है और इस सरल को भी सभी ग्रहण नहीं कर सकते। यदि आप के मन में किसी व्‍यक्ति या विषय के प्रति पहले से अरुचि बनी हुई है तो आप के सामने बैठा वह बोल रहा हो तो भी आप उसे सुन तक नहीं पाते। उसके कथन और उपस्थिति के बीच ही एक शून्‍य पैदा हो जाता है जिसमें आप गुम हो जाते हैं । इसलिए विचार को ग्रहण करने में भाषा से अधिक बड़ी भूमिका उन्‍मुखता या विमुखता की, राग या विराग की होती है।

दूसरे सिद्ध से सिद्ध व्‍यक्ति भाषा को इतनी सरल नहीं बना सकता कि वह सभी श्रोताओं या पाठकों की समझ में आ जाए। ऐसा केवल नितांत प्राथमिक विचारों के साथ ही संभव है, पर वह भी उस भाषा के जानने वालों की सीमा में ही संभव हो सकता है। अत: किसी विचार को ग्रहण करने के लिए एक अल्‍पतम तैयारी या उस विषय या वस्‍तु की जानकारी जरूरी है। नये विचार के लिए वह खेत का काम करता है जिसमें ही नये विचार को बिखेरा और अंकुरित और विकसित किया जा सकता है।

और अन्‍तत: भाषा के ज्ञान का स्‍तर या शब्‍दभंडार और कथनभंगी की सरलता या दूरूरहता का प्रश्‍न आता है।

परन्‍तु ये सभी बातें स्थिर विचारों के मामले में ही सही हैं। विकासशील विचार जो चिन्‍तन प्रक्रिया से जुडा है जिसका अगला चरण वक्‍ता या लेखक तक को पता नहीं, उसमें यह स्थिरता नहीं हो सकती। बोलते या लिखते समय हमारा कहा वाक्‍य हमें निर्देशित करता हुआ, जो कुछ तय करके बोलने या लिखने चले थे उससे कहीं और, कई बार तों ठीक उल्‍टे निष्‍कर्ष पर पहुँचा देता है। हम स्‍वयं ही नहीं सोचते, हमारा सोचा हुआ अपनी तर्कशृंखला से हमसे अलग भी सोचता है। हम उसे जितना नियन्त्रित करते हैं उससे अधिक वह हमें नियन्त्रित करता है इसलिए सफल और धाराप्रवाह बोलने वाले जो अपने पूर्व‍निश्चित विचार को निर्द्वन्‍द्व भाव से व्‍यक्‍त कर लेते हैं वे अपने विचारों को इतना अधिक नियन्त्रित कर लेते हैं कि उनमें जान नहीं रह जाती और आप उन्‍हें सुनते हुए उनके वक्‍तव्‍य कौशल पर मुग्‍ध भले हो जायं, उसके बाद जब यह हिसाब लगाते हैं कि उससे आपको क्‍या मिला तो पाते हैं कि आपका जाना हुआ या माना हुआ ही लौट कर आपके पास आया। एक नये तेवर के साथ। आशुवक्‍ता आशुजीवी होता है।

पल्‍लवित विचार तेजी से बढ़ती और अपने लिए रास्‍ता बनाती, सहारा तलाशती लता जैसा होता है जिसमें ताड़वृक्ष जैसा सीधापन संभव ही नहीं इसलिए जो हमारी अपेक्षाओं के अनुरूप या हमारी तैयारी की सीमा में नहीं आता, उसे ग्रहण करने के लिए पाठक या श्रोता को स्‍वयं भी संघर्ष करना होता है।

यदि लेखक अौर वक्‍ता लेखन की आदर्श अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं कर पाता तो पाठक या श्रोता ग्रहणशीलता की अपेक्षाओं की भी पूर्ति शायद ही कभी कर पाता हो। इस लिए कोई कथन, विचार, कृति या प्रस्‍तुति हमारे दत्‍तचित्‍त रहने के बाद भी पूरी तरह समझ में नहीं आती। सरल से सरल प्रतीत होने वाली अभिव्‍यक्ति की अपनी जटिलताऍं होती है और उसे आत्‍मसात् करने के लिए हमें यदि संभव हो तो कई बार सुनना, पढ़ना, देखना और गुनना होता है। तुम अपूर्ण हो, अपूर्ण से निकले हो, अपूर्ण ही रहने को अभिशप्‍त हो, यह पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमदुच्‍यते के पाठ से अधिक सही और हमारी प्राचीन परंपरा के भी अनुरूप है जिसमें कहा गया है कि वह परम सत्‍ता जो हो है वही नहीं है, जो होना है वह भी वही है- यद् भूतं यच्‍च भव्‍यं – इसलिए वह भी अपने विनाश से पहले तक अपूर्ण रहेगी, तुमको भी अपूर्ण ही रहना है। इसलिए अपनी अपूर्णता को जानते हुए पूर्णता का प्रयत्‍न ही पूर्णता का एकमात्र पर्याय है।

आदत ही ऐसी है क्‍या करूँ। इसमें तो स्‍वयं कई उपशीर्षकों की जरूरत पड़ गई। यह काम आप पूरा करेंगे। मुझे अपनी अपूर्णताओं के साथ जीने की आदत डालनी होगी।

Post – 2016-09-09

रामसेवक का जाना अपने बचपन का वापस आना है
अक्षरज्ञान से साहित्‍य साधना तक

आज मै रामसेवक श्रीवास्‍तव की अन्‍त्‍येष्टि करने के लिए उपस्थित रहा। अठहत्‍तर साल का परि‍चय और बहत्‍तर साल की मित्रता। कभी विरोध या तकरार हुआ ही नहीं। एक ही गांव के लोगों के साथ यह संभव है, परन्‍तु एक ही परिवार के लोगों के साथ तक यह संभव नहीं। बचपन से ही अपनी साहित्यिक रुचि के कारण हमने एक दूसरे को जाना था। वह उम्र में मुझसे एक साल बड़े थे। उनकी शिक्षा चार साल की उम्र में ही आरंभ हो गई थी, कायस्‍थ पिता के पुत्र जो हुए और मैं लट्ठमार विरासत के कारण सात साल की उम्र में अपर प्राइमरी स्‍कूल की बेसिक में दाखिल हुआ था। बेसिक का अर्थ वह क्‍लास जिसे नर्सरी कहने वाले भारी फीस जुटा रहे हैं, जिसमें बच्‍चों को खेल खेल में ही कुछ सिखाया जाता था/है, और पढ़ाया भी खेल की तरह ही जाता था/ है। यह ब्रितानी शासन काल था और जहां भी संभव था शिक्षा को अपने स्‍तर के अनुरूप बनाने का आग्रह नहीं तो दिखावा ही सही, था तो था। बेसिक अध्‍यापक फागू मिसिर अपनी नकसुरी आवाज में गाते हुए हमें गाने को कहते और चित्र या ध्‍वनिरेख बनाते जिसे हम अक्षर या वर्ण कहते हैं।

रुकिए। अक्षर, वर्ण, स्‍वर और व्‍यंजन का अर्थ आप जानते हैं यह आपका विश्‍वास हो सकता है, पर जरूरी नहीं कि आप इनका अर्थ जानते हों।कोशोंं में और व्‍याकरण के ग्रंथों में भी जो अर्थ मिलेगा, उससे अाप यह समझ सकते हैं कि इसका हम किस वस्‍तु या स्थिति या गुण के लिए प्रयोग कर सकते हैं, परन्‍तु यह नहीं जान सकते कि इसका अर्थ यही है। अक्षर का अर्थ आप जानते हैं, परन्‍तु इसको समझने के लिए जिस कल्‍पना की जरूरत है वह आपके पास नहीं है। अक्षर स्‍वर या नाद है जिसकी अनन्‍त भंगियां हो सकती हैं।अक्षर का अर्थ है लगातार उसका उच्‍चारण हो तो भी कोई बाधा नहीं, सिवाय आप के फेफडे की ताकत के। व्‍यंजन या वि अंजन या व्‍यक्‍त करने वाले स्‍वर के बिना बची हुई ध्‍वनि जो क्षणिक होती है और नश्‍वर भी। वर्ण यह व्‍यंजन ध्‍वनि जाे स्‍वर के साहचर्य से या उसकी रंगत से ही व्‍यक्‍त हो पाती है।

फागू बाबा या फागू मिसिर मेरे पहले अध्‍यापक थे और अठहत्‍तर साल के धुंधलके के बीच उनका नाम याद है और याद है वह नकसुरी आवाज कब्बिर कन्‍ने क, रेसाें कि, दीर्घों कई, एकमत के, डाेले कउ, मैं आज भी नहीं जानता इस संगीत से वर्णबोध कैसे जागा था। यह सचमुच इसी रूप में गाया जाता था या मैं स्‍वयं विस्‍मृति के कारण घालमेल कर रहा हूं।
कब्बिर कन्‍ने अर्थात् क की ध्‍वनि के साथ यदि अ की ध्‍वनि न हाे, रेसों कि अर्थात् य‍दि क के साथ ह्रस्‍व इकार लगा हो और इसी तरह आगे।

परन्‍तु रामसेवक श्रीवास्‍तव, मुझसे एक साल बड़े और प्रभाव में चार या पांच साल बड़े, मुझसे पहले मर कर भी मेरा मुकाबला नहीे कर सकते, क्‍योंकि उन्‍होंने बचपन में उर्दू माध्‍यम चुना था, और कब्बिर कन्‍ने का अर्थात् क यदि एकान्‍त हो, उससे मात्र अ जुड़ा हो तो उसका उच्‍चारण क होता है इसका ज्ञान उन्‍हें न प्राइमरी स्‍कूल में हुआ न अपने शिक्षा काल में। बस एक आतंक था। मैं बेसिक या पहली में था तो दो छोटे बच्‍चों काे चौथी में पढ़ते देख कर लोगों के साथ हम भी आश्‍चर्य करते थे कि वे असाधारण प्रतिभा के बच्‍चे होंगे, बाद में पता चला कि रामअधार पटवारी बन कर रह गया और रामसेवक के साथ कब मैं हो लिया इसका बोध ही न हुआ। कुछ मित्रों का जाना अपने बचपन का वापस आना होता है क्‍या। तलाश किया तो मेरे इंटरनेट पर उनका कोई चित्र तक नहीं, जब कि कंप्‍यूटर के भरोसे अलबम फेंक बैठे।

Post – 2016-09-09

निदान – 45
धर्म और मजहब

”सॉंप को दूध पिलाइए तो वह भी जहर हो जाता है। इतने दिनों का, इतने लोगों का अनुभव है, और आप हमारे सेक्‍युलरिस्‍ट भाइयों की तरह प्रेम राग गाने का सुझाव रखते है, यह आपको अच्‍छा व्‍यक्ति तो सिद्ध कर सकता है उनको अच्‍छा नहीं बना सकता। गांधी जी की भी यही सीमा थी और आपकी भी। गांधी के प्रति आपके अनुराग का भी यही कारण लगता है।”

”गांधी जी को छोडि़ए वह आप लोगों जितने बड़े नहीं थे, जो जिनसे न बने उन्‍हें सांप समझ लें और यह तक न जानते हों कि यह वह देश है जिसमें सांप को भी पालतू बना लिया जाता है। आज से चार दिन पहले किसी चैनल

Post – 2016-09-08

निदान – 44
व्‍यामिश्रैव वाक्‍योस्ति परं सत्‍यं जनार्दन

”तुम कहो चाहे कुछ भी, गांधी जी का अनशन का तरीका सही नहीं था। यह भी हिंसा का ही रूप था।”

”दिक्‍कत तुम लोगों के साथ यही है कि न तो किसी चीज को ढंग से समझते हो, न ही सही शब्‍दों का इस्‍तेमाल कर पाते हो। पहली बात यह याद करो कि हम यह कह चुके हैं कि अनशन पुराना हथियार था जिसका प्रयोग ब्राह्मणों ने मध्‍यकाल में भी कुछ हद तक सफलता पूर्वक किया था, ”हम प्राण दे देंगे, पर जजिया नहीं देंगे।’ मध्‍यकालीन निरंकुशता के विरुद्ध यह हथियार काम कर गया था। गांधी ने इसका पुनराविष्‍कार किया था या परंपरा से लिया था यह तय करना आसान नहीं।

” किसी अन्‍य के प्राण लेना हत्‍या होती है, स्‍वयं अपने प्राण देना बलिदान । एक अपराध है दूसरे को बलिदान कहते हैं। दोनों के लिए एक ही शब्‍द का प्रयोग नहीं किया जा सकता । ये अलग भूमिकाऍं हैं। गांधी के अनशन को हिंसा कहना, ऐसा कहने वाले की विवेकबुद्धि की दुर्बलता को प्रकट करता है। जो सही शब्‍दों का प्रयोग तक नहीं जानता वह दार्शनिक लच्‍छेबाजी कर सकता है, चिन्‍तक हो नहीं सकता।

”यही बात दूसरों को उत्‍पीडित करने और स्‍वत: कष्‍ट सहने के विषय में कह सकते हो । रजनीश का व्‍यक्तित्‍व बहुत आकर्षक था, मैंने उनकाे 1968 में देखा था। चर्चा में तब भी थे, पर अधिक ध्‍यानाकर्षण के लिए तब तक मेरी शरण में नहीं आए थे, भगवान रजनीश नहीं कहते थे ऐसा याद आता है। स्‍थान डॉ. शर्राफ का आवास था और उन पर मुग्‍ध विवाहित डाक्‍टर के साथ सहजी‍वन के लिए कटिबद्ध उनकी प्रेमिका थी जिसने साहस से अपने रखैलपन की त्रासदी और अपनी अनन्‍य निष्‍ठा को काला-सफेद करते हुए स्‍वीकार किया और जिनकी प्रतिभा और गरिमा का मैं आदर करता हूँ। परन्‍तु उस समय तो उसे एक ऐसे दर्शन की जरूरत थी जिससे उसके जीवन और आचरण को नैतिक आधार मिल सके।

”एक राज की बात बताऊँ । उस गोष्‍ठी में जो अविस्‍मरणीय दीखा और आज तक याद है, उस युवती की सुडौल सांवली काया के साथ वे चकमती ऑंखें जो मणिधर में ही होती हैं और जिनको देख कर आप को नशा हो जाये। और रजनीश की तन्द्रिल, कहीं दूर और कहीं बहुत भीतर एक साथ देखती हुई ऑंखे जाे विषदंश के बाद देखने में आती हैं, मादक मदहिं पिये। पर जो सबसे व्‍यर्थ लगा था वह था हिप्पियों को बुद्ध का उत्‍तराधिकारी सिद्ध करने और देश विदेश के हमारे जाने हुए दार्शनिकों के फिकरों और विचारों को अद्भुत वाक्‍कौशल से आकर्षक और प्रभावशाली ढंग से प्रस्‍तुत करने का तरीका जिसमें अद्भुत का प्रभाव अप्रत्‍याशित की उपस्थिति से पड़ता है। चर्चा भारतीय अध्‍यात्‍म की हो रही है, सामान्‍यत: ऐसे व्‍यक्ति को पोंगा समझ लिया जाता है, परन्‍तु यदि इसके साथ कोई विश्‍वफलक से परिचित होने का आभास देते हुए अपनी बात कहे तो वह क्रान्तिकारी विचारक लगता है। भारतीय दर्शन के साथ संयम और मर्यादा स्‍वयं आ जुड़ती है, यदि ऐसे मे कोई जो जी आए सो करो हम हैं तुम्‍हरे साथ वाला दर्शन ले कर आता है तो वह कुछ अधिक क्रान्तिकारी लगता है

”इसलिए मेरे लिए किसी घटना का अच्‍छा या बुरा होना महत्‍व नहीं रखता, महत्‍व रखता है यह तथ्‍य कि क्‍या उस क्रिया के लिए परिस्थितयों का दबाव इतना प्रबल था कि उनका निवारण नहीं हो सकता था। यदि नहीं तो इसे नैतिकताबाह्य माना जा सकता है अर्थात् इसके आधार पर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता परन्‍तु ऐसा करने का समर्थन करते हुए इसके लिए वातावरण नहीं तैयार किया जा सकता।

” हम सच बाेल नहीं पाते, सच बोलना तक सीख जायँ तो हमारी आधी समस्‍यायें हल हो जायें और बाकी आधी पैदा ही न होने पाऍं। गांधी अकेला एेसा व्‍यक्ति है जिसके पास सच के सिवाय कोई हथियार न था और जिससे ही वे सभी मूल्‍य जुड़ जाते हैं जिनका वह उन्‍नायक था। सत्‍य की रक्षा, असत्‍य और अन्‍याय का विरोध, हिंसा का विरोध और जहॉं कोई शस्‍त्र न काम करे और समस्‍त प्रयत्‍न विफल होने जा रहे हैं, वहां हम बचे रह भी गए तो क्‍या होगा। मरण का यह वरण, आमरण अनशन में प्रकट होता है, जिसे वे नहीं समझ सकते जिन्‍हें एक दिन भी भूखे पेट सोना नहीं पड़ा है, इसमें अंबेडकर भी आते हैं। इसे वे नहीं समझ सकते जो अपने लिए कुछ पाना चाहते हैं। भारतीय राजनीति में गांधी अकेला ऐसा व्‍यक्ति है जो निष्काम कर्मयोग का अर्थ जानता था, और इसलिए गीता के संदेश को समझता तो था परन्‍तु उससे भी बँध कर रहना नहीं चाहता था। न किसी को बॉंध कर रखना चाहता था।”

”यार, तुम क्‍यों नहीं मान लेते कि गांधी से भी गलतियॉं हुई हैं और उन्‍हें परम पुरुष पुरुषोत्‍तम सिद्ध करने की क्‍यों ठान लेते हो।’

”देखो जब तक किसी व्‍यक्ति को मेरी बात समझ में नहीं आती, तब तक मैं उसके साथ हूँ, जहॉं से समझ में आने के बाद भी वह अहंकारवश या लोभवश अपनी बात मनवाना चाहता है, फिकरों और फब्तियों और जड़सूत्रता का सहारा ले कर अपने को सही सिद्ध करना चाहता है, वहॉं वह विचार नहीं, उस विचार के संवाहक के रूप में खतरनाक हो जाता है, जैसे वे जीव जन्‍तु जो डेंगू, डेंगी और चिकेनगुनिया के ग्रस्‍त और स्‍वयं भी भुक्‍तभोगी प्राणी हैं, चाहे वे चूहे हों, या सूअर, या पक्षी। उन पर प्रहार किया जा सकता है, उनका सफाया किया जा सकता है, परन्‍तु अपने तई वे स्‍वयं भी किसी दूसरे की चूक के भुक्‍तभोगी हैं।”

”क्‍या तुम यह नहीं मानते कि गांधी ने उसी आर्यसमाज की जड़ें निर्मूल कर दीं जिसने उनके लिए मानसिक पर्यावरण तैयार किया था।”

”इस जिद पर सही होने के लिए तुम्‍हें मानना होगा कि आर्यसमाज के विचारक मूर्ख थे और उन्‍होंने सबसे आगे बढ़ कर गांधीवाद को अपनाया। उनमें कुछ ऐसे तत्‍व भी थे जो व्‍यावहारिक न थे। उन पर चर्चा करना समय की बर्वादी हाेगी। अभी तो हम शास्‍त्री जी की प्रश्‍नावली के एक प्रश्‍न से ही उलझ कर इतने दिन गँवा चुके हैं कि कुछ समझदार लोग बेहोशी से बचने का इलाज पता लगा रहे होंगे।

”देखो, बात का अन्‍त हो सकता है, बतंगड़ का नहीं । किसी समस्‍या से उठे सार्थक प्रश्‍नों का उत्‍तर ही दिया जा सकता है। हम पहले दो बातों को समझ लें। गांधी मनुष्‍य थे और देहधरे की कतिपय व्‍याधियों से मुक्‍त नहीं हो सकते थे और उनको व्‍याधि के रूप में परिभाषित करने पर भी मतभेद हो सकता है।

दूसरा, यह कि व्‍यक्तित्‍व का मूल्‍यांकन करने के लिए कुछ कसौटियां होती हैं जैसे खरे सोने या चांदी को परखने के लिए हुआ करती थीं। वे ही उनके मूल्‍यांकन के केन्‍द्र में होती हैं, उनसे अनमेल आरोपित हो सकता है। लिंकन को मैं उनके उस आचरण से समझता हूँ जिसमें वह एक सूअर को मरने से बचाने के लिए, समय की स्‍वल्‍पता को देखते हुए, अपने सूट के साथ पेट के बल फैल कर, अपनी जान का भी जोखिम उठाते हुए उसे बचाने का प्रयत्‍न करते हैं और जब उनके मित्र क्‍लब में उनकी मूर्खता की याद दिलाते हुए बताते हैं कि तुमने एक सूअर के लिए इतना बड़ा खतरा मोल लिया तो वह कहते हैं, सूअर के लिए नहीं, अपनी आत्‍मा के लिए। यदि उसे उस अवस्‍था में छोड़ कर चला आया होता तो मैं जीवन भर चैन से न रह पाता। जानते हो इस वाक्‍य को पढ़ कर कितनी बार कितना विगलित हुआ हूँ और आगे भी होता रहूँगा। महान व्‍यक्तियों की परख की कसौटियॉं उनके जीवन से ही निकलती हैं, वे किसी अन्‍य के पास होती ही नहीं।

”गांधी कब अपना मल स्‍वयं ढोकर नदी में विसर्र्जित करते थे। उस समय तक कोई ऐसा आन्‍दोलन था। अांबेडकर तब तक इस समस्‍या को भी समझने की योग्‍यता रखते थे। गांधी अपने मुवक्किलों में से उनके मूत्र को भी यदि वे पहले से उनके घरेलू अनुशासन के अभ्‍यस्‍त होते, बिना शिकायत स्‍वयं उसका निस्‍तारण करते और बा के रहते वह ऐसा करें इस बात को ले कर झगड़ा हो जाता। तुम जानते हो मुझे यह याद करने के बाद कैसा लगता है। इस तप:पूत व्‍यक्ति को लोग उसकी ऊँचाई से नीचे लाने का प्रयास करते हैं तो लगता है जैसे कोई किसी गहरी खाई में धॅसा व्‍यक्ति अपेक्षा कर रहा हो कि कैलाश को नीचे उतारो कि वह उसे देख और समझ सके। समझने वाले कैलाश को नीचे नहीं उतारते, अपनी कल्‍पना से कैलाश की ऊॅचाई पर पहुँच कर उसका दर्शन करते हैं।”

”तुम्‍हें यह क्‍यों भूल जाता है कि गांधी ने अंबेडकर को अपना आन्‍दोलन वापस लेने के लिए आमरण अनशन कर दिया था जिसमें विकल्‍प था ही नहीं। मेरी मानो या मेरी हत्‍या के अपराधी बनो।”

”सिरा बदल कर देखो। बाबा साहब ब्रितानी हाथों में खेलते हुए उससे भी अनर्गल प्रस्‍ताव रख्‍ा रहे थे कि पाकिस्‍तान की तरह दलितस्‍तान भी बनाओ। गांधी भी उस भविष्‍य को नहीं देख सकते थे जो अपनी सत्‍ता बचाने के लिए अंग्रेज हमें सौंपना चाहते थे, परन्‍तु जो व्‍यक्ति अस्‍पृश्‍यता, दलित और उसके दैन्‍य से इतना पीडि़त था कि उसने स्‍वराज्‍य का अर्थ अन्‍त्‍योदय कर रखा था, और जिसे उसके बाद किसी ने समझा नहीं, उसे समझ पाते तो सत्‍ता के मुहरे बन कर ऐसे हास्‍यास्‍पद प्रस्‍ताव अंबेडकर नहीं लाते। मैं इस सवाल पर बहस नहीं करना चाहता, जब तक कोई मुझसे किसी कारण से असहमत है, वह सही है, परन्‍तु मैं गलत नहीं हूँ। जिस दिन वह मुझे गलत सिद्ध कर देगा, मैं उसके मत को मान लूंगा। जो सही चीज को मान सकता है वह हारता नहीं, सच की रक्षा करता है।

”गांधी ने विभाजन के समय अनशन क्यों नहीं किया यह तो मुझे भी नहीं मालूम। गलतियां वह नहीं करते थे यह भी नहीं मानता, परन्‍तु गांधी रोबोट नहीं थे। इस खास क्षण में इतिहास ने ऐसा मोड़ लिया था कि देश ही नहीं दिल भी फट रहे थे, उन्‍हें बचाने का दायित्‍व किसी अन्‍य निर्णय से अधिक जरूरी था। यह मेरी समझ है, जरूरी नहीं कि तुम इससे सहमत होओ, न ही असहमत होने के कारण तुम्‍हें गलत कहूँगा। ”

Post – 2016-09-08

निदान – 43
एकान्‍तवादी सोच की सीमा

”तुम नाहक अपना भी समय बर्वाद करते हो और हमें भी बोर करते हो। तुम्‍हारी बात कोई नहीं मानने वाला । सबके अपने अपने विचार हैं और उन्‍हें उसी से काम लेना है। तुम एक दिन में उनकी मान्‍यताओं को नहीं बदल सकते । देखा नहीं, एक आदमी गोडसे को हत्‍यारा कह रहा है, और वह अकेला नहीं है, वह देश के नब्‍बे प्रतिशत का प्रवक्‍ता है, और दूसरा गांधी को काइयॉं बनिया, और उनका जो सबसे कारगर हथियार, अनशन का था उसे हिंसा। मजा तो तब आया जब एक ने तुम्‍हें गांधी का चेला भी बना दिया। ” मेरे मित्र को लंबे समय बाद फेस बुक से अपना मौन तोड़ने का मसाला मिला था।

”मैं भी यही चाहता हूँ कि कोई मेरी बात न माने, सही प्रतीत होने वाले की भी बौद्धिक गुलामी, गुलामी ही हुआ करती है। जब हम उस सही को समुचित ऊहापोह से अपना सत्‍य बना लेते हैं, तब वही बात किसी दूसरे की नहीं रह जाती, अपनी खोज बन जाती है। यह बात मैं पहले भी दुहराता रहा हूँ कि आपके पास देखने को अपनी ही ऑंखें हैं, सोचने के लिए अपना ही दिमाग है। वह प्रखर या मन्‍द जैसा भी है, काम आप को उसी से लेना है। न लिया तो ऑंख रहते अन्‍धे और दिमाग रहते भी मूर्ख बने रहेंगे। काम लेने से उनमें प्रखरता भी आएगी। परन्‍तु ज्ञान के अहंकार में लोग दूसरो की नजर और दूसरों केे दिमाग से काम लेने के अादी हो जाते हैं और उनके ही काम आते हैं।

”तुमने देखा तो असहमत होने वालों में किसी के पास अपना दिमाग था ही नहीं, न अपनी आंख थी। वे किसी न किसी के कहे को दुहरा रहे थे और यह भी नहीं देख रहे थे कि उसका आधार क्‍या था।

”अपने को अपने ही मुंह से भगवान कहने वाला, अपने को बुद्ध का अवतार कहने वाला, ओसो कहने वाला वाक्‍चतुर मनमौजी जिसकी समझ ऐसी कि हिप्पियों को सच्‍चा बौद्ध बता कर अरबों की संपदा और अन्‍धभक्‍तों का काफिला तैयार करले, बौद्ध चिन्‍तन को पंचमकार पर उतार दे जो वह अपनी दुर्गति के दिनों में हुआ था, परन्‍तु करनी ऐसी कि जिस अमेरिका में लंपटता के दर्शन से इतना वैभव अर्जित किया उसमें प्रवेश तक पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया, वह गांधी के अनशन पर फैसला देने का अधिकारी हो गया और आपने अपनी बुद्धि उसके हवाले कर दी।

”यदि आपको स्‍वयं अपने विवेक से ऐसा लगता है कि कोई व्‍यक्ति या विचार गलत है उसे बिना किसी की बैसाखी के प्रस्‍तुत करें । फतवा न दें, उसका तर्क दें और उस तर्क से लगे कि आप ने इस पर सोचविचार किया है तो उसका महत्‍व है। जब तुम कहो, नब्‍बे प्रतिशत लोग किसी को ऐसा मानते हैं इसलिए तुम भी मानते हो, तो तुमने अपनी अक्‍ल से काम ही नहीं लिया, संख्‍या के दबाव में आ गए। और संख्‍या जितनी ही बढ़ती जाती है विचार पक्ष उतना ही घटता जाता है, यह हम पहले समझा चुके हैं।

”देखो, तुम्‍हें एक बार फिर याद दिला दूँ कि मैं यदि इस बात में सफल हो जाऊँ कि सभी लोग मेरी बात मान लें, तो यह मेरे लिए दुर्भाग्‍य की बात होगी। अमुक ने कहा इसलिए मैं भी मानता हूॅे मार्का लोग सुपठित और वाचाल मूर्ख होते हैं जिन्‍हें अपना दिमाग और आंख होते हुए भी उससे काम लेने तक का शऊर नहीं होता और सारी दुनिया को अपने अनुसार चलाने की ठाने रहते हैं। और तुम उन मूर्खों के शिरोमणि तो नहीं कहूँगा, पर उसी माला में पिरोए हुए मनके हो जो अपने धागे से बाहर नहीं जा सकते।”

”मैं चाहता हूँ लोग मानना छोड़ें, देखना और सोचना आरंभ करें और उसके बाद किसी बात से तब तक के लिए सहमत हों जब तक कि किसी अन्‍य कसौटी पर वह गलत नहीं सिद्ध हो जाती। विज्ञान में यही होता है, इसलिए विज्ञान समाज को आगे ले जाता है। विश्‍वास में यह नहीं होता, इसलिए विश्‍वास, समाज को पीछे ले जाता है। विश्‍वासों के टकराव से कलह पैदा होता है, हिंसा होती है, भाषा, आचार, व्‍यवहार, आपसी लगाव सभी में गिरावट आती है। आदमी तर्क को भी गुर्राहट में बदल कर अपरिभाषित और बोझिल शब्‍दों में बात करने लगता है और यह जानता नहीं कि उसने जो कहा उसका अर्थ क्‍या है ।

”मुझे यदि यह सौभाग्‍य प्राप्‍त होता कि मैं गांधी या मार्क्‍स का शिष्‍य बन जाता तो अपने को सौभाग्‍यशाली समझता । पर विचारक चेले नहीं बनाते, उनके अनुयायी होते हैं। जिस आदमी का भी यह कथन है उसके पास दिमाग नहीं है, जहॉं विचार होना चाहिए वहॉं घ़ृणा भरी है और यह स्‍थानान्‍तरित घृणा है। वह मुसलमानों से घृणा करता है और उन मुसलमानों केे साथ खड़ा होता है जो इसी तरह हिन्‍दुओं से घृणा करते हैं । यदि गांधी मुसलमानों से, कम से कम नोआखाली की यात्रा के बाद ही घृणा करते तो उसे उनमें शायद कोई कमी नहीं दिखाई देती, नहीं करते इसलिए मुसलमानों के लिए घृणा गांधी के प्रति घृणा में बदल गई । गोडसे को एक बार ध्‍यान से पढ़ो, वह लगातार इस बात की शिकायत करता है कि गांधी मुसलमानों से प्रेम करते थे, पूरा इतिहास इसी बात को सिद्ध करने के लिए, और इसीलिए मैं कह रहा था कि जिस व्‍यक्ति के मन में विचार का स्‍थान घृणा ले लेगी, वह मानसिक रूप में सन्‍तुलित नहीं रह जाएगा ।”

शास्‍त्री का धैर्य जवाब दे गया, ”डाक्‍साब, आप विज्ञान का इतना नाम लेते हैं, विज्ञान में जो प्रयोग विफल हो जाते हैं उन्‍हें दुबारा दुहराया जाता है। गांधी जी जैसा आदमी जिस प्रयत्‍न में विफल हो गया, उसी को आप जारी रखना चाहते हैं?”

मैंने उत्‍तर में कुछ कहना चाहा कि शास्‍त्री जी ने राेक दिया, ”एक बात और, यदि प्रेम एक आवेग है तो घृणा भी एक आवेग ही तो है। प्रेम के पीछे पागल होने वाले घृणा से विक्षुब्‍ध होने वालों को गलत कैसे कह सकते हैं ? आप गांधी जी के मुस्लिम प्रेम को भी विक्षिप्‍तता क्‍यों नहीं कहते ?”

”शास्‍त्री की बात में दम है भाई।” मित्र के मुँह से भी शास्‍त्री जी का समर्थन आज कल कुछ अधिक ही देखने में आने लगा है। ”और तुम तो स्‍वयं कभी अपनी अक्‍ल से काम नहीं लेते यार। जो पसन्‍द आ गया उसके अवगुण भी तुम्‍हें गुण दिखाई देने लगते हैं।”

मेरे सामने दो विरोधी थे, दोनों की ओर मुड़ना संभन नहीं था इसलिए शास्‍त्री जी की ओर मुड़ा, ”शास्‍त्री जी, जिसमें आदमी पागल होता है उसे प्रेम नहीं आसक्ति कहते हैं, लव नहीं, इनफैचुएशन। यह मनोविकृति है और इसलिए यही घृणा में परिवर्तित होता है। आवेग मात्र बुरे नहीं होते, प्रेम, करुणा, दया, श्रद्धा को उन शत्रुओं में नहीं गिना गया है जिन पर विजय पा कर मनुष्‍य पशु से आदमी बनता है। बल्कि इन्‍हीं के बल पर वह उन संहारकारी आवेगों पर विजय पाता है। रही बात विज्ञान की, विज्ञान में प्रयोग के विफल होने के बाद प्रयत्‍न नहीं छोड़ दिया जाता। बार बार विफल होने के बाद भी अपनी पद्धति में परिष्‍कार करके, पुरानी गलतियों से बचते हुए प्रयत्‍न जारी रहता है। जब तक समस्‍या है, उसका समाधान नहीं मिलता तब तक प्रयत्‍न जारी रहेगा, अन्‍यथा समस्‍या हमारी निष्क्रियता के कारण अधिक उग्र होती चली जाएगी। सच्‍चे प्रेम में समझदारी होती है, सन्‍तुलन होता है, उसका चरित्र व्‍यक्तियों और संबंधों के अनुसार बदलता रहता है, वह अन्‍धा नहीं होता। इतनी विफलताओं के बाद भी, गांधी जी तक की विफलता के बाद भी, यदि मैं सोचता हूँ कि निराश होने से काम नहीं चलेगा तो कारण यह है कि, हमने इस समस्‍या को सही सन्‍दर्भ में रखा ही नहीं। समस्‍या के समाधान के लिए पहली जरूरत है उसके चरित्र को समझना। हमारी जो भी शिकायतें हैं उनके कारण को समझना।

” हम बहुत पहले की अपनी ही बात तो दुहरायें तो मनुष्‍य में गर्हित से देवोपम आचरण की अनन्‍त संभावनाऍं हैं और वह परिस्थितियों के दबाव में इनमें से कुछ भी हो सकता है। व्‍यक्ति ही नहीं पूरा का पूरा समाज। यदि उसका वैसा बना रहना हमारे लिए समस्‍या पैदा करता है तो हमे उसे उससे बाहर लाने या दूरी बना कर रहने का प्रयत्‍न करना होगा। मिटाने का तरीका आप अपना नहीं सकते। यह आपका तरीका भी नहीं है। आप के अनुसार यह उनका तरीका है और इसलिए ही आप उनसे घृणा करते हैं, परन्‍तु यह नहीं समझ पाते कि आपकी घृणा उनकी व्‍याधि को बढ़ा तो सकती है, घटा नहीं सकती। जहॉं साथ रहना एक विवशता हो वहॉं प्रेम नहीं, समझदारी की जरूरत होती है, जैसा आप यात्रा में करते हैं, एक ही प्रकार के संकट में घिर जाने पर करते हैं।

”विज्ञान की दुहाई देने वाला और कुछ न सीखने वाला मूर्ख तो हमारे पास बैठा हुआ है जो आज जब सूचना का तन्‍त्र इतना प्रबल है कि उसके सामने पड़ने पर तोपों का रुख मुड़ जाता है विचार की स्‍वतन्‍त्रता की लड़ाई में भी शामिल हो जाता है और किसी को असहमति का मौका भी नहीं देता। असहमत होने वालों पर गुर्राने लगता है। और इसके छोटे भाई आज भी नहीं समझ पाते कि यदि आपका ध्‍येय स्‍पष्‍ट और योजना व्‍याव‍हारिक हो तो सूचना तन्‍त्र से परिवर्तन लाया जा सकता है। वे आज भी गोली चला कर दुनियाा बदलने का काम कर रहे हैं और जहां तक उनकी पहुंच है वहां तक की जिन्‍दगी को नरक बना चुके हैं और नरक बनाए रखना चाहते हैं।

”हमें गुर्राना छोड़ कर समझने और समझाने का तरीका अपनाना होगा जिसका यह सोच कर कि मुसलमानों की भावनाऍं विचारों से आहत हो जाती हैं, कभी प्रयत्‍न किया ही नहीं गया। प्रयत्‍न केवल अपने को सही और दूसरे को गलत, अपने को ऊँचा और दूसरे को गया बीता सिद्ध करने का किया जाता रहा जिससे दूरियॉं बढ़ती हैं, समस्‍यायें जटिल होती है, खुले रास्‍ते भी बन्‍द होते हैं। हमें अपने एकान्‍तवादी सोच के दायरे से बाहर आने की चुनौती का सामना करना होगा।”

Post – 2016-09-07

मैंने आज की जो पोस्‍ट लिखी थी वह दो बार ध्‍वस्‍त हो गई। इसे कल पूरा करूँगा। तब तक के लिए एक बहुत पुरानी तुकबन्‍दी :

जिन दिनों उड़ते थे परबत बेघड़क, अफवाह से।
सीख बैठे पैंतरे कुछ हम भी थे अल्लाह से।
लम्बी चौड़ी कन्दराएँ पर्वतों में थीं जनाब
हम सफर करते थे उनमें बैठ शाहंशाह से।
अल्ला तब सुनते भी थे अपनी भी थे कुछ मानते
तब कभी लगते नहीं थे हमको तानाशाह से।
हँस भी पड़ते थे अगर करते थे हम उनसे मज़ाक़
हम भी तब डरते न थे, रहते थे बेपरवाह से।
थे हमारे ही पड़ोसी दोस्त भी, हमराज भी
सामना होता कभी तो कहते थे अल्लाह से।
क्यों अकेले सड़ रहे हो, कुछ करो ऐसा जनाब
हुस्न बरसे, इश्‍क हो, हम भी मिलें हमराह से
फिर तुम्हारी याद आई दिल धड़कने सा लगा
वह घड़ी और यह कभी फुर्सत न पाई चाह से।
प्यार केवल प्यार केवल प्यार ही करते रहे
भर गई दुनिया मगर फिर भी थे लापरवाह से
होश में आए तो नफरत आग में, पानी में भी
सोचते हैं माँग क्या बैठे थे हम अल्लाह से।
23.11.2008