Post – 2016-10-09

कभी कभी तो अंधेरा भी चमक देता है
चांद के शीशे में सूरज को उलट देता है
कभी हंसता है बिहंसता है मुझी को दिन मान
और दिनमान को चुपचाप उगल देता है।
अंधेरी रातों में देखा आसमां की तरफ
कितने हीरों को लुटाता है छिपा लेता है।
उजाले के भी हैं रंगीन अंधेरे ऐ दोस्‍त ।
अंधेरे में ही नया स्‍वप्‍न जनम लेता है।
8 अक्‍तूबर 16

Post – 2016-10-08

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर – 3
खुद नहीं जानता लिखा क्‍या है ।

जिस बात को किसी ने लक्ष्‍य नहीं किया, या किया तो कहीं उस पर चर्चा मेेरे देखने में नहीं आई वह था लोकतन्‍त्र पर से जनता का विश्‍वास उठ जाना। पहली बाद दलों के नाम पर नहीं व्‍यक्ति के नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा था और अपने को सेक्‍युलर कहने वाले सभी दल खड़े तो एक साथ थे परन्‍तु यदि जोड़ तोड़ से बहुमत की गुंजायश हो तो बाद में चल कर उन्‍हें प्रधानमंत्री का चुनाव करना था। भाजपा के घटक दल ही नहीं, स्‍वयं भाजपा फोकस से अलग हट गई थी। संघ तक हाशिये पर लग रहा था, यद्यपि मोहन भागवत ने खुल कर मोदी के नाम का समर्थन किया था। कौन कहां से खड़ा होगा, टिकट किसे दिया जायेगा, यह सारा फैसला अकेल मोदी जी कर रहे थे और यह सोचकर कर रहे थे कि जनता ने उनको देश का नेतृत्‍व सौंपने का संकल्‍प लिया और सारी जिम्‍मेदारी उन्‍हीं पर होगी। आपात काल के बाद से लोकतन्‍त्र के साथ जिस तरह का खेल आरंभ हुआ था, यद्यपि आरंभ कांग्रेस की ओर से हुआ था, परन्‍तु गिरावट बढ़ती गई थी। मनमोहन सिंह की विवशता ने किसी तानाशाह या मजबूत इरादे के व्‍यक्ति की खोज का रूप ले लिया था।

मोदी की जीत उनकी जीत नहीं थी। भ्रष्‍टता और मनमानेपन से पैदा हुई रिक्‍तता को भरने वाले और कठोर फैसले लेने वाले व्‍यक्ति का चयन था। दूसरे सभी दलों का गठजोड़ भी उन्‍हीं विकृतियों का शिकार था फिर भी कुछ समीकरण तो तब भी बने रह गए थे। इसमें एक और तत्‍व जुड़ा रहा हो सकता है। 2002 में हुए गुजरात कांड के बाद यह एक मोटी धारणा देश के सामान्‍यबोध का हिस्‍सा बन गया था कि इसमें मोदी की मौन सहमति थी। गोधरा कांड के बाद यह आस्‍वाभाविक भी नहीं लगता। आखिर जिनका यातनावध किया गया था वे मोदी के उत्‍साह के कारण उनकी पहल से भेजे गए युवक थे । इसकी ग्‍लानि और क्षोभ आरंभिक उदासीनता – जो होता है हो जाने दो – के मूल में रही हो सकती है।

2014 से ठीक पहले तीन गलतियां मनमोहन सिंह ने संभवत: आला कमान के निर्देश पर और एक गलती राहुल गांधी ने की थी जो इस समझ का परिणाम था कि हिन्‍दू तो स्‍वभाव से सेक्‍युलर है, उसकी कितनी भी उपेक्षा हो राजनीतिक दलों से अपने जुड़ाव के अनुसार काम करेगा। यदि मुसलमानों का अधिकतम वोट हासिल किया जा सके तो अगला चुनाव भी जीता जा सकता है। ये गलतियां थीं, यह दावा कि भारत पर पहला हक मुसलमानों का है । पहले इस तरह के बयान दिए जाते थे तो मुसलमान की जगह अल्‍पसंख्‍यक का प्रयोग किया जाता था जो अर्थत: वही होते हुए भी इतना चौंकाने वाला नहीं लगता था। दूसरा था केवल गरीब मुसलमानों के लिए पन्‍द्रह लाख तक का लोन जिसे इस तरह प्रचारित किया जाता था कि तुमने अपना हक लिया कि नहीं, मानों यह कभी न लौटाया जाने वाला कर्ज हो। तीसरा था अल्‍पसंख्‍यकों के लिए अलग से आइआइटी खोलने का इरादा । राहुल गांधी ने अपनी ओर संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में जाकर एक मंच से कहा था कि हिन्‍दू आई एस से अधिक उपद्रवी हैं। इसमें सोनिया जी का अपना योगदान था मोदी को ‘मौत का सौदागर घोषित करना।

संघ से और इसलिए भाजपा से बृतत्‍तर हिन्‍दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्‍या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्‍त हो गया हो, परन्‍तु हिन्‍दू समाज के मन में मैल बनी रह गई थी। यह पहली बार इन्दिरा जी के आपात काल से बदलना आरंभ हुआ जिसमें नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए संघ ने, विशेषत: गुजरात में बहुत संगठित और सूझबूझ से, भूमिगत पत्र निकालते हुए अभूतपूर्व अभियान चलाया था। यह आरंभ तो कांग्रेस के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री की भ्रष्‍टता और उनके द्वारा इंजीनियरी कालेजों की फीस और मेस चार्ज में डेढ़गुना की वृद्धि से था परन्‍तु जल्‍द ही मध्‍यवर्ग का आन्‍दोलन बन गया जिसमें पुराने कांग्रेसियों और भारतीय जनसंघ ने बढ़ कर हिस्‍सा लिया। आगे यह आपात काल के विरोध में बदल गया। ऐसा अभियान आपात काल का विरोध करने वाले किसी दूसरे दल ने नहीं किया था और जयप्रकाश जी ने इससे प्रेरित हो कर ही अपने दम पर बिहार में ऐसा ही अभियान चलाया था। गुजरात के आन्‍दोलन के पीछे नरेन्‍द्र मोदी की जो उन दिनों चौबीस पचीस साल के रहे होंगे, असाधारण कर्मठता थी। वह उसी आन्‍दोलन के साथ लोगों की नजर में उभरे थे और फिर अपने विनय, अनुशासन और कर्मठता से वरिष्‍ठतम नेताओं के स्‍नेह और संरक्षण के पात्र बने थे। जयप्रकाश जी के आन्‍दोलन की उपज लालू प्रसाद यादव और नीतीश्‍ा कुमार थे। संघ की दूसरे ऐसे दलों में स्‍वीकार्यता बढ़ी या कुछ समय के लिए उदासीनता कम हुई थी जो आपात काल का विरोध कर रहे थे। इसका ही परिणाम था भारतीय जनसंघ का संयुक्‍त सरकार में सहयोगी बनना और अटल बिहारी वाजपेयी का विदेशमंत्री बनाया जाना। विदेशमंत्री के रूप में अटल जी ने जिस उदारता और दक्षता से काम किया वह एक उदाहरण था और इसके बाद संघ से परहेज करने वालों की उदासीनता में कमी आना।

जैसा हम देख आए हैं, संघ से और इसलिए भाजपा से बृतत्तर हिन्दू समाज परहेज सा करता था। यह परहेज गांधी जी की हत्या के बाद पैदा हुआ। संघ भले अभियोग से मुक्ते हो गया हो, परन्तु हिन्दू समाज के मन में मैल बनी रह गई थी। हिन्दू समाज का यह भाषातीत, तर्कातीत, सहज बोध प्राय: अचूक होता है। संघ स्वतन्त्र भारत में अपना औचित्य और प्रासंगिकता खो चुका था ठीक वैसे ही जैसे कांग्रेस जिसका गठन अधिक स्‍वतन्‍त्रताएं पाने के लिए और फिर पूर्ण स्‍वतन्‍त्रता के लिए समर्पित था, उसका स्‍वतन्‍त्रता प्राप्ति के बाद औचित्‍य और प्रासंगिकता समाप्‍त हो गई थी। वाम घोषित रूप में मुस्लिम लीग के उददेश्‍यों को अपने कार्यक्रम का प्रधान मुद्दा बना कर अपना औचित्‍य और प्रासंगिकता खो चुका था। जैसा कि बेनीपुरी जी ने लक्ष्‍य किया था और खेद के साथ दर्ज किया था, जो कल तक मुस्लिम लीग के नेता थे, वे सभी पाकिस्‍तान न जा सकते थे, न गए। वे रातोंरात खादी और गांधी टोपी अपना कर कांग्रेसी बन गए और कांग्रेस की आत्‍मा में भी इस तरह मुस्लिम लीग और उसके सरोकारों का छद्म दबाव बढ़ता गया।

दुर्भाग्‍यपूर्ण है कि जमीन से जुड़ा आदमी जो अपनी आंख से काम लेता है, अपनी पहुंच से दूर और ऊंचे स्‍तर पर होने वाले इन परिवर्तनों को लक्ष्‍य न कर सका इसलिए उसकी उदासीनता केवल संघ के प्रति बनी रहीं, जब कि इनके कारण ही संघ की प्रासंगिकता पुन: पैदा हो गई थी। देश के बंटवारे के बाद हिन्‍दुओं के हिस्‍से में आए भारत पर हिन्‍दुओं का अधिकार नहीं था। इसके बावजूद कसीदे उल्‍टे पढ़े जा रहे थे जिनका सही अर्थ लगाएं तो आप अपना सर पीटते पीटते लहू लुहान हो जाएंगे:
हमीं से रंगे गुलिस्‍तां, हमींं से रंगे बहार ।
हमें ही नज्‍मे गुलिस्‍तां पर अख्तियार नहीं ।

इसलिए यदि कानून बनना है तो हिन्‍दू तक सीमित रहेगा – हिन्‍दू कोड बिल जिसमें केवल हिन्‍दू को बहुविवाह की कुरीति से बचाया जाएगा, दूसरों को नहीं। उनकी महिलाओं को भारतीय कांग्रेस वह सम्‍मान और सुरक्षा देने को तैयार नहीं कि वे हैं तो पर उसके अधिकारसीमा से बाहर है। राजेन्‍द्र प्रसाद ने दो बार इसी भेदभाव पर बिल को लौटाया था और तीसरी बार तो लौटाने का अधिकार रह ही न जाता था।
जो लोग मनमाेहन सिंह को साहस की कमी के लिए दोष देते हैं, वे यह नहीं जानते कि ऊपर से शूरमा भोपाली दीखने वाले नेहरू जी सचमुच शूरमा भोपाली ही थे। निर्णायक क्षणों पर उन्‍होंने मनमोहन सिंह से अधिक कायरता दिखाई और देश का जितना अधिक नुकसान उनके कारण हुआ वह तो मनमोहन सिंह कर ही नहीं सकते थे, बिना हाइकमांड की सह‍मति के। नेहरू स्‍वयं हाई कमान थे। पर अपने हर कारनामे से गालिब की उस पंक्ति की याद दिलाते रहे, जिसे कुछ बदल कर रखना होगा – रौ में है नेहरूतन्‍त्र कहां देखिए थमे, ने बाग हाथ में है न पा है रकाब में।
शास्‍त्री जी ने लोकतन्‍त्र को पहली बार सही आधार दिया। इन्दिरा जी ने अपने पिता से अधिक दृढ़ता, दक्षता और निर्णयशक्ति का परिचय दिया और आपात काल एक ब्‍लंडर तो था, परन्‍तु उन्‍होंने देश का नेहरू की तुलना में कम अहित होने दिया। मेरे आकलन में राजीव गांधी के विषय में भी यही बात कही जा सकती है, गो तुलनात्‍मक रूप में ही।

इन विविध कारणों से हिन्‍दू हितों को लीग के छद्म प्रहारों से बचाने के लिए एक संगठन की आवश्‍यकता तो थी परन्‍तु वह लंठई (लाठी के बल) से नहीं चल सकता था। संघ ने अपने चरित्र में बदली परिस्थितियों में कोई गुणात्‍मक परिवर्तन किया ही नहीं और पीछे जो बात हम अपने हिन्‍दुत्‍वद्रोही संगठनों के विषय में अौर मजहबपरस्‍त मुसलमानों के विषय में कह आए हैं, वही बात संघ पर भी लागू होती है। सर्वोपयुक्‍त की अतिजीविता के डारविनियन नियम से संघ भी अश्‍मीभूत संस्‍था बन गई जब कि यही बात मैं मुस्लिम लीग के विषय में नहीं कह सकता। उसने अपनेे लक्ष्‍य को हासिल करने के लिए जिस तरह की लोच दिखाते हुए कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन को अपने अपने कार्यक्रम से जोड़ लिया, कांग्रेस और समाजवादी दलों की धर्मनिरपेक्षता को मुस्लिम वोट बैंक बन कर इस हद तक प्रभावित किया कि यदि हिन्‍दु अपने देश में ही उत्‍पीडि़त हों तो उसकी पीड़ा को मुखर करने तक का साहस किसी को न हो, क्‍योंकि मात्र इस चिन्‍ता के कारण ही उसे संकीर्ण हिन्‍दू सांप्रदायिकता से ग्रस्‍त मान लिया जा सकता था और किसी मुसलमान का नाखून भी कटे तो उसका गला कटने का प्रयास मान कर आर्तनाद आरंभ हो जाता था। जहां हिन्‍दू बहुल क्षेत्र है वहां सभी सुरक्षित रहें परन्‍तु जहां आबादी का आन्‍तरिक बदलाव मुस्लिम बहुलता की ओर झुक जाय तो आन्‍तरिक पाकिस्‍तान बनना आरंभ हो जाय और हिन्‍दुओं का वहां सम्‍मान से और सुरक्षित रहना असंभव हो जाय। यदि हिन्‍दू अपनी पीड़ा व्‍यक्‍त करें तो जिन्‍होंने अभी तक पलायन नहीं किया है उन्‍हें ‘शान्ति है कहीं कुछ नहीं हुआ’ का जुलूस निकाल कर पीडि़तों को अपमानित भी किया जाय। इतनी असुरक्षा के माहौल मैं जो रह गए है वे यह कह कर कि हम इसमें शामिल न होंगे, अपनी शामत बुलाएंगे।

मेरी यह बुरी आदत है जिधर मुड़ गया, मुड़ गया, जो सुन रहा है उसकी पीड़ा का भी ध्‍यान नहीं रखता, परन्‍तु मैं उनसे क्षमा मांगते हुए यह कहना चाहता हूं कि यदि संघ ने बदली हुई परिस्थितियों में अपने को अनुकूलित और समायोजित किया होता तो वह अप्रासंगिक न होता । उसने बुद्धिर्यस्‍य बलं तस्‍य के अपने सनातन आदर्श को समझा होता और डंडाधारियों की जगह पुस्‍तकधारियों की जमात पैदा की होती, उसका चरित्र बदला होता और भारत के सांस्‍कृतिक मूल्‍यों का एकमात्र रक्षक बन कर हिन्‍दू समाज में अपनी स्‍वीकार्यता इतनी बढ़ा ली होती कि सेक्‍युलरिज्‍म का नारा लगाते हुए लीग के कार्यक्रमों को अंजाम देने वालों का पर्दाफाश हाेता गया होता। संघ लीगियों द्वारा प्रायोजित हमलों से हिन्‍दुओं को बचाने के लिए स्‍थापित हुआ था, और ब्रिटिश शासन काल में उसकी प्रासंगिकता थी। यह अपनी चुनौतियों के समकक्ष सिद्ध हो पाया या नहीं, यह दूसरी बात है। पर स्‍वतन्‍त्र भारत में कांग्रेस और कम्‍युनिस्‍ट और सोशलिस्‍ट संगठनों नेे सेक्‍युलरिज्‍म के नाम पर जिस कार्ययोजना को अपना ध्‍येय बना रखा था वह मुस्लिम लीग का था और यदि उसी तरह की अनुकूलन और समायोजन दक्षता संघ ने दिखाई होती तो गांधी की हत्‍या के अभिशाप से मुक्‍त होने के बाद वह एक जरूरी भूमिका सफलतापूर्वक निभा पाता। परन्‍तु इतने युगान्‍तरकारी परिवर्तन के लिए जिस कद और सोच का व्‍यक्ति चाहिए वह संघ के संकरे दिमाग के लिए ग्राह्य नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी में वह समायोजन क्षमता थी, संघ के लोग उनका समर्थन भी करते थे और उनसे नफरत भी करते थे, यह मैंने माइक्रो स्‍तर से लेकर मैक्रो स्‍तर तक अपनी परिचय परिधि में लक्ष्‍य किया था, जब कि अटल जी की नीति और कार्यशैली ने भारतीय जनमानस में संघ के प्रति परहेज को हिन्‍दू मानस से पहली बार कम किया।

वाजपेयी जी को जो जनमत मिला था वह संघ के प्रयास से अधिक प्राचीन भारतीय इतिहास और इसकी उपलब्धियों को मध्‍यकालीन मूर्तिभंजन, मंदिर ध्‍वंस और ज्ञान विज्ञान के संस्‍थानों के विनाश केे समान मान कर इसके प्रति शिक्षित भारतीयों के मन में आई जुगुत्‍सा का परिणाम था। इस बीच संघ ने किसी क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं किया था जिसके कारण यह अन्‍तर आ सके। दूसरे शब्‍दों में कहें तो, यह अवसर भी मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर हिन्‍दू संस्‍कृति विनाशी इतिहासकारों ने दिया था। इनको खरीद लिया गया था। भौतिकवादी के पास आत्‍मा नहीं होती, मुक्तिबोध के शब्‍दों में वह अनात्‍म होता है, और इस सोच के साथ वह व्‍यक्ति से माल में परिवर्तित हो जाता है जिसे कोई खरीद सकता है। धरम न पूछो ज्ञान का, ज्ञान बिकाऊ माल, को कितना दे सोचिए काके हाथ बिकायॅ। बिक गए लोग और वैभव के कारण बड़े भी हो गए, परन्‍तु यह नहीं कहा जा सकता कि वे अपने पांवों पर तन कर खड़े हो गए, क्‍योंकि जो अपना दिमाग बेच देता है वह अपने पांंव की ताकत भी बेच देता है। रीढ़ भी बेच देता है। यह एक अलग कहानी है।

परन्‍तु इसका बोध शिक्षित हिन्‍दू समाज तक सीमित रहने के कारण, संघ से विमुख रहने वालों का इतना विचलन उस समय भी नहीं हुआ था जो हा्ई कमान, हाई दिमाग और लो ब्‍लड प्रेसर के नेतृत्‍व के कारण उपस्थित हुआ। मोदी जीते नहीं, उन्‍हें कांग्रेस और सेक्‍युलर कहे जाने वाले दलों की अपनी मूर्खताओं ने एक मात्र विकल्‍प के रूप में पेश किया। पहले भी वाजपेयी जीते नहीं थे, उस पागलपन का एक छोटे से पढ़े लिखे समाज के बीच अपने सांस्‍कृतिक विनाश के प्रति पैदा हुई सचेतता ने उनको स्‍वीकार्य बनाया था।

लाालबहादुर शास्‍त्री सेे बड़ा लोकतन्‍त्रवादी नेता इस देश ने पैदा नहीं किया। इन्दिरा जी में जो राष्‍ट्रभक्ति और उसके लिए उत्‍सर्गभावना और दृढ़ता थी उसकी मिसाल नहीं। मेरे आकलन मे पहली बार यह लगता है कि इन शिखरों से अधिक ऊंचाई हासिल करने वाला व्‍यक्ति माेदी हो सकता है, परन्‍तु मैं तो पहले ही कह आया हूूं कि लेख्‍ाक सताए हुए आदमी के साथ होता है और इसी कर्तव्‍य के कारण, उस जिम्‍मेदारी को समझते हुए जिसमें अपराधी का यदि कोई वकील न हो तो उसका पक्ष रखने के लिए सरकार वकील नियुक्‍त करती है और वह पूरी शक्ति से उसे निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास करता है, मैंने घोषित रूप से उसका पक्ष लिया। जिन्‍होंने उसे अपराधी सिद्ध किया था उन्‍हें अभियोजन में भी कठिनाई हो रही है। अभियोग की जगह वे इल्‍जाम लगाते हैं और अपेक्षा करते हैं कि न्‍याय भी वे ही करें। अन्‍यथा तो अभियुक्‍त निर्दोष सिद्ध होगा और वे स्‍वयं अपराधी सिद्ध होंगे।

मैं जानता हूं, मैं अपनी बात ठीक से नहीं रख पा रहा हूं, परन्‍तु मैं प्रयत्‍न करूंगा कि कल आपको समझा सकूं कि मोदी न होता तो दुर्गति होती सबकी ।

Post – 2016-10-07

मंजिल का हर कदम ही एक मंजिल है सोचिए।
हम कल जहां थे अाज वहां पर तो नही हैं ।
***

Post – 2016-10-07

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्टर- २

उस निर्वात को भरने के लिए जो कांग्रेस की खुली लूट और उसके समक्ष मनमोहन सिंह की निरुपायता से पैदा हुआ था, दो साल पहले से ही सिंहासन की बोली लगनी शुरू हो गई थी ।

कांग्रेस शासन में सुखी रहने वाले आज कल घबराहट और दिशाहीनता के कारण मोदी के काम का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं, ऐसा तो पहले भी होता रहा है इसमें क्या नया है ? मैं भी इस विचार से सहमत होना चाहता हूं पर तभी एक सवाल खड़ा होता है, यदि सब कुछ वैसा ही हो रहा है, सिर्फ भ्रष्‍टाचार कम हुआ, वह भी पूरा तो मिटा नहीं है (लग जाओ कहीं लाइन में), फिर इतनी घबराहट क्‍यों है ? आपके अनुसार तो मोदी आपके ही काम को कुछ अधिक खूबसूरती से कर रहा है।

वे शिगूफे गढ़ना जानते हैं, कहेंगे, हम काम करते थे, श्रेय नहीं लेते थे ।

मानना पड़ेगा, ”मैंने आपको इतने दिन का काम दिया;
”मैंने इस राज्‍य को इतना कर्ज दिया;
”मैंने आपको खाने का अधिकार दिया ।”
और दबे सुर में ”मैंने आपको खा जाने का अधिकार हासिल किया। ” कहने वाला श्रेय नहीं लेता था। बेचार मनमोहन सिंह श्रेय लेना चाहते थे, पर उसका मौका मिल नहीं पाता था। श्रेय राजघराने का, अलामत मुहरे की, जो कोई पूछे तो कह सकते हैं कि मुझे श्रेय की जरूरत ही नहीं थी। कुर्सी ही काफी थी। सन्‍तोष भी कोई चीज है।

मोदी जो कहता है, मेरा तो कुछ है नहीं, मैं तो आपका सेवक हूं, होस संभाला तभी से आपकी सेवा में चाय लेकर दौड़ता। आज जो है उसे लिए दौड़ता हूं। जो आपका है वह आपको दे रहा हूं, तेरी तुझको सौंपता का लागे है मोर, इसलिए आप को लगता है, लुटेरों से बचाने के लिए ‘जन-धन योजना’ कहने वाला और जन तक धन कैसे पहुंच सकता है इसका विजन रखने वाला और उसे फलीभूत करने वाला सारा श्रेय ले कर भागा जा रहा है और आप उसे चहेंट कर उससे वह श्रेय छीन कर आपस में बांटना चाहते हो ।”

मैंने कहा, कम पढ़ा लिखा होने के कारण मैं अपनी आंखों पर विश्‍वास करता हूं, जनता भी किताबों तक पहुंच नहीं हो पाती; अपनी आंखों पर ही विश्‍वास करती है, इसलिए मेरी और उसकी समझ में काफी निकटता होती है। मुझे कभी यह शिकायत नहीं हुई कि मेरी बात जनता तक नहीं पहुंच पाती, आप को अपनी समझ के कारण रोना पड़ता है कि आप जनता से कट गए है, आपका लिखा भी जनता तक नहीं पहुंचता और बोला भी, क्‍योंकि आप न अपनी अन्‍तरात्‍मा के प्रति ईमानदार हो, न अपने समाज के प्रति, न अपने देश के प्रति और इसे अपने शब्‍दों से और कामों से सिद्ध भी करते जाते हो। आप अपने देश को सचाई से अवगत कराना तक नहीं चाहते। उस पर परदा डालते हैं। कई तरह के पर्दे, कई रंग के पर्दे आपके पास है। आप जनता को मूर्ख समझते हैं और अपने को चालाक। जनता आप को मूर्ख समझती है इसलिए आपकी बातों पर ध्‍यान नहीं देती या देती है तो उसे उलटबांसी समझ कर। पढ़े लिखों की ही इतनी बड़ी जमात इतनी मूर्ख हो सकती है, क्‍योंकि अपने को बुद्धिजीवी कहते ही यह मान लेती है कि बुद्धि तो केवल मेरे पास है। जितनी दूसरों को दूंगा उसी से वे काम चलाएंगे। नहीं दूंगा तो मूर्ख रह जाएंगे। फेस बुक न होता तो आपके अन्‍तर की झांकी इतनी निकटता से मैं भी न देख पाता।

परन्‍तु यह न समझें कि जनता जात बिरादरी के बहकावे से भी मुक्‍त होती है। भुलावे में जनता भी आ जाती है और मैं भी आ सकता हूं क्‍योंकि बहकी बहकी बातें करने वाले तो अपने यार दोस्‍त ही हैं। कुछ तो असर पड़ेगा ही । इसलिए मुझे आपको भी जांचना, परखना और बताना पड़ता है कि आप कहां से कहां पहुंच गए हैं। आप ज्ञान की सिद्धावस्‍था में पहुंच चुके हैंं। कम्‍युनिस्‍ट होने के साथ ही व्‍यक्ति उसी सिद्धावस्‍था में पहुंच जाता है जिसमें अतिअनुशासित संगठन पहुंच जातें हैं। मजहबी लोग होते और मजहब अपनाने वाले अपनाने के साथ पहुंच जाते हैं।

एक मजेदार घटना याद आ गई । आज से पचीस साल पहले की बात है। शायर का नाम याद नहीं, शायरी भी कुछ खास नहीं, लेकिन उसकी एक नज्‍म की टेक थी, ‘बदलेगा जमाना लाख मगर, कुरआन न बदला जाएगा।’ और इस पर श्रोता लहालोट हुए जा रहे थे। लोग जोश में थे और मुझे हंसी आ रही थी। कारण तीन थे। पहले तो उस महाशय को यह पता नहीं था कि कुर आन के भी कई संस्‍करण मिलते हैं जिनमें कुछ अंतर है इसलिए सभी प्राचीन कृतियों की तरह कुरान में भी कुछ फेेर बदल हुआ है। दूसरे उसे यह नहीं मालूम कि कुरआन ही नहीं, दूसरे ग्रन्‍थ भी यथातथ्‍य ही रखे जाते हैं और रहते हैं। उसमें कोई दूसरा बदलाव नहीं करता। इस मानी में कुरआन का जानबूझ कर बदलने वाला या उसके पाठ से छेड़छाड करने वाला या तो मूर्ख होगा या पागल। टेक्‍स्‍ट की अपनी सैेक्टिटी होती है। उसका धर्मग्रन्‍थ होना जरूरी नहीं। हंसी इस बात पर खास तौर से आ रही थी वह कुरान शरीफ के प्रति सम्‍मान का इस्‍तेमाल करते हुए कह रहा था कि हम अपने समाज में कोई प्रगति, कोई परिवर्तन आने नहीं देंगे। जो ऐसा करेगा उससे निबट लेंगे। समय गुजरता जाय, कुरआन जिस काल और परिस्थितियों में लिखा गया था, वे बदल जाएं, परन्‍तु हम उसी काल में पड़े रहेगे, आगे बढ़ेंगे नहीं, न अपने को बदलेंगे न किसी दूसरे को बदलने देंगे। इबारत कुछ कह रही थी इशारत कुछ। इसका पाठ बनता था, बदलेगा जमाना लाख मगर मुसलमान न खुद को बदलेगा। डार्विन के कथन के अनुसार जो बदले हुए समय, चुनौतियों या परिस्थितियों के अनुसार अपने को बदल नहीं पाता वह अनफिट हो जाता है, सरवाइव नहीं कर पाता। हंसी इस बात पर आ रही थी कि इतनी नासमझी की बात पर इतने सारे लोग झूम रहे है। कविता का अर्थ शब्‍दों में नहीं, उनके विपर्यय में भी होता है और युगसन्‍दर्भ में भी। यह परिवर्तनशीलता ही कविता को अगाध बनाती है। इनके संदर्भ में उन्‍हीं उक्तियों के नये अर्थ खुलते जाते हैं और नई व्‍याख्‍यायें होती जाती हैं।

अब यदि कोई पूछें कि भई, तुम्‍हें इस कविता पर तीन कारणों से हंसी आ रही थी तो क्‍या तीनों के लिए तुमने तीन बार हंस कर दिखाया? तो कहूंंगा
कि हंसी की कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि हंसने चलो तो रोना आता है। पर मैं हंसना तो दूर रो भी न सका था, क्‍योंकि रोता भी तो किसी पर असर तो होने वाला न था।

यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि तुम उसी सिद्धावस्‍था को पहुंच चुके हो जिसमें न कुछ ऐसा नया जानना रह जाता है जो तुम्‍हारे माने से अनमेल पड़े, न सोचना रह जाता है, इस डर से कि सोचना फंडामेंटल से अलग जाना है, रिविजनिज्‍म है और ऐसों को अपमानित करके निकाल दिया जाता है कि वे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। यह व्‍यक्ति, विचारधारा और संस्‍था के एक जीवन्‍त सत्‍ता से फॉसिल, जीवाश्‍म में बदलने का सूचक है।

इसके फलस्‍वरूप पचास साल से ऐसे लोग जो कुछ दुहराते जा रहे हैं और यह तक नहीं देख पाते कि इस बीच बहुत कुछ बदला है, कि देश काल भेद से कोई भी परिघटना, उसकी नकल करो तो भी वही नहीं रह जाती वह उतनी ही दृढ़ता से शिखर पर बने हुए हैं।

मैं सिद्धावस्‍था से डरता हूं इसलिए यह बोध मुझमें बचा रह गया है कि सचाई तो स्‍थान, काल के साथ, सामाजिक, सांस्‍कृतिक, आर्थिक परिवर्तनों के अनुसार बदलती रहती है, इसलिए एक ही काल में कोई एक मूल्‍यांकन सभी पर घटित नहीं होगाा। चिन्‍ता केवल यह कि, पचास साल तक सर्वसन्‍दर्भ निरपेक्ष भाव से एक ही मुहावरा दुहराने वाले अश्‍मीभूत विचारों के लोगों से संवाद कैसे स्‍थापित हो।

एक ही रास्‍ता है, तर्क, प्रमाण, और औचित्‍य का। उसका वे ध्‍यान नहीं रखते। गालियों को तर्क बना लेते हैं। अभी कल की पोस्‍ट पर किसी ने कहा, ”मोदी पुराण।” कुछ कह सकते हैं, मोदी भक्‍त। मैं याद दिला दूं, मैं मोदी का वकील हूं। मैं तो उस आदमी को जिसे तुम गालियां देते रहे हो इतिहास पुरुष मानता हूं, जरूरत पड़ेे तो अतिरंजना भी कर सकता हूं। उनके खिलाफ जहर उगलने वालों के पास माेदी के वकील की जिरह का जवाब क्‍यों नहीं देते बनता। चोर चोर चोर चिल्‍ला कर लोगों की भीड जुटा कर खुद ही उसे फांसी देने का प्रयास करने वालों को, बचाव पक्ष का जवाब तो देना चाहिए। उसका साहस आज तक कोई जुटा नहीं पाया और किसी कोने से किसी के बयान को मोदी का बयान सिद्ध करकेे उसे फांसी पर चढ़ाने का फन्‍दा लिए ऐसे कमअक्‍ल भी घूम रहे हैं कि कोई पूछे कि ये है तो बता भी न सकें।

जिन दिनों के केवल भ्रष्‍टाचार और देश के संसाधनों की लूट की ही कहानियां लोगों को याद रह गई है, और सब कुछ भूल गया है, उनके विषय में याद दिला दें कि मैं और मुझ जैसे बहुत से लोग, शायद पूरा देश, इस दहशत में जी रहा था कि लो चीन हमें चारों ओर से घेर रहा है, उसने अंडमान के निकट पहुंच बना ली है, श्री लंका से उसका रब्‍त जब्त बढ़ रहा है। प्रचंड के आने के बाद नेपाल का झुकाव चीन की तरफ अधिक हो गया है। पाकिस्‍तान से उसकी दोस्‍ती गहरी हो रही है। अमेरिका पाकिस्‍तान का पुराना मित्र है, वह भारत और पाकिस्‍तान के हितों के बीच टकराव हो तो पाकिस्‍तान का साथ देगा। हमारे पास तो सारे हथियार भी पुराने हैं। हमारे जनरल उसके हमले से डरे हुए थे। गिनाते थे कि हम तो उसके सामने कुछ हैं ही नहीं, यदि उसने हमला किया तो हम कहीं टिक न पाएंगे।

भारत के नागरिक के रूप में हम विदेशों में किसी सम्‍मान और सुरक्षा के अधिकारी न थे। हमारी खाना तलाशी कुछ अधिक सख्‍ती से ली जा सकती थी। यहां तक कि वाजपेयी सरकार के दौरान भी एक मंत्री तक के साथ यही सलूक किया जा सकता था। विदेशों में बसे भारतीयोंं को थोड़ी राहत वाजपेयी युग में दुहरी नागरिकता से मिली थी, लेकिन भारतीय होने का गौरवबोध नहीं।

इस माहौल में जो पस्‍ती, निराशा और किंकर्तव्‍यता का माहौल था, उसमें जनता का मन टटोला जाने लगा कि इस अहसासे कमतरी से उसे कौन उबार सकता है? उस‍का जवाब ऊहापोह से गुजरते हुए जिस व्‍यक्ति के या व्‍यक्तियों के करीब पुंजीभूत होता गया उनमें सबसे ऊपर मोदी थे और उससे काफी नीचे नीतीश और अडवानी । भाजपा के एक सहयोगी घटक ने अपनी निर्णयकारी भूमिका न देख कर कुछ खीझ कर, गृहकलह पैदा करने के लिए, सुषमा का नाम ले लिया तो कुछ दिन वह भी चर्चा में रहीं।

पर दाेे बातें ध्‍यान देने की हैं। पहली कि कांग्रेस का कोई नाम नहीं था या खानापूरी करते हुए बहुत नीचे था। दूसरा यह कि समय के साथ सारे नाम छंटते गए। मोदी केन्‍द्रीयता पाते गए। फिर भी जनता के मन का सही पाठ कोई न कर सका। सभी आकलनों में मोदी के नेतृत्‍व में भाजपा के जीतने की संभावना के बाद भी कांटे की टक्‍कर मानी जा रही थी और भाजपा के विरुद्ध सभी दलों के एकजुट हो जाने के कारण नीतिश ने भी भाजपा से किनारा कस कर उस खेमे से अपने को जोड़ लिया था। आशा में गैर एनडीए गठबंधन के प्रधानमंत्री के दो दावे दार थे नीतीश जिन्‍होंने भाजपा से संबध तोड़ कर, अपनी सुथरी छवि पर भरोसा किया था, दूसरे मुलायम सिंह यादव जिन्‍होंने मुख्‍यमंत्री का कार्यभार अपने पुत्र को सौंप कर अपने को खाली कर लिया था और सही अवसर के लिए अपने को सुलभ बना लिया था। आखिरी मौके पर केजरीवाल को लगा यदि काशी में मोदी को चुनौती दूं और लोगों को उसी तरह झांसे में ले लूं जैसे दिल्‍ली के लोगों को ले लिया और उसके बाद भाजपा से इतर समस्‍त पार्टियों के गठबंधन से सरकार बनने की गुंजायश पैदा हुई तो लायन किलर मान कर हो सकता है सर्वमति से मुझे ही प्रधानमन्‍त्री का पद सौंप दिया जाय और उन्‍होंने अपनी सरकार को डेढ़ महीने बाद भंग कर दिया। अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी।

यह वह माहौल था जिसमें मोदी ने अपने संगठन के अपने से वरिष्‍ठ लोगों को जिस भी तरह समझाया हो, पर वे जो प्रधान मंत्री बनने का सपना देखते हुए ही जीवित थे, वे मन मसोसते रहे पर मान गए, चल भई तू ही सही। अपने दल के भीतर मोदी की विजय दल के बाहर की विजय से कम रोमांचक नहीं थी। उसने अडवानी, जोशी जैसे वरिष्‍ठों को उनका चरण छूकर उनको निर्णायक पदों से भी दूर रहने को तैयार कर लिया, जिनमें उनके रहने से, उनके हस्‍तक्षेप के बाद, आगे कुछ कर पाना संभव न होता। मुझे अपने निर्णय के अनुसार काम करने दें। और मानने वाले यह जानते थे कि यदि वे अपनी दावेदारी पेश भी करें तो वे जीत नहीं पाएंगे। जनता का फैसला मोदी के पक्ष में आ चुका है। दूसरे यह कि अधिक हठ करने पर चरणस्‍पर्श उपेक्षा में बदल सकता है, जो अधिक पीड़क होगा।

अब यदि उसके ठीक बाद अपने को अधिक चालाक समझने वाले और स्‍वयं को भी प्रधान मंत्री बनने को आतुर अरविन्‍द केजरीवाल के अपने संगठन के अधिक आयु, योग्‍यता, कर्तव्‍यनिष्‍ठा और अनुभव केे लोगों को, जिनकी महिमा और समर्थन का उपयोग उसने अपनी विश्‍वसनीयता स्‍थापित करने और स्‍वीकार्यता बढ़ाने के लिए किया था, उनके निष्‍कासन की तुलना मोदी द्वारा दरकिनार किए जाने वाले वरिष्‍ठों से करें तो अन्‍तर समझ में आ जाएगा। एक उनके आशीर्वाद लेने के लिए प्रयत्‍न करता हैं और देने के लिए बाध्‍य करता है, परन्‍तु उनके गौरव की रक्षा करते हुए। दूसरा जिनके कंधे पर चढ़ कर बड़ा बना था उनकाेे लात मार कर बाहर कर देता है ।

क्षमा करें, आज का समय भी भूमिका में खत्‍म हो गया। लगता तो यही है कि यह पुराण बन कर रहेगा, उनके लिए जो पुराण और यशोगाथा का भेद नहींं जानते। पुराणकार से छोटा दर्जा है यशोगाथाकार का। मैं वहां हूूं। परन्‍तु इसका श्रेय उन लोगों को जाता है जो मानते हैं कि तोहमतें तर्क का स्‍थान ले सकती हैं और मैं मानता हूं तर्क की भाषा से हट कर लांच्‍छनों और तोहमतों की भाषा फासिज्‍म और नाजिज्‍म की भाषा है। मेरे मोदी का वकील, बिना वकालतनामा, बनने से पहले, दोनों आेेर से गाली गलौज ही चल रहा था। मैं आया ही इसलिए और आया बुद्धिजीवियों को चुनौती देते हुए कि मैं मोदी का पक्ष लेता हूं, तुम मेरे सवालों का जवाब दो, क्‍या किसी ने कोई जवाब दिया।

जो भी हो, एक दिन और बर्वाद गया।
पर
मंजिल का हर कदम ही एक मंजिल है सोचिए।
हम कल जहां थे अाज वहां पर तो नही हैं ।

Post – 2016-10-06

भारतीय राजनीति में मोदी फैक्‍टर

याद नहीं किसकी रुबाई है। शायद फिराक साहब की। उसमें उनके लफ्ज भी हैं और पढ़ने का अन्‍दाज भी और शायद सुना भी उनसे ही एक मुशायरे में था:
बर्वाद हो रहे है, आबाद होने वाले।
दुनिया में हैं इन्‍कलाब होने वाले।
जाकर के गुरूरे फलक से कह दो
जर्रे हैं आफताब होने वाले ।

यह रुबाई, पहले एक दिलफरेब लफ्फाजी लगती थी। मोदी ने उसको चरितार्थ कर दिया । वंशवाद को खत्‍म करने का संकल्‍प, कांग्रेस मुक्‍त भारत का संकल्‍प, सुन कर हंसी आती थी। सबका साथ सबका विकास चुनावी दौर का झांसा लगता था। इस आदमी के बोलने की आवाज तो हाकर की लगती थी। इसकी नाक और विवेक कोहली की नाक मेरी स्‍वर्गीय पत्‍नी केे मुखसामुद्रिक ज्ञान के अनुसार झगड़ालू स्‍वभाव का सूचक लगता था। संघ से इसका संबंध मन में मध्‍यकालीन मूल्‍यों, पंडोंं, पुजारियों, महंतो और संतों की दखलंदाजी की आशंका पैदा करता था। इसके द्वारा बारह साल पहलेे कारसेवकों के लिए साबरमती एक्‍सप्रेस की बोगियां भर कर भेजने की घटना, मन्दिर मस्जिद तनाजे की वापसी लगती थी। शायद इन्‍हीं सारी आशंकाओं के चलते हमारे कई मित्रों ने मोदी के केन्‍द्र में प्रवेश को सांप्रदायिकता के अतिरेक और भारत के भावी दुर्भाग्‍य के रूप में देखा था, परन्‍तु मेरी आशंकाओं का निवारण चुनाव अभियान का आरंभ होते ही हो चुका था, जब कि उनकी बनी रह गई थीं और वे अपनी हताशा, घबराहट को बहुत तल्‍ख इबारतों में प्रकट कर रहे थे।

मेरी आशंका का निवारण जिस एक वाक्‍य से हुआ था, वह था, जैसा कि मैं पहले भी कह आया हूं, शौचालय बनाना देवालय बनाने से अधिक जरूरी है। एक ऐसे संगठन से जुड़ाव के बाद जो चुनाव आने के साथ ‘मन्दिर निर्माण केे वादे को सर्वोपरि रखता था, मन्दिर के साथ जिसका भावनात्‍मक समीकरण बिल्‍कुल भिन्‍न था, यह एक तत्‍वदर्शी का कथन प्रतीत हुआ। देवालय के साथ शौचालय नाम का प्रयोग ही इतना चुनौती भरा, इतना दूरदृष्टि भरा लगा कि मुझे लगा, यह अब तक के किसी भी खांचे में न अटपाने वाला युगान्‍तरकारी व्‍यक्ति है, आज का इतिहासपुरूष। मोदी ने मुझे निराश न किया। जो कहा था उसे पूरा करने की दिशा में प्रयत्‍न जारी रखा। रामो द्विर्नभिभाषते , राम दुहरी बात नहीं करता, जो कहा वह करेगा। इतना ही बहुत है।

कम पढ़े होने का एक लाभ मुझे यह है कि मैं आचरण या भाषा की ऐसी ही अभिव्‍यक्तियों पर किसी के पूरे व्‍यक्तित्‍व का मूल्‍यांकन करता हूं और उसके विषय में अपने निर्णय लेता हूं। मेरी यह कसौटी कभी गलत नहीं सिद्ध हुई। उदाहरण के लिए यदि कोई कथन को सच साबित करने के लिए कसम खाए, उसमें भी अपने बच्‍चों, मां या बाप की कसम तब तो शर्तिया, मैं उसे आदतन झूठा (कंपल्सिव लायर) मान लेता हूं।

सच बोलने वाले को कसम खाने या अपना कथन दुहराने की जरूरत नहीं पड़ती। यद्यपि ऐसे लोगों में भी पचास प्रतिशत या इससे अधिक मामलों में लोग अपना वादा पूरा नहीं कर पाते, परन्‍तु उसमें कई घटक शामिल होते हैं, ये सत्‍यनिष्‍ठ नहीं होते, पर झुट्ठे नहीं होते।

अपने चुनाव अभियान के दौरान ही जब दिल्‍ली के मतदातओं का मन जीतने के लिए अनावश्‍यक परन्‍तु अपने को दूसरों से ऊपर दिखाने के लिए कुछ अव्‍यावहारिक प्रतिज्ञाएं अरविंद केजरीवाल ने कीं – हम सरकारी गाडि़यां नहीं लेंगे, बंगले नहीं लेंगे, मेट्रो से चलेंगे, सुरक्षा नहीं लेंगे – तो उसे मैं अतिउत्‍साह मान सकता था, परंतु जब उसने अपने बच्‍चों की कसम खा ली तो मैंने अपने सनातन झगड़ालू दोस्‍त से कहा, ”यह आदमी जालसाज है, आदतन झूठ बोलने वाला है, इसे विश्‍वास है कि यह झूठ बोल कर दूसरों को बेवकूफ बना सकता है और इसी के बल पर अपने को अधिक बुद्धिमान समझता है, इसलिए यह अपना कोई वादा पूरा नहीं करेगा। जो कहा है उससे उल्‍टा करेगा।” तो उसका जवाब था, यह तो समझ में आता है, पर तुम चाहो कि मैं भाजपा को वोट दे दूंगा तो यह तो कभी हो नहीं सकता। पार्टी का निर्णय है ‘आप’ को वोट देना है तो देना है।”

मैं उसे मतदान करने के लिए यह नहीं सुझा रहा था, बल्कि इसलिए कि वह मेरे आकलन को ध्‍यान में रखते हुए आगे की गतिविधियों को जांचता रहे और अंत में मुझसे कहे कि ‘हां, यार तुम्‍हारी बात तो सच निकली।’

दुर्भाग्‍य देश का है कि अरविन्‍द केजरीवाल ने मुझे निराश नहीं किया। अगला दुर्भाग्‍य यह कि मेरे मित्र ने आज तक वह वाक्‍य नहीं कहा जिसकी अपेक्षा में मैंने उससे अपना निर्णय और उसका आधार भी प्रकट किया था।

कांग्रेस में सोनिया प्रभाव के बाद से कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था। पर वह बहुत दूरदर्शी हैं। वह अंग्रेजी राज्‍य की जगह ईसाई राज्‍य स्‍थापित करने के कार्यक्रम पर काम कर रही थी जिसका सार सूत्र था कि प्रचार शक्ति से सब कुछ हो सकता है। उस दौर में ईसाइयत को आगे बढ़ाने और उसके एकमात्र प्रतिरोधी हिन्‍दू संगठनो और हिन्‍दू समाज पर जिस तरह के घातक और सुनियोजित कार्यक्रम बनाए गए उसका अलग से अध्‍ययन होना चाहिए। पर मेरे मन में उसको लेकर पहले से ही विरोध था इसलिए मैं उसकी वापसी किसी कीमत पर होने का विरोधी था और इसलिए राहुल गांधी के मूल्‍यांकन में यदि कोई कहे कि इसमें मेरे पूर्वाग्रह का हाथ्‍ा रहा हो सकता है, तो मैंं चाहूंगा कोई तर्कश: मेरे विचारों को ध्‍वस्‍त कर दे। इससे
मुझे भी तोष मिलेगा। यदि यह संभव नहीं तो बचाव तो आप कर ही सकते हैं। इसका दृष्‍टान्‍त नहीं मिला इसलिए यह सोचने की विवशता है।

मुझे राहुल गांधी के उस कथन पर पहली बार यह आभास हुआ कि या तो यह दिमाग से कोरा है- इन्दिरा जी इंटर पास और शान्तिनिकेतन की उपाधि फेल होते हुए भी कांग्रेस की सबसे दिमागी, राजनीति में नेहरू से भी कम गलतियां करने वाली नेता थीं। गो गलतियां भी काम करने वाले ही करते हैं। जो कुछ नहीं करता वह कोई गलती नहीं करता, इसलिए सोनिया के दौर में सोनिया और परिवार ने कोई काम नहीं किया सिवाय अपनी मरजी प्रकट करने के। सारे काम उनकी मरजी से टकराते हुए जिन्‍होंने किया, सारी गलतियां उन्‍होंने कीं, अपना अपमान तक हो जाने दिया। कुरसी इतनी लुभावनी हो गई थी उनको, कि वह अपना अपमान, सिख समुदाय के अपमान का मोल चुकाते हुए भोले बने सत्‍ता से चिपके रहे, ऐसा आत्‍महीन और मेरुहीन व्‍यक्ति क्‍या देश के सम्‍मान की रक्षा कर सकता था। मनमोहन सिहं के शासन में भ्रष्‍टाचार के स्रोत तो उनके नियन्‍त्रण से बाहर थे, उनको गोट की तरह बैठा कर, इस्‍तेमाल करने वालों के पास। परन्‍तु साहसिक निर्णय उनके ही पास हो सकते थे। उनका गणित अच्‍छा था और दिमाग भी। कलेजा था ही नहीं या वह भी दिमाग का हिस्‍सा बन चुका था। हाैसला आगे जाता और दिमाग उसे पीछे खींच लेता, इसलिए सेना के सुझाव के बाद भी उन्‍होंने वह जाखिम नहीं उठाया जो मोदी ने उठा लिया।

पर इस बीच आप को यह तो मालूम हो ही गया होगा कि मुझे न अच्‍छा बोलना आता है न लिखना। वह स्‍थापत्‍य मुझमें है ही नहीं जिससे विचारहीनता के बावजूद काक्‍कौशल से वक्‍ता स्‍तंभ की तरह तना रहता है पर उसकी छाया बन ही नहीं पाती, प्रभाव महिमा से जुड़ता है, बोध से नहीं। मैं कहना ताे यह चाहता था कि ऐसे ही कतिपय उदाहरणों से सोनिया और राहुल ने और पूरे परिवार ने स्‍वयं यह प्रमाण देना आरंभ किया कि हमारे दिन लद चुके हैं। अन्तिम बाजी चलनी है। देश जहां जाए जाए, पर यदि रहे तो हमारे पारिवारिक नियंत्रण में । जितना लूटना था लूट लिया, भगा दिए गए तो दूसरा ठिकाना बना लिया है। राहुल का एक ब्रिटिश कंपनी में इतना धन निवेश, या कहें, उनके ही धन से खड़ी कंपनी जिसके वह निदेशक या ऐसा ही कुछ थे और जिसके लिए उन्‍होंने ब्रिटिश नागरिकता ले रखी थी, देखा तो सभी ने, इसका निहितार्थ यदि समझा गया तो क्‍यों छिपा दिया गया और न समझा गया तो हमारे बुद्धिजीवी किस चरागाह के घसियारे हैंं।

यह सब तो बाद में पता चला, परन्‍तु भारतीय समाज का‍ जितना बड़ा अपमान उन्‍होंने अन्तिम पासा फेंकते हुए किया कि मैने आपका सौ दिन का काम दिया। मानहानि के डर से मैं इस आदमी को उल्‍लू नहीं कह सकता पर लोगों ने सुना, वह उनकी प्रतिक्रिया में अव्‍यक्‍त रह गया, ‘यह तेरे बाप का पैसा था जो तूने दिया है।’ राहुल ने भारतीय निर्धनों का अपमान करते हुए जो कहा, मैंने तुम्‍हें इतने दिनों का खाने का प्रबंध किया है, उसका वैसा ही पाठ बना, ‘अभागे, तूने मुझे भिखारी समझ रखा है क्‍या। यह रियायत जो दी वह मुझे पहुंचेगी। तूने मुझे दिया या अपने काडर को जो भ्रष्‍टाचार पर ही पला है। यह सब मेरा अनुमान है और इसके आधार पर ही मैंने कांग्रेस के भाग्‍य के विषय में अपने मत बनाए थे जो आज भी सही हो सकते हैं। अाप असहमत हो सकते हैं। पर यह बताएं कि आपकी अपनी व्‍याख्‍या क्‍या है।

जर्रे को आफताब बनना अकेले जर्रे में भरी असाधारण ऊर्जा पर निर्भर नहीं करता, समय की मांग पर भी निर्भर करता है और उस निर्वात पर भी जिससे जर्रा जमीन से उठ कर आफताब बनने की ऊंचाई, प्रभा और आभा प्राप्‍त कर ले।

चमत्‍कार उसे कहते हैं जो आपके सामने घटित हो रहा हो आप फिर भी विश्‍वास न कर पाएं । इतनी छोटी हैसियत का आदमी इतना बड़ा कैसे बन गया? बन तो गया पर मैं नहीं मानता। दुनिया की सारी डिग्रियां मेरे पास, यह पता नहीं हायर सेकंड्री से आगे बढ़ा भी है या नहीं, और मेरे रहते इसे इतने बड़े दायित्‍व के लिए कैसे चुन लिया गया? चलो भाजपा ही सही, उसमें इतने बड़े और अनुभवी नेता थे और प्रधानमंत्री बनने की पूरी तैयारी करके अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उनके रहते यह हमें स्‍वीकार कैसे हो सकता है? चुनाव अभियान के दौर से ही एक समाचार चैनल ऐसा था जो जाता तो था उसकी रैलियां कबर करने और मंच या मंच के सामने का मजमा दिखाने की जगह मंच के पीछे खड़ा हो कर लोगों की समस्‍यायें पूछता था मानो निर्वाचन से पहले ही वह उन समस्‍याओं के लिए जिम्‍मेदार हो। बुद्धिजीवी जब अपने को इतना चालाक समझता है कि वह सभी को बेवकूफ बना सकता है, तब उसका श्राद्धलेख तैयार करना आरंभ कर दिया जाना चाहिए। लोगों ने अपने समाधिलेख स्‍वयं लिखे पर वे टंगेंगे कहां, यह पता न किया।

मेरा दुर्भाग्‍य यह कि आपका यह फिकरा हमेशा सही सिद्ध होता है कि यह आदमी हमारा समय बर्वाद करता है, कहने को इसके पास यदि कुछ है तो उसे कल कहेगा पर आज जो हाल है, कल भी वही हाल होना है। क्‍या धीरज हैं आपमें इसे सुनने का?

Post – 2016-10-06

खुद को तोड़ा तो हर एक जुज बड़ा निकला मुझसे
बिगाड़ में भी नया बन के कुछ निकला मुझसे
कई समुन्‍दरों का जल, कई मुल्‍काें का दर्द
भरा हुआ था वही फूट कर निकला मुझसे ।

Post – 2016-10-05

दिल है इस पर तो इख्तियार नहीं
जां है इस पर तो जान देना है
हम हैं होकर भी कुछ नहीं शायद
अक्‍ल का इम्‍तहान लेना है।
वह भी देखो तो हमारी न हुई
मशीन भी है और मसीहा भी।
दिल के इतने करीक है शायद
अक्‍ल को ही जवाब देना है।
***

एक दर्द है हम सह कर दिखाएं तो सही
एक जख्‍म है उसको भुला पाएं तो सही।
एक ख्‍वाब है बेहोशी से निकला है अभी
उसको बचा कर सच बना पाएं तो सही।
एक आग जो जलती न धुंआ देती है,
हम उसको बुझा करके जलाएं तो सही।
बरबाद करेंगे जिन्‍होंने खाई कसम
विश्‍वास करोगे यह जताएं तो सही।
हम जिसको खुदा कहते हैं वह है ही नही
जो है ही नहीं उसको बनाएं तो सही ।
भगवान को इंसानों से है वास्ता क्‍या
इन्‍सान को इंसान बनाएं तो सही।

Post – 2016-10-05

स्‍वच्‍छता अभियान – 4

“Long is the way and hard, that out of Hell leads up to light.”
John Milton, Paradise Lost

सांप्रदायिक संगठन कभी अपने संप्रदाय का पूरा प्रतिनिधित्‍व नहीं करते। ये कुछ लोगों के द्वारा उसके नाम पर गढ़ लिए जाते हैं और ये उनके व्‍यक्तिगत प्रभाव क्षेत्र से आगे बढ़ कर उतने लोगों में फैलते जाते है जिन तक पहुंचने की युक्ति और शक्ति का विस्‍तार वे कर पाते हैं। अपने को उसका प्रतिनिधि सिद्ध करने के लिए वे उसे उत्‍तेजित करते हैं और उत्‍तेजित करने के लिए उत्‍तेजक समस्‍याओं को उठाते या जन्‍म देते हैं। मुस्लिम लीग यदि समस्‍त मुसलमानों का संगठन होता तो उसे सीधी कार्रवाई के नाम पर दंगे भड़का कर और हजारों बेगुनाह लोगोंं की जान लेने की जरूरत पैदा नहीं होती। यह किया गया कि नफरत पैदा हो और अलगाव बढ़े और उस ध्रुवीकरण का लाभ उसे मिले। लोग इसके शिकार हो गए यह कहना भी गलत है, अन्‍यथा कम्‍युनिस्‍ट पार्टी को इसके समर्थन की जरूरत न पड़ती।

ठीक इसी तरह कहा जा सकता है कि संघ या हिन्‍दू महासभा कोई भी हिन्‍दुओं का प्रतिनिधि न रहीं। इसका एक बड़ा कारण इनका मुस्लिम विरोधी तेवर था जिससे ये मुक्‍त न हो सके जब कि हिन्‍दू समाज के संस्‍कारों में समावेशिता है और वही उसकी एकमात्र शक्ति है जिसके बल पर इसने अपने विरोधियों काे नैतिक मात देते हुए अपनी पराधीनता के दिनों में भी अपना अस्तित्‍व कायम और माथा ऊंचा रखा। लोग तलवार की ताकत को जानते हैं, सद्भाव की ताकत का अन्‍दाज तक नहीं लगा पाते जिससे हिंस्र पशु भी इशारों पर नाचते हैं।

स्‍वभाव के इस अन्‍तर के कारण, संघ ने भीतर से मुस्लिम द्वेषी होने के बावजूद कभी कोई ऐसा अभियान आज तक नहीं चलाया जो मुस्लिम समाज के लिए अहितकर हो, अपितु उसे मध्‍यकालीन मानसिकता में रखने के लिए जिन अहितकर प्रवृत्तियों को कांग्रेस बढ़ावा देती रही, उनका विरोध किया। विभाजित भारत में भी खून की नदियां बहा देने वाली भाषा का प्रयोग उसने नहीं किया और इस भाषा का इस्‍तेमाल करने वालों के यहां सजदा करने के बावजूद, या इसके कारण ही, अपने को सेक्‍युलर कहने वाले दलोंं ने संघ के प्रति घृणा-प्रचार में कभी कसर नहीं रखी। उनका उद्देश्‍य सांप्रदायिक घृणा को उभारते हुए अपने लिए मुसलमानों को वोटबैंक में बदल कर उस पर अधिक से अधिक उत्‍तेजक और विभाजक प्रस्‍तावों से कब्‍जा करने का था।

मैंने पिछली पोस्‍ट में दो गलतियां की जिनकी ओर मेरा ध्‍यान अब जा रहा है। पहला यह कि जिसे मैंने मुसलमानों के प्रति घृणा कहा, वह मुसलमानों के प्रति आशंका और सन्‍देह हैै और इसके ठोस और पर्याप्‍त कारण उनके ही चिन्‍तकों ने जुटा रखे थे और इसके आधार पर ही उसकी लामबन्‍दी करते रहे थे – वह था विश्‍व इस्‍लामवाद या पान इस्‍ला‍मवाद – ‘हिन्‍दी हैं हम वतन है हिन्‍दोस्‍ता हमारा’ के ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा’ में बदलने की उल्‍टी साधना, जिसका ही परिणाम खिलाफत का आन्‍दोलन था। एक बड़े नाम के पीछे छिपे छोटे इरादों को भांपने में गांधी जी से चूक हुई और स्‍वतन्‍त्रता संग्राम को इसका बहुत बड़ा खमियाजा भोगना पड़ा।

फेस बुक एक तरह का आईना है और इसमें यात्रा करते हुए मैंने पाया कि अधिकांश मुसलमानों की सारी चिन्‍ता मुसलमानों को लेकर ही है, वे कहीं के भी हों। दूसरे सवालों को भी अधिकांश इसी नजरिए से देखते हैं। इसलिए इस आशंका और भय को, जो भी आत्‍मरक्षा की चिन्‍ता से जुड़ा हुआ है, मैं अकारण नहीं मानता। यदि कारण है तो उसे दूर किया जाना चाहिए, न कि उसे उचित ठहरा कर उसका विस्‍तार। परन्‍तु इसे इतना एकपक्षीय और जुगुप्‍सु बना कर पेश किया जाता रहा है कि दूसरे लोगों की तरह मैं स्‍वये भी इसे मुस्लिम द्रोह मान बैठा।

दूसरी गलती यह कि मैंने कहा इसने कोई रचनात्‍मक कार्यक्रम नहीं अपनाया, जब कि कहना चाहिए कि इसने जिन भी रचनात्‍मक और समावेशी मुद्दों को उठाया उनका उपहास करके उनका भी तिरस्‍कार किया जाता रहा। ध्‍यान दें कि हिन्‍दू असुरक्षा से चिन्तित होने के बाद भी इसने हिन्‍दू सेना, हिन्‍दू संघ जैसा नाम नहीं चुना । राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ रखा। इस पर राष्‍ट्रवाद का ठप्‍पा लगा कर राष्‍ट्र का उपहास किया जाने लगा। संभवत: इसकी राष्‍ट्र की अवधारणा उस राष्‍ट्र से भिन्‍न थी जिसे हम भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस में पाते हैं। कांग्रेस का राष्‍ट्र सर्वसमावेशी था, संघ का राष्‍ट्रवाद यूरोपीय संकीर्णता लिए हुआ था और इससे बचना जरूरी था, यद्यपि अपने पूरे इतिहास में यह उस पर कभी अमल न कर सका।

फिर इससे पैदा हुए जनसंघ ने भारतीय जनसंघ ने हिन्‍दी भाषा और इसके व्‍यवहार को अपने कार्यक्रम का अंग बनाया। यह अलग बात है कि यह उस अर्थ में भारतीय भी न था जिस अर्थ में कांग्रेस से जुड़ा इंडियन और भारतीय ।
इसकी प्रतिक्रिया में हिन्‍दी हिन्‍दू हिन्‍दुस्‍तान का फिकरा गढ़ कर हिन्‍दी का भी विरोध करने वालों की संकीर्णता और देशविमुखता की उपेक्षा ही न की गई अपितु उस भावना का बीजारोपण किया गया जिसका नमूना दुनिया के किसी देश में मिलता हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं। इस अवस्‍था तक इसका अस्तित्‍व भी हाशिये पर ही बना रहा ।

परन्‍तु प्राचीन भारतीय इतिहास को हिन्‍दुओं का इतिहास मान कर उसका जिस तरह ध्‍वंस किया गया और आत्‍मपीड़न तक को आत्‍मगौरव बना कर प्रचारित किया जाता रहा, उसमें वाम और मुस्लिम और सेकुलर के अभेद और इनकी भारतविमुख और जनविमुख सोच केे खुले खेल ने पहली बार हिन्‍दू समाज के अब तक संघविमुख हिस्‍से की सोच को बदलना आरंभ किया और भाजपा के लिए जनाधार का विस्‍तार किया, उसमें अपने चरित्र के उद्घाटन के साथ दूसरे दलों का हाशिये की ओर बढ़ना और भाजपा का हाशिये से केन्‍द्र की ओर बढ़ना और एक दुर्दान्‍त शक्ति के रूप केन्‍द्र पर सत्‍ता जमाना संभव कर दिया। परन्‍तु उसकी इस सफलता से आत्‍मालोचन करते हुए अपनी नीतियों, योजनाओं और सोच में परिवर्तन लाने की जगह दूसरे सभी ने अपनी घृणा प्रचार को और उग्र किया और अपनी चिता की तैयारियों में आज भी जुटे हैं।

इसी परिवेश में देश को लूटने, बांटने, एक दूसरे से लड़ा कर टिके रहने की कोशिश में लगे इस पूरे विरोधी शिविर की बौखलाहट अपनी हताशा के अनुपात में बढ़ती जा रही है। यह वह मुकाम है जहां आग उगलने वाले फिकरों से हास्‍य रस की सृष्टि होने लगी है । हालत यह हो गई है कि पार्टियांं, स्‍वयं भाजपा और, उसके तथाकथित ‘सांस्‍कृतिक’ जनक, संघ पर से भी रोशनी फीकी होती जा रही है और एक व्‍यक्ति पर सारा फोकस केन्द्रित हो गया है। यह शुभ लक्षण नहीं है। ऐसा स्‍वतन्‍त्र भारत के इतिहास में कहले कभी नहीं हुआ, पर इसकी जड़ें उस गहराई तक जाती हैं जिसमें नेहरू की लोकप्रियता के कारण उन्‍हें यह विश्‍वास पैदा हो गया था कि भारत उनका है और वह जिसे राज सौंप देंगे वह जो भी क्‍यों न हो, वही राजा बनेगा। पार्टी का लय और उसके नेता के उदय की यह कहानी ही प्रजातन्‍त्र को व्‍यक्तितन्‍त्र में बदलने के लिए उत्‍तरदायी है। पहली बार विरोधियों को केवल एक व्‍यक्ति दिखाई देता है, मोदी और समर्थकों को जिनमें भक्‍तो की संख्‍या भी काफी है, पक्षधरों की तो होगी ही, उनको भी एक व्‍यक्ति दिखाई देता है, मोदी।

इस विशाल देश में दुख, यातना, उपलब्धि, सक्रियता की अनन्‍त घटनाएं तक हाशिए पर चली गई हैं, केवल उनकी प्रासंगिकता बढ़ी है जिसको किसी न किसी सिरे से मोदी से जोड़ कर देखा या दिखाया जा सके। विरोधी बदहवास से कीचड़ फेंकते है, रास्‍ते में वह रोशनाई में बदल जाती है, मोदी के पास पहुंच कर वह रोशनी में बदल जाती है और फैल कर आभाभंडल तैयार करने लगती है। यह विचित्र भी है और अमंगलकारी भी, परन्‍तु इसके लिए उततरदायी कौन है, या कौन हैं।

इसका बहुत सुन्‍दर नमूना हाल की उस दुखद घटना में मिल सकता है जिसमें पाकिस्‍तान का हाथ था। उरी के शहीदों के दर्द को बढ़ाते हुए उनके परिजनों के दुख दर्द और उसी केे पीछे यह संकेत आता रहा कि यह सब मोदी के कारण हुआ है। ललकार आने लगी, ‘कहां है छप्‍पन इंच का सीना।’ जवाब दो, हमें भी कि पाकिस्‍तान को ऐसा ही जवाब कब दे रहे हो। लोकतन्‍त्र का ऐसा उत्‍कर्ष विश्‍व में कभी आया न होगा कि ऐसे गधे भी सरकार से आए दिन जवाब मांग रहे हैं जो यह तक नहीं जानते कि जवाब किसी को बता कर नहीं दिया जाता। जो यह नहीं जानते कि जवाब मांगने के लिए उन्‍होंने अपने प्रतिनिधि चुन कर संसद में भेज रखे हैं और यह काम हर ऐरे गैरे का नहीं उनका है। वे भी बिना समय गंवाए इनके साथ खडें हो जाते हैं और संसद से बाहर ही जवाब मांगने लगते हैं, क्‍योंकि संसद को तो वे चलने ही नहीं देते। प्रतिनिधि हो कर भी प्रतिनिधित्‍व नहीं कर पाते। सड़क को संसद और संसद को सड़क बना देते हैं।

जब जवाब कूटनीतिक हथकंडों से दिया जाता है और शत्रु को कठघरे में खड़ा करके कि वह पंगु बना दिया जाता है तो बेताब हो जाते हैं। बस यही। इतने से काम नहीं चलेगा। जब उसकाेे गफलत में डालने के लिए जल आपूर्ति कम करने का उनका ही सुझाव मानते हुए विचार किया जाता है तो वे शोर मचाते हैं। पानी के लिए मत तरसाओ बेचारे को। मौजूंं जवाब दो और जब वह जवाब मिलता है तो शब्‍दकौशल के इतने तरीके अपनाते हुए कहते हैं हम तुम्‍हारी बात नहीं पाकिस्‍तान की बात मानते हैं। तुम झूठ बोलते हो। कुछ नहीं किया, कुछ नहीं हुआ। और जब इन्‍हीं शंकालुओं और छिद्रान्‍वेषियाें में एक अखबार सचाई को जगागर कर देता है, तब भी अपनी लाज बचाने के लिए ही सही अपने फेसबुक से उन फिकरों को निकाल बाहर करने का भी ध्‍यान नहीं रखते। नंगा नाचै फाटै का।

सारा हमला एक आदमी पर और जवाब में नि:शब्‍द फटकार, फिर थप्‍पड़, फिर तुम्‍हारे जूते से तुम्‍हारी पिटाई और उसके बाद भी सोचा नहीं कि जो कुछ हुआ सब तुम्‍हारे कहने से हुआ, और तुम अपनी ही दुम चबाते हुए निढाल चीख रहे हो फासिज्‍म आने वाला है। इतना अपमान इतिहास में अपने को बुद्धिजीवी कहने वालों पहले नहीं किया होगा। आश्‍चर्य इतिहास में इतनी विचित्र चीजें पहली बार हो रही हैं। तुमने केवल यह सिद्ध किया है कि मोदी स्‍वर्ग भी उतार दे तो तुम उसे नरक बना दोगे। कला और साहित्‍य के नाम पर यही किया गया है। मिल्‍टन की एक उक्ति के साथ इसे आरंभ किया था, उन्‍हीं की एक पंक्ति के साथ इसकी समाप्ति:
“A mind not to be changed by place or time.
The mind is its own place, and in itself
Can make a heav’n of hell, a hell of heav’n.”
― John Milton, Paradise Lost
तुमने साठ सालों के दौरान बड़े श्रम सेे जिस स्‍वतंत्र भारत को अपना नरक बनाया था, उसे मोदी स्‍वर्ग बनाने के अभियान में जुटा है और तुम उसे दुबारा नरक बनाने के लिए कृतसंकल्‍प हो। खुली धूप और खुली हवा में कीडे बिना किसी हथियार के मारे मर जाते हैं। उसमें सांस लेने की आदत डालो। मोदी को तुमने बनाया है, अपनी रचना का सम्‍मान करो। मैं तुम्‍हें नहीं समझ पा रहा हूं, तुम्‍हारी इस रचना को समझना चाहता हूं, पर वह संभव हुआ तो कल।

Post – 2016-10-04

स्‍वच्‍छता अभियान – 3

स्‍वच्‍छता का अर्थ आन्‍तरिक शुद्धता, बाह्य और परिवेशीय निर्मलता, नैतिक दृढ़ता और स्‍वावलंबन है। अकेले इस शब्‍द में समग्र गांधीवाद समाहित है – सत्‍य भी, अहिंसा भी, असत्‍य और अन्‍याय से असहयोग भी, और सुराज का आन्‍दोलन भी। गांधी अपने को सनातनी हिन्‍दू कहते थे, परन्‍तु उनके लिए हर एक चीज का एक भिन्‍न अर्थ था। पूजा – कोई काम तन्‍मयता से नित्‍य करना, जिसमें सूत कातना भी आता था और सत्‍संग या प्रार्थनासभा भी आती थी। कोई मूरत नहीं, कोई आराध्‍य नहीं, किसी के सामने माथा टेकना नहीं, ध्‍येय बस एक – उनके सर्वोत्‍कृष्‍ट कर्मों काेे अपने कार्यक्रम का हिस्‍सा बनाना। राम उनके लिए उस रामराज्‍य के लिए महत्‍वपूर्ण, जिसमें दैहिक, दैविक, भौतिक किसी प्रकार का ताप, किसी प्राणी को न हो। वैष्‍णव धर्म परदु:ख कातरता तक – ‘ जे पीर पराई जाणे रे’ – इससे आगे सनातनता का कुछ भी नहीं और इसी के माध्‍यम से वह एक ऐसा आदर्श हिन्‍दू समाज बनाना चाहते थे जिसमें न कोई अस्‍पृश्‍य रह जाय न किसी के लिए कोई काम मलिन रह जाय।

गांधी वर्णव्‍यवस्‍था के समर्थक नहीं थे, वह बाहर से किसी चीज को बलप्रयोग द्वारा तोड़ने या बदलने को भी हिंसा का ही एक रूप मानते थे, इसलिए वह उसके भीतर से ऐसी चेतना जाग्रत करते हुए स्‍वयं बदलने की प्रेरणा भरना चाहते थे कि उसमें बदलाव आ जाय, वह आत्‍मोद्धार करे, कोई दूसरा उसके उद्धार के लिए न आए। वह इसी लिए उग्र और फासिस्‍ट विचारों के लोगों को भी कांग्रेस में लाने के पक्षधर थे, परन्‍तु यह अपेक्षा करते थे कि वह इसकी उन नीतियों के अनुसार अपने को बदलेगा। वह बुराई को दूर करना चाहते थे, बुरे को दूर रखना नहीं चाहते थे, क्‍योंकि उस दशा में उसको बुराई से मुक्‍त नहीं किया जा सकता।

वह सभी धर्मों को समान नहीं मानते थे, अपितु उनके धर्मग्रन्‍थों के जो उज्‍वल विचार और उनके महापुरुषों केे जो सर्वोत्‍कृष्‍ट आचरण थे उनको अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते थे और केवल इसी अर्थ में उनका यह विचार था कि सभी धर्मों के लोगों और ग्रन्‍थों में कुछ ऐसे उज्‍ज्‍वल रत्‍न मिलते हैं जिनसे हम अपना आध्‍यात्मिक उत्‍थान कर सकते हैं। शेष का उनके लिए हो कर भी न होने जैसा अर्थ था। यह सनातन धर्म और इसके ग्रन्‍थों के विषय में उतना ही सच था, जितना इस्‍लाम या ईसाइयत के लिए ।

हमारे और उनके दृष्टिकोण में केवल इतना अन्‍तर है कि हमारा ध्‍यान दूसरे मतों, विश्‍वासों, उनके ग्रन्‍थों के उन अंशों पर जाता है जो हमें विकृत या निन्‍दनीय लगते है, और अपने धर्म या मत और समाज की केवल अच्‍छाइयां नजर आती हैं मानों इसमें बुराइयां हों ही नहीं, जब कि उनका ध्‍यान अपने पराए के भेद के बिना केवल उनके उत्‍कष्‍ट अंशों, आचारों या विचारो तक जाता, मानो उसके अलावा कुछ हो ही नहीं। अग्राह्य की ओर नजर ही न जाती थी, जैसे फूल या फल चुनने वाले का ध्‍यान फूल या फल को छोड कर और उनमें भी जो खिले या पकेे होंं, उन्‍हें छोड़ कर और कुछ हो ही नहीं। हमने नीट्शे के बारे में कहा था, उसका सबसे बड़ा सपना माली बनने का था। गांधी माली थे।

उन्‍होंने मानवता का जितना गौरवपूर्ण सपना देखा था, उतना बड़ा सपना उनसे पहले या उनके समय में या बाद में किसी नेे नहीं देखा। मार्क्‍स का सपना उनके सामने बचकाना खयाल बन कर रह जाता है। पर उनका कोई सपना पूरा नहीं हुआ और कोई भी सर्वथा व्‍यर्थ नहीं गया – चरितार्थ नहीं हुआ तो आकांक्षा और विश्‍वास बन कर बचा रह गया है जैसे दुर्गन्‍ध भरे माहौल में भी फूल की खुशबू उसमें अलक्ष्‍य ही सही परन्‍तु उस मलिनता को कुछ कम करती है, वैसे काम करती है।

2 अक्‍तूबर गांधी का जन्‍मदिन है, मेरे लिए आैर गांधी आश्रम वालों के लिए भी, अक्‍तूबर गांधी जी का जन्‍म मास है।

इस दो अक्‍तूबर को एक चौकाने वाली घटना का समाचार आया। कुछ लोगों ने गोडसे की प्रतिमा स्‍थापित की जिसका अनवरण किया। यदि इसके लिए गोडसे की फांसी का दिवस चुना गया होता, इसे सिंधु के तट पर कहीं स्‍थापित किया गया होता, जो गोडसे की अन्‍तरात्‍मा के अनुरूप होता और मेरेे स्‍वास्‍थ्‍य और साधन इसकी अनुमति देते तो मैं भी उस महापुरुष को श्रद्धा निवेदन करने पहुंचने में संकोच न करता। आप जानते होंगे कि गोडसे ने अपने इच्‍छापत्र में लिखा था कि उसकी भस्‍म को तब तक प्रवाहित न किया जाय जब तक भारत पुन: अखंड नही हो जाता और इसके बाद उसे सिन्‍धु नद में प्रवाहित किया जाय। यदि गांधी ने किसी अन्‍य प्रसंग में नाथूराम गोडसे के चरित्र की उस दृढ़ता को देखा होता जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं तो वह भी उनके चरित्र के उन पक्षों के कारण उनको महापुरुष ही मानते, यद्वपि संकीर्णता के कारण विक्षिप्‍त भी।

परन्‍तु गांधी जे जन्‍म दिन पर उनकेे हत्‍यारे की मूर्ति प्रतिष्‍ठा और अनावरण, गोडसे का सम्‍मान नहीं है, गांधी जी के प्रति आयोजकों के मन में पलने वाली घृणा की अभिव्‍यक्ति है और उनकी पाशविकता प्रेम को प्रकट करता है, जिससे गोडसे का भी अपमान होता है। वह इतने क्षुद्र व्‍यक्ति नहीं थे, उतने तो कदापि नहीं जितना पिछले वर्षों अपने को गांधीवादी कहने वाले एक दो व्‍यक्तियों ने सिद्ध करने का प्रयत्‍न किया था, या जितना उनके नए भक्‍त उनकी प्रतिमा के माध्‍यम से आज मोदी पर और उनके सबका-साथ-सबका-विकास के लक्ष्‍य काेे विफल करने के लिए कर रहे हैं।

संघ से मोहभंग होने के बाद मेरे मन में उसके प्रति कभी सहानुभूति नहीं पैदा हुई। एक बार, आज से चालीस इकतालीस साल पहले, सूर्यनारायण त्रिपाठी ने जिनसे हमारे सामान्‍य औपचारिक संबंध थे और हम एक दसरे के घर आते जाते भी थे, मेरे पुत्र के विषय में कहा, ”अब इसके स्‍वास्‍थ्‍य पर भी ध्‍यान दीजिए। इसको कल से शाखा में ले जाऊगा,” तो मैेंनेे उन्‍हें समझाया था कि इसका स्‍वास्‍थ्‍य कुछ ढीला रहे तो भी बाद में ठीक हो जाएगा, परन्‍तु इसका दिमाग आपके यहां जा कर जितना खराब हो जाएगा, उसको सुधारने में बहुत लंबा समय लगेगा।

संघ से मेरी अरुचि के तीन कारण रहे हैं, पहला, यह कि इसमें आरंंभ ही धोखा धड़ी से होता है। आप स्‍वास्‍थ्‍य का झांसा दे कर उस वय में ही बच्‍चे को अपने दल का हिस्‍सा बनाते हैं जब उसमें राजनीति की कोई समझ नहीं और उसके मन को अपने अनुसार ढालना आरंभ करते हैं। यह काम सभी धर्म करते रहे हैं और इसलिए सभी शिक्षा पर एकाधिकार करने केे लिए प्रयत्‍नशील रहते रहे हैं। इसके द्वारा उनमें ज्ञान के नाम पर एक तरह की कट्टरता पैदा करते रहे हैं जो उनको अपनेे औजार के रूप में काम में लाने में सहायक रहीी है। येे हमारे आश्रम, गुरुकुल रहे हों, या कान्‍वेंट स्‍कूल रहे हों या मकतब और मदरसे रहे हों। परन्‍तु संघ की स्थिति उनसे भी कुछ घट कर है क्‍योंकि इसमें शिक्षा की जगह सीधे लट्ठ पकड़ा दिया जाता रहा है।
दूसरे इस सैन्‍य संगठन को हिन्‍दू संस्‍कृति का वाहक बताया जाता रहा है। भारतीय परंपरा में दो शब्‍द हैं, एक उद्दंड और दूसरा लंठ या लाठी के बल पर अधिक भरोसा करने वाला। इन दो शब्‍दों से ही पता चल जाएगा कि भारतीय संस्‍कृति का कितना अच्‍छा ज्ञान इन्‍हें रहा है। हिन्‍दू संस्‍कृति का इससे बड़ा़ अपमान और इसकी इससे अधिक बड़ी नासमझी दूसरी कोई हो नहीं सकती।
तीसरे इसके पास कोई सकारात्‍मक कार्यक्रम नहीं जिसे ले कर यह अपने संगठन को मजबूती से एकजुट रख सके। इसलिए इसमें हिन्‍दुओं के हित का कोई रचनात्‍मक कार्यक्रम नहीं। इसका जन्‍म 1920 के दशक के हृदयविदारक मुस्लिम दंगों के वातावरण में आत्‍मरक्षा से कातर हो कर किया गया था और इस‍ दृष्टि से इसकी आवश्‍यकता थी, इसलिए इसमें मुसलमानों के अहित को ही हिन्‍दू का हित मान लिया गया।
इत तीन कारणों से कोई भी आदर्शवादी, प्रतिभाशाली, मानवतावादी तरुण इससे आकर्षित नहीं हो सकता इसलिए इसमें बुद्धिजीवियों का नितान्‍त अभाव ही नहीं रहा अपितु उनकी राजनीतिक सोच जो भी क्‍यों न हो, दूसरे सभी इससे विरक्‍त रहे और इसके कटु आलोचक रहे हैं। मैं विज्ञान आदि के क्षेत्र की कुछ प्रखर प्रतिभाओं का अवमूल्‍यन नहीं करना चाहता जो इससे जुडे, परन्‍तु विज्ञान मनुष्‍य को अधिक शक्तिशाली अधिक दक्ष प्राणी बनाता है, अधिक अच्‍छा मनुष्‍य बनाने का काम मानविकी के विषयों, साहित्‍य, कला, समाजशास्‍त्र, इतिहास, मनोविज्ञान आदि का ही है और इनसे ही हमारा बुद्धिजीवीवर्ग निकलता है, इसलिए संघ से मेरी स्‍वयं वितृष्‍णा रही है, जब कि संघ से जुड़े अनेक लोग मेरे इस विकर्षण को जानते हुए भी, बहुत अच्‍छे मित्र रहे हैं, आज भी है और जैसा कि मैंने पहलेे कहा था किसी अन्‍य संगठन की तुलना में ये कम भले लोग नहीं हैं। यह दूसरी बात है कि ये भी खंडित चेतना के लोग और खंडित मानवता के उपासक रहे हैं। इनसे हमारा विचार विमर्श राजनीतिनिरपेक्ष और विषयसापेक्ष रहा है।

कोई भी दल या संगठन, जाति या धर्म, उस तरह का सांचा नहीं होता जिसे हम फैक्ट्रियों में पाते हैं और जिनसे एक जैसे असंख्‍य नमूने ढल कर निकलते हैं। मनुष्‍य इतने अनगिनत घटकों के संघात से टकराता और बचता हुआ निकलता है जिसका केवल एक पक्ष दल या संगठन, या दूसरी सामूहिकताएं होती हैं। इसलिए हमें उन सामूहिकताओं के बीच भी, जिनके बारे में हमारी धारणा बहुत अच्‍छी होती है, इतने घटिया और फिर भी सफलता की सीढि़यांं चढ़ने में सफल लोग मिलते हैं, और इसके विपरीत उन सामूहिकताओं के बीच जिनके विषय में हमारी राय बहुत खराब होती है, इतने विलक्षण लोग मिल जाते हैं जो हमें हैरानी में डाल देते हैं। हम उनको देख कर, उनकेे व्‍यवहार को परख कर भी, उन पर उस संगठन से उनकेे जुड़ाव के कारण, विश्‍वास नहीं कर पाते। अटल बिहारी वाजपेयी अपने व्‍यक्तिगत संस्‍कारों के कारण ऐसे ही व्‍यक्ति थे, परन्‍तु उनके लंबे शासन के बाद भी क्‍या उनकी स्‍वीकार्यता उस बुद्धिजीवीवर्ग के बीच बन पाई जो यह मानने को बाध्‍य थे कि उनके शासन में और नीतियों में अधिक समावेशिता है।

नरेन्‍द्र दामोदर भाई मोदी दूसरे ऐसे व्‍यक्ति हैं जिन्‍होंने मुझे चकित किया। इनके विषय में तीन घटनाएं ऐसी थीं जिनके कारण मेरी व्‍यक्तिगत राय, जब से उन्‍हें जानना आरंभ किया, अच्‍छी न थी। इनमें एक था, बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस के दसवेंं साल का उत्‍सव मनाने के लिए साबरमती एक्‍सप्रेस से कारसेवकों को भेजना। वे अयोध्‍या में जिस तरह के नारे लगाते हुए, जिस डरावने जोश से चीखते हुए जलूस निकाल कर घूम रहे थे उसकाेे समाचार चैनलों से देख कर मुझे बहुत धक्‍का लगा था और गोधरा घटित होने से पहले ही मैंने अपने आस पास के लोगों से कहा था यह बहुत अशुभ है। इसके परिणाम अनिष्‍टकर हो सकते है। इसके लिए मैं मोदी को सीधे उत्‍तरदायी मानता था। गोधरा में जो कुछ हुआ और फिर गुजरात में जिसे नहीं रोका जा सका या रोकने में शिथिलता बरती गई, उसके लिए मैंने मोदी को कभी अपराधी नहीं माना। वह मुझसे भी हो सकता था। परन्‍तु उनके अपने मंत्रिमंडल के एक प्रभावशाली मंत्री हरेन्‍द्र (?) की हत्‍या हो गई तो उसको लेकर जिस तरह की कानाफूसी आरंभ हुई उसके असर से मैं कभी बाहर नहीं आ सका। उसका सत्‍य क्‍या था यह पता नहीं।

परन्‍तु 2012 से जिस तरह का जनमत बनना आरंभ हुआ, उसमें मोदी एकमात्र विकल्‍प समझे जाने लगे। कारण जो भी रहा हो, पर एक कारण यह अवश्‍य था कि अपने तीसरे कार्यकाल तक की अवधि में उन्‍होंने जिस तरह गुजरात का विकास किया और वहां की शान्ति और सौहार्द को कभी भंग न होने दिया, वह एक महत्‍वपूर्ण घटक था। अन्‍य बातों में वह संघ से अपने जुड़ाव और भाजपा की राजनीति के कारण मुझे आकर्षक नहीं लग सकते थे। पर अपने चुनाव अभियान के आरंभ में ही इस व्‍यक्ति के मात्र एक वाक्‍य ने मेरी समस्‍त शंकाओं को निर्मूल कर दिया। यह था संघ और भाजपा दोनों की सोच और मूल्‍य दृष्टि से, मध्‍यकालीन जकड़बन्‍दी से बाहर आने का एक घोष – देवालय बनाने से अधिक जरूरी शौचालय बनाना है।

सबका-साथ-सबका-विकास वोट बटोरने का एक झांसा भी हो सकता था परन्‍तु यह वाक्‍य । स्‍वच्‍छता अभियान के इस संकल्‍प को जिस तरह मैंने देखा और समझा उस तरह आज तक मेरी बुद्धिजीवी विरादरी में कोई न देख सका। परन्‍तु इसका एक अन्‍य परिणाम यह कि इसके बाद मेरे सारे आकलन सही सिद्ध होते गए और उनके आकलन गलत। ताश के खेल में भी कोई अपने विरोधियों को उस तरह की मात नहीं देता होगा, जितना मोदी ने अपनी प्रत्‍येक चाल, प्रत्‍येक कथन और कार्य से किया।

Post – 2016-10-03

दूसरा अनुभव दूर संचार विभाग का है। इस साल अप्रैल के अन्‍त में मैंने ब्राडबैंड का सालाना पैक लिया जिसके लिए 9950 रु जमा किए। उसके एक हफ्ता बाद मुझे गाजियाबाद आना पड़ा। मैंने अपना लैंडलाइन का फोन और ब्राडबैंड कटवा कर अपने अग्रिम भुगतान का रिफंड लेना था।
ब्राडबैंड लेने के लिए आपको मात्र एक फोन करना होता है और संबंधित अधिकारी कर्मचारी घर आ कर सारी खानापूरी करके उसे लगा देते हैं। यहां तक की प्रक्रिया वही है जो दूर संचार निगम के उदय के बाद लोकप्रियता प्राप्‍त करने वाली निजी कंपनियों की है या जरा सा पीछे क्‍योंकि वे स्‍वयं संपर्क करते हैं कि क्‍या अाप हमसे फोन या ब्राडबैंड या हमारी मोबाइल सेवा लेना पसन्‍द करेंगे। यदि आप ने हां कर दिया तो वे आगे का सारा काम बढ़ कर पूरा कर डालते हैं जिसमें सभी तरह के सत्‍यापन भी होते हैं, पुलिस हमेशा चोरों से कुछ कदम पीछे रह जाती है और सरकारी उपक्रम निजी उपक्रमों से, इसलिए इतना पिछड़ापन क्षम्‍य है।

फाेन काटने के लिए आपने इंटरनेट पर ही सूचित कर दिया कि आप अब उसका उपयोग नहीं करना चाहते तो भी वह उस पूरे महीने का बिल भरने के बाद उसे काटने की बात करेगा पर आप को मनाने की कोशिश और इस कोश्‍ािश में कुछ मक्‍कारियां भी। यह तो धूर्तता की बात हुई, पर नियमत: आपको डिस्‍कनेक्‍शन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता। वाणिज्यिक विभाग होने के कारण यही प्रक्रिया संचार निगम को भी अपनानी चाहिए। एक बार किसी ने कहा, हम इसका प्रयोग नहीं करना चाहते हैं, तो जिस तरह उपकरण लगाने को अपने कर्मचारी भेजता उसी तरह सारी औपचारिकता को उस तिथि को पूरा कर लिया जाना चाहिए और जो उस पूरे महीने का उपकरण का किराया और तब तक का प्रभार बनता हो उसका बिल उसे साैंप दिया जाना चाहिए। पर जो होता है वह किसी पागलखान में पागलों द्वारा की गई अव्‍यवस्‍था की कल्‍पना को बल देता है।

संचार हाट जाकर फोन और ब्राडबैंड दोनों के लिए अलग फार्म लेने होंगे और उसके बाद अद्यतन भुगतान के लिए वहां से पांच किलोमीटर दूर लेखा अधिकारी के पास से उस तिथि तक का भुगतान करने जाना पडा। भुगतान के उसके प्रमाण सहित वहां से चार किलोमीटर दूर एक दूसरे एसडीआ के यहां से फोन काटने की मंजूरी के लिए जाना पड़ा। उसकी मंजूरी के उपकरण संचार हाट के पास जमा कराना था, वह उससे पहले जमा भी नहीं हो सकता था । जमा करने की रसीद वहां से छ: किलोमीटर दूर अपने एसडीओ को फेज तीन में देने जाना पड़ा। फिर इन सभी के प्रमाणों के साथ, उन दोनों फार्मों पर अलग अलग, अपने पहचानपत्र की फोटोप्रतियों के साथ संचार हाट में मूल पैनकार्ड के साथ उपस्थित हो कर आवेदन जमा करने की नौबत आई । इसके बाद उसे यह आवेदन लेखा अधिकारी को अग्रसारित करना था जो देय कनेक्‍शन कटने की तिथि के ब्राडबैंड का प्रभार समायोजित करके रिफंड का चेक मेरे पते पर भेजने के लिए उत्‍तरदायी था।

मैंने इस बदहवास करने वाली प्रक्रिया की सारी अपेक्षाएं पूरी करके अपना आवेदन 10 मई को जमा कर दिया। तीन महीने बाद भी जब रिफंड न मिला तो संचार हाट पहुंचा । अधिकारी से नाम पूछा अौर शिकायत की बात की ताेे वह घबराई । लेखा अधिकारी से बात करती रही। उसने कहा, जो आवेदन आपने दिया था उसकी फोटो कापी लेकर आइये तक पता करूंगी। मैंने अपना नाम और पता बताया, जिस दिन को आवेदन दिया था उसकी तारीख बताई और कहा आपने किस तारीख को इसे भेजा है यह डिस्‍पैच रजिस्‍टर में देख कर बता दें। इसके लिए वह राजी नहीं हुई पर लेखा अधिकारी से बात कराई जिसने कहा, मेरा कोई बकाया नहीं है। इस तरह की कोई स्‍कीम ही नहीं है।
मैं लौटा तो पता चला कि मेरी गाड़ी के ग्‍लवबाक्‍स में ही उस आवेदन और भुगतान आदि की प्रतियां रखी हैं । मैं सुरेन्‍द्र सिंह नाम के उस लेखा अधिकारी के पास पहुंचा, और उसके सामने वह कागज रखते हुए पूछा, इसका रिफंड क्‍यों नहीं भेजा गया।
उसका चेहरा देखने लायक था। बिना काेई जवाद दिए वह अपने कंप्‍यूटर पर जुट गया। कई तरह से जोड़ लगाता और उसे कामज पर नोट करता रहा । फिर उठा और अपने आफिस की ओर गया। मैंने सोचा चेक बनाने गया है। लौटा तो हाथ में वह फाइल थी जो उसे संचार हाट से भेजी गई थी। हिसाब वह लगा ही चुका था, यदि कुछ लिखना था तो अपना नोट लिखना था, पर वह फिर उसी तरह कई तरह के हिसाब लगाता रहा और अन्‍त में जब नोट पूरा किया तो मैने कहा, अब चेक भी दे दीजिए।
उसने कहा, आठ हजार पांच सौ छब्‍बीस का रिफंड बनता है। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। उसने कहा, चेक आपके पते पर भेजा जाएगा। अगस्‍त के दूसरे हफ्ते की कोई तारीख थी। वह चेक जब पन्‍द्रह सितंबर तक नहीं पहुंचा तो इस बार मैंने इस बात की परीक्षा लेनी चाही कि आप सीधे मंंत्री को, यहां तक कि प्रधानमंत्री को ईमेल से अपनी शिकायत भेज सकते हैं यह कहा तो जाता है परन्‍तु अपनी इतनी व्‍यस्‍तता में उनके पास इसके लिए समय भी होता होगा।
मैंने एक शिकायत मुख्‍य सतर्कता अधिकारी को और उस शिकायत का हवाला देते हुए लालफीताशाही को दूर करने के लिए दूरसंचार मंत्री को 15 सितंबर को ईमेल से पत्र लिखा।

क्‍या आप विश्‍वास कर पाएंगे कि इसके सात दिनों के भीतर अर्थात् 22 सितंबर को वह रिफंड मुझे भेज दिया गया। उसके पेआर्डर पर अगस्‍त की वही तिथि थी जिस पर मैं उससे मिला था। वह सवा महीने तक इस प्रतीक्षा में बैठा रहा कि उसका हिस्‍सा मिले तो वह रिफंड भेजे और संभवत: अगले एक डेढ़ महीने के बाद पर तीन महीने से पहले कभी भेजता। 24 सितंबर को वह मुझे स्‍पीडपोस्‍ट से मिल गया। उसे जमा भी करा दिया। मैंने इसके लिए दूरसंचार मंत्री को धन्‍यवाद भी नहीं दिया और आशा करता हूं वह जल्‍द ही इस प्रक्रिया में भी बदलाव लाएंगे।
*********

दो
अब हम यथा संभव इन दोनों अनुभवों के कुछ दुखद पहलुओं का उल्‍लेख करेंगे और इस दिशा में भाजपा सरकार ने जो कुछ किया है या नहीं कर पाई है या नहीं कर पाएगी इसका अपना आकलन आगे की किश्‍त में प्रस्‍तुत करेंगे जिसमें मुझसे चूक भी हो सकती है और इसकी ओर संकेत करना दूसरों का काम है।
1. भ्रष्‍टाचार नीचे से ऊपर तक इस तरह जड़ जमा चुका था कि सभी को पता था कि सभी अपने स्‍तर पर लेते देते हैं इसलिए इसमें लज्‍जा की कोई बात नहीं, कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, फंस जाने पर अधिक से अधिक उसका मुंह बंद करना पड़ सकता है जिसकी फिर भरपाई होती रहेगी, अत: डरने की भी कोई बात नहीं।

2. हम समझते हैं आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से धॉंधली को रोका जा सकता है, पर हम पाते हैं कि आधुनिक साधनों का घालमेल में अधिक सफलता से उपयोग किया जा सकता है। कंप्‍यूटर के आंकड़े अधिक विश्‍वसनीय माने जाते हैं, परन्‍तु हाथ से लिखे नोट में कोई फेरबदल करने पर जो काटपीट बाद में की जाती है वह पकड़ी जा सकती है, कंप्‍यूटर पर उसे एडिट करके पूरी तरह मिटाया जा सकता या बदला जा सकता है। एक ही कंप्‍यूटर पर जैसा मेरे मामले में हुआ, समानान्‍तर दो फाइलें तैयार की जा सकती हैं जिनमें एक में फर्जी आंकड़े भर दिए जाएं और दूसरा सही हो। यदि सही जांच हो तो संपादन का इतिहास और उसमें कब कब हेर फेर किया गया है इसे पकड़ा जा सकता है, परन्‍तु यह जटिल प्रक्रिया है जिसका निर्वाह जब किसी को फंसाने की ठान लें तभी किया जा सकता है।
3. रिश्‍वतखोरी ने आत्‍मसम्‍मान को इस तरह नष्‍ट कर दिया है कि मेरे सामने ही एक बार पूरी कवायद के बाद फिर दुबारा वीर कवायद शुरू की जा सकती है और मेरी झिड़की को झेलते हए दो बार माफी मांगने की नौबत आ सकती पर व्‍यवहार में सुधार नहीं।

4. यह समझ लेने के बाद भी कि यहां से कुछ नहीं निकलने वाला, इसे अपनी शान के खिलाफ मानते हुए, सबक सिखाने की कोशिश जो रिफंडराशि को गलत खाते में भेजने की कोशिश में की गई।

5. हमारे अपने चार्टर्ड एकाउंटेट का मुंह खट्टा होने का कारण यह कि उसे रिश्‍वत देने के नाम पर जो देना था उसके आधे से वंचित होना पड़ा। सारे निपटारे के बाद दुबारा एक लाख से अधिक के कर की सूचना के पीछे इरादा यह कि अब भी घबरा कर चार्टर्ड लेखाकार को केस सौंपा तो उसके माध्‍यम से सौदेबाजी हो सकेगी।

अब हम समझ सकते हैं कि रिश्‍वत लेने वाले विभागों के सभी कर्मचारी, छोटे से बड़े तक, दलाली करने वाले वकील और चार्टर्ड एकाउंटैंट भ्रष्‍टाचार के जनक भी हैं और इसके कम होने या समाप्‍त करने वाले को अपने लिए बुरे दिनों का जनक मानने को विवश, जब कि सामान्‍य जन को इससे राहत मिलनी है, इसलिए उसके लिए ये अच्‍छे दिनों का आरंभ है। अत: यदि कोई बेसब्री दिखाता है कि अच्‍छे दिन तो आए ही नहीं तो यह समझे वह उस बुरे तन्‍त्र का हिस्‍सा रहा है और उसके सचमुच बुरे दिन आ चुके हैं।

अब हम दूसरे अनुभव को लें:

1. मैं नहीं जानता कि सबसे अधिक साधन संपन्‍न होने के बाद भी महानगर टेलीफोन निगम और बीएसएनएल के राउटर और मोडेम इतने खराब क्‍यों हैं कि वाइफाई सटे कमरे तक नहीं पहुंच पाता। उसका सिम इतना बेकार क्‍यों है कि उस पर आवाज कट जाती है, अक्‍सर सिग्‍नल मिलता ही नहीं। उसके सर्वर अक्‍सर और खासे समय के लिए डाउन क्‍यों रहते हैं कि जिन संस्‍थाओं को उनको अपनाने की विवशता है उनमें अक्‍सर घंटों काम रुका रहता है, जैसे राष्‍ट्रीय बैंकों में।

2. प्रक्रिया को इतना जटिल क्‍यों बना दिया गया है कि उससे घबराहट पैदा हो, लोग भाग खड़े हों और निजी कंपनियों को इसका लाभ मिले।

3.व्‍यवहार के मामले में इतना जंगलीपन क्‍यों है जिससे वितृष्‍णा पैदा हो।
इनका एक ही उत्‍तर मिलता है कि दूरसंचार निगमों के उच्‍च अधिकारियों को निजी कंपनियों ने मिल कर खरीद लिया है और वे जानबूझ कर ऐसी रुकावटें और असुविधाएं पैदा करते आए हैं जिससे उपभोक्‍ता उनसे विरक्‍त हों और निजी कंपनियों की ओर भागें। यह बात कुछ विचित्र लग सकती है परन्‍तु मुझे पता है कि जब व्‍यापारियों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए कनाट प्‍लेस में सुपर मार्केट बना था तो उसके बगल के शंकर मार्केट में मुर्दनी छा गई थी। रेट में इतना फर्क था कि उधर लोगों ने रुख करना बन्‍द कर दिया। कुछ दिन झेलने के बाद उनके संगठन ने सुपरमार्केट के सुप्रीम को पटा लिया। फिर धीरे धीरे हालत वह हो गई जो आज है। भूला भटका आदमी ही सुपरमार्केट की ओर रुख करता है।
4. कंप्‍यूटर में हिसाब करना अधिक कठिन नहीं होता, उसके लिए अलग कागज पर लिखने की जरूरत भी नहीं होती। एक निर्णय पर पहुंच जाने के बाद कई तरह के विचार की भी नहीं। आंकड़े भर दें, नतीजा सामने आ जाएगा या उसी के गणक से जोड़ घटा लीजिए। लेखा अधिकारी एक घंटे तक गणना करते हुए इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि मैं अपनी ओर से कुछ पहल करूंगा। उससे ऊब कर वह फिर फाइल ला कर उसी तरह समय लगाता रहा । अपनी ओर से कुछ कहना नहीं चाहता था और विलंब से मुझे पूरी तरह निराश कर देने के बाद मुझे ‘सही तरीका’ अपनाने को बाध्‍य कर रहा था। कई तरह के हिसाब में भी कई तरह की सोच थी। यदि कुछ मिल जाय तो जिस दिन सूचित किया कि टेलीफाेन और ब्राडबैंड नहीं रखना है उस दिन तक का भाड़ा काटा जा सकता है। उपभोग तो शून्‍य के आस पास था। नहीं मिला तो जितना अधिक हो सकता है। (आगे जारी)