Post – 2019-06-18

इस्लाम का प्रचार (ङ)

मोहम्मद साहब के सामने अब कोई उपाय बचा नहीं था। अल्लाह के संदेश को आधार बना कर, लोगों को इस बात का कायल करना कि वे अपने देवताओं देवियों को न मानें, मक्का वासियों की नजर में इतना गलत था कि उनको मक्कार, कपटी या सिरफिरा मानने के अतिरिक्त कोई चारा न था।

मक्का सभी अरब कबीलों का तीर्थस्थल था। उसे पवित्र माना जाता था। पवित्र मानने का कारण यह कि यहां उनके देवियों देवताओं का निवास था। उन्ही देवों और देवियां की वह निंदा कर रहे थे, और समझा रहे थे कि अल्लाह के आदेश से ऐसा कर रहे हैं। उन्हें भुला देने के बाद वह आधार ही समाप्त हो जाता था जिस पर मक्का के निवासी गर्व करते थे। जिसके कारण लगने वाले वार्षिक मेलों से अच्छी खासी कमाई हो जाती थी।

मक्का में देवताओं की तुलना में देवियों की संख्या बहुत अधिक थी। वे अल्लाह के फरिश्तों को भी परियों सुंदरियों के रूप में जानते थे। कोई फरिश्ता दूसरे देवियों की निंदा कैसे कर सकती। देवियों को वे अल्लाह की बेटियां मानते थे। अल्लाह अपनी ही बेटियों को भूलाने या मिटाने की बात कैसे कर सकता था?

उनके बाप दादा जाने कबसे इन देवियों की पूजा करते आए थे, वह सभी गलत और अकेला यह आदमी जो हमसे किसी मायने में अलग नहीं है, सही कैसे हो सकता है? फिर भी यदि कोई देवियों देवताओं को न माने इससे उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। शिकायत इस बात से थी कि मुहम्मद उनको अपने देवी देवताओं को मानने से रोक रहा था।

ऐसे आदमी को सहन नहीं किया जा सकता था, मक्का के लोग धार्मिक सहनशीलता के आदी थे पर अपने धार्मिक विश्वास में किसी तरह का हस्तक्षेप सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए वे कुरान के अर्थात मुहम्मद के इलहामों को सच मानने वालों का तिरस्कार कर रहे थे:

“ये सत्य का इंकार करने वाले लोग कहते हैं , इस कुरान को कदापि न सुनो और जब यह सुनाया जाए तो इसमें विघ्न डालो, कदाचित इसी तरह तुम दबा लो ।” …41.26, हा.मीम अलसजदा.
The Unbelievers say: “Listen not to this Qur’an, but talk at random in the midst of its (reading), that ye may gain the upper hand!”

मोहम्मद को यह अजीब लगता था एक ओर तो ये लोग बेटी पैदा होने पर ऐसा अनुभव करते हैं मानों उनकी आबरू ही चली गई, उनके बारे में शर्म से बात करते हैं, और लानत से बचने के लिए लड़कियों की जान तक ले लेते हैं और दूसरी ओर उन्हीं देवियों को खुदा की लड़कियां कह कर पूजते हैंः
And [thus, too,] they ascribe daughters unto God, who is limitless in His glory [63] – whereas for themselves [they would choose, if they could, only] what they desire. 16.57
HAS, THEN, your Sustainer distinguished you by [giving you] sons, and taken unto Himself daughters in the guise of angels? [49] Verily, you are uttering a dreadful saying! – 17:40

असहिष्णुता दोनों पक्षों की इतनी बढ़ गई थी बीच का कोई रास्ता निकलना मुश्किल था। मोहम्मद कुछ समय तक निष्क्रिय पड़े रहे। फिर उन्होंने एक तरीका निकाला कि मक्का में आने वाले यात्रियों के बीच अपने मत का प्रचार करें। कुरेशियों के प्रतिरोध ने उनको ऐसा करने को बाध्य कर दिया था। मगर एक ओर तो बाहर से आने वाले अपरिचितों को वह अपने इलाही संदेश का भरोसा देकर अपनी बात समझाते दसरी ओर उनके पीछे अबू जह्ल उन्हें यह समझाता फिरता कि इस आदमी की बातों पर गौर मत करो।

इसका लाभ मोहम्मद को मिलता, लोग सोचते उसके मंतव्य में ऐसा दम तो है जिससे हमारे विचार बदल जाए। परंतु अबू लहाब उनके ही परिवार का था, उनके ही खानदान का था और फिर भी उनका कायल नहीं हुआ था इसलिए जब वह कहता यह आदमी मक्कार है, झूठे दावे करता है, इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता तो लोगों के दिमाग पर ।इसका असर होता था।

मोहम्मद इन्हीं अनिश्चितताओं के बीच दिन काट रहे थे कि मदीने से आने वाले एक खजराज कबीले के एक यात्री दल ने उनसे मिलने के बाद इस्लाम कबूल कर लिया।(a few people from Khazraj tribe came from Madina as pilgrims. they met with Mohammed and expressed themselves favourable to his views, And he propounded to them the doctrine of Islam and recited portions of Qur’an). उन्हें मदीना आने का आमंत्रण लिया।

मदीना अभी तक मक्का से उत्तर की ओर चलने वाले सौदागरों के बीच का एक पड़ाव था। उसमें मक्का जैसी पवित्रता का भाव नहीं था। उनके लिए यदि एकेश्वरवादी होना ही था और उसकी संभावना अरब स्वाभिमान की रक्षा करते हुए मुहम्मद ने पैदा की थी तो , उनकी मुरादें पूरी हो रही थीं।

मुहम्मद के रिश्ते नाते के जो लोग मक्का में थे वे मुंह फेर चुके थे, परंतु ननिहाल के संबंध से मदीना में उनके अपने लोग थे। हिजरत इन्हीं परिस्थितियों में की गई परन्तु इस घटना के कुछ समय बाद।

यहां हम जिस पक्ष पर बल देना चाहते हैं वह यह कि पूरब ( पूरब का अर्थ पश्चिम के लिए हिंदुस्तान हुआ करता था) से आने वाली मीठी हवाओं का दौर समाप्त होने पर आ रहा था। गीता का ज्ञान हो या, भारतीय चिंता धारा का प्रभाव हो, काबा में रहते हुए, अपने सही होने के प्रमाण स्वरूप, मुहम्मद ने लगातार अपने मंतव्य को भारतीय मुहावरों में दुहरानेे का प्रयत्न किया और मानवीय हस्तक्षेप का विचार उनके मन में मक्का में रहते हुए कभी नहीं आया।

मक्का में उतरे सूरे और आयतें भारतीय मनीषा से इतना मेल खाती हैं कि उन्हें उदाहृत करने लगें तो अलग से एक पोथा तैयार हो जाएगा परंतु यहां इतना ही याद दिलाना पर्याप्त है कि वह अपनी से असहमत होने वालों को दंडित करने में इंसानों की कोई भूमिका नहीं मानते। सबको देखने वाला ईश्वर है, जांचने वाला ईश्वर है, दंड देने वाला ईश्वर है, मनुष्य के रूप में हम अपना बचाव सदाचार और आत्म नियंत्रण से ही कर सकते हैं। इसे समझने के लिए कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना चाहेंगे:
Those who practise not regular Charity, and who even deny the Hereafter. For those who believe and work deeds of righteousness is a reward that will never fail.41.7-8
And no one will be granted such goodness except those who exercise patience and self-restraint,- none but persons of the greatest good fortune.41.35
And if (at any time) an incitement to discord is made to thee by the Evil One, seek refuge in Allah. He is the One Who hears and knows all things.41.36
No falsehood can approach it from before or behind it: It is sent down by One Full of Wisdom, Worthy of all Praise.41.42
Whoever works righteousness benefits his own soul; oever works evil, it is against his own soul: nor is thy Lord ever unjust (in the least) to His Servants.41.46

Man does not weary of asking for good (things), but if ill touches him, he gives up wh5.all hope (and) is lost in despair.41.49

When We bestow favours on man, he turns away, and gets himself remote on his side (instead of coming to Us); and when evil seizes him, (he comes) full of prolonged prayer! 41.51ुख में भूल जाता है, दुख में याद करता है।

परमात्मा ही समग्र जगत का निधान है इसकी छाया इस रोशनी में समझने का प्रयत्न करें:
Ah indeed! Are they in doubt concerning the Meeting with their Lord? Ah indeed! It is He that doth encompass all things!41.54

और हे नबी, भलाई और बुराई समान नहीं है। तुम बुराई को उस नेकी से टालो जो उत्तम हो। तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ जिसका वैर पड़ा हुआ था वह आदमी ही मित्र बन गया है। यह गुण उन्हें ही प्राप्त होता है, जो धैर्यवान हैं, यह पद उन्हें ही प्राप्त होता है, जो भाग्यवान हैं।41

…And indeed, your Lord is full of forgiveness for the people despite their wrongdoing, and indeed, your Lord is severe in penalty. Sura Ar-Ra’d
13.6

Post – 2019-06-16

इस्लाम का प्रचार (घ)

इस्लाम के प्रचार का दसवां साल मोहम्मद साहब के लिए बहुत दुखद रहा। उनकी जीवनसंगिनी और मार्गदर्शिका खादिजा का इंतकाल हो गया। दूसरी दुर्घटना: उनके चाचा अबू तालिब की छत्रछाया उठ गई जिनके जीते जी मोहम्मद से घोर असहमति के बावजूद कभी किसी ने उनको शारीरिक रूप से क्षति नहीं पहुंचाई थी। वह उस दुर्दिन में भी उनके साथ खड़े रहे और उनके होने के कारण ही बानू हाशिम कुनबे के वे लोग भी जो इस्लाम का विरोध करते थे, भारी तकलीफ बर्दाश्त करते हुए भी मोहम्मद के समर्थन में खड़े हो गए थे जब उनका बहिष्कार हुआ था।

उनके मरने की घड़ी तक मोहम्मद साहब लाख कोशिश करते रहे कि वह इस्लाम कबूल कर ल, परंतु उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। उन्हीं के कारण मोहम्मद को इलहाम हुआ था : “अपने करीबतर रिश्तेदारों को डराओ. कहीं तुम जान पर खेल जाओगे उनके गम में पर कोई ईमान न लाए।”

मोहम्मद शियाब दर्रे क बहिष्कार के दिनों में भी अपने कुनबे के लोगों को मूर्ति पूजा और बहुदेववाद की बुराइयां समझाते और अल्लाह पर ईमान लाने की दलीलें देते रहे। परंतु उनके प्रस्ताव में ऐसा कुछ नहीं था जो उन्हें अपने विश्वास से डिगा सके।

सारा खेल विश्वास करने पर टिका था। वे अपने इष्ट देवो/ देवियों पर विश्वास करते या अल्लाह पर। अल्लाह की नाराजगी से उनका कुछ नहीं बिगड़ा था। अल्लाह की मेहरबानी के कारण उस पर यकीन लाने वालों को समाजिक बहिष्कार झेलना पड़ रहा था, और उनके साथ हमदर्दी के कारण हाशिम कुनबे के लोगों को भी दुर्दिन से गुजरना पड़ रहा था। इसलिए मोहम्मद के सुझाव का न तो उन पर असर हुआ, न चाचा अबू तालिब के ऊपर कोई असर हो सकता था। अंतिम दिनों तक, जिंदगी की आखिरी सांस तक मुहम्मद उनसे मिन्नतें करते रहे, पर उन्होंने यह कह कर इंकार कर दिया था कि यदि तुम्हारी बात मान भी हूं तो लोग समझेंगे मैंने डर कर ऐसा किया।

मोहम्मद उसके बाद भी उनके लिए अल्लाह से क्षमायाचना करते रहे और फिर उन्हें लगा रिश्ते-नाते, नेकदिली, उपकार, किसी भी वजह से किसी इंसान को जिसने इस्लाम न कबूल किया हो कोई रियायत नहीं दी जा सकती । विचार इल्हाम के रूप में सामने आया:
“पैगंबर को यह शोभा नहीं देता कि यह स्पष्ट हो जाने के बाद कि उनकी जगह धधकती हुई आग में है, वह किसी बहुदेववादी के लिए क्षामायाचना करें, वह सगा रिश्तेदार ही क्यों न हो। इब्राहिम ने भी अपने पिता के लिए क्षमायाचना की थी क्योंकि उन्होंने भी उनसे इसका वादा किया था, लोकिन जब उनकी समझ में आ गया कि वह अल्लाह के दुश्मन थे तो उन्होंने उनसे कोई नाता नहीं रखा। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि इब्राहिम बहुत कोमल हृदय के थे। ” सूरा तौबा, 113-114. [[1]]
[[1]] It is not (fit) for the Prophet and those who believe that they should ask forgiveness for the polytheists, even though they should be near relatives, after it has become clear to them that they are inmates of the flaming fire.[9.113]
And Ibrahim asking forgiveness for his sire was only owing to a promise which he had made to him; but when it became clear to him that he was an enemy of Allah, he declared himself to be clear of him; most surely Ibrahim was very tender-hearted forbearing.[9.114]

इसकी मनाही इसी सूरे में इससे पहले भी है। सलाह दी गई थी कि ““ऐ ईमान लाने वालो! अपने बाप और अपने भाइयों को अपना मित्र न बनाओ यदि ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र उन्हें प्रिय हो। तुममें से जो कोई उन्हें अपना मित्र बनाएगा, तो ऐसे लोग अत्याचारी होंगे। [9.23]

अबू तालिब को तो अभी तक जहन्नुम रसीद नहीं हुआ, यह दावा हम कर सकते हैं, क्योंकि कयामत का दिन अभी तक नहीं आया, आगे भी नहीं होगा, क्योंकि विज्ञान ने अल्लाह का घर ही उजाड़ दिया, परंतु अबू तालिब के गुजर जाने के बाद मक्का में मुहम्मद साहब का जीना अवश्य मुहाल हो गया।

अब अपने ही परिवार के लोग जो अबू तालिब के जीवन काल में उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े हो जाते थे, उनका साथ छोड़ कर मक्का वासियों के साथ दिखाई दे रहे थे। यदि मोहम्मद साहब की नजर में वे विधर्मी थे तो उनकी नजर में मोहम्मद साहब विधर्मी थे। हम धर्म श्रद्धा से नहीं, औचित्य के आधार पर वस्तुस्थिति को समझना चाहते हैं, इसलिए स्वीकार्यता या तो संख्या बल के आधार पर तय होती है अथवा तार्किक आधार पर। बहुदेववाद को मानने वालों के बीच मोहम्मद के समर्थकों की संख्या नगण्य थी। तार्किक आधार परंपरा का था, या परिणाम का । परिणाम यह था कि मक्का वासियों को मोहम्मद जिन बातों का डर दिलाया करते थे उनसे उनका कुछ नहीं बिगड़ा था, जबकि मोहम्मद के अनुयायियों की हालत दयनीय थी। अल्लाह पर देव वादियों के देवता और देवियां भारी पड़ रही थी। इसलिए मोहम्मद के अपने कुनबे का असहयोग स्वाभाविक था।
sooth the Infidels are absorbed in pride, in contention with thee…..And they marvel that a warner from among themselves hath come to them; and the Infidels say, “This is a sorcerer, a liar: SURA XXXVIII.–SAD. 1

परंतु इस बात पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि अबू तालिब तक के लिए क्षमा याचना से मुकरने और नरक यातना का विचार और इलहाम के रूप में इसका प्रकट होना उस हताशा का परिणाम तो नहीं।

कठिन से कठिन परिस्थितियों में मुहम्मद का मनोबल बनाए रखने वाली खादिजा के अभाव में उनकी व्यग्रता और बढ़ गई थी। वह बहुत चिंतित रहने लगे। रौदतुल अहबाब के अनुसार खादिजा की मौत के कुछ महीने बाद जब एक मित्र ने सुझाया, “आप फिर से घर क्यों नहीं बसा लेते?उन्होंने कहा, किसके साथ? उसने सुझाया यदि आप किसी बेवा से शादी करना चाहते हैं तो अबीसीनिया में शहीद हुए बंदे की विधवा सऊदा है, और यदि किसी कुंवारी से शादी करना चाहते हैं तो अबू बक्र की लड़की आयशा है। मोहम्मद ने कहा तुम्हारी बात ही सही, मैं दोनों से निकाह करना चाहूगा।

50 साल के मुहम्मद ने एक और तो 40 साल की सऊदा से विवाह किया, दूसरी ओर 6 या 7 साल की आयशा से । मोहम्मद साहब ने 15 शादियां कीं। इनकी अपनी समस्याएं भी थी, हम जिनके विस्तार में नहीं जाना चाहते। यह एक जटिल समस्या है, और इसका मजाक नहीं उड़ाया जा सकता है। इतिहास में सत्य की खोज करने वालों को सीता के चरित्र पर विचार करने के साथ मोहम्मद साहब के चरित्र पर विचार करना चाहिए था। एक गल्प है, दूसरा इतिहास का सच, परंतु ऐसा सच जिसमें कुछ विचलनें तो हैं, परंतु इनके साथ जिम्मेदारी का एक बोध भी है, जिसे समझने के लिए धैर्य और संवेदनशीलता की अपेक्षा होती है। इसका मखौल उड़ाने वालों ने उस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया।

जो भी हो, मक्का में रहना दुश्वार हो गया था। इसलिए मोहम्मद ने मक्का छोड़कर तैफ में पनाह लेने का निश्चय किया। सोचा वहां मक्का वालों जैसी दुर्भावना का सामना नहीं करना पड़ेगा। तैफ के लोग कुरेशियों से खार खाते थे। परंतु वे भी देवोपासक थे, और जब मुहम्मद ने अपने मत का प्रचार करना चाहा तो उन्होंने उन पर पत्थर मारे। वह घायल हो गए और किसी तरह जान बचा कर वापस आए।

Post – 2019-06-15

इस्लाम का प्रचार (ग)

पांचवे साल चार महिलाओं और ग्यारह पुरुषों का एक जत्था अबीसीनिया पहुँचा था। जब यह पता चला कि कुरैशों से सुलह होने वाली है तो इनमें से कुछ लौट आए थे, पर जब मुहम्मद ने देवताओं की निंदा आरंभ कर दी और उससे नाराज होकर कुरैशों ने उन पर अत्याचार करना आरंभ किया तो अबीसीनिया में शरण लेनेवालों की संख्या तिरासी तक पहुंच गई। इसके बाद छठें वर्ष में जिन दो धर्मांतरणों उल्लेख हम पहले कर आए हैं उससे एक नए आत्मविश्वास का संचार हुआ तो दुबक कर दिन गिनने की जगह सीधे काबा में पहुंच कर शक्ति प्रदर्शन की हिम्मत आ गई। इससे इक्के दुक्के कुरैशियों ने धर्म परिवर्तन किया हो सकता है, पर कटुता पहले से अधिक बढ़ गई। मुसलमान भी काबा में पहुंच सजदा करने लगे। मुहम्मद लोगों को डराने के लिए यह कहनेे लगे कि काबा पर बहुत बड़ी विपदा आने वाली है। मक्का वालों पर इसका भी असर नहीं हुआ। वे उन्हें सिद्ध पुरुष की जगह धूर्त समझते थे।

कुरैशियों ने उन्हें सजा देने का एक नया तरीका सामाजिक बहिष्कार का अपनाया।{1} उनके साथ खान-पान, शादी-व्याह, लेन-देन किसी तरह का रिश्ता रखना बंद कर दिया। इसे एक चर्मपत्र कर लिख कर काबा में टांग दिया गया। इस बार अबु लहाब को छोड़कर पूरे बानू हाशिम कुनबे ने, जो मुसलमान नहीं बने थे, उन्होंने भी मुहम्मद साहब का साथ दिया।इस तरह कुरैशियों मैं आपस में ही फर्क पैदा हो गया। हाशिमों को अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों से अलग, शिआब दर्रे के इलाके में बसना पड़ा और खासी आर्थिक किल्लतों का सामना करना पड़ा। खाने के लाले पड़ गए। यह दंड 3 साल तक चला। बाद में कुरैशियों को लगा उनसे अत्याचार हो रहा है। कारण, बानू हाशिम कुनबे के लोग भी इस्लाम का उसी तरह विरोध करते थे, जैसे मक्का के दूसरे लोग। प्रतिबंध हटाने के विषय में मुसलमानों में यह विश्वास है कि जिसे चर्म पत्र पर यह दंड विधान लिखा गया था उसे दीमक खा गई, सिर्फ एक टुकड़ा जिस पर ‘अल्लाह’ लिखा हुआ था, बचा रह गया था।
{1} The Quraysh gathered together to confer and decided to draw up a document in which they undertook not to marry women from Banu Hashim and the Banu al Muttalib, or to give them women in marriage, or to sell anything to them or buy anything from them. They drew up a written contract to that effect and solemnly pledged themselves to observe it. They then hung up the document in the interior of the Kaaba to make it even more binding upon themselves. When Quraysh did this, the Banu Hashim and the Banu al-Muttalib joined with ‘Abu Talib, went with him to his valley and gathered round him there; but ‘Abu Lahab ‘Abd al Uzza b. ‘Abd al-Muttalib left the Banu Hashim and went with the Quraysh supporting them against ‘Abu Talib. This state of affairs continued for two or three years, until the two clans were exhausted, since nothing reached any of them except what was sent secretly by those of the Quraysh who wished to maintain relations with them”.
Taken from Tarikh al-Tabari, Volume 6 page 81 – Muhammad at Mecca (book), translated by William Montgomery Watt & M.V. MacDonald
The terms imposed on Banu Hashim, as reported by Ibn Ishaq, were “that no one should marry their women nor give women for them to marry; and that no one should either buy from them or sell to them, and when they agreed on that they wrote it in a deed.” Francis F. Peter, Mecca: A History of the Muslim Holy Land, Priceton Uni. Press, 1994 p.54. cited in Wikipedia

मोहम्मद इस बीच भी अविचलित भाव से मूर्ति पूजा की शिकायत करते हुए एक अल्लाह में यकीन करने की हिमायत करते रहे। लोग उनकी बात पर पूरा ध्यान नहीं दे रहे इसलिए खुदा से भी शिकायत करते तेरी मर्जी होती तो क्या यह हाल तो न होता। Oh Lord, if thou willedest, it would not be thus.
निराशा का यही दौर था, जब और कोई चारा न देख कर, उन्होंने अल्लाह पर यकीन लाने वालों के लिए हूरों और गिलमों और शराब की धाराओं वाली जन्नत के प्रलोभन और उससे मुकरने वालों के लिए जहन्नुम की यात्रा के भय का सहारा लिया:
SURAH AL-WAQI’AH
….12. In Gardens of Bliss.
13. A number of people from those of old,
14. And a few from those of later times.
15. (They will be) on Thrones encrusted (with gold and precious stones),
16. Reclining on them, facing each other.
17.Round about them will (serve) youths of perpetual (freshness),
18. With goblets, (shining) beakers, and cups (filled) out of clear-flowing fountains:
19. No after-ache will they receive therefrom, nor will they suffer intoxication:
20. And with fruits, any that they may select:
21. And the flesh of fowls, any that they may desire.
22. And (there will be) Companions with beautiful, big, and lustrous eyes’
23. Like unto Pearls well-guarded.
24. A Reward for the deeds of their past (life).
25. Not frivolity will they hear therein, nor any taint of ill’
26. Only the saying, “Peace! Peace”.
27. The Companions of the Right Hand’ what will be the Companions of the Right Hand?…
30. In shade long-extended,
31. By water flowing constantly,
32. And fruit in abundance.
33. Whose season is not limited, nor (supply) forbidden,
34. And on Thrones (of Dignity), raised high.
35. We have created (their Companions) of special creation.
36. And made them virgin – pure (and undefiled),
37. Beloved (by nature), equal in age’
38. For the Companions of the Right Hand.
39. A (goodly) number from those of old,
40. And a (goodly) number from those of later times.
41. The Companions of the Left Hand’ what will be the Companions of the Left Hand?
42. (They will be) in the midst of a Fierce Blast of Fire and in Boiling Water,
43. And in the shades of Black Smoke:
44. Nothing (will there be) to refresh, nor to please:
45. For that they were wont to be indulged, before that, in wealth (and luxury),…
46. In Book well-guarded,
47. Which none shall touch but those who are clean:
48. A Revelation from the Lord of the Worlds.
कयामत के दिन सबसे आगे ईमान से लिए कुर्बान होने वाले, दायें ईमान लाने वाले और बायें ईमान से मुंह फेरने वाले हैं।

“अगलों में से यह बहुत होंगे, और पिछड़ों में से कम। जड़ित एवं विभूषित तख्तों पर तकिए लगाए आमने सामने बैठेंगे। उनकी मजलिसों में सार्वकालिक किशोर प्रवाहित स्रोत की शराब से भरे प्याले और कंटर और पान पात्र लिए दौड़ते फिरते होंगे जिसे पीकर न उनका सिर चकराएगा न की उनकी बुद्धि में विकार आएगा। और वे उनके सामने नाना प्रकार के स्वादिष्ट अल्पेश करेंगे जिसे चाहें वे चुन ले, और पक्षियों के मांस पेश करेंगे जिस पक्षी का चाहें, खाएं। उनके लिए सुंदर आंखों वाली अप्सराएं ( हूरें) होगी, ऐसी सुंदर जैसे छिपाकर रखे हुए मोती। यह सब कुछ ओपन करने के बदले के रूप में अपने मिलेगा जो ये दुनिया में करते थे। वहां वे कोई बकवास या गुनाह की बात न सुनेंगे। जो बात भी होगी ठीक ठीक होगी। ….और बायें पक्ष वाले के दुर्भाग्य का क्या पूछना। ब्लू लपट और खोलते हुए पानी और पाली दुबे की छाया में होंगे जो न शीतल होगा, सुखदायक। …” (मुहम्मद फारुख खान का भावानुवाद) ।

Post – 2019-06-14

इस्लाम का प्रचार (ख)

अपने मजहबी अभियान के छठें साल में दो खास लोग बड़े नाटकीय ढंग से मुसलमान बने – इनमें एक थे उनके चाचा, हमजा बिन मुत्तलिब। खानदान की इज्जत का सवाल न आ गया होता तो वह किसी कीमत पर मुसलमान नहीं बनते।

हुआ यह कि एक कुरैश अबू जह्ल मुहम्मद को गालियां देने लगा। इसकी खबर जब हमजा को लगी तो खानदानी इज्जत देवताओं पर भारी पड़ गई। वह सीधे काबा पहुंचे जहां वह दूसरे कुरैशों के साथ बैठा था। उन्होंने जह्ल को एक घूंसा रसीद करके ललकारा, मैं भी मुसलमान हो गया। हिम्मत हो ताे मुझे हाथ लगा के देख और अगले घूंसे से उसका सिर ही फोड़ दिया। कुछ लोगों के पास पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी है कि उसका सिर कितनी जगह से फटा था।

कहते हैं उसने तैश में जो कुछ किया था, बाद में राजी-खुशी उसे ही दुहराया। जह्ल ने अति कर दी होगी, अन्यथा आरंभ में उनकी निंदा और उनको गालियां देना और अपमानित करने की कोशिश मक्का के बहुदेववादी समाज में आम थी। मुहम्मद को मक्का में इसका लगातार सामना करना पड़ रहा था। उनके खानदान की साख थी, इसलिए उनको तो सीधे हाथ लगाने का किसी को साहस नहीं हुआ, परंतु इससे यह सचाई तो छिप नहीं सकती थी कि आरंभ में उनके अनुयायी उनके परिजनों को छोड़ कर केवल कुछ गुलाम और छोटी हैसियत के लोग थे, इसलिए उनके अनुयायियों को कुरैशों द्वारा बहुत परेशान किया जाता था।

एक बार एक अनुयायी रोते हुए उनके पास आया कि मुझे रास्ते में रोक लिया गया और शर्त रखी गई कि पहले मुहम्मद को गाली दो तब आगे जा पाओगे।

मुहम्मद ने कहा बाहरी दबाव से जान बचाने के लिए अगर कुछ करना पड़े तो इससे फर्क नहीं पड़ता, तुम्हारे जमीर पर आंच नहीं आती।

उन्होंने दूसरों को भी ऐसी स्थिति में जो कहने या करने को बाध्य किया जाए करने की इजाजत दे दी।

एक कहानी जो बहुत मशहूर है कि एक बुढ़िया घर का सारा कूड़ा जमा कर रखती थी और जब मुहम्मद साहब उधर से मस्जिद के लिए गुजरते थे तो कूड़ा उनके ऊपर फेंक दिया करती थी । एक दिन ऐसा नहीं हुआ तो वह उसका हाल जानने के लिए भीतर गए और पाया कि वह बीमार है। उसकी तीमारदारी में जुट गए। चंगा होने पर बुढ़िया ने इस्लाम कबूल कर लिया।

मुहम्मद साहब के संबंध में सहानुभूति, दया, सहिष्णुता, निरभिमानता की इस तरह की कहानियां उसी संघर्ष काल की है जब वह अपने समाज को जोड़ने के लिए कुछ भी कर सकते थे, इसमें आडंबर और फरेब भी शामिल है, कुछ भी सह सकते थे, जिसमें व्यक्तिगत अपमान और अपयश भी शामिल था, प्राण देना तो छोटी चीज है। इसके बाद भी यदि किसी को यह समझने में दिक्कत होती है की आरंभ में वह सत्याग्रही तरीकों का इस्तेमाल कर रहे थे, तो उसे कायल करने पर बर्बाद होने वाले समय को तो बचाया ही जा सकता है।

एक दूसरा व्यक्ति जो इस्लाम का कट्टर विरोधी था और जिसे एक बार कुरैशों ने मुहम्मद साहब की हत्या करने के लिए भेजा था, उसका नाम उमर बिन उल खत्ताब था। उसके इस्लाम कबूल करने के कई तरह के किस्से हैंं। एक के अनुसार अपनी बहन फातिमा और उसके पति सईद बिन जईद के विषय में जब उसे पता चला कि उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया है तो वह गुस्से में उनके पास पहुंचा। वे कुरान का एक सूरा पढ़ रहे थे। उसने सईद पर हमला कर दिया और बहन को भी घायल कर दिया। बहन के चेहरे से खून बहने लगा। घायल होने के बावजूद उसने कहा तुम मेरी जान भी ले लो तो भी इसे पढ़ना नहीं छोडूंगी।

अपनी बहन के चेहरे से खून बढ़ता देखकर उसे अपनी करनी पर पछतावा हुआ और उसने जानना चाहा कि इसमें लिखा क्या है। यह जानकर कि जब तक कोई नापाक है तब तक उसे हाथ तक नहीं लगा सकता, उसने अपनी शुद्धि के लिए वजू किया और कलमा पढ़ा और मुसलमान हो गया। पैगंबर ने उसका स्वागत किया, और उसके इस्लाम कबूल करने पर अल्लाह का शुक्रिया किया।

इसके बाद मुहम्मद अपने अनुयायियों के साथ काबा पहुंचे। अली अपनी तलवार ताने सब का नेतृत्व कर रहे थे। कुरैश सदमे में आ गए कि हमने इसे मुहम्मद की जान लेने को भेजा था और वह उसके पीछे पीछे चल रहा है।

उमर एक छोटे से दबे हुए कुनबे से आते थे, और अब उन्हें इस्लाम कबूल कर लेने से इस बात का भी गर्व था कि वह दूसरों की बराबरी पर आ गए हैं । कहते हैं बाद में जब वह खलीफा बने तो उन्हें अबू सुफियान, अबू मनाफ जैसे ऊंचे खानदान के लोगों को अपमानित करने में खास मजा आता था।

इस तरह लगभग तीन साल का समय गुजर गया। उन्होंने एक बार कुरैशों को भी बहुदेववाद की व्यर्थता को समझाने का प्रयत्न किया, और लगभग गीता की भाषा में ही बताया कि वे जिन देवी देवताओं की पूजा करते हैं वे हीन देव हैं, अल्लाह सबसे ऊपर, सबसे बड़ा है और उससे बड़ा दूसरा कोई नहीं।

कुरैश स्वयं ऐसा ही मानते थे, इसलिए उन्हें मुहम्मद साहब के प्रवचन से कोई आपत्ति नहीं थी। हम अपने देवी देवताओं की पूजा करेंगे, और मुहम्मद अपने अल्लाह की उपासना करते रहें।

पर दुबारा सोचने पर उन्हें लगा कि उन्होंने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। जिस बहुदेववाद से वह लोगों का ध्यान हटाना चाहते थे, उसमें उनकी निष्ठा और बढ़ गई थी।

गलती समझ में आने के बाद सुधारने का एक ही तरीका था, इलहाम। अल्लाह का नया आदेश जो पुराने वादे से मुकरने का और सही रास्ते पर आने का एकमात्र उपाय था।

“अल्लाह के साथ किसी दूसरे इष्ट देव को न पुकारना, अन्यथा तुम भी दंड पाने वालों में शामिल हो जाओगे। अपने निकटतम नातेदारों को डराओ, और ईमान लाने वालों में जो तुम्हारे अनुयाई हों उनके साथ विनम्रता का
व्यवहार करो…” (सूरा अश्शुअरा)।

कुछ लोगों का विचार है कि यह पहला सूरा था जिससे अपने मत के प्रचार का संदेश मिला। इससे मक्का में उन्होंने अपने मंतव्य को जिस रूप में प्रकट किया उसे दुरुस्त करने का अवसर मिला। नई व्याख्या यह कि जब अल्लाह हाफिज की महिमा समझा रहे थे उस समय जिन्नात ने उनसे गलती करा दी थी । अल्लाह के साथ कोई दूसरा देवता नहीं रह सकता, और कुछ लोग कहना चाहेंगे कि मुसलमानों के साथ कोई दूसरा इंसान नहीं रह सकता। लेकिन जिन्नात रह सकते हैं और उनके अल्लाह पर भी भारी पड़ सकते हैं।

अब जब उन्होंने यह समझाना शुरू किया अल्लाह है तो दूसरा कोई देवता नहीं रह सकता तो वह कुरैशों की नजर में गिर गये। अरबों में अपने वादे से पीछे हट जाना बहुत बड़ा पातक माना जाता था। इसके बाद इस्लाम कबूल करने वाले उनकी नजर में गिर गए और उन्होंने उनको अधिक क्रूरता से उत्पीड़ित करना आरंभ कर दिया।

जब स्थिति असह्य हो गई तो उन्होंने अपने अहुयायियों को अबीसिनिया में पनाह लेने की सलाह दी ।

Post – 2019-06-13

इस्लाम का प्रचार (क)

मुहम्मद साहब का लक्ष्य दूसरे कुरैशों की तरह रमजान के पाक महीने में आत्म शुद्धि के लिए उपवास या साधना न थी, अपितु एकेश्वरवाद के प्रचार करने के लिए नैतिक अधिकार प्राप्त करना था, इसलिए यह जाहिर करने के बाद कि उन्हें इलाही संदेश प्राप्त होने लगा है, दूसरों को अपना अनुयायी बनाने का अभियान शुरू करना ही था। ईश्वरीय संदेश उन्हें 40 साल की उम्र में मिलना आरंभ हुआ था।[[1]]
[[1]] The revelation of the Qur’an began in the laila al-qadr of Ramadan (one of the odd nights after the 21st till end Ramadan) after the Prophet Muhammad had passed the fortieth year of his life (that is around the year 610), during his seclusion in the cave of Hira’ on a mountain near Makka.

इसी के बल पर दूसरों को प्रभावित और धर्मांतरित करने का प्रयास कर रहे थे। सबसे पहले खादिजा को स्वयं यह नया मजहब अपना कर दूसरों के लिए उदाहरण पेश करना था। उन्होंने ऐसा किया भी। परंतु इसका परिणाम उनकी कल्पना के अनुसार नहीं निकला। बहुत कम लोग, सच कहें तो करीबी लोग ही इतनी विचित्र बात पर यकीन कर सकते थे।

अली उनके चाचा के पुत्र थे और किशोर वय के थे। उन्होंने मुहम्मद और खादिजा को सजदा करते देखा तो उन्हें यह कुछ विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, आप लोग यह क्या कर रहे हो? मुहम्मद ने बताया अल्लाह ने अब इसे ही नए मजहब के रूप में चुना है। आओ, तुम भी शरीक हो जाओ । अली ने उसी समय या अगले दिन नया मजहब कबूल कर लिया। इसके बाद से वह आजीवन मुहम्मद के सबसे पक्के अनुयाई बने रहे। वह उनके लिए अपनी जान देने या किसी की जान लेने को तैयार रहते थे।

जैद बिन हरीथा बानी कल्ब नाम के एक ऊंचे कबीले में पैदा हुआ था। अभी बच्चा ही था जब अपनी मां के साथ किसी देवता का दर्शन करने जा रहा था। लुटेरों ने उसे लूट लिया। खादिजा को इसका पता चला तो उन्होंने उसे खरीद लिया। कुछ समय बादजब उसके पिता को इसकी खबर लगी तो वह आए। मुहम्मद साहब ने कहा यदि वह अपने पिता के साथ जाना चाहता है तो जा सकता है। उसने मुहम्मद साहब के साथ ही रहना चाहा। इसके बाद मुहम्मद साहब ने उसे गुलामी से मुक्त कर दिया और अपना दत्तक पुत्र बना लिया(This slave now became a free man, and was called Zaid bin Muhammad, ) । वह उनका दूसरा अनुयाई बना।

इस्लाम कबूल करने वाले तीसरे व्यक्ति अबू बक्र थे, जिनका ना्म अब्दुल्ला बिन उस्मान था। मुहम्मद से दो साल छोटे थे, वह उसी मुहल्ले में रहते थे जिसमें खादिजा रहती थीं, और संभवतः पहले से ही हनीफों (सच्चे धर्मनिष्ठों) के विचार के कायल थे।

सईद बिन अबू वक़्क़ास मुुहम्मद के मौसेरे भाई थे, और जुबैर बिन अल अव्वाम खादिजा का भतीजा था।

इस तरह प्रचार आरंभ होने के एक साल में पांच ही लोग ऐसे मिले जो उनके दावे के कायल हो पाए।

हम यहां जिस पक्ष पर जोर देना चाहते हैं वह यह कि इस्लाम की ओर आकर्षित होने वाले लोग न किसी वैचारिक पक्ष से उसके कायल हुए थे न ही आध्यात्मिक पक्ष से प्रभावित हुए थे। अल्लाह के हुक्म और डर के अलावा उनके पास अपनी कोई पूंजी नहीं थी। इस्लाम आज तक डरने वालों और डराने वालों का मजहब है। अकारण भी ‘ईमान खतरे में है’ से आरंभ होकर दुनिया के लिए खतरा बन जाने का दूसरा नाम इस्लाम है। इसे समझे बिना बात बेबात असुरक्षित होने की चिंता समझदार समझे जाने वाले मुसलमान भी क्यों उठाते रहते हैं और कम समझ के मुसलमान ही सीदी कार्रवाई पर क्यों उतर आते हैं इसे समझा नहीं ता सकता।

यह दावा भी कि वह अल्लाह के संपर्क में है, जो कुछ कह रहे हैं वह उसकी ओर से कह रहे हैं, काम न आया। जो डर पैदा करना चाहते थे वह डर पैदा नहीं हो रहा था। उल्टे इसके कारण ही लोग उनका मजाक उड़ाने, उन्हें झूठा, मक्कार, फरेबी कह कर चिढ़ाने लगे थे। रास्ता चलना मुश्किल हो रहा था। इस मोहभंग के बाद इल्हाम के नाम पर लोगों को अपने विचारों का कायल बनाने के नुस्खे से काम नहीं लिया गया। मुहम्मद साहब को इल्हाम आना बंद हो गया। इसे मुस्लिम धर्मनिष्ठा में फत्रा कहा जाता हैं और माना जाता है कि ऐसा एकाएक हुआ था ।[2]
[2]After the first message thus received, revelation ceased for a certain period (called fatra).

इसके बाद मुहम्मद साहब ने अपना तरीका बदल दिया परंतु अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। वह इक्के दुक्के लोगों से सीधे संपर्क साधने लगे । इसमें पहले तरीके से अधिक सफलता मिली और वह उनमें से कुछ को अपने मत में ढालने में कामयाब हुए। कुछ वृद्धि बाद में भी रिश्तेदारों के कारण हुई। जैसे, अपनी बहादुरी के लिए मशहूर उस्मान बिन अफ्फान ने मुहम्मद साहब की बेटी रुकैया से शादी की। इस तरह धीरे धीरे यह संख्या 40 तक पहुंच गई।

नया मजहब अपनाने वाले दूसरों की तंज से बचने के लिए छुप-छुपकर मिला करते थे। इनमें से एक था अल अरक़म जिसका घर शहर से एक छोर पर सुनसान से इलाके में था। मुहम्मद साहब ने प्रचार के लिए इसी को अपना गुप्त ठिकाना बनाया। इस बार उन्होंने अपनी धाक जमाने के लिए उस तरीके को अपनाया जिसकी सलाह कौटल्य ने मिथ्या प्रचार के लिए छद्मवेशधारी साधुओं के संदर्भ में दी है।[[2]]
[[2]] मुण्डो जटिलो वा वृत्तिकामस्तापसव्यञ्जनः ॥ स नगराभ्याशे प्रभूतमुण्डजटिलान्तेवासी शाकं यवमुष्टिं वा मासद्विमासान्तरं प्रकाशमश्नीयात्, गूढमिष्टमाहारम् ॥ वैदेहकान्तेवासिनश्चैनं समिद्धयोगैरर्चयेयुः ॥ शिष्याश्चास्यावेदयेयुः – “असौ सिद्धः सामेधिकः” इति ॥
समेधाशास्तिभिश्चाभिगतानामङ्गविद्यया शिष्यसंज्ञाभिश्च कर्माण्यभिजने अवसितान्यादिशेत्- अल्पलाभमग्निदाहं चोरभयं दूष्यवधं तुष्टिदानं विदेशप्रवृत्तिज्ञानम्, “इदमद्य श्वो वा भविष्यति, इदं वा राजा करिष्यति” ॥

मुहम्मद साहब ने कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़कर अपना तरीका नहीं निकाला था। कौटल्य भी अपना प्रभाव जमाने के लिए और लोगों से अपनी बात मनवाने के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल लोग किया करते हैं, उसी का सहारा लेने की सलाह दे रहे थे। इस में महत्वपूर्ण बातें वह है (1) सन्यासी या सिद्ध योगी का बाना धारण करना, (2) किसी ऐसे एकांत स्थल की तलाश करके, जहां लोगों का बहुत कम आना जाना हो अपना आसन जमाना; (3) वेश-भूषा तथा खान-पान में निरालापन पैदा करना जिसे सुनकर लोग हैरान रह जाएं; (4) अपने माहात्म्य के प्रचार के लिए शिष्यों या भक्तों को जहां-तहां भेजकर अपना यशोगान कराना; (4) उत्सुकता में आने वाले लोगों को किसी न किसी अनिष्ट की आशंका जता कर उनमें भय पैदा करके उद्धारक के रूप में अपनी भूमिका में विश्वास पैदा कर के समर्पण का मानसिकता पैदा करना।

जो भी हो, इस पृष्ठभूमि में ही हम मुहम्मद की नई योजना को समझ सकते हैं। परंतु इसका ख्याल उन्हें चौथे साल में किसी व्यक्ति या पुस्तक के माध्यम से नहीं, इलहाम के माध्यम से ही आया[3]:

[3]Narrated Jabir bin ‘Abdullah Al-Ansari while talking about the period of pause in revelation reporting the speech of the Prophet, ‘While I was walking, all of a sudden I heard a voice from the heaven. I looked up and saw the same angel who had visited me at the Cave of Hira’ sitting on a chair between the sky and the earth. I got afraid of him and came back home and said “Wrap me (in blankets)” and then Allah revealed the following holy verses (of the Qur’an): O you covered in your cloak, arise and warn (the people against Allah’s punishment) … up to “and all pollution shun”.’
After this revelation came strongly and regularly. [Bukhari, I, end of No. 3.]

मोहम्मद साहब ने इस बार अपनी पूरी जीवन शैली उसी तरह बदल ली जैसी कौटिल्य ने सलाह दी है। इसे हम अपने शब्दों में बयान न करके सेल के शब्दों में रखना चाहेंगे:
It is said that the order of the God ‘arise and warn’ now and that the missionary propaganda took a more active form and wider form. The believers met, though as yet as a secret Society In the house of al-Arqam, a recent convert. It was situated on the slope of Mount Saf, Muhammad removed to it about the fourth year of his mission, as a place where he could carry on his work peacefully, end without interruption. It was far more suitable for meetings for which publicity was not required than the rooms in the crowded city would have been. All who were inclined to Islam were brought there and received teachings. there seems to have been a certain amount of mystery kept up by Mohammad. it is said that he habitually wore a veil, and this practice may I have begun at the time of these mysterious seances, of which It served to enhance the solemnity. Scrupulous care was bestowed by him on his person; every night painted his eyes and his body was at all times fragrant with perfume. His hair was suffered to grow long till it reached his shoulders.
मुसलमानों की खास जीवनशैली की बारीकियों को मुहम्मद साहब की इस जीवनशैली के विना नहीं समझा जा सकता।

Post – 2019-06-11

एक का अमृत दूसरे का जहर

राजनीतिक संगठन और किसी विचारधारा से लोगों का बड़े पैमाने पर जुड़ाव नई चीज है। इससे पहले लोगों को जोड़ने का एकमात्र आधार मजहबी धार्मिक मान्यता हुआ करती थी। मकी सामाजिक भूमिका को प्रायः विचार के केंद्र में नहीं रखा जाता। फिर भी आध्यात्मिकता की तुलना में सामाजिकता के विषय में हम अधिक आश्वस्त हो सकते है।

खादिजा (मुहम्मद साहब) के सामने यह बात बहुत स्पष्ट थी की एक देवता में विश्वास 360 देवताओं की पूजा करने वाले और इसके कारण बिखरे, झूठी शान पर अकारण टकराते रहने वाले समुदायों को जोड़ने का महामंत्र हो सकता है।

सबसे ऊपर एक ईश्वर है, जिसने यह सृष्टि रची है और इसे चला रहा है, यह विश्वास अरबों के लिए नया नहीं था। उस सर्वोपरि सत्ता के लिए ‘अल्लाह’ शब्द का प्रयोग भी पहले से होता आया था। परंतु उसमें विश्वास उनके आराध्य देवों या देवियों में विश्वास में बाधक नहीं था।

मुहम्मद साहब के पहले से उनकी अपनी ही जमात के, अपने को हनीफ कहने वाले, परमेश्वर को छोड़ कर किसी अन्य देवता को नहीं मानते थे, इसलिए बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के विरोधी थे। उनसे पहले से यहूदी और ईसाई बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के शत्रु थे और उनसे अरबों का कोई विरोध न था, क्योंकि उन्होंने उनके देवों-देवियों को साथ या उनकी मूर्तियों के साथ छेड़छाड़ नहीं की थी, यहाँ तक कि मरियम को देवी मानने और पूजने पर भी आपत्ति नहीं की थी। जैसा हम देख आए हैं, इस मामले में, तब तक स्थिति भारत जैसी ही थी। परंतु जो लोग यह मानेंगे वे भी यह नहीं मान सकते कि इन सबसे पहले भारत में एक भागवत मत पैदा हुआ था जो सभी देवियों-देवताओं, तत्वचिंतन के सभी रूपों, कर्मकांड के सभी विधानो को हेय बताता हुआ,साधना की सभी विधियों , पूजा और उपासना की सभी रीतियों को तुच्छ सिद्ध करते हुए, अपने प्रति समग्र समर्पण की मांग करता था – सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।

यह शरणागत होना क्या था?

जो कुछ भी करो राग द्वेष से मुक्त हो कर करो। यह मानकर करो कि तुम जो कुछ भी कहते या करते हो, जो भी सोचते हो वह तुम नहीं मैे कह, कर और सोच रहा हूँ। इसके बाद अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य जैसा कुछ रह ही नहीं जाता। इस दशा में यदि कोई ऐसा काम किया जिसको पाप कहा जाता है तो उसके परिणाम (नरक भोग) से मैं मुक्त कता हूं , मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु। मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34 इसके पूरा होने पर ही यह “अहम्‌ त्वा सर्व-पापेभ्यः मोक्ष्ययिष्यामि, मा शुचः। 18.66” की छूट या इम्युनिटी मिल सकती है।

मैं यह नहीं कहता कि मुहम्मद साहब गीता से प्रेरित थे, क्योंकि हमें यह भी पता नहीं कि हनीफ, जो अरब के सबसे प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग थे, और जिनके माध्यम से ही खाजिदा या मोहम्मद साहब को इसका ज्ञान हो सकता था, वे स्वयं गीता से या किसी ऐसे स्रोत से परिचित थे या नहीं, जिससे उसका सारतत्व अरब के सुशिक्षित समाज की चेतना का हिस्सा बना हो।

परंतु सादृश्य इतना प्रबल है, और पश्चिम में इसकी परंपरा दिखाई नहीं देती, इसलिए यह मानने का प्रलोभन होता हैं कि अदृश्य तार जुड़े हुए हैं। यदि आप चाहें तो कह सकते हैं कि इस्लाम के नाम पर, उसकी झक में जो कुछ सोचा और किया जा रहा था, वह गीता के दर्शन से अनमेल नहीं है, यद्यपि उसकी भावना के अनुरूप नहीं है।

किसी दर्शन या दार्शनिक निष्पत्ति का एक चिंता धारा में जो स्थान होता है वह उससे बाहर की चिंता धारा में उसी रूप में सुरक्षित नहीं रह पाता। उसका यांत्रिक अनुप्रयोग होने लगता है, और परिणाम उल्टे हो जाते हैं। उसकी भावना लुप्त हो जाती है, वह यांत्रिक अनुपालन और उससे तनिक भी विचलित न होने के संकल्प में बदल जाता है। धर्मयुद्ध उद्दंडता में बदल जाता है।

गीता के मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ 7.7 (धनंजय! मुझसे ऊपर कोई नहीे है , और मुझसे अलग कुछ नहीं है। जैसे माला के धागे में मनके पिरोए रहते हैं उसी तरह सब कुछ मुझसे जुड़ा हुआ है), में आप चाहे तो ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुन रसूलुल्लाह’ का मूल स्वर सुन सकते हैं।

प्रश्न यह नहीं है इस्लाम के रूप में क्या नया आया जो पहले नहीं था, प्रश्न यह है कि जो मुहम्मद साहब से पहले से जो कुछ विद्यमान था, उसको उनके द्वारा किस रूप में उपयोग में लाया गया, किन परिस्थितियों में उसका चरित्र बदला और विश्व सभ्यता पर उसका क्या प्रभाव पड़ा।

खादिजा/मुहम्मद साहब के साथ समस्या यह थी अल्लाह को सबसे ऊपर मानने के साथ यदि अपने अपने आराध्य देवों/ देवियों की उपासना चलती रहे, जो आज तक चलती आई है, तो सामाजिक बिखराव तो बना ही रहेगा। इसलिए अल्लाह की श्रेष्ठता के साथ दूसरे सभी देवों का निषेध एक मात्र उपचार था, जिसके लिए आध्यात्मिक श्रेष्ठता, उसके लिए जरूरी साधना, और सिद्धि तक पहुंचने का दावा तीनों की जरूरत थी और इसी का प्रबंध रमजान के पाक महीने में की जाने वाली एकांत साधना के रूप में आरंभ हुआ था।

इसमें कहीं कोई पाखंड नहीं था। साधना करने वाले कठिन साधना से, परमब्रह्म का साक्षात्कार कर सकते हैं, अलौकिक शक्ति पा सकते हैं, जो चाहें, कर सकते हैं, इस विश्वास से हम परिचित हैं (अणिमा महिमा चैव लघिमा गरिमा तथा | प्राप्तिः प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ||) ऐसी कठिन साधना से सिद्धि कितने लोगों को मिली इसका हमें ज्ञान नहीं। परंतु ऐसे अनेक लोगों से हम परिचित रहे हैं, जो साधना के चक्कर में अर्धविक्षिप्त हो गए। तपभ्रष्ट योगी शब्द से हम सभी परिचित हैं।

इस्लाम में धार्मिक निष्ठा रखने वालों को यह समझने में कठिनाई हो सकती है कि मैंं अपने विवेचन में मोहम्मद साहब की तुलना में खादिजा को इस पूरे अभियान में प्रधानता क्यों दे रहा हूं। कारण यह है कि आयु में, अनुभव में, एकेश्वरवादी सोच रखने वालों से परिचय और अपने साधनों के कारण, अरब के विद्वत वर्ग के निकट संपर्क में आने के कारण वह अधिक प्रबुद्ध थीं । वह उस कारोबार की स्वामिनी और संचालिका थीं, जिसमें मोहम्मद साहब को एक ऊंचा स्थानपति के रूप में चुने जाने के कारण मिल गया था अन्यथा इन सभी दृष्टियों से वह खादिजा से न्यून पड़ते थे। वह उनकी योजना को क्रियान्वित करते हुए ही अपनी शक्ति और महत्व प्राप्त कर सकते थे। एक बड़े व्यापारी के रूप में उन कठिनाइयों से उन्हें ही गुजारना पड़ा होगा जिन्हें व्यापारिक आवागमन में कबीलों के बंटे होने के कारण सहना पड़ता था। अरब को एक करने का स्वप्न और संकल्प केवल उनका हो सकता था।

मोहम्मद साहब की साधना में व्यवधान के कारण उनकी अपनी विक्षिप्तता, प्रेतबाधित होने के उनके भय, और उनको इस बात का कायल करने के लिए कि उन्हें प्रेत ने नहीं जिब्रील ने आगोश में लिया था, खादिजा द्वारा अपनाया गया तरीका, और उनमें पैगंबर होने का विश्वास जगाने का प्रयत्न उनकी सूझ, संकल्प और विषम परिस्थितियों को भी संभाल कर उनका मनोवांछित उपयोग करने की क्षमता को प्रकट करता है।
[[When Mohammed awoke from his trance he was much alarmed. Then Khadija Knowing What had happened, and hearing him say that he feared that he was mad, took him to Waraqa bin Nauful and said, ‘O cousin, Listen Mohammad and here what is saying.’ Waraqa replied, ‘ O my brother’s son, what hast thou seen? 10 Muhammad told him what had happened. Waraqa On hearing the account said, ‘This was Namus, which God sent down upon Moses.’ ]]

यही कारण है कि यह मानने की बाध्यता होती है उनके जीवन काल में वह जो कुछ करते रहे उसकी पूरी योजना खादिजा की थी। सूत्रसंचालन उनके हाथ में था और मोहम्मद साहब तब तक उनकी कठपुतली की भूमिका में थे, यद्यपि दुनिया की नजर में नेतृत्व वही कर रहे थे।

Post – 2019-06-11

मुझे पढ़ते हुए इस बात का ध्यान रखा जाए कि इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी आधिकारिक ( लंबे समय तक इसी विषय पर अध्ययन, चिंतन के क्रम में अर्जित दृष्टि का परिणाम) नहीं अपितु कार्यसाधक (आवश्यकतावश इक्की दुक्की पुस्तकों और लेखों पर आधारित) है। लिखने की बाध्यता इसलिए उत्पन्न हुई कि मित्रों की जानकारी या तो मुझसे भी कम है, या मात्र छिद्रान्वेषी है। अधिक समय बचा रहता तो पूरी तैयारी से लिखता। जो काम मुझसे न हो सका, उसे कोई दूसरा लंबा समय लगा कर, पूरी निष्पक्षता से करे, मेरी कमियों की ओर भी ध्यान दिलाए, तो मेरा प्रयास सार्थक होगा।

Post – 2019-06-09

पैगंबरी की पृष्ठभूमि

महान विभूतियों के साथ एक दुर्भाग्य जुड़ा होता है। किसी भी कारण से मातृ-स्नेह से वंचित रह जाना। यह अभाव किसी दूसरे की उदारता से पूरा नहीं हो पाता। इसकी दो विरोधी परिणतियां होती हैं। या तो ऐसा व्यक्ति अति संवेदनशून्य और निष्ठुर, (पत्थर दिल) हो जाता है , या इतना संवेदनशील कि पूरी दुनिया का दुख उसका अपना दुख बन जाता है।

एक दूसरी प्रवृत्ति यह पैदा होती है – अपने संपर्क में आने वाले लोगों के मनोभाव को बारीकी से देखने और समझने की, अपनत्व दिखाने वाला व्यक्ति सचमुच स्नेह करता है या दिखावा, इसे परखने की प्रवृत्ति। मोहम्मद साहब के पिता तो उनके जन्म से पहले ही चल बसे थे, जन्म से लेकर 5 साल की उम्र तक उन्हें अपनी मां के स्नेह से ही नहीं, नजर से भी दूर रहना पड़ा था। फिर मां के पास आए तो एक साल के भीतर उनका साया भी न रहा। दादा ने 2 साल तक पारिवारिक बांदी के माध्यम से पाला और फिर वह भी गुजर गए। चाचा ने उसके बाद देखभाल का भार संभाला और ऐसा लगता है कि उन्होंने उन्हें बहुत स्नेह से पाला-पोसा। मोहम्मद के कठोर परिस्थितियों में भी हार न मानने की प्रवृत्ति और जो कुछ सही लगता है उसे किसी भी कीमत पर करने को तैयार रहने की प्रवृत्ति को इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समझा जाना चाहिए।

मोहम्मद साहब के पैगंबर बनने में जिस व्यक्ति की भूमिका सबसे प्रधान थी, वह थी वह महिला जिसे केवल बहुत धनी के रूप में याद किया जाता है, पर उसके अनुभव और कौशल की दाद नहीं दी जाती, जिससे वह महिला होते हुए इतना बड़ा कारोबार चलाती थीं ।

अपने चाचा अबू तालिब के कहने पर काम धंधे के सिलसिले में वह मिले उससे पहले उन्हें उनके बारे में सभी जरूरी जानकारियां प्राप्त थीं। कंकड़, पत्थर और हीरे में फर्क करने वाली इस जौहरी को पहली मुलाकात में पता चल गया था कि उसके हाथ क्या आया है और उसे तराश कर क्या बनाना है।

सामान्यतः यह माना जाता है कि मुहम्मद साहब ने एक धनाढ्य विधवा से विवाह किया। यह आधा सच है। पूरा सच यह है कि उस महिला ने अपने शौहर के रूप में मोहम्मद साहब को चुना और उन्हें उन भूमिकाओं के लिए तैयार करना शुरू कर दिया जो मात्र संपदा से संभव नहीं थीं। अरब को अपने आत्मसम्मान और राष्ट्रीय एकजुटता के लिए एक नए नेतृत्व की जरूरत है, यह उसकी सूझ थी। अनुभव, ज्ञान, बुद्धिजीवियों से संपर्क और संवाद के मामले में वह मोहम्मद साहब से बहुत आगे थी। उनके माध्यम से ही वह भारतीय चितन से परिचित रही हो सकती हैं। मोहम्मद साहब उनकी तुलना में कम उम्र के ही नहीं थे, इन सभी दृष्टियों से उनके सामने किसी गिनती में नहीं आते थे। उनकी दौलत ने बाकी कमियों को पूरा कर दिया था। अपने सपने के अनुसार मुहम्मद साहब को तराशने का काम उनको करना था। यह दायित्व उन्होंने पूरी कुशलता से पूरा किया।

धार्मिक आस्था के लोग समझ से परहेज करते हैं, इसलिए वे मान सकते हैं मोहम्मद साहब को अल्लाह ने पैगंबर बनने के लिए भेजा था, परंतु एक इतिहासकार को कारकों, कार्यों और परिणतियों से बाहर जाने की छूट नहीं है, इसलिए उसकी विवशता के कारण वह सच्चाई सामने आ पाती है जो श्रद्धा के अतिरेक से हमारी नजर से ओझल रह जाती है। खादिजा के प्रति धर्मांध मुसलमान भी श्रद्धा रखते होंगे, परंतु उनकी वास्तविक भूमिका को समझने को वे कभी तैयार नहीं हो सकते क्योंकि इससे मोहम्मद साहब की महिमा पर आँच आती है। इतिहासकार के रूप में इस्लाम के विकास को समझने वाले यदि खादिजा की भूमिका को रेखांकित नहीं कर पाते हैं तो वे इतिहासकार नहीं है।

यह ध्यान रखना होगा क कि मोहम्मद साहब में पैगंबरी की संभावनाएं हैं, ऐसी कहानियां उस सौदागरी के साथ आरंभ होती हैं जिस पर मोहम्मद साहब को दूने माल-असबाब के साथ भेजा गया था। उस बीच ही एक सन्यासी या बौद्ध भिक्षु खादिजा को बताता है कि मुहम्मद पैगंबर बनने वाले हैं। हिरा पर्वत की गुफा में साधना के समय खादिजा मोहम्मद साहब के साथ मौजूद रहती हैं। वे विचित्र अनुभव जो उनको पहले इल्हाम के साथ हुए, और उनसे जुड़ी कहानियों के केन्द्र में खादिजा रहती हैं, मोहम्मद साहब निमित्त बने रहते हैं। यह खादिजा ही थीं, जिनका संपर्क हनीफों और ऐसे विद्वानों से था, जिनके सीधे संपर्क में मोहम्मद साहब न आ पाते। यह ध्यान रखना होगा कि उनके चाचा अबू तालिब जो मोहम्मद साहब को हर तरह के संकट से बचाते रहे, मरते दम तक, मोहम्मद साहब के इसरार के बावजूद, इस्लाम कबूल नहीं कर सके। खादिजा के संपर्क में मोहम्मद साहब न आए होते उनकी रुझान इस ओर होती, यह सोचना मुश्किल है।

खादिजा की एक अन्य भूमिका यह थी कि जब जब उनको यह घबराहट होती थी कि कहीं उन पर कोई जिन तो सवार नहीं हो गया है, या वह पागल तो नहीं हो गए हैं, वह उन्हें समझा-बुझाकर एक नई भूमिका के लिए तैयार करने का काम लगातार करती हैं।

एक अन्य पहलू की ओर भी ध्यान देना होगा कि खादिजा के जीवन काल में मोहम्मद साहब के व्यवहार या विचार में उग्रता, मनमौजीपन या हिंसात्मक उपायों का प्रयोग देखने में नहीं आता। उनका सारा प्रयत्न आत्मरक्षात्मक बना रहता है। इसके बाद तरीका बदल जाता है। इसके कुछ और भी कारण हैं, और निश्चय ही उनकी भी एक भूमिका रहती है, फिर भी आरंभ में बहुदेववाद और मूर्ति पूजाके विरुद्ध उन्होंने जो तरीका अपनाया था उसे सत्याग्रह कहा जा सकता है। इस्लाम के इतिहास को समझने के लिए इस पृष्ठभूमि को समझना बहुत जरूरी है।

Post – 2019-06-08

इस्लाम: मजहब या राजनीति

इस बात का निर्णय करना आसान नहीं है कि मुहम्मद साहब एक राजनीतिक नेता थे जिन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मजहब को हथियार बनाया या धार्मिक रुझान के नेता जिन्होंने राजनीतिक चुनौतियों की ओर भी ध्यान दिया।

उनके व्यक्तित्व के दोनों पक्ष स्पष्ट हैं, परंतु यह आसानी से तय नहीं किया जा सकता कि दोनों पक्षों में किसकी प्रधानता थी।

हमारे सामने एक बात बहुत स्पष्ट है। समाज को किसी विशेष दिशा में ले जाने वाला कोई भी कार्यक्रम आध्यात्मिक नहीं होता, सामाजिक होता है। संगठित धर्मों का एक निश्चित राजनीतिक और सामाजिक लक्ष्य होता है । प्राचीन काल में धर्मनिरपेक्ष चिंतन लगभग असंभव था, इसलिए आंदोलन कोई भी हो, उसको ईश्वर या तत्वज्ञान का सहारा लेना पड़ता था और यह विश्वास पालना पड़ता था कि ईश्वर उसके महान लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होगा। इसलिए आंदोलनकारी का भक्तिभाव भी पाखंड नहीं हुआ करता था। अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठ कर, अपने समाज, देश या मानवता के हित की चिंता करना भी एक उपासना है, और इसलिए अपने आप में एक आध्यात्मिक कार्य है।

मुहम्मद साहब के इलहाम के समय होने वाले अनुभवों को अनेक यूरोपीय विद्वानों ने बीमारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया, पर वे भी मानते हैं कि बीमारी के दूसरे लक्षण उनमें न थे। वे उन पर, उस युग में, विचार कर रहे थे, जिसमें जड़वादी भौतिकवाद की तानाशाही थी। मार्क्स का चिंतन और दर्शन भी उसी की उपज था। तब तक परमाणु की आंतरिक संरचना का पता न चला था, जिसका एक घटक इलेक्ट्रान या चालक घटक भी है। योग, दूरानुभूति, सम्मोहन, परानुभूति आदि की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।

जड़ विज्ञान के प्रकाश से वंचित पूर्वी देशों में इनके प्रति इतना व्यापक विश्वास था कि कोई इन पर संदेह नहीं कर सकता था। सच्चाई दोनों अतियों के बीच थी। यदि मुहम्मद साहब ने अपनी एकांत साधना में बिना किसी गुरु के निर्देशन के योग, या हठयोग की साधना आरंभ की हो तो, सुनते हैं, उसके परिणाम वही होते हैं जो मुहम्मद साहब के मामले में देखने आते हैं।

[[हम अरब संस्कृति को समझने के अपने प्रयत्न में बार-बार भारतीय सादृश्यों का सहारा लेते हैं, जिससे कुछ लोगों को हमारे दृष्टिकोण में भारत-केंद्रिता की सीमा दिखाई देती होगी। ऐसा विशेष रूप से उन लोगों के साथ होगा, जो आज तक इसी तरह के साम्य उल्टी दिशा से दिखाते रहे हैं। हम कोई नई बात नहीं कर रहे है। मात्र दिशा बदल दे रहे हैं या कहें वे सर के बल खडे़ थे; हम उन्हें सीधा खड़ा कर रहे हैं ।

हम ट्रेडविंड और व्यापारिक मार्गों का अनुसरण करते हुए के केवल यह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि व्यापार के साथ एक देश का माल ही दूसरे देश में नहीं जाता, भाषा और संस्कृति भी जाती है, विचार और संस्कार भी फैलते हैं। जब मुहम्मद साहब कहते हैं पूरब से मीठी हवाएं आती हैं , या जब अरब भारत को जन्नतनिशां ( स्वर्गोपम) कह कर याद करते हैं तो यह आने वाले माल से पैदा होने वाली समृद्धि का प्रतीकात्मक आख्यान है। भारतवासियों का अपना विश्वास, ‘धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे’ पश्चिम के नव-अर्जित आत्मविश्वास से कुछ ऊँचा ही पड़ेगा और यह आत्मविश्वास कई हजार साल तक बना रहा है जबकि पश्चिम को यह अवसर 4 दिन पहले मिला है। जैसा कि हमने अन्यत्र दिखाया है गीता के भक्ति योग के सूत्र वाक्यों का लगभग जैसे का तैसा कुरान में उल्लेख मात्र संयोग नहीं है। सजदा में अल्लाह के सामने दंडवत बिछ जाना, जानुपात, नमाज की मुद्राएं जिस परंपरा से जुड़ी हैं, वह सामी मजहबों की नहीं है।]]

व्यापारिक यात्राओं पर किशोरावस्था से ही आते-जाते, दूसरे समाजों और मत-मतांतरों के अनुभव और ज्ञान का मुहम्मद के मन पर गहरा असर पड़ा था और वह अपने देश और समाज को उन विकृतियों से मुक्त कराना चाहते थे। यह संकल्प निरंतर इतना दृढ़ होता चला गया था कि इसके लिए कठिन से कठिन संघर्ष करने और कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। इस सचाई को मजहबी रुझान के लोगों ने मसीहाई अंदाज में पेश करने का प्रयत्न किया है।

धार्मिक विश्वास को औजार बनाने का एक कारण यह लगता है कि अरबों की कबीलाई सीमाओं को देखते हुए वैचारिक आग्रह काम का नहीं हो सकता था, उनको धार्मिक विश्वास और अंंधविश्वास के बल पर ही समझाया जा सकता था। हो सकता है आरंभ में उनकी कोई राजनीतिक आकांक्षा न रही हो; यह धार्मिक सुधार के क्रम मैं जागृत हुई हो, पर इस विषय में मैं बहुत आश्वस्त नहीं हूं क्योंकि उनके सामने अरबों की राजनीतिक अस्थिरता और विदेशियों (रोम, अबीसीनिया और फारस) का बढ़ता हुआ दबाव, और धार्मिक मोर्चे पर सामी – यहूदी और ईसाई – और मज्दावादी अग्निपूजकों – का दबाव था जिसमेे अरबों के कुछ कबीले ईसाई, यहूदी या मज्दावादी हो चुके थे, यद्यपि अपने देववादी स्वभाव के अनुसार उन्होंने इन धर्मों को जिस रूप में अपनाया था, उनमें उनका मूल चरित्र बदल गया था (“Their Christianity was weak and gave place to Judaism.” Cannon Sell, p.2)। बात यहीं तक सीमित नहीं है। वे कुछ आस्था प्रतीकों को देवी या देवता मान कर पूजने और उनकी प्रतिमा मनाने लगे थे, और इनको देववादियों ने भी देवी या देवता मान लिया था, जिसका एक उदाहरण मरियम हैं। [[1]]

[[1]] A national movement required in central authority, a commanding personage, and a religious basis. The tribal sections, the lack of leadership, and the idolatry of Kaaba precluded the realization of these conditions.
The position of the affairs then was such that, If the political existence of Arabia to be saved, a change had to take place. The hour was right for it. A leader was needed who could unite the Arab tribes on religious basis and still preserve their conservative superstitious reverence for the Kaaba and the Hajj or the annual pilgrimages to Mecca. such was the position, when Muhammad was of an age to understand it, and it is no discredit to him that he was a patriotic Arab, desirous see his native land free from the enemies, and thus made united and strong. ib, 5]]

यदि हमारा अनुमान सही है तो यह प्रश्न विचारणीय रह जाता है कि इस आंदोलन की योजना किसकी थी और नेतृत्व का काम किसके हाथ में था और कौन इसमें निमित्त बना?

एक दूसरा प्रश्न, कि यदि राष्ट्रीय सरोकार मोहम्मद साहब के प्रेरक थे तो उनसे भारतीय मुसलमान क्या सीख सकते हैं। देश के प्रति उदासीनता या राष्ट्रनिष्ठा ?

Post – 2019-06-06

इलहाम की इस्लामी अवधारणा

श्रद्धालु और धर्मांध व्यक्तियों के लिए असंभव कुछ नहीं है। जिस बात पर पहले से विश्वास किया जाता है, जो कुछ उनके शास्त्रों, पुराणों और धर्म ग्रंथों में लिखा है वह सत्य है। यदि वह किसी को गलत लगता है, तो गड़बड़ी उसके दिमाग में है।

इस इकहरी सोच के लिए किसी और को दोष देने से पहले अपने इतिहास को ही देंखें तो किसी से शिकायत करने का मौका न रहेगा। आदमी के तीन (त्रिशिरा), चार (चतुरानन), पांच (पंचानन), छह (षडानन). दश (दशानन) मुख हो सकते हैं, चार भुजाएं (चतुर्भुजा, आठ भुजाएं (अष्टभुजा), दश भुजाएं (दशभुजा), हजार भुजाएं (सहस्रबाहु), हो सकती है। यह तो है महज बानगी है।

दूसरों पर हंसने से पहले आईना जरूर देखना चाहिए। यह दूसरी बात है कि इन विचित्रताओं का भारत में एक तार्किक आधार है और इसलिए एक ओर इन पर आंख मूंदकर विश्वास करने वाले लोग हैं, इन प्रतीकों का साहित्य में, कला में उपयोग करने की छूट है, दूसरी ओर इन पर अविश्वास करने की, इनकी आलोचना करने की छूट है, इस आधार पर बीज सत्य तक पहुंचने की छू़ट है, इसलिए ये अनर्गलताएं हमारी जिज्ञासा को खूराक देती हैं। हमें बंद दिमाग का समुदाय होने से बचा लेती है। सामी मजहबों में यह रास्ता बिल्कुल बंद कर दिया गया। बंद दिमाग जिज्ञासा का दरवाजा बंद करने से पैदा होता है ।

कोश ग्रन्थों में इलहाम का अर्थ 1. ईश्वर का शब्द या वाणी 2. देववाणी; आकाशवाणी 3. आत्मा की आवाज़ 4. ईश्वरीय ज्ञान या प्रेरणा 5. आत्मिक दृष्टि मिलता है। इनमें से पहले दो इस्लाम के बाद जोड़े गए नए अर्थ हैं जिनका बाद के उन अर्थों से मेल नहीं बैठता, जो इस शब्द के साथ बाद में जुड़े। हम कह सकते हैं कि इलहाम शब्द इस्लाम के साथ पैदा नहीं हुआ। इसका पुराना अर्थ, इस्लाम के बाद बदल दिया गया। कोशों में हम दोनों को एक साथ पाते हैं जबकि दोनों में कोई समानता नहीं। पुराना अर्थ लगभग वही है जिसे मैं समझता था, लेकिन एक मजहबपरस्त मुसलमान के लिए इसका अर्थ यही नहीं है।

मुझे कई बार पूर्वाभास होता है, जिसमे किसी कार्य का परिणाम पहले ही पता चल जाता है। इसके बाद भी मैं मानता हूं कि जिस दिन इस पर विश्वास करके अपना प्रयत्न छोड़ दूंगा, उस दिन मैं जड़ हो जाऊंगा, इसलिए उस काम को करता अवश्य हूं। कोई कहना चाहे तो मेरे हठ को ही जड़ता कह सकता है, ‘जब बार बार के अनुभव (प्रयोग) से जानते हो कि ये पूर्वाभास गलत नहीं होते तो अपने श्रम और धन की तो बचत कर सकते थे!’

इसमें कारण और कार्य का संबंध न जुड़ पाने के कारण इस पर विश्वास होते हुए भी, इसे मान नहीं पाता। यदि कोई साथ हुआ तो उसे यह बताने का लोभ संवरण नहीं कर पाता कि होना क्या है। साथ जो भी हो, उसे अपने अनुभव का गवाह बनाना चाहता हूं।

मैं अपने एक मुस्लिम मित्र के साथ किसी अधिकारी से, पहले से समय ले कर, मिलने जा रहा था। गाडी़ वह चला रहे थे। बीच रास्ते में मुझे पूर्वाभास हुआ। मैंने परिणाम बताने से पहले भूमिका बांधते हुए कहा, “कभी कभी मुझे इलहाम होता है… इतना सुनते ही उनका चेहरा इस तरह तमतमाया और ह्वील पर हाथ कस गया कि लगा वह गाडी पर अपना नियंत्रण खो देंगे। बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने को संभाला। बोले कुछ नही। कुछ देर तक हम दोनों खामोश रहे। यह समझने में उन्हें कुछ समय लगा कि मेरा इरादा क्या था। सुस्थिर होने पर मैंने बताया कि क्या होने वाला है और ठीक वही हुआ भी, पर हममें से किसी ने इस पर बाद में बात न की।

यह पहला अवसर था जब मुझे पता चला कि इलहाम का जो अर्थ मैं जानता था वह गलत है। कोश ग्रंथों में जो अर्थ मिलता है वह सही नहीं है या अंतर्विरोधी है।

इलहाम अंतरानुभूति नहीं है, यह बाहर से आता है। यह पहली बार मुहम्मद साहब को आया था और उसके बाद न तो किसी दूसरे को आया न आ सकता है। यदि कोई व्यक्ति उसका दावा करता है तो कुफ्र करता है। इसका अंतरात्मा से कोई संबंध नहीं। इसे प्राप्त करना मुहम्मद साहब के वश की बात नहीं थी। एक दौर ऐसा था जब वह इससे डरते थे। लगभग तीन साल का ऐसा दौर भी आया जब वह इसके लिए बेचेन रहते थे कि आता क्यों नहीं. फिर भी न आया।

यह एक जटिल अवधारणा है। भूतों प्रेतों की कहानियां अरब जगत में पड़ोसी देशों की तरह प्रचलित थीं। मुहम्मद को जिहाद की अनुभूति प्रेतावेश के रूप में हुई। जिब्रील फरिश्ता इंसानी वेश में हाजिर हुआ था। मोहम्मद को लगा यह कोई प्रेत है। उसने उनसे वह आयत पढ़ने को कहा जो कुरान की पहली आयत बनी। वह नहीं पढ़ पाए तो उसने उन्हें इस तरह दबोचा कि लगा वह पूरी तरह से खाली हो गए हैं और फिर वही पाठ दुहराने के कहा और तीन बार यही दोहराया गया। इसे हम एक इतिहासकार के शब्दों में रखना चाहेंगे और स्थानाभाव के कारण इसका अनुवाद करने का भार पाठकों पर छोड़ना चाहेंगे:
the first revelation came in the Mount of Hira. When Gabriel came and said, ‘Recite, His Lordship answered, ‘I am not a reciter’. Gabriel squeezed him so hard that he thought, his death was near, And again said, ‘Recite.’ On receiving the same answer, The the Angel again pressed the body of his holy and prophetic Lordship. thrice this was done and thrice the command was given. …

When Muhammad awoke from his trance, he was much alarmed. Then Khadija, Knowing what had happened, And hearing him say that he feared, that he was mad, …
Professional Mcdonald (Religious attitude life in Islam, p.33 cited by Sell p.30 ) says that he was subject to fits of some kind, And be open to no doubt. that he was possessed by a jinn ….. was his first thought, and gradually Did he come to the conviction that this was divine inspiration, and not diabolical obsession. … Muir Speak speaking of Muhammad’s ecstatic period, says: ‘Whether they were simple reveries of profound meditation, or swoons connected with a morbid excitability of the mental or physical conditions – or in fine were connected with any measure of supernatural influence – would be difficult to determine.’

यहां तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली यह कि इलहाम को प्रेतावेश, ज्ञानावेश, मनोरुग्णता, या सोचे समझे फरेब के बीच कहीं रखा जा सकता है। मोहम्मद साहब को स्वयं यह पता नहीं था कि उनके साथ शैतान मनुष्य का वेश बनाकर, अपना खेल खेल रहा है, या उन्हें अल्लाह की ओर से संदेश मिल रहा है। विक्षिप्तता, भ्रामक प्रतीति और आत्मनिर्देशन के बीच सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती। इलहाम हैल्युसिनेशन (भ्रांति) है, या प्रत्यक्षीकरण यह तय करने में इस्लामी पुराण साहित्य हमारी सहायता नहीं करता।

यदि बहुत पहले से मुहम्मद साहब को पैगंबर बनाने का आयोजन चल रहा था, तो इस अनुभव को उस योजना का हिस्सा माना जाए, या वास्तविकता इस पर विचार किया जाना चाहिए था। परंतु इसकी गुंजाइश सामी मजहबों में ही नहीं, पूरे भक्ति साहित्य में नहीं है।

प्रसंग वश याद दिला दें कि इलहाम के समय वह उत्तेजित हो जाते थे, उनके चेहरे पर मानो खून सवार हो जाता था, जिसे एक श्रद्धालु ने उषा की लालिमा के रूप में कल्पित किया है और जिसके कारण उनके चेहरे से नूर झरने की बात की जाती है। मुहम्मद साहब का चित्र तो बनाया नहीं जा सकता, परंतु दूसरे देवप्रतिम पुरुषों के सिर के पीछे दिखाया जाने वाला आभामंडल उसी की देन है। यह राम, कृष्ण या बुद्ध के साथ नहीं मिलेगा, परंतु नानक जी, कबीर दास और सांई के अंकन के पीछे मिल सकता है।