#कबीर# की समझ (7)
कूट भाषा के आविष्कार या प्रयोग के कारण अनेक हैं। इनमें से एक है, किसी संदेश को उन लोगों के सीमित दायरे में रखना जो किसी योजना से जुड़े हो, जैसे ठगों के गिरोह और संगठनों से जुड़े अपराधियों की भाषा जिसका सबसे सटीक उदाहरण बैरगिया नाले के साधु का बाना बना कर आपस में संवाद करने वालों की है जिसमें दामोदर= ‘इस यात्री के पास पैसा है’; नारायण= ‘नाले में पहुँचने दो’ और बासुदेव= ‘डंडे से प्रहार करो’ होता था।
इसमें शब्द हमारे परिचित होते हैं पर अर्थ भिन्न होता है, इसलिए भाषाज्ञान का विशेष महत्व नहीं होता।
अपने सामान्य विचारों को अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध करने या कथ्य के प्रभाव को गहन बनाने के लिए भी कथन को दुरूह बनाया जाता है। नई आलोचना के जनक, विलियम एंपसन ने 1930 में एक पुस्तक लिखी थी Seven Types of Ambiguity जिसमें प्रयुक्त शब्द के भिन्नतर अर्थों को काव्यसौन्दर्य से जोड़कर देखा गया था। भारतीय लालित्य विचार में अलंकारों में कथ्य को गूढ़ और प्रभावशाली बनाने के लिए अतिरंजना, अपह्नुति, श्लेष, विरोधाभास, व्याजोक्ति (निंदा/ स्तुति) आदि अनेक युक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। कूटविधान उसी की पराकाष्ठा है जिसमें पहली नजर में असंभव, वर्जनीय प्रतीत होने वाली उक्तियों के पीछे औचित्य भाव निहित रहता है।
हठयोगियों की यह पंक्ति कि जो व्यक्ति नित्य गोमांस खाता है और अमर वारुणी का सेवन करता है उसी को हम कुलीन मानते हैं, दूसरे जो ऐसा नहीं करते वे कुलघातक हैं
गो मांसं भक्षयेन्नित्यं पिवेदमर वारुणीम्।
कुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातकाः।।
इसके आगे ही आहत करने वाली इस उक्ति का समाधान भी आ जाता है:
‘गो’ शब्देनोदिता जिह्वा तत् प्रवेशो हि तालुनि।
गोमांसं भक्षणं तत् तु महापातक नाशनम्।।
जिह्वा प्रवेश संभूता, वह्न्नोत्पादितः खलु
चंद्रात्स्रवति यः सारः स स्यादमरवारुणी।।4/236
इस व्याख्या के बाद यह कूटोक्ति हो कर भी यदि अपने चमत्कार की रक्षा कर सकती है तो केवल इस कारण कि जिस अनुभव की बात की जा रही है वह भी सामान्य मनुष्य के लिए अकल्पनीय या असंभव है। वह आनंद सचमुच किसी को प्राप्त होता है या मन की एकाग्रता और मादक द्रव्य के सेवन से उत्पन्न मस्ती का दूसरा नाम है इसे तय करना कठिन है परन्तु यह सर्वविदित है कि ये लोग मस्ती छोड़ दुनिया के किसी काम के नहीं रह जाते, अपने जीवनयापन के लिए उसी समाज पर बोझ अवश्य बने रहते है जिसे दुनियादारी में फँसा सिद्ध करते हैं। जैसा हम देख आए हैं ऋग्वेद के समय में भी तीव्र नशे (भांग, धतूरा, सुरा) का सेवन करने वाला, विचित्र बाना बनाकर अपनी सिद्धियों का दावा करने वाला हाशिये का एक समुदाय था और यह था भी उस संप्रदाय का जिसे शैव कहा जाता है।
केशी विषस्य पात्रेण यत् रुद्रेण अपिबत् सह॥७॥
इसमें नरबलि का चलन रहा हो सकता है क्योंकि रुद्र को गोघ्न और पूरुषघ्न कहा गया है:
आरे ते गोघ्नं उत पूरुषघ्नं क्षयद्वीर सुम्नं अस्मे ते अस्तु ।
समाज में इनका आतंक रहा होगा। रुद्र को यज्ञ में नहीं आमंत्रित किया जाता था। इनका चढ़ावा बस्ती से बाहर किसी चौराहे पर डाल दिया जाता था कि आते जाते वह उसे ग्रहण कर सकें।
जो भी हो किसी भी समाज की मुख्यधारा परजीवियों की नहीं होती। ऊपर की चर्चा में हमने देखा कूटभाषा की आवश्यकता समाज से कटे हुए लोगों को होती है, मुख्यधारा में गूढ़ संकेत प्रणाली का प्रयोग चलता है जिसके लिए काव्यालंकारों का प्रयोग होता है।
जो भी हो, कूटोक्तियाँ और उलटबाँसियों का मुख्य प्रयोजन श्रोता को चमत्कृत करना है, न कि अपराधियों की तरह दूसरों के लिए दुर्बोध बनाना।
उलटबांसी का जो अर्थ काफी छानबीन के बाद द्विवेदीजी ने लगाया उससे भी मुझे संतोष नहीं है। बांसी का अर्थ है वंशी या बांसुरी उलट बांसी का अर्थ है उलटे सिरे से बांसुरी बजाना । दुनिया ऐसी बावरी है कि जिधर से सुरीला स्वर निकलना चाहिए उधर से फूक मारती है फिर सही सुर कैसे निकल सकता है। दुनिया के सारे काम तो उल्टे हैं, उसके इच्छित परिणाम कैसे आ सकते हैं?
कबीर उलट बांसी बोलते नहीं हैं, वह दुनिया को आईना दिखाते हैं, देखो यही तुम करते हो : जो बैठी है उसे गाड़ी कहते हो, जो बना दूध है उसे खोया कहते हो, जो पत्थर किसी काम का नहीं, उसकी पूजा करते हो, जिस पर तुम्हारा जीवन निर्भर करता है उसकी उपेक्षा करते हो। तुम बोते बबूल हो, पैदा कांटा होता है, खाना आम चाहते हो। सही परिणाम के लिए, काम का सही होना जरूरी है। सामाजिक न्याय ब्राह्मण की पूजा नहीं है, जो ज्ञान का अधिकारी बन गया है उसे भी केवल अपने और अपनों को देता है, समाज को कुछ नहीं देता और फिर भी समाज उसकी पूजा करता है। पूज्य तो यदि कोई है तो शूद्र है जिसके श्रम और उत्पादन पर पूरा समाज निर्भर करता है।
कबीर उलट बांसी बजाते नहीं हैं, बताते हैं, देखो सामाजिक व्यवस्था की वंशी उल्टे सिरे से बज रही है, इसलिए बेसुरा शोर पैदा हो रहा है, अव्यवस्था फैली हुई है, अन्याय चल रहा है, और पूरा समाज इसके कारण दुखी है।
समाधान यह है कि बांसुरी को सही सिरे से बचाया जाए। मूल्य व्यवस्था को बदला जाए। समाज-व्यवस्था को बदला जाए और एक नए ओजस्वी समाज का उदय हो।
हमने जब कहा था कि कबीर बुद्धिवादी हैं तो कबीर का सही मूल्यांकन नहीं कर सके थे, वह बुद्धिवादी नहीं हैं, धार्मिक मान्यताओं से ग्रस्त समाज के बीच बुद्धिवादी आंदोलन के जनक हैं। भले यूरोपीय बुद्धिवाद उनका ऋणी न हो, भले यूरोपीय बुद्धिवाद एक आंदोलन बन गया हो, और कबीर आंदोलन बनने के बाद भी एक संप्रदाय बन कर रह गए हों, एक आंदोलनकारी के रूप में कबीर के महत्त्व को परिणाम से नहीं, पहल और प्रयत्न से आँका जाना चाहिए।
परंतु उलटबांसी के लिए उन्हें अपनी प्रेरणा सीधे ऋग्वेद से कैसे मिलती है, यह मेरे लिए भी रहस्य है। ऋग्वेद में उलटबाँसियाँ हैं। बीच का वह साहित्य जो लिपिबद्ध करने के योग्य नहीं समझा गया, नष्ट प्रतीत होता है, परंतु हुआ नहीं, अतिजीवित रहा। कालक्रम से, यह अंशतः बदलता हुआ अपने मूल रूप से काफी निकट बना रहा। यह एक जटिल विषय है, जिसकी चर्चा यहां संभव ही नहीं। परंतु लिखित रूप न पाने के बाद भी लोक के स्तर पर साहित्य की वह परंपरा जारी रही और यह मेरा विश्वास है कि सिद्धों, नाथपंथियों और संतो को वेद की विरासत उसी अलिखित परंतु अनवरत प्रवहमान साहित्य से मिली।
इतना कुछ कह जाने के बाद उलट वासियों के कुछ प्रयोग तो ऋग्वेद से प्रस्तुत करने का दायित्व बन ही जाता है। परंतु यह भी याद रखना होगा कि वैदिक कवि सामाजिक सरोकार से उलट वासियों का प्रयोग नहीं कर रहे थे। कबीर ने परंपरा का विस्तार किया। वे चमत्कार पैदा करने के लिए और इसके माध्यम से, अपने विचारों को स्मरणीय बनाने के लिए उलटबांसी का प्रयोग कर रहे थे।
1. पितुः पयः प्रति गृभ्णाति माता तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः ।। 7.101.3 पिता का दूध माता पी रही है और उससे पिता और पुत्र दोनों यथाक्रम बढ़ रहे हैं।
2. वाणी कहती है, अहं सुवे पितरं अस्य मूर्धन् मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे। मैने पिता को जो सबसे ऊपर है, पैदा किया और मेरी योनि समुद्र के भीतर जल में है। यह इतना विचित्र लगने वाला कथन दार्शनिक स्थापना है। ऊपर जो छाया हुआ द्यौस् पितर अर्थात् आकाश है उसका गुण शब्द है- शब्द गुणकं आकाशं। दूसरी ओर समूची आरंभिक भाषा जल की विविध ध्वनियों से पैदा हुई है, इस पर हम पहले भी लिख चुके हैं और आगे पुस्तकाकार लिखना है।
3. इंद्र तुम देवों के पुत्र हो कर भी पिता (पालनकर्ता) बन गए;
4. अदितिः द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम।। अदिति ही आकाश है, वही अंतरिक्ष है, अदिति ही माता है, वही पिता है, वही पुत्र है, समस्त वेवगण, समस्त मनुष्य अदिति हैं, अदिति ही उत्पन्न होती है, वही उत्पत्ति का कारण है।
अब आप इस दार्शनिक गुत्थी को सुलझाने के लिए सिर पीटते रहिए, पर इसे तो बानगी भी नहीं कहा जा सकता।