Post – 2019-08-18

#कबीर# की समझ (7)

कूट भाषा के आविष्कार या प्रयोग के कारण अनेक हैं। इनमें से एक है, किसी संदेश को उन लोगों के सीमित दायरे में रखना जो किसी योजना से जुड़े हो, जैसे ठगों के गिरोह और संगठनों से जुड़े अपराधियों की भाषा जिसका सबसे सटीक उदाहरण बैरगिया नाले के साधु का बाना बना कर आपस में संवाद करने वालों की है जिसमें दामोदर= ‘इस यात्री के पास पैसा है’; नारायण= ‘नाले में पहुँचने दो’ और बासुदेव= ‘डंडे से प्रहार करो’ होता था।
इसमें शब्द हमारे परिचित होते हैं पर अर्थ भिन्न होता है, इसलिए भाषाज्ञान का विशेष महत्व नहीं होता।

अपने सामान्य विचारों को अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध करने या कथ्य के प्रभाव को गहन बनाने के लिए भी कथन को दुरूह बनाया जाता है। नई आलोचना के जनक, विलियम एंपसन ने 1930 में एक पुस्तक लिखी थी Seven Types of Ambiguity जिसमें प्रयुक्त शब्द के भिन्नतर अर्थों को काव्यसौन्दर्य से जोड़कर देखा गया था। भारतीय लालित्य विचार में अलंकारों में कथ्य को गूढ़ और प्रभावशाली बनाने के लिए अतिरंजना, अपह्नुति, श्लेष, विरोधाभास, व्याजोक्ति (निंदा/ स्तुति) आदि अनेक युक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। कूटविधान उसी की पराकाष्ठा है जिसमें पहली नजर में असंभव, वर्जनीय प्रतीत होने वाली उक्तियों के पीछे औचित्य भाव निहित रहता है।

हठयोगियों की यह पंक्ति कि जो व्यक्ति नित्य गोमांस खाता है और अमर वारुणी का सेवन करता है उसी को हम कुलीन मानते हैं, दूसरे जो ऐसा नहीं करते वे कुलघातक हैं
गो मांसं भक्षयेन्नित्यं पिवेदमर वारुणीम्।
कुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातकाः।।
इसके आगे ही आहत करने वाली इस उक्ति का समाधान भी आ जाता है:
‘गो’ शब्देनोदिता जिह्वा तत् प्रवेशो हि तालुनि।
गोमांसं भक्षणं तत् तु महापातक नाशनम्।।
जिह्वा प्रवेश संभूता, वह्न्नोत्पादितः खलु
चंद्रात्स्रवति यः सारः स स्यादमरवारुणी।।4/236

इस व्याख्या के बाद यह कूटोक्ति हो कर भी यदि अपने चमत्कार की रक्षा कर सकती है तो केवल इस कारण कि जिस अनुभव की बात की जा रही है वह भी सामान्य मनुष्य के लिए अकल्पनीय या असंभव है। वह आनंद सचमुच किसी को प्राप्त होता है या मन की एकाग्रता और मादक द्रव्य के सेवन से उत्पन्न मस्ती का दूसरा नाम है इसे तय करना कठिन है परन्तु यह सर्वविदित है कि ये लोग मस्ती छोड़ दुनिया के किसी काम के नहीं रह जाते, अपने जीवनयापन के लिए उसी समाज पर बोझ अवश्य बने रहते है जिसे दुनियादारी में फँसा सिद्ध करते हैं। जैसा हम देख आए हैं ऋग्वेद के समय में भी तीव्र नशे (भांग, धतूरा, सुरा) का सेवन करने वाला, विचित्र बाना बनाकर अपनी सिद्धियों का दावा करने वाला हाशिये का एक समुदाय था और यह था भी उस संप्रदाय का जिसे शैव कहा जाता है।
केशी विषस्य पात्रेण यत् रुद्रेण अपिबत् सह॥७॥

इसमें नरबलि का चलन रहा हो सकता है क्योंकि रुद्र को गोघ्न और पूरुषघ्न कहा गया है:
आरे ते गोघ्नं उत पूरुषघ्नं क्षयद्वीर सुम्नं अस्मे ते अस्तु ।

समाज में इनका आतंक रहा होगा। रुद्र को यज्ञ में नहीं आमंत्रित किया जाता था। इनका चढ़ावा बस्ती से बाहर किसी चौराहे पर डाल दिया जाता था कि आते जाते वह उसे ग्रहण कर सकें।

जो भी हो किसी भी समाज की मुख्यधारा परजीवियों की नहीं होती। ऊपर की चर्चा में हमने देखा कूटभाषा की आवश्यकता समाज से कटे हुए लोगों को होती है, मुख्यधारा में गूढ़ संकेत प्रणाली का प्रयोग चलता है जिसके लिए काव्यालंकारों का प्रयोग होता है।

जो भी हो, कूटोक्तियाँ और उलटबाँसियों का मुख्य प्रयोजन श्रोता को चमत्कृत करना है, न कि अपराधियों की तरह दूसरों के लिए दुर्बोध बनाना।

उलटबांसी का जो अर्थ काफी छानबीन के बाद द्विवेदीजी ने लगाया उससे भी मुझे संतोष नहीं है। बांसी का अर्थ है वंशी या बांसुरी उलट बांसी का अर्थ है उलटे सिरे से बांसुरी बजाना । दुनिया ऐसी बावरी है कि जिधर से सुरीला स्वर निकलना चाहिए उधर से फूक मारती है फिर सही सुर कैसे निकल सकता है। दुनिया के सारे काम तो उल्टे हैं, उसके इच्छित परिणाम कैसे आ सकते हैं?

कबीर उलट बांसी बोलते नहीं हैं, वह दुनिया को आईना दिखाते हैं, देखो यही तुम करते हो : जो बैठी है उसे गाड़ी कहते हो, जो बना दूध है उसे खोया कहते हो, जो पत्थर किसी काम का नहीं, उसकी पूजा करते हो, जिस पर तुम्हारा जीवन निर्भर करता है उसकी उपेक्षा करते हो। तुम बोते बबूल हो, पैदा कांटा होता है, खाना आम चाहते हो। सही परिणाम के लिए, काम का सही होना जरूरी है। सामाजिक न्याय ब्राह्मण की पूजा नहीं है, जो ज्ञान का अधिकारी बन गया है उसे भी केवल अपने और अपनों को देता है, समाज को कुछ नहीं देता और फिर भी समाज उसकी पूजा करता है। पूज्य तो यदि कोई है तो शूद्र है जिसके श्रम और उत्पादन पर पूरा समाज निर्भर करता है।

कबीर उलट बांसी बजाते नहीं हैं, बताते हैं, देखो सामाजिक व्यवस्था की वंशी उल्टे सिरे से बज रही है, इसलिए बेसुरा शोर पैदा हो रहा है, अव्यवस्था फैली हुई है, अन्याय चल रहा है, और पूरा समाज इसके कारण दुखी है।

समाधान यह है कि बांसुरी को सही सिरे से बचाया जाए। मूल्य व्यवस्था को बदला जाए। समाज-व्यवस्था को बदला जाए और एक नए ओजस्वी समाज का उदय हो।

हमने जब कहा था कि कबीर बुद्धिवादी हैं तो कबीर का सही मूल्यांकन नहीं कर सके थे, वह बुद्धिवादी नहीं हैं, धार्मिक मान्यताओं से ग्रस्त समाज के बीच बुद्धिवादी आंदोलन के जनक हैं। भले यूरोपीय बुद्धिवाद उनका ऋणी न हो, भले यूरोपीय बुद्धिवाद एक आंदोलन बन गया हो, और कबीर आंदोलन बनने के बाद भी एक संप्रदाय बन कर रह गए हों, एक आंदोलनकारी के रूप में कबीर के महत्त्व को परिणाम से नहीं, पहल और प्रयत्न से आँका जाना चाहिए।

परंतु उलटबांसी के लिए उन्हें अपनी प्रेरणा सीधे ऋग्वेद से कैसे मिलती है, यह मेरे लिए भी रहस्य है। ऋग्वेद में उलटबाँसियाँ हैं। बीच का वह साहित्य जो लिपिबद्ध करने के योग्य नहीं समझा गया, नष्ट प्रतीत होता है, परंतु हुआ नहीं, अतिजीवित रहा। कालक्रम से, यह अंशतः बदलता हुआ अपने मूल रूप से काफी निकट बना रहा। यह एक जटिल विषय है, जिसकी चर्चा यहां संभव ही नहीं। परंतु लिखित रूप न पाने के बाद भी लोक के स्तर पर साहित्य की वह परंपरा जारी रही और यह मेरा विश्वास है कि सिद्धों, नाथपंथियों और संतो को वेद की विरासत उसी अलिखित परंतु अनवरत प्रवहमान साहित्य से मिली।

इतना कुछ कह जाने के बाद उलट वासियों के कुछ प्रयोग तो ऋग्वेद से प्रस्तुत करने का दायित्व बन ही जाता है। परंतु यह भी याद रखना होगा कि वैदिक कवि सामाजिक सरोकार से उलट वासियों का प्रयोग नहीं कर रहे थे। कबीर ने परंपरा का विस्तार किया। वे चमत्कार पैदा करने के लिए और इसके माध्यम से, अपने विचारों को स्मरणीय बनाने के लिए उलटबांसी का प्रयोग कर रहे थे।
1. पितुः पयः प्रति गृभ्णाति माता तेन पिता वर्धते तेन पुत्रः ।। 7.101.3 पिता का दूध माता पी रही है और उससे पिता और पुत्र दोनों यथाक्रम बढ़ रहे हैं।
2. वाणी कहती है, अहं सुवे पितरं अस्य मूर्धन् मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे। मैने पिता को जो सबसे ऊपर है, पैदा किया और मेरी योनि समुद्र के भीतर जल में है। यह इतना विचित्र लगने वाला कथन दार्शनिक स्थापना है। ऊपर जो छाया हुआ द्यौस् पितर अर्थात् आकाश है उसका गुण शब्द है- शब्द गुणकं आकाशं। दूसरी ओर समूची आरंभिक भाषा जल की विविध ध्वनियों से पैदा हुई है, इस पर हम पहले भी लिख चुके हैं और आगे पुस्तकाकार लिखना है।
3. इंद्र तुम देवों के पुत्र हो कर भी पिता (पालनकर्ता) बन गए;
4. अदितिः द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः ।
विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम।। अदिति ही आकाश है, वही अंतरिक्ष है, अदिति ही माता है, वही पिता है, वही पुत्र है, समस्त वेवगण, समस्त मनुष्य अदिति हैं, अदिति ही उत्पन्न होती है, वही उत्पत्ति का कारण है।
अब आप इस दार्शनिक गुत्थी को सुलझाने के लिए सिर पीटते रहिए, पर इसे तो बानगी भी नहीं कहा जा सकता।

Post – 2019-08-17

#कबीर# की समझ (6)

ऋग्वेद कूटगर्भित रचनाओं का ऐसा भंडार है जिसके अनेक संकेतों कों समझने में हजारों साल के प्रयत्न के बाद, मूर्धन्य विद्वान तक, असमर्थ रहे हैं। इसका लाभ उठा कर ऋग्वेद के साथ मनमानी छूट लेने वाले, जो निर्णायक कथन हैं उनको मानने की जगह मनमाना अर्थ उन पर लादते रहे हैं। इसलिए ऋग्वेद में समुद्र है, पर ऐसे व्याख्याकारों के अनुसार समुद्र नहीं है, क्योंकि चरवाहों का समुद्र से क्या लेना देना- समुद्र का अर्थ जलाशय है, वह एक जलपात्र से लेकर उस तक हो सकता है जिसे ocean कहते हैं।’

आप याद दिलाएं इसमें नाव भी चल रही है, तो तर्क देते हैं, ‘वे तो आकाश में भी समुद्र की कल्पना कर लेते थे और उसमें भी नाव चलवा सकते थे।’

अभी तक का कीर्तिमान यही रहा है कि इनका विरोध करने वाले लोग भी इकहरी व्याख्याओं के सम्मुख समर्पण कर देते रहे हैं। यह समर्पण ‘संस्कृत के विद्वानों द्वारा भी, जो ऋग्वेद के संबंध में अपने को सबसे अधिकारी व्यक्ति मानते हैं, भी होता रहा है या कहें कि उनके द्वारा ही होता रहा है, तो गलत न होगा।

वे मिशनरी व्याख्याओं के साथ भी सहमत हो जाते हैं, स्वामी दयानंद की व्याख्या से भी सहमत हो जाते हैं और अरविंदघोष की ब्रह्मवादी व्याख्या के सामने भी अवाक रह जाते है। इनमें से कोई यह मानने को तैयार नहीं होता कि, विश्वास पर पलने वाले लोग, वे किसी भी मजहब के हों, जिसे नहीं जानते हैं उसे अपनी अज्ञता छिपाने के लिए, पूरी दृढ़ता से मानते हैं।

इन सभी के साथ केवल एक कमी पाई जाती है। वह है भाषा पर अधिक भरोसा करना। भाषा में एक ही शब्द के अनेक वैकल्पिक आशयों और व्याख्या की संभावनाओंं के कारण वे, स्वयं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाते।

सही नतीजे पर पहुंचने के लिए शब्दों का अर्थ जानना नहीं उन्हें सही संदर्भ में जानना जरूरी होता है और इसी कारण जब अपने दिमाग से सबसे कम काम लेते हुए, भौतिक सभ्यता के संदर्भ में उनके योगदान का आकलन करते हुए संदर्भ के अनुरूप अर्थ ग्रहण करते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने ऋग्वेद का एक नया पाठ प्रस्तुत किया तो सभ्यता संदर्भ बदल गया। इंद्रियबोध के प्रतीक इंद्र के जन्म के विषय में एक ऋचा हैः
केतुं कृण्वन् अकेतवे पेशो र्मर्या अपेशसे । सं उषद्भिः अजायथ ।। 1.6.3

इंद्र का अर्थ, इंद्रियबोध है, एक दूसरा अर्थ सूर्य है जो भी उषा के साथ ही उदित होता है। वह जन्म के साथ ही पहले जो पहले अदृश्य था (रूपाकारहीन) था उसे स्वरूप प्रदान कर देता है, अचेत को सचेत बना देता है, सौंदर्यहीन को सजीला बना देता है। वह उषाओं (ऊष्मा प्रदान करने वाली किरणों के साथ पैदा होता है।

शब्दों का व्यावहारिक अर्थ समझने पर भी रचनाओं का मर्म ग्रहण नहीं हो पाता, परंतु शब्दों का व्यावहारिक अर्थ जाने बिना भी काम नहीं चलता। संस्कृत का ज्ञान होना जरूरी है, संस्कृत के ज्ञान के बाद भी रचनाएं समझ में नहीं आतीं। यही कारण है संस्कृत के विद्वान भी ऋग्वेद से घबराते हैं।

यहां हम ऋग्वेद की चर्चा नहीं कर रहे हैं, उसकी परंपरा की बात कर रहे हैं। यदि सिद्धों और संतों की रचनाओं का महत्व उनके कूट-विधान के कारण हैं, तब दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला, अपने को ऋषियों की तरह ज्ञान और सिद्धि से ऊपर सिद्ध करने के लिए उनका प्रयत्न पूर्वक वेदों की कूटप्रणाली को अपनाना और दूसरा, इस दावे के बाद भी कि वे वैदिक कवियों से आगे बढ़ चुके हैं, उनसे बहुत पीछे रह जाना। अंतर्वस्तु के मामले में तो सिद्धों और संतों, दोनों का साहित्य बहुत सीमित रह जाता है।

द्विवेदी जा का यह कथन सही है कि “ नाथपंथ में स्मार्त आचारों को कोई महत्व नहीं दिया जाता।” परंतु यह निष्कर्ष कि “यह बात उसे हिंदूधर्म के एकदम विरुद्ध खड़ा कर देती है”(4/229), सही नहीं लगता, क्योंकि स्मृतियां उस अर्थ में धर्मग्रंथ नहीं है जिस अर्थ में किताबी मजहबों के ग्रंथ। धर्मशास्त्र का अर्थ Scripture/ religious text नहीं, अपितु legal code है जो प्रशासन के हाथ में होता है और यह किसी के मानने या न मानने का कायल नहीं, संपत्ति या आचार विषयक विवाद पैदा होने पर लागू होगा ही। इनका ईसवी सन् की तीसरी शताब्दी से पहले का विधान हमें मालूम नहीं। फिर स्मृतियाँ अनेक हैं और इनके विधान परस्पर भिन्न हैं। ऋग्वेद के समय में या उपनिषदों के समय में दंड विधान और संपत्ति के नियम ठीक क्या थे इसका हमें पूरा ज्ञान नहीं। आज स्मृतियों के स्थान पर संविधान आ जाने के बाद कोई इन्हें नहीं मानता नहीं फिर भी हिंदू हिंदू हैं।

स्मृतियों का एक ही पक्ष आपत्तिजनक है और वह है वर्ण व्यवस्था, परंतु उसमें भी सामाजिक अन्याय दूसरे प्राचीन समाजों की तुलना में इतना कम रहा है कि ईसाइयत के आगमन से पहले किसी ने इनकी आलोचना नहीं की और इसके आगमन के बाद भी, ईसाई प्रचारकों को छोड़कर, अधिकांश पश्चिमी भारतविदों ने अपने समाज की भीतरी व्यवस्था और उसमें स्वीकार्य गुलामी को देखते हुए इसकी सराहना ही की।

केवल आज जब सामाजिक समानता की अवधारणा समस्त सभ्य जगत की अनिवार्य शर्त बन गई है, और इसके आधार पर भारत में भी सामाजिक भेदभाव को दंडनीय अपराध बनाया जा चुका है, इसे आलोचना का विषय बनाया जाता है।

वर्ण व्यवस्था हिंदुत्व नहीं, वर्ण व्यवस्था की आलोचना करने वाले और आज तक इसके कुसंस्कारों से मुक्त न हो पाने वाले, सभी समान रूप से हिंदू हैं। वेदांती, बौद्ध, शैव, शाक्त, सिद्ध, नाथपंथी, तांत्रिक, और आज के सामाजिक न्याय के पक्षधर सभी हिंदू होते हुए भी वर्णवाद और बाह्याचार विरोधी रहे, विरोध की यह छूट ही उन्हें हिंदू बनाती है।

अब इस परिप्रेक्ष्य में हम ऋग्वेद की कूट रचनाओं पर बात कर सकते हैं। कूट-विधान के कुछ अनिवार्य लक्षण है जिनको एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो कहेंगे जो असंभव है उसका किसी तर्क से संभव होना।
यह संभावना भाषा के खेल से पैदा होती है और भाषा का खेल ऋग्वेद के समय में जितना खुल कर खेला जा सकता था उतना उसके बाद कभी संभव नहीं था। कल्पना करें, गो का अर्थ गमन करने वाला कोई भी वस्तु या जीवधारी जिनमें से किसी के लिए यह रूढ़ हो सकता है, परंतु जरूरत पड़ने पर, उस गुण या प्रकृति के किसी अन्य के लिए भी प्रयोग में आ सकता है। रूढ़ार्थ गाय, व्यावहारिक अर्थ गो प्रजाति, लाक्षणिक अर्थ – कोई गमनशील जीव या वस्तु (धरती, वाणी, आँख, पण्यद्रव्य, धन) और गो उत्पाद – गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, मक्खन, घी, सींग, चमड़ा। इस तरह किसी भी प्रयोग की इतनी अलग अर्थ दिशाएं पैदा होती हैं कि इनमें से किसी का प्रयोग करते हुए चमत्कार पैदा किया जा सकता है। कहें, कूट का प्रयोग हम आज तक देख सकते हैं, परंतु इसके पीछे काम करने वाले तर्क को ऋग्वेद के प्रयोगों से ही समझ सकते हैं। उदाहरण के साथ बात करना जरूरी है, परन्तु आज वह संभव नहीं लगता।

इतना अवश्य कह दें कि जो भारतीय वेद को नहीं जानता वह अपने को नहीं जानता; परंतु ऐसा व्यक्ति ढूंढे नहीं मिलेगा जो यह दावा करे कि वह वेद को जानता है। दावा करे तो हम मान भी लें। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि पिछले 4000 सालों के भीतर सही सरोकारों के साथ ऋग्वेद को समझने की तैयारी करने के बाद भी बहुत कुछ छूटा रह जाता है ।

Post – 2019-08-16

#कबीर# की समझ (5)

न तो सिद्ध वेदविरोधी हैं, न नाथपंथी, न ही कबीर या दूसरा कोई संत। बुद्ध स्वयं भी वेदविरोधी नहीं थे। इस तरह का भेद मार्क्सवादियो ने पैदा किया जिन्हें न मार्क्सवाद की सही समझ थी, न ही भारतीय समाज की। वर्ग संघर्ष की जगह उन्होंने हिंदू समाज में धर्म संघर्ष शुरू कर दिया और इन सभी को वेदविरोधी सिद्ध करने का प्रयास करते रहे। इन सभी का सामाजिक भेदभाव, बाह्याचार और कर्मकांड से विरोध था । इसका एक जटिल आर्थिक इतिहास है, जिसकी कभी किसी ने -नृतत्वविज्ञानियों या समाज विज्ञानियों तक ने – व्याख्या नहीं की। वे जिस सँकरे दायरे और दबी हुई सोच से काम करते थे, उसमें यह संभव ही न था। दूसरा करे तो वे अपने अधिकार क्षेत्र में किसी बाहरी का हस्तक्षेप सहन भी नहीं करेंगे। पोंगापंथी जितनी अपने विषयों का अधिकारी समझने वालों के बीच होती है उतनी जाहिलों मैं भी नहीं।

समाज में वेदों और ऋषियों के प्रति अपार श्रद्धा रही है, जिसके कारण अलग राह पर चलने वाले भी अपनी लोकप्रियता के लिए उनका नाम लेते या अपनी उपलब्धियों को उनकी सापेक्षता में रख कर पेश करते और अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए अपने विचारों को उनसे भी ऊंचा ठहराते रहे हैं। बुद्ध वेदगू और वेदंतगू (वेद और वेदांत के ज्ञाता) कहे जाते हैं। वेदांत स्वयं वेद का अंत है। विचारों में यह मोड़ कब और कैसे आया, इसे जानना जरूरी तो है, परंतु अभी इतना ही कि यह उस महान, और शताब्दियों तक चलने वाले प्राकृतिक विपर्यय, का परिणाम था, जिसे न समझा गया, न सही सही रेखांकित किया गया ।

वेदांत में दुहरे प्रयत्न हैं। एक ओर वह वेद तक पहुंचने का प्रयत्न करता है दूसरी ओर वेद-शास्त्र के ज्ञान को, ज्ञान मात्र को, ब्रह्मज्ञान के सम्मुख तुच्छ मानता है:
नारद सनत कुमार के पास जाते हैं ब्रह्मज्ञान के लिए । सनत कुमार नारद से पूछते हैं, क्या जानते हो? वह बताते हैं, मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, कल्प, राशि-विद्या, उत्पात-विद्या, नीतिशास्त्र तर्कशास्त्र, देवविद्या, भूतविद्या, क्षत्रविद्या, नक्षत्रविद्या सभी को जानता हूं, तो सनत कुमार कहते हैं यह तो मात्र नाम है।
यहाँ केवल वेद का नहीं भौतिक ज्ञान मात्र का निषेध है। इसके होते हुए आत्मज्ञान संभव ही नहीं है।
उपनिषद की भाषा में कहें तो ‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।’

गोरख पंथियों का यह दावा कि अवधूत वह है “ जिसके वाक्य वाक्य में वेद निवास करते हैं, पद पद में तीर्थ बसते हैं, प्रत्येक दृष्टि में मोक्ष विराजमान होता है, इसके एक हाथ में त्याग है और दूसरे में भोग, प्रकारांतर से वेद, तीर्थ, और त्याग आदि के प्राचीन मूल्यों समर्थन करता है।

कबीर वेद और किताब को इसी अर्थ में व्यर्थ मानते है:
गगन गरजै तहाँ सदा पावस झरै होत झनकार नित बजत तूरा।
वेद कत्तेब की गम्म नाहीं तहाँ कहैं कब्बीर कोई रमै सूरा।
परंतु सूक्षम वेद को जानने का दावा वह भी करते हैं।
क्या है यह सूक्ष्म वेद। यह चारों वेदोे के लिए अलग अलग है, पर है चारों के विषय में। ऋग्वेद के विषय में “ कूट वाणी ही सूक्ष्मवेद है।” 4/ 241

हमें आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि कबीर जैसा अनपढ़ यह कैसे जान सका कि ऋग्वेद में गूढ़ोक्तियां हैं, आश्चर्य इस बात पर है कि कबीर की कविता में ठीक वही वाक्य वही भेद कैसे पहुंच गया। ऋग्वेद की ऋचा है, जो समुद्र यात्रा के समय में पेय जल संकट से संबंधित है: ‘अपां मध्ये तस्थिवांसं, तृष्णा अविदत् जरितारम्। मृळ सुक्षत्र, मृळय, 7.89.4।’ पानी के बीच रहते हुए भी हमें प्यास सता रही है, वरुण देवता अब तो कृपा करो (कि हम किनारे जा लगें)।

यह रूपक ऋग्वेद में दो बार आया है, एक में बहुत किफायत से गला तर करते हुए पीने की बात है,
पिबतं च तृष्णुतं चा च गच्छतं प्रजां च धत्तं द्रविणं च धत्तम् । सजोषसा उषसा सूर्येण च सोमं पिबतमश्विना ।। 8.35.10,

इस सूक्त में जल यात्रा के दौरान दस्युओं का सामना करने और उनसे निबटने का भी हवाला है।

दूसरा जिसका उल्लेख हम कर आए हैं। इसके भौतिक पक्ष से अपरिचित होने या सांसारिकता से संबंधित होने के कारण कबीर इसे स्थूल मानते हैं और आत्मा की ओर इसी रूपक को मोड़ कर उसे सूक्ष्म वेदज्ञान मान लेते हैं।

शुद्ध आत्मा सांसारिक भोग को दूषित मान कर अपने भोगफल से बचने के लिए प्यासा रहना पसंद करती है – जल बिच मरत पियासा, धोबिया।

और दूसरा तृष्णा के वश में आ गए तो तृप्ति नहीं होती, अधिक से अधिक की मांग बनी रहती है और इस अतृप्ति का अंत नहीं:
पानी बिच मीन पियासी, मोहिं सुनि आवै हांसी।।

इसी क्रम में एक दूसरे रूपक को भी रख सकते हैं जिसमें आत्मा और जीव को एक दूसरे से जुड़े दो पक्षियों के रूप में चित्रित किया जाता है- एक डाल दो पक्षी बैठे एक गुरू एक चेला के रूप में हुई है। यह ऋग्वेद की जिन ऋचाओं से प्रेरित है वे निम्न प्रकार है:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते ।
तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति अनश्नन् अन्यः अभि चाकशीति ।। 1.164.20 {17}
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागं अनिमेषं विदथं अभिस्वरन्ति ।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीरः पाकमत्रा विवेश ।। 1.164.21

Post – 2019-08-15

#कबीर#की_समझ (4)

कबीर के बारे में हमारी समझ यह होनी चाहिए कि कबीर अराजकतावादी नहीं हैं। द्विवेदी जी का यह विचार बहुत सही है कि “अक्खड़ता कबीर दास का सर्वप्रधान गुण नहीं है।” वह पुरानी व्यवस्था में व्याप्त अराजक , अमानवीय रीतियों-व्यवहारों के निराकरण और एक तर्कसंगत माननीय समाज व्यवस्था के पक्षधर हैं। हमारे देश में, जिस समय वह हुए थे, उस समय, हम ही नहीं दुनिया का कोई व्यक्ति बुद्धिवाद, rationalism, शब्द से परिचित नहीं था। वह बुद्धिवादी थे, अपने समय से कई सौ साल आगे थे।

कबीर को जब हम अपनी जरूरत से प्रगतिशील सिद्ध करना चाहते हैं तो एक संकट पैदा होता है। भौतिकता से विमुख, आत्मवादी, अंतर्मुखी, आध्यात्मिक सिद्धि की ओर उन्मुख व्यक्ति को क्या प्रगतिवादी कहा जा सकता है?

इसकी दूसरी परिणति यह होती है कि हम उनकी सापेक्षता में तुलसीदास को प्रतिगामी, प्रगति विरोधी मान लेते हैं। एक ऐसा विचारक जो अंतर्मुखता, अपने कल्याण, और अपने लिए किसी परम सुख और परम गति के लिए समाज की उपेक्षा करने वाले, आर्थिक और भौतिक सरोकारों की उपेक्षा करने वाले की आलोचना करते हुए उन्हें बहिर्मुख होने की चुनौती देता है, क्या उसे प्रतिगामी कहेंगे, प्रगति विरोधी कहेंगे ?

सोच के इस दायरे में प्रगतिशील तुलसीदास सिद्ध होंगे न कि कबीर दास। कबीर दास के साथ यहाँ अन्याय होगा।
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बौद्धिक विमर्श में शब्दों के इस्तेमाल में तनिक भी लापरवाही से भारी अनर्थ हो सकता है और होता रहा है, जिसके एक प्रमाण कबीर दास स्वयं हैं।

वह बुद्धिवादी थे, रैश्नलिस्ट थे, और बुद्धिवाद की अपनी सीमाएं भी हैं। बुद्धि एक छोटे दायरे में काम करती है, और उससे आगे बढ़ते ही वह दुर्बुद्धि का पर्याय बन जाती है। बुद्धिवाद सराहनीय है, पूज्य नहीं। इसका विरोध उसकी संज्ञा ही करती है। बुद्धि वाद की सीमाओं की उपज है व्यवहारवाद या pragmatism. इसकी परिभाषा निम्न प्रकार दी गई है:
Pragmatism is a philosophical movement that includes those who claim that an ideology or proposition is true if it works satisfactorily, that the meaning of a proposition is to be found in the practical consequences of accepting it, and that unpractical ideas are to be rejected.
इसको न समझ पाने के कारण बारी बारी से कबीर दास और तुलसीदास के साथ आलोचकों ने लगातार अन्याय किए हैं। यदि कबीर अपने समय से सदियों आगे थे तो वही बात तुलसी पर भी लागू होती है।
ये दोनों भारतीय सामाजिक चेतना के ऐसे दो शिखर पुरुष हैं, जिनमें पारस्परिक विरोध होते हुए भी वैचारिक आधार पर सही गलत का निर्णय आसानी से नहीं किया जा सकता।

कबीर आज भी जरूरी हैं, तुलसीदास उससे अधिक जरूरी हैं, परंतु दोनों में से कोई भी न हमारे समय का है, न ही हमारे समय की समस्याओं से अवगत है, इसलिए अपने-अपने ढंग से ये हमारे प्रेरक हो सकते है, अधिनायक नहीं। अनुकरणीय कोई भी नहीं। अपने समय में एक को मानने वाला दूसरे का निषेध करता रहा हो, हमारे समय में दोनों की प्रेरणाओं की जरूरत है।

मुझे खेद है कि इस, सबसे जरूरी पक्ष पर, न तो द्विवेदी जी की नजर गई, न मेरी जानकारी के किसी दूसरे आलोचक की , और मैं, जिसने अपने को आलोचना की अपेक्षाओं के अनुरूप कभी तैयार ही नहीं किया, अपने विचारों को संगत पाते हुए भी यकीन नहीं कर पाता कि ये सही भी हैं।

Post – 2019-08-14

#कबीर# की समझ (3)
वेद और लोक

वेद को समझे बिना न भारतीय संस्कृति को समझा जा सकता है, न इतिहास को, न उन भाषाओं को जिन्हें भारत में आर्यभाषा-परिवार में रखा जाता है, और भारत से बाहर भारोपीय परिवार की भाषाओं के रूप में। विश्व- सभ्यता के उदय और विकास को पूरी तरह समझने में ऋग्वेद की भूमिका कामचलाऊ ही है, परंतु इसके अभाव में उसे समझा ही नहीं जा सकता क्योंकि उसी में इस बात के संकेत भी हैं कि इसका इतिहास और पीछे जाता है। पीछे के वे चरण ब्राह्मणों और संहिताओं में अपेक्षाकृत अधिक विस्तार से अंकित मिलते हैं जो वेदों के भौतिक पक्ष को समझने के प्रयत्न में लिखे गए लगते हैं।

संस्कृत को वैदिक से अलग करने के लिए जाने किस ‘समझदार’ ने इसे लौकिक संस्कृत नाम दे दिया, जब कि यह सर्वविदित है कि संस्कृत लोकविमुख भाषा थी जब कि वैदिक सामाजिक व्यवहार की भाषा थी, यद्यपि इसकी स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी आज की हिंदी या व्यापक संपर्क के लिए काम में आने वाली दूसरी प्रादेशिक भाषाओं की है। इस बहुस्तरीय समाज के लोग अपने-अपने दायरे में अपनी बोलियों का व्यवहार करते थे, और उससे बाहर, दूसरों से संपर्क के लिए वैदिक का व्यवहार किया जाता था।

सधुक्कड़ी भाषा और वैदिक
पाणिनी ने वैदिक भाषा के लिए आर्ष-भाषा का प्रयोग किया था। यह आर्ष भाषा नहीं थी जैसा कि वह अपनी सीमाओं के कारण समझ बैठे और संभवतः ऐसी ही समझ से वैदिक को ऋषियों की भाषा मानकर संस्कृत को साधारण जनों की भाषा मानते हुए इसे लौकिक संस्कृत की संज्ञा दी गई। वेद आप्त हैं, ऋषियों के कथन आप्त हैं, उनकी भाषा भी आप्त होनी चाहिए। इसके होते हुए भी उसमें इतनी कमियां पाणिनि ने स्वयं क्यों गिना दीं कि इसमें अनियमितता, प्रयोगों की बहुलता है (छंदसि बहुलम्), बोलियों (विभाषा) के हस्तक्षेप देखने में आते हैं, नियम कुछ दूर चलते हैं, उनका निर्वाह नहीं हो पाता (क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः)। पाणिनि की ही बात मानें तो जिसमें बोलियों के दबाव से अनियमितता पैदा हुई है वह लौकिक भाषा है, या सभी प्रभाव को दूर करके, कठिन शिक्षा प्रणाली से गुजरने के बाद अल्प लोगों द्वारा अर्जित की जाने वाली कालातीत, देशातीत भाषा जो यंत्रमानव के सर्वथा उपयुक्त है और संस्कृत शिक्षा प्रणाली द्वारा विद्वानों को यंत्र मानव बना दिया जाता था। आश्चर्य नहीं कि हाल के दिनों में कुछ लोग बढ़-चढ़कर यह दावा करने लगे हैं संस्कृत कंप्यूटर के लिए दुनिया की सबसे उपयुक्त भाषा है। दावा गलत नहीं है। लेकिन भाषा उसी को कहते हैं जिसे आदमी अपनी जबान से बोलता है; उसे नहीं जिसे मशीन बोलती है और मशीन समझती है और जिसके प्रभावक्षेत्र में नियम कायदे इतने प्रधान हो जाते हैं, पूरी मशीन को तोड़ो अभी मशीन को नए सिरे से जोड़ा जा सकता है पूरे समाज को तो दो भी नया समाज बन सकता है बीच में पंचर की गुंजाइश तक नहीं।

इसलिए यदि दोनों में फर्क करना और कहना होगा लौकिक संस्कृत अर्थात् वैदिक भाषा थी, और शिष्ट (शिक्षा लभ्य) संस्कृत या पाणिनीय संस्कृत।

संभवतः रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा की संज्ञा दी थी। इसका आशय यह था कि इसे किसी भी बोली की कसौटी पर खरा नहीं पाया जा सकता। साधु संत अनेक क्षेत्रों में विचरण करते रहते थे और उनकी भाषा उन स्थानों की बोलियो से प्रभावित होती थी। यदि हम पाणिनी के शब्दों में इसी बात को रखना चाहें तो कहना होगा, यह प्रयोग बहुला भाषा है, विभाषाओं से प्रभावित भाषा है। इसके नियम कुछ दूर तक एक बोली के अनुसार चलते हैं और आगे उनका निर्वाह नहीं हो पाता और इस खास मानी में वैदिक भाषा के समकक्ष है ।

इस साम्य और अंतर को स्पष्ट करना इसलिए जरूरी था कि हम समझ सकें कि क्यों ऋग्वेद के मुहावरे, उसके छंद, प्रतीक सामाजिक आर्थिक ढांचे में अनेक परिवर्तनों के बाद भी बोलचाल की भाषा में बचे रह गए जबकि संस्कृत साहित्य का बहुत कम जनसाधारण तक पहुंच पाया। इन पहलुओं पर उच्च विचार मैंने हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में भाषा समाज और धर्म के संदर्भ में दिए हैं। यहाँ केवल यह याद दिलाना चाहता हूं कि वेदिक समाज का दाय सिद्धों और संतों को लोक के माध्यम से प्राप्त था न कि रामानुज या लिखित ग्रंथों के माध्यम से। इसमें वेद और उपनिषद दोनों का ज्ञान शामिल है। यद्यपि निखार सत्संग के माध्यम से भी आया होगा।

संध्याभाषा

द्विवेदी जी ने संध्या भाषा का अर्थ लगाने के लिए काफी उधेड़बुन की है। इस भाषा से क्या तात्पर्य है, इसके विषय में जिन लोगों के मत का उल्लेख उन्होंने किया है, न तो उनमें से किसी का ध्यान इस ओर गया कि ऋग्वेद के समय से, और संभवत उससे भी पहले से इसका प्रयोग अशिक्षितों द्वारा भी होता आया था और उन्हें भी इसे वहीं से अपनाया था। अपने को ज्ञानी सिद्ध करने की भूख अधिक जानकारी रखने वालों की तुलना में कम जानकारी रखने वालों के भीतर कुछ अधिक ही होता है। इसके परिणाम स्वरूप साधारण बात को भी गूढ़ बनाकर कहने के प्रयत्न उनमें से ऐसे लोगों द्वारा जो अपने को दूसरों से अधिक मेधावी सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील रहे होंगे, किया जाता रहा है । इसे भोजपुरी में बुझौवल कहते हैं और इसमे दक्ष लोगों के लिए बुझक्कड का ओर कयासबाजी में तुक्के भिड़ाने वालों के लिए (?) लालबुझक्कड़ का प्रयोग चलता है। इसको आधार बना कर खासा साहित्य रचा जा चुका है जिसे पहेली कहते हैं। बार-बार दोहराए जाने के बाद इनका उत्तर भी अधिकांश लोगों को पता होता है। संध्या भाषा के प्रतीकों की समझ के बाद इनका अर्थ जानना कठिन नहीं था परंतु इसे प्रतीक विधान से अपरिचित व्यक्ति के सामने इसको जानने वाला ज्ञान की दिनांक सकता। पंडितों के समक्ष अशिक्षित कबीर पंथी ‘हम भी कुछ जानते हैं जिसे तुम समझ नहीं सकते’ गर्व के साथ खड़ा हो सकता था।

यदि मैं कहूं कि इसे भी लोक के माध्यम से ऋग्वेद में भी स्थान मिला यह तो यह बात समझ में नहीं आएगी। समझाने के लिए इतने विस्तार में जाना पड़ेगा उसके लिए समय नहीं रह गया। परंतु दो बातें समझ में आ सकती हैं। पहली यह कि ऋग्वेद के समय में भी मुख्यधारा से कटे हुए, समाज-व्यवस्था के भेदभाव को चुनौती देने वाले मौजूद थे। अड़बंग भाषा में बात करने वाले वे लोग, वैदिक चिंतन और दर्शन का निषेध करने के लिए, भौतिक उपलब्धि के अभाव में असाधारण आत्मिक उपलब्धियों का दावा करते थे। वैचारिक उत्कर्ष के अभाव में इतनी मामूली बातों को भी दुर्बोध अटपटी भाषा में व्यक्त करके ऋषियों से भी ऊपर उठने का दावा करते फिरते थे।

तंत्र साधना की उत्पत्ति मध्यकाल में नहीं हुई, वैदिक काल में भी नहीं हुई। इसका इतिहास खेती-बारी आरंभ होने से पहले – इतना पहले कि इसका सही आकलन नहीं किया जा सकता – आरंभ होता है। परंतु सभ्यता के विकास में इनका योगदान नकारात्मक रहा है; एकमात्र लक्ष्य व्यवस्था विरोध रहा है। व्यवस्था का विश्लेषण नहीं, आलोचनात्मक विवेक से उसकी बुराइयों के निराकरण का प्रयत्न नहीं, अंध विरोध। यह आज तक जारी है।

दिवेदी जी स्वयं ऋग्वेद से अपरिचित होने के कारण इसे नहीं समझ सकते थे। उन्हें भ्रम रहा होगा कि वह यह पहली परंपरा से अलग, दूसरी परंपरा है। दूसरी परंपरा की खोज करने वाले यह नहीं समझ सकते थे कि पहली परंपरा यही है, जिसे वे दूसरी प इसकारंपरा समझ बैठे। एकहि साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। जो तू सींचै मूल को फूलै फलै अघाय। दुर्भाग्य से मूल का पता न द्विवेदी जी को था न ही कवच बनकर उनकी रक्षा करना चाहते थे।

अपनी गूढ़ोक्तियों को वैदिक कवि नीहारमंडित या कुहासे में लिपटी हुई उक्ति कहते थे- नीहारेण प्रावृता जल्प्या ,,,10.82.7. ऋग्वेद में इसका खुलकर प्रयोग किया गया है जिससे अर्थ करने वाले चक्कर में पड़ जाते हैं।

Post – 2019-08-13

#कबीर# की समझ (2 )
मेरे मन में रामचंद्र शुक्ल, परशुराम चतुर्वेदी, गुलेरी जी, राहुल जी, द्विवेदी जी और रामविलास शर्मा के प्रति गहरा सम्मान उनके अधिक सही या गलत होने के कारण नहीं है अपितु इसलिए कि वे अध्यवसायी थे, समर्पित भाव से अपने समाज, भाषा और साहित्य की श्रीवृद्धि करना चाहते थे। कौन सही है? कितना सही है? यह निर्णय वहां भी मेरे लिए महत्व नहीं रखता जहां वे गलत सिद्ध होते हैं। मेरे विचारों को कोई गलत सिद्ध करे, इसी में उपलब्धि मानूँगा, क्योंकि उसके साथ हमारी जातीय है समझ में और स्पष्टता आएगी।

द्विवेदी जी ने कबीर को समझने के लिए सिद्धों और योगियों के साहित्य का असाधारण परिश्रम से अध्ययन किया। परंतु उस स्रोत ग्रंथ की ओर उनकी दृष्टि ही नहीं गई जो कबीर की कविता में रक्त-संचार करता है। यह है ऋग्वेद। ब्रह्म और माया, आत्मा और जीवात्मा खेल, अस्थि पंजर को एक पिंजड़े रूप में कल्पित करना, आत्मा को हंस के रूप में कल्पित करना, कभी कभी पंजर की जगह वृक्ष का आ जाना, जीव और आत्मा के दोनों पक्षियों का उस पर निवास करना, वैकल्पिक रूप में हिरण का रूप ले लेना और कबीर के प्रतीक विधान में इनका स्थान पाना मात्र संयोग नहीं है।

यदि विस्तार से विवेचन करना ही था तो इनका होना चाहिए था। परंतु द्विवेदी जी श्रुति के नाम पर उपनिषदों से पीछे की किसी रचना से अवगत दिखाई नहीं देते। उपनिषद के लिए वेदांत शब्द का प्रयोग किया जाता है। श्रुति का नहीं।

श्रुति को खींचतान कर चारों वेदों तक लाया जा सकता है । वेदांगों, ब्राह्मणों, आरण्यकों के लिए भी नहीं। श्रौत साहित्य में वेद की परंपरा में आने वाली बाद की कृतियों को भी स्थान अवश्य दिया जाता रहा है। द्विवेदी जी को पहली बार मैंने उपनिषदों के लिए श्रुति शब्द का प्रयोग करते देखा और यह प्रयोग बार बार किया गया है, इसलिए द्विवेदी जी की बुद्धि पर आशंका तो कर ही नहीं सकता, अपनी ही बुद्धि पर आशंका होती है। ब्रह्म पर विचार करते हुए वह लिखते हैं:

“श्रुतियों के परिशीलन से स्पष्ट जान पड़ता है कि ऋषियों के मस्तिष्क में ब्रह्म के दो स्वरूप थे: एक गुण, विशेषण, आकार और उपाधि से परे; और दूसरा इन सब तुमसे युक्त अर्थात सगुण, सविशेष, साकार और सोपाधि। पहला परब्रह्म और दूसरा अपरब्रह्म। …. उसे श्रुतियाँ बार-बार इस प्रकार प्रकट करती है: ‘वह मोटा भी नहीं, पतला भी नहीं, छोटा भी नहीं, बड़ा भी नहीं, लोहित भी नहीं, स्नेह भी नहीं, छायायुक्त भी नहीं, अंधकार भी नहीं, वायु भी नहीं, आकाश भी नहीं… इत्यादि’ ( बृहदारण्यक 3.8.8) 4/276.
सर्वाधिक प्रचलित शब्द है सत् और चित्। इन दो शब्दों से वेदांती बताना चाहते हैं की ब्रह्म है (सत्) और वह चैतन्य रूप है (चित्)।(4/276-77) ….इन दो के अतिरिक्त एक और भावरूप भी परवर्ती वेदांत ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान अधिकार कर सका है। 4/277….
लेकिन श्रुति मी ब्रह्म को और भी दो प्रकार से कहा गया है: (1) वह सब कुछ करने वाला है सब कामनाओं से भरा पूरा है, सब रसों का आश्रय है, सर्वगंधमय है, इत्यादि (छांदोग्य 3.14)।
कभी कभी ब्रह्म मैं श्रुति में छोटे से छोटा अंगुष्ठमात्र पुरुष, हृदयकमलवासी, और वामन आदि भी कहा गया है। ऐसी स्थलों पर अभिप्राय जीवात्मा से होता है। वहीं।

इससे भी अधिक विचलित करने वाली बात यह है न उनकी ब्रह्म की अवधारणा के विकास को समझ पाता हूं न उनके द्वारा प्रस्तुत दूसरी अवधारणाओं को। यह तो समझ में आ ही नहीं सकता कि ब्रह्म पर विचार हो और उसमें नासदीय सूक्त और पुरुष सूक्त तक की चर्चा न हो। सत् की चर्चा हो और एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति की याद न आए। द्विवेदी जी के प्रगाढ़ अध्ययन को देखते हुए यह अवहेलना अविश्वसनीय लगती है इसलिए अपने को समझाने प्रयत्न करता हूं कि जब चर्चा कबीर की हो रही हो तो वेद की बात कैसे आ सकती है जिसका वह निषेध करते थे। परंतु कबीर में वेद और उपनिषद दोनों उसी तरह विद्यमान है जैसे तुलसी में। यह विद्वानों का काम है कि वे इस बात की व्याख्या करें कि निरक्षर या नाम मात्र को शिक्षित कबीर की पहुंच वेद तक कैसे हुई। वेद से अछूते सिद्ध भी नहीं हैं जो वेद के ज्ञान से अपनी साधना को ऊँचा सिद्ध करते हैं और यह भी नहीं जानते कि स्वयं वैदिक समाज भी असाधारण सिद्धियों का दावा करने वालों को उसी श्रद्धा-विस्मित भाव से देखता था :
केश्यग्निं केशी विषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वर्दृशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥१॥
मुनयो वातरशनाः पिशङ्गा वसते मला ।
वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥२॥
उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आ तस्थिमा वयम् ।
शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ॥३॥
अन्तरिक्षेण पतति विश्वा रूपावचाकशत् ।
मुनिर्देवस्यदेवस्य सौकृत्याय सखा हितः ॥४॥
वातस्याश्वो वायोः सखाथो देवेषितो मुनिः ।
उभौ समुद्रावा क्षेति यश्च पूर्व उतापरः ॥५॥
अप्सरसां गन्धर्वाणां मृगाणां चरणे चरन् ।
केशी केतस्य विद्वान्सखा स्वादुर्मदिन्तमः ॥६॥
वायुरस्मा उपामन्थत्पिनष्टि स्मा कुनन्नमा ।
केशी विषस्य पात्रेण यद्रुद्रेणापिबत्सह ॥७॥

यदि दिवेदी जी का ऋग्वेद से परिचय होता तो वह भले उपेक्षा कर जाते, व्योमकेश शास्त्री “त्रयः केशिनः ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपते एकः एषाम् । विश्वम् एकः अभि चष्टे शचीभिः ध्राजिः एकस्य ददृशे न रूपम् ॥ की अनदेखी न करते।

लंबे बाल बढ़ाए, नशे में धुत, उन्मत्त से दीखने वाले चमत्कारी और समाज से कुछ कट कर रहते हुए भी समाज पर अपना रौब जमाने वाले ‘साधकों’ की वैदिक समय में भी कमी नहीं थी। लंबे केश रखने का अलग चमत्कार था, और यह अन्य रूपों में भी इसलिए लोक श्रद्धा का विषय बन गया कि अग्नि की ऊपर उठती ज्वालाओं को भी उसके केश के रूप में कल्पित किया गया, जिससे हिरण्यकेशी जैसे नाम रखे जाने लगे। सूर्य अपनी किरणों के कारण, वायु अपने प्रवाह के कारण छितराए हुए बालों वाले अघोरी की तरह चित्रित किए गए।

वैदिक प्रभावविस्तार के साथ केवल भाषा का ही नहीं, जीवन शैली और चमत्कार शैली का भी विस्तार हुआ था, जिसके विस्तार में जाने की छूट तो यहां नहीं है, परंतु संक्षेप में कहे तो अपना प्रभाव जमाने के लिए एक बार मोहम्मद साहब ने भी अपने बाल इसी तरह बढ़ाएं थे, और सुगंधि और आंजन का सहारा लिया था। सूफियों के प्रिय गेसूदराज (पुरुकेशिन जो पुलकेशिन के नाम से इतिहास में भी जगह बना चुका है) का संबंध है।

हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि वैदिक समाज की मुख्यधारा जादू टोने और चमत्कार का विरोध करती थी। चमत्कार के बल पर जीने वाले समाज-विमुख पलायनवादियों के प्रति उसके मन में ठीक वैसी ही जुगुप्सा थी, जैसी तुलसी के मन में सिद्धों, योगियों, नाथों, कबीरपंथियों के प्रति थी।

विडंबना यह है कि दिवेदी जी समाज विमुख और परजीवी तांत्रिक योगियों और सिद्धों के साथ खड़े दिखाई देते हैंं, जबकि तुलसी समाज की उस मुख्यधारा के साथ जो जादू (यातु), तंत्र-मंत्र (कृत्या) की घोर निंदा करती है, जो यातुधान शब्द में मूर्त है।

योग की जड़ें भी ऋग्वेद तक जाती हैं। परन्तु इनकी अर्थछटाएँ और भी रोचक हैं।

हम सामान्यतः यह मान लेते हैं कि रामचंद्र शुक्ल, पुरातन पंथी थे जबकि द्विवेदी जी प्रगतिशील। कबीर प्रगतिशील, तुलसी प्रतिक्रियावादी या कम से कम पुरातनपंथी। इन आरोपों में सचाई का आभास तो है ही। कोई यह दावा नहीं कर सकता की तुलसीदास परंपरावादी, यथास्थितिवादी, और वर्णवादी नहीं थे और रामचंद्र शुक्ल स्वयं भी इन सीमाओं से ऊपर थे, जबकि कबीर और द्विवेदी जी अपने सामाजिक दृष्टिकोण में क्रांतिकारी या कम-से-कम प्रगतिशील दिखाई देते हैं। परंतु एक सवाल हमारी इस समझ में सुधार की मांग करता है। अपनी प्रगतिशीलता के लिए दोनों किन हथियारों या औजारों का उपयोग करते हैं। तंत्र, मंत्र, योग जिसमें विचित्रता तो है, समाज व्यवस्था से विद्रोह भी है, उसकी जड़ता पर प्रहार भी है, परंतु जो भी फल सामने आते हैं वे हैं अधिक प्रतिक्रियावादी, पलायनवादी, अंतर्मुखी, समाज-विमुख और अराजक।

अधिकांश विद्रोह उसी की गोद में बैठकर हुए हैं जिससे विद्रोह किया जा रहा है और एक लंबे आभासिक अलगाव के बाद उसे विकृत करने के बाद उसी में वापस भी आते हैं।

अंग्रेजी के कवि पोप की याद आती है जिसे तुकबंदी करने पर बाप पिटाई करता है तो वह तुकबंदी न करने की कसम भी तुकबंदी करते हुए ही खाता है :
Papa papa pity take
I will no more verses make.
आपके नहीं करने या विद्रोह करने से कुछ नहीं होता। नारे से नहीं परिणाम से ही प्रगतिशीलता की पहचान की जा सकती है। जिसे हम प्रगतिशील आंदोलन के नाम से जानते हैं उसमें अपने सोचने और बोलने तक की स्वतंत्रता से हाथ धोना पड़ता है।

Post – 2019-08-12

#कबीर# की समझ (1 )

‘क्या आप रामचंद्र शुक्ल को पढ़कर कबीर को समझ सकते हैं?’
उत्तर मिलेगा, ‘नहीं।’
‘क्यो?’
उत्तर मिलेगा, ‘क्योंकि उन्होंने कबीर ही नहीं, सभी संत कवियों को ज्ञानमार्गी खाते में डाल कर उनके कवि पक्ष की उपेक्षा कर दी।’
‘यदि उपेक्षा कर दी होती तो साहित्य के इतिहास में उनको स्थान क्यों दिया होता? यदि ज्ञान मार्गी नहीं होते तो द्विवेदी जी को इतना सारा अध्ययन संप्रदायों और पंथों की मान्यताओं पर क्यों करना पड़ा, जिन को समझने चलें तो काव्य का लालित्य धरा का धरा रह जाएगा। बचा रह जाएगा वह नीरस सांप्रदायिक ज्ञान जिसका किसी संप्रदाय के भीतर जो भी महत्त्व हो, सामान्य जीवन जीने वालों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है। सांप्रदायिक ज्ञान पिपासा को तृप्त करने के लिए कोई व्यक्ति साहित्य नहीं पढ़ता। यदि किसी साहित्य को समझने के लिए, इतने अधिक ज्ञान की जरूरत हो, तो क्या उसे ज्ञान साहित्य नहीं कहा जा सकता? विचारधारा को इतना अधिक महत्व देना कि साहित्य विचारधारा का दृष्टांत पेश करने वाला ‘आका, हाजिर है’ कहने वाला जिन बन जाए, जो मार्क्सवाद के दौर में भी हुआ, क्या इसे ज्ञान साहित्य नहीं कहा जा सकता अर्थात वह साहित्य जिसमें विचार प्रधान है सौंदर्य – यह तो विलासिता या ऐयाशी का ही एक रूप है- गौण?’
आप इस तर्क पर विस्मित होकर ऐसी बात करने वालों वाले को सिरफिरा मान सकते हैं। अपने को कभी गलत न मानने वाले, अपने को सही बनाए रखने के लिए, दूसरों को सिरफिरा सिद्ध करने को बाध्य होते हैं। कारण सौंदर्य की ऐसी कठोर परिभाषा करने वाले, सौंदर्य को उत्पादक श्रम से हेय बताते हुए सभी कलाओं, क्रीड़ाओं, यहां तक कि उच्च शिक्षा और चिंतन को भी विलासिता करार देते हुए मनुष्य को यंत्रमानव बनाकर उस समय से रखने का प्रयत्न करते आए हैं जब यंत्र मानव की कल्पना नहीं की जा सकती थी।

संभव है कि इस चक्रव्यूह में घिर जाने के बाद, सही उत्तर तलाशने में समस्या आए और आप करवट बदल कर, रटा हुआ जुमला पेश कर दें कि ‘क्या कोई ऐसा साहित्य भी हो सकता है जिसमें विचार ही न हो?’
प्रश्न करने की उसकी बारी थी। जवाब आपको देना होगा। आप का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि सूखे अनाज में भी नमी है, तेल है, पर हम इसे सूखा कहते हैं, भीगे हुए अनाज में भी नमी है और कुछ और सोखने की ताकत भी है, इसलिए इसे कहते हैं कि यह पूरी तरह सराबोर नहीं है। प्रश्न होने या न होने का नहीं है। प्रश्न अनुपात का है। यदि कबीर ज्ञान मार्गी नहीं है तो द्विवेदी जी को उनको समझने के लिए इतनी नीरस, सांप्रदायिक ज्ञान से भरी हुई भूमिका प्रस्तुत करने की क्या जरूरत थी?

एक दूसरी कसौटी रचना की विरासत से संबंध रखती है। जिनके बीच कोई साहित्य प्रचलित है वे उसके किस पक्ष को महत्त्व देते हैं ? ज्ञान या सौंदर्य? इसका उत्तर मैं नहीं दूंगा। दूँ तो भी व्यर्थ जाएगा। आप उसे नहीं मान सकते जो तर्कसम्मत है, क्योंकि आप सही गलत का अपना चुनाव पहले कर चुके हैं और बाकी सूचनाएं आपकी अपनी मान्यताओं के अनुसार मामूली फेरबदल तक सीमित रह जाती हैं।

इस तर्क को आप मुझ पर भी लागू कर सकते हैं। कह सकते हैं कि मैं रामचंद्र शुक्ल के प्रति इतनी अधिक सहानुभूति रखता हूं कि उनके बचाव के लिए मैंने यह नायाब तरीका तलाश लिया।

आरोप गलत हो तो भी मैं इसे सच मानना चाहता हूं। यह एक जरूरी काम है। जब से रामचंद्र शुक्ल पर बेभाव की पड़ने लगी तब से लोगों ने दुबारा यह सोचने का भी कष्ट नहीं किया कि वह किस अनुपात में सही और किस अनुपात में गलत थे। मेरी आपत्ति अनुपात को लेकर है, निर्णय को लेकर नहीं।

मेरा भी अंतिम निर्णय यही है कि रामचंद्र शुक्ल के माध्यम से कबीर को नहीं समझा जा सकता। एक बार फिर लंगड़ाते हुए रामचंद्र शुक्ल के पास खड़ा होने का मन करता है। क्या उनका इतिहास आलोचना ग्रंथ था। कहते हैं कि वह पूरी तैयारी से कबीर पर लिखने का मन बना रहे थे और उनका इरादा पूरा होता इससे पहले ही वह चल बसे।

जो लिखने से रह गया उसका लाभ किसी को नहीं दिया जा सकता। ऐसा करने चले तो आवेदकों की भीड़ लग जाएगी। इसलिए यह मान सकते हैं आचार्य शुक्ल के मूल्यांकन के सहारे कबीर के साहित्यिक, वैचारिक और आंदोलनकारी व्यक्तित्व को नहीं समझा जा सकता।

परंतु क्या दिवेदी जी के माध्यम से कबीर को समझा जा सकता है? इसका उत्तर होगा, ‘हां, क्योंकि दिवेदी जी के बाद जो कबीर का नाम जानते थे, वे कबीर के नाम से जाने लगे। दिवेदी जी के बाद तुलसीदास हाशिए पर चले गए, कबीर को पहली बार केंद्रीयता मिली।’

आपत्ति मेरी यही से आरंभ होती है, क्या, यदि मैं हूं तो तू नहीं, यदि तू है मैं नाहिं’, कबीर को समझने के लिए जरूरी है? यह सवाल पैदा होता है कि क्या कबीर यह समझते थे कि समाज को कैसे बदला जा सकता है?
मैं और स्पष्ट करते हुए कहना चाहता हूं कि जिसे बदलना चाहते थे, जिस सांस्कृतिक पर्यावरण में परिवर्तन लाना चाहते थे, उसे समझने समर्थ थे या नहीं?

मेरा उत्तर है, ‘ नहीं, क्योंकि आंदोलनकारियों की इस प्रवृत्ति से हम अवगत हैं कि वे अपने लक्ष्य से इतने अभिभूत होते हैं कि न तो यह समझना चाहते हैं कि जिस समाज को वे बदलना चाहते हैं वह क्या है? न ही जैसे बदलना चाहते हैं उसका सही तरीका अपना पाते हैं। उस अभियान में साहित्य और कला की भूमिका कितनी है और उस भूमिका को निभाने के बाद वह अपनी स्वायत्तता को बचाए रखने में वे समर्थ होता है या नहीं, इस पर कभी विचार नहीं किया गया।

रामचंद्र शुक्ल के इतिहास के विषय में, जहां तक मेरी जानकारी है, शुक्ल जी ने अपना इतिहास लिखने से पहले न तो अपने कार्य क्षेत्र की उपेक्षा की, न उसमें शिथिलता दिखाई, न ही वह अपनी बात को सही ढंग से रख पाए। रामचंद्र शुक्ल का इतिहास नामवृत्त की परंपरा से आगे बढ़ने के क्रम में नहीं लिखा गया था। जैसे द्विवेदी जी विंटरनिट्ज के भारतीय साहित्य के इतिहास के पैटर्न पर हिंदी में एक इतिहास लिखना चाहते थे, उसी तरह शुक्ल जी का इतिहास अंग्रेजी में लेगी और कजामियाँ द्वारा लिखे गए इतिहास के पैटर्न पर लिखा गया, हिंदी का इतिहास था, जिसमें कवियों का उल्लेख है, उन पर आलोचना है, प्रवृत्तियों का निरूपण है। रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि की कुछ सीमाएं हैं, वे सीमाएं द्विवेदी जी सहित बाद के सभी इतिहासकारों की हैं और आगे भी रहेंगी। इन कमियों को समझने और दूर करने के क्रम में नई कमियाँ पैदा होंगी, पर इसके साथ हमारी समझ में भी निखार आएगा। ज्ञान की उपलब्धि उसकी अपूर्णता है।

Post – 2019-08-11

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
संतुलित दृष्टि -2

हम जितने अदृश्य बंधनों में सोचते और काम करते हैं, यदि उनके विषय में पूरी तरह सावधान होना चाहें, तो न तो सोच सकते हैं, न कुछ कर सकते हैं। कभी कभी जब उनमें से किसी का ध्यान आता है तो ही हमें आश्चर्य होता है कि क्या हमारे विचारों और कार्यों में इसकी भी सशक्त भूमिका है। केवल अनुभव है जो सत्य होता है।

न तो हम अपने विचारों में संतुलित रह सकते हैं, न निष्पक्ष। प्रामाणिक और विश्वसनीय होने का प्रयत्न अवश्य कर सकते हैं। दिवेदी जी भी अपने लेखन में यही करते हैं नहीं तो वह जिस पर मुग्ध हो जाते हैं, उसमें अपने कौशल से इतना सौंदर्य पैदा कर देते हैं कि उसे पहचानना मुश्किल हो जाता है। ऐसा करना स्वाभाविक है। कार्लाइल ( के शब्दों में अपनी बात कई टुकड़ों में कहें तो:
He who can not exaggerate is not qualified to utter truth. No truth we ever think of was ever expressed but with this sort of emphasis, so that for the time being there seemed to be no other.

कबीर नहीं थे तो नहीं थे, अब हैं तो दूसरा कोई नहीं। कबीर के मामले में तो यह जरूरी भी था: you must speak loud to those who are hard of hearing. उनकी जैसी उपेक्षा हुई थी, उसमें उनको उचित स्थान देने के लिए इससे अच्छा कोई तरीका नहीं हो सकता था। हु

कार्लाइल के इसी क्रम में व्यक्त किए गए एक दूसरे विचार को भी हम आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहते :
There is no danger in sort of saying too much in praise of one man, provided you can say more in praise of a better man.
द्विवेदी जी से, तुलसीदास के संदर्भ में ऐसा ही हुआ।

आगे की एक पंक्ति पर ध्यान a true history properly begins when some genius arises who can turn the dry and musty records into poetry. और भारतीय परंपरा में यह रोचक इतिहास पाँच बार आरंभ हुआ। पाँच हम इसलिए कह रहे हैं, कि प्रथम के पीछे का और उसके बाद के अंतरालों का हमें सही ज्ञान नहीं है। पहला ऋग्वेद के समय में आरंभ हुआ था। दूसरा ऋग्वेद के भीतर मधुविद्या के विकास के साथ और वैदिक कर्मकांड तथा वर्ण विभाजन के विरुद्ध उपनिषद काल में; तीसरा सिद्धों -नाथों और संतों, विशेषतः कबीर के ओजस्वी स्वर में; चौथा तुलसीदास और केवल तुलसीदास में। पांचवा आज चल रहा है। इसे परिभाषित करना बाकी है।

द्विवेदी जी अपने समय तक के आंदोलनों में से कितनों को समझते हैं, यह मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। कुछ को न वे समझ पाए, जिनकी वह प्रशंसा करते थे, न द्विवेदी जी, दोनों अपने विश्वास को शक्ति देने के लिए जरूरत पड़ने पर इन सब का नाम लेते हैं, यह भरोसा नहीं पैदा कर पाते इनमें से किसी को ठीक से समझते भी हैं या नहीं।

द्विवेदी जी निंदा किसी की नहीं करते। उनकी भी नहीं जिनकी आलोचना करते हुए उन को तार-तार कर देते हैं। रामचंद्र शुक्ल इसी श्रेणी में आते हैं। वह शुक्ल जी को बड़े आदर से याद करते हैं:

हिंदी साहित्य का सचमुच इतिहास पंडित रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी शब्द सागर की भूमिका के रूप में सन 1929 ई. में प्रस्तुत किया था।… शुक्ल जी ने प्रथम बार हिंदी साहित्य के इतिहास को कविवृत्त-संग्रह की पिटारी से बाहर निकाला। पहली बार उसमें श्वासोच्छ्वास का स्पंदन सुनाई पड़ा। त्रुटियाँ इसमें भी है। वृत्त-संग्रह परंपरा समाप्त नहीं हुई है और साहित्य को मानव समाज के सामूहिक चित्र की अभिव्यक्ति के रूप में ना देख कर केवल शिक्षित समझी जाने वाली परिवर्तन विवर्तन के निर्देशक के रूप में देखा गया है। शुक्ल जी की यह विशेष दृष्टि थी और इस दृष्टि-भंगिमा के कारण उनके इतिहास में भी विशिष्टता आ गई है। (हिंदी साहित्य का आदिकाल, ग्रंथावली, 3 .546)।

“इस प्रकार सन् 1929 ई. में पहली बार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होने वाले परिवर्तन आधार पर काल विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम संस्करण में आदिकाल के भीतर अपभ्रंश की रचनाओं को भी ग्रहण किया था। इसके पूर्व ही प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘नागरी-प्रचारिणी पत्रिका’ के नवीन संस्करण भाग 2 में बहुत जोर दे कर बताना चाहा था की अपभ्रंश को पुरानी हिंदी ही कहना चाहिए। वही, 546-47

द्विवेदी की इसके आगे शुक्ल जी की आदिकाल संबंधी जानकारियों और सीमाओं को पूरे अधिकार और जरूरी रियायत के साथ उजागर करते हैं:
“इस प्रकार सन् 1929 ई. में पहली बार शिक्षित जनता की प्रवृत्तियों के अनुसार होने वाले परिवर्तन आधार पर काल विभाजन का प्रयास किया गया। उनकी दृष्टि व्यापक थी। उन्होंने अपने इतिहास के पुस्तक रूप में प्रकाशित प्रथम संस्करण में आदिकाल के भीतर अपभ्रंश की रचनाओं को भी ग्रहण किया था। इसके पूर्व ही प्रसिद्ध विद्वान स्वर्गीय पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘नागरी-प्रचारिणी पत्रिका’ के नवीन संस्करण भाग 2 में बहुत जोर दे कर बताना चाहा था की अपभ्रंश को पुरानी हिंदी ही कहना चाहिए। वही, 546-47

और फिर, “ शुक्ल जी ने गुलेरी जी के अध्ययनों का उपयोग किया परंतु व्यापक दृष्टि रखते हुए भी उन्हें उन रचनाओं को देखने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ जो गुलेरी जी से छूट गई थी।”
“ शुक्ल जी के मत से 1050 ( सन् 993) संवत 1375 (1318) तक के काल को हिंदी साहित्य का आदिकाल कहना चाहिए। जीने इस काल के देश भाषा आपके की 12 पुस्तकें साहित्य के इतिहास में विवेचन योग्य समझी थी। उनके नाम है (1) विजयपाल रासो; (2) हम्मीर रासो; (3) कीर्तिलता; (4) कीर्तिपताका; (5) खुमान रासो; (6) बीसलदेव रासो; (7) पृथ्वीराज रासो; (8) जयचंद्र प्रकाश; (9) जयमयंक जस चंद्रिका; (10) परमाल रासो; आल्हा का मूल रूप; (11) खुसरो की पहेलियां और (12) विद्यापति पदावली। “इन्हीं 12 पुस्तकों की दृष्टि से आदिकाल का निरूपण और नामकरण हो सकता है। इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर शेष सब ग्रंथ वीरगाथात्मक आदिकाल का नाम वीरगाथा काली रखा जा सकता है।”
….
इधर हाल की खोजों से पता चला है कि जिन 12 पुस्तकों के आधार पर शुक्ल जी ने इस काल की प्रवृत्तियों का विवेचन किया था, उनमें से कई पीछे की रचनाएं हैं, और कई नोटिस मात्र हैं, और कई के संबंध में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उनका मूल रूप क्या था। वही, 555-56

….स्वयंभू, चतुर्मुख, पुष्पदंत, और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य-क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते।

ये केवल आरोप नहीं है। द्विवेदी जी प्रत्येक पुस्तक की बारीकी से जांच करते हैं, पिशेल, ब्यूलर, मुनि जिनविजय, नाहटा, मेनारिया, गुलेरी जी, मोतीचंद, राहुल सांकृत्यायन आदि की खोजों, मान्यताओं, और निर्णायक प्रमाणों के आधार पर एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, जिसे उनके नहीं, मेनारिया जी के शब्दों में ही रखें तो, “इसके अतिरिक्त ये रासो ग्रंथ जिनको वीर गाथाएं नाम दिया गया है और जिनके आधार पर वीरगाथा काल की कल्पना की गई है राजस्थान के किसी समय विशेष की साहित्यिक प्रवृत्ति को भी सूचित नहीं करते।… यदि इनकी रचनाओं के आधार पर कोई निर्णय किया गया है तब तो वीरगाथा काल राजस्थान में आज भी ज्यों का त्यों बना है।”

यहां केवल नाम ही नहीं बदलता है, साहित्य को देखने-समझने का नजरिया भी बदलता है। क्षणमात्र को लगता है, कभी रामचंद्र शुक्ल नाम के हिंदी साहित्य के एक इतिहासकार हुआ करते थे, अब नहीं रहे। अब केवल द्विवेदी जी हैं।

हमारी समस्या यहीं से आरंभ होती है कि क्या द्विवेदी जी ने जिन लोगों के विषय में लिखा है वे अपने को, अपने समय को जानते थे या नहीं? द्विवेदी जी स्वयं उनको और उनके कृतित्व को सही परिप्रेक्ष्य में रख पाए या नहीं। सांप और सीढ़ी का खेल ज्ञान जगत का सबसे रोचक खेल है।

Post – 2019-08-10

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
संतुलित दृष्टि

“संतुलित दृष्टि वह नहीं है जो अतिवादिताओं के बीच एक मध्यम मार्ग खोजती है, बल्कि वह है जो अतिवादिताओं की आवेग-तरल विचारधारा का शिकार नहीं हो जाती, और किसी पक्ष के उस मूल सत्य को पकड़ सकती है जिस पर बहुत बल देने और अन्य पक्षों की उपेक्षा करने के कारण उक्त अतिवादी दृष्टि का प्रभाव बढ़ा है। संतुलित दृष्टि सत्यान्वेषी की दृष्टि है।”
(हजारी प्रसाद द्विवेदी, विचार और वितर्क)

अतिवादिता या एकांगिता केवल आवेग की तरलता से ही नहीं पैदा होती। इसके पीछे एक मनोरचना, एक विचार दृष्टि भी काम करती है जो आवेग और आवेश को तार्किक आवरण देते हुए, जिसे मानती है उसे सही सिद्ध करने के लिए कटिबद्ध रहती है। इस समझ के पीछे यह हीनता-बोध काम करता है, जब तक दूसरों को मिटा न दिया जाय, तब तक जिसे हम महत्त्व देते हैं, उसकी महिमा स्थापित नहीं हो सकती। यह कबीलाई एकेश्वरवादी मानसिकता है, अवैज्ञानिक है, परंतु इसने विज्ञान के भीतर भी अपना घर बना लिया है। सर्वोत्तम की तलाश, सबसे अच्छी उपज देने वाले बीजों और नस्लों की तलाश, जिसे नाजी महामानव की तलाश जैसा खतरनाक पाया तो जा सकता है, परंतु कृषि, वानिकी और पशुपालन में हम इसी के पीछे चलते रहे हैं।

अपराध विज्ञान का नहीं था, वैज्ञानिक भी जिन दबावों में काम करते हैं, उसमें विज्ञान वैज्ञानिक नहीं रह जाता, मानववादी नहीं रह जाता, विज्ञानवादी और मानवताद्रोही हो जाता है। उसे साधन और सुविधाएं उपलब्ध कराने वाला उसे अपना सेवक बनाकर रख देता है। जब तक होश आए, हम असंख्य मूर्खताएं करने के बाद, उस पिछली मंजिल पर लौटना चाहते हैं जहां से रास्ता भूले थे तब तक वह बर्बाद हो चुका होता है।

बीजों के, वनस्पतियों के और प्राणियों के, वैविध्य को मिटाने के बाद हम विविधता की ओर लौटते हैं जहां नकली उत्पादन के परिणाम स्वरूप नकली जनसंख्या वृद्धि के पालन की क्षमता ही नहीं रहती।

किसान जिन बीजों का इस्तेमाल अधिक उत्पादन के लिए करता है, उसके लिए जितने कीटनाशकों, जितने पानी, जितने आधुनिक यंत्रों और उनको चलाने के लिए जितनी देखभाल, मरम्मत और जितने डीजल की जरूरत होती है उसमें किसान के बढ़े हुए उत्पादन का सारा का सारा, और पहले की कमाई का बहुत कुछ चला जाता है। गौर कीजिए खेती की ये मशीनें खाती तो इतना हैं, परंतु दूध देना तो दूर रहा, गोबर तक नहीं देती है, जिसके अभाव में धरती ऊसर क्षेत्र में बदलती जा रही है।

अनाज अधिक पैदा करने के बाद भी किसान अपनी जमीन से पहले जितना पाता था, उसे उससे भी कम मिलने लगा है। पुरानी खेती के दिनों में किसान बहुत सुखी नहीं था, परंतु इतना दुखी नहीं था कि पूंजीवाद जनित अपराधतंत्र का हिस्सा बनकर, अपनी पुरानी गरिमा को खोकर, आत्महत्या करने को बाध्य हो जाए। कोई इस बात का आंकड़ा पेश करें कि जब से तथाकथित वैज्ञानिक खेती आई है उससे पहले क्या कभी किसान आत्महत्या करते थे और उसके बाद कितने किसान आत्महत्या करने लगे और यह भी समझाए कि आत्महत्या करने वालों में केवल वे ही क्यों होते हैं, जिन्होंने सूदखोरी करने वाले महाजन से नहीं, बैंकों से कर्ज लिया था।

मैं दुबारा इस विषय पर सोचना चाहूंगा, परंतु इस समय ऐसा लगता है कि अपनी संपन्नता के बावजूद, जैसा कि रामविलास जी ने सोच लिया था, भारत पूंजीवादी देश बन सकता था, वह सही नहीं है। उसका पूंजीवादी बनना संभव नहीं था। बहुदेववादी सोच में अपने उत्थान के लिए दूसरों को मिटाना गर्हित है। अपनी सर्वोपरिता की भूख में जितनी भी क्रूरता, जितना भी विध्वंस करना पड़े, सब को सही मानना उसी एकेश्वरवादी सोच का परिणाम है जो यथार्थ से कट कर इससे उन्मत्त लोगों को कुछ देर के लिए इस फीटिश (प्रतीक पूजा) से ग्रस्त रख कर अपराधी या कंगाल बना कर छोड़ देता है। एकेश्वरवाद, महामानववाद, पूंजीवाद, साम्यवाद एक ही सोच की अलग अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।

हम तो साहित्य पर बात कर रहे थे। इस महाजाल में क्यों फँस गए ? इसे समझाने का समय नहीं है। कल बात करेंगे।

Post – 2019-08-09

#हजारी_प्रसाद_द्विवेदी
जाना ताहि विसारि दे, जो दरसन की चाह

द्विवेदी जी को पढ़ते समय ऐसे लोग जिन्होंने उन विषयों या क्षेत्रों का गहराई से अध्ययन नहीं किया है, उनके ज्ञान से अभिभूत हो जाते हैं। जिज्ञासा तक में वृद्धि नहीं होती; उल्टे यह मान लेते हैं इन क्षेत्रों में इससे अधिक कुछ किया ही नहीं जा सकता, इसलिए अपने लिए कोई दूसरा क्षेत्र चुनना होगा। यदि अनुसंधान और ज्ञानसाधना के किसी क्षेत्र का चुनाव उन्होंने किया होता, तो यह उनकी सच्ची गुरु दक्षिणा होती। किसी ने ऐसा नहीं किया, जिसको उन्होंने प्रशिक्षित किया था, जो आजीवन उनकी प्रदक्षिणा करता रहा, उसने भी नहीं।

द्विवेदी जी ज्ञानी थे ही नहीं, ज्ञानी सूचनाओं का गोदाम होता है। अल्पज्ञ उसका जरूरत का माल लेकर अपना कारोबार करना चाहता है। ऐसा उनके सभी शिष्यों ने किया, यह बात मैं दावे के साथ नहीं कह सकता। परंतु अवश्य कह सकता हूँ कि लगभग सभी को उनसे जितना मिला था, उससे निर्मित परिसर के भीतर ही कवायद करते रहे। जब वेद वाक्यं प्रमाणं का उपहास किया जा रहा था, तब गुरु वाक्यं प्रमाणं का दौर आरंभ हो गया। यह ऐसे लोगों के वर्चस्व का युद्ध था, जो गुरु को समझते भी नहीं थे, और गुरु की ज्ञान सीमा से आगे बढ़ना भी नहीं चाहते थे। मार्क्सवाद का मोह गुरु भक्ति के योग से ऐसे ग्रहण में बदल गया जहां दोनों में से किसी के लिए जगह नहीं थी। न राहु, न केतु, न रात-दिवा, न मही न महा, नहिं सूर न चंदा।

दिवेदी जी को किसी ने ज्ञान के पीछे भागते नहीं देखा। उसकी कठोरता-जड़ता का उपहास उनका लेखन है।

वह ज्ञान को पीसकर उसे गारे में बदल देते हैं और ऐसे तिलिस्म का निर्माण करते हैं जो ज्ञान का आभास देता है और ज्ञान का उपहास करता है। मैं स्वयं भी जब ज्ञान का उपहास करता हूं तो इसलिए कि ज्ञानी अपनी अपनी आंख, अपने दिमाग के होते हुए भी उससे काम नहीं लेता, दूसरों के देखे, सुने, गुने और बताए हुए को अपना सत्य मानकर अपने अनुभूत सत्य को देखने से इंकार कर देता है और इसलिए उसकी दशा अनपढ़ लोगों से भी बुरी होती है, जिसके पास सब कुछ अपना होता है दूसरों का जो कुछ होता है वह अपना बन चुका होता है। विचारों का यह साम्य सचेत रूप में पैदा नहीं हुआ, इसकी कुंडली मुझे मालूम भी नहीं, परंतु यदि मेरे मन में द्विवेदी जी के प्रति आदर है, मैं अपने को उनकी परंपरा का वाहक मानता हूं, और अपने समय में वह अपने को जितना अकेला पाते थे, उससे भी अकेला पाता हूं तो इसका रहस्य अपनी आंख को बचाए रखने और पराई आंख को बृहद्दर्शी लेंस की तरह इस्तेमाल करने की जिद के कारण ही है। दुर्भाग्य कि शिष्यों ने इसके महत्व को नहीं समझा और बृहद्दर्शी की जगह अन्यदर्शी लेंस उत्तराधिकार में पाया।

दिवेदी जी बहुत बड़े विद्वान रहे होंगे, पर मेरे गुरु आनंद प्रकाश दीक्षित से बड़े अध्यापक नहीं, जिन्होंने अपने शिष्यों को अपने से छोटा नहीं, बड़ा बनाया। मेरी सीमा यह कि मैं स्वप्नचारी की तरह एक छाया मूर्ति का अनुसरण करता हुआ लंबे समय तक चलता रहा और जब होश आया कि मैं हूं कहाँ तो पाया कि मैं स्वप्न मोहित सा जिस व्यक्ति के पीछे चलता रहा वह तो हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं। मैं स्वयं भी चकित था कि मैं किसके पीछे चलता रहा हूं परंतु यह जानकर और भी चकित हुआ कि जो लोग द्विवेदी जी को अपना गुरु मानते थे वे मेरी सबसे अधिक उपेक्षा या विरोध करते रहे और यह जाने बिना कि वे क्या कर रहे हैं, किसका विरोध कर रहे हैं, अपने को जिंदा रखने के लिए किसकी हत्या करना चाहते हैं।

पढ़ने वालों में से किसी को तो यह सवाल पूछना ही चाहिए कि जनाब, आप अपने ऊपर लिख रहे हैं या दिवेदी जी पर ? उनका दुर्भाग्य, क्योंकि समानता यहां भी मिल जाएगी।

कबीर को वह भाषा का तानाशाह कहते हैं, परंतु ज्ञान और भाषा दोनों के तानाशाह वह स्वयं हैं। उनके उपन्यासों के नायकों में आधा वह नायक रहता है, आधा हजारी प्रसाद द्विवेदी। इतिहास के घटनाक्रम को वह अधिक महत्व नहीं देते उनके पीछे के जीवन सत्य को सामने लाना उन्हें अधिक जरूरी लगता है। वह विचारधाराओं और आंदोलनों (जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन की सक्रिय भागीदारी भी आती है), के दबाव में नहीं आते, जो देखते और समझते हैं उसे दो टूक कहने में विश्वास रखते हैं और यहीं उनकी प्रखरता और विश्वसनीयता दोनों के प्रमाण मिलते हैं।

इस बात का अवकाश नहीं है कि हम उनके विचारों को पूरे विस्तार से प्रस्तुत कर सकें। चुने हुए अंशों को भी एकत्र करें तो विदग्ध वाक्यों का का एक पुस्तकाकार संग्रह तैयार हो जाएगा। इसलिए अपने निष्कर्ष के प्रमाण स्वरूप हिंदी भाषा के विषय में उनके तीन लेखों के स्मरणीय वाक्यों को रखना ही पर्याप्त होगा, क्योंकि आज भाषा को लेकर नए सिरे के पुराने प्रश्नों को उठाया जाने लगा है:

आज संसार में जिन भाषाओं ने अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठा पाई है उनके पीछे शोषण और परपीड़न का इतिहास है। दूसरे देशों की समृद्धि का दोहन करके ये जातियां समृद्ध हुईं और अपनी भाषा को केवल भिन्न भिन्न देशों में प्रचारित करने का ही सुयोग नहीं पाया, बल्कि शोषण और दोहन से अर्जित संपत्ति से अपने अपने देश में ज्ञान-विज्ञान की उन्नति के लिए धन भी प्राप्त किए।
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शोषण और दोहन की नीति से समृद्ध बनी हुई भाषाओं में एक प्रकार की चिंतन प्रणाली किसी-न-किसी रूप में अवश्य मिलती है, जो शोषितों को हीन सिद्ध करती है। उन भाषाओं में जो समृद्ध ज्ञान है वह अभिनंदनीय है। लेकिन उनका वह स्वर किसी प्रकार से सहन करने योग्य नहीं है
जिसमें हजारों वर्ष की समृद्ध सभ्यताओं को छोटा करने का स्वर है, और जो दबे हुए लोग थे उन्हें हमेशा दबाए रखने का जहरीला डंक है।
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विकासशील देशों में उनकी भाषाओं का बड़ा प्रभुत्व है। इसलिए उन भाषाओं के माध्यम से वह विकासशील देशों के शिक्षकों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। उनके स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता को कुंठित करना उनका एक शक्तिशाली घातक हथियार है।
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जो भाषा स्वयं अपने देश में समादृत नहीं हो सकी, विश्व भाषा कैसे बन सकती है?
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भारतवर्ष की शक्ति उपरले स्तर के धानिक वर्ग, सामंत वर्ग और प्रशासक वर्ग में नहीं है; वह शक्ति जनता की शक्ति है, साधारण लोगों की शक्ति है, किसान और मजदूरों की शक्ति है।”
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भाषा पहले से बनी हुई है। इसे बनाने का दावा करना दंभ मात्र है।
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कभी कभी मुख-सुख के लिए भाषा में शब्द चल पड़ते हैं जिनका ठीक है परिनिष्ठित संस्कृत रूप कष्टोच्चार्य होता है । … संस्कृत का ज्ञान कम किंतु अभिमान अधिक रखने वाले इन शब्दों से घबराया करते हैं परंतु जिन्हें संस्कृत की परंपरा का ज्ञान है वे इस बात से बिल्कुल चिंतित नहीं होते। संस्कृत के पुराने आचार्यों ने हिरण्मय, पद्मावती आदि रूप तत्काल… भाषा में प्रचलित देखकर मान लिए थे।
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हिंदी के साथ शुरू शुरू में ही संस्कृत को अनिवार्य विषय बनाकर समूचे देश को हिंदी सिखाने का संकल्प बहुत लाभप्रद नहीं होगा। संस्कृत उन लोगों को जानना चाहिए जिन्हें हिंदी में पुस्तक लिखने का कार्य करना है।
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जो लोग हिंदी की उच्चतर उपाधियां लेना चाहें उनके लिए संस्कृत की पढ़ाई अवश्य अनिवार्य होनी चाहिए, नहीं तो उनकी लेखनी ऐसे ऐसे शब्दों को उत्पन्न करेगी जो केवल समस्या की ही सृष्टि करते रहेंगे।
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विदेशी शब्दों को हमारी उच्चारण परंपरा और ध्वनि परिवर्तन के सिद्धांत के अनुकूल हो कर ही आना चाहिए। किसी शब्द का परिनिष्ठित रूप वह है जो हमारे ध्वनि परिवर्तन के सिद्धांतों के अनुकूल है।
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हिंदी की उच्चतर कक्षाओं में संस्कृत की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए।
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जो लोग हिंदी भाषा को अपने साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों का माध्यम बना चुके हैं, उन सब की मातृभाषा यही भाषा नहीं है।
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अंग्रेजों को हटाने के लिए बड़ा कष्ट उठाना पड़ा. अंग्रेजी को हटाने के लिए उठना पड़ेगा।
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यद्यपि मैं संस्कृत का प्रेमी हूँ और मानता हूं की अहिंदी भाषियों के द्वारा जो भाषा बोली और लिखी जाएगी वह संस्कृत शब्दों से भरी होगी, वह उसे अधिक समझ भी सकेंगे, पर मेरा यह भी कहना है की राष्ट्रभाषा के साथ हिंदी प्रादेशिक भाषा भी है। इसमें यथार्थ शक्ति तो तभी आ सकती है जब वह जनपदीय बोलियों की प्राणप्रदा शक्ति से तेजस्वी बने।
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शक्तिशाली साहित्यकार शब्दों की नाड़ी पहचानते हैं। …अद्भुत प्रयोगों और गलत सही अर्थों वाले नाना जाति के शब्दों की पलटन खड़ी करके जीवित भाषा के साथ खिलवाड़ न करें।
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हिंदी की वास्तविक शक्ति जनता है। हमें राज सिंहासनों से शक्ति कभी भी नहीं प्राप्त हुई है।
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खड़ी बोली को सार्वदेशिक महत्त्व प्राप्त कराने में मुसलमान शासकों की सेवा अविस्मरणीय है। ऐसा कह कर मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। आज से तीस-बत्तीस वर्ष पहले पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने कहा था कि जिस हिंदी को आजकल हम साहित्यिक हिंदी कहते हैं वह उर्दू से बनाई गई है।
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हिंदू अपने अपने प्रांतों की भाषा को न छोड़ सके। अब तक यही बात है। हिंदू घरों की बोली प्रादेशिक है, लिखा पढ़ी और साहित्य की भाषा हिंदी हो। मुसलमानों में बहुतों के घर की बोली खड़ी बोली है।
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यदि उर्दू हिंदी की एक विशिष्ट शैली है तो हिंदी साहित्य के इतिहास में तथा पाठ्मयक्रम मे उसे पूर्ण रूप से स्थान मिलना चाहिए।

ये प्रश्न आज नए सिरे से विचारणीय हो गए हैं।