Post – 2019-09-21

#रामकथा_की_परंपरा(22)
रामायण के राम

सवाल पैदा होता है कि जब इतना कुछ, यहां तक कि राम रावण का संग्राम भी पहले से चला रहा है, तो रामायण में वर्णित राम की कथा क्या निरी कल्पना की उपज है? इसकी ऐतिहासिकता इससे खंडित नहीं हो जाती?

इस तरह की आपत्तियां केवल भारतीय इतिहास और पुराण गाथा की प्रकृति को न समझने वाला ही कोई उठा सकता है। कम से कम भारत में किसी भी वास्तविक व्यक्ति को महिमामंडित करने का एक तरीका, उस पर जनमानस में घर कर चुके वृत्तों और चरित्रों के आरोपण का रहा है।

बीसवीं शताब्दी में भी कुछ दिन के कारावास के कारण गांधीजी जनमानस में कृष्ण के अवतार बनते बनते रह गए।

पाकिस्तान में झूलेलाल के नाम से आजकल जिस व्यक्ति की समाधि की पूजा होती है वह ज्ञात इतिहास के चरित्र हैं, “चैत्र माह की द्वितीया को एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम उडेरोलाल रखा गया। अपने चमत्कारों के कारण बाद में उन्हें झूलेलाल, लालसांई, के नाम से सिंधी समाज और ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से मुसलमान भी पूजने लगे। चेटीचंड के दिन श्रद्धालु बहिराणा साहिब बनाते हैं।” नाम वरुण के स्थान पर झूलेलाल क्यों पड़ा इसका रहस्य ऋग्वेद में खुलता है:
आ यद् रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत् समुद्रं ईरयाव मध्यम् ।
अधि यदपां स्नुभिः चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम् ।। 7.88.3
(जब मैं वरुण की नौका पर बैठता हूँ तो समुद्र के मध्य जाने पर जब तरंगों के साथ ऊपर उठते और नीचे आते हैं तो ऐसा मजा आता है मानो झूला झूल रहे हों।) यह सिंधियों के प्राचीन वैदिक देवता वरुण के अवतार हैं।

साई जिनका, चढ़ावों के बल पर आज विशाल आर्थिक साम्राज्य कायम हो चुका है, जन्म से मुसलमान थे, पर अब अपने भक्तों के बीच भगवान दत्तात्रेय के अवतार के रूप में स्वीकृत हो चुके है।

यह नई रीति नहीं है। भारत में ऐतिहासिक चरित्रों और देवों का वर्तमान विभूतियों पर आरोपित हो जाना वर्तमान में उनकी सक्रियता को न बाधित करता है. न क्षीण, अपितु उनकी प्रभावोत्पादकता को बहुगुणित करता है।

ऐसा आरोपण अयोध्या के राजकुमार पर भी हुआ।

राम की ऐतिहासिकता के कई पक्ष है और इनमें से किसी को निराधार नहीं कहा जा सकता, परंतु जांच परख के बिना किसी को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।

इसका एक पक्ष राम के वन-गमन तक की जीवन लीला से संबंधित है। यह इतनी यथार्थपरक है कि इसे दबाने, मिटाने, और इसमें गो-ब्राह्मण-प्रतिपालन को आदर्श बना कर राम को मर्यादापुरुषोत्तम बनाने और समाज के लिए अनुकरणीय बनाने – रामवत् आचरितव्यं न रावणवत् – के प्रयत्न में कई तरह से लीपापोती की गई, कई प्रसंग, यहां तक कि पूरे कांड बदले और जोड़े गए, परंतु यदि वाल्मीकीय रामायण को ध्यान से पढ़ें तो एक इतनी विश्वसनीय कथा इसके भीतर से उभरती है जो उसे नष्ट करने के प्रयत्नों के बाद भी बनी रह गई और समानातर चलती है।

इस कथा में कहीं कोई असंगति या अंतर्विरोध नहीं मिलता। इसी को लक्ष्य करने के बाद 1975 में चंडीगढ़ में आयोजित कई अनुशासनों की एक गोष्ठी में मैने अपना निबंध पढ़ा था – Original Ramayan: What it really was- और उससे एक कोहराम सा मच गया था।

उसी को केन्द्र में रखते हुए मैंने अपना उपन्यास ‘अपने अपने राम‘ लिखा और लोगों की जिज्ञासाओं से तंग आकर सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित संस्करण में उन अंशों को परिशिष्ट रूप में देने को बाध्य हुआ। इतनी प्रामाणिक कथा किसी पुराण कथा में आ ही नहीं सकती जो झुठलाने के प्रयत्नोे को बाद भी दबाई न जा सके। ऐसी कथा सच और सच के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकती.

एक दूसरा पक्ष वंशधरता का है। क्या किसी पौराणिक या काल्पनिक चरित्र की आगे पीछे की वंश परंपरा मिलती है? परंतु जो नामावली दी गई है वह सही प्रतीत होते हुए भी विश्वसनीय नहीं है। इसके ब्यौरे में न जा कर केवल यह सुझाना चाहेंगे कि इनमें मामूली असंगतियां हैं जिनका समाधान किया जा सकता है।

परंतु जिस वंशावली पर हम आपका ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं वह अकाट्य है। इस ओर अब तक किसी अन्य का ध्यान ही नहीं गया।
इसका उत्तर मैं प्रश्नों के रूप मे देना चाहता हूं:
उसी क्षेत्र का एक नाम साकेत और दूसरा नाम कोशल क्यों है?
कोशल की कन्या कोशल नरेश की पत्नी कैसे हो सकती थी?

मुझे पता है कि आपके पास इसका उत्तर नहीं है। उत्तर उस विद्वान के पास भी नहीं था जिसने उत्तर और दक्षिण कोसल में अंतर करते हुए एक भौगोलिक पहचान का प्रयास किया था, जिसमें उत्तर कोसल अति प्राचीन काल से सभ्य और दक्षिण कोसल आदिम बना रह गया। हमें इसका पक्का पता है, परंतु हम चाहते हैं कल तक आप भी इनके समाधान का प्रयास करें।

Post – 2019-09-20

#रामकथा_की_परंपरा(21)
विचारधारा का मोर्चा

जैसा कि हम विश्वामित्र और वशिष्ठ के मामले में पाते हैं, ऋग्वेद में वर्णित चरित्र और घटनाएँ रामायण और महाभारत में बदल जाती हैं। उपनिषद काल तक इंद्र की महिमा बनी रहती है। जैन साहित्य में इंद्र की प्रतिष्ठा बनी रहती है। केवल ब्राह्मणवादी साहित्य में इंद्र और विश्वामित्र का पराभव होता है।

इन्द्र के प्रभाव से यज्ञ का प्राचीन रूप जिसमें हिंसा और पशु बलि का विधान था, बदला था। यज्ञ अध्वर या हिंसा से मुक्त हुआ था। ऐसा आसुरी पृष्ठभूमि से आए ऋषियों के प्रभाव के कारण हुआ था। भृगुओं ने यज्ञ के पुराने चलन का परित्याग कर दिया था – हता मखं न भृगवः । जिस इंद्र और अग्नि का उन्नयन अगिरसों और कुशिको ने किया था, वह खनन, धातुशोधन और औद्योगिक गतिविधियों में प्रयुक्त अग्नि और इनमें सक्रिय भाग लेने वाले और संरक्षण देने वाले इन्द्र हैं।

जैसे इस इंद्र को कुशिकों का पुत्र कहा गया है उसी तरह औद्योगिक उपयोग के अग्नि को अथर्वा ने पुष्कर से मथ कर निकाला था (त्वामग्ने पुष्करात् अधि अथर्वा निरमंथत। ऋ. 6.16.13)। इस अग्नि के उत्पादक या जनक अथर्वांगिरस हैं ।

इसे हम पहले भी कह आए हैं कि यह बदलाव बौद्ध और जैन मत के राजकीय प्रश्रय से उत्पन्न दानजीवी ब्राह्र्मणों की आर्थिक दुर्गति के कारण आत्मरक्षा में आरंभ हुआ।

किसी के विषय में दुष्प्रचार या किसी का चरित्र-हनन करके उसको परास्त किया जा सकता है यह ब्राह्मणों का आविष्कार है जिसका आधुनिक युग में नाज़ियों और कम्युनिस्टों ने सबसे अधिक उपयोग किया और आज भी करने का प्रयत्न करते हैं, जब उघरे अंत न होय निबाहू की नौबत आ चुकी है।

शकुंतला और मेनका की उदभावना और विश्वामित्र के तपभंग, उनका राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के प्रयत्न, वशिष्ठ की नन्दिनी गाय को बल पूर्वक हरण का प्रयत्न और उस गाय की योनि से भारत पर आक्रमण करने वाली जातियों की उत्पत्ति आदि की कहानियाँ इसी काल और इसी बहुमुखी अभियान की उद्भावनाएँ हैं।

इसी के चलते वैदिक काल की एक त्रासदी का जिसमें ऋषि वामदेव अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं कि उन्हें क्षुधार्त हो कर कुत्ते की अंतड़ी पका कर खानी पड़ी (अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे)। अब वामदेव की जगह विश्वामित्र को भुक्तभोगी बना दिया जाता है।

इसी त्रासदी का एक अपमानजनक अनुभव है, ऋषि वामदेव ने अपनी आँखों के सामने अपनी पत्नी की इज्जत लुटते देखी (अपश्यं जायां अमहीयमानां) और इसको उलट कर रामायण में इन्द्र को ही मुनि का वेश धारण कर उनकी पत्नी अहल्या से व्यभिचार कराया जाता है (तस्यान्तर विदित्वा च सहस्राक्ष शचीपतिः। मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमव्रवीत्। ऋतुकालं प्रतीक्षंते नार्थिनः सुसमाहिते। संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे।)

आगे ऋषि को इसका पता चलने पर जो शाप आदि दिया जाता और उसका का जो प्रभाव होता है उससे मोटे तौर पर हम सभी परिचित हैं, यद्यपि व्यौरों में मामूली अंतर है।

हम जिस बात पर बल देना चाहते हैं वह यह है कि उपनिषद काल तक इंद्र की प्रधानता बनी रहती है। उसके बाद विश्वामित्र की तरह उनके द्वारा प्रशंसित, लगभग उन्हीं की रचना, इंद्र, का भी चरित्र हनन आरंभ हो जाता है। वह सर्वोपरि देवता नहीं रह जाता। उसकी भी जाति तय कर दी जाती है। वह क्षत्रिय है। असुरों से युद्ध करने वाला, उनके पुरों के ध्वस्त करने वाला क्षत्रिय तो होगा ही। वैसे भी असुर संहार सी जरूरत के कारण अवताकों को क्षत्रिय तो होना ही था।

जिस एक ऋचा के आधार पर विश्वामित्र के चांडाल के घर में चोरी से घुसकर कुत्ते की अँतड़ी पकाकर खाने की और अहल्या के शीलभंग की कथा गढ़ी गई वह निम्न प्रकार है
अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायां अमहीयमानां अधा मे श्येनो मध्वा जभार ।।4.18.13

मैं आचार भ्रष्ट होकर कुत्ते की अँतड़ी पका कर खाने को विवश हुआ, और किसी देवता ने मेरी मदद नहीं की। मैंने अपनी आंखों अपनी पत्नी का शीलभंग होते देखा, उसके बाद इंद्र ने वर्षा करके हमारे जीवन को फिर खुशहाल बना दिया।

इसके अंतिम वाक्य को शिकायत के रूप में भी दर्ज किया जा सकता है कि क्या यह नौबत आने के बाद ही इंद्र को वर्षा करनी थी।

एक महा दुर्भिक्ष का यह एक दारुण चित्रण है। इसमें इंद्र को ही सबसे प्रभावशाली देवता के रूप में स्वीकार किया गया है। परंतु इसके आधार पर बाद में जो चित्र उपस्थित किया गया वह इरादतन इंद्र को लांछित करने के लिए बहुत सोच समझकर तैयार किया गया।

ऐसा लगता है कि जिसे हम आज की भाषा में थिंक टैंक कहते हैं वैसा कुछ अपनी रक्षा के लिए, आत्मसम्मान की रक्षा के लिए, दूसरी सभी चीजों को दरकिनार करते हुए, एक योजना बनाई गई कि बौद्ध मत का उच्छेदन करने के लिए एक साथ कितने मोर्चे खोले जाने चाहिए और इन सभी पर कितनी सावधानी बरती जानी चाहिए।

एक मोर्चे पर परिभाषाएं बदली जा रही है, पुराने आदर और सद्भाव के शब्दों का अर्थ बदला जा रहा है, श्लाघ्य को गर्हित बनाया जा रहा है। दूसरे पर पुराने और जन-समादृत ऋषियों का नया पर कलुषित अवतार इस चतुराई से तैयार किया जा रहा है कि उनकी महानता भी बनी रहे, जन भावना भी आहत न हो और उनका अधःपतन भी दिखाया जा सके। तीसरे मोर्चे पर इन मतों के लोक समादृत पक्षों का आत्मसात्करण। वे अहिंसा की बात करते हैं और तो परदुखकातर समाज की नजर में ऊपर उठने के लिए हम प्याज और लहसन से भी परहेज करेंगे।

रामायण पुरातन कथा होने के साथ, विचारधारात्मक संग्राम के हथियार के रूप में योजनाबद्ध रुप में तैयार की गई विश्व की एक अनन्य रचना है। इस पक्ष की अवज्ञा करके कृषिकथा के इस चरण को हम समझ नहीं सकते।

Post – 2019-09-20

#रामकथा_की_परंपरा(20)
इंद्र का आविर्भाव

इंद्र वैदिक देवताओं में सबसे नए माने जाते हैं। सर्वोपरि देव के रूप में इन्हें कुछ ही समय तक रहने का अवसर मिला, फिर विष्णु जिन्हें इनकी प्रतिष्ठा के लिए उपेंद्र बना दिया गया था, सर्वोपरि देवता बन जाते हैं। रामायण के राम इन्द्र के नहीं विष्णु के अवतार हैं।

विश्वामित्र के पुत्र माने जाने वाले मधुछंदा की एक ऋचा है:
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्ति अर्कं अर्किणः ।
ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशं इव येमिरे ।। 1.10.1
“इंद्र ! गायन करने वाले तुम्हारा गुणगान करते हैं, अर्चना करने वाले तुम्हारी अर्चना करते हैं। जिस तरह नट को बाँस के ऊपर उठ जाता है, उसी तरह स्तुतियों से हमने तुम्हें ऊपर उठा रखा है।”

दावा गलत नहीं है। ऋग्वेद में इंद्र की महिमा स्थापित करने के लगातार प्रयत्न देखे जा सकते हैं। परन्तु प्रयत्न से ऊपर उठाई हुई चीजें अधिक समय तक ऊपर टिकी रह नहीं पातीं। इंद्र के साथ ऐसा ही हुआ। जितनी तेजी से उन्होंने नाम कमाया था, उतनी ही तेजी से बदनाम होकर नीचे आ गए मुँह छिपाने की नौबत आ गई।

इन्द्र के देवत्व के जनक कुशिक थे, यह प्रस्ताव भले ही कुछ चौंकाए, परंतु उनकी माता का नाम शवसी है, इसे सुनकर किसी को विस्मय न होगा। वह शक्ति (शव=बल) के पुत्र हैं। उनके जन्म की कहानी बड़ी रोचक है, इसे तीन ऋचाओं में देखा जा सकता है। हमने स्वयं इनकी व्याख्या करने की जगह इनके साथ ग्रिफिथ का अनुवाद दिया है जिसे भरोसे लायक माना जा सकता है:
आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छत् वि मातरम् ।
क उग्राः के ह शृण्विरे ।। 8.45.4
The new-born Vrtra-slayer asked his Mother, as he seized his shaft,
Who are the fierce? Who are renowned?
प्रति त्वा शवसी वदद्गिरावप्सो न योधिषत् ।
यस्ते शत्रुत्वमाचके ।। 8.45.5
Savasi answered, He who seeks thine enmity will battle like
A stately elephant on a hill.
उत त्व मघवञ्चछृणु यस्ते वष्टि ववक्षि तत् ।
यद्वीळयासि वीळु तत् ।। 8.45.6
And hear, O Maghavan; to him who craves of thee thou grantest all
Whate’er thou makest firm is firm.

चरित्र-हनन इंद्र का ही नहीं किया गया। गाथाकारों (व्यासों) ने ही ने ही वेद, पुराण, इतिहास, धर्मशास्त्र उन सभी का उद्धार किया जिन पर ब्राह्मण कब्जा जमा कर अपनी श्रेष्ठता के दावे करते रहे और इसके बाद भी ब्राह्मणों ने लगातार उनका तिरस्कार किया। कभी ब्राह्मण माना ही नहीं। विश्वामित्र को भी गाधि राजा का पुत्र और क्षत्रिय बना दिया। बौद्ध मत के विरोध के साथ यह अभियान तेज हो गया।

जो भी हो, आसुरी समाज से आने वाले और कृषिकर्म में सीधी भागीदारी न करने वाले ये अनुजीवी न किसी एक रक्त के न थे। कृषि की पहल करने वालों से नस्ल या भाषा के मामले में अलग नहीं थे। प्रतिभा की कमी के कारण पिछड़े नहीं रह गए थे। इनमें से बहुतों ने ब्राह्मण वर्ण में प्रवेश किया यह तो आंगिरस और भार्गव जैसे उपनामों से समझा जा सकता है।

जैसे जैन और बौद्ध मतों का विरोध करने के साथ ब्राह्मणवाद ने उसकी अनेक विशेष विशेषताओं को अपना लिया और उसे अति पर पहुँचा दिया, कुछ वैसा ही उससे पहले अपने विशेष कौशलों के साथ कृषिकर्मियों की सेवा में आने वालो के बाद हुआ। सबसे रोचक था देवों और आर्यों का सही अर्थ में असुर और अनार्य बन जाना।

जिस कृषिकर्म के बल पर वे कभी देव और आर्य होने का दावा कर रहे थे, उसी कृषिकर्म से ठीक वैसा ही परहेज करने लगना, जिसके लिए वे असुर समाज की निंदा किया करते थे।

अब वे रुग्णता के (फीटिसिज्म), प्रतीकबद्धता के शिकार हो गए – प्रतीक को वास्तविकता और वास्तविकता को प्रतीक की देन मानने लगते हैं। यज्ञ की वेदी को समस्त उर्वरा भूमि और उर्वरा भूमि समस्त पृथ्वी है इसलिए यह वेदी ही समस्त पृथ्वी है : इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ….(1.164.35)।

दुनिया का पूरा भूगोल बैठे-बैठे मालूम हो गया। दुनिया की सारी संपत्ति पर ब्राह्मण का अधिकार हो गया, क्योंकि श्रेष्ठतम कर्म तो वह करता है – यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। परंतु यह व्याधि केवल ब्राह्मणों तक सीमित नहीं रही। अकर्मण्यता सामाजिक श्रेष्ठता का मानदंड बन गई। व्याधियाँ संक्रामक होती है।

मैंने पूरी पड़ताल नहीं की। परंतु ऐसा लगता है कि छल और धोखाधड़ी आदिम समाज में असह्य था। वे अपने मूल्यों के लिए अपना सर भी कटा सकते थे, परंतु वादे से मुकर नहीं सकते थे। इसे बलि-वामन की कथा में मूर्त किया गया है।

देव संख्या में कम होने के कारण छल प्रपंच से काम लेते हैं। प्रतीक यज्ञ और वास्तविक उत्पादन से परहेज करते हुए भी समस्त धरती पर ब्राह्मण के अधिकार का दावा भ्रम प्रचार नहीं तो और क्या है। इसी को मायाजाल कह कर इसका विरोध विश्वामित्र करते प्रतीत होते हैं। यदि वसिष्ठ ब्राह्मणवाद के जनक हैं तो उनके साथ श्रम से परहेज और दावा आरंभ होता है। विश्वामित्र इसका विरोध करते हुए वसिष्ठ को यातुधान और मायावी कहते हैं। वसिष्ठ इससे अपमानित अनुभव करते हुए कसम खाते हैं कि वह यातुधान नहीं हैं और अपने पर यातुधान होने का आरोप लगाने वाले को शाप देते हैं। शाप भी जादुई शक्ति में विश्वास से प्रेरित है। केवल ब्राह्मण ही शाप से भारी अनिष्ट कर सकता है। विश्वामित्र का आरोप इसी को लेकर है।

हम इसका अनुवाद करने की जगह ग्रिफिथ के अनुवाद से काम चलाएँगे जिसे कुछ सावधानी से पढ़ा जाना चाहिए। :
अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य ।
अधा स वीरैर्दशभिर्वि यूया यो मा मोघं यातुधानेत्याह ।। 7.104.15
So may I die this day if I have harassed any man’s life or if I be a demon.
Yea, may he lose all his ten sons together who with false tongue hath called me Yatudhana.

यो मायातुं यातुधानेत्याह यो वा रक्षाः शुचिरस्मीत्याह ।
इन्द्रस्तं हन्तु महता वधेन विश्वस्य जन्तोरधमस्पदीष्ट ।। 7.104.16
May Indra slay him with a mighty weapon, and let the vilest of all creatures perish,
The fiend who says that he is pure, who calls me a demon though devoid of demon nature.
विरोध यहीं समाप्त नहीं हो जाता, वसिष्ठ यज्ञ के द्वारा इच्छित परिणाम लाने का विश्वास दिला कर सुदास के पुरोहित बन चुके हैं और विश्वामित्र को राजपुरुषों के द्वारा बाँध कर सामने लाने का आदेश देते हैं और जब आदेश का पालन होता है तो विश्वामित्र इसका बदला लेने का संकल्प लेते हैं:
न सायकस्य चिकिते जनासो लोधं नयन्ति पशु मन्यमानाः ।
नावाजिनं वाजिना हासयन्ति न गर्दभं पुरो अश्वान्नयन्ति ।। 3.53.23
इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम् ।
हिन्वन्त्यश्वमरणं न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ ।। 3.53.24

यह प्रतिस्पर्धा और शत्रुता बहुत प्रबल है, कहानी पुरानी है। इसका पूरा चरित्र मेरी भी समझ में नहीं आता।
रामायण की कथा में भी इन दोनों ऋषियों को स्थान मिलता है, परन्तु पुरानी शत्रुता पर परदा डाल दिया जाता है।

Post – 2019-09-18

#रामकथा_की_परंपरा(19)

रामायण का पुराना नाम शायद रावणवध था (संदर्भ याद नही), और आकार बहुत छोटा था। रामायण के वर्तमान पाठ में भी राम रावण का और उसके साथ राक्षसों का संहार करने के लिए अवतार लेते हैं। उससे पहले का उनका जीवन उसी संग्राम की संभावना पैदा करने के लिए मायावी वृतांत है। ऋग्वेद में इंद्र वृत्रवध करने के लिए जन्म लेते हैं।

हम पीछे कह आए हैं कि इंद्र से पहले कृषि के देवता विष्णु अर्थात् अग्नि थे। उनके माध्यम से ही वन्य भूमि को कृषि भूमि में बदला जाता था। जुताई के अल्पविकसित औजारों के समय कृषि भूमि में उगने वाले झाड़-झंखाड़ को आग से ही जलाया जाता था। पहाड़ों पर आज भी यही तरीका काम में लाया जाता है। रात के अँधेरे में अग्नि के लुकाठों से ही खतरनाक जंगली जानवरों को और नोच खसोट करने वाले वनचरों को भगाया जाता था। अँधेरे में तीरन्दाजी नहीे की जा सकती थी।

राक्षसों द्वारा यज्ञ को नष्ट करने के जो विवरण बाद में मिलते हैं उनमें विध्वंस का असली चरित्र ओझल रह जाता है। वे अँधेरा होते ही उपद्रव आरंभ कर देते थे, इसीलिए उनको निशाचर कहा जाता था, परन्तु आग जलती देख कर सहम जाते थे।

बचपन में हम साँझ होते ही दरवाजे पर बने एक ताखे पर ढिबरी जला कर इसलिए रखते थे कि दिए की रोशनी रहते भूत-प्रेत दूर रहेंगे। [[प्रसंगवश बता दें जिन बोलियों का विलय भोजपुरी में हुआ था उनमें शायद प्रकाश के लिए ढब या ढिब का प्रयोग होता था। इसी के कनढेबर (कन=आँख) निकला है। इसका अल्पप्राणित रूप डब/डिब – पानी मे किसी चाज के डूबने की आवाज> पानी> प्रकाश ]] आग का पोषक और माधुर्य का पक्ष रसोई घरमें ही नहीं भूनने-तताने में भी देखा जाता है जिसके कारण अखाद्य भी खाद्य बन जाता है। उसके इसी गुण के कारण उसे मधजिह्व कहा गया है, उसकी जिह्वा के स्पर्श से स्वाद बढ़ जाता है। इन्हीं का मूर्तन विष्णु के त्राता, पालक और पोषक रूप में होता है।

पूषा अग्नि के ही पोषक और रक्षक रूप के परवर्ती मूर्तन हैं। उनका वाहन अज या बकरा है जिसे अग्नि और सूर्य का रूप माना जाता है अंतर यह कि ये दोनोे एक पाँव वाले अज हैं- अज एकपाद (शं नो अज एकपात् देवो अस्तु, अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन् विश्वानि भुवनानि तस्थुः ।। 10.82.6 )हैं।

अज और अश्व दोनों सृष्टि के आदि में ही पैदा हो गए थे, जब हिरण्यगर्भ भण् की आवाज करते हुए फटा तो उसके ऊपर जो रस चिपका रह गया वह अज हो गया, जो तेजी से पानी में मिल गया वह रासभ या अश्व हो गया। इसी से अश्व की उत्पत्ति समुद्र से मानी गई है। असलियत यह कि जब यह कथा गढ़ी जा रही थी जंगली गधे/घोड़े कच्छ के टापुओं से फँसा कर लाए जाते थे।

यह है मिथकीय भाषा में कृषि के आरंभ को सृष्टि का आरंंभ बना देना और सबसे पहले पालतू बनाए जाने वाले जानवरों को सृष्टि के आदि में उत्पन्न कल्पित करना। परंतु एक बात पर ध्यान दें कि कृषि या कृत्रिम उत्पादन के आरंभ को हमारे पुराविदों ने सृष्टि का मूल माना, इसे गंगा घाटी (प्रयागराज) मे माना जाता रहा। यदि कृषि (उत्पादन) यज्ञ है, तो इसके लिए इससे उपयुक्त स्थल हो भी क्या सकता था! कमाल का रूपक है (गलत हो तो सुधारें) – अग्नि की उत्पत्ति जल से (आपो ह यद् बृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। 10.121.7) अग्नि/विष्णु अपने गर्भ समुद्र में सोए रहते हैं। विष्णु से विष्णु (कृषि यज्ञ) की नाभि से निकला कमल (वैभव) और उस पर ब्रह्मा (समस्त प्रकार के विकासों के प्रेरणास्रोत ) विद्यमान। मैं अपनी व्याख्या से पूरी तरह संतुष्ट हूं, परंतु तार्किक संगति के बाद भी यह विश्वास नहीं हो पाता कि इस प्रतीक को गढ़ने वालों के मन में ठीक वे ही विचार रहे होंगे जिनकी हमने उद्भावना की है।

पीछे लौटकर अपने विषय पर आना जरूरी लगता है, और इस विषय में भी मैं जो विचार प्रकट करता हूं वह मात्र एक संभावना है, अकाट्य निष्कर्ष नहीं। हम पहले यह कह आए हैं कि अजपालन का दौर देव युग था। गोपालन से मानव युग आरंभ होता है। परंतु गोपालन युग उस संक्रांति काल का भी निर्णय करता है जिसमें अपनी वन्य संपदा खो चुके आदिम जनों द्वारा मुख्यधारा में अर्थात् उसी संस्कृति में अपने लिए जीवन रक्षा का एक प्रयत्न आरंभ होता है, जिसका वे निरंतर विरोध करते आए थे।उनकी वर्जनाएँ (टैबू) इस समुदाय में जगह बनाने के बाद भी बनी रहती है इसलिए ये साधे कृषिकर्म में भाग नहीं लेते। प्रौद्योगिकी पर एकाधिकार करते हैं। इसके विस्तार में जाने का लोभ संवरण करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या हम विष्णु स्थानीय पूषा को उस संक्रमण काल की अवधारणा मान सकते हैं जब अपने वनांचलों के नाश के बाद आदिम जन कृषि कर्मियों को अपनी सेवाएं देने के लिए बाध्य होते हैं?

मान लिया, परंतु यहाँ प्रश्न उठता है, इंद्र कब और क्यों पैदा हुए?
मेरी कल्पना है और इसे स्थापना के रूप में नहीं रखना चाहता, इसके बाद भी यह निवेदन करने का प्रलोभन होता है कि कृषि के नए देवता के रूप में इंद्र की कल्पना कुशिकों ने की। अपने यशोगान से उन्हें सर्वोपरि देव के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न उन्होंने किया। कृषिकर्मियों की सेवा में आने को विवश तो थे, परंतु अपनी सामाजिक वर्जनाओं के कारण वन दहन और कर्षण को धरती माता के प्रति हिंसा मानते थे।

इंद्र का एक नाम कौशिक है – कुशिकों की संतान या उनकी (कुशिकों की गाथापरंपरा की) संतान हैं – आ तू न इन्द्र कौशिक मन्दसानः सुतं पिब। पहली बार इसे पढ़ने के बाद मैने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। परंतु ऋग्वेद में उनके प्रति एक दबा हुआ विरोध और सहयोग देखने के बाद मुझे लगा कि इसके पीछे एक ऐतिहासिक सच्चाई छिपी हुई है।इसकी व्याख्या मैं जाना भी चाहें तो आज यह कार्य संभव नहीं है।

Post – 2019-09-17

रामायण की परंपरा (18)
वैदिक रीतिवाद

मैंने अपने शोध विषय के रूप में एक बार ‘प्रयोवाद और रीतिकाल’ का सुझाव रखा था, जिसे डा. नगेन्द्र ने एक झटके में खारिज कर दिया था । मैं आज भी मानता हूं विचार या अनुभूति की कमी और कथन शैली पर अधिक ध्यान देने की स्थिति में कलावाद बढ़ जाता है। संवेद्यता का स्थान चमत्कार ले लेता है। रचना स्वतःस्फूर्त न रह कर प्रयत्नसाध्य हो जाती है।

वैदिक कविता में यह अपनी पराकाष्ठा पर देखने में आता है। ऐसा होना स्वाभाविक था। यदि कवि शिल्पियों से प्रतिस्पर्धा करेंगे तो कविता पर उनकी तरह श्रम भी करना होगा। काव्यसाधना करनी होगी। शिल्पी जैसे अपने पूर्वर्ती कलासिद्धों से अपना ज्ञान और कौशल अर्जित करता है और फिर उसी अभ्यास से कलादृष्टि विकसित करता है और उसमें अपनी ओर से कुछ नया जोड़ते हुए नया कारनामा करता है, नए चमत्कार करता है वैसा ही कवि को भी कर दिखाना होगा।

इस प्रयत्नशीलता के कारण वैदिक कवियों का शिल्प तो अपूर्व और अनन्य है परंतु प्रयत्नसाध्य हो जाने के कारण कविता में भावावेग की कमी हो जाती है। इसे पहली बार लक्ष्य करने के बाद हमने पन्द्रह साल पहले ज्ञानोदय एक लेख लिखा थाः
“नई कविता आंदोलनः पांच हजार साल पहले
“चकित होने के लिए यह शीर्षक ही पर्याप्त है। शीर्षक चुनते हुए मैं स्वयं भी चकित था । आप से भिन्न कारणों से। आप के चकित होने का अर्थ है ‘यह क्या बकवास है! नई कविता और पांच हजार साल पुरानी!’ पर मेरे चकित होने का कारण आप से भिन्न था। उस विस्मय में मैं अपने आप से सवाल कर रहा था कि इससे पहले इस दृश्यमान को किसी ने इस रूप में देखा क्यों नहीं! आप का प्रश्न एक दबी हुई जुगुप्सा हो सकती है, मेरा प्रश्न एक नए साक्षत्कार का आह्लाद था। केवल नई कविता नहीं, एक आंदोलन के रूप में नई कविता! नये पथ की खोज, नये प्रयोग! इसका बोध और दावा भी!”

उस समय मेरा ध्यान वैदिक कविता के असाधारण निखार पर था। कवियों के बीच एक दूसरे को मात देने के लिए किए जाने वाले प्रयोगों पर था इसलिए इस पक्ष पर ध्यान न गया था कि कलावादी साहित्य और कला दोनों समाज से ही नही कट जाते हैं बल्कि स्वयं कवि और कलाकार से भी कट जाते हैं और चमत्कार पसंद करने वाले कुछ कलाविदों के काम के रह जाते हैं।

कवि वामदेव की कुछ ऋचाओं भिक्षु आंगिरस की अभाव की पीड़ा से उपजी कुछ ऋचाओं को और भय और असुरक्षा की कातर पुकारों को छोड़ दें तो मानव संवेदना वैदिक कविता से गायब दिखाई देती है। समाज की भौतिक उपलब्धियों का पता चलता है, उसका लोभ और गर्व देखने में आता है, पर समाज स्वयं गायब मिलता है। व्यापारियों के यात्रापथों को छोड़ कर उनके भूगोल तक का पता नही चलता।

दरबारी कविता में यही होता, जैसे दरबार अपने को समाज से अलग और ऊपर रखने और दीखने का प्रयत्न करता है और अपने आप में एक बंद संसार बन जाता है उसी तरह उसका कवि भी। दानस्तुतियों से इसकी पुष्टि भी होती है कि वे अपनी रचनाएँ संपन्न कलाविदों के लिए किया करते थे।

आश्चर्य इस बात पर होता है कि वैदिक कवियों की ही नहीं, हिन्दी के रीतिकालीन और उर्दू की दरबारी कविता को लोक में जैसी स्वीकृति मिली वैसी स्वीकृति जनवादी और प्रगतिशील कविता को भी नहीं मिली। यदि संस्कृत लोकग्राह्य भाषा होती तो माघ, भारवि और हर्ष भी संभवतः किसी अन्य की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय होते।

ऐसा सोचने का आधार यह है कि वैदिक कविता अपने समय के साहित्य रसिकों में जितनी लोकप्रिय थी उतनी ही जनसाधारण में। सिद्धों-संतों तक पहेलियों और सचेत रूप में कविता को दुरूह बनाने की विरासत लोक के माध्यम से पहुँची तो संस्कृत के रीतिवादी और दरबारी कवियों तक साहित्य के माध्यम से। वैदिक कवियों की कविताओं से पता चलता है कि वे अपने समय के और उससे पहले के कवियों की रचनाओं से परिचित थे कई बार उनकी रचनाओं में दूसरे कवियों की पंक्तयाँ या उनके अंश चले आते हैं। यह इतने बड़े पैमाने पर हुआ है कि ब्लूमफील्ड ने वैदिक आवृत्तियों का एक ग्रंथ ही तैयार कर दिया।

इसका एक कारण यह लगता है कि जन साधारण कविता में आनंद लेता था और इसलिए कविसम्मेलन जैसा कोई आयोजन होता था जिसका संकेत दसवें मंडल के 71वें सूक्त में है। मजेदार बात है कि समाज उस काव्य में रुचि ले रहा है जिससे वह स्वयं गायब है। यह साहित्य और कला की सामाजिकता पर पुनर्विचार की माँग करता है। साहित्य समाज का दर्पण बन कर सामाजिक नहीं बनता, वह उसे वस्तु जगत से उठाकर, कुछ समय के लिए एक आनंदलोक में पहुँचा कर क्षणिक मुक्ति देता है। यही गुण उसे ब्रहमानंद सहोदर बनाता। यह भावलोक भी हो सकता है और चमत्कार लोक भी। इसलिए चमत्कार भी व्यर्थ नहीं होता और उसकी भी एक परंपरा होती है।

अब हम केवल एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयत्न करेंगे। चमत्कार-प्रदर्शन के लिए दो अलंकार सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं: श्लेष और यमक। ये दोनों भाषा पर असाधारण अधिकार को प्रमाणित करते हैं परंतु इसके कारण ही वे पंक्तियाँ श्रोताओं को मुग्ध कर देती है और उनके मानस पर गहरे अंकित हो जाती हैं जिनमें इसका प्रयोग होता है।
ने के कारण
बिहारी को कवि के रूप में कुछ लोग उनके एक दोहे से जानते हैं ‘कनक कनक तें सौगुनी मादकता अधिकाय।…’ संस्कृत में भाषा पर अधिकार के लिए माघ जाने जाते हैं – गर्वोक्ति है, माघ (शिशुपाल वध) के नव सर्ग पर अधिकार हो जाए तो कोई नया शब्द न मिलेगा – नव सर्गे गते माघे नव शब्दो न विद्यते ।
उनके वसंत वर्णन की पंक्ति:
नव पलाश पलाश वनं पुरः स्फुट पराग परागत पंकजम्‌, मृदुलतांत लतांतमलोकयत्‌ स सुरभिं-सुरभिं सुमनो भरैः।
मेरी चेतना मे आज तक गूँजती है। परन्तु यह याद नहीं कि उन्होंने इसका किस सीमा तक निर्वाह किया है।

वैदिक कवियों में अनेक ने छंद और अलंकार में एक साथ प्रयोग किए हैं और जिसका भी चयन किया है उसका निर्वाह एक पंक्ति में नहीं पूरे सूक्त में किया है। हम इसके लिए केवल एक सूक्त लेंगे जिसके कवि
परुच्छेप दैवोदासि हैं, विषय अग्निः और छंद अत्यष्टि है, केवल एक ऋचा अतिधृति में हैं। हम इनकी सविस्तार व्याख्या में जाएं तो उससे समझ नहीं ऊब पैदा होगी, इसलिए हम उन शब्दों या पदों को कोष्ठबद्ध करके ही संतोष करना चाहेंगे जिनको अलग अलग अर्थों में दुहराया गया है।

अग्निं होतारं मन्ये दास्वन्तं वसुं सूनुं सहसो (जातवेदसं) विप्रं न (जातवेदसम्)
य ऊर्ध्वया स्वध्वरो देवो देवाच्या कृपा ।
घृतस्य विभ्राष्टिमनु वष्टि शोचिषाऽऽजुह्वानस्य सर्पिषः ।। 1.127.1

यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमंगिरसां विप्र (मन्मभिः)विप्रेभिः शुक्र (मन्मभिः) ।
परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम् ।
शोचिष्केशं वृषणं यमिमा (विशः) प्रावन्तु जूतये (विशः) ।। 1.127.2

स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति (द्रुहंतरः) परशुर्न (द्रुहंतरः) ।
वीळु चिद् यस्य समृतौ श्रुवत्वनेव यत्स्थिरम् ।
निष्षहमाणो यमते (नायते) धन्वासहा (नायते) ।। 1.127.3

दृळहा चिदस्माँ अनु दुर्यथा विदे तेजिष्ठाभिः अरणिभिः (दाष्ट्यवसे)ऽग्नये (दाष्ट्यवसे) ।
प्र यः पुरूणि गाहते तक्षद् वनेव शोचिषा ।
स्थिरा चिदन्ना नि रिणाति (ओजसा) नि स्थिराणि चित् (ओजसा) ।। 1.127.4

तमस्य पृक्षं उपरासु धीमहि नक्तं यः सुदर्शतरो (दिवातरात्) प्रायुषे (दिवातरात्) ।
आत अस्यायुः ग्रभणवत् वीळु शर्म न सूनवे ।
भक्तं अभक्तं अवो (व्यन्तो अजरा) अग्नयो (व्यन्तो अजराः) ।। 1.127.5

स हि शर्धः न मारुतं तुविष्वणिः अप्नस्वतीषु उर्वरासु (इष्टनिः) आर्तनासु (इष्टनिः) ।(आदत) हव्यानि (आददिः) यज्ञस्य केतुः अर्हणा ।
अध स्मास्य हर्षतो हृषीवतो विश्वे जुषन्त (पन्थां) नरः शुभे न (पन्थाम्) । 1.127.6

द्विता यदीं कीस्तासो अभिद्यवो नमस्यन्त उपवोचन्त भृगवो मथ्नन्तो दाशा भृगवः
अग्निरीशे वसूनां शुचिर्यो धर्णिः एषाम् ।
प्रियाँ अपिधीः( वनिषीष्ट मेधिर) आ (वनिषीष्ट मेधिरः) ।। 1.127.7

विश्वासां त्वा विशां पतिं हवामहे सर्वासां समानं दम्पतिं (भुजे) सत्यगिर्वाहसं भुजे) ।
अतिथिं मानुषाणां पितुर्न यस्यासया ।
अमी च विश्वे अमृतास (आ वयः) हव्या देवेष्व वृत्र (आ वयः) ।। 1.127.8

त्वं अग्ने सहसा सहन्तमः (शुष्मिन्तमो) जायसे (देवतातये) रयिर्न (देवतातये) ।
(शुष्मिन्तमो) हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः ।
अध स्मा ते परि चरन्ति (अजर) श्रुष्टीवानो न (अजर) ।। 1.127.9

प्र वो महे सहसा सहस्वत उषर्बुधे पशुषे न (अग्नये) स्तोमो बभूतु (अग्नये) ।
प्रति यदीं हविष्मान् विश्वासु क्षासु जोगुवे ।
अग्रे रेभः न जरत (ऋषूणां) जूर्णिर्होत (ऋषूणाम्) । 1.127.10

स नो नेदिष्ठं ददृशान आभर अग्ने देवेभिः सचनाः (सुचेतुना) महः रायः (सुचेतुना) ।
(महि) शविष्ठ नस्कृधि सञ्चक्षे भुजे अस्यै ।
(महि) स्तोतृभ्यो मघवन् त्सुवीर्यं मथीः उग्रो न शवसा ।। 1.127.11

Post – 2019-09-16

#रामकथा_की_परंपरा(17)
वैदिक कवि-2

ऋग्वेद में ऐसे शब्दों की संख्या बहुत अधिक है जिनके और जिनसे संबंधित शक्तियों या सत्ताओ के रूप, रंग को इस तरह साकार बनाने का प्रयत्न किया गया है कि वे श्रोता को विचित्र लगें – अक्रविहस्त, अग्निजिह्वा, त्रिमूर्ध, बृहत्केतुं शतभुजी, दशभुजी, सप्तरश्मिं, सप्तशीर्ष, सप्तस्वसा, सप्तास्य, हरिवर्प, हिरण्यशृंग, हिरण्यशिप्राः हिरिशिप्रः हिरिश्मश्रुः हिरण्यशम्यं।

परंतु हमारा उद्देश्य यह दिखाना था कि उनकी रचनाएं अपने समय के शिल्पियों से किस सीमा तक प्रभावित हैंं और इसका ध्यान न रखने के कारण हड़प्पा की पुरासंपदा को समझने में बाधा पैदा हुई है। इसका केवल एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा, और साथ ही निवेदन करना भी जरूरी है कि यह पाठ मेरा है और हो सकता है कि कोई दूसरा अध्येता इसकी अधिक स्वीकार्य व्याख्या दे सके।

ऋग्वेद में अग्नि का एक दार्शनिक चित्रण किया गया है, जिसमें अग्नि के पार्थिव (अग्नि), मध्य- आकाशीय (विद्युत), और आकाशीय (सूर्य) तीनों रूपों को तीन शिरों के रूप में कल्पित करते हुए, एक तीन सिर वाले प्राणी के रूप में चित्रित किया गया है, और सात रस्सियों (रश्मियों) से बँधा बताया गया है। विलक्षणता यह है कि प्राणी तो एक है, उसे बाँधने के लिए एक रस्सी जरूरी है, यहां सात-सात रस्सियों से बांधा गया । यही उनका संपूर्ण (अनून) रूप कहा गया है। रश्मि शब्द में श्लेष है। अग्नि के पक्ष में यह सतरंगी किरणों का द्योतक है और पशु के रूप में उसे बाँधने वाली रस्सियों का :
त्रिमूर्धानं सप्तरश्मिं गृणीषेऽनूनमग्निं पित्रोरुपस्थे ।
निषत्तमस्य चरतो ध्रुवस्य विश्वा दिवो रोचनापप्रिवांसम् । 1.146.1

सायणाचार्य के सामने कोई संदर्भ नहीं था। उन्हें शब्दों के माध्यम से ही जोड़-तोड़ करते हुए अपनी व्याख्या देनी थी इसलिए उन्होंने यज्ञ को अग्नि के रूपक में समेटा। यज्ञ अग्नि है, यज्ञ विष्णु है , यह तो हम जानते ही हैं। तीन सवनों को उन्होंने यज्ञ का तीन शिर मान लिया। जाहिर है उनकी व्याख्या से हमें संतोष नहीं हो सकता। संदर्भ ग्रिफिथ के सामने भी नहीं था, पर उन्होंने अपनी ओर से कोई तीर-तुक्का भिड़ाने का प्रयास नहीं किया:
I LAUD the seven-rayed, the triple-headed, Agni all-perfect in his Parents’ bosom,
Sunk in the lap of all that moves and moves not, him who hath filled all luminous realms of heaven.

मैकाय को अपनी मोहेंजोदड़ो की खुदाई में एक सील मिली मिली जिसका चित्र हम कुछ पहले पोस्ट कर चुके हैं। मैकाय को वेद से इसकी पहचान तलाशने की जरूरत हो ही नहीं सकती थी क्योंकि वेद तो उन दिनों की समझ से बहुत बाद का और घसियारों का साहित्य था। इसलिए उनहोंने जो पाठ किया वह है: “a possible explanation of this unusual devices is that its owner may have sought the protection or assistance of three separate deities represented by the heads of these three animals” (Further Excavations, I, p. 333).
वी स्टेफैनी के 31 जुलाई 2014 की ब्लॉग पोस्ट जिससे ऊपर का चित्र और उद्धरण लिया गया है, लिखते हैं:
J.M. Kenoyer describes it as a “square seal with animal whose multiple-heads include three important totemic animals: the bull, the unicorn, the antelope. All three animals appear individually on other seals along with script, but this seal has no script. The perforated boss on the back is plain, without the groove found on most seals.” (Ancient Cities, p. 194).
वह दूसरों से अधिक जानकार पुराविद हैं, भारत को वह किसी दूसरे विदेशी की अपेक्षा अधिक निकटता से जानते हैं और अपने को भारतीय भी बताते हैं, क्योंकि उनका जन्म भारत में हुआ था और बचपन भारत में बीता था, वह हिंदी और उर्दू बोल और समझ सकते हैं, परंतु जब से यह विचार जोर पकड़ने लगा कि तथाकथित हड़प्पा सभ्यता वैदिक सभ्यता है, इसी की भाषा और संस्कृति का प्रसार उस समय के ‘संसार’ में हुआ था, तब से उनका यह आग्रह बढ़ गया है कि वह पुरानी मान्यताओं को पुनर्जीवित करें।

वह कुछ समय पहले एक व्याख्यान में वह ऐसा ही प्रयत्न किया। बी. बी. लाल पने हाल में अनी अनेक पुस्तकों में हड़प्पा की पुरा संपदा को वैदिक स्वीकार किया है। तब से यह जरूरत बढ़ गई है। केनोयर की यह टिप्पणी यह सिद्ध किए जाने के बाद की है कि इन विचित्र लगने वाले प्रतीकों का वैदिक देवताओं से संबंध िसलिए उनसे इसकी अपेक्षा की जा सकती थी पर उन्होंने इससे बचते हुए अपनी व्याख्या दी है।

केनोयर इसके बाद भी एक महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं कि यह हर तरह की असुरक्षा से बचने के लिए मूल्यवान वस्तुओं के साथ बांधा जाता रहा होगा। अग्निः वै रक्षसां अपहन्ता। वे इस संभावना की पुष्टि करते हैं कि यह अग्निदेव की प्रस्तुति है ।

Post – 2019-09-15

#रामकथा_की_परंपरा(16)
ऋग्वेद के कवि
ऋग्वेद के कवि ऋषि है, और दक्ष उद्यमी भी ऋषि है। कवि होना ज्ञान की पराकाष्ठा है; दक्ष होना विज्ञान की पराकाष्ठा थी। यह चमत्कार था।

[[जब हम वैदिक काल कहते हैं तो तात्पर्य ऋग्वेद के काल से होता है क्योंकि दूसरे दो वेदों का स्वतंत्र अस्तित्व न था, नहीं वे उस काल के थे। चौथे वेद को वेद माना ही न जाता था। बात केवल त्रयी की की जाती थी। यूनानी पंडितों के भारतीय समाज में विलोपन के बाद इसे वेद के रूप मे मान्यता दी गई, क्योंकि उनकी परंपरा में ओरैकल और चमत्कार के लिए स्थान था और इसको वेद के रूप में मान्यता देकर और अपने को इसका भी ज्ञाता सिद्ध करके उन्होंने दूसरे सभी ब्राह्मणों से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न किया। तब तक परंपरागत ज्ञान की पराकाष्ठा किसी का त्रयी का ज्ञाता या त्रिवेदी होना था। अब वेद चार हो गए और ब्राह्मणों में सर्वोपरि चतुर्वेदी हो गए, जो भले अपने को ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ मानते हो परंतु दूसरे ब्राह्मण उन्हें सच्चा ब्राह्मण तक नहीं मानते।

हमारी नजर में वे दूसरे सभी ब्राह्मणों से ऊपर चौथे वेद के ज्ञान के कारण नहीं है, अपितु हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जितनी कुर्बानियां उन्होंने दीं, वह किसी अन्य ब्राह्मण से संभव न हो सका।]]

भारत में भी, ऋग्वेदिक भारत में ही,दक्ष कर्मियों के लिए ऐसा सम्मान संभव था। मिस्री सभ्यता में कारीगरों को लगभग कैदियों की तरह पहरे में और असहाय बना कर रखा जाता था। उत्तर वैदिक काल में मिस्र जैसी नौबत तो नहीं आई पर उनकी सामाजिक और आर्थिक अवस्था लगातार गिरती गई और औद्योगिक तथा तकनीकी स्तर में गिरावट आती गई। इस गिरावट को बनाए रखने के लिए एक तंत्र का विकास किया गया जिसे राजधर्म बना दिया गया, अर्थात जिसे राजशक्ति का प्रयोग करते हुए स्थायी बनाया गया।

मिस्र की सभ्यता नष्ट हो गई। सुमेर, अक्कद और बेबीलोन एक दूसरे को मिटाते हुए हमेशा के लिए मिट गए। गिरावट के बाद भी भारत में सभी तरह के दक्ष लोगों के प्रति वैसी निष्ठुरता नहीं बरती गई जो अन्य प्राचीन सभ्यताओं में उनके वैभव काल मे भी बरती जा रही थी, इसलिए यह बची रही। इस बीच वे समाज जो अब तक असभ्य माने जाते थे और कुशल कर्म के लिए जिनके दक्ष जनों का ही उन्नत सभ्यताओं के द्वारा उपयोग किया जाता था, वे सभ्यता के दमन से मुक्त होने के कारण तकनीकी विकास के अग्रदूत बने रहे । चक्रारि पंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्तिः – व्यक्ति की हो या देश की या पूरे विश्व की।

समाज वही आगे बढ़ता है जिसमें दक्षक्रतु (तकनीकी निपुणता वाले) और कविक्रतु (मेधावी) लोगों का सम्मान होता है, और यह सम्मान उसी समाज में प्राप्त होता है जिसकी अर्थव्यवस्था इनकी योग्यताओं से लाभान्वित होती और उन्हें पुरस्कृत करने की स्थिति में रहती है। इन तीनों की अन्तर्निर्भरता को समझे बिना हम सभ्यता के उत्थान, ठहराव, गिरावट और स्थानान्तरण की नाटकीयता को नहीं समझ सकते।

भारत में इन तीनों का सामरस्य वैदिक काल तक बना रहा। वैदिक काल शिखर काल इसलिए है कि इस तक पहुँचने तक यह त्रिगुणात्मकता बनी रही। परिपक्व हड़प्पा कहा जाय या वैदिक काल, जितने भी विकास थे वे सभी इसके आरंभ तक हो चुके थे। दक्षता, मेधाविता और संपन्नता सभी दृष्टियों से यह ठहराव का दौर है, स्टैगनेशन का नहीं, जमाव का, कंसालिडेशन और विस्तार का। इस विस्तार में ही इसके पराभव के बीज भी छिपे हैं।

बुनियादी सचाई को न समझ पाने के कारण न तो वैदिक कविता को समझा जा सका, न वैदिक संस्कृति की समझ पैदा हो सकी, और एक लंबा समय ऐसे बेतुके सवालों से निपटने में खर्च हो गया जिनसे पहले की धुन्ध अधिक गहरे अंधेरे में बदल गई। हम कुछ ऐसे भरोसे योग्य सूत्रों का तलाश करेंगे जिससे रोशनी पैदा हो सके।

वैदिक कवि अपने समय के तकनीकी कौशल से इतने अभिभूत हैं कि वे अपनी रचना में एक तो उनके चमत्कारों को विषय बनाते हैं दूसरे वे जो दक्षता अपने क्षेत्र में प्रदर्शित करते हैं वैसी ही दक्षता कविता में प्रदर्शित करना चाहते हैं ।

अश्विनो, मैंने अपनी इस प्रशस्ति को उसी तरह सावधानी से गढ़ कर तैयार किया है जैसे भृगुगण गढ़ कर रथ तैयार करते है (एतं वां स्तोमं अश्विनौ अकर्म अतक्षाम भृगवो न रथम् । 10.39.14)।
जैसे बढ़ई बहुत बहुत निखोट लकड़ी से पहिए की धुरी बनाता है वैसे ही सबसे परिष्कृत भाषा में मैने रचना की है ( गिरा नेमिं तष्टेव सुद्र्वम् ।। 7.32.20)।

तराश, काट-छाँट लकड़ी के काम में अधिक आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है, इसलिए उसकी तुलना अधिक है। ऋग्वेद की भाषा जितनी कटी-छँटी है वह बाद के कालों में केवल सूत्र साहित्य में ही मिल सकता है: जैसे रथ के धुरे से सभी अरे जुड़े होते हैं, उसी तरह हे अग्निदेव समस्त देव तुमसे जुड़े हैं (अग्ने नेमिः अराँ इव देवांः त्वं परिभूरसि ।

अपने कौशल वैदिक कवि अल्पतम शब्दों में एक पूरा चित्र उपस्थित कर देते हैं। इनका सबसे प्रिय अलंकार रूपक है उद्यमियों की सबसे बड़ी आकांक्षा नया रूप, नया आविष्कार, नया निर्माण करले की है। कवि शब्दों में पूरा रूपक खड़ा कर देते हैं। शब्द अपना अर्थ ही नहीं वहन करता, रूपाकार हमारे सामने प्रस्तुत हो जाता है- रोहिदश्व >रोहिताश्व, यहां रोहित में श्लेष है। इसका एक अर्थ है लाल, दूसरा सवार, रोहिताश्व = 1. लाल घोड़ा; 2. लाल घोड़े पर सवार, अर्थात् अग्नि देव। हरिश्चंद्र (हरि-1.स्वर्णिम, 2.रसीला+ चन्द्र – 1.आनंददायक, 2. चन् और द्र दोनो का अर्थ जल, 3. चाँद/सोम) = सोम/सोमरस। कहानियां गढ़ ली जाती हैं। अग्नि जल से पैदा हुए। कह सकते हैं वह जल के नाती है, (जल से बादल और बादल से विद्युत); जल ही उनका निवास है। हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व को लेकर वैदिक काल से ही कहानियां ढशुनःशेप) गढ़ना शुरू हो गया था। हम इसके विस्तार में नहीं जाएंगे।

हम वैदिक रूपक-विधान की बात कर रहे हैं, रूपक रूपाकार ग्रहण कर जीवित चरित्रों मैं बदल जाता है, यह है उनका भाषा कौशल और काव्यकौशल।

उसके बाद ऐसा युग नहीं आया। बाद की पौराणिक कहानियां प्रयत्नसाध्य लगती हैं, तर्कसंगत नहीं लगतीं। आडंबर लगती है, भीतर कुरेदने पर कुछ नहीं मिलता ।

अब हम कुछ और शब्दों को रखना चाहेंगे जो स्वयं रूपाकार ग्रहण कर लेते हैं। ज्योतिर्वसाना- (एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना । ….
(जारी)

Post – 2019-09-14

#रामकथा_की_परंपरा(15)

#ऋग्वेद_के_देवता
देवता के रूप में देवीद्वार और इससे संबंधित ऋचा केवल आप्री सूक्तों में आती है (ऋग्वेद में देवता स्त्रीलिंग है।)। शौनक ने बृहद्देवता में कहा है किसंवाद में जिसके द्वारा कोई कथन किया जाता है वह उसका ऋषि होता है और जो उसके द्वारा कहा जाता है वह देवता। इस सूक्त में संवाद नहीं है. लगभग ग्यारह से 13 देवता हैं, सभी से संबंधित केवल एक ऋचा है, केवल एक ऋचा में इला,सरस्वती,मही तीन वर्णित हैं। इस देवत्व का आधार यह है कि उन-उन ऋचाओं में उनका नाम आया है। उदाहरण के लिए पहली में समिद्ध (अच्छी तरह जल चुकी) सुसमिद्धो न आ वह, , दूसरी मे नराशंस (लोकविश्रुत, ऋत्विक्भिः शंसनीयः) – नराशंसः प्रति धामानि अञ्जन् और तीसरी में इळित (पूजित, वन्दित) का प्रयोग हुआ – ईळितो अग्ने मनसा नो अर्हन्, इसलिए यद्यपि तीनों ऋचाएँ अग्नि पर हैं परंतु देवता तीन हो गए- इध्म. नराशंस और इळ। इसलिए जैसा हम पहले कह आए हैं, देवता का अर्थ सर्वत्र वर्ण्य विषय है न कि व्यक्ति, उपादान, या आज के आज के अर्थ में देवता। कवि >कविता के तर्क से देव>देवता, पहला पुल्लिंग, दूसरा स्त्रीलिंग।

देवीद्वार
क्या आपने अलीबाबा और जालीस चोरों की कहानी पढ़ी है? यदि नहीं पढी है, तो पढ़ें। यदि पढ़ा है, तो समझा होगा। गुफा का दरवाजा एक मंत्र – खुल जा सिम सिम – पढ़ने से खुल जाता है। गुफा के भीतर चोर अपना खजाना जमा करते हैं और फिर चले जाते हैं। अलीबाबा के हाथ वही मन्त्र लग जाता है और भीतर जाकर जितना ढो सकते हैं उतने हीरे जवाहरात लाद कर लौटते हैं। पहली नजर में यह कहानी कल्पना की उड़ान प्रतीत होती है, परंतु कल्पना और सपने तक का अपना एक आधार होता है। इस कहानी के वस्तु गत आधार को आज तक किसी ने नहीं समझा, और आज से पहले तक मैं भी नहीं समझता था। यह पणियों की कहानी और आप्रीसूक्त की उसी ऋचा पर आधारित है जिसकी चर्चा हम करने जा रहे हैं। पणियों ने गायों को अर्थात निधियों को रोक रखा या चुरा रखा था। उनको पत्थर की गुफाओं में बंद कर रखा था। विष्णु (यज्ञ/अग्नि) उन निधियों को चुरा या उनका अपहरण कर लेते हैं:
मुषायत् विष्णुः पचतं सहीयान् विध्यत् वराहं तिरः अद्रिमस्ता।। 1.61.7
ये हैं अलीबाबा।

आहरण का सारा विधान तो तंत्र का है, परंतु मंत्र का कुछ प्रभाव पड़ता हो हो तो उसकी भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। असाधारण सफलता पाने की कामना करने वाले कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते। वे व्यापारी हों. जुआरी हों, सट्टेबाज हों या राजनीतिज्ञ। फल अपने काम का पाना चाहते हैं, परिणाम की अनिश्चितता के कारण अनुष्ठान की अवहेलना नहीे करते। यह पुरानी बीमारी है जो संभव है ऋग्वेद के समय से पहले से चली आ रही हो, और जो हमारे अंतरिक्ष युग में भी नारियल फोड़ने की क्रिया में जीवित है।
विभिन्न आप्री सूक्तों में छंद भेद के कारण या कुछ नए देवों के समावेश के कारण यत्किंचित् भिन्नताएं हैं परंतु उनकी चिंता ही नहीं, उसे व्यक्त करने की शब्दावली में भी पर्याप्त समानता है, इसे नीचे लिखे मंत्रों से समझा जा सकता है:
वि श्रयन्तां ऋतावृधः द्वारः देवीः असश्चतः । अद्या नूनं च यष्टवे ।। 1.13.6
वि श्रयन्तां ऋतावृधः प्रयै देवेभ्यो महीः । पावकासः पुरुस्पृहो द्वारः देवीरसश्चतः ।। 1.142.6
विराट संराड्विभ्वीः प्रभ्वीः बह्वीश्च भूयसीश्च याः । दुरो घृतान्यक्षरन् ।। 1.188.5
वि श्रयन्तां उर्विया हूयमाना द्वारो देवीः सुप्रायणा नमोभिः । व्यचस्वतीः वि प्रथन्तां अजुर्या वर्णं पुनानाः यशसं सुवीरम् ।। 2.3.5
इनको समझने के लिए इनका अनुवाद देने की जगह हम इनमें प्रयुक्त शब्दों का सायण द्वारा किया गया अर्थ और उससे आगे कोष्ठक () में अपने विचार प्रस्तुत किया है:

सायण- विश्रयन्तां=विविच्य श्रयन्तां, विवृत अपिधाना भवन्तु; कपाटोद्घाटनेन विवृयन्तां (खुल जा सिमसिम खुलजा)। ऋतावृधः=सत्यस्य यज्ञस्य वा वर्धयित्र्यः (गाढ़ी मेहनत से तैयार की गई) । देवीः = द्योतमानाः (जगमग करती हुई)। सुप्रायणा=सुष्ठु गन्तव्या (जिनमें आसानी से आया जाया जा सके)। प्रयै =प्रयातुं (भीतर जाने के लिए)। व्यचस्वतीः=व्याप्तिमत्यः ( दूर तक फैली)। अजुर्या =अहिंस्या (जिसमें किसी तरह का अनिष्ट न हो)। असश्चतः=उद्घाटनेन प्रवेष्टृ पुरुष संगरहिताः (जिसमें पहले से किसी जीव जंतु का प्रवेश न हुआ हो)। यष्टवे =यष्टुं (उपार्जन के लिए)। वि प्रथन्तां =विशेषेण प्रख्याता ( खुली रहो)।

इनका जो आशय हमारी समझ में आया उसे इस तरह बयान किया जा सकता है कि पुरानी सुरंगों को खोलने से पहले औपचारिक यज्ञ-विधान होता था, उसके बाद पहले की सुरंग का घृतपृष्ठ बर्हि बिछा कर उसे भीतर से कृमि-कीटाणु से मुक्त किया जाता था। ये सुरंगें इतनी चौड़ी (डेढ़ से दो मीटर चौड़ी और दो मीटर ऊँची) होती थी कि इनसे हो कर आसानी से आया जाया जा सके, इसी लिए इन्हे सुप्रायणा, प्रथन्त, बह्वी आदि कहा गया है। आग से इनको पवित्केकरने के बाद उसकी सफाई करके नया खनन आरंभ किया जाता था। प्रकाश के लिए घृतसिक्त कुश कास का उपयोग किया जाता था और आगे के खनन के लिए धधकते कोयले से काम लिया जाता था। ताप से दरारें खुल जाती थीं।

अब हम उन गायों पर दृष्टिपात करेंगे जिनको पणियों ने घेर रखा था। इसका बहुत सुन्दर चित्रण एक अन्य सूक्त मे हुआ है। हम इसकी विस्तृत व्याख्या में न जाकर, ग्रिफिथ के अनुवाद पर दृष्टि डालना चाहेंगे:
साधु अर्या अतिथिनीः इषिराः स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः ।
बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यो ।। 10.68.3
Brhaspati, having won them from the mountains, strewed down, like barley out of winnowing-baskets,
The vigorous, wandering cows who aid the pious, desired of all, of blameless form, well-coloured.
आप्रुषायन् मधुन ऋतस्य योनिं अवक्षिपन् अर्कं उल्कां इव द्योः ।
बृहस्पतिः उद्धरन् अश्मनो गा भूभ्या उद्गेव वि त्वचं बिभेद ।। 10.68.4
As the Sun dews with meath the seat of Order, and casts a flaming meteor down from heaven.
So from the rock Brhaspati forced the cattle, and cleft the earth’s skin.

अप ज्योतिषा तमो अन्तरिक्षात् उद्गः शीपालं इव वात आजत् ।
बृहस्पतिः अनुमृश्या वलस्य अभ्रमिव वात आ चक्र आ गाः ।। 10.68.5
Forth from mid air with light he drave the darkness, as the gale blows a lily from the river.
Like the wind grasping at the cloud of Vala, Brhaspati gathered to himself the cattle,

यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद् वृहस्पतिः अग्नितपोभिः अर्कैः ।
दद्भिः न जिह्वा परिविष्टं आदत् आविः निधीन् अकृणोत् उस्रियाणाम् ।। 10.68.6
Brhaspati, when he with fiery lightnings cleft through the weapon of reviling Vala,
Consumed.him as tongues eat what teeth have compassed: he threw the prisons of the red cows open.

बृहस्पतिः अमत हि त्यत् आसां नाम स्वरीणां सदने गुहा यत् ।
आण्डेव भित्वा शकुनस्य गर्भं उदुस्रियाः पर्वतस्य त्मनाजत् ।। 10.68.7
That secret name borne by the lowing cattle within the cave Brhaspati discovered,
And drave, himself, the bright kine from the mountain, like a bird’s young after the egg’s disclosure.

अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यत् मस्त्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् ।
निः तं जभार चमसं न वृक्षात् बृहस्पतिछ विरवेण आ विकृत्य ।। 10.68.8
He looked around on rock-imprisoned sweetness as one who eyes a fish in scanty water.
Brhaspati, cleaving through with varied clamour, brought it forth like a bowl from out the timber.

स उषां अविन्दत् स स्वः सो अग्निं सो अर्केण वि बबाधे तमांसि ।
बृहस्पतिः गो वपुषः वलस्य निर्मज्जानं न पर्वणो जभार ।। 10.68.9
He found the light of heaven, and fire, and Morning: with lucid rays he forced apart the darkness.
As from a joint, Brhaspati took the marrow of Vala as he gloried in his cattle.

इसका भाव यथालिखित न ले कर इसका पाठ हमारी अब तक की व्याख्या का ध्यान रखते हुए (गो= हीरे, रत्न, खनिज), करें। कविता में खनन और खनिज द्रव्यों के आहरण का इससे सुन्दर चित्रण नहीं हो सकता। इस सूक्त में खनिज द्रव्यों के लिए मधु का भी प्रयोग हुआ है।

Post – 2019-09-13

अभी तक यह पहेली समझ में नहीं आती थी कि ऋषि लोग अमुक एकान्त स्थल पर यज्ञ सत्र के लिए एकत्र हुए। न यज्ञ का रूप समझ में आता था न सत्र की लंबी अवधि पल्ले पड़ती थी। अब लगता है यह माइनिंग सेसन ही था, जिसके सही चरित्र को लंबे अन्तराल और शताब्दियों के प्राकृतिक विपर्यय के बाद लोग भूल गए थे (अद्रिरार्चन्येन दश मासो नवग्वाः ।5.45.7) यह सत्र नव या दस मास का (नवग्व/ दशग्व) होता था। शब्द बचा रहा, पहचान खो गई।

Post – 2019-09-12

रामकथा की परंपरा (14)
आप्रीसूक्त

आप्रीसूक्त मंत्रों का संकलन है, जिसका पाठ एक विशेष अनुष्ठान से पहले, उसके निर्विघ्न निर्वाह के लिए कुछ विधि विधान के साथ किया जाता था। यह आयोजन खनन आरंभ करने से पहले, और अगले सत्रों का आरंभ करने से पहले होता था। यज्ञ का अर्थ ही उत्पादन है, इसलिए पूरा सत्र ही यज्ञसत्र माना जाता था।

इसके लिए समिधा नहीं समिद्ध अग्नि (अंगारों की?) आवश्यकता होती थी (सु समिद्धो न आवह,1.13.1; समिद्धो अग्न आ वह देवाँ अद्य यतस्रुचे, 1.142.1; समिद्धो अद्य राजसि देवो देवैः सहस्रजित्, 1.181.1; समिद्धो अग्निर्निहितः पृथिव्यां, 2.3.1 आदि )। पूरे ऋग्वेद में समिद्ध अग्नि का प्रयोग दो अपवादों को छोड़ कर केवल आप्री सूक्तों में हुआ है और जिन दो को हम अपवाद मान रहे हैं वहां पहले प्रयोग से स्पष्ट है कि यहाँ निर्धूम अग्नि की बात की जा रही है : मित्रो अग्निर्भवति यत् समिद्धो, 3.5.4 और दूसरा प्रातःकालीन अरुणिमा के लिए इसका प्रयोग देखने में आता है : समिद्धो अग्निः दिवि शोचिः अश्रेत् प्रत्यङ् उषसं उर्विया वि भाति। 5.28.1 अतः हम यह मान सकते हैं कि यहाँ कोयले को घी डाल कर प्रज्वलित करने और दहकाते रहने का प्रयत्न किया जाता था। हम जानते हैं की धातु शोधन के लिए लकड़ी का नहीं कोयले का प्रयोग किया जाता रहा है. ऋग्वेद में एक स्थल पर, धातु गलाने के लिए जली हुई लकड़ी अर्थात कोयले को पंखे से लहका कर लोहार द्वारा धातु का उपकरण बनाने का उल्लेख है – जरतीभिर् ओषधीभिः पर्णेभिः शकुनानाम् । कार्मारो अश्मभिर् द्युभिः हिरण्यवन्तं इच्छति, 9.112.2

आप्री सूक्तों में पंखे या ध्मात (धौंकनी) से कोयले को दहकाने का हवाला नहीं नहीं मिलता, इसके स्थान पर कुश और कास या कोई और घास (वर्हि) घी में तर करके आग मेेेें डालते रहने का उल्लेख है।

यहां हम पुनः पाते हैं कि बर्हि काे घी में तर करके आग में डालने का जिक्र केवल आप्रीसूक्तों में ही हुआ है (स्तृणानासो यतस्रुचो बर्हिर्यज्ञे ्ध्वरे,1.142.5; देव बर्हिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्णं राये सुभरं वेद्यस्याम् । घृतेनाक्तं वसवः सीदतेदं विश्वे देवाः आदित्या यज्ञियासः ।। 2.3.4; सपर्यवो भरमाणा अभिज्ञु प्र वृञ्जते नमसा बर्हिरग्नौ। आजुह्वाना घृतपृष्ठं पृषद्वदध्वर्यवो हविषा मर्जयध्वम्। 7.2.4 आदि)। अन्यथा बर्हि कुश की आसनी या चटाई के लिए प्रयुक्त लगता है जिसे आग के हवाले न करके बैठने के लिए काम में लाया जाता था।

आप्री सूक्तों को छोड़ कर पूरे ऋग्वेद में एक अपवाद को छोड़कर बर्हि का नियमित प्रयोग केवल आसनी या चटाई या बिछावन के लिए हुआ है – (सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम्,1.31.17; आ सीदन्तु बर्हिषि, 1.44.13; सीदता बर्हिः उरु वो सदस्कृतं, 1.85.6; स्तीर्णं बर्हिः आ तु शक्र प्र याहि,1.177.4; आ इदं बर्हिः नि षीदत, 2.41.13 आदि)। जिस अपवाद की हम बात कर रहे हैं उसमें भी घी से तर कर अग्नि के बैठने के लिए बिछाया गया है: औक्षन् घृतैरस्तृणन् वर्हिरस्मा आदिद्धोतारं न्यसादयन्त, 3.9.9।)

अब हम इस बात का दावा कर सकते हैं कि आप्री सूक्तों में आए समिद्ध या सुसमिद्ध अग्नि का लकड़ी के कोयले का औद्योगिक प्रयोजनों के लिए उपयोग में लाने से संबंध है, न कि कर्मकांडीय यज्ञ-विधान से। वह कुहरा जो ऐतिहासिक कालों की गुफाओं से ले कर कई हजार साल पहले की खानों की खुदाइयों तक छाया हुआ था उसका समाधान इन सूक्तों से हो जाता है। उनकी एक प्रमुख समस्या धूम्र रहित प्रकाश पाने की थी। उसे उन्होंने विशाल दीपाधार तैयार करके किया था।