#रामकथा_की_परंपरा(22)
रामायण के राम
सवाल पैदा होता है कि जब इतना कुछ, यहां तक कि राम रावण का संग्राम भी पहले से चला रहा है, तो रामायण में वर्णित राम की कथा क्या निरी कल्पना की उपज है? इसकी ऐतिहासिकता इससे खंडित नहीं हो जाती?
इस तरह की आपत्तियां केवल भारतीय इतिहास और पुराण गाथा की प्रकृति को न समझने वाला ही कोई उठा सकता है। कम से कम भारत में किसी भी वास्तविक व्यक्ति को महिमामंडित करने का एक तरीका, उस पर जनमानस में घर कर चुके वृत्तों और चरित्रों के आरोपण का रहा है।
बीसवीं शताब्दी में भी कुछ दिन के कारावास के कारण गांधीजी जनमानस में कृष्ण के अवतार बनते बनते रह गए।
पाकिस्तान में झूलेलाल के नाम से आजकल जिस व्यक्ति की समाधि की पूजा होती है वह ज्ञात इतिहास के चरित्र हैं, “चैत्र माह की द्वितीया को एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम उडेरोलाल रखा गया। अपने चमत्कारों के कारण बाद में उन्हें झूलेलाल, लालसांई, के नाम से सिंधी समाज और ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से मुसलमान भी पूजने लगे। चेटीचंड के दिन श्रद्धालु बहिराणा साहिब बनाते हैं।” नाम वरुण के स्थान पर झूलेलाल क्यों पड़ा इसका रहस्य ऋग्वेद में खुलता है:
आ यद् रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत् समुद्रं ईरयाव मध्यम् ।
अधि यदपां स्नुभिः चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम् ।। 7.88.3
(जब मैं वरुण की नौका पर बैठता हूँ तो समुद्र के मध्य जाने पर जब तरंगों के साथ ऊपर उठते और नीचे आते हैं तो ऐसा मजा आता है मानो झूला झूल रहे हों।) यह सिंधियों के प्राचीन वैदिक देवता वरुण के अवतार हैं।
साई जिनका, चढ़ावों के बल पर आज विशाल आर्थिक साम्राज्य कायम हो चुका है, जन्म से मुसलमान थे, पर अब अपने भक्तों के बीच भगवान दत्तात्रेय के अवतार के रूप में स्वीकृत हो चुके है।
यह नई रीति नहीं है। भारत में ऐतिहासिक चरित्रों और देवों का वर्तमान विभूतियों पर आरोपित हो जाना वर्तमान में उनकी सक्रियता को न बाधित करता है. न क्षीण, अपितु उनकी प्रभावोत्पादकता को बहुगुणित करता है।
ऐसा आरोपण अयोध्या के राजकुमार पर भी हुआ।
राम की ऐतिहासिकता के कई पक्ष है और इनमें से किसी को निराधार नहीं कहा जा सकता, परंतु जांच परख के बिना किसी को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता।
इसका एक पक्ष राम के वन-गमन तक की जीवन लीला से संबंधित है। यह इतनी यथार्थपरक है कि इसे दबाने, मिटाने, और इसमें गो-ब्राह्मण-प्रतिपालन को आदर्श बना कर राम को मर्यादापुरुषोत्तम बनाने और समाज के लिए अनुकरणीय बनाने – रामवत् आचरितव्यं न रावणवत् – के प्रयत्न में कई तरह से लीपापोती की गई, कई प्रसंग, यहां तक कि पूरे कांड बदले और जोड़े गए, परंतु यदि वाल्मीकीय रामायण को ध्यान से पढ़ें तो एक इतनी विश्वसनीय कथा इसके भीतर से उभरती है जो उसे नष्ट करने के प्रयत्नों के बाद भी बनी रह गई और समानातर चलती है।
इस कथा में कहीं कोई असंगति या अंतर्विरोध नहीं मिलता। इसी को लक्ष्य करने के बाद 1975 में चंडीगढ़ में आयोजित कई अनुशासनों की एक गोष्ठी में मैने अपना निबंध पढ़ा था – Original Ramayan: What it really was- और उससे एक कोहराम सा मच गया था।
उसी को केन्द्र में रखते हुए मैंने अपना उपन्यास ‘अपने अपने राम‘ लिखा और लोगों की जिज्ञासाओं से तंग आकर सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित संस्करण में उन अंशों को परिशिष्ट रूप में देने को बाध्य हुआ। इतनी प्रामाणिक कथा किसी पुराण कथा में आ ही नहीं सकती जो झुठलाने के प्रयत्नोे को बाद भी दबाई न जा सके। ऐसी कथा सच और सच के सिवा कुछ और हो ही नहीं सकती.
एक दूसरा पक्ष वंशधरता का है। क्या किसी पौराणिक या काल्पनिक चरित्र की आगे पीछे की वंश परंपरा मिलती है? परंतु जो नामावली दी गई है वह सही प्रतीत होते हुए भी विश्वसनीय नहीं है। इसके ब्यौरे में न जा कर केवल यह सुझाना चाहेंगे कि इनमें मामूली असंगतियां हैं जिनका समाधान किया जा सकता है।
परंतु जिस वंशावली पर हम आपका ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं वह अकाट्य है। इस ओर अब तक किसी अन्य का ध्यान ही नहीं गया।
इसका उत्तर मैं प्रश्नों के रूप मे देना चाहता हूं:
उसी क्षेत्र का एक नाम साकेत और दूसरा नाम कोशल क्यों है?
कोशल की कन्या कोशल नरेश की पत्नी कैसे हो सकती थी?
मुझे पता है कि आपके पास इसका उत्तर नहीं है। उत्तर उस विद्वान के पास भी नहीं था जिसने उत्तर और दक्षिण कोसल में अंतर करते हुए एक भौगोलिक पहचान का प्रयास किया था, जिसमें उत्तर कोसल अति प्राचीन काल से सभ्य और दक्षिण कोसल आदिम बना रह गया। हमें इसका पक्का पता है, परंतु हम चाहते हैं कल तक आप भी इनके समाधान का प्रयास करें।