वा’रे मौला तेरा जवाब नहीं
गढ़ा मुझको
और गढ़ के भूल गया।
Month: October 2019
Post – 2019-10-13
यह एक दुखद सूचना है कि बीएसएलएल और एमटीएनएल को बन्द किया जा रहा है।
पहले से बढ़ी बैरोजगारी और बढ़ेगी। कर्मचारियों को हटाया शायद निगमों से भी नहीं जा सकता, उन्हें रिटायर किया जा सकता है और वे बिना कोई सेवा प्रदान किए लंबे समय तक पेंसन लेते रहेंगे। खजाने पर बोझ बना रहेगा। इसको लेकर समाचार पत्रों में सरकार विरोधी सरगर्मी बनी रहेगी। सरकार की बदनामी होगी।
इसके बाद भी यह एक जरूरी और अपरिहार्य कदम है। इसकी बन्दी पर आँसू बहाने और शोर मचाने वालों को यह कर्मकांड करने से पहले अपनी लैंडलाइन का नंबर और सेलफोन के सेवा प्रदाता का नाम और नंबर अवश्य देना चाहिए। मुझे विश्वास है कि सरकार के फैसला लेने से बहुत पहले वे इनको स्वयं बंद कर चुके हैं। ऐसा उन्होंने क्यों किया वे स्वयं जानते हैं। इन दोनों निगमों के कर्मचारियों ने स्वयं अपनी सेवाएं बन्द करने का लंबा अभ्यास करते हुए उसे बंद किया है। सरकार पर्दा उठाने का काम करेगी।
मोदी ने अपने लंबे अनुभव से यह जाना है कि व्यापारिक गतिविधियाँ सरकारी अमलों सँभल नहीं रही हैं। इसकी आचारसंहिता अलग होती अभ्यर्थी इनके लिए अपने को अलग तरीके से योग्य बनाते हैं। वे सेवाशर्तों पी आड़ में अपनी चुनऔतियों को समझ तक नहीं पाते। डाकविभाग के इतने सशक्त तंत्र के बाद भी समानांतर कूरियर सेवा अधिक सफल है। लोग लाचारी में डाकसेवा का उपयोग करते हैं। इंटरनेट और सेलफोन ने पत्राचार को, तार सेवा को लगभग समाप्त कर दिया है पर हाथी उतना ही चारा खाता है। नंबर उसका भी आना है।
पर शिक्षा और चिकित्सा को पूरी कठोरता से व्यवसाय बनने से रोकना, निजी स्वामित्व को समाप्त करना और राज्यभाषा को उच्चतम शिक्षा और न्याय की भाषा बनाना उतना ही जरूरी है। यदि मोदी है इसलिए पहला मुमकिन है तो दूसरा भी मुमकिन होना चाहिए। वह देशहित में अप्रिय कठोर फैसले ले सकते हैं।
Post – 2019-10-13
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (10)
विलियम जोंस को ईरान में क्या मिला
विलियम जोंस ने अपने श्रोताओं को पक्का विश्वास दिलाते हुए कहा कि “फारसी के सैकड़ों नाम शुद्ध संस्कृत के हैं जिनमें उससे अधिक कोई परिवर्तन देखने में नहीं आता जो भारत की भाषाओं में या बोलचाल की जबान में पाए जाते हैं। फारसी के बहुत सारे आदेश वाक्य (बैठ, उठ, गा जैसे) संस्कृत की धातुएँ हैं और यहां तक कि मुख्य क्रिया के पद (आत्मने/परस्मै) और काल जिनसे आगे के नियम चलते हैं, संस्कृत के घिसे हुए रूप हैं, इसीलिए हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं पहलवी भाषा भारत की दूसरी बोलियों की तरह ब्राह्मणों की भाषा से निकली है, और इसके साथ ही मैं यह भी जोड़ दूं कि शुद्ध फारसी में अरबी का स्पर्श तक नहीं है।”
can assure you with , that hundreds of Parsi nouns are pure Sanscrit, with no other change than such as may be observed in the numerous bhashas, or vernacular dialects of India; that very many Persian imperatives are the roots of Sanscrit verbs; and that even the moods and tense of the Persian verb substantive, which is the model of the rest, a rededucible from Sanscrit by an easy and clear analogy; we may hence conclude, that Pahlavi was derived, like the various Indian dialects, from the language of the Brahmans; and I must add, that in pure Persian, I find no trace of any Arabian tongue…
“मैंने अपने मित्र बहमान से विचार विमर्श किया है और हम दोनों पूरे सोच विचार के बाद इस बात के कायल हैं कि जेंद ( अवेस्ता) संस्कृत से इससे भी अधिक गहरा लगाव रखती है और पहलवी अरबी से।”
I often conversed on them with my friend Bahman; and both of us were convinced, after full consideration, that the Zend bore strong resemblance to Sanscrit, and the Pahlavi to Arabic.
अपने साक्ष्य संकलन के क्रम में उन्होंने शब्दावलियों का अध्ययन किया था। एक अध्ययन फरहंगी जहाँगीरी का किया था, जिसके बाद उन्हें इस बात का पक्का विश्वास हो गया था की पहलवी खल्दी की एक बोली थी:
I had the patience to read the list of words from the Pazend in the appendix to the Farhangi Jahangiri: this examination gave me perfect conviction that the Pahlavi was a dialect of the Chaldaic.
उनके पक्के विश्वास पर हमारा विश्वास जम नहीं पाता। कसम खाने के करीब पहुंचने वाला यह अंदाज किसी गलत चीज को श्रोता के दिमाग में पक्का करने की एक कोशिश है, पढ़ने के बाद लगता है वह अपना मत जल्दबाजी में कायम कर रहे थे, जबकि अभी तक किसी सही निश्चय पर नहीं पहुंचे थे, क्योंकि इन मतों में कुछ असंगतिया हैं।
जब अवेस्ता की शब्दावली का अवलोकन किया तो उन्हें यह पाकर उसके 10 शब्दों में से 6 या 7 शुद्ध संस्कृत के थे, यहां तक कि उनकी रुपावली संस्कृत व्याकरण से निर्देशित थी, इतनी हैरानी हुई इसे बयान नहीं कर सकते। ….इसकी भाषा कम से कम संस्कृत की एक बोली थी, जो संभवतः प्राकृत के करीब थी या उन दूसरी बोलियो जैसी थी जिनके विषय में हम जानते हैं कि वे भारत में 2000 साल पहले बोली जाती थी।
But when I perused the Zend Glossary, I was inexpressibly surprised to find that six or seven words in ten were pure Sanscrit, and even some of their inflexions formed by rules of vyākaran… that the language of was at least a dialect of Sanscrit, approaching perhaps as nearly to it as Prācrit, or other popular idioms that we know to have been spoken in India two thousand years ago.
इससे वह यह नतीजा निकालते हैं कि फारस की सबसे पुरानी जिन दो भाषाओं का पता चलता है वह हैं खल्दी और संस्कृत और जब उनका बोलचाल में व्यवहार बंद हो गया तो पहलवी और जेंद ने ब्राह्मणों की भाषा का स्थान ले लिया:
From all these facts it is a necessary consequence that the oldest discoverable languages of Persia were Chāldaic and Sanscrit, and when they ceased to be vernacular, the Pahlavi and Zend were deduced from them respectively, and the Pārsi either from Zend or immediately from the dialect of the Brahmans…
ग्रहों-नक्षत्रों की उपासना पारस में एक बहुत ही अधिक जटिल धर्म से आई हुई है, जो इन भारतीय प्रदेशों में पाई जाती है क्योंकि मोहसन ने यकीन दिलाया था कि जरतुस्त से भिन्न हुसंग मत के मर्मज्ञ अनुयायी मानते हैं कि ईरान का, और पूरी दुनिया का, पहला शासक महबाद था (यह नाम विलियम जॉन्स को साफ साफ संस्कृत का लगता है), जिसने समाज को चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में बांटा था। उन्होंने उसे यह भी बताया था कि स्रष्टा ने मनुजों के बीच देवभाषा में लिखा एक ग्रंथ भी प्रसारित किया था जिसे यह मुसलमान लेखक अरबी नाम ‘दस्तूर’ या विधान नाम देता है, परंतु जिसके मूल नाम का जिक्र नही है और यह कि चौदह महबाद मानव बन कर विश्व प्रशासन के लिए पैदा हो चुके हैं या होंगे, इनका नाम भी वह नहीं बताता, जब कि हम जानते हैं कि हिन्दू चौदह मनुओं या देवपुत्रों की बात करते हैं जिन्होंने वे ही काम किए और उनमें से अंतिम के नाम एक स्मृति या देवी धर्मविधान भी है जिसे वे वेद के समकक्ष मानते हैं और जिसकी भाषा को वे देववाणी मानते हैं तो इस विषय में कोई सन्देह किया ही नहीं जा सकता कि यह भारत के ब्राह्मणों द्वारा रचे शुद्धतम और प्राचीनतम धर्म का पहला दूषित रूप है जो महबाद या मनु द्वारा लाया गया और इन क्षेत्रों में धार्मिक और नैतिक आचरण के मानक के रूप में प्रचलित रहा है:
But planetary worship in Persia seems only part of a far more complicated religion, which we find in these Indian provinces; for Mohsan assures us, that in the opinion of best informed Persians who professed faith of Husang, distinguished from that of Zeratusht, the first monarch of Iran, and of the whole earth, was Mahabad (a word apparently Sanscrit) who divided people into four orders, the religious, the military, the commercial, and the servile to which he assigned names unquestionably the same in their origin with those now applied to the four primary classes of the Hindus. They added that, he received from creator, and promulgated among men, a sacred book in heavenly language, to which the Mumselman author gives the Arabic title of Desatur, or Regulations, but the original name of which he has not mentioned; and that fourteen Mahabads had appeared or would appear in human shapes for the government of the . Now when we know that the Hindus believe in fourteen Menus, or celestial personages, with similar functions, the first of whom left a book of regulations otr divine ordinances, which they hold equal to Veda, and the language of which they believe to be that if the gods, we can hardly doubt that the first corruption of the purest and oldest religion, was the system of Indian theology invented by the Brahmans, and prevalent in these territories where the book of Mahabad or Menu is at this moment the standard of all religious and moral duties.
वह आगे लिखते हैं, “लगता है फारस के सिंहासन पर ईसा से आठ या नव सौ साल पहले कैउमर के आसीन होने के समय धर्म और प्रशासन दोनों ही क्षेत्रों मे भारी उथल-पुथल मची थी। संभवतः वह अपने से पहले के महबादवंशियों से भिन्न नस्ल का था जिसने एक नई धर्मप्रणाली का आरंभ किया जिसे उसने हुशंग का नाम दिया, जिस नाम से उसे आज जाना जाता है, परंतु यह आंशिक सुधार ही था क्योंकि उसने अपने पूर्ववर्तियों के झमेले वाले बहुदेववाद को तो हटा दिया परंतु महबाद के नियम-विधान को सूर्योपासना, अग्नि और ग्रहों में अंधविश्वास के साथ बचाए रखा और इसके कारण ही वे हिंदुओं के सौर और सांघिक मतों से मिलते जुलते हैं। इनमें से दूसरा बनारस में सर्वाधिक प्रचलित है, जहाँ अनेक अग्निहोत्र निरंतर प्रज्वलित रहते हैं।
The accession of Cayumars to the throne of Persia, in the eighth or ninth century before Christ, seems to have been accompanied by a considerable revolution both in government and religion: he was most probably of a different race from the Mahabadians who preceded him, and began perhaps a new system of national faith which Hushang, whose name it bears, completed; but the reformation was partial; for, while they rejected the complex polytheism of their predecessors, they retained the laws of Mahabad, with a superstitious veneration for the sun, the planets, and fire; thus resembling the Hindu sects called Sauras and Sangicas, the second of which is very numerous in Benares, where many agnihotras are continually blazing…
Post – 2019-10-12
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (9)
विलियम जोंस और सेक्युलर इतिहासकार
तीन दशक पहले तक ‘मुनाफिकून’ विद्वानों में यह सिद्ध करने की होड लगी थी कि कितना भारत भारत से उखाड़ कर ईरान में पहुंचाया जा सकता है और यह सिद्ध किया जा सकता है की सभ्यता और संस्कृति प्राचीनतम काल से मध्य काल तक ईरान से ही आती रही है। इसी तरह की होड़ यह सिद्ध करने की लगी हुई थी, जो आज तक जारी है, कि सर्वमान्य रूप से सांप्रदायिक सोच पैदा करने वाले और उसे बढ़ावा देने वाले मुस्लिम नेता और बुद्धिजीवी सेकुलर थे और राष्ट्रवादी समझे जाने वाले हिन्दू बुद्धिजीवी सांप्रदायिक थे।
इसी होड़ में रामविलास शर्मा की बड़ी दुर्गति की गई थी।
इस योजना के अधीन एक मामूली सी पुस्तक लिखने के बाद भी अकूत इनाम- इकराम हासिल किए जा सकते थे। इसका सबसे रोचक उदाहरण यह है कि बैंगलोर स्पेस रिसर्च सेंटर से प्रोफेसर के पद से निवृत्त होने वाले, और नेहरू पुस्तकालय के अध्यक्ष पद के लिए प्रयत्नशील एक विद्वान ने अपना क्षेत्र छोड़कर बड़ी तेजी से प्राचीन इतिहास में दिलचस्पी पैदा कर ली। वह कैंब्रिज विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर हो कर जाया करते थे। वहां उन्होंने J.P. Mallory (In Search of the Indo-Europeans, 1991 के लेखक) से संपर्क साधा, टाइम्स ऑफ इंडिया में दो तीन लेख छपवाए और ऐन मौके पर एक किताब भी प्रकाशित करा दी The Vedic People,(Orient and Longman, 2000.pp. 259, Rs. 425)।
इसमें वह इतनी नई बातें करते हैं जितनी स्पेस से धरती को देखने वाला ही कर सकता है: The Argandab can be equated with Drishadvati and, say, the Tarnak with Apaya. There have already been suggestions that Arjika be identified with the Arghastan. Lakes like Saranyavant and anyatasplaksha can be easily placed in the hilly area of Koh-i-Baba from where the Hilmund starts.
इस पुस्तक की समीक्षा करने का सौभाग्य मुझे मिला था (History Today,1, 2000 pp.59-67) जिसके अंतिम पैराग्राफ को रखने का प्रलोभन होता है :
we agree with Dr. Kochhar that “The Puranas as we have seen are a curious mix of history, mythology, and nonsense” But we must add that so is his book which draws freely from the Puranas without knowing how to handle the text. Only scientists with journalistic temptations can write the modern Puranas, and that he has done without demur. The most interesting thing with him is that he is not wrong; he is simply incredible.
इसका ध्यान मुझे खास तौर से इसलिए आया कि जिस पद के लिए वह प्रयत्न कर रहे थे वह उनके हाथ से निकल गया तो इतिहास में उनकी रुचि खत्म हो गई। उसके बाद, इतिहास पर कहीं उनकी एक टिप्पणी तक देखने नहीं आई।
प्रलोभन के मामले में किस-किस का नाम लीजिए किस किस को रोइए, परंतु इस प्रवृत्ति को जन्म देने वाले, पोसने वाले और शोध और उच्च शिक्षा के संस्थानों पर कब्जा करके खजाने का मुंह खोल कर इशारा करने वाले, लूट सके तो लूट, पर लिखना होगा मेरी इच्छा का इतिहास, मध्यकालीन मानसिकता से ग्रस्त और ईरान को अपना खानदानी घर समझने वाले प्रभावशाली विद्वान थे, जिनके अज्दाद ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा और आस्था-केंद्रों, ग्रंथों और पुस्तकालयों को नष्ट, भ्रष्ट और ध्वस्त किया था और वे ज्ञानपरपरा, इतिहास और संस्कृति की चेतना तक को नष्ट कर रहे थे और इसके बाद भी न केवल सेक्युलर थे अपितु उनकी निशानदेही से यह तय होता था कि हिंदुओं में कौन कौन सेक्युलर हो चुके और कौन उसकी कतार में खड़े हैं, कौन कभी सेक्युलर हो ही नहीं सकते क्योंकि इस बार उन्होंने अपनी योजना के अमल पर केवल हिंदुओं को लगाया था, ईनाम इकराम केवल उनको दिया जा रहा था। अपने ही धर्मदायादों को मध्यकालीन इतिहास तक के लेखन के लिए अछूत समझने वालों से अधिक सेक्युलर हो भी कौन सकता है।
विलियम जॉन्स पर लिखते हुए इस प्रसंग को लाने का कारण यह था की फारस पर उनके ही लेखन से ईरान को शिरोमणि देश, सभ्यता का जनक और प्रेरक सिद्ध किया गया था, और इसके बावजूद उनके इस प्रस्ताव को ध्रुुवसत्य बनाने को कटिबद्ध सेकुलर इतिहासकार विलियम जोंस को प्राच्यवादी ठहरा कर उसे न पढ़ने की सलाह देते रहे, उनका नाम लेने वालों का उपहास करते रहे, संभवत स्वयं भी उन्हें पढ़ा नहीं, और इसका रहस्य यह है कि यदि आपने विलियम जोंस के उन्हीं तर्कों को ध्यान से पढ़ा जिनसे उन्होंने ईरान को सर्वोपरि देश सिद्ध किया था तो आप ठीक उनसे उल्टे नतीजे पर पहुंचेंगे, और शीराजा बिखर जाएगा। इसके अतिरिक्त विलियम जोन्स ने भारतीय इतिहास का नकारात्मक चित्रण नहीं किया था, जो ये लगातार करते रहे हैं।
Post – 2019-10-11
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (8)
रंग-ओ बू गुलदान की बातें करें
गैब की, इलहाम की बातें करें
खुल्द में संस्किर्त मिलने से रही
आइए ईरान की बातें करें ।
विलियम जोंस ने अपना छठाँ व्याख्यान 10 फरवरी 1789 को दिया था। संस्कृत जैसी उत्कृष्ट भाषा के लिए जैसा उत्कृष्ट देश होना चाहिए वह तो भारत न था, न ही हो सकता था । भारत में तो पत्थर में भी कई जम जाती है, दिमाग में क्यों न जमेगी।
ऐसी भाषा बोलने वाले रूप रंग में जैसे बेजोड़ होने चाहिए, वैसे लोग तो भारत में थे ही नहीं। विलियम जोंस ने उस देश को इतने श्रम के बाद खोज ही निकाला, यह बात दूसरी है कि बिन खोजें, किनारे बैठे ही, उन्होंने उसे पा लिया था। केवल वह भाषा पानी थी जिसे सभी जननी भाषा मानते आ रहे थे। उसे भारत पहुँच कर ही पाया जा सकता था, अन्यथा रॉयल सोसाइ अपं के विषय में उनोे उदगार पढते तु पढ़तते हुए मुझे गीता के (यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवतन्ति अविपश्चतः) की याद आई पर मैं इसे नादानी नहीं, चालाकी मानता हूँ।
संस्कृत में दूसरे सभी गुण हैं, वह दूसरी भाषाओं से नियमित भी है, परंतु वह पूर्ण या अखोट भाषा नहीं है। इसी तरह हम कह सकते हैं कि ईरान का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है, उसके कुछ भाग काफी सुन्दर भी हैं, परन्तु वह विश्व का शिरोमणि औैर सर्वाधिक सुन्दर देश नहीं है। पाठकों और श्रोताओं को आवेग-विह्वल बना कर अपनी बात मनवाने के लिए आविष्ट भाषा का प्रयोग अधिक फलदायी होता है, अतः फारस को The most celebrated and most beautiful countries in the world होना ही था।
हम पहले कह आए हैं विलियम जोंस को फारसी भाषा का आधिकारिक ज्ञान था। उन्होंने फारसी का व्याकरण लिखा था। अरबी का भी पहले से ही सराहनीय स्तर का ज्ञान था, लेकिन ‘सही’ निर्णय पर पहुंचने के लिए, और उससे अधिक इसका दिखावा करने के लिए, उन्होंने यथासंभव सभी सुलभ स्रोतों का उपयोग करते हुए अपनी राय कायम की। वह उनका उल्लेख भी करते हैं, अपनी अन्य सीमाओं का भी उल्लेख करते हैं। अल्पज्ञता रहते हुए अपना निर्णय देने का अधिकार उन्होंने किन जानकारियों के बाद प्राप्त किया है, और उन्हें किस सीमा तक दूर कर सके इसे भी बताते हैं। जिन बातों का ज्ञान नहीं है उसको जानने का दावा नहीं करते गो, जिसका ज्ञान है उसकी सीमाओं को प्रकट करना जरूरी नहीं समझते। परंतु इतनी ईमानदारी भी बहुत कम लोगों में होती है।
फैसले की बात अलग है, उसकी अपरिहार्यताएँ उन्हें अपनी ही ज्ञान सीमा में जो सही था उसे गलत और जो असंभव था उसे संभव सिद्ध करने को बाध्य कर रही थीं। हम उन्हें उनकी ज्ञान सीमा में रखकर ही परखने का प्रयत्न कर सकते हैं।
फारसी भाषा का उन्हें ज्ञान था और इस अवधि में उन्होंने शाहनामा पढ़ लिया था। पहले भी उन्हें फारस के इतिहास के विषय में कुछ जानकारियां थीं, तो भी उसे और बढ़ाना और उसके बाद ही अपने निर्णय पर पहुंचना चाहते थे। इन स्रोतों में एक था कश्मीर के मोहसन नाम के एक व्यक्ति का फारस का यात्रा विवरण। परंतु ऐसी खोजबीन के पीछे सत्य अन्वेषण नहीं था , सत्य पर पर्दा डालने के लिए तिनकों का सहारा लेने का प्रयत्न था, ऐसा मुझे लगता है, आपको मेरे कहने से नहीं स्वयं, इस आख्यान से गुजर जाने के बाद, जो सही लगे उसे मानना चाहिए:
The rare and interesting tract on twelve religions called Dabistan, and composed by a Mohammedan traveller, a native of Cashmir, named Mohsan, but distinguished by the assumed name of FANI, or Perishable, begins with a wonderfully curious chapter on the religion of HUSHANG, which was long anterior to that of Zaratusht has continued to be secretly professed by many learned Persians even to the authors time.
यह कथन गलत नहीं है, गलत यह है कि अन्य किसी स्रोत के अभाव में ईरानी सभ्यता को भारत से प्राचीन सिद्ध करने के लिए यह हथियार काम का लगा।
उन्हें अवेस्ता और उसकी भाषा के विषय में और वह किस भाषा में लिखी गई है, इसके विषय में कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने बहमान नाम के एक पारसी विद्वान से प्राप्त सूचनाओं और उनके साथ विचार विमर्श से निकले निष्कर्षों का उपयोग किया है।
मोहसिन के अनुसार पहले पारसी सम्राट का नाम कैखुशरू था। हम इस नाम से परिचित नहीं है, इनकोअंग्रेजी की कृपा से Cyrus के रूप में जानते हैं।
The first Persian emperor, whose life and character they seem to have known with tolerable accuracy, was the great Cyrus , …Caikhosrau
परंतु यह भी स्वीकार करते हैं कि सासानी वंश से पहले के खरे इतिहास का कुछ भी बचा नहीं है।
…nothing remains of genuine Persian history before the dynasty of Sasan…
हम पूरी तरह इस बात का समर्थन करते हैं कि प्रामाणिक इतिहास से पहले का जो इतिहास है उसके विषय में किसी भी स्रोत से उपलब्ध सूचनाओं का विश्लेषण करते हुए विश्वसनीय इतिहास तैयार किया जा सकता है। और इससे पता चलता है कि:
a powerful monarchy had been established for ages in Iran before the accession of Cayumers; that it was called Mahabadian dynasty, … and that many princes, of whom seven or eight are only names in the Dabistan, and among them Mahbul or Mahabeli, had raised their empire to the zenith of human glory. If we can rely on this evidence (of Fani, BS), which to me appears unexceptionable, the Iranian monarchy must have been the oldest in the world; but it will remain dubious to which of the three stocks, the Hindu, Arabia, or Tartar the first king of Iran belonged; or whether they sprang from a fourth race distinct from any of the others…
परंतु इस पौराणिक इतिहास में भी महाबली की कहानी के जुड़ने के पीछे भारतीय आर्थिक विकास और पौराणिक सत्य के बीच एक प्रकाश रेखा दिखाई देती है जिसके आधार पर हमने यह निवेदन किया था कि सुमेर में किसी सभ्य देश से पहुंचने वाले नौचालक जिस पुराण कथा से संबंध रखते हैं उसका कई तरह का विवरण भारतीय पुराण साहित्य में मिलता है। यदि ईरान में पहुंचने वाले भारतीय थे, तो भाषा और धर्म को समझने में फारस की कहानियाँ भारतीय इतिहास की भी कुछ ग्रंथियों को सुलझा सकती हैं।
Post – 2019-10-10
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (7)
नाम में क्या रखा है
विलियम जोंस ने पांचवाँ व्याख्यान मध्य एशिया पर केंद्रित किया था। मैं चाहता था इस पर चर्चा से बचूँ क्योंकि विषय का अपेक्षा से अधिक विस्तार होता जा रहा है और मैं अपने केंद्रीय विषय से इसी अनुपात में दूर होता जा रहा हूं। परंतु इस भूभाग ने समय-समय पर समूचे सभ्य जगत को प्राकृतिक प्रकोप की तरह तहस-नहस किया है और क्योंकि इस क्षेत्र से आदिकाल से भारत की क्रिया प्रतिक्रिया चलती रही है, और भारतीय समाज रचना को इसने गहराई से प्रभावित किया है इसलिए इसके विषय में विलियम जोंस के विचारों से अवगत होना जरूरी लगता है।
जोंस ने इसके लिए तातारी का प्रयोग किया था और इस पर अपना व्याख्यान “on the Tartars”, 21 फरवरी 1788 को यह स्वीकार करते हुए दिया था कि देश या समाज के विषय में तब जक संतोषजनक लेखन नहीं हो सकता जब तक आपको उसकी भाषा की अच्छी ( उन्होंने परफेक्ट शब्द का प्रयोग किया है परंतु तात्पर्य अच्छी से ही है) जानकारी ना हो, और उन्हें इस क्षेत्र की किसी भी भाषा का ज्ञान नहीं है इसलिए वह इस पर बहुत झिझकते हुए ही अपनी बात रखना चाहते हैं (I enter with extreme diffidence on my subject because I have little knowledge of Tartarian dialAnd the gross committed by European writers on Asiatic Literature have long convince me that no Free free satisfactory account can be given of any nation with whose language we are not are not perfectly acquainted.)
साथ ही वह इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हैं कि वह जिन देशों की बात कर रहे हैं उनके लोग अपने को उस नाम से कभी नहीं पुकारते थे जिसे हम उनके लिए प्रयोग में लाते हैं ( that India, Persia, China and Japan are not the appellations those countries in the languages of the nations who inhabit them, so neither Scythia nor Tartary are names which the inhabitants of the country under our consideration have ever distinguished themselves)
वह तातारी के लिए सीथिया, तूरान आदि नामों को गिनाने के बाद यह कहते हैं कि अधिक उपयुक्त है प्लिनी द्वारा की गई यह पहचान (इसकी लंबाई के बाद बी इसे देना जरूरी है।
Tatari then, which contained according to Pliny, an innumerable multitude of nations, by whom the rest of the Asia and Europe has in different ages been over-run, is denominated, as various images have presented themselves to various fancies, the great hive of the northern swarms, the nursery of irresistible legions,a (इसकी लंबाई से न घबराएँ, nd, by a stronger metaphor, the foundry of human race; but Mr. Baily a wonderfully ingenious man, and a very lively writer, seems to have considered it as the cradle of our species, and to have supported an opinion that the whole ancient world was enlightened by the sciences brought from the most northern parts of Scythia particularly from Zenseia, or from the hyperborean regions: all the fables of old Greece, Italy, Persia, India derive from the north. and it must be owned that he maintains his paradox with acuteness and learning. Great learning and great acuteness , together with charms of most engaging style, were indeed necessary to render to render tolerable a system which places an earthly paradise, the garden of Hesperus, the islands of the Macares,the groves of Elysium, if not of Eden, the heaven of Indra, the Peristan, or the fairy-land, of the Persian poets, with its city of diamonds and its country of shadcom, so named from pleasure and love, not in any climate which the Climate which the commonsense of mankind considered as the seat of delight, but beyond the mouth of the Obey, in the frozen sea, in the region equalled only by that where the wild imagination of Dante led him to fix the worst of criminals, in a state of punishment after death. And of which he could not even in his imagination he could not, he says, even think of, without shivering.
यदि अन्य किसी कारण से नहीं तो इन पंक्तियों के कारण ही व्याख्यान का गंभीरता से पाठ किया जाना चाहिए था पर नहीं किया गया किया गया होता तो हमारी समझ में इतने भ्रम इतनी विचलन इतने अंतर्विरोध देखने में नहीं आते । यह दुखद है कि मैं इसका अनुवाद प्रस्तुत न कर सका। करता तो वे पाठक भी लाभान्वित होते जिन्हें अंग्रेजी समझने में कठिनाई होती है। परंतु मुझे विश्वास नहीं कि सांस्कृतिक संदर्भों से अपरिचित रहने के कारण, मैं इसका इतना विश्वसनीय अनुवाद कर पाता कि लेखक के विचारों की प्रस्तुति में किसी तरह की विचलन न आ सके।
विलियम जोंस के इस महावाक्यों के आशय प्रकट करते समय वाक्यांशों का भावानुवाद भी करेंगे। जो लोग यह मान न पाएं कि विलियम जोंस ने यही मंतव्य अपने उक्त व्याख्यान में मध्येशिया के विषय में यही मत प्रकट किए थे उन्हें मूल से मिला कर समझने में आसानी होगी कि हम अपनी ओर से कुछ जोड़ या घटा, किसी तरह की खींचतान नहीं कर रहे हैं।
सबसे बड़ी बात यह जो टिप्पणी विलियम जोंस ने बेली के विषय में की है वह अक्षरशः उन पर लागू होते है। यह है भाषा शैली और कौशल से असंभव को भी संभव सिद्ध कर देना।
जो दूसरा विचारणीय विषय है वह है यूरोपीय समाज के मन में गहरे बैठा हुआ मध्य एशिया के दरिंदों का भय। वे उनके नाम से कांपते रहे हैं, और वे यूरोपीय समाज रौंदते हुए उनके चरित्र को प्रभावित करते रहे । ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता जिसमें उन्होंने मध्य एशियाई दरिंदों को परास्त करके कोई कीर्तिमान स्थापित किया हो। इसके बाद भी, इस सचाई से अपनी प्रचार शक्ति से ध्यान विचलित करके, अपने को एक बहादुर कौम के रूप में पेश करते हुए, भारतीयों को भीरु रूप में चित्र करते हुए हीन भावना पैदा करने का प्रयत्न करते रहे जबकि भारतीय योद्धाओं ने अनेक बार इन्हें परास्त किया और अपनी आदर्श युद्ध नीति के कारण कई बार उनके छल छद्म से या आकस्मिक आक्रमण से परास्त भी हुआ।
एक तीसरी बात पराधीनता-जनित हीन-भावना का है जो स्वतंत्रचेता माने जाने वाले हमारे आधुनिक विद्वानों के मन में भी घर कर गया था, अन्यथा तिलक जैसा स्वाभिमानी व्यक्ति बेली के प्रभाव में आकर वैदिक जनों का मूल निवास उत्तरी ध्रुव न मानता और उसे सही सिद्ध करने के लिए भूगर्भ विज्ञानी काल सीमा में घुसकर तर्क वितर्क न करता।
इससे अधिक इस व्याख्यान का हमारे लिए कोई महत्व दिखाई नही देता।
प्रसंगवश याद दिला दें कि विलियम जोन्स अपने तर्क कौशल से असंभव को भी संभव बना सकते थे और मामूली कयास के बल पर कोई सिद्धांत गढ़ सकते थे। वह मानते थे कि चीनी और जापानी भी उसी परिवार की भाषाएँ थी जिसके कारण सातवाँ व्याख्यान चीनी पर दिया था। इसके बाद कहने को कुछ रह जाता है तो यह कि ऐसे व्यक्ति के दिमागी फितूर को भाषावैज्ञानिक सिद्धांत मान कर यदि यूरोप चला तो यह उसकी विवशता थी, हम इस विवशता में उस पर हुँकारी भरते रहे कि गुलामों के पास बहुत कम विकल्प होते हैं,परंतु स्वतंत्र भारत में इतिहास की व्याख्या की जिम्मेदारी जिन्होंने सँभाली उनका ध्यान इस ओर क्यों नही गया? एक ही उत्तर बचता है कि निरंतर आवृत्ति या कीर्तन से पैसिविटी पैदा होती है जिसमें हम आयत्त मान्यताओं की परिधि में सही बने रहने के दायरे में ही अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं।
Post – 2019-10-09
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (6)
अरब में भारत
संस्कृत की तलाश में विलियम जोंस का अरब में भटकना पूरी तरह व्यर्थ नहीं गया। वहां संस्कृत भी मिली परंतु उससे अधिक भारत मिला, परंतु उस भारत को समझने में भी उन्हें कठनाई हो रही थी, क्योंकि भारत और अरब प्रायद्वीप के बीच एक चौड़ा समुद्र, या चौड़ी खाड़ी पड़ती थी, इसलिए व्यापार और समुद्री नौचालन आरंभ होने से पहले भारत से उसका किसी भी तरह जुड़ाव नहीं हो सकता था (Arabia, thus divided from India by a vast ocean, or at least by a broad bay, could hardly have been connected in any degree with this country, until navigation and commerce had been considerably improved। इसका भावार्थ यह जब अरब तक भारत के संपर्क में नहीं आ सकता था यूरोप से उसका कोई संबंध हो यह तो कल्पनातीत है।
इसलिए जो इस्लाम से पहले के अरब के धार्मिक विश्वास के विषय में वह स्वीकार कर चुके थे कि यह भारत से प्रेरित था, उसका भारत से प्रेरित होना जरूरी नहीं। इस समानता का भी वैसा ही समाधान संभव है जैसा संस्कृत, लातिन, ग्रीक आदि में पाई जाने वाली समानताओं और इन सभी में संस्कृत के अधिक पुराने होने के बावजूद उन्होंने सभी को किसी एक ही अज्ञात मूल से निकला सिद्ध किया था। अर्थात भारत से अरब के प्राचीन धार्मिक विश्वास में जो समानताएं दिखाई देती हैं उसका कारण यह हो सकता है कि दोनों ने अपने धर्म और विश्वास किसी तीसरे स्रोत से ग्रहण किए गए हों। इस सुझाव पर कोई यह प्रश्न कर सकता था कि यदि दोनों धर्म के मामले में दोनों किसी अन्य स्रोत से जुड़े थे तो ऐसा भाषा के मामले में भी होना चाहिए, जो देखने में नहीं आता। इसका जवाब भी उन्होंने तलाश लिया था, संपर्क मात्र आकस्मिक रूप में हुआ होगा (It is possible too, that a part of the Arabian Idolatry might have been derived from the same source with that of the Hindus; but such an intercourse may be considered as partial and accidental only)।
अधिक से अधिक वह यह मानने को तैयार हो जाते हैं भारत के धार्मिक विचार और विश्वास किसी तरह अरब समाज में प्रवेश पा गए होंगे :
We are also told, that a strong resemblance may be found between the religions of the pagan Arabs and the Hindus; but, though this may be true, yet an agreement in worshipping the sun and stars will not prove an affinity between the two nations: the power of God represented as female deities, the adoration of stones, and the name of the Idol WUDD, may lead us indeed to suspect, that some of the Hindu superstitions had found their way into Arabia…
परंतु वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि नौचालन की दृष्टि से प्राचीन विश्व के अग्रणी देश भारत और यमन ही रहे हैं, यमन के माध्यम से ही भारत के प्राकृतिक उत्पाद और माल प्राचीन काल से ही यूरोप पहुंचते रहे हैं (as the Hindus and the people of Yemen were both commercial nations in a very early age, they were probably the first instruments of conveying to the western world the gold, ivory, and perfumes of India, as well as the fragrant wood, called àlluwwa in Arabick and aguru in Sanscrit, which grows in the greatest perfection in Anam or Cochinchina.)
सोलह साल की उम्र में प्रिंस कैंटमिर के जीवनवृत्त के एक पैराग्राफ से उन्होंने यह बदगुमानी पाल ली थी कि यमन में पीले भारतीय रहते थे, पर अब (बंगाल में पहुंच कर वह देख रहे थे कि भीरतीय तो पीले होते नहीं) उन्होंने वह पुरानी राय भी बदल दी, क्योंकि इसकी कोई तुक ही नहीं कि उस्मानी तुर्क यमन को भारत का हिस्सा मानेंगे (nor am I more convinced, than I was sixteen years ago, when I took the liberty to animadvert on a passage in the History of Prince KANTEMIR, that the Turks have any just reason for holding the coast of Yemen to be a part of India, and calling its inhabitants Yellow Indians.)
विलियम जोंस क्या मानते थे और और किस चीज को नकार रहे हैं इससे हमारा कोई मतलब नहीं, मतलब केवल इससे है कि वह कितना लड़खड़ाते हुए सोचते और लुढ़कने की स्थिति में संतुलन बनाने की किस तरह कोशिश करते हैं। यह उनके विचार हैं परंतु जिस तरह के विचार उन्होंने पहले बनाए थे वे इस बदले हुए विचार से अधिक सही थे। उस्मानी साम्राज्य में भी लोगों को यह विश्वास था कि यमन में भारतीय व्यापारी बसे हुए हैं।
जिस वजह से यमन को वह नौचालन में प्राचीन काल से भारत के अतिरिक्त अग्रणी मान रहे थे, वह अर्ध सत्य था। यदि उन्होंने बंगाल से बाहर पंजाब और सिंध तक की यात्रा की होती तो पाते भारत में पीत वर्ण लोग भी होते हैं और पश्चिम के साथ व्यापार में इन्हीं की अग्रता थी। दूसरे शब्दों में और नौचालन के मी क्षेत्र में भारत प्राचीन जगत का एकमात्र अग्रणी देश था।
विलियम जॉन्स स्वयं भी मानते थे की विज्ञान और यांत्रिक कला में यमन के लोग आगे बढ़े हुए थे परंतु उनके बंदरगाहों के गोदामों में मिस्र, भारत या ईरान का माल भरा रहता था, सो इस बात का कोई पक्का प्रमाण नहीं है कि नौचालन या उद्योग में भी वे दक्ष थे: The people of Yemen had possibly more mechanical arts, and, perhaps, more science; but, although their ports must have been the emporia of considerable commerce between Egypt and India or part of Persia, yet we have no certain proofs of their proficiency in navigation or even in manufactures.
और अरब में धार्मिक विचार के पीछे भी इसी तरह के संपर्क का हाथ हो सकता था, इस पर आगे हम कोई अन्य टिप्पणी करना जरूरी नहीं समझते।
इसी तरह उनके इस विचार पर भी कोई टिप्पणी नहीं करना चाहेंगे कि सुलेमान के समय से ही अरबों में कला और विज्ञान की ओर प्रवृत्ति नहीं रही है,
we know, from the time of SOLOMON to the present age, were by no means favourable to the cultivation of arts; and, as to sciences, we have no reason to believe, that they were acquainted with any…
भारत में विलियम जोंस ने लोगों से सुना था यमन में संस्कृत बोली जाती थी या संस्कृत बोलने वाले वहां थे, इस तरह की सूचनाएं अंग्रेजी शिक्षा के बाद हमारी सामाजिक चेतना से ही गायब हो गई। जोन्स इस की संभावना मान तो लोतो हैं पर सुझाना चाहते हैं इनका स्रोत कोई और होगा। उन्होंने यह तो नहीं बताया कि वह कौन सा होगा, परंतु अनुमान लगा सकते हैं कि उनके अनुसार यह वही देश हो सकता है जहाँ से संस्कृत भारत में आई थी। and if a story current in India he true, that some Hindu merchants heard the Sanscrit language spoken in Arabia the Happy, we might be confirmed in our opinion, that an intercourse formerly subsisted between the two nations of opposite coasts, but should have no reason to believe, that they sprang from the same immediate stock.
1784 में विलकिन्स को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा था,
Plato drew many of his notions (through Egypt, where he resided for some time) from the sages of Hindustán.
[“Thirteen Inedited Letters from Sir William Jones to Mr. (Afterwards Sir) Charles Wilkins”, Letters of Sir William Jones, 1784. ]
यदि वह खुले दिमाग से विचार करते तो समझ सकते थे इसी तरह किसी निकटवर्ती क्षेत्र में भारतीयों के होने के कारण यूरोप में संस्कृत का प्रवेश हुआ होगा।
विलियम जोंस मामूली सूचनाओं के आधार पर इतनी बेतुकी बातें कर लेते थे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनका यह मानना की बुद्ध इथोपिया में पैदा हुए थे वहां से उनका प्रभाव भारत की तरफ आगे बढ़ा।
though we have no trace in Arabian History of such a conqueror or legislator as the great SESAC, who is said to have raised pillars in Yemen as well know, that SA’CYA is a title of BUDDHA, whom I suppose to be Woden, since BUDDHA was not a native of India, and since the age of SESAC perfectly agrees with that of SA’CYA, we may form a plausible conjecture, that they were in fact the same person, who travelled eastward from Ethiopia,
और जिस तरह बुद्ध भारत में नहीं पैदा हुए थे, इथोपिया में पैदा हुए थे उसी तरह संस्कृत भारत की भाषा नहीं । लाल बुझक्कड़ के ऊंचे दिमाग में जो ख्याल घुस गया वह अगर यूरोप के काम का हुआ तो परम सत्य बन गया और हम सभी ने सोचे विचारे बिना इसे स्वीकार कर लिया और इसी के आधार पर आज तक अपने समाज, अपनी भाषा, अपने साहित्य, अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपने धर्म, विश्वास और दर्शन को सिरफिरों के दिमाग से समझते चले आ रहे हैं। हम अपने लिए ही अजनबी हो गए हैं। किसी आघात से अपही स्गृति खो देने वाले व्यक्ति की तरह जिसका एक जमाने में फिल्मों में भरपूर उपयोग किया गया, इस मामले में उसी से जिसने यह आघात दिया पूछते हैं, सच बताओ हम कौन हैं ।
Post – 2019-10-08
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (5)
खोज रहा हूँ, कहीं दीखता नहीं
विलियम जोन्स का चौथा वार्षिक व्याख्यान अरब जनों और उनकी भाषा पर 15 फरवरी 1787 को और पांचवाँ तातारी पर फरवरी 1788 को दिया गया था।
यदि उनकी समस्या उस मूल भूमि की तलाश थी जिससे संस्कृत भाषा का व्यवहार करने वाले उन देशों में पहुंचे जिनमें भाषागत समानताएं आज भी बहुत गहरी दिखाई देती हैं, तो अरब और तातार जनों और उनकी भाषा पर दो साल का मूल्यवान समय बर्बाद करने का और उसके बाद इस नतीजे पर पहुंचने का कि संस्कृत भाषा और उसे बोलने वाले इनमें से किसी से बाहर नहीं फैले, इतनी हास्यास्पद नाटकबाजी लगती है जो विलियम जोंस की व्यक्तिगत गरिमा के अनुरूप नहीं है। परंतु अपनी उद्भावना को यूरोपीय अंतश्चेतना में उतारने के लिए उन्हें अभिनय करना पड़ रहा था।
उनकी भूमिका सत्यान्वेषी की नहीं थी, क्योंकि जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, वह स्वयं जानते थे कि उनका प्रस्ताव गलत है। उनकी भूमिका एक मनोचिकित्सक की थी। वह जानते थे कि सचाई का सामना करने से उद्विग्न यूरोप को सत्य की नहीं, शामक(सिडेटिव) की जरूरत है, हिप्नॉटिक सजेशन की जरूरत है और सम्मोहित करने के लिए उसका विश्वास इस सीमा तक जीतना जरूरी है जिसमें वह तर्कवितर्क से मुक्त हो समर्पण की मनोदशा में आ जाए। यह काम केसरिया पहन कर साधू-संत का नाटक करने वाले करते रहते हैं और पढ़े लिखे से निरक्षर जनों को जिस सफलता से अपना अंधानुयायी बना लेते हैं, इस लीला से हम परिचित हैं इसलिए इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
इसके लिए यह वागाडंबर अनुष्ठान का हिस्सा था। दो चार साल का समय इसके लिए कुछ नहीं था क्योंकि ऐसी पीड़ा का उपचार करने को कृत संकल्प थे कि इसके लिए अपना जीवन भी वलिदान कर सकते थे और एक तरह से किया भी।
वह इंग्लैंड से प्रस्थान करने के समय से ही जानते थे कि उन्हें क्या करना है औ किस तरह, क्या सिद्ध करना है। संस्कृत से वह उस समय तक भले अपरिचित थे, फारसी पर उनका इतना अच्छा अधिकार था 1771 में उन्जिहोंने अंग्रेजी में फारसी का व्याकरण प्रकाशित कराया था जो बाद में भी मुद्रित होता रहा। संस्कृत का सामना होने पर जिन सवालों ने मिशनरियों के भीतर खलबली मचाई थी उन सवालों का सामना करने से उनके जैसा विदग्ध बच ही नहीं सकता था इसलिए हल वह इंग्लैंड में रहते हुए ही तलाश कर चुके थे कि संस्कृत को भारत से उठा कर ईरान में फेकने से काम चल जाएगा। सिर्फ इसका दावा करने के लिए संस्कृत का कामचलाऊ ज्ञान जुटाना था। उसे जुटाने के बाद सर्वेक्षण के नाटक के पहले ही पटाक्षेप के साथ उन्होंने पौराणिक हनुमान की तरह संस्कृत को जड़मूल सहित भारत से उखाड़ लिया था, इसकी घोषणा भी कर दी थी, इस बात के लिए व्यग्र थे कि यह स्थापना ( तो इसे कहना न होगा, उच्छेदना अवश्य कहा जा सकता है) कि यह समाचार जल्द से जल्द यूरोप पहुँzचाया जाए। पीड़ाहरण के लिए उतनी ही काफी था।
जैसा कि हम कह आए हैं अपनी 5 महीने की लंबी समुद्री यात्रा के दौरान वह पूरी रूपरेखा तैयार करते रहे थे, परंतु संस्कृत ज्ञान के अभाव में यदि वह अपना दावा करते भी तो कोई सुनने को तैयार नहीं होता । संस्कृत का परिचयात्मक ज्ञान उन्होंने 2 साल के भीतर अर्जित कर लिया। आधिकारिक ज्ञान अंत तक न हुआ, न हो सकता था। उसके लिए जिन दो पंडितों पर वह निर्भर करते रहे उनके नाम बहुविदित है।
भारत को मूल भूमि के रूप में नकारने के साथ यदि उन्होंने लक्ष्य देश नाम ले लिया होता तो विश्वास का वही संकट संकट पैदा होता। इसलिए भारत के पश्चिम की सभी भाषाओं के ज्ञान और गहन छानबीन का प्रदर्शन करने के बाद ही लक्ष्य तक पहुंच सकते थे। इस बीच होने वाले विलंब से पैदा हुई बेताबी में लोग उनके निर्णय को मानने की मनोदशा में आ जाते। यही उन्होंने किया।
ध्यान दें कि चौथे व्याख्यान में अरबी भाषा और अरब जन पर विचार करने के बाद उससे सटे ईरानी क्षेत्र को छोड़कर दूसरे सिरे पर पहुंच जाते हैं और तातारी पर विचार करते है।
इतनी सारी भाषाओं के ज्ञान के बाद विलियम जोंस को यह तो पता था ही की संस्कृत और उसके प्रभाव में रूपांतरित भाषाओं की प्रकृति सामी भाषाओं से इतना भिन्न है कि एक दूसरे से शब्द भंडार ले सकती है परंतु इससे आगे किसी तरह का लेन देन संभव नहीं और यदि किसी सनक में इससे आगे बढ़कर कोई लेनदेन हुई तो दूसरी भाषा की प्रकृति नष्ट हो जाएगी।
विलियम जोन्स के बचाव में यह कहा जा सकता है तब तक भाषाओं के परिवार की बात नहीं की जाती थी। पर यह परिवारवाद उन्हीं के द्वारा आरंभ किया गया जिसे कुछ बाद में कई नामों से गुजरने के बाद indo-european या भारोपीय की संज्ञा मिली । स्वयं भाषा परिवारों के लिए विलियम जोंस ने नोआ की संतानों (सैम, हैम और जैफेट) के नाम से जोड़ते हुए , सेमिटिक, हैमिटिक और जैफेटिक (भारोपीय) की संज्ञा दी थी। इसलिए भले भारोपीय नाम से परिचित नहीं, परंतु इनमें इतनी गहरी भिन्नता तो मानते ही थे कि एक दूसरे से आनुवंशिक संबंध नहीं रख सकता। इसकी जानकारी पहले से थी, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता इस दौर के अध्ययन के बाद उन्हें इस सचाई का पता चला:
the Arabick, on the other hand, and all its sister dialects, abhor the composition of words, and invariably express very complex ideas by circumlocution; so that, if a compound word be found in any genuine language of the Arabian Peninsula, (zenmerdah for instance, which occurs in the Hamàsah) it may at once be pronounced an exotick.
अरब की ओर मुड़ने के समय तक उनको संस्कृत की जानकारी हो गई थी इसलिए उसकी प्रकृति से परिचित थे। ऊपर के वाक्यांश का ही पहले का हिस्सा निम्न प्रकार है:
… it is equally true and wonderful, that it bears not the least resemblance, either in words or the structure of them, to the Sanscrit, or great parent of the Indian dialects; of which dissimilarity I will mention two remarkable instances: the Sanscrit, like the Greek, Persian, and German, delights in compounds, but, in a much higher degree, and indeed to such excess, that I could produce words of more than twenty syllables, not formed ludicrously, like that by which the buffoon in ARISTOPHANES describes a feast, but with perfect seriousness, on the most solemn occasions, and in the most elegant works
और फिर
The derivatives in Sanscrit are considerably more numerous; but a farther comparison between the two languages is here unnecessary; since, in whatever light we view them, they seem totally distinct, and must have been invented by two different races of men.
उसके साथ ही धर्म और संस्कृति के मामले में इस्लाम से पहले के अरबी समाज के विषय में विद्वानों द्वारा मान्य भारतीय प्रभाव स्वीकार करने में अपनी झिझक के बावजूद उन्हे मानना पड़ता है:
We are also told, that a strong resemblance may be found between the religions of the pagan Arabs and the Hindus; but, though this may be true, yet an agreement in worshipping the sun and stars will not prove an affinity between the two nations: the power of God represented as female deities, the adoration of stones, and the name of the Idol WUDD, may lead us indeed to suspect, that some of the Hindu superstitions had sound their way into Arabia…
Post – 2019-10-07
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (4)
क्या आप उन घटनाओं से परिचित हैं जिनमें एक आदमी हाथ जोड़कर किसी व्यक्ति से लिफ्ट मांगता है, वह उसे लिफ्ट दे देता है और फिर गाड़ी लेकर चलता है तो पाता है उस आदमी ने उसकी कनपटी पर पिस्तौल की नोक लगा रखी है मालिक को धक्का देकर गाड़ी से नीचे गिरा देता है और गाड़ी पर कब्जा कर लेता है। यदि पता है तो यह भी पता होना चाहिए अंग्रेजों ने भारत पर इसी तरह कब्जा किया था।
क्या आपको किसी ऐसी घटना का पता है जिसमें फटेहाल अपना कुनबा ले कर किसी भव्य भवन में घुस आता है और फिर अपने लोगो से कहता है यह भवन इसका नहीं अब हमारा माना जाएगा।
कुनबे के लोग हैरान, ‘इसे मानेगा कौन?’
‘अपने पर भरोसा रखो। पहले तुम्हें मानना होगा तभी दूसरों से अपना दावा मनवा सकते हो। उसके अपने लोगों को विश्वास नहीं होता। वे जानते हैं भवन किसका है, ‘इस पर कब्जा जरूर हमारा है पर घर तो यह इसका तब से है जब से दुनिया बनी। उसके पास इसके कागजी सबूत हैं। वह मानने को तैयार ही न होगा।’
वह हँस कर कहता है, ‘यही तो समझाना चाहता हूँ कि भवन दुनिया बनने के बहुत बाद में बनने शुरू हुए इसलिए इसके कागजी सबूत नकली हैं। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे हम बाहर से आए हैं उसी तरह कभी यह भी बाहर आया होगा।’
उनकी हैरानी कुछ कम होती है पर खत्म नहीं होती, वे उत्सुक हैं यह जानने को कि कहाँ से। ‘मैं अभी सोच कर बताता हूँ कहाँ से ।’ और कुछ देर तक सोचने का अभिनय करने के बाद वह कहता है, ‘लो, पता चल गया, इसका घर इस भवन के और हमारे घर के बीच कहीं रहा होगा। यही कारण है कि हमारी और इसकी जबान इतनी मिलती जुलती है।’
उनका आत्मविश्वास कुछ और बढ़ जाता है, फिर भी वे जानना चाहते हैं कि ठीक कहाँ से। और वह कहता है इसके लिए बीच के सभी घरों की छानबीन करनी होगी। वह घर तो बचा न होगा, खंडहर भी शायद ही मिले, जगह तलाश करनी होगी। धीरज रखो उसका भी पता लगा लूँगा।’
इस काल्पनिक कहानी के इतिहास से आप परिचित हो चुके हैं। यही एशियाटिक साेसायट की स्थापना से ले कर तीसरे व्याख्यान तक का इतिहास है।
इसे इस कहानी का रूप यह बताने के लिए किया कि यह शुरू से ही एक कूट योजना थी और कुचक्र को अमल में लाने के लिए अंग्रेजों को अपने समय के बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से सबसे ऊँची साख के व्यक्ति की सेवाएँ सुलभ हुईं । जो व्यक्ति निजी लाभ के लिए तनिक भी झुकने को तैयार नही हो सकता था वह अपनी कौम – और इस कौमियत में पूरे यूरोप के सभी देशों के लोग आते थे – को काले लोगों की संतान (दोगला और काला, बैस्टर्ड और निगर उनकी सबसे गंदी गालियाँ थीं ) या सुदूर अतीत में कभी उनके अधीन रहने की ग्लानि और हीनभावना तथा कंपनी की पहले से अपनाई गई योजना के साथ ही प्रशासनिक अपरिहार्यता के लिए स्वेच्छा से वह सब कुछ करने को तत्पर हुआ जिसे अपने लाभ के लिए करने को उसकी अंतरात्मा तैयार न होती।
भौतिक संपदा के मामले में कब्जा करने से काम चल जाता है परंतु सांस्कृतिक मामले में जोर नहीं चल पाता, ताकत के बल पर ग्लानि से मुक्ति नहीं पाई जाती। इसलिए विलियम जोंस के सामने चुनौतियाँ दुहरी थीं। सबसे बड़ी चुनौती स्वयं अपना खोया हुआ आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पाना और इस नई व्याख्या को सही मानने की थी। एशियाटिक सासायटी के सभी सदस्य ऊँचे पदों पर आसीन अंगरेज ही थे। इसलिए पहले साल सोसायटी की स्थापना के बाद दूसरा व्याख्यान उनका मनोबल ऊँचा करने के लिए दिया गया था और अगले व्याख्यान में ही उन्होंने यह प्रतिपादित कर दिया था कि ग्लानि या शर्म की कोई बात नहीं, हमारी भाषाओं से भले लगता हो कि हमारी भाषाएँ संस्कृत से पैदा हुई हैं कि वे संस्कृत की पुत्रियाँ हैं, पर सचाई यह कि ये सभी किसी एक ही भाषा की संतानें हैं इसलिए छोटी और कालक्रम की दृष्टि से बाद की होती हुई भी ये परस्पर बहनें या संस्कृत से घट कर नहीं हैं। रही गोरे-काले की बात तो संस्कृत भारत की भाषा भी नहीं इसलिए इस ग्लानि से भी मुक्ति मिल गई। कहाँ की भाषा थी इसे जाँच कर देखा जाएगा।
इस प्रसंग में हम कुछ और तथ्यों की ओर संकेत करना चाहेंगे। पहला यह कि कंपनी ने 1586 में ही यह घोषित कर दिया था कि उसे भारत में एक विशाल और स्थायी राज कायम करना है, Already in 1686 the directors had declared their intention to establish … a large, well grounded, sure English dominion in India for all time to come. Case for India, Will Durant, 1930
इसलिए धूर्तता और बदकारी गवर्नर जनरलों की अपनी सनक के कारण नहीं योजना बना कर की जा रही थी।
दूसरे विलियम जोंस इस जातीय ग्लानि से मुक्ति का कोई उपाय तलाशने के लिए चार साल से भारत में पहुँचने की जुगत में लगे हुए थे परन्तु उनके स्वतंत्र विचारों के कारण जिनमें अमेरिकी नेताओं के ब्रिटिश संसद में अमेरिकी हिताें की रक्षा के लिए प्रतिनिधित्व की मांग के खुले समर्थन के कारण उनको यह अवसर नहीं मिल पा रहा था। वह उस बौद्धिक क्लब के सदस्य थे जिसके अध्यक्ष सैमुएल जॉन्सन (Dr. Johnson, was an English writer who made lasting contributions to English literature as a poet, playwright, essayist, moralist, literary critic, biographer, editor, and lexicographer. He was a devout Anglican. विकीपीडिया) थे, और वारेन हेस्टिंग्स से उनकी व्यक्तिगत सिफारिश पर नियुक्ति मिली थी।
तीसरी बात यह कि समस्या केवल भारत में काम करने वाले अंग्रेजों की आत्मग्लानि कम करने की नहीं थी, अकेले इंगलैंड की भी नहीं, पूरे यूरोप, समूची गोरी जाति की थी इसलिए उनको इतनी ही चिंता इनको प्रकाशित करा कर उनको भेजने की थी। अपने चौथे व्याख्यान या भाषा और जातीयता से जुड़े दूसरे व्याख्यान के अंत में उनके निम्न कथन पर ध्यान दें: In the mean time it shall be my care to superintend the publication of your transactions, in which, if the learned inEurope have not raised their expectations too high, they will not, I believe, be disappointed: इसलिए यह सोचने का पर्याप्त आधार है कि वह इसी दुखती रग का कोई न कोई हल निकालने का संकल्प लेकर आए थे। यदि आप जानना चाहते हैं कि पूरे यूरोप के विद्वान भारत की प्राचीन उपलब्धियों को नकारने के मामले में एकजुट क्यों थे तो इसका भी उत्तर इसी से मिल जाएगा।
Post – 2019-10-06
#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (3)
कल मैं विलियम जोंस की कूट-योजना समझाने के लिए एक- दो और किश्तें लिखने की सोच रहा था तभी एक साथ दो विचार कौंधे। पहला यह कि मेरी नियमित पाठकों को किस बात की शिकायत हो सकती है कि मैं जिस विषय को लेता हूं उसके ‘अनावश्यक’ विस्तार में चला जाता हूं । चुटकुलों से लंबी चीज पढ़ने में उन्हें परेशानी होती है, अपने पेज पर भी वे अधिकांश समय चुटकुलेबाजी में ही बिताते हैं। उनके विचार सालों से एक ही धुरी पर घूमते रहते हैं। रूचि और जिज्ञासा का स्तर तक ऊपर नहीं उठता। जिस पिछड़े देश के पढ़े लिखे अपनी जिंदगी का इतना अधिक समय मखौल में बर्बाद करके खुश हो जाते हों, उसके दुर्भाग्य पर रोया भी नहीं जा सकता, हंसने का तो सवाल ही नहीं — सिर्फ ग्लानि अनुभव की जा सकती है क्ह म स्वाधीन होकर भी, स्वतंत्र होने की इच्छाशक्ति तक खो बैठे हैं, इसका बोध तक बाकी नहीं।
एक दूसरा विचार यह आया कि विलियम जोंस के जिस एक पैराग्राफ को हजारों बार दोहराया गया, उसकी पृष्ठभूमि क्या है, उसके आगे-पीछे
जोंस ने क्या लिखा, उस तीसरे व्याख्यान में जिसमें यह पैराग्राफ आया है उन्होंने और क्या कहा; एशियाटिक सोसाइटी के माध्यम से अपने भारत निवास के पूरे दौर में उन्होंने क्या किया और क्यों किया, इसका अध्ययन हमारे उन विद्वानों ने क्यों नहीं किया जिनको महान कहाने का इतना चस्का है कि इसके बिना वे अपना नाम तक पहचान नहीं पाते उन्होंने यदि संस्कृत का विधिवत अध्ययन नहीं किया तो उस भाषा में उपलब्ध सामग्री का भी गहराई से अध्ययन क्यों नहीं किया जिससे प्राचीन इतिहास की सभी समस्याएं आरंभ होती हैं। शायद दरिद्रता के बीच ही महान लोग — महाकवि, महान चिंतक, महान इतिहासकार, महान निठल्ले — पैदा होते हैं।
इन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से भी क्या पढ़ा, जो पढ़ा उसे कितना समझा, इस पर उदाहरणों के बिना बात नहीं की जा सकती, इसलिए अन्यमनष्क भाव से ही सही, अपने कथन को स्पष्ट करने के लिए यह अप्रिय विकल्प चुनना ही पड़ेगा।
इस अप्रिय प्रसंग के दो पक्ष हैं। एक संघ और भाजपा से जुड़ाव रखने वाले उद्दंड लोगों की प्रतिक्रिया का जिसके कारण इन दोनों संगठनों की छवि खराब होती है या यदि खराब ना होती तो यह संगठन सचमुच अपनी बनावट और बनावट में खराब है इसका लाभ हमेशा उन्हें मिलता है जिनकी झवि ये बिगाड़ना चाहते है। इनकी भाषा, प्रतिक्रिया का रूप, इतना अशोभन होता है कि कोई भी सुसंस्कृत व्यक्ति इनके प्रति सहानुभूति तक नहीं रख सकता। यदि संघ और भाजपा की भीतरी सोच भी ऐसी ही नहीं है, तो उनसे जुड़ाव रखने वाले सुलझे लोगों को उनकी भर्त्सना करते हुए इस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा मेरे देखने में नहीं आया।
दूसरा पक्ष योग्यता के अभाव सें नारेबाजी और विज्ञापन के बल पर अपनी महिमा का प्रबंधन और विपणन करने वालों का है जिनके प्रतिनिधि के रूप में रोमिला थापर से जुड़े ताजे विवाद के कारण रोमिला थापर का नाम आ गया। उन्होंने कभी कोई व्याख्यान दिया था जिसमें एक संभावना की ओर संकेत किया था, कि शांति पर्व में युधिष्ठिर के द्वारा युद्ध में पूरे कुल के नाश के बाद जो पश्चाताप प्रकट किया गया है, वह कलिंग युद्ध के बाद अशोक द्वारा व्यक्त किए गए अनुताप की नकल हो सकता हा।
यह इतिहास नहीं है, एक कविता है जिसमें प्रमाण के अभाव में सतही साम्य देखकर एक उद्भावना की गई है, हो सकता है और नहीं भी हो सकता है के बीच बीच। अशोक के किस अभिलेख में दर्ज है यह मुझे नहीं मालूम।
रोमिला जी का लेखन कविताओं से हुआ है और इसी के कारण किसी नई खोज के बिना ही उन्होंने देश देशांतर में धूम मचाई है। चर्चा में आने के लिए वह ऐसी बातें बड़े सलीके से कह लेती हैं जिनसे विवाद पैदा हो, लोग उत्तेजित हों, और जिसे यदि सही नहीं ठहराया जा सके तो वाहियात भी न सिद्ध किया जा सके। उनका यह कथन भी इसी श्रेणी में आता है।
उनके इस वक्तव्य का फुटेज किसी अनपढ़ दक्षिणपंथी के हाथ लग गया जिसे यह पता तो था युधिष्ठिर नाम का एक चरित्र महाभारत में, यह भी पता था की महाभारत की घटना उससे बहुत पहले घटित हुई थी, परंतु यह पता नहीं था कि महाभारत में कितनी बार कितनी तरह की मिलावट की गई, शांति पर्व महाभारत का हिस्सा नहीं है, उसे ज्ञानकोश बनाने की लालसा में पहले की रचनाओं से उन विषयों से संबंधित जानकारी को सबसे बाद में इसी में प्रक्षिप्त किया गया था। उसके हाथ यह बटेर उस समय लगा जब रोमिला जी से पिछले साल किए गए एक निर्णय के अनुसार विश्वविद्यालय यह जानना चाहता था एमेरिटस प्रोफेसर के रूप में सुविधाएं लेने वाली प्रोफेसर का इस दौरान ज्ञान, शोध और शिक्षण के स्तर पर योगदान क्या है।
रोमिला जी के उस फुटेज पर जितनी सतही और अभद्र भाषा में फब्तियां कसते हुए लोग आपत्तियाँ करते रहे वह ठीक इस मौके पर रोमिला जी के काम आया। इससे आगे अपने शब्दों में कुछ कहने की जगह मैं जिस अंग्रेजी के समाचार पत्र को पढ़ता हूँ उसकी कुछ कतरनों को प्रस्तुत करना चाहूंगा:
एक – Sep 3, 2019 – JNU’s pettifoggery over Romila Thapar’s fitness to remain professor emerita makes its administration a laughing stock. … English; Today’s Paper · ePaper … by calling for the CV of Romila Thapar, professor emerita, premier historian of ancient …. who has been vocally critical of its functioning in recent years.
दो- On the JNU row, historian Romila Thapar said the university is only trying to “dishonour someone who has been critical of the changes that have been introduced by the present administration”. (Written by Yashee |Edited by Explained Desk |New Delhi |
Updated: September 3, 2019 4:59:52 pm)
तीन-To target Romila Thapar is to target a new way of asking questions and writing history
The truth is that, regardless of the governments in power, universities need academic freedom to flourish, they need fresh air.
Written by Vijay Singh |
Updated: October 1, 2019 10:41:09 am
Before heading back to Paris, I decided to visit Romila Thapar who had been in the news for the insidious interrogation of her status as professor emerita at JNU. … The immediate context for referring to this principle was our conversation about the spate of ill-informed and foul comments she has been receiving, and how far their writers could be from the debating siddhanta of ancient India. I was outraged to hear about such language, insulting as they were to one of our most eminent intellectuals in the world.
When I reached Paris, I reached out to Charles Malamoud, an honorary professor of history at L’Ecole of Hautes Etudes en Sciences Sociales and a very respected historian of ancient India. It was Malamoud who first translated DD Kosambi’s work into French. “I was outraged to hear about Romila being asked for her CV,” he fumed. “It’s an act of hostility against independent science, against Romila and all that she represents…”
The conversation with Malamoud led me to speak to Gérard Fussman, the renowned Sanskrit scholar and professor emeritus at the Collège de France…
Fussman, who has worked closely with Indian scholars on historical and archaeological projects, wondered if people seeking Thapar’s credentials realised what her contribution to Indian history, and to India, has been. “She is an excellent historian — and much more. She is a towering intellectual in India and abroad. And her greatest contribution is to have Indianised Indian history.”
यहां, अभी मैं केवल इतना ही कहूंगा की फ्रांस में रहने वाला यह नाटककार लौटने के बाद विद्वानों से मिलकर केवल एक ही बात की शिकायत करता रहा, इसके पीछे रोमिला थापर का सुझाव रहा हो सकता है क्योंकि इसका मुझेअनुभव है।
शिक्षा और संस्कृति के मामले में मुझे भाजपा सरकार से भारी शिकायतें हैं, परंतु जिस तरह इसने फर्जी विश्वविद्यालयों को खारिज किया और एमेरिटस की सुविधाएँ भोग रहे प्रोफेसरों से उनकी करनी का हिसाब माँगा वह सर्वथा उचित है। निकम्मे लोग ही इससे परिचित कराने की जगह बवाल मचा सकते हैं। यह अपेक्षा दूसरे अनेक से की गई थी। जिसने ऐयाशी की थी उसे बवाल मचाना पड़ा, जिन्होंने काम किया था उनकी हुंकारी भी सुनने को न मिली।