Post – 2019-12-21

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (40)
भारोपीय भाषा का मिथक

हमने इस लेखमाला की 17वीं किश्त मैं लिखा था, “तुलनात्मक भाषाविज्ञान के जनक डच विद्वान बॉक्सहॉर्न (Marcus Zuerius van Boxhorn) थे जिन्होंने 1653 में ही जर्मन, रोमांस, ग्रीक, बाल्टिक, स्लाविक, केल्टिक और ईरानी की जननी के रूप में किसी एक ही आद्य-भाषा की परिकल्पना की थी। उसे जननी भाषा कहा जाए या अन्य भाषाओं पर छा जाने वाली अधिभाषा (सुपर स्टेटभाषा) यह विवाद का विषय हो सकता है। उन्होंने यह श्रेय सीथियन को दिया था। इसमें कुछ इकहरापन था। इसमें यह मानकर चला गया था कि जिन क्षेत्रों की भाषाओं की बात की जा रही है वे जनशून्य थे और एक भाषा इतने रूप लेकर उन उन देशों में पहुंच गई, जब कि वास्तविकता यह कि एक समृद्ध भाषा, उन्नत जीवन स्तर, और उत्पादन पद्धति अपना चुके लोगों ने नए क्षेत्रों की तलाश में उन प्रदेशों में प्रवेश किया जिनमें आखेटजीवी जनों का निवास था तो उन्होंने इनके तोर तरीको से प्रभावित हो कर आर्य भाषा और जीवनशैली अपनाई। उनकी अपनी भाषा की रंगत से इस एक ही भाषा ने अलग अलग बोलियों का रूप लिया।

यदि बॉक्सहॉर्न ने सीथियन की जगह मध्य एशिया की भाषा कहा होता, या यदि वह संस्कृत से परिचित रहे होते और इसका नाम लिया होता तो यह अधिक ठीक रहा होता। जोंस का विचार था की गोथ और हिंदू एक ही भाषा बोलते थे, I constantly assume that the Goths and the Hindus originally had the same language, gave the same appellations to the stars and planets, adored the same false deities, performed the same bloody sacrifices and professed the same reward and punishment after death. (8th Annivarsary Discourse) और उन्होंने रोमन और ग्रीक को इथोपिया और लेवंत के संस्कृत के प्रभाव में उत्पन्न भाषाएं माना था। उन्होंने फ्रीजियन पर भी भारतीय प्रभाव स्वीकार किया था और फ्रीजियन लघु एशिया के पश्चिमी भाग में बसे थे।(वही)।

इस लंबी चर्चा के अंत में हम उसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं जिस पर आज से 367 साल पहले बॉक्सहार्न और 250 पहले कुछ भटकते हुए विलियम जॉन्स पहुंचे थे। एक की नजर मद्धेशिया पर गई थी और दूसरे की लघु एशिया और लेवान की ओर। ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। जोन्स के शब्दों में रोमन और ग्रीक इन आव्रजकों की संतान (progeny of these migrants) हैं, जिसे कुछ सुधार कर कह सकते है कि ग्रीक और रोमन का सुपर स्ट्रेट संस्कृत का है, और इनकी आपसी भिन्नताएँ उनके अधस्तर अर्थात उनकी आंचलिक बोलियों के कारण है। यूरोप के भाषाई चित्र को वर्तमान रूप देने में दो केंद्रों का हाथ है। एक मध्येशिया और दूसरा एशिया माइनर जिसमें, इथोपिया में बसे भारतीय जनों की भूमिका भी मानी जा सकती है।

यदि हम इथोपिया को भी एक कारक मान लें तो इन तीनों में प्रमुख भाषा तत्कालीन बोलचाल की वैदिक है क्योंकि संस्कृत के जिस रूप से हम परिचित हैं वह अभी अस्तित्व में नहीं आई थी। इसमें अग्रणी भूमिका वैदिक स्वामी वर्ग की है जिनके संरक्षण में विविध पेशों से जुड़े हुए लोगों की अपनी बोलियाँ थीं । इसमें किसी तरह का संदेह नहीं है की एशिया माइनर और लेवंत में भारतीय भाषा बोलने वाले मध्य एशिया से पहुंचे थे। वे घोड़ों फँसाने, पालतू बनाने, और प्रशिक्षित करने और परिवहन के काम में लाने में दक्ष थे और अपनी इस योग्यता के कारण ही एशिया माइनर में अपनी धाक जमाने में सफल हुए थे।

ये मध्य एशिया में कहां से पहुंचे थे इसका निर्णय करना कठिन नहीं है सिंधी और अंध्रक पशुपालन में अग्रणी थे जिनके संरक्षक स्वामि वर्ग की मुख्य दिलचस्पी खनिज भंडारों नें थी। सिंधियों की छाप सिंताश्ता पर है तो अंध्रकों की एंद्रोनोवो पर । परंतु एंड्रोनोवो से यह भी प्रकट है कि पहले वे कहीं अन्यत्र भी बसे हुए थे। संभव है सिंधी और आंध्र दोनों एक ही क्षेत्र में कार्यरत रहे हो। इनकी संस्कृति को हम कुर्गान, सिंताशता-ऐन्द्रोनोवो समवाय कह सकते हैं। इनका सीधा प्रसार लिथुआनी, लैटवियन, स्लाव. गॉथ और केल्टिक पर दिखाई देता है। अपने समय की सीमाओं में बाक्सहार्न ने यूरोप की सभी भाषाओं का संबंध इस भाषाई परिवेश से ही नहीं जोड़ा था, बल्कि यह कल्पना भी की थी कि उसी से यूरोप सभी भाषाएँ और यहां तक कि ईरानी भाषा भी निकली है।

उनके मंतव्य में मामूली सुधार किया जा सकता है। इस पर हम बाद में आएंगे। जहां तक भाषाविज्ञान का प्रश्न है तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जनक वही सिद्ध होते हैं। विलियम जोंस को बहुत सारी भाषाओं का ज्ञान था, परंतु बॉक्स हार्न की तुलना में वह कुछ पीछे रह जाते हैं। ऐसा लगता है कि वह बहुभाषाविद होते हुए भी अपने भाषाज्ञान का कूटनीतिक उपयोग कर रहे थे। यदि ईमानदार होते तो उन भाषाओं की परिधि में रह कर समाधान तलाशते, जिनमें उन्होंने ऐसी समानताओं को लक्ष्य किया था जो उन्हें सहजात प्रतीत होती थी, जिसका अर्थ था कि किन्ही परिस्थितियों में किसी एक ही भाषा का प्रसार उस विशाल क्षेत्र पर हुआ था, जिसे हम भारोपीय के नाम से जानते हैं।

ब्रिटेन के ग्लासगो विश्वविद्यालय के प्रख्यात दार्शनिक और भाषाविद डूगल्ड स्टीवर्ट ने एक भाषा से उत्पन्न संतानों की मान्यता को चुनौती देते हुए कहा था कि एक जननी भाषा की संतानों में इस तरह के संबंध नहीं हो सकते जो भाषा विज्ञानियों द्वारा सुझाया जा रहा है। इस तरह की समानता केवल तभी हो सकती है जब एक ही भाषा दूसरे क्षेत्र में प्रचलित हुई हो। यह दूसरी बात है कि उन्होंने यह मानते हुए कि भारत का यूरोप से कभी कोई संबंध दिखाई नहीं देता जबकि सिकंदर ने भारत तक के भूभाग पर अधिकार किया था, इसलिए यह माना कि भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने ग्रीक की नकल पर एक नई भाषा गढ़कर तैयार कर ली है, उनकी झक को दरकिनार कर दें, तो पूरा भाषाई चित्र उपस्थित हो जाता है।

इसका सीधा निष्कर्ष यह कि भाषाओं का वंश नहीं होता। उनकी जैव सत्ता नहीं है, वे सामाजिक निर्मिति हैं। जो नियम सामाजिक संस्थाओं पर लागू होते हैं वे ही नियम भाषाओं पर लागू होता है। इसलिए भाषापरिवार की अवधारणा गलत है, भाषा समुदाय या भाषाई भूगोल अधिक सही अवधारणा है।

यही कारण है कि पिछले 200 साल से लगातार उस जननी भाषा की खोज करते हुए विद्वानों के हाथ कुछ न लगा। वे उसे गढ़ कर तैयार करने लगे। इस क्रम में हमारे हाथ कुछ भी न लगा हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। परंतु वह भाषाई आनुवंशिकी के रूप में नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन में उसकी उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु आदिम भाषाओं की खोज और उनके विघटन से पैदा हुए परिवारों की अवधारणा वास्तविकता से बहुत दूर है।

पश्चिमी समाज को प्रमाणों से किसी किसी ऐसी सचाई का कायल नहीं किया जा सकता जिससे उसके सनातन वर्चस्व को चुनौती मिलती हो। इसलिए उनके द्वारा फैलाए गए जंजाल से बाहर निकलने की जिम्मेदारी हमारे अपने इतिहासकारों की थी। कारण कोई भी हो, वे अपने कर्तव्य के निर्वाह में विफल रहे और उन पाश्चात्य विद्वानों से अपने अपनी योग्यता का सनद हासिल करने के लिए उत्सुक रहे जिससे भारतीय समाज को अपनी असाधारणता से आतंकित कर के ऊंची कुर्सियां प्राप्त सकें। गुलामी लादी भी जाती है, गुलामी चुनी भी जाती है। लादी हुई गुलामी को फेंकने के बाद, हमने मानसिक गुलामी को स्वयं आगे बढ़कर स्वीकार किया।

सूचना के स्रोतों का अभाव हमारे देश में है। उनके यहाँ सब कुछ उपलब्ध है, पुस्तकालयों की जो सुविधा पश्चिमी जगत में है, उसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। पुस्तकालय का कोई सदस्य दुनिया की कोई किताब पढ़ना चाहता हो तो वह उसकी मांग पर पूरे देश में जहां कहीं भी हो, वहां से मंगा कर उसे सूचित किया जाएगा। अनुसंधान की प्रविधि उनकी हमसे बहुत उन्नत है, इसकी आदत छोटी कक्षाओं से ही डाला जाता है जो उनके संस्कार का हिस्सा बन जाता है। हमने साधनों के अभाव में काफी जानकारी विकीपीडिया के माध्यम से जुटाई है, जिसका अर्थ है ये जानकारियाँ सार्वजनिक हैं। फिर भी उसी विकीपीडिया पर हम आज भी आर्य और भारोपीय और उनके आदिम निवास पर लेख पा सकते हैं जिससे लगे कि इतिहास का कूड़ा और इतिहास का सच एक साथ एक ही भाव बिक रहा है और लोग अपनी अपनी पसंद का इतिहास खरीद कर अद्यतन जानकारी का दावा कर रहे हैं।

Post – 2019-12-19

तात्कालिक लाभ दूरगामी अहित में बदलने जा रहा है। इसकी चिंता जिन्हें होनी चाहिए उन्हें ही नहीं है। लोकतंत्र और संविधान और न्यायतंत्र को भीड़तंत्र के हवाले कौन कर रहा है? अपने ही बनाए कानून का उल्लंघन कौन कर रहा है? न्यायिक विकल्प की उपेक्षा कौन कर रहा है? तानाशाही को कौन आमंत्रित कर रहा है?

Post – 2019-12-18

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध(39)
सच को दबाया जा सकती है पर मिटाया नहीं जा सकता

मितन्नियों को कीलक लिपि में मितैनी, हनीगलबात, खनीगलबात, नहरीन आदि कई रूपों में अंकित किया गया है या कहें दूसरे उन्हें अपनी समझ से अलग-अलग नामों से पुकारते थे। परंतु वे अपने को कुरु/उरु कहते थे।[1] हनीगलबात/खनीगलबात से लगता है पहले उनकी विशेष रुचि खनिज भंडारों में थी और पशुपालन में रुचि रखने वाले समुदायों को संरक्षण भी इन्हीं से मिलता था।
[1] Mitanni (/mɪˈtæni/; Hittite cuneiform KUR URUMi-ta-an-ni; Mittani Mi-it-ta-ni), also called Hanigalbat (Hanigalbat, Khanigalbat, cuneiform Ḫa-ni-gal-bat) in Assyrian or Naharin in Egyptian texts, was a Hurrian-speaking state in northern Syria and southeast Anatolia from c. 1500 to 1300 BC.
मितन्नी नाम मिस्री के लोगों ने इस आधार पर दिया था, कि वे अपने मित्र देश से संपर्क साधे रहते थे। यह सीधे भारत से या सिन्तास्ता या पुंत के माध्यम से उनके संबंध का द्योतक है। हित्तियों से इनका तनाव रहता था जिसे दूर करने के लिए हित्ती राजा सुप्रियम् [क] (Suppiluliuma) और मितन्नी राजा सातिवाज (Shattiwaza) के बीच एक संधि लगभग. 1380 BC में हुई थी, जिसमें साक्षी के रूप में वैदिक देवों (मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्या) का नाम आया था। इसका उल्लेख हम पहले कर आए हैं। हित्तियों से उनकी प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी।

अपने उत्कर्ष काल में इनका इतना दबदबा था कि मिस्र भी इनसे से खतरा अनुभव करता था, और इसके लिए उसको हित्ती राजा से संधि करना पड़ा था। हित्तियों के उत्कर्ष के दौर में उनसे मितन्नी और मिस्र दोनों को खतरा अनुभव होने लगा तो इनकी आपस में भी सन्धि हुई । इसका ही एक परिणाम था मिस्र के राजा अमेन्होतेप से त्वेषरथ की पुत्री तदुखेपा का विवाह संबंध, जिसके मरने के बाद यह अखनातेन की पत्नी बनी थी। अखनातेन के पिता ने बधू शुल्क के रूप में त्वेषरथ को उनकी और उनकी पुत्री की सोने की प्रतिमाएँ देने का वादा किया था, परंतु अखनातेन ने सोने के पत्तर चढ़ी लकड़ी की प्रतिमा भेजी थी, जिसकी शिकायत करते हुए त्वेषरथ ने कई पत्र लिखे थे। संभवतः अपनी पत्नी के असर में ही अखनातेन सूर्योपासक बना था।

चौदहवीं शताब्दी ई.पू. में इन्होंने फरात की सहायिका खाबर नदी के तट पर या उसकी किसी सहायिका वसु के किनारे वसुकन्नी Washukanni, संपदा की खान, नाम से राजधानी बनाई । Washukanni (also spelled Waššukanni or Vasukhani) was the capital of the Hurrian kingdom of Mitanni, from around 1500 BCE to the 13th century BCE. … Its etymology in Sanskrit, which was used by the Mitanni, is “Vasukhani”, वसुखानी, the “mine of wealth” as the Vasu are the gods who are wealth-givers. इनकी राजधानी पर दो बार संकट आया था। पहली बार हित्ती राजा सुप्रियम् की ओर से और दूसरी वार असीरियनों की ओर से जिसमें उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा ।

हमने पहले [भारतीय परंपरा की खोज, 2011, पृ. 112-140] कुछ विस्तार से यह दिखाया है कि विदेशों मे वैदिक व्यापारियों के जो अड्डे थे उन्हें स्वर्ग कहा जाता था। परन्तु उस समय तक मेरा ध्यान उनके द्वारा सत्ता पर अधिकार की ओर नहीं गया था। उनकी बस्तियाँ सुरक्षा पर ध्यान देते हुए प्राकार वेष्ठित होने के कारण अलका (अलंकृत) कहलाती रही होंगी, अब यह सोचना पड़ता है कि इन्द्रलोक की अवधारणा वहाँ से आरंभ होती है जहाँ वे साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं और उनकी राजधानी को ही इन्द्रपुरी, या कहा जानो लगा होगा। अपनी सत्ता पर संकट आने पर वे ही स्वदेश के साहसी राजाओं से सहायता की गुहार लगाते रहे होंगे।

इस दृष्टि से साकेत/ कोशल दूसरों का अपेक्षा अधिक प्रतापी प्रतीत होते है। इसका एक कारण यह है कि जिस दौर में अनातोलिया में भारतीय भाषा बोलने वालों का प्रवेश हुआ था, वह प्राकृतिक प्रकोप का दौर था। इसके कारण कुरु पांचाल और आगे का क्षेत्र दुर्भिक्ष की स्थिति में थे, जबकि कौशल पर इसका प्रभाव उतना नहीं था। हमने पीछे रघु की जिस विजय का हवाला दिया है, वह भी किसी ऐसे ही संकट से संबंध रखता हो सकता है। स्वयं दशरथ के साथ भी इंद्र की सहायता के लिए जाने की कहानियां जुड़ी हुई हैं। इन कहानियों से दशरथ और राम के काल-निर्धारण में कुछ मदद मिल सकती है।

उपनिवेश विस्तार में कुरुओं की पहल दिखाई देती है। मितन्नी के नामकरण में कीलक लिपि में लिए कुरु/उरु जैसा प्रयोग मिलता है।

पश्चिमी समाज धर्म का प्रसार भी केवल शस्त्र के बल पर करता रहा है। वह मानता रहा हैं, कि कोई भी परिवर्तन केवल शस्त्र बल से संभव है और इससे बाहर मार्क्स भी नहीं आ सके थे। इसलिए भाषा और संस्कृति के प्रसार के मामले में भी विजय को एक अनिवार्य घटक मानता रहा है। शस्त्र बल से लोगों को बंदी बनाया जा सकता है, उनकी चेतना को नहीं बदला जा सकता। उसके लिए सांस्कृतिक श्रेष्ठता की धाक जरूरी है।

अनातोलिया में पहुंचने वाले आर्यभाषी ठीक उसी चरण पर नहीं पहुंचे थे जिससे उनके अभिलेखीय प्रमाण मिलने लगते हैं, या कहें, जब से उनकी श्रेष्ठता सत्ता में परिवर्तित हो जाती है। पहले वे सिंतास्ता/आन्द्रोनोवो में जमे हुए थे। उनकी रुचि अश्व व्यापार में थी। अनातोलिया से उनका यह संपर्क लगभग 2000 ईसा पूर्व में आरंभ हुआ था। इस से पहले अनातोलिया का अर्थतंत्र असीरियनों के अधिकार में था। संभवतः उनका सारा कारोबार उनके माध्यम से चलता रहा। उनके तंत्र को समझते हुए, इन्होंने उनको प्रतिस्पर्धा में पछाड़ दिया ।

दो बातें तय हैं जिन पर किसी को आपत्ति नहीं। एक यह कि अश्वपालन आर्यभाषा भाषियोंं ने किया। और यह कि अरायुक्त पहिए के आविष्कारक भी वे ही थे। जिस बात को ऐसी चर्चाओं मे स्थान नहीं दिया जाता, वह है यह तथ्य कि वेद में जिन रथों का उल्लेख है उनमें बैलों और गधों को जोता जाता था? अरायुक्त पहिए के आविष्कारक असुर या वरुण उपासक भार्गव थे। सिंताश्ता मद्येशिया में लंबे प्रतिरोध के बाद अश्वव्यापारियों के प्रभाव या अधिकार क्षेत्र में आने वाले भाग की पहचान बनी। इनमें पहल के दो रूप थे, एक पशु-व्यापार और दूसरा खनिज भंडारों का दोहन। दोनों का नियंत्रण नगरसेठों के हाथ में था जब कि कार्यभार विशेषों के हाथ में। रथ और घोड़े का पश्चिम एशिया में भार्य भाषियों के प्रवेश के साथ होता है, और इस मामले में इनकी अग्रता ही संख्या में कम होने के बाद भी इनके वर्चस्व का और फिर सत्ता पर अधिकार का कारण बनता है।

इतिहास का उल्टा पाठ पढ़ाने वालों ने भी स्वीकार किया है कि लघु एशिया पर प्रभुत्व कायम करने वाले मध्येशिया के ठीक उसी क्षेत्र (कुर्गान, सिन्ताशता / आन्द्रोनोवो ) से वहाँ पहुँचे थे जहाँ से उन्हें भारत की ओर बढ़ते हुए दिखाया जाता रहा है। वहीं अरायुक्त पहिए के सबसे पुराने अवशेष भी मिले हैं जो 2000 ई.पू. के हैं। भारत में ऋग्वेद के कवि अरायुक्त पहिए से परिचित थे। वे अपरिचित हो ही नहीं सकते थे क्याेकि ऋग्वेद तो पाँच सौ साल पुराने पहिए का अवशेष नहीं मिलता। जाहिर है कि पुरातत्व की अपनी सीमाएं हैं। वह साहित्यिक प्रमाणों का निषेध नही करता। साहित्यिक प्रमाण यह है कि लघु एशिया में पहुँचने वाले आर्य भाषा भाषी निश्चित रूप में मध्येशिया से वहाँ पहुँचे थे परन्तु मध्येशिया में वे कहाँ से पहुँचे थे, पूर्व से या पश्चिम से. भारत से या भारत की ओर बढ़े थे। इसका उत्तर हुर्री मे बचे रह गए घोड़ों के रंग के लिए बची रह गई शब्दावली है, जिसमे बभ्रु, पलित और पिंगल का प्रयोग हुआ है जो भारत से बाहर की किसी भाषा में नहीं पाया जाता। मितन्नी में योद्धा ले लिए मर्त्य का प्रयोग होती था जो वैदिक प्रयोग है। हम इन बातों का हवाला यह सिद्ध करने के लिए नहीं दे रहे हैं कि आर्यों का, या कहें आर्य भाषा भाषियों का मूल निवास भारत ही था। हम उस धांधली को सामने लाना चाहते हैं, जिसके चलते सब कुछ जानते हुए पर्दा डालने के लिए तरह-तरह की युक्तियां भिड़ाता रहा ।
ईरान में तो यह सखामणि (हख्मनी) कुरुवंशी थे, मितन्नी का मित्र नाम भले ही मिस्रियों ने दी हो पर अर्थ तो वही मित्रशिरोमणि है।

ल्युबोत्स्की ने 55 शब्द ऐसे छाँटे थे जिनको ध्वनिगत और रूपगत आधार पर संस्कृत और ईरानी में आरखने क् ियात किया गया है और जिसके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि मध्य एशिया, बैक्ट्रिया मरगियाना समवाय की भाषा पंजाब में आज बोली जाने वाली भाषा से मेल खाती हैं और इसलिए हड़प्पा से इनका संबंध हो सकता है, पर इसे नकार दिया गया जब कि यह इस बात का प्रमाण है कि वैदिक बोलचाल की भाषा ही पड़प्पा की भाषा थी।

इसे अस्वीकार इसलिए कर दिया गया कि हड़प्पा से इस का कोई संबंध नही जब कि दबाने या किनारे डालने के बाद भी सचाई सामने आ ही जाती है।

Post – 2019-12-16

क्या आपने ऐसा सौदा देखा है जिसमें मोल कोई चुकाए और माल कोई दूसरा हथिया ले। आजादी की कीमत जान, माल, सम्मान सभी रूपों में उन्होंने चुकाई जिन्हें हमने पाकिस्तान को सौंप दिया और आजादी का मजा हम लेते रहे। अभी हमें सेकुलर कहाने का मजा और लेना है इसलिए कहते हैं वहीं मरो खपो।

जो कानून पास हुआ है वह अधूरा है। उसमें 2014 की सीमा नहीं होनी चाहिए। शरणार्थियों के मुफ्त आवास और योग्यता के अनुसार रोजगार की व्यवस्था की जानी चाहिए। पूरा न्याय तब भी न होगा पर इससे अधिक कुछ संभव नहीं है।

Post – 2019-12-16

मृत्यवे त्वां ददामि

नचिकता काअर्थ होता है नासमझ । उशन का अर्थ होता है किसी फल के लिए लालायित। कठोपनिषद का यह वाक्य उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्व वेदसं ददौ’ भारतीय इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा था। विभाजन की तैयारी चल रही थी, तब नचिकेता लोग जिनकी समझ में नहीं आ रहा था कि हमारा होना क्या है आशंकित होकर बार-बार पूछ रहे थे हमारा क्या होगा। हम दूसरे भारतीयों से अच्छे न भी हों परंतु बुरे तो किसी से नहीं है। हमारा सब कुछ उनको दे रहे हो जो हमारे साथ शांति से रह नहीं सकते, फिर हमें किसको दे रहे हो। और हमारे नेताओं ने साफ शब्दों में यह तो नहीं कहा कि हम तुम्हें यमराज को दे रहे हैं परंतु यह तो कहा ही था जहां हो वहीं रहो और आप का कुछ नहीं बिगड़ेगा ।

यदि उन्होंने यह आश्वासन दिया था कि वहीं रहो तो उनकी सुधि लेने की जिम्मेदारी भी उनकी बनती थी । किसी की जिंदगी और सम्मान को कोई भी आदमी अपनी इच्छा पूरी करने के लिए जुआड़ी की तरह दांव पर नहीं लगा सकता। यह जघन्य अपराध हमारे नेताओं ने किया था। उसके बाद भूल कर भी उनकी खबर नहीं ली। वे अस्मिता की रक्षा के लिए नरक की यातना सहते रहे। उनकी चीखें सुनाई देती रहीं। पिछली सरकारों ने ध्यान नहीं दिया। मोदी को इस बात का श्रेय जाता है कि इतिहास की इस भयंकर भूल को जिस सीमा तक सुधारा जा सकता है सुधारने के लिए बिल लेकर आए और उसे कानून शक्ल देने में सफल हुए।

यह कानून उन लोगों को सुरक्षा देने के लिए है जो अविभाजित भारत के नागरिक थे, जो हमारे नेताओं के आश्वासन पर उन्हीं देशों में रह गए थे पर उन्हें सुरक्षा न मिली। मुसलमानों में अविभाजित भारत के मुसलमान जहां भी हैं पूरी तरह सुरक्षित हैं। भारत में भी बांग्लादेश में भी और पाकिस्तान में भी। संकट में झोक दिए जाने वाले सभी गैर-मुसलमान थे। उनको संकट से मुक्ति दिलाने का दायित्व कांग्रेस का था, क्योंकि उसी के आश्वासन पर वे वहाँ रह गए थे। इसमें कहीं कुछ कम्युनल नहीं है, इसमें बाधा पहुंचा कर इसे सांप्रदायिक बनाया जा रहा है।

मुसलमानों ने सांप्रदायिक दंगे फैला कर ऐसा माहौल बनाया था कि घबराकर देश का बंटवारा स्वीकार किया गया। भारत में वे जहां भी थे, वही हैं और उन्हें पूरी सुरक्षा मिली है। अविभाजित भारत के जिन गैर मुस्लिम लोगों ने नेताओं के आश्वासन के धोखे में आकर मुस्लिम देशों मे रहना कबूल किया किया संकट में वही पड़े हैं इसलिए यह उन उन संकटग्रस्त लोगों के लिए अल्पतम सुरक्षा देने की चेष्टा है। मुसलमान पूरे देश में है और प्रत्येक राज्य में सड़क पर उतर सकते हैं। परंतु ऐसा करके वे सामाजिक ध्रुवीकरण को और प्रखर करेंगे और इसका लाभ दक्षिणपंथी राजनीति को होगा, इसे उन्हें समझ लेना चाहिए, भारत दोबारा नहीं बँटने जा रहा है।

Post – 2019-12-14

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (38)
भेड़िए की दलील-3

यूरोप के लिए जो समस्या संस्कृत से परिचय के साथ पैदा हुई थी वही समस्या हत्तूसा के उत्खनन से दुबारा सामने आ गई। यूरोप की इज्जत फिर दाँव पर लग गई। पहली का निदान तलाशने में और उसे विश्वसनीय बनाने के लिए विलियम जोन्स ने अपनी जिन्दगी लगा दी थी, कि संस्कृत ईरान की भाषा थी गो अन्त में एक ऐसी गलती कर बैठे जिससे सारे किए कराए पर पानी फिर जाना था, परन्तु किसी भारतीय इतिहासकार ने उस पर ध्यान ही नहीं दिया। राष्ट्रवादी कह कर तिरस्कृत किए जाने वाले इतिहासकारों ने भी नहीं। पश्चिमी इतिहासकारों का ध्यान गया होगा, पर इसका पता नहीं चलता। उनकी समस्या उस पर परदा डालने की थी । उन्हें विलियम जोन्स के लेखन में अपने काम का इतना ही लगा कि संस्कृत सहित यूरोप की प्रमुख भाषाएँ किसी इतर भाषा से निकली हैं, और संस्कृत बोलने वाले भारत में कहीं अन्यत्र से आए थे ।

रोज्नी ( Bedřich Hrozný) द्वारा हित्ती अभिलेखों का पाठ किए जाने के बाद सब कुछ उलट गया। दो बातें सामने आईं । पहली यह कि वह अभिजात वर्ग जिसने कुछ सौ वर्षों तक पश्चिम एशिया पर अपना आधिपत्य कायम किया था, वह कहीं बाहर से आया था, क्योंकि उससे पहले वहाँ असीरियाई प्रभुत्व था । इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे पश्चिम एशिया के मूल निवासी थे। दूसरी यह कि वे वैदिक देवों की पूजा करते थे। वेद की रचना भारत में हुई, इसके भौगोलिक साक्ष्य वेद में उपलब्ध थे। इस बात के भी साक्ष्य मिल रहे थे, कि वे पूरब से आए थे। पूरब में उनकी भाषा केवल भारत की हो सकती थी। मैक्स मूलर ने वेद की रचना के लिए जो तिथि निर्धारित की थी वह भी इस से खंडित होती थी। समस्या अधिक कठिन थी क्योंकि बेबीलोनिया में वे 1750 ई.पू. में सत्ता कायम कर चुके थे। यदि जिस मूल से यह निकली थी वह भारत में सिद्ध हो रहा था तो इसके साथ सारी पुरानी कहानियां बेकार हो जाती थीं। इस बार इज्जत बचाना असंभव था।

परंतु इरादा मजबूत हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। प्रमाण कुछ भी कहते रहें, उनकी मनचाही व्याख्या की जा सकती है। बार बार दुहरा कर उसे सचाई में बदला जा सकता है, भले हर कड़ी लचर हो। ऐसे पहलुओं की अनदेखी की जा सकती है जिनसे समस्या पैदा होती है। इनकी भाषा से प्रकट होता था कि यह मूल भारोपीय से सबसे पहले अलग हुई भाषा है। उस मूल भाषा से ही संस्कृत सहित दूसरी प्रमुख भारोपीय भाषाएं निकली लगती हैं। इसके बाद समस्या भाषावैज्ञानिक हो गई और यह जानते हुए भी कि वह भाषा कौन सी है, उस भाषा की खोज का नया नाटक आरंभ हो गया।

पाश्चात्य विद्वान यह जानते हुए भी कि पाणिनीय संस्कृत वैदिक से हजार डेढ़ हजार साल बाद में अस्तित्व में आई, वैदिक में उस तरह की कठोरता नहीं थी, जो पाणिनीय में पाई जाती है, बार बार केवल संस्कृत का नाम इसलिए लेते हैं कि यह सिद्ध कर सकें कि यह कभी किसी क्षेत्र की बोलचाल की भाषा नहीं रही हो सकती। इसलिए यह बाहर से आई थी।

इन वकीलों को विद्वान मानना ज्ञान और विज्ञान दोनों का उपहास है, जो यह जानते हुए भी कि संस्कृत के आंचलिक भेदों के कारण एक ही भाषा अपने ही प्रसार क्षेत्र में इतने रूप ले चुकी थी कि एक क्षेत्र की बात दूसरे मे नहीं समझी जाती थी। इससे निपटने के लिए दूर देश के लोग कुरु पांचाल मे आते थे। यदि बोल चाल की भाषा न होती तो यह समस्या कैसे पैदा होती। परन्तु यह न भुलाया जाना चाहिए कि एक विशाल क्षेत्र में संपर्क की भाषाएं अनेक स्थानीय बोली क्षेत्रों मे प्रचलित होती हैं और ये विशेष कार्य-व्यापार से जुड़े लोगों के बीच में ही व्यवहृत होती है। उदाहरण के लिए आज की हिंदी। जिस समस्या से बर्नार्ड शॉ ने चिंतित हो कर अंग्रेजी के एक मानक उच्चारण का अभियान चलाया था जिसकी उपज बीबीसी की अंग्रेजी है उसी चिंता से कातर होकर पाणिनि ने अपना व्याकरण तैयार किया था और उस व्याकरण में भी यह ध्वनित है कि किस क्षेत्र के लोग किस तरह के प्रयोग करते थे। यह दूसरी बात है कि इस व्याकरण को ब्राह्मणों ने अपनी संपदा बना लिया। इन विविध आंचलिक रूपों के पीछे वैदिक भाषा है जिसके बहुल प्रयोग उसके संपर्क भाषा के रूप में विशाल क्षेत्र में व्यवहृत होने का प्रमाण है।

यह सच है कि संस्कृत सहित भारोपीय परिवार में सम्मिलित भाषाएं उसी से निकली थी। पश्चिम एशिया में पहुंचने वालों की भाषा, उसी से निकली थी, और सचमुच बहुत पहले अलग होने वाली भाषा थी। भारतीय भाषाओं पर इतने लंबे समय तक काम करने वाले पंडितों को, यह राम कहानी मालूम थी, परंतु वे इसे छिपा कर ‘यह देखो, वह देखो, कुछ मत देखो, सब कुछ गड्ड मड्ड लगता हो तो हमारी नजर से देखो’ खेल खेलते रहे, और इसी को तुलनात्मक भाषा विज्ञान का नाम दे दिया। इसके जिस रूप से हम परिचित हैं, वह भी विज्ञान नहीं है, भूल भुलैया है। इसे जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना ही विज्ञान के हित में है। भाषा विज्ञान का रास्ता इस भूलभुलैया से बाहर निकलने के बाद आरंभ होता है।

वह आद्य-भारोपीय वैदिक बोलचाल की भाषा है। उसी का प्रसार उस तंत्र के द्वारा हुआ था जिसे हम हड़प्पा सभ्यता के व्यापक प्रसार के अवशेषों से कुछ अधूरे रूप में जानते हैं और भाषा के माध्यम से वह पूरा संजाल हमारी आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है।

हित्ती बोलियों को भारोपीय की भाषाओं में सबसे पुरानी सिद्ध करने का एक तर्क काकल्य (कंठ्य) ध्वनियों की इनमें उपस्थिति है जो किसी दूसरी भारोपीय शाखा में नहीं पाई जाती, परंतु जिन की संभावना की ओर सबसे पहले सास्यूर ने संकेत किया था । इसकी बारीकियों को मैं स्वयं नहीं समझ पाता, जैसे मैं प्रातिशाख्यों की उच्चारण की बारीकियों को नहीं समझ पाता। परंतु वैदिक के बोलचाल के रूप को भी मैं नहीं जानता।

जानता केवल यह हूं कि हित्ती किसानों की भाषा नहीं थी, वहां के अभिजात वर्ग की भाषा थी जो खेती की कला और विज्ञान से परिचित रहे भी हों तो वहाँ स्वयं खेती नहीं कर रहे थे। खेती करने वालों की भाषा अलग रही होगी। वह असीरियन रही होगी यह भी दावे से नहीं कहा जा सकता।

परन्तु जब यह जानते हुए कि आर्य भाषा भाषी वहाँ अधिक से अधिक 2000 ई.पू. में पहुँचे थे, एक ब्रिटिश पुरातत्वविद हेंफिल आदि के दल के द्वारा यह पता चलने पर कि 4500 ई.पू. से 600 ई.पू. के बीच कोई आक्रमण नहीं हुआ, सुझाते हैं कि आदि भारोपीय पश्चिम एशिया की भाषा थी और कृषि प्रौद्योगिकी के प्रसार के साथ भाषा का प्रसार हुआ और इस तरह यह बढ़ते हुए 4500 ई.पू. में भारत में पहुँची थी और इसको पश्चिमी संचार माध्यमों से प्रचारित देखता हूँ तब इसमें सन्देह नही रह जाता कि पश्चिमी देश अपनी दादागिरी कायम करने के लिए हर तरह के कुतर्क का सहारा ले सकते हैं और ज्ञान की किसी शाखा को नष्ट कर सकते है। मानविकी से जुड़ी उनकी किसी स्थापना पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

Post – 2019-12-13

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (37)
भेड़िए की दलील-2
टामस बरो संस्कृत के अधिकारी विद्वान माने जाते हैं। वह The Sanskrit Language (Faber and Faber,1955) के लेखक हैं। वह ईरान में आर्य भाषा के प्रवेश के या मांदार्यो की उपस्थिति के विषय में बताते हैं कि 1000 ई.पू. से पहले इसके ईरान मे होने का प्रमाण नहीं मिलता:
The presence of Medes and Persians in Iran proper is attested in the Assyrian annals from the tenth Century BC. )

उसी के साथ यह भी मानते हैं कि भारत पर आक्रमण का कोई प्रमाण नहीं
For the Indo-Aryan invasion of India no direct evidence is available. 31

कश वंश के विषय में बताते है कि वे 1750-1170 ई.पू. बेबीलोनिया पर राज्य करते रहे। उसके साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि वे पूर्व की दिशा से, ईरानी पठार, से होकर आने वाले आक्रमणकारी थे:
The Kassites themselves were invaders from the east. 31

वह बताते हैं कि भारोपीय भाषा का सबसे प्राचीन अभिलेखीय प्रमाण न तो ईरान में मिलता है, न भारत में, यह पश्चिम एशिया में मिलता है:
The earliest recorded traces come neither from India, nor from Iran, but from the near-East. 27

परंतु ये निशान उस मूल भाषा के नहीं हैं जिसे भारोपीय कहा जाता है, अपितु यह उससे अलग हुई सबसे पुरानी भाषा थी:
Separation of Hittite and the languages allied to it form the main body of Indo-European must have taken place earliest of all. 17

उनके निकट पूर्व में आर्यों की उपस्थिति दूसरी सहस्राब्दी के मध्य की है और उसी (पूर्वी) दिशा से हुए आक्रमण का परिणााम है
The presence of Aryans in the Near-East in the middle of the second millennium BC can be best explained by a invasion from this quarter. 30

इसके बाद भी बरो कहते हैं, ये ईरान या भारत से आए हो सकते हैं, इस पर विचार करने की कोई तुक ही नहीं बनती और यह तब कहते हैं जब मानते हैं कि आर्यभाषा भाषियों का यह हमला उधर से ही हुआ है(There is clearly no point in arguments as to whether the the language is Iranian or Indian, since there is no evidence of its being either, 30

क्या ऐसे विद्वानों को कुछ समझाया जा सकता है जो जानते कुछ और हैं, ठानते कुछ और हैं , मानते कुछ और हैं।

हित्ती और उसकी अनुसंगी बेलियोे की समस्त संपदा – चाहे वह व्यक्ति नाम हो या देवनाम हो अश्वपालन से जुड़ी पारिभाषिक शब्दावली हो- भारत छोड़कर किसी अन्य देश से नहीं जुड़ती। ईरान से भी नहीं जहाँ सप्त हफ्त हो जाता है और इसी विवशता में बरो को भी बार बार इंडो आर्यन का प्रयोग करना पड़ रहा था। यदि हित्ताइत अपने मूल से अलग होने वाली पहली भाषा थी तो वह मूलभाषा तो भारत में प्रचलित थी जहाँ से यह आक्रमण हुआ था। ऐसी दशा में भारत पर किसी आक्रमण की बात कोई पागल ही कर सकता है और यह पागलपन वर्चस्व की कामना और रंगभेद के कारण किसी एक पर नहीं पूरे यूरोप पर सवार था और आज भी सवार है और इसीलिए हमें किसी भी पश्चिमी विद्वान या विशेषज्ञ की राय या समर्थन का नकारात्मक अर्थ ग्रहण करना चाहिए। वे सचाई पर परदा डालने की पूरी तैयारी के साथ, अपनापन दिखाते हुए झूठ का प्रचार करते हैं, सचाई उनकी लाख कोशिशों के बाद भी उनकी असंगतियों से सामने आ जाता है, क्योंकि जैसा कि हम कह आए हैं झूठ के सिरे लाख जतन के बाद भी एक दूसरे से मिलते नहीं हैं। आपराधिक छानबीन में इसी के कारण अपराधी अपने गुनाह का सबूत पेश कर देता है।

बरो को भारत पर किसी आक्रमण का प्रमाण नहीं मिल रहा था, मिल सकता भी नहीं, पर भारत से आर्यभाषा भाषियों के आक्रमण के प्रमाण उन्होंने स्वयं पेश कर दिए। उनके ही कथन से यह सिद्ध होता है कि:
(1) भारोपीय भाषा भारत में उस समय बोली जाती थी जब कहीं अन्यत्र नहीं बोली जाती थी।
(2) भारतीय आर्यभाषा भारतीय-ईरानी की शाखा नही, ईरानी मध्येशिया पर भारतीय प्रभाव कायम हो जाने के बाद वहाँ से छिटके मान्दार्यों की एक शाखा है।
(3) भारोपीय की जननी भारतीय आर्य भाषा है और उसका मानकीकरण किस बोली के उत्थान और किन बोलियों के संसर्ग में हुआ था इसकी खोज केवल भारत में ही संभव है।

अब हम बरो के द्वारा भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों का उन पुराणवृत्तों या दंतकथाओं से मेल खाने को ले सकते हैं जिनके आधार पर विलियम जोन्स ने यूरोप में संस्कृत के प्रवेश के प्रमाण दिए थे। जोन्स ने यह माना था कि भूमध्य सागर के पूर्वी तटीय क्षेत्र पर संस्कृत बोलने वालों का आधिपत्य था और उनकी देवियों को भारतीय प्रतिदर्शों के अनुरूप ढाला गया था। इन्हीं के माध्यम से ग्रीस और इटली में संस्कृत का प्रवेश हुआ था। परंतु उनके पास पुरातात्विक प्रमाण न था। उस कमी को बरो और दूसरे विद्वान पूरा कर देते हैं: वह बताते हैं कि उस क्षेत्र पर मितन्नियों और उनके अधीनस्थों का जमाव था:
….consequently, we come across rulers of neighboring principalities having similar Aryan names and this extend as far as Syria and Palestine.

Post – 2019-12-12

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (36)
भेड़िए की दलील

ताकतवर कभी गलत नहीं होता। सत्ता के सभी रूपों – प्रशासनिक, ज्ञान-शास्त्रीय और प्रचार-तांत्रिक – पर अधिकार उसे ऐसी शक्ति प्रदान करता है कि वह अपने गलत को भी सही सिद्ध कर सके। उससे टकराने वाला मारा जाएगा। इस डर से उसकी मूर्खता पर आप हँस भी नहीं सकते। जो उससे बा-मुलाहिजा बा-अदब कुछ पाना चाहते हैं वे उसके पागलपन के भीतर सलीका तलाश कर लेते हैं और आपके होकर भी उसके इशारे से पहले ही आप को विद्रोही सिद्ध करके आप का सिर उसे भेट करने को तैयार रहते हैं। आप के दुशमन से अधिक अपनों से डरना पड़ता है।

हम पहले के कुछ निष्कर्षों की याद दिलाने के बाद आगे बढ़ना चाहेंगे। पहली बात यह कि कस गण भारत के बहुत प्राचीन गणों में से एक हैं। कौसिक विश्वामित्र, इन्द्र की कौसिक संज्ञा, कस्यप ऋषि जिनको प्रजापति का विरुद प्राप्त है, कोसी, काेसी नदी काशी, कुशीनगर, कोसल, कुसुमी वन इत्यादि इनकी प्राचीनता और महत्व को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है।

इनकी प्रधानता पूर्वी उत्तर प्रदेश जिसके लिए पहले अवध का प्रयोग होता था, मे थी। दक्षिण कोशल में छत्तीसगढ़ क्षेत्र आता है जिससे यह अनुमान लगा सकते हैं कि अपने पूर्ववर्ती चरण पर ये भी आहार संचय और आखेट पर जीवित रहने वाले समुदाय थे। आज भी पूर्वोतर में कस/खस जन उसी अवस्था में हैं। कस ही वर्णविपर्यय से सक हो जाता है। इंद्र को इसीलिए कौसिक के अतिरिक्त है सक्र हैं(हमने दन्त्य स रखा आप उसे तालव्य कर सकते हैं)।

ये सूर्य के उपासक थे, इसलिए इनको सूर्यवंशी कहा जाता है। सूर्य की पहली संतान या सूर्योपासना का आरंभ करने वाले मनु विवस्वान हैं। इक्ष्वाकु, पृथु, रघु और राम, मनु की वंश-परंपरा में ही आते हैं।

मनु को इस बात का श्रेय दिया जाता है उन्होंने धरती को बछड़ा बनकर दुहा, अर्थात खेती का आरंभ किया। पृथु के विषय में यह कथा प्रचलित है कि उन्होंने धरती को समतल बनाया और यह विधान किया जो वन्य भूमि को समतल करके खेती के योग्य बनाता है वह भूमि उसके स्वामित्व में रहेगी -पृथोः अपि इमां पृथिवीं भार्या पूर्वविदो वुदुः । श्थीणु छेदस्य केदारं आहुः शल्यवतो मृगं। (पुरातन विषयों के जानकार यह जानते हैं कि पृथु ने ही य़रती को भरण पाषण का आधार बनाया और व्यवस्था दी कि जिस तरह शिकीर पर उस व्यक्ति का अधिकार होता है जिसके बाण से वह आहत हुआ है उसी तरह जो व्यक्ति जिस भूभाग झाड़-झंखाड़ से मुकत और समतल करके कृषि योग्य बनाएगा इस पर उसका ही अधिकार रहेगा। इस तरह भूस्वामित्व का आरंभ हुआ। वह जोतने वाले की नहीं है, उसकी है जिसने उसे अरण्य
से उर्वरा भूमि में बदला था।

राम कथा कृषि से संबंधित पहलू पर हम पहले विचार कर आए हैं और यह भी सुझा आए हैं कि सबसे पहले स्थाई खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश पश्चिमी बिहार के उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र में आरंभ हुई और संख्या बढ़ने और नई उनकी आवश्यकता होने पर यह पहाड़ों से उतर कर नदियों के कछारों में उतरे।

इस दृष्टि से कुस गण को कृषि का आविष्कर्ता और प्रचारक माना जा सकता है, यद्यपि बहुत थोड़े समय में कुछ दूसरे गण भी इस इनमें शामिल हो गए। हमने पहले रघु की विजय यात्रा के संबंध में बेबीलोन पर शासन करने वाले कसों (कस्साइटों) का उल्लेख किया था। उनके विषय में टॉमस बरो का कथन भी इसकी पुष्टि करता है:
the Kassites themselves were invaders from the east, from Iranian plateau, and their language of which something is known has no connection with Aryan or Indo-European, nevertheless in a list of names of Gods with babylonian equivalents we find the sun god….Marut, (rendered En-urta). यदि आक्रमण स्थल मार्ग से हुआ तो वह ईरान को पार करके ही होगा ।

आप में से अधिकांश लोग पश्चिम एशिया में पहुंचने वाले संस्कृतभाषी गणों के विषय में जानते होंगे, फिर भी याद को ताजा करने के लिए यह विवरण जरूरी लगता है

ह्यगो विंकलर मे 1906 मे बोगजकुई का उत्खनन किया था। यह हित्ती राज्य की राजधानी हत्तूसा सिद्ध हुई। खुदाई में एक विशाल ग्रंथालय भी मिला, जिसमें कीलक लिपि में अंकित कई हजार पट्टियाँ थी। इनमें क्या लिखा हुआ है यह किसी को समझ में नहीं आया। इनका वाचन 1916 नें रोज़्नी ने किया। ये पुरानी असीरियाई भाषा में लिखी पट्टियाँ थीं। इस ग्रंथागार में अश्वपालन पर हित्ती भाषा में लिखी एक पुस्तक मिली। जिस व्यक्ति ने यह किताब लिखी उसका नाम किक्कुली था जो शाही अश्वपाल था। इसे मितन्नी बताया गया है। इसका कारण यह है अभियान के पूरे तंत्र को आर्यजन और आर्यभाषा (संस्कृत) की सीमा में रख कर, आक्रमण के रूप में समझने का प्रयास किया गया। व्यापारिक प्रसार की ओर ध्यान ही न दिया गया। हमें नाम से यह मुडारी लगता है।

यह एक नियम सा है कि किसी देश में प्रवेश करने वाले स्थानीय आबादी की तुलना में नगण्य होते हैं, इसलिए उनको स्थानीय भाषा सीखनी ही पड़ती है। अपनी भाषा का प्रयोग अपने सीमित दायरे में ही करते हैं, परंतु यदि वे दूसरों पर हावी होने स्थिति में हों उनकी भाषा के प्रभाव से स्थानीय भाषा का चरित्र बदलता है। तकनीकी शब्दावली के मामले में उसका वर्चस्व अवश्य बना रहता है।

इस किताब मे तकनीकी शब्द संस्कृत के हैं – ऐक वर्तन्न (एक वर्तन – एक फेरा), तेरा, पंज़, सत्त, नववर्तन्न)। विकारों के चलते बोल चाल की तीन भाषाएं लूवियन, लीसियन, पैलई अस्तित्व में आ चुकी थी।

हत्ती राजा का अपने पड़ोसी मित्रों से राग विराग चलता रहता था। झगड़ा निपटाने के लिए हत्ती राजा सुप्रिय और मितन्नी सातिवाज के बीच संधि पत्र लिखा गया था जिसमे मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्या का साक्ष्य दिया गया था। इस प्रसंग में नीचे के वाक्य पर ध्यान दें:
The names of the Mitanni aristocracy frequently are of Indo-Aryan origin, and their deities also show Indo-Aryan roots (Mitra, Varuna, Indra, Nasatya), though some think that they are more immediately related to the Kassites.

(मितन्नी अभिजात वर्ग के नाम प्रायः भारतीय आर्य भाषा के (अर्थात् शुद्ध भारतीय) हैं और उनके देवनामों से मित्र, वरुण, इन्द्र, नासत्या से भी यही प्रकट होता है, यद्यपि कुछ लोग यह मानते हैं कि उनका निकटतम संबंध कस्सियों से है।) यहाँ जिन व्यक्ति नामों का हवाला है वे हैं सुतर्न (सुतर्ण) पर्शस्तर (प्रशस्तर), सौश्शतर,(श्रवस्तर) अर्थदाम (ऋतधाम), अर्तसुमर (ऋतस्मर) ,तुश्रथ (त्वेषरथ), मतिवाज, अर्तम्न (ऋतमन्) ,बर्दश्व (भृहदश्व), बिर्मशुर (ब्रहमेशवर), पुरुश (पुरुः), शैमशुर (श्रेमेश्वर), सतवाज,

इस पेंच को समझना आसान नहीं है। मितन्नियाे की कसों से निकटता तो थी, सच कहें तो मितन्नी भी कश थे।
They (Kassites) were settled primarily in Mitanni kingdom, and where they are found outside, there, they in areas especially affected by Mitennis political and cultural expansion. The Aryans appear in Mitanni from 1500 BC as the ruling dynasty , which means that they must first have entered the country as conquerors among the kings of dynasty one has a name which can be interpreted as aryan Abirattas (Burrow, 28)

मितन्नी उनका अपना नाम न था। यह नाम उन्हें मिस्र के राजा ने दिया था क्योंकि वह मित्र देश की यात्रा पर गए थे, उनका एक नाम नहरीन (नेहरू) भी था, क्योंकि उन्होने अपनी राजधानी वासुकनि खाबुर की एक सहायिका धारा वसु के किनारे पर बनाई थी। परन्तु कस क्या भारतीय नहीं थे।

बेबीलोन के कस्सी अभिलेखों (1750-1170) में आर्य भाषा की छाप है परंतु भाषा पहले की कई भाषाओं की मिलावट तथा उपस्तर के प्रभाव से इतनी विकृत हो चुकी थी उसे अजीबो-गरीब भाषा (linguistic isolate) माना गया क्योंकि उसे न तो इंडो-आर्यन कहा जा सकता है, न सामी न इंडौ-यूरोपीय। फिर भी कस्सियों को भारतीय आर्य भाषा बोलने वाला ही सिद्ध किया जा सकता था। इसलिए यदि इस निकटता को देखते हुए मितन्नियो को कस/ कश माने तो कोई आपत्ति नहीं होगी। परंतु ऊपरी सुझाव में जिस सचाई से बचने की कोशिश की गई है, सीधी पहचान को मिटाने की कोशिश की गई है, उसके परिणाम कल देखेंगे।

Post – 2019-12-10

#इतिहास_की_जानकारी और #इतिहास_का_बोध (35)
पश्चिम एशिया और भारतीय आर्य भाषा

आज मैं अपनी बात एक पुराण कथा से आरंभ करूंगा। आप चाहें तो इसे कल्पना के रंग में रंग कर प्रस्तुत किया गया इतिहास भी कह सकते हैं। रघुवंश का नाम आपने सुना होगा। रघुवंश के अनुसार रघु दिलीप के पुत्र थे। रामकथा के प्रसंग में पहले कह आए हैं वाल्मीकि रामायण के अनुसार वंशावली कुछ अलग है, इसके बाद भी यह प्रश्न बना रह जाता है कि यह वंश दूसरे किसी पूर्वज के नाम से न चल कर रघु के नाम से ही क्यों विख्यात हुआ। इस संदर्भ में हमने दो प्रश्न उठाए थे। एक का निष्कर्ष यह था कि रघुवंश की भोगोलिक पहचान साकेत और कोसल से जुड़ी है और इनकी पहचान के संदर्भ मे हमने रामकथा की परंपरा (24 और 25) में लिखा था:

”हमने पाया कि वे भारत में जब भी जहाँ से भी आए हों, भारत में वे भारतीय जातीय में वे यहाँ अनादि काल से हैं जो राम की पैतृकता को विवस्वान के पुत्र मनु से जोड़ता है और मध्येसिया के कश, कज्ज, शक उस शौर्य को दर्शाते हैं जो इनकी प्रकृति थी। सूर्यवंश सूर्य से उत्पन्न न था, न हो सकता था, परंतु शौर्य के लिए विख्यात था, इसका साहित्य गवाह है। अविजेय, अयोध्या उन्हीं की राजधानी हो सकती थी।”

“ठीक इसी की आवृत्ति हमें कोसल और साकेत में मिलती है। एक कस से दूसरी सक से। यहाँ याद दिला दें कि भोजपुरी और अवधी में ऊष्म ध्वनि केवल ‘स’ है। तालव्य ध्वनि मागधी की है और मूर्धन्य ‘ष’ कौरवी की। अतः सही उच्चारण कोसल, कासी, कस और सक है। कस और सक एक ही हैं, अक्षरों के फेर-बदल (वर्णविपर्यय) से दो हो गए।”

इस प्रसंग में कुछ और बातों पर ध्यान देना होगा। शतपथ ब्राह्मण में विदेघ माथव की सरस्वती तट से प्राण रक्षा के लिए पलायन करने की जो कथा है, उसमें विदे माथव को सदानीरा के पार जाकर इसलिए बसना पड़ता है, कि उससे पश्चिम की ओर कोसल राज्य है। सदानीरा ही दोनों की सीमा रेखा बनती है। इसमें हम कल्पना से यह जोड़ सकते हैं कि कोसल पहले से बसा हुआ था और उस पर उस सूखे का इतना गहरा असर नहीं पड़ा था जितना कुरुक्षेत्र और उससे आगे के भूभाग पर, और इसमें यह भी जोड़ सकते हैं की कौशल के लोगों को किसी दूसरे जन की घुसपैठ सह्य नहीं थी। जिस तर्क से अयोध्या का अर्थ अविजेय किया जाता उसी तर्क से उत्तर कोसल के लिए अवध नामकरण इसकी सुरक्षा के कारण अवध – अवध्य – पड़ा था।

अपने कुल के दूसरे पूर्वजों के होते हुए यदि आगे का नामकरण रघु के नाम पर हुआ, तो रघु ने अवश्य कोई असाधारण कार्य किया होगा जिसके कारण, उनकी कीर्ति बाद के वंशधरों के नाम से भी जुड़ी। राम राघव, ऱघुराज, ऱघुवीर हैं। रीति रघुकुल की मानी जाती है। यह मानते हुए भी कि रघु दिलीप के पुत्र हैं, कालिदास ने अपनी कृति का नाम रघुवंश रखा। रघु की कीर्ति उनके दिग्विजय से जुड़ी हुई है। दिग्विजय की कल्पना अपने समय के भारत के भौगोलिक ज्ञान की सीमा में कालिदास करते हैं, यवनों , कंबोजों पर उनकी विजय का भी उल्लेख करते हैं, परंतु चक्रवर्ती सिद्ध करने के लिए वह पूरब की दिशा में मुड़ जाते हैं। दक्षिण भारत की विजय कर चुके हैं । वह चक्रवर्ती बनने के लिए शास्त्रीय विजय तो पा लेते हैं, परंतु विजय यात्राओं के अनुरूप विजेता नहीं सिद्ध होते।

हम अब पश्चिम एशिया के इतिहास पर दृष्टि डाल सकते हैं। यहां कस जनों द्वारा बेबीलोन सहित उत्तरी इराक तक साम्राज्य स्थापित करने के सत्य को ले सकते हैं जिनके आधिपत्य का प्रमाण जिस काल में मिलता है उस समय तक उनकी भाषा इतनी बदल चुकी थी कि विज्ञानी उसे स्वविशिष्ट भाषा मान बैठते हैं। इनके विषय में विकीपीडिया की कुछ पंक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं:
The Kassites (/ˈkæsaɪts/) were people of the ancient Near East, who controlled Babylonia after the fall of the Old Babylonian Empire c. 1531 BC and until c. 1155 BC (short chronology). The endonym of the Kassites was probably Galzu, although they have also been referred to by the names Kaššu, Kassi, Kasi or Kashi.

उनकी भाषा के विषय में :
The language itself has been compared to several, such as Hittite and Elamite but genetically found wanting, possibly with the exception of the Hurrian language.
परंतु हुर्रयन कौन थे ?
The Hurrians (/ˈhʊəriənz/; cuneiform: 𒄷𒌨𒊑; transliteration: Ḫu-ur-ri; also called Hari, Khurrites, Hourri, Churri, Hurri or Hurriter) were a people of the Bronze Age Near East. They spoke a Hurro-Urartian language called Hurrian and lived in Anatolia and Northern Mesopotamia.

यहां ध्यान दें तो पाएंगे कि भारतीय ‘स’ ईरानी प्रभाव में ‘ ह’ हो जाता है। यदि वे अपने को हूरी कहते थे यह ऋग्वेद के सूरी हुए, और सूरी का अर्थ ऋग्वेद में उपासक किया गया है। हम इसमें एक शब्द जोड़ना चाहेंगे, वह है सूर्य। हुरी सूर्योपासक प्रतीत होते हैं। और यही सूर्यवंशियो की भी असलियत बयान करता है। सूर्यवंशी सूर्योपासक थे और यह संयोग ही है कि भोजपुरी क्षेत्र में सूर्योपासना की परंपरा आज तक बिना यह जाने कि
इसकी सार्थकता क्या है, आज तक बनी हुई है।

पंजाब में एक उपनाम सूरी है। हुरी इसी का अपभ्रंश लगता है। हुरियों के देवी देवता तक बदल चुके हैं। केवल एक देव ऐसा है जिससे भारतीय यथार्थ पर प्रकाश पड़ता है।
Kushuh, Kušuh; the moon god. Symbols of the sun and the crescent moon appear joined together in the Hurrian iconography. परन्तु अश्वपालन संबंधित शब्दावली मेल खाती है The terminology used in connection with horses contains many Indo-Aryan loan-words। इनके वहाँ इनकी बस्तियाँ आधुनिक ईराक, सीरिया और तुर्की में मिली है।

सूर्यवंशियों के बीच रामचन्द्र की उपस्थिति का रहस्य इससे समझा जा सकता है।

कस्सियों की भाषा में काफी विकार आया था परंतु उनके देवनाम वेदिक थे। इनमें आए विकारों को देखते हुए इस क्षेत्र में उनके प्रवेश का काल 2000 ई,पू. निर्धारित किया गया है। सूचना के इन तारो को मिलाने पर क्या चित्र उभरता है इस पर अभी कुछ न कहेंगे।