Post – 2020-02-21

नव

हमारे सामने, जोशी जी के साथ हुए व्यवहार को देखते हुए, कुछ सवाल अधिक पेचीदा बन कर उभरते हैं। जिन संस्कृति-कर्मियों को उनके निष्कासन से झटका लगा उनमें से नगण्य अपवादों को छोड़ कर जो, सी.आई.ए. के प्रभाव में चले गए, शेष संगठनों से दूर तो रहे, परन्तु उनकी वामपंथी निष्ठा उसके बाद भी कायम कैसे रही?

जोशी जी स्वयं 1970 के आसपास जब जे.एन.यू. में आए और इससे पहले कुछ समय तक वीतराग भाव से ‘न्यू एज’ का संपादन सँभाले रहे; जे.एन.यू. में भी वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विश्वसनीय इतिहास लिखने की तैयारी में लगे रहे। वह इतिहास तो वह अपने जीवनकाल में न लिख सके, अपने पीछे प्रामाणिक इतिहास-लेखन के लिए अनिवार्य विश्वसनीय और ठोस तथ्य संकलन की परंपरा अवश्य छोड गए, परन्तु मेरी नजर में सबसे गए-बीते भारतीय कम्युनिज्म में भी ऐसा क्या था कि अपमान और ग्लानि से भीतर से खाली हो जाने के बाद भी इससे पूरी तरह संबंध न तोड़ सके?

जोशी जी को निष्कासित करने वाले रणदिवे को भी अपनी अक्षम्य गलतियों के कारण निष्कासित होना पड़ा। वह एक कोने में पुरावस्तु की तरह पड़े रहते। उनके जिस अविस्मरणीय भाषण का जिक्र मैं कर आया हूँ वह भी इसी दौर का है। यदाकदा कुछ लोग उनसे मिलने आते, विचार-विमर्श करते, चले जाते। इस उपेक्षा के बाद भी पार्टी से उन्होंने संबंध नहीं तोड़ा।

राहुल जी को पार्टी से उनकी एक टिप्पणी के कारण निकाल दिया गया कि दूसरे सभी देशों के नागरिक अपने भिन्न धार्मिक विश्वासों के होते हुए भी वेशभूषा में एक जैसे होते हैं, केवल भारत में वेशभूषा में भी अलग पहचान को सचेत रूप में कायम क्यों रखा जाता है। निष्कासन के अपमान के बाद भी उनकी लालसा पार्टी के कार्डधारक सदस्य के रूप में मरने की थी।

इनका पार्टी से जुड़े रहना पार्टी के सही होने का प्रमाण नहीं है। मेरी दृष्टि में प्रमाण-पुरुष कोई होता ही नहीं, न अपने को किसी अन्य के लिए, वह जितना भी अगण्य क्यों न हो, प्रमाण मानता हूँ। ये सभी तथ्य हैं जिनमें से किसी की उपेक्षा करके किसी सही निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता।

मुझे विचार और अभिव्यक्ति पर किसी तरह का अंकुश सहन नहीं। यह मेरी चरित्रगत दृढ़ता के कारण नहीं, शैशव और बचपन के अनुभवों का परिणाम है; अपनों के बीच निपट अकेला अनुभव करने और कुचले और मिटाए जाने से अपने को बचाए रखने के संकल्प से जुड़ी समस्या है। मैं जो मार्क्स और एंगेल्स की मार्क्सवाद की समझ में खोट निकालते समय न झिझक अनुभव करता हूँ, न दर्प, अपने मित्रों की प्रकट गलतियों को सुधारने की इच्छा तक नहीं करता क्योंकि (1) मेधावी व्यक्ति किसी दूसरे के सुझाव से अपने को नहीं बदलता; (2) सुझाव देने पर वह अपमानित अनुभव कर सकता है और यदि पता चल भी जाय कि उससे गल्ती हो रही है, तो भी जिद ठान कर उसे दुहराता रह सकता है, अर्थात् बाहरी हस्तक्षेप के अभाव में अपनी गलतियों से जितने समय में वह सीख कर अपना तरीका बदल सकता था, उससे भी अधिक लंबा समय लगा सकता है; (3) हो सकता है जो कुछ हमें गलत लग रहा हो, वह भिन्न होते हुए भी, अधिक सही हो।

मैं केवल एक बात की आकांक्षा करता हूँ कि आप जिसे भी सही मानते हों, उसे कामचलाऊ ढंग से न करें, अपनी पूरी शक्ति उसमें लगा दें और यह भी किसी दर्शन से निकाला सूत्र वाक्य नहीं है, मेरे बचपन के यातना प्रतीत होने वाले काम को आदत में बदल कर आसान बना लेने का परिणाम है। लोग काम से थक जाते हैं, मैं बीमार भी रहूँ तो भी, काम न हो तो बेचैन हो जाता हूँ। मनोरंजन का मेरे लिए अर्थ है, काम की प्रकृति में परिवर्तन।

वे कौन लोग थे जिन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की दिशा और कार्यनीति निर्धारित की जिसमें कोई काम सही हुआ ही नहीं? किसी मनोविक्षिप्त को पार्टी के संचालन का काम सौंप दिया जाता तो उसके निर्देशन में भी उतनी गलतियाँ न होतीं जितनी हुईं और उनकी परिणति देख कर भी, यह बोध तक पैदा नहीं होता कि सही कदम न भी उठाएँ, पर उठाने से पहले सोचने-विचारने का प्रयत्न तो करें, पुश-बटन-रिऐक्शन का उदाहरण तो पेश न करें जिससे स्वतः प्रमाणित हो कि इसे सक्रिय करने वाली शक्ति इसके निजी तंत्र से बाहर है।

जवाब इसका भी तलाशना है कि वे लोग जिनके कारनामों से इतना अनिष्ट हुआ, व्यक्ति के रूप में हमसे गिरे हुए लोग थे और किसी गर्हित इरादे से कम्युनिज्म की ओर बढ़े थे या अपनी समझ से महान न भी सही, असाधारण त्याग और बलिदान करते हुए अपने देश और समाज का हित करना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि जिसे उन्होंने हित के नाम पर किया उससे अहित अधिक हुआ और अपने के मार्क्सवादी मानते हुए भी वे अपने जीवन और व्यवहार में नितांत भाववादी बने रहे और अपनी उदग्र प्रतिभा और विदग्धता के होते हुए भी, या इसके कारण ही वे इस वहम के शिकार रहे।

असलियत तक पहुँचने के लिए इस पहलू पर भी विचार करना होगा कि वे जिसे अपना निर्णय समझते थे वह स्वयं इतर परिघटनाओं की उपज थे जिनकी पृष्ठभूमि में घुसे तो बाहर निकलने के रास्ते बंद हो जाएँगे। फिर भी लाख सवालों में केवल दो सवाल। पहला उस आर्काइव का जिसमें सही जानकारी के अधिकतम उपायों को काम में लाया गया, फिर भी इस अग्रणी विश्वविद्यालय से उनके आधार पर कोई इतिहास क्यों न लिखा गया?
इतना ही नहीं, पचास के दशक के समाजवादी और साम्यवादी प्रगतिशीलता के खिंचाव के बाद भी, नई प्रतिभाएँ स्वप्नचारी की सी गति से कम्युनिस्ट दलों के साहित्यिक सांस्कृतिक मंचों से लगाव, प्रतिबद्धता के नाम पर, अपनी विचार और अभिव्यक्ति के अंकुश सहर्ष स्वीकार करते हुए, इससे क्यों जुड़ती रहीं?

हमने अपने विवेचन को अधिक संवेद्य बनाने के लिए राज थापर के संस्मरणों का सहारा लिया है, इसलिए पहली नजर में इतने रोबीले दिखाई देने वाले इन मुखौटों की असलियत के इस पक्ष पर नजर अवश्य डाल लें कि भारतीयों के साथ झक और बदसलूकी में अंग्रेजों की नकल करने वालों का भीतरी आयतन कैसा था, “इस बात को समझने में मुझे सालों का समय लगा कि बात-बात पर आग उगलते रहने वाले क्रान्तिकारी भी किसी गोरे का सामना होने पर, या बड़े अफसर से पाला पड़ने पर एकाएक बौने हो जाते थे” (It was to take me many years to discover that even the fire-blowing revolutionary was suddenly stunted when confronted with the white man or with authority in general.9)

इसे आप नेहरू जी के अपने व्यवहार की मीमांसा करके समझ सकते हैं।
“पार्टी के सदस्यों में, पार्टी के प्रति समर्पण-भाव बहुत उग्र था, और उतना ही उग्र था उनका अहंकार,जो उस दिनों मुझे भी सही लगता था।” (The dedication of the party members was fierce, and so was their arrogance, which then seemed to me the only correct attitude. They had the answers and they had the will. 14).

अन्य बातों के अलावा मार्क्सवाद के जिस चुंबकीय आकर्षण ने सर्व-सुविधा-संपन्न परिवारों के इन नौजवानों को आकर्षित किया था, वह थी, इसकी आधुनिकता। कल्पना करें मध्यकालीन सामंती व्यवस्था का मर्दन करते हुए औद्योगिक पूँजीवाद का जन्म हुआ था, उसके आन्तरिक संकट से मार्क्सवादी दर्शन और साम्यवाद का जन्म हुआ था, सो इससे अधिक आधुनिक तो और कुछ हो ही नहीं सकता था। इसलिए राज जो स्वयं लाहौर के एक सुशिक्षित संपन्न खत्री परिवार में पैदा हुई थीं, जब अपने विषय में कहती हैं, …my interest in Marxism meant being modern. (24) तो केवल अपने विषय में नहीं, रोमेश जिनसे उनका दांपत्य जुड़ा उनके विषय में भी कहती हैं और हिंदी से निकट संबंध के कारण हम जिन नामों से अधिक परिचित हैं, उन बलराज साहनी और भीष्म साहनी के विषय में भी कुछ कहती हैं और इसी की हड़बड़ समझ से जो नासमझी पैदा हुई जिसने पार्टी के सारे कारनामे को इरादे से उलट कर रख दिया, उसके विषय में भी मूल्यवान सूचनाएँ प्रदान करती है।

Post – 2020-02-20

आठ

पीसी जोशी के साथ जो व्यवहार कम्युनिस्ट पार्टी ने किया, वह बुद्धिजीवियों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी में कैसा व्यवहार किया जाता है, इसकी एक बानगी मात्र है। इस समय तक एनिमल फार्म लिखा जा चुका था और भारतीय कम्युनिस्टों में संभव है किसी को उसका नाम सुनने को भी मिला हो, परंतु पढ़ा किसी ने न होगा। कम्युनिस्ट पढ़ते कम हैं, बोलते अधिक हैं और इतने आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं जैसा किसी अनपढ़ से ही संभव है। विवशता ठहरी – खून बहाने वाले सोचते नहीं हैं, सोचने वाले खून नहीं बहाते, वे ऐसी संभावनाओं को टालते और जनसमर्थन को कारगर हथियार के रूप में काम में लाते हैं।

कम्युनिस्ट पार्टी के पूरे इतिहास में पूर्ण चंद जोशी एकमात्र बुद्धिजीवी थे, और मुंबई के इप्टा का अपने सांस्कृतिक मंच के रूप में इस्तेमाल करने में जिस व्यक्ति की अग्रणी भूमिका थी, वह पीसी जोशी ही थे। मृदुभाषी, शिष्ट, संवेदनशील, नई प्रतिभाओं को पहचानने, आकर्षित करने, संगठन या कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ने की उनकी क्षमता का कोई दूसरा व्यक्ति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के इतिहास में देखने को नहीं मिलता। इसका साहित्यिक मोर्चा उन दिनों सज्जाद जहीर ने संभाल रखा था। इप्टा का इतिहास, इसकी गतिविधियों का क्षेत्र इतना व्यापक, बहुरूपी, और बहु-आयामी रहा है, कि उसका परिचय देना मेरे जैसे, सीमित ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए खतरे से खाली नहीं हो सकता, परंतु मुंबई की इप्टा के स्वर्णिम दिन वे ही थे जब पी.सी. जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हुआ करते थे।

उनको बाध्य किया गया कि वह, आत्मालोचन करें, अर्थात् उन पर जो अभियोग लगाए जा रहे थे, उन्हें अपनी लिखत में अपने हस्ताक्षर सहित पेश करें ताकि उसे आधार बना कर वे दंड उन्हें दिए जा सकें और यह सिद्ध किया जा सके कि उनके साथ जो कुछ किया गया, वह, उनके सुधार के लिए जरूरी था। यदि उसी के आधार पर उनका सफाया किया जाए तो यह सिद्ध किया जा सके कि उनका सफाया कम्युनिस्ट पार्टी और मानवतावाद की रक्षा के लिए अनिवार्य था। जोशी जी में एक अन्य विशेषता यह थी कि वह इतिहास की खोज को केवल पार्टी के हित के लिए ही नहीं, स्वयं अपने आत्मबोध के लिए आवश्यक मानते थे, जब कि दूसरे कम्युनिस्टों का खयाल इससे ठीक उलट था (He (P.C.Joshi) had yet another quality rare in communists – he saw the need to discover our past, and our present for that matter, not only to serve party needs but for itself. 17)।

आत्मालोचन में जोशी जी से अन्य बातों के साथ, यह भी स्वीकार करा लिया गया कि उनमें शिष्टता, संवेदनशीलता आदि के दुर्गुण इसलिए बचे रह गए थे कि वह अपने को संभ्रांत वर्गीय पूर्वाग्रहों से मुक्त करके डिक्लास नहीं कर पाए थे। उनका सर्वहाराकरण अधूरा रह गया था। मेरी यह जानकारी मेरे निजी अध्ययन पर आधारित नहीं है। मेरे एक मित्र, बलदेव शर्मा के लंबे अनुसंधान का परिणाम है जिनसे मेरा परिचय उनके जीवन के अंतिम वर्षों में हुआ था, जब जिज्ञासा की व्याधि ने उन्हें ज्ञान का कंकाल बना कर रख दिया था और फिर वहाँ पहुँचा दिया था, जहाँ कंकाल को भी भस्म होना पड़ता है। मेरी जानकारी में नहीं है कि अपने इस शोध का कोई लिखित नोट छोड़ गए या नहीं। यदि इस विवरण को कोई फर्जी सिद्ध करना चाहे तो मैं प्रतिवाद न करूँगा। केवल इसके अधिक सही विवरण की प्रतीक्षा करूँगा।

जो कुछ हमारी जानकारी में आ पाया, जोशी जी को कलकत्ता के मछुआ बाजार के पेशे से कुँजड़े एक पार्टी कामरेड के हवाले कर दिया गया, जो उनको आए दिन माँ-बहन की गालियाँ दे कर उनके आभिजात्य का कलेवर उतारता हुआ उनका सर्हाराकरण करता रहा। लंबे समय तक निपट गुमनामी की जिंदगी बिताने के बाद जाने किसकी दया से उन्हें जे.एन.यू. में प्रो. के पद पर नियुक्ति मिल गई थी।

एक बार मैंने इस करुण कथा का जिक्र नामवर जी से किया तो उन्होंने खेद जताते हुए स्वीकार किया कि उनसे कोई मिलने- जुलने भी नहीं जाता था। कभी-कभार वह जाते, परन्तु किसी विषय पर चर्चा न हो पाती। वह बीड़ी सुलगा लेते, किसी विषय पर बात नहीं करते। वह अपना जीवन संस्मरण ही लिख कर भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ गए होते तो कम्युनिस्ट संगठनों में कलाकारों, साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के स्थान, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर, जिसके दौरे सबसे अधिक उन्हें ही पड़ते रहते हैं, कुछ शिक्षाप्रद रोशनी तो पड़ती।

जो भी हो, जोशी जी के साथ हुए व्यवहार ने कम्यून का हिस्सा बनने मुंबई पहुँचे साहित्यकारों के मन को इतना आहत किया कि वे “वाम! वाम! वाम दिशा का सारा उत्साह खोकर संगठनों से सदा के लिए अलग हो गए। जाहिर है शमशेर भी इन्हीं में से एक थे जिनकी अपने आंतरिक विषाद को मैं उनकी प्रसिद्ध रुबाई में अंकित पाता हूँ:
हम अपने खयाल को सनम समझे थे।
अपने को खयाल से भी कम समझे थे।
होना ही था, समझना था कहाँ शमशेर
होना भी वह कहाँ था जो हम समझे थे।।

एक अरसे के लिए प्रगतिशील लेखक संघ जिसका अंग्रेजी में अलग और उर्दू में अलग नाम हुआ करता है, साहित्यकारों के लिए अर्धविस्मृत सा बना रहा।

कई बार जब अयाचित सदाशयता में किसी मित्र को इस बात पर खिन्नता प्रकट करते पाता हूँ कि हिन्दी में मेरे शोधकार्यों को उचित सम्मान न मिला तो अनीश्वरवादी होते हुए भी ईश्वर को धन्यवाद देने का मन होता है कि सरकारी चाकरी की शर्तों के कारण किसी कम्युनिस्ट संगठन से निकटता से जुड़ने से बचा रह गया और मिटना जिस भी सीमा तक संभव हुआ, मिटे वे जिन्हें संस्थानों पर कब्जा करके शोधकर्मियों को इशारे पर हाँकने और असहमत होने पर मिटाने की लत सी पड़ गई थी।

Post – 2020-02-18

सात

जो गलत है वह कई बार एक बड़े फलक पर इतना सही सिद्ध होता है कि उसे हटा दें तो अपने को सही मानने वाले दूसरे विचार, संगठन और योजनाएँ भाप की तरह उड़ जाएँ, जैसे प्रदीप का वह गाना, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’ जिसका हम मजाक उड़ा चुके हैं। परन्तु क्या सचमुच उसके पास आजादी थी, और उसने हमें दे दी? दे दी तो किसके पास पहुँची, और वे कौन हैं जो आजादी! आजादी! का राग अलापते रहते हैं? क्या वे जो यह राग अलापते हैं, नहीं जानते कि आजादी कोई किसी को दे नही दे सकता, इसे लड़कर हासिल करना होता है, इसका मूल्य चुकाना होता है। हमने इसका मूल्य नहीं चुकाया, यह जानते तक नहीं थे कि यह मूल्य चुकाया कैसे जाता है। जानता केवल एक व्यक्ति था, उसकी हत्या हो चुकी थी।

मोल चुकाने के कई तरीके होते हैं और जिसका इतिहास सबसे लंबा रहा है वह है खूँरेजी। क्या आप दिल्ली का इतिहास जानते है? नहीं, जानते, ऐसा मुझे अंदेशा है, क्योंकि दिल्ली का इतिहास इंद्रप्रस्थ से नही, उस छोटे से गाँव से शुरू होता है जिसका नाम लेने से लोगों की जबान काँप जाती है और मुँह से खुरेजी ही निकल पाता है, पर दूसरे से तो इतना घबरा जाता है कि इसे खूँरेजी खास की जगह खजूरी खास कहते आ रहे हैं। राय पिथौरा के अंत के साथ दिल्ली और भारतीय इतिहास का वह मध्यकाल आरंभ होता है, जिसके इतिहास का सच यह है कि लोगों को स्थानों का नाम भूल जाता है। परंतु आप इसे सच न मान लीजिएगा। जाँचने परखने पर हो सकता है यह सच भी साबित हो सकता है।

दिल्ली की याद इसलिए आ गई कि लगा भारत को आजादी क्रांति से ही मिल सकती थी जिसके लिए पहले धार्मिक आत्मनिर्णय के लिए दलीलें तैयार करके जिन्ना के दम-खम को बनाए रखा गया और फिर उन नरसंहारों से भावी क्रान्ति का मनोबल तैयार किया जाने लगा। यह काम कौन कर सकता था, यह बताना जरूरी नहीं है? यह जानना जरूरी हो सकता है, कि ऊँचे दिमाग के कुछ लोगों को मालूम था कि कोई चीज बिना उसका मोल चुकाए नहीं मिल सकती।

“दंगों की खबरें छन-छन कर बाहर आने लगीं। उन्हीं दिनों एस. ए. डांगे से हुई एक मुलाकात की याद है। वह मुंबई के मजदूर वर्ग के लीजेंड्री नेता थे, कद में कुछ झँस, करामाती व्यक्तित्व, परन्तु मराठी काँइयापन से भरे हुए। … खैर, वह आए तो मैंने हजारों मील की दूरी पर मेरे अपने घर में जो पाकिस्तान बनने वाला था, हो रहे नरसंहार और आगजनी को जिसकी नृशंसता को प्रतिहिंसा और धर्म की आड़ में बर्बर तोड़ मरोड़ से इसकी भयावहता को कम करने का प्रयास किया जा रहा था, अपने भीतर उफन रही कई जन्मों की क्रुद्ध हताशा को उड़ेल दिया ।
“डांगे ने भावशून्य चेहरे से मुझे देखा जिसके भीतर एक दबा हुआ उल्लास जैसा कुछ था, “परेशान मत होओ राज, हमारे लोगों को खून का स्वाद चख लेने दो, उन्हें सीखने दो कि खून बहाया कैसे जाता है। इससे क्रान्ति का रास्ता आसान हो जाएगा।” गरज कि दंगे, कुछ लोगों के लिए दंगे न थे, प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा थे।
[[1]] News of the riots began to filter through. I remember meeting S.A.Dange around then. He was the legendary leader of the Bombay working class, slight in frame, charismatic, but permeated with Maharastrian cynicism….He was then in the throes of a grand romance with a Czech girl and there was much gossip flying around about the two. Anyway he came, and I poured out my anguish at being thousands miles away from home when home, which was to be Pakistan, was burning away with the angry frustrations of many life times finding fulfillment in brutal distortions, using revenge and religion to wash down the horrors.
Dange looked at me impassively, with almost a gleam of secret delight. ‘Don’t worry, Raj,’ he said. ‘Let our people taste blood, let them learn how to draw it. It will make the coming revolution easier.’ 43
आप गौर करे तो पाएँगे इसमें श्रीपाद अमृत डांगे को नाहक बदनाम कर दिया गया, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज तक लगातार यही करती आई है। जिन्हें अपमानित और उन्हीं की मानी हुई चूक के आधार पर रास्ते से हटाने की ठान ली जाती, उनको आत्मालोचन के लिए बाध्य किया जाता रहा, परन्तु पार्टी से भयंकर गलतियाँ हो रही हैं, इस पर न कभी किसी नेता के जीवन/ प्रभाव काल में विचार किया गया, न अपने तरीके और सोच में बदलाव, न पुरानी गलतियों से अधिक समय तक दूरी बना कर रखी गई, इसलिए यदि आजादी! आजादी, का शोर थमने के फौरन से पेश्तर कोई कामरेड किसी मंच पर हाजिर हो जाता है तो यह भी उसी कटु सचाई का कंटीनुएशन है, जिसमें आजादी को आजादी न मानने वालों में कम्युनिस्ट सबसे आगे थे।

प्रसंग कुछ दुखद तो है पर इतना दुखद भी नहीं कि इसे लंबे समय तक याद रखा जाए। रोमेश और राज विदेश से लौटे तो पार्टी की सदस्यता का फार्म भरने का समय हो गया था।
“हम ने उन्हें (रणदिवे को) समझाया हम पार्टी मेंबरशिप फार्म भरने आए हैं. उन्होंने झल्लाहट और खोखली हँसी के साथ कहा, ‘नहीं, नहीं, अभी नहीं।’ उनकी प्रतिक्रिया से चकरा कर हमने विरोध जताया। जब हम अपनी पर अड़े रहे तो और कोई चारा न रह जाने पर उन्होंने खुलासा किया और बताने लगे कि कैसे पी.सी. जोशी का दिमाग गड़बड़ा गया है, उनके दिमाग में अजीबो-गरीब खयाल आने लगे हैं, अपने को अपने कमरे में बंद कर लिया है और किसी से भी मिलने को राजी ही नहीं।’

हमें बाद में पता चला कि उन्हें जबरदस्ती एक कमरे में बंद कर दिया गया है और अपने गुमराह करने वाले राजनीतिक आकलनों को स्वीकार करते हुए ‘आत्मालोचना’ लिखने को बाध्य किया जा रहा है।
“रणदिवे को आपत्ति इस बात पर थी कि जोशी यह कैसे सोच सकते थे कि भारत स्वतंत्र हो गया । ऐसी बेतुकी बात तो कोई ऐसा ही व्यक्ति मान सकता है जिसका दिमाग फिर गया हो। रणदिवे ने पोलित-ब्यूरो के अधिकांश सदस्यों को अपनी बात का कायल कर लिया था और वे सभी अपने पुराने नेता पर इल्जाम लगा रहे थे और उन पर अपनी यह गलती स्वीकार करने का दबाव बना रहे थे कि भारत को स्वतंत्रता नहीं मिली है।
“हम आज भी साम्राज्यवादियों के दुमछल्ले बने हुए हैं, और भारत की स्वतंत्रता की चर्चा हमारे अपने बोर्जुआवर्ग की उड़ाई हुई बात है जिसकी खूद अंग्रेजों और अमरीकियों से सांठगांठ है। नेहरू अमेरिकी साम्राज्यवाद का हुक्मबरदार कुत्ता है, और पार्टी को राष्ट्रीय पूंजीवाद को पीछे भागने की जरूरत नहीं।”
[[2]] We explained to him (Ranadive) that .we had come to fill our party membership forms. ‘No, no’ not now’, he said, with an embarrassed, forced laugh. We protested, baffled by his reaction. When we persisted, he unwound and proceeded to describe how P.C. Joshi had lost control over his mind, was thinking unthinkable thoughts and had confined himself to his room, refusing to see anyone
We were to learn later that he had been forcibly locked in and asked to pen a ‘self-criticism’, that communist confession castigating himself for his misleading political assessment. Randive had questioned how Joshi could have imagined that India had gained independence, that only someone who had lost his mind could believe that, and with this Randive had convinced the majority in the politburo and they had all turned on the former leader accusingly, pressuring him to confess that he had been wrong and that India was not independent at all. 51
We were tied to the imperialists as ever before, and this talk of free India was a curtain pulled by our very own bourgeoisie which was in league with the British and the Americans. Nehru was the ‘running dog’ of American Imperialism and the party had no business ‘tailing’ the ‘national bourgeoisie’. 54

यदि आप को लगे कि मैं इनमें से किसी बात से असहमत हूँ तो यह भ्रम है। मैं कम्युनिस्ट पार्टी को गलत नहीं मानता। वह हमेशा सही होती है, गलत होता है तो हमारा दिमाग।

Post – 2020-02-17

छह

आँखों में भारीपन है, फिर भी मैं आज सोऊँगा नहीं। मैं इन सपनों की भीतरी बुनावट को समझना चाहता हूँ, जिससे डर भी लगता है और जिंदगी को अर्थ भी मिलता है। अलग अलग हो हुए भी, इनके तार आपस में ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे इन सभी के पीछे किसी दूसरे का हाथ और दिमाग काम कर रहा हो और इस चालाकी से काम कर रहा हो कि देखने वालों को लग रहा हो जिसे वह फेंक कर हल्का होना चाहता हो उसे बचाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा हो, उससे जो कुछ माँगा जा रहा हो उसे ही उससे छीना भी जा रहा हो। छीनने वालों की संख्या उसकी रोकटोक के बाद भी बढ़ती जा रही हो, इससे वह परेशान हो। इस छीन झपट में उसे समझ में न आ रहा हो कि इतनी कीमती चीज को वह किस तरह सौंपे कि वह टूटने न पाए और टूटने से रोका न जा सके तो भी चूर-चूर होने से तो बचाया ही जा सके। इन सभी संभावनाओं का एक साथ लगभग-सच-लगभग-गलत और बिल्कुल सच-बिल्कुल, बिल्कुल गलत लगना यथार्थ में नहीं, स्वप्न-योजना में ही संभव है। इतिहास की सबसे जटिल स्वप्न-योजना में हममें से उनको जिन्हें जल्द-से-जल्द कुछ पाने की बेताबी थी, लगा था, हम आजाद हुए हैं। सच कहें तो मिला तो सबको कुछ न कुछ था ही।
यह आज भी एक उलझा हुआ सवाल है कि आजादी मिली या सत्ता का अदल-बदल (transfer of power) हुआ, या त्याग हुआ ? परित्यक्त सत्ता किनके किनके पास किस किस रूप में पहुँची, और उन्होंने इसे किन-किन रूपों मे ढाला? क्या इन सभी को किसी एक नाम से – जैसे आजादी – पुकारा जा सकता है? यदि मेरे पास इसका सही उत्तर हो, तो भी, मैं दूँगा नहीं। कारण सवाल किसी उत्तर के सही होने का नहीं है, किसी को भी सभी के द्वारा सही माना जाने का है, जो न तब संभव था, न आज संभव है। जहाँ तक मेरा अपना सवाल है, सोलह साल के देहाती किशोर ने विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा गाते हुए अपने गाँव में फेरी भी लगाई थी, लड्डू भी खाए थे और झंडा-गान गाते हुए, इस उमंग से भी भरा रहा था कि आज, हम चाहें तो, दुनिया को जीत सकते हैं। आजादी का मेरे लिए अर्थ था, सब कुछ मुफ्त। यह मिली हुई आजादी अगले ही दिन छिन गई थी, जब पता चला कि बस हो या रेल, कुछ भी मुफ्त नहीं, किराया देना ही पड़ेगा। आप को आश्चर्य होगा यह सोच कर कि सोलह साल की उम्र तक मेरा बौद्धिक विकास इतना दबा हुआ था कि मैं आजादी का मतलब मैं मुफ्तखोरी समझता था! आश्चर्य मुझे भी होता रहा है, कई बार, शर्म भी आती थी, पर अब नहीं आती। आजादी की लड़ाई के समय जो समझ सार्वजनिक थी, वह थी, अंग्रेजों का सत्ता छोड़कर चला जाना और उस पर हमारा कब्जा हो जाना। जो धन विदेश चला जाता था, उसका देश में रह जाना। उसका क्या करना है, इसका निर्णय हमारे द्वारा किया जाना। इसी की ग्रामीण समझ मेरे भीतर थी। परंतु आज सात दशक के बाद मुखर राजनीतिकों और राजनीतिक भविष्य के लिए अतिमुखर नौजवानों को आजादी की उसी समझ के आस-पास देखने पर, आश्चर्य इस बात पर होता है, इस मामूली नासमझी के कारण मैं अपने भीतर शर्मिंदा क्यों हो रहा करता था।
जो भी हो, दो चीजों के विषय में किसी को संदेह नहीं था। पहला, अंग्रेजों का भारत छोड़ कर जाना और दूसरा, नेहरू द्वारा नियति का सामना। नेहरू ने कहा था, “आज रात बारह बजे, जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता की नई और उजली चमकती सुबह के साथ उठेगा।” शायराना मिजाज, किताबी दिमाग वाले प्रगल्भ वक्ता चौंकाने वाली बातें तो करते हैं, सही बात नहीं रख पाते। नेहरू जिसे दुनिया मानते थे वह भारत से दूर पश्चिमी जगत हुआ करता था। बहुतों के लिए आज भी वही है, इसलिए जब दुनिया में नाम कमाने का दौरा पड़ता है, तो वे एशिया को छोड़कर पश्चिम की ओर दौड़ पड़ते हैं। हम जिस चक्कर में इसका जिक्र कर बैठे, वह यह कि जिस समय वह बोल रहे थे, दुनिया जाग रही थी; भारत सो रहा था। नरसंहारों, वर्णनातीत अमानवीय और कल्पनातीत कुकृत्यों, विश्वासघातों, उपद्रवों, के क्रूरतम यथार्थ से निढाल, हारा-थका सो रहा था। यदि समय ही चुनना था तो भारतीय समय चुना होता जो सूर्योदय के साथ आरंभ होता है, न कि उनका जिनके पैदा किए अँधेरे से उबरने के लिए आजादी की जरूरत थी। ऐसा न हो सका इसलिए उन्हें कहना था और न कहने पर भी वही होना था, और यह था क्रूर यथार्थ से एक नए रंगीन सपने में खो जाना। स्वतंत्र मान लिए गए भारत का अबतक का इतिहास एक लंबे, अटूट सपने का इतिहास रहा है और अपनी शिक्षा की अग्रता के अनुरूप ‘प्रबुद्ध’ व्यक्ति स्वप्नचारी (स्लीप-वाकर) की तरह आचरण करता रहा है। उसके लिए कोई भी चीज जरूरत के अनुसार कुछ भी हो सकती है या जरूरत न होने पर हो कर भी अदृश्य की जा सकती है।

विश्वास नहीं होता? मुझे भी सोचने और देखने के बाद भी विश्वास नहीं होता, उल्टे अपने होने पर संदेह होने लगता है। हमने देखा, अंग्रेजों ने न किसी को कुछ दिया था, न किसी ने कुछ छीना था, वे इंडिया छोड़ कर भागे थे, पर इस अदा और अदावत भरे अपनेपन के दिखावे के साथ कि एक साथ वे सभी बातें संभव और असंभव लगें। इसलिए जब, जो कुछ कहा जाए सही जैसा लगता है और गलत सिद्ध हो कर आँखों से तब तक के लिए ओझल रहता है जब तक उसे सही सिद्ध करने वाला दुबारा मंच पर नहीं आ जाता। थोड़ी देर के लिए मान लें, आजादी मिली, पर किसके प्रयत्न से:
दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। परंतु साबरमती के संत उस चर्चा से ही बाहर कर दिया गया था जिसने देश के भाग्य का निर्णय होना था। क्या इसलिए
कि उसने 8 अगस्त 1942 को करो या मरो के संकल्प के साथ, अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था। और उसका परिणाम उन्हीं दिनों सामने आ गया था जब पूरे आंदोलन को कुचल दिया गया था। इसे सच नहीं मानता गलत भी नहीं ठहरा पाता, क्योंकि जैसे कुचल दिया जाए वह समाप्त हो जाए यह जरूरी नहीं।
लेकिन बचे हुए भारत की सत्ता तो नेहरू को सौंपी गई थी, आजादी भी उनकी, बचा हुआ देश भी उनका। इतनी मेहनत से कमाई दौलत को उनके खानदान से छीनने का प्रयत्न करने वाले अपना इतिहास तो देखते कि उस समय वे क्या कर रहे थे।
लेकिन असलियत यह है कि सुभाष की आजाद हिंद फौज की याद आने पर वे थर्रा गए थे। भागना तो उन्हे था ही। हो सकता है, सपने में जो गलत है उसे भी गलत नहीं कहा जा सकता। जापान घुटने पर आ गया था, सुभाष अपने को बचाने के चक्कर में मारे जा चुके थे, या मरने से बच गए थे, क्योंकि वह मरने के लिए बने ही न थे।
चन्द्र सिंह गढ़वाली को क्यों भूल जाते हैं लोग? बात पुरानी सही, पर मंगल पांडे से अधिक दृढ़ता से उनका हठ-इन्कार-से सिर तान खड़े इस योद्धा की याद, खास करके 1946 के नौसैनिक विद्रोह के बाद, अंग्रेजों के सपनों को रौंदने के लिए काफी था।
हँसी आती है अपनी नादानी पर। सारी दुनिया जानती है, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक रीढ़ कमजोर हो गई थी। वह अपने उपनिवेशों को सँभाल ही नहीं सकता था।
ये सभी बातें सही हैं, सभी गलत। ऐसी ही कुछ और बातें हैं, पर जो असल बात है उसे तो आज कहा ही नहीं जा सकता।
ही नहीं जा सकता।

Post – 2020-02-15

पाँच

मार्क्स को, सोते-जागते, उठते बैठते, बात-बेबात दुहराते रहने की आदत सबसे अधिक मोहन कुमारमंगलम और उनकी बहन पार्वती कृष्णन में थी। वे राजनीतिक परिवार के थे। उनके पिता भारत के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके थे। उनकी स्कूली पढ़ाई और आगे की शिक्षा विदेश में हुई थी। वे नफीस अंग्रेजी बोलते, पर पोशाक एकदम सादी। मोहन एटन और कैंब्रिज की पैदावार जरूर थे, पर सर्वहारा की सेवा के लिए सारी नफासत को झाड़-पोंछ कर अलग फेंक दिया था। उन दिनों सर्वहारा एक जादुई शब्द था और मेरे कच्चे मन को इसकी आवाज सुनने में बहुत सुहावनी लगती।1]]

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बहुतेक तेज-तर्रार, नौजवान ताकतवर परिवारों से आते थे, क्योंकि अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए विदेश वे ही भेज सकते थे। उनका बोल्शेवीकरण इंग्लैंड में होता, क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध और फासिज्म का सीधा परिणाम होने के कारण, यह बहुत जोर पर था। वे स्वदेश लौटते तो मार्क्सवादी जोश से भरे हुए. अपने अतीत को नकारते हुए। और इधर उनका स्वागत करने को तैयार मिलते स्कूलमास्टरी अनुराग से भरे, पी.सी.जोशी, जो उन दिनों पार्टी के महासचिव हुआ करते थे।[[2]]

सोते,जागते, सपना देखते, मेरा अपना दिमाग उस गहरे खड्ड के कगार को लेकर फटता रहता, जिस तक देश को जिन्ना ने पहुँचा दिया था।

जब मोहन, जो पक्के और समर्पित कम्युनिस्ट थे और इसके बाद भी दिन-रात आत्मनिर्णय के बचाव में तच्छेदार दलीलों की लड़ियाँ पेश करते रहते, तो जी में आता, जो भी हाथ में आ जाए, उनके और उन जैसों के मुँह पर यह समझाने के लिए दे मारूँ कि आत्मनिर्णय का आधार मजहब नहीं हो सकता; कि मजहब और संस्कृति, समानार्थी नहीं हैं।[3]

दूसरों की तो बात ही छोड़ दें पर, मोहन जिसके बारे में मुझे उन दिनों लगता कि वह मार्क्स के समस्त बुनियीदी लेखन को, घोंट कर पी गए थे, वह जिन्ना का समर्थन कैसे कर सकते थे और उनकी बौद्धिक तकरारों के लिए दलीलें जुटा और पेश कैसे कर सकते थे, जिसकी उन्हें उस समय सख्त जरूरत हुआ करती थी।

नेहरू हमारी पीढ़ी के प्रतीकपुरुष हुआ करते थे – पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त, भारत है क्या बला, इसके बारे में अबोध, और उनके लिए प्रगति का केवल एक ही अर्थ था – पश्चिम ने औद्योगीकरण की दिशा में अपने तूफानी वेग से बढ़ते हुए जो कुछ हासिल किया था, उसे एक झटके में हासिल कर लेना।[5]

दरवाजा धड़ाम से खुलता है, या टूट कर गिरता है, इसका पता नहीं चल पाता। गिरा तो है, मैंने देखा भी है, उसके नीचे दब गया था, परंतु कहीं कोई दर्द नहीं होता और गौर से देखता हूं तो आसपास कोई चीज, टूटी-बिखरी भी नहीं दिखाई देती।

“आप की गुफ्तगू में दखल देना चाहता हूँ।” उसके प्रवेश का तरीका ही नहीं, बोलने और अकड़ कर खड़ा होने का तरीका भी उजड्डपन से भरा लगता था। मैंने नाराजगी प्रकट की, “ भले आदमी, किसी के सपने की प्राइवेसी का तो ख्याल रखा होता? आने से पहले अनुमति तो ली होती!”

वह हंसने लगा, “सपने किसी के हों, वे निजी नहीं होते। केवल सपनों में बाहर और भीतर के सारे प्रतिबंध टूट जाते हैं। सपना किसी की नीद में उतरे, वह सार्वजनिक हुआ करता है।”

मुझे उससे इतने सधे-सुलझे जवाब की उम्मीद न थी। बचाव का और कोई उपाय न सूझा. तो सवाल कर बैठा, “आप ने अपनी नींद को तोड़ कर इतनी दूरी तय करके मेरे सपने में दखल कैसे किया?”

“मैं नेहरू जी की आलोचना सहन नहीं कर सकता।”

“जो कुछ इस भद्र महिला ने कहा, उसमें कहीं कुछ गलत या अशोभन था?”

“यह देश नेहरू का था, वह इसे जो कुछ बनाना चाहते थे, बना सकते थे। वह राजनीति की गंदगी से ऊपर थे। कवि थे। कवि के लिए कुछ भी असंभव नहीं। दुनिया जानती है वह आसमान के तारे जमीन पर बैठे ही तोड़ कर ला सकता है। लाता इसलिए नहीं है कि खेती की जगह कम पड़ जाएगी।”

बात उसकी पते की थी, किस पते की, यह तय करना जरूरी न था? पर उतने पते की भी नहीं, क्योंकि इसी समय मेरे मन में संदेह पैदा हो गया, “नेहरू को याद तो उन्हीं कामों के लिए किया जाएगा, जो उन्होंने किया, या करना चाहिए था पर कर न पाए। तुम इसे आलोचना मानते हो, जो तुम्हें सहन नहीं। उनके विषय में चुप रहा जाए तो इतिहास से नेहरू गायब हो जाएँगे। यही, चाहते हो? “

नेहरू को गद्य में याद ही नहीं किया जा सकता। केवल कविता, केवल सरगम। कीर्तिगान की हमारी लंबी परंपरा रही है। उसका ध्यान रखा करो। उसने अपना बायाँ पाँव इस तेवर से उठाया कि मैं सपने में भी कई करवट पीछे लुढ़क गया, पर पाँव उसने मोड़े और चलता बना- लेफ्ट-राइट-लेफ्ट, लेफ्ट इज राइट. राइट इज लेफ्ट। देर तक यही सुनाई देता रहा।

[[1]] This was particularly so with Mohankumar Manglam and his sister Parvati Krishnan…They came from a political family, the father was later to become minister in the first Indian cabinet. They had both been to school and university abroad, spoke impeccable English, dressed in the simplest of clothes… In Mohan’s case it had been Eton and Cambridge, and he had then chucked it all to serve the proletariat. The proletariat a magic word then and it sounded very impressive to my inexperience mind. 6- 7
[[2]] Many of the bright boys of the Communist Party of India (CPI) came from powerful families, for only they could think of sending their children abroad for education; they were bolshevised in England because that was the reigning intellectual trend, a direct result of fascism and the second world war. They returned home fired with marxism, rejected their past and waiting to welcome them with open arms and a large measure of schoolmaterish affection was P.C.Joshi, then General Secretary of the Communist Party of India. 7
[[3]] Sleeping, walking, dreaming, I was tormented by the precipitous edge that Jinnah had brought to the country to. And when Mohan, communist and dedicated, produced a string of defences for the term, day in and day out, I found myself wanting to throw things at him and everyone else for not being able to see that self determination could not be based on religion; culture and religion were not synonymous terms….
[[4]]… And of all people, Mohan, who then I though had devoured all the basic writings of Marxism, how could he hold, support and supply Jinnah with intellectual arguments he so urgently needed?
[[5]] Nehru was the symbol of our generation, western educated, innocent of what India was all about, to whom progress meant all that the West had acquired in its frenetic movement towards industrialization.

Post – 2020-02-13

चार

यह मेरा अपमान है कि कोई उम्मीद करे कि मैं किसी चीज को पढ़ूँ और वह मेरी समझ में भी आ जाय। अभी मैं पूरा सोच भी नहीं पाता हूँ कि किताब मेरे सामने से गायब!

“एक किताब पढ़ने के लिए कितना समय चाहिए?”
कोई पूछ नहीं रहा, मेरी बेचैनी है जिसने इबारत का रूप ले लिया है; हमेशा ऐसा नहीं हो पाता; अक्सर ऐसा भी होता है कि सही इबारत की तलाश में प्रेत-छाया की तरह देर तक मँडराती रहती है। मेरे पढ़ने की रफ्तार बहुत कम है। पूरे संकल्प से मन की एकाग्रता को बनाए रखने की कोशिश करते हुए पढ़ना आरंभ करता हूँ, और फिर किसी शब्द या प्रयोग या विचार के सम्मोहन में पड़ कर अपने कल्पनालोक में पहुँचा कि वापसी का रास्ता ही भूल जाता हूँ। अंत में झटके के साथ किताब की याद आती है तो सिर पीट लेता हूँ। किताब बंद। कल फिर वहीं से आरंभ करना होगा।

1984, पहली बार जब सामने पड़ी थी, उल्टी थी, पल्टी नहीं थी। पिछले एक हफ्ते से पढ़ रहा हूँ, 17वें पन्ने तक पहुँचा हूँ। आज कल तो हाल यह कि बोलता हूँ तो खाँसी का दौरा पड़ता है और सोचता हूँ तो दहशत पैदा होती है। करवट बदलने में भी श्रम लगता है और वह भी इतना कि डायपर लगाने के साथ ही इसकी उपयोगिता का विज्ञापन आरंभ हो जाए, पहले इसे कोई कहता तो भी विश्वास न होता। इसमें पढ़ना क्या; लिखना क्या?

इस बीमारी के लिए अकेले मैं जिम्मेदार हूँ। कोसंबी की सलाह पर मान लूँ कि बीमार पड़ना पाप है, तो जन्म से लेकर अंतिम घड़ी तक पाप से मुक्त ही न हो पाऊँगा। गीता में स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रों को – अर्थात् उत्पादन और श्रम करने वालों को पापयोनि कहा गया है। मैं भी इस पापयोनि मेंं हूँ और गर्व करने के लिए मेरे पास और कुछ है, ही नहीं। परंतु कोसंबी के बताए पाप में लिप्त नहीं रहना चाहता। खैर, जिस माहौल में सोचने से डर लगता है, उसका न मेरी आज की बीमारी से संबंध है, न वह पहले थी। उसे किसने पैदा किया?

भक्! सामने यह चमकीली धुंध का पर्दा कहाँ से फैल गया? सुगबुगाहट का भ्रम होता है। कुछ होने वाला है, शायद। और लो हाथ में पर्चा लिए खड़ी है, “कटीले तारों के उस जाल से बाहर निकल आई है एक युवती जिसे वह पहले क्रांति की झूलाघर कहती थी। मैं इतने लंबे समय बाद, क्षत-विक्षत, पागलों की तरह अपना ही सिर नोचती, घबराकर बाहर निकली हूँ। सिर्फ इस इरादे से कि दुनिया जान सके कि यह है उस झूलाघर की सच्चाई।”

सचाई क्या अंग्रेजी का विज्ञापन होता है? वही तो है उसके हाथ में – विज्ञापन का पर्चा , जिसे सच्चाई के नाम पर लहरा रही है, परंतु लहराने का तरीका ऐसा कि हर बार वे ही शब्द कभी आग बन जाते हैं, अभी प्रकाश और कभी अपनी आंच से जलकर राख में बदल जाते हैं:
Marxism was constantly quoted, how accurately, I couldn’t tell then, (लगातार मार्क्सवाद के हवाले दिए जाते, मुझे यह भी पता नहीं चल पाता कि वे सटीक भी हैं या नहीं।)
and what never seemed to occur in the midst of frenzied arguments, was the oblivious incongruity of holding a juicy job in a foreign firm on the one hand and entertaining ideas of communism on the other. (और उत्तेजना में विक्षिप्त करने वाली उन दलीलों के बीच-बीच में जो बात दबी रहती, जिसका इस उत्तेजना से कोई मेल नहीं बैठता था, एक ओर किसी विदेशी फर्म में मजेदार नौकरी पाने की लालसा और दूसरी ओर साम्यवाद के खाबो-खयाल पालते रहना, जिनका आपस में कोई मेल ही न था।)
Accusations of being a Menshevic or a Bolshevik, of being reactionary or a progressive, could be hurled from a ‘boxwallah’ to an independent like Romesh without a shadow of guilt or absurdity. (डिब्बावाले से लेकर रोमेश जैसे खुली सोच तक के किसी भी व्यक्ति मेनशेविक या बोलशेविक होने के, प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील होने के ठप्पे आत्मग्लानि या वाहियातपन की फिक्र किए बिना लगाए जा सकते थे।)
I understood little of it myself moving naturally and effortlessly, almost sleepwalking, towards the communists, who were as much part of the social elite of Bombay at the time as anyone else. ( मैं तब इन बातों को खुद भी समझ नहीं पाती थी और निद्राचारी की तरह बिल्कुल स्वाभाविक रूप में आयासहीन ढंग से कम्युनिस्टों की ओर बढ़ती चली जा रही थी जौ उस समय की मुंबई के सामाजिक अभिजातवर्ग का हिस्सा थे जैसे कोई और।

Post – 2020-02-12

तीन
यातना और चेतना दोनों का एक दूसरे का पर्याय हो जाना। ज्ञान के दृष्टि में बदलने की प्रक्रिया क्या इतनी आत्ममुग्ध दाहकता से भरी है? बुद्ध ने कहा था इसके बाद भी जो कोई भी दुख को उसी गहराई से भोगेगा वह बुद्ध बन सकता है।

नहीं, बुद्ध बनने की कोशिश नहीं कर रहा। बुद्ध, भगवान, ओशो, जैसे ताबीज भीतर से खोखले लोगों की जरूरत हैं। यदि वे सचमुच कुछ होते तो अपने से अलग भागने की इच्छा तक पैदा न होती। मैं केवल यातना और चेतना की उस सांद्रता और प्रखरता की बात कर रहा हूँ जो जीवन में अर्जित ज्ञान को घोल कर दृष्टि में बदल देती है। इससे गुजरे बिना बुद्ध भी नहीं कह सकते थे “मेरा कोई गुरु नहीं, मैं आत्मदीप हो कर विचरता हूँ।”

भीतर कुछ टूट रहा है – सूचना और ज्ञान की पहले की बुनावटें शिथिल हो रही है। लगता है जैसे अपने ही भीतर एक सुरंग तैयार हो रही हो, जो सुरंग भी नहीं है जैसे स्वप्नतन्द्रा की हर चीज जो होती है, वह हो कर भी, वही नहीं हुआ करती। कोई रहस्य है जिससे उन निचली परतों तक आलोक फैलता जा रहा है और नीचे और नीचे उतरने और अपने को नए सिरे से पहचानने की चुनौती पैदा हो रही है।

जल्लाद हाजिर! “रिसर्च पूरा हुआ?”

वह उत्तर की प्रतीक्षा नहीं करता। उसके हाथों में कुछ है। उसे, वह दोनों हाथों से आसमान की ओर तानता है और वज्रप्रहार करता सा मुझ पर फेंकता है। मजे की बात, फेंकने के क्रम में पत्थर किताब में बदल जाता है। किताब अपने को फटने- बिखरने से बचाने के लिए नीचे गिरती नहीं है, हवा में टँगी रहती है। “मै इसे पढ़ चुका हूं, पन्ने पन्ने पर क्या लिखा है, यह दिमाग में वैसे ही दर्ज है, जैसे किताब में छपा है।“

वह हँसता नहीं है। हँसी उस किताब से फूट रही है, हवा से पलटते पन्नों की सरसराहट की तरह, और फिर पन्नों के भीतर से निकली उदासी ने पूरे माहौल की उजास को निर्वात की तरह सोख लिया है और उसी के भीतर से फूटती है एक धिक्कार, जिसकी कड़क को मैं पहचानता हूँ, “मूर्ख तूने इसे पढ़ा नहीं था। नोट बनाया था। इधर उधर लहराता हुआ पाठकों पर असर जमाता फिरा था। इसे पढ़ने का नैतिक मनोबल तक तुममें न था।

यातना की लंबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद बुद्ध कैसे पैदा होता है, यह तक तेरी समझ में नहीं आया। इसे पढ़ने के बाद व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है। लोग यह पूछने से भी डरते हैं, कि तेरा गुरु कौन है। तू किस मार्ग का पथिक है। यही, और एक मात्र यही, इस बात का प्रमाण है कि तुमने इसे पढ़ा है या नहीं ।

इस पुस्तक के प्रकाशित होने के साथ भारत से कम्युनिस्ट पार्टी का अन्त हो जाना चाहिए था। यदि नहीं हुआ, तो उन गलतियों का सदा के लिए अंत हो जाना चाहिए था, जिन के नमूने इस किताब में भरे पड़े हैं। और कुछ नहीं तो कम्युनिस्ट पार्टी का नाम गजवा-ए-हिंद हो जाना चाहिए था। कुछ भी नहीं हुआ।

दगाबाज चेहरे लगातार अपने दोस्तों की गर्दन की माप लेते रहे। यह था इस इस दंपति का आत्मदीप बनकर उसी दिशा में आगे बढ़ जाना, जिसमें बढ़ने के तू सपने देखता है, पर साहस नहीं जुटा पाता। भारत के ज्ञात इतिहास में इतने महान वैचारिक क्रान्तिकारी न पैदा हुए, न होते दिखाई देते हैं।

यह था कम्युनिस्ट पार्टी से राज थापर और रोमेश का मोहभंग । जिन दिनों क्रांति का डंका बजाने वाले आपातकाल की जन्मदात्री के लहँगे के घेरे में क्रांति की जमीन तलाश करने में जुटे थे, रोमेश थापर और राजथापर राज घराने में पुश्तैनी गहरी पैठ को ठोकर मार कर धन, सम्मान और प्राण सभी का संकट मोल लेकर, सेमिनार निकालते रहे।

अकेले एक दंपति ने आपातकाल के लौह-पंजे को मरोड़ कर रख दिया। तुम इसे आज भी समझने के योग्य हुए हो या नहीं, इसका पता कल चलेगा।”

थप्प! अभी तक जो किताब हवा में टँगी थी ठीक मेरी आँखों के आगे आ गिरी।

Post – 2020-02-11

तुम बता सकते हो, एनिमल फार्म का प्रवेश भारत में कब हुआ? इंडिया दैट इज भारत युग में, या इंडिया दैट इज हिन्दुस्तान/हिंदुस्थान दैट इज भारतवर्ष युग में?
मैं न उसका इरादा समझ पाया, न प्रश्न। वह शैतान की तरह मुस्कराता रहा। उसकी मुस्कराहट अधिक डरावनी लगती है – वह फैलती चली जाती है और फिर चेहरा गायब हो जाता है और हँसी एक ठोस सचाई की तरह तन कर सामने आ जाती है।
‘उसके सवालों से बच कर निकला नहीं जा सकता, वे मूर्खतापूर्ण हों तो भी।‘ मैं बेचैनी में सोचता हूँ और इसका भी उसे पता चल जाता है, “मूर्खता होती नहीं। देखने का कोण सही न हो तो समझदारी की बात मूर्खतापूर्ण लगती है।“
उससे बहस की ही नहीं जा सकती। गुत्थमगुत्थ अवश्य हुआ जा सकता है। पर उसके लिए उसकी इबारत तो समझ में आनी चाहिए।
“में किसी एनिमल फार्म में नहीं गया। किसी के बारे में नहीं जानता।“
“जानने के लिए भीतर जाने की जरूरत नहीं। ऐसी भी सचाइयाँ होती हैं जिनमें घुसने वाला बाहर नहीं निकल पाता। बाहर वालों को सब कुछ पता होता है, यह भी कि उसे बाहर कैसे निकालना है, उसके प्रेत से कैसे निबटना है।
लाचारी में अपना सिर नोचने लगा।
उसे मेरी उलझन समझ में आ गई, “कहते हैं जो बात तुम्हारी समझ में नहीं आती उस पर रिसर्च करने पर जुट जाते हो। रिसर्च करो और बताओ, इसका उत्तर जानना भारत से जुड़ा है।

Post – 2020-02-10

विषादपर्व

यह उस लंबी बहस की यथासाध्य सटीक प्रस्तुति है जिससे बचने के लिए मैं सोना नहीं चाहता था, कई सालों की नींद नशे तरह सहला कर अपनी दबोच में लेती थी। आंख झपकते ही अपने आप से तकरार। मेरी रातें व्याधि का रूप लेती चली गई।

विचित्र विरोध। जीवन सामान्य, ब्लड प्रेशर ठीक, न तो ताप, न दर्द, न कोई चिन्ता, न उलझन, वजन में अधिक गिरावट और और फिर भी इतना बेचैन जैसे कोई मुझे भीगे कपड़े की तरह निचोड़ रहा हो रहा हो।

उपमा के सहारे किसी बात को समझाया नहीं जा सकता; कोई चीज किसी दूसरी चीज जैसी होती नहीं। अब इस अनुभव को क्या कहेंगे। पलक झपकते ही आपके सामने एक पांडुलिपि आ गई है जिसकी स्थापनाएं ऐसी डरावनी सूचनाओं से भरी हुई हैं कि मैं घबरा कर भागना चाहता हूं और फिर जिद करके उसको सारी काटता बदलता रहता हूं। पूरी रात इस दुःस्वप्न में । सुबह जागना पड़ता है, नींद से भरी आंखें लिए हुए । परेशानी में सोचता हूं शायद नींद की दवा से नींद गहरी होने पर इससे इससे मुक्ति मिल सके। नहीं मिलती।

डॉक्टर का मानना है माइंड को ऑक्सीजन की सप्लाई में कमी आ गई लगती है। बात समझ में नहीं आती। होती तो इतने लंबे दौर का काम कैसे सध पाता। फिर सोचता हूूँ तो ऑक्सीजन की सप्लाई की कमी समझ में आती है। ब्रांकाइस के उपद्रव से पिछले तीन साल से बचा रहा। ऐसा नहीं है फेफड़ा बदल गया था, या हवा का पॉल्यूशन लेवल बहुत कम हो गया था, एक्जीमा के प्रकोप और उसकी टीस ने उसकी वेदना को ढ़क रखा, उसे उभरने का मौका न दिया। उसकी सुरक्षा कवर के नीचे भरता रहा था भीतर का पूरा कचरा घर।
जो लिखा है वह अक्षरशःसत्य है; जो लिखा है वह अक्षरशः असह्य है। इतने असह्य को कहना । वह भाषा कहां मिलेगी? उसे समझेगा कौन?

समझने की चिंता करके जो लिखता है, वह समझने वालों की अपेक्षाओं को पूरा करता है। यह एक तरह की खुशामद है। सच को लिखने की ताकत इधर-उधर देखने वाली भाषा में नहीं होती।सत्य अपनी भाषा लेकर आता है। यह शब्दकोश से जुड़ा मामला नहीं है; सत्य की अपनी प्रकृति से जुड़ी समस्या है। यदि तुम्हारे पास वह भाषा ही नहीं है तो लिखा क्या?

Post – 2020-02-07

मैं एन एक नई यातना से गुजर कर अपने को नए रूप जीवित पाया है। अब सुधार ही होगा यह विश्वास है।
मुझे आज तक विश्वास कि आक्रोश में किसी ऐसे को भी ऐसे कठोर शब्द नही जिससे अकेले में भी पढ़ कर भी ग्लानि हो। पहली बार ऐसा कह रहा हूँ कि मेरे यह निवेदन के बाद भी कि “कोई कमेंट नहीं” जो ऐेसा न कर सके उनको बौद्धिक विवेक, जानकारी रूप, मानवी य संवेदेना तीनों दृषियों से शू्न्य पाता है।