Post – 2016-06-12

अधूरेपन की पूर्णता

‘’हम किसी परिघटना के नितान्त क्षुद्र अंश को ही जान पाते हैं और जानना चाहते हैं! समग्र को जानने चलें तो एक कण को समझने में ही उम्र कट जाएगी, आगे बढ़ेंगे ही नहीं। इसलिए यदि किसी असावधानी से उसके किसी दूसरे पहलू की ओर ध्यान चला जायं तो डिरेल होने की संभावना बढ़ जाती है। हम शिक्षा की बात करते हुए निसर्गजात क्षमताओं की ओर मुड़ गए । मुड़ गए तो कुछ और विचर लें।

”हमारे पास वाह्य जगत की सूचनाओं के लिए पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं इसलिए दूसरे जानवरों में भी हम इन पांच को ही लक्ष्य कर पाते हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों का विकास क्रमश: हुआ है और कुछ जानवरों को ये सभी इन्द्रियां नहीं मिलती हैं। उदाहरण के लिए, कहते हैं सांप सुन नहीं सकता और वह जो वीन की धुन पर नाचता है, वह उसकी ध्वनितरंगों से उत्पन्न स्पन्दन का या कहें एक तरह की गुदगुदी का प्रभाव होता है।

”मान लें कि मनुष्य की श्रवणेन्द्रिय का विकास नहीं हुआ होता तो क्या वस्तु जगत में नाद की सत्ता से हमारा भौतिक विज्ञानी अवगत हो पाता। और इसी तरह हम मान ले कि किसी प्राणी में कुछ इतर इन्द्रियां होती हैं भले हमे सुलभ इन्द्रियों में से कुछ उनमें न हों, या मनुष्य में ही साधना से ऐसा विकास हो जाता हो जिसमें कुछ अतीन्द्रिय बोध होते हों, जैसेे क्लेयरवान्सं (दूरानुभूति ) में, या टेलीपैथी (पूर्वानुभूति या प्रतीति ) में या सम्मोहावस्था में होता है तो क्या हमारे भौतिक नियमों से की जाने वाली व्या्ख्या को ही परम ज्ञान मान लेना उचित होगा?‘’

‘’मारो गोली इस अदालती ड्रामे को, तुम इतने गधे हो यह तो मैं जज की कुर्सी पर बैठ कर कह ही नहीं सकता, जब कि सचाई यही है। जानते हो जिनको दूरानुभूति या पूर्वानुभूति कहते हैं या पूूर्वजन्म की स्म़ृृति आदि कहते हैं, इनकी जांच करने पर इनको वाहियात पाया गया । ये विश्वास और अन्धविश्वास की बातें है।‘’

‘’जैसे हिप्नोसिस।‘’ मैंने उत्तेेजित हुए बिना शान्त भाव से कहा।

उस पर जैसे बिजली सी आ गिरी हो। तिलमिला उठा, ‘’मैं सम्मोहन को तो नकारता नहीं।‘’

‘’उसकी कोई भौतिक व्याख्या होगी तुम्हारे पास। मुझे भी बताओगे?‘’

”है न। हमारे अवचेतन में अपार भंडार है जिसमें हमारे जन्म से आज तक के एक एक क्षण के अनुभव और विचार संचित है। संभव है भ्रूणावस्था़ के अनुभव और ज्ञान भी संचित हों। अरे भई जिसे हम अपना चेतन मस्तिष्क कहते हैं वह तो हमारे दिमाग का दो से तीन प्रतिशत तक होता है।”

”यह भी एक अनुमान है क्योंकि इसकी माप तो संभव ही नहीं है।”

”मान लेते हैं, यह भी अनुमान मात्र है और हमारे असाधारण मेधावी उसके एक आध प्रतिशत अधिक का उपयोग कर लेते हैं।”

”यह भी मात्र अनुमान है। पर मान लें यह सच है, तो जरूरी नहीं कि एक असाधारण मेधा का भौतिक विज्ञानी अवचेतन के उसी भंडार को अपनी चेतना का अंग बना पाता हो, जिसको एक साधक अपनी साधना से बना लेता है और वह किन्हीं भिन्न निष्कर्षों पर पहुंचता है।”

वह फंसा फंसा सा अनुभव करने लगा इसलिए चुप हो गया । फिर कुछ संभला तो बोला, ”यार किस झमेले में पड़ गए । छोड़ो इसे, विषय पर तो आओ। क्या यह सच नहीं है कि तुम अपनी भाषा में शिक्षा से विषमता इसलिए दूर करना चाहते हो, क्योंकि तुम सीधे संपत्ति के समाजवादी बंटवारे को, उस पर सबके लगभग-समान-अधिकार को टालना चाहते हो। तुम्हारे पास समाधान नहीं है, इसलिए समाधान से कतराने का चोर दरवाजा तलाश रहे हो।‘’

‘’चोरदरवाजा तुम तलाश रहे हो, इसलिए तुमको अपने भीतर की मार्क्सवादी काई और जनवादी फंफूद को उजागर करते हुए समस्या के समाधान में सहयोग करना चाहिए जिससे जनसमाज को भी लगे कि तुम्हारी जनपक्षधरता मात्र भावुक झाग नहीे है जिसकी तलहटी में समाजद्रोह जमा पड़ा है। विचार तुम करो कि वह कौन सी चीज है जिसे देख न पाने के कारण अथवा ठीक से न देख पाने के कारण, तुम जानवरों को डराने के लिए खडे किए गए ‘धोखे’ के समान अतिमानवाकार भ्रम बन कर रह गए हो।”

Post – 2016-06-11

राजनीति से बचते हुए

‘’क्या यह सच नहीं है कि तुम अपने खयाल को ही हकीकत मान लेते हो और हकीकत की अनदेखी करते हुए, तीन तेरह करके अपनी बात सही सिद्ध कर देते हो।‘’

‘’मैं अदालत की टिप्पणी समझ नहीं पाया!’’

’’जहां तक मैं समझ पाया, तुम कह रहे हो, ‘यदि अपनी भाषा में शिक्षा मिले तो उस भाषा का व्यवहार करने वाले सभी समान हो जाएंगे और इसलिए सामाजिक विषमता दूर करने के लिए संघर्ष करने वालों को भाषाओं की राजनीति करनी चाहिए!’’

‘’मैं पहले ही यह निवेदन कर चुका हूं कि अदालत कुछ ऊँचा सुनती और ऊँचा समझती है, इसलिए पूरी बात न सुन पाती है, न समझ पाती है! पहली बात यह कि मैं किसी चीज की राजनीति करने को दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं, यह मैं लगातार कहता आया हूं, क्योंकि इससे सबसे अधिक क्षति हमारी राजनीतिक समझ को पहुंचती है। धर्म की राजनीति करने वालों ने पहले देश को धर्म के नाम पर बांटा और उसकी सबसे बड़ी कीमत हिन्दुओं को और इस देश को चुकानी पड़ी। आबादी का संतुलन बदलते ही नये पाकिस्ता़न बनाने की तैयारी होने लगती है। परन्तु संतुलन ठीक रहा तो हिन्दू समावेशिता और खुलेपन के कसीदे पढ़े जाते हैं और इन दोनों ही स्थितियों में बांसुरी बजाने वाले अपने को सेक्युलर कह कर सेक्युलरिज्म की राजनीति करते हुए उसकी भी मिट्टी पलीद कर देते हैं।

” उस बंटे और अरक्षणीय हो चुके देश को भाषा की राजनीति करने वालों ने पचास राष्ट्रों में बांट दिया पर किसी भाषा का भला न हुआ हुआ । अधिक से अधिक यह कि उनमें जैसी तैसी रचना करने वालों को भी अकादमी पुरस्कार मिलने लगा जिसे फेंकने की राजनीति ने उसका भी सत्या नाश कर दिया।

”अब उस पचास राष्ट्रों में बंटे देश को जाति की राजनीति ने भीतर से चीर कर रख दिया कि कुकर्मी शासक भी अपनी जाति का हो तो चलेगा। इसके पीछे अंग्रेजी और अंग्रेजी आन्तरिक उपनिवेशवाद का और मिशनरी उपनिवेशवाद का हाथ है इसे समझने की कभी कोशिश नहीं की गई। हम भाषा की राजनीति की बात नहीं कर रहे उनके उत्थान की जनतान्त्रिक मांग की बात कर रहे हैं और उन्हीं के माध्यम से उच्चतम अभिलाषाओं की पूर्ति का मार्ग तलाशने की बात कर रहे हैं जहां इन विभाजनकारी शक्तियों को निरस्त करने और सबके जुड़ने की प्रकिया आरंभ होती है और इसलिए भी कर रहे हैं कि आज इसे हासिल किया जा सकता है। सियासत में उस चीज का ही सत्यानाश कर दिया जाता है जिसकी राजनीति की जाती है, और राजनीतिक समझ में उसके उदात्त संभावनाओं की परिकल्परना होती है इसलिए अच्छे प्रशासक राजनीति नहीं करते, राजधर्म का निर्वाह करते हैं।

‘’जीव जन्तुकओं और आदिम जनों के उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न किया था कि शिक्षा के अभाव में कोई प्राणी अपनी रक्षा तक नहीं कर सकता, अपना पेट तक नहीं भर सकता और अपने को क्षति पहुंचाने वालों से अपना बचाव तक नहीं कर सकता। परन्तु गलत शिक्षा से मनुष्य को बरगलाया जा सकता है, पागल बनाया जा सकता है, अपने आप से घृणा करना और अपने आत्मसम्मान को तिलांजलि देना तक सिखाया जा सकता है।

“इसके विपरीत उन्नत शिक्षा से वंचित रख कर उसकी उन्नति में रुकावट डाली जा सकती है, इसलिए समाज को नियन्त्रित करने का इरादा रखने वालों ने सबसे पहले शिक्षा पर एकाधिकार किया! अपनी विचारधारा का प्रसार करने वालों ने भी शिक्षा संस्थाओं को नियन्त्रित करने या उन पर एकाधिकार करने का प्रयत्न किया। संस्थाबद्ध शिक्षा प्रणाली का जन्म इन प्रयासों के चलते ही हुआ: मनुष्य के मस्तिष्क को नियन्त्रित करके उसे अपने उपयोग की चीज बनाने के लिए। हमारे गुरुकुल हों या आश्रम, या बौद्धों और जैनियों के मठ और मन्दिर या ईसाइयों का ग्रामर स्कूगल या आज के मिशनरी चालित स्कूल, इस्लाम के मकतब और मदरसे या संघ के सरस्वरती शिशु मन्दिर, सबके पीछे यही उद्देश्य रहा है। मनुष्य को अपने इरादों के अनुसार ढालते हुए उसकी मनुष्यता को कुछ कम करना और पालतू पशुओं के करीब लाना। हमारे प्रशिक्षण संस्थान भी यही करते हैं इसलिए उच्च तकनीकी योग्यता रखने वालों के विषय में इस बात से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि उनमें उच्च मानवीय गुणों का दूसरों की अपेक्षा अधिक विकास हुआ है। या जो देश और समाज तकनीकी दृष्टि से आगे बढ़ गए हैं, अधिक तरतीब से चीजों और विचारों और संकल्पजनाओं को रख सकते हैं वे अधिक सभ्य भी हो गए हैं। उनमें दरिंदगी के अधिक कारगर रूप देखने को मिल सकते हैं, मानवीयता का अभिनय दिखाई दे सकता है, और उन्हीं समाजों में ऐसे लोग भी मिल सकते हैं जो इन सीमाओं को जानते हों। तकनीकी अग्रता अधिक रोटी, और अधिक रोटी जुटाते हुए रोटियों का ऐसा पहाड़ अपने काबू में करने की इंजीनियरी है जिससे असंख्य लोगों की रोटियां छिन जाती हैं, वह पहाड़ उन छिनी हुई रोटियों से ही तैयार होता है। परन्तु रोटियों के पहाड़ में रोटियां सड़ती हैं, उतनी रोटियों के लिए प्रकृति ने उसके पेट को बनाया नहीं था, और रोटियों के अभाव में मनुष्यता कराहते हुए दम तोड़ देती है।‘’

इस बार अदालत ने कुछ कहा नहीं, लकड़ी के हथौड़े से लकड़ी की मेज पर चोट करते हुए याद दिलाया, ‘अपनी सीमा में रहो।‘

‘’मैंने यह नहीं कहा कि अपनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से सबको समान शिक्षा मिल जाएगी, न ही यह कहा कि यही एकमात्र बुनियादी सवाल है! मैंने इसे बुनियादी सवालों में सबसे अहम बताया था क्योंकि शिक्षा ही हमारी चेतना का निर्माण करती है। यह सर्वसुलभ अपनी मातृभाषा में ही हो सकती है। मैंने यह याद दिलाया था कि … क्षमा करें, याद दिलाया नहीं था, दिलाना चाहता था कि शिक्षा के केन्द्र या संस्थान सभ्‍यता के विकास के साथ बढ़ते गए हैं और उसी अनुपात में संवेदनशीलता विचलित होती गई है।‘’

यह मोटी सी बात अदालत की समझ में नहीं आई तो निवेदन करना पड़ा कि ‘’जीव जन्तुंओं के स्तर पर पैतृकता का पता नहीं था और मातृभाव समग्र से जोड़ता था इसलिए उसके जीवों को शिक्षित करने का भार समग्र जीव प्रजाति पर था। प्रकृति ने उसे इतनी ही योग्यता दी थी कि वह जो कुछ दूसरों को करते देखता है उसकी नकल कर सके और कुछ योग्यताएं निसर्गजात भी रही लगती हैं, वर्ना चिमगादड़ को राडार प्रणाली का ज्ञान कैसे हो सकता था या चिमगादड़ के व्यवहार को लक्ष्य करके राडार प्रणाली का विकास कैसे हो सकता था। इसलिए यह मानना कि मनुष्य कोरी चेतना लेकर पैदा होता है और उस पर सब कुछ बाहर से आकर दर्ज होता है जिससे उसका विवेक निर्मित होता है, मुझे अर्धसत्‍य लगता है। यह भौतिकवादी सोच का परिणाम है। और यह जो किसी परम शक्ति को नकारने की बात है वह भी मुझे मूर्खतापूर्ण लगती है, यानी जिस क्षेत्र को इंद्रियातीत पहले से माना गया है उसे इन्द्रिय ग्राह्य सीमा में व्यर्थ पा कर नकारना। किसी को इन भौतिक विज्ञानियों से पूछना चाहिए कि अचूक व्यवस्था और सुनियोजित विकास क्या यादृच्छित हो जाता है या इसके पीछे कोई योजना है और है तो किसकी है? यदि नहीं, तो नकारने से पहले उसका तर्क और कारण तलाश करने के लिए उन्होंने योग की वह साधना की जिसमें अतीन्द्रिय बोध की बात की गई थी।‘’

मैंने देखा तो था पर उसे विचारणीय नहीं माना था कि इस बीच कुर्सी कई बार हिली थी और उसने बहुत प्रयास से अपने को संतुलित किया था, परन्तु जब कुर्सी की सहनसीमा पार हो गई तो कुर्सीनसीन के मुंह से निकला, ‘’तुम भी इस तरह की वाहियात बातें मानते हो?‘’

मैंने नम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘’मानता सिर्फ यह हूं कि हम सभी को अपने ज्ञान क्षेत्र के भीतर ही अपने दावे करने चाहिए। भौतिक विवेचन भौतिक पक्ष तक सीमित रहे तो ही सबके हित में है।‘’

’’ठीक है। ठीक है। अपने विषय पर आओ।‘’

”मुझे सुनने का धैर्य बचा हो तो निवेदन करूं अन्यथा इसे कल के लिए टाला जा सकता है।‘’

अदालत ने कुछ कहा नहीं, फिर काठ के हथौड़े को काठ पर मारते हुए उठने का आभास दिया तो मुझे लगा, उसे मेरा प्रस्ताव उचित लगा है।

Post – 2016-06-10

बदहवासी सी बदहवासी है

“निवेदन यह है कि हम अपने चारो और जंगल बसा कर दरिंदो की फसल ऊगा कर उनके बीच सभ्य बने रहना चाहें भी तो क्या उनके हमलों के बीच सभ्य रह सकते हैं? हमें अपनी आधी शक्ति दरिंदों से अपना बचाव करने पर लगानी होगी, आधी उनको खत्म करने पर, और बकौल इसरानी गणित, बाकी की सारी अपने भविष्य को अधिक संभावनापूर्ण बनाने पर। हमने छोटे पैमाने पर, बड़े पैमाने पर और वैश्विक पैमाने पर ऐसी ही सभ्यता का निर्माण किया है। हम एक उपद्रवग्रस्त खुशहाली को सभ्यता मान कर अपने को सभ्य समझ लेते हैं।”

अदालत से रहा नहीं गया, “मैंने सोचा था, बीच में हस्तक्षेप न करूँगा, पर अब तुम शिक्षा से हट कर सभ्यता पर्व आरम्भ कर रहे हो तो याद दिलाना जरूरी लगा कि अपने विषय की सीमा में रहो।”

“मैं शिक्षा पर ही बात कर रहा हूँ जनाब, और शिक्षा की बुनियादी शर्तों को हम प्रकृति से सीख सकते हैं, क्योंकि अपने उचक्कापन में हम उनकी अवहेलना करते हुए अपना शिक्षा का सिद्धांत गढ़ते रहे, इसलिए हमारी शिक्षा भी षड्यंत्र बन कर रह गई ! और जहाँ तक आपके हस्तक्षेप का सवाल है, चूक मुझसे ही हुई थी जो यह शर्त लगा दी कि बीच में न बोलें! इसका नुक्सान यह कि मुझे पता तक नहीं चलेगा कि अदालत सुन रही है या गम्भीर समस्‍याओं से ऊब कर ऊँघने लगी है।”

इतिहास गवाह है कि तौहीन अदालत को बर्दाश्‍त नहीं, “अदालत कठोर शब्दों के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं देती। ये उचक्कापन क्या होता है?”

“यह नया पारिभाषिक शब्द है जनाब, इसे मैंने ‘ऊपर उठने के चक्कर में पड़े रहने की आदत’ के लिए गढ़ा है।”

अदालत को भी हँसी आती है और उसके साथ ही इस चूक को रोकने के लिए खीझ पर फटकार लगाना भी आता है, “संक्षेप में बात करो, शिक्षाशास्त्र में हमें प्रकृति से क्या सीखना है। शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान का तो लक्ष्‍य ही है प्रकृति पर विजय।”

“प्रकृति पर विजय नहीं, प्रकृति के रहस्यों को समझते हुए प्रकृति का दोहन। माँ को रिझाते हुए उसका दुग्धपान, न कि उसका संहार करते हुए उसका रक्तपान। ऐसा करने वाले प्रकृति को भी नष्ट करते हैं और अपना भी सर्वनाश कर लेते हैं। पश्चिमी सभ्यता ने अपनी आपाधापी में यही किया है और लाखों वर्षों के दुग्‍धपायी इतिहास में रक्तपान के अहंकार में सिर्फ दो तीन सौ सालों में ही प्रकृति को नष्ट करके अपने विनाश का सारा प्रबंध कर के बैठी है। इस उचक्कापन का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है। ”

“ठीक है! ठीक है! अपनी बात पूरी करो.” अदालत को अपनी बेवकूफी उजागर होने पर झेंप आने की जगह मुझ पर ही क्रोध आ रहा था.

“मैं पूरब और पश्चिम के इस अंतर को समझा दूँ तो आगे बढूँ। आप को पता होना चाहिए की हमारे पुराणों में उस पहेली का जवाब है जो हर्लन ने कृषि के उद्भव को लेकर उठाये थे कि जब मनुष्य अपने अविकसित औज़ारों से भी कुछ ही दिनों में वन्य अनाज को इकट्ठा करके पूरे साल के भोजन का प्रबंध कर सकता था तो उसने खेती की झंझट ही मोल क्यों ली?”

अदालत को यह विषयान्तर प्रतीत हो रहा था और इसलिए वह अपनी खीझ पर काबू करने का प्रयत्न कर रही थी.

“हर्लन ने इस बात का ध्यान नहीं रखा कि उसी अनाज के दावेदार दूसरे जानवर भी थे, कि मौसम सदा एक सा नही रहता और अतिशय चराई या असमय नोच चोंथ चलती रहे तो उर्वर क्षेत्र भी रेगिस्तान में बदल जाते है. पुराणों की इस प्रतीक योजना में कहा गया है कि धरती ने अनाजों को अपने भीतर छिपा लिया।उसे गोरूपा चित्रित किया गया है और कहा गया है कि मनु ने बछड़ा बन कर उसके दुग्ध का पान किया। तो हमारा विकास उचक्केपन का न था, प्रकृति के दुग्ध पान का था।”

बर्दाश्त की भी हद होती है, अदालत फट पड़ी, “मान गए भाई, दुग्धपायी संस्कृति है हमारी, पशुपालन और गो-उत्पादों का आरम्भ भी तुम यहीं दिखाओगे, पर शिक्षा के मामले में हमें प्रकृति से क्या सीखना था, जो नहीं सीख पाये?”

”कहना ये है की जीव जगत में और आदिम समाज में समानता और सामूहिक उल्लास और सहयोग का कारण यह है की वे सभी एक ही भाषा बोलते हैं और इसलिए उनका ज्ञान बराबर होता है. मामूली फर्क़ प्रतिभा का पड़ता होगा पर उससे उनके जीवन स्तर में अंतर नहीं आता ! सम्मान में अंतर होता है और यही उनकी परम उपलब्धि होती है. पक्षियों में कुछ मे अनुकरण की क्षमता अधिक होती है इसलिए इनके शावकों में से कुछ को चुरा कर मनोरंजन के लिए बेच दिया जाता है. उनके ग्राहक उनकी सारी ज़रूरते बैठे बिठाए पूरी करते हैं. वे उनकी बोली बोलते हैं और उनकी रखवाली करते हैं पर वे उस शिक्षा से वंचित हो जाते हैं जो उन्हें अपने परिवेश में मिला होता. इसलिए यदि उन्हें आज़ाद कर दिया जाए तो वे ज़िंदा नहीं रह सकते और पिंजड़े में बंद रहते हुए स्वर्ग सुख भोगते हैं पर न यह जानते हैं कि वे जो बोल रहे हैं उसका अर्थ क्या है, न यह कि उन्हें जो सुख-भोग मिल रहा है उसकी क्या कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है।”

“तम्हे मालूम होगा तुम क्या कह रहे हो? अदालत नहीं समझ पाई कि जो कह रहे हो उसका अर्थ क्या है और उसे इस मौके पर क्यों कह रहे हो? खुलासा करोगे? ”

“मैं कहना यह चाहता हूँ कि सामाजिक न्याय की सबसे पहली ज़रूरत शिक्षा की समानता है। शिक्षा की समानता के लिए शिक्षा की भाषा का मातृभाषा होना ज़रूरी है और इसके साथ ही यह कहना चाहता हूँ कि जिन लोगों को किन्ही कारणों से ऐसा पिंजड़ा मिल जाता है कि वे अपने समाज, देश, परिवेश और उसकी भाषा से कट जाते हैं और उन्हें इसी के बल पर अकूत भौतिक सुविधाएं मिलती हैं और वे अपनी जाति और प्रजाति से अपने को ऊपर समझते हैं, वे नहीं जानते कि वे अपनी ज़बान खो चुके हैं, जिनकी भाषा का अनुकरण करते हैं उसमें उनके कथन या वचन का अर्थ क्या है और यह तो वे जान ही नहीं सकते कि उनके द्वारा उन्हें जो सम्मान मिलता है उसका वैचारिक मूल्य शून्‍य और मनोरंजन मूल्य अकूत है। और मैं यह भी कहना चाहता था कि अदालत को मेरी बात समझने में इसलिए कठिनाई होती है कि उसे पता ही नहीं कि जब पूरा देश, आधा-अधूरा ही सही, आज़ाद हुआ तो न्यायपालिका ने अपनी आदत के कारण अपने तई, मालिकों का काला कोट, गाउन, विग, भाषा सब कुछ बरकरार रक्खा और सार्वजनिक घोषणा करती रही कि वह भारतीय समाज का मनोरंजन करने की कीमत पर भी अपनी आदत नहीं छोड़ सकती। जिसके पास अपनी आत्‍मा ही नहीं है वह सही न्‍याय कैसे दे सकता है?”

Post – 2016-06-09

9 जून 2016
कुर्सी का कद और टाट का दायरा

“मैने जीवों जंतुओं और वन्य जनों के दृष्टान्त से निवेदन यह किया था कि शिक्षा के बिना कोई भी जीव अपनी रक्षा नहीं कर सकता, इसलिए उसके दल के सदस्य अपने प्रत्येक सदस्य को अपने को हा‍‍नि पहुँचाने वालों को पहचानने, उनके आघात से बचने, अपने शिकार को पकड़ने और उसको खाने-चबाने, खाली समय में क्रीड़ा करने और आनंद लेने तक की शिक्षा देते है।

“यह अनिवार्य कार्य भार है जिसे उसका प्रत्येक सदस्य निभाता है और इसके कारण मामूली भेद के बाद भी, वे सभी लगभग एक जैसे दिखाई देते हैं और एक जैसे होते भी हैं। अंतर आता है तो कुछ लिंग, वय, व्याधि के कारण परन्तु वे अपने लम्बे जातीय अनुभव के आदान प्रदान से अपनी बीमारियों का इलाज करना भी जानते हैं।”

“मैंने वचन दिया था कि तुम अपनी बात कहोगे और मैं बीच में हस्तक्षेप नहीं करूँगा. पर जब बेवकूफी की बात करोगे तो टोकना तो पडेगा ही! जिनके पास भाषा ही नहीं वे विचारों और अनुभवों का आदान-प्रदान करते थे और उसे अपनी बाद की पीढ़ियों को हस्तांतरित करते थे, इससे बड़ी मूर्खता क्या हो सकती है?”

“आप जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उसका मैं आपके लिए इस उकसावे के बाद भी नहीं कर सकता. परन्तु आप जानते हैं कि कुर्सी सोच सकती है और उसके फैसले को आप मान सकते है और बोल कर सुना भी सकते हैं, दूसरों पर लाद भी सकते हैं, पर यह बात आपकी समझ में नहीं आ सकती कि जब काठ सोच सकता है तो जीवधारी क्यों नहीं। मैं यह कहना चाहता हूँ…”

“तुम्हारी बात मेरी समझ में आ गई, आगे बढ़ो। पर एक बात का ध्‍यान रखो। तुम हर चीज़ को अतिरंजना से भर कर अपने को यह विश्वास दिलाते हो की मैंने ऊँची बात कह दी और बाज़ी मार ली। इस आदत से बचो।”

” मैं कह रहा था कि पश्चिमी सभ्यता कुर्सी की सभ्यता है और अपनी टाट की। कुर्सी की ऊंचाई बढ़ने-घटने के साथ तथ्यों और साक्ष्यों के अर्थ बदल जाते हैं। टाट ऊँचा नहीं उठता, फैलता या सिकुड़ता है। वह टाट से बाहर के लोगों को टाट पर जगह देने के लिए कुछ फैलता है या पहले जो टाट पर थे उन्हें टाट से बाहर कर देता है। इसलिए सोचना टाट को नहीं उस पर बैठने वालों को पड़ता है।

“पश्चिमी सभ्यता में भौतिक सफलता को अधिक महत्व दिया गया है इसलिए सही और अधिक सही, कुर्सी की ऊंचाई और बटुए के आकार से तय होता है। उसका सदस्य यह सोचता है कि आज हमारे पास दौलत है, सुख समृद्धि का स्तर ठीक है इसलिए हम सदा से ऐसे ही रहे हैं। वही यह सोच सकता है कि मनुष्य के पास जो योग्यताएं हैं वे उसके पास सदा से रही है। मनुष्य के पास भाषा है इसलिए जिनके पास भाषा नहीं है उनके पास कोई संचार प्रणाली है ही नहीं और वह भी तब जब कि आंखों की भंगिमा और अंगचेष्टाओं के दूसरे संचारों को व्यक्तं करने में भाषा समर्थ ही नहीं। भारतीय चिंतक यह जानते थे, मानते थे और उसका लाभ उठाते हुए अपनी ज्ञान-व्यववस्था् को ऐसी उूंचाई दी थी जो अन्यत्र दुर्लभ है, कि सभी जीवों जन्तुओं और कीट पतंगों की कुछ ऐसी योग्‍यताएं हैं जिनसे दूसरे वंचित हैं। उनका अवेक्षण करते हुए उन्हों ने अपनी मेधा को हमारे लिए अज्ञेय उूंवाइयों तक पहुंचाया था। आज पश्चिम भी उन जीवों जन्‍तुओं की गतिविधियों का अध्ययन करके सीखने के लिए प्रयत्नशील है, परन्तु हम उन ऋषियों का उपहास करते हैं।‘’

कुर्सी सहमति में झूमने लगी, परन्तु मैंने कहा, ”कुर्सी ने अपनी ही मर्यादा तोड़ी और विषयान्तर किया है इसलिए आज विषय पर बात करूं भी तो कोई लाभ न होगा। इस पर कल बात करेंगे।”

Post – 2016-06-08

मयूर नृत्य’

‘’अदालत अगर बेजा भी कहे, सच न भी बोले तो भी वह जो कुछ बोल दे वह बजा और सच तो मान ही लिया जाता है, पर अदालत से क्या कहलवाना है यह अदालत नहीं तय करती, यह जांच करने वाला बीट का सिपाही करता है। जिसे फंसाना चाहे फंसा दे, बचाना चाहे उसे बचा ले। अदालत को रपट उसकी ही देखनी है और गुनहगार को गुनहगार जानते हुए भी उसे ‘पर्याप्त सबूतो के होने या न होने के आधार पर’ इतना सारा समय बर्वाद करके वही करना है जिसे बीट का सिपाही कुछ घंटों के सुलह सपाटे के बाद मुकदमा दायर करने के पहले ही कर चुका था। लेकिन मैं अदालत के सर्वशक्तिमान होने के भरम को तोड़ना नहीं चाहता। इस समय तो निवेदन यह है कि आप ने किस आधार पर यह मान लिया कि जिन वकीलों को सचाई को झूठ और झूठ को सचाई में बदलने की योग्यता के कारण न्याय का दलाल बना कर अन्याय करते हुए भी यह दिखावा करने के लिए कि न्याय हो रहा है, अंग्रेजों ने घुसाया वे ऋग्वेद न्‍याय विचार में भी होते थे।‘’

‘’अदालत अपनी जिम्मेदारी पर कोई काम नहीं करती, यह तुम्हें पता है ही, तो यह समझो यह जानकारी भी अदालत की नहीं है, उस शास्त्री के माध्यम से यहां तक पहुंची जो तुम्हें घास तक डालने को तैयार नहीं।‘’

‘’उसने कुर्सी को घास डाला और कुर्सी ने उसे खा कर पचा लिया, उसकी योग्‍यता सिद्ध करने के लिए इतना ही काफी है। मुझे अदालत उस घास से बचाए रखे! पर घास पचा जाने के बाद कुर्सी की समझ में जो कुछ आया उसे जरूर जानना चाहूंगा।‘’

’’वह बता रहा था कि ऋग्वेंद में राजदूत का भी हवाला है, दूत का भी हवाला है और किसी के मुकदमे की पैरवी करने वाले का भी हवाला है। ऊंट का पहाड़ से पाला पड़ने पर अपने कूबड़ को दुनिया की सबसे उूंची चीज मानने का उसका गरूर खत्म हो जाता है। तुम्हें पता है वकील के लिए अधिवक्ता शब्द डॉ रघुबीर ने वेद से ही निकाल कर हमें दिया था?‘’

बात इज्जगत की आ गई थी। मैंने कहा, ‘’डा. रघुवीर यह जानते थे कि उन्हीं पारिभाषिक शब्दों के अर्थ बार बार बदलते रहे हैं। एक ही शब्द में अर्थसंचार की इतनी संभावनाएं कैसे पैदा हुई यह भाषा-दर्शन का एक अहम सवाल था जिसे जांचने का प्रयास नहीं किया गया। हमारे पारिभाषिक शब्दों में जो सबसे सधे हुए शब्द है – दूत, वक्ता्, अधिवक्ता, विवेचन, समिति, सभा, सभासद, संसद, परिषद, निविदा, संविदा, ये सभी ऋग्वेद से आए हैं यह एक बार मैंने समझाया था! परन्तु, उनका अर्थ आज से कुछ भिन्न था और उनके अर्थवैभव का लाभ उठा कर उनको कुछ बदले अर्थ में प्रयोग किया जा सकता था। डा. साहब ने वहीं किया। अधिवक्ता उस भूमिका के लिए प्रयुक्त लगता है जिसमें भिन्न भाषा परिवेश में कारोबार के लिए जाने वाले वहां की भाषा से अपरिचित होने के कारण उस क्षेत्र में बसे और वहीं से अपने कारोबार का संचालन करने वाले अपने बन्धु ओं के माध्यम से अपनी बात दूसरे पक्ष के सामने रखते थे। यह एक तरह का दुभाषिया लगता है। ऐसे लोग हमारे ऋषियों मुनियों में भी रहे होंगे जिन्हे वे अपने साथ लेकर भी जाते थे! अ‍धिवक्‍ता की भूमिका में इन्द्र को, जो मघवा, महाधन और इसलिए बहुत बडे़ व्यापारी के प्रतिरूप है, रखा गया है। विदेशी व्यापारिक बस्तियों या धरती के स्वर्गों के प्रधान व्यापारी इन्द्र ही थे और उसकी ऐयाशी भी बाद के कालों के इन्द्र जैसी ही हुआ करती थी। प्रतिस्‍पर्धा में उभरने वाले नये उपक्रमियों के प्रति उनकी ईर्ष्‍या का और उन्‍हें गिराने के उनके प्रयत्‍न का रहस्‍य आज के पूंजीपतियों से समझा जा सकता है।‘’

अदालत को मेरे ज्ञान पर भी हँसी आगई, बोली, ‘’जैसे प्रदर्शनप्रियता के कारण मोर नाचने लगता है, उसी तरह पढ़े लिखे भी ज्ञानप्रदर्शन के चलते अपनी मौज में विषय से हट कर इधर उधर चक्कर लगाते हुए मयूर नृत्य करने लगते हैं। बात शिक्षा की चली तो अदालत पर आ गई और ऋग्वेद तक पहुंच गई। और अब तुम उसमें इतिहास और शब्द-मीमांसा भी जोड़ते जा रहे हो। चलो, अब जब मयूरनृत्य आरंभ ही हो गया तो उसे पूरा भी कर लो। आज कल नया रोग चल पड़ा है। जब तक हम वेद तक किसी चीज को पहुंचा नहीं देते हैं, तब तक अपने को विश्वास ही नहीं दिला पाते कि कोई चीज हमारी है। एक ऐसा ज्ञानी जत्था तैयार हुआ है जो आधुनिक विज्ञान की नई खोजों को भी ऋग्वेद में तलाश लेता है।‘’

मैं दबाव मे नहीं आया, ‘’इस पर अचरज इसलिए है कि अदालत ऋग्वेद के विषय में कुछ जानती नहीं, और कर्तव्य के रूप में केवल यह जानती है कि जब भी वेद के विषय में कोई बड़ा दावा किया जाएगा, उस पर यह सोचकर हंसना शुरू कर देंगे कि इतना पहले यह हो ही नहीं सकता था। परन्तु सच यह है कि बाद के विकासों के प्राथमिक रूप बहुत प्राचीन काल से ही मनुष्य की जानकारी में रहे हैं और उनकी कुछ ऎसी उपलब्धियां भी रही हैं जिनके रहस्य को हम आज तक नहीं उजागर कर पाये । बुढ़ापे से मुक्ति पाने के तरीके आज भी खोजे जा रहे है और यह खोज वेद से पहलेे से जारी थी और उस चरण पर समाधान भी तलाश लिया गया था यह च्‍यवन के बूढ़े से युवा बनाए जाने की कथा में ही नहीं है, उस अवलेह में भी है जो उनके नाम से आज त‍क चला आ रहा है। इसे कोई कहे कि आधुनिक शोध को देख कर कल्‍पना से गढ़ कर वेद में घुसा दिया गया या उस कथा का अतिपाठ किया जा रहा है तो उचित न होगा। हमारी सभ्यता की जड़ें दस बारह हजार साल पुरानी हैं, और इनकी केशिकाएं उससे बहुत बहुत पीछे जाती हैं। ऋग्वे्द पांच छह हजार सालों के विकास के एक युग का शिखर बिन्दु है। उसके बाद आता है ढलान और बिखराव का काल जिसमें हजारों साल ‘हाय वेद! हाय वेद! हाय हमारे रिसी मुनी !’ की आहें सुनाई देती हैं, जैसे किसी का कुछ लुट गया हो, खो गया हो और वह बावलों की तरह उसकी तलाश में तड़पते हुए उसकी चिन्दियां सहेज रहा हो। जो बचा नहीं, जिसकी क्षीण याद ही बची रह गई है उसकी खोज कर रहा हो। ऋग्वेेद काल की समस्त उपलब्धियां वेद की कविताओं में नहीं मिल सकतीं परन्तु उनमें से कुछ का आभास हमें उनमें मिल सकता है। हमें पहले उसकी खोज करनी चाहिए, उसे समझने का गहन प्रयत्न‍ करना चाहिए और उसके बाद जितना उपलब्ध हो सके, जिस स्तर का वह पाया जाय उसे अभिलिखित किया जाना चाहिए। उसके बाद ही हम यह कहने का अधिकार पा सकते हैं कि कौन सी बात अतिरंजित है, या निरा दिवास्वलप्न है। हमने उल्टे सिरे ये यात्रा आरंभ की। जांचने परखने से पहले ही फेंकने, मिटाने और उपहास करने का काम किया, इसलिए अतिरंजना उसी की क्षतिपूर्ति है। अतिरंजना करने वालों से बड़े अपराधी हम है।”

’’ मैं जिस आगजनी की बात कर रहा हूं वह लंबे समय तक, कई पीढि़यों तक चलने वाला प्रचंड निदाघ और अनिश्चित वर्षा और सूखे से पैदा दुर्भिक्ष था जिसमें पहले की सभी उपलब्धियां नष्ट हो गई। जिस बिखराव की बात कर रहा हूं वह उसी का परिणाम था जिसका एक सिरा आज के तुर्की से जुड़ा रहा है। उसी का आखिरी सिरा ग्रीक सम्य ता के उत्थान से जुड़ा रहा है। जिस तरह आधुनिक विकासों का इतिहास तलाशते हुए यूरोपीय विद्वान ग्रीस तक पहुंचते हैं उसी तरह उससे भी पीछे की यात्रा करते हुए हम ऋग्वेवद तक पहुंच सकते हैं। भारतीय दर्शन, चिकित्सां, विज्ञान आदि ही नहीं, वेशभूषा तक में भारत से ग्रीक सादृश्यों की बात अक्सर की जाती है और फिर पश्चिमी आतंक के कारण उसे दरकिनार कर दिया जाता है। दरकिनार किसी चीज को नहीं किया जा सकता। यह सत्य की एक महत्पूर्ण कड़ी को जान बूझ कर तोड़ने और फेंकने जैसा है! इससे बौद्धिक बदहवासी पैदा होती है जिसका शिकार आज का बुद्धिजीवी वर्ग है।‘’

‘’यह तो सही है परन्तु तुम शिक्षाव्य्वस्था की बात करने चले थे और तुम्हा्री चर्चा में वही गायब है।‘’

“आज का दिन तो मयूर नृत्य में निकल गया, परन्‍तु यह नृत्‍य भी विषय की परिधि पर ही था। कल विषयान्तर न होने पाये इसका ध्यान अदालत को रखना होगा। ठीक?‘’

अदालत को यह मंजूर था । अब तो कल की कल ही देखी जाएगी।

Post – 2016-06-07

बजा कहता हूं सच कहता हूं

‘’तुमको नागर प्रक्रिया संहिता और दंडविधान प्रक्रिया संहिता से शिकायत थी। तुमने इसे न्याय का कर्म कांड बताया था जिसके बिना न्याय अधिक आसानी से मिल सकता था।‘’

’’बताया था नहीं, आज भी यही मानता हूं।‘’

’’तुम मध्यस्थ के रूप में वकालत के पेशे के भी विरु’द्ध थे।‘’

’’था नहीं आज भी हूं, माननीय।‘’

’’तुम्हें यह पता है तुम अपनी बयानबाजी में कितनी बकवास करने, अदालत का कितना समय बर्वाद करने के बाद भी बहुत कम बातें कह पाते हो और यदि तुमने इतना समय बर्वाद न किया होता तो मुझे किसी निर्णय पर पहुंचने में चौथाई समय लगा होता और न्याय प्रक्रिया चार गुनी तेजी से बढ़ रही होती।‘’

मेरी उूपर की सांस उूपर और नीचे,नीचे। उसकी टिप्पणी इस समय सोलह आने और सौ पैसे सही लग रही थी। इस समय सिंहासन बत्तीसी का असर साफ दिखाई दे रहा था। मुझसे सीधे हामी तो न भरी गई, पर मिमियाते स्वर में आधी सहमति दिखाई, ‘’हो सकता है।‘’

’’दोष तुम्हारा नहीं है। सभी वादी, प्रतिवादी, गवाह यही करते हैं। फालतू बातों का पहाड़ लगा देंगे जिसमें उनकी ही बताई सचाई दब कर रह जाएगी। प्रक्रिया इसे रोकने के लिए बनाई गई है और प्रक्रिया से सभी अवगत हों तभी अपनी फरियाद करें या बचाव करें, यह संभव नहीं, इसलिए वकीलों का यह पेशा बनाया गया है जो प्रक्रिया को जानता हो, उनकी बात समझ कर उसे सही, सटीक और संक्षिप्त रूप में रख सके और अदालत का बहुमूल्य समय बचा सके जिससे वह अपना ध्यान बाकी बचे मुकदमों की ओर देने का समय पा सके।

’’अदालत अपने समय को बहुमूल्य मानती है और कई बार तुम लोगों को ही इसकी याद दिलानी पड़ती है। तुम इसका भी मजाक उड़ाते हो।‘’

मैं अब तक इतने दबाव में आ गया था कि मुझसे न हां कहते बना न ना।

‘’अदालत अपनी प्रेमिका से मिलने या बच्चे खाने की मेज पर प्रतीक्षा कर रहे होंगे, इसके कारण अपने समय को बहुमूल्य नहीं मानती, जैसा तुम कर सकते हो या सोच सकते हो, वह इस बात के लिए चिन्तित रहती है कि यह नालायक मेरा इतना समय बर्वाद कर रहा है जब कि ‘न्याय दो ! न्याय दो!! का आर्तनाद करने वालों की गुहार लगाने वालों की कतार लंबी होती जा रही है और उनमें से कुछ थक कर बेहोश होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।‘’

इस तरह तो मैंने सोचा ही नहीं था। लेकिन प्रकट स्वीेकार का अपमान झेलने को तैयार न था इसलिए दीवारों को देखने लगा।

’’तुम्हें पता है, वकालत का पेशा कितना पुराना है?”

मेरी बाछें खिल गईं। उस पस्त हिम्मती के दौर में यह एक ऐसा सवाल था जिसका उत्तर मैं जानता था और यह भी जानता था कि यह मेरा मनोबल बांसों उुपर उठा देगा। मैंने उमंग भरे स्वर में कहा, ‘’यह सब ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन है।‘’

’’ब्रिटेन और अमेरिका में भी यही चलन है। यह किस उपनिवेशवाद की देन हो सकती है?”

मैं इसकी आशा करता होता तो या तो ऐसा जवाब न देता, अथवा घर से फर्स्ट एड का किट लेकर अदालत पहुंचा होता। यह बात दूसरी है कि उस किट को छिपा बम समझ कर चेकिंग पर ही धक्का दे कर बाहर कर दिया गया होता और मैं अदालत का सामना ही न कर पाता। मेरी गति क्‍या थी यह मैं बयान तो नहीं कर सकता पर आप कल्पनाशील हैं तो उसकी कल्पना अवश्य कर सकते हैं।

‘’वकालत के पेशे का इतिहास मालूम है तुम्हें ?”

जब ब्रितानी काल से पीछे इसको संभव ही न मानता था तो इतिहास क्या जानता।

”तुम्हें पता है यह पेशा ऋग्वेद के समय में भी था और हमारी प्राचीन गणसमाजी न्याय’व्यवस्था में भी इसका अस्तित्व‍ था।‘’

मैंने कहना चाहा ‘सर, अभी तक तो आप ऐसे दावों के लिए मेरा उपहास किया करते थे, अब अपनी जगहंसाई क्‍यों कर रहे हैं ?’ कि तभी अदालत का आदेश सुनाई पड़ा, ‘केस की पूरी तैयारी के साथ कल आना।”

Post – 2016-06-06

यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात

‘’ कुछ तो मेरी आदत है और कुछ अदालत के रुतबे का असर, मैं जो कहना चाहता हूं उसे ही अक्सर भूल जाता हूँ या जिस तरह रखना चाहिए उस तरह रख नहीं पाता । मैं शिक्षाविदों के ज्ञान का अवमूल्यन करने के लिए वन्य जनों और अन्य जीवधारियों की शिक्षा को अधिक श्रेयस्कर नहीं बता रहा था।‘’

’’अदालत के पास इतनी समझ है! उसे पता है कि तुमको शिक्षाविदों से नहीं, शिक्षाप्रणाली से शिकायत है और तुम इसे नष्ट करके आदिम समाजवाद लाना चाहते हो जिसमें शिक्षित कोई रह न जाय इसलिए‍ शिक्षित और अशिक्षित का भेद समाप्त हो जाए और मानव समाज उस तरह की बराबरी पर उतर जाए जो जंगली कबीलों और जीवों जन्तु ओं में पाई जाती है।‘’

’’कुर्सी की शान कि वह कुछ ऊँचा सुनती है, उूंचा देखती है, ऊँचा हांकती है, ऊँचा समझती है और ऊँचा बोलती है जो अपना दुखड़ा मिमियाने वालों को दहाड़ की तरह सुनाई देती है, इसलिए अदालत ने जो समझा उसको समझने की औकात हमारी नहीं है। अदालत इतना ऊँचा सुनती और समझती है कि उसे अक्सर किसी बात को समझने में इतना समय लग जाता है कि उसे समझाने में कई वकील बदल चुके होते है, अदालत की कुर्सी पर कई बैठने वाले इधर से उधर हो चुके होते हैं और कई बार तो न्याय की गुहार लगाने वाला दुनिया से उठ चुका होता है, और इन बदलावों के चलते उसकी समझ का स्तर क्रमश: ऊपर पर उठता हुआ इतना ऊपर उठ चुका होता है कि उसका वारिस तक तलाशे नहीं मिलता फिर न्याय कैसे मिल सकता है और अदालत दे भी दे तो किसे मिल सकता है? न्याय के विलम्ब का लाभ अन्यायी को मिलता है, इसे समझते हुए भी अदालत मान नहीं पाती। इसलिए पुराने जमाने में जब अदालत नहीं थी तो लोग गुहार लगाते थे कि हे भगवान मुझे इस अन्यायी से बचाओ, और अब गुहार लगाते हैं हे भगवान मुझे अदालत से बचाओ। मैंने गुस्ताखी की हो तो क्षमा करें, पर क्या कुछ गलत कहा मैंने?’’

अदालत ने बुरा नहीं माना था, क्यों कि उसे पक्का विश्वास था कि मैं उसके इक्बाल की बुलन्दी के कसीदे पढ़ रहा था। उसने हामी में सिर हिलाया और होठों को जबान बनाने की कोशिश में यूं टेढ़ा किया कि जिसका अनुवाद था, ‘बोलते जाओ, अच्छा लग रहा है।‘

‘’अदालत की समझ की बुलन्दी कैलाश के शिखर तक पहुंचे! उसे समझाने के लिए विश्व का विधान करने वाले विधाता भी उतर आएं तो किसी अदालत को कुछ समझा नहीं सकते, फिर मेरी क्या औकात! मैं तो सिर्फ निवेदन कर सकता हूं कि मैं शिक्षा प्रणाली की जगह शिक्षा व्यवस्था की बात कर रहा था।‘’

कुर्सी की समझ में नहीं आया कि शब्दों के इस मामूली हेर-फेर से मैं कहना क्या चाहता हूं। मैंने कुर्सी की मदद के लिए पूछा, ‘’क्या प्रणाली का अर्थ कुर्सी को मालूम है?”

कुर्सी को मालूम था, ‘’प्रणाली का मतलब सिस्टम और सिस्टम का मतलब प्रणाली। इसमें समझने की बात कहां से आ गई?”

मैंने नम्रता से कहा, ‘’आना चाहे भी तो आने न दूंगा, पर लोग कहते हैं नाली का मतलब नली या पतली धारा होता है, परनाली का प्रयोग नहीं करते पर परनाले का प्रयोग करते है, घर के नाभदान को भी परनाला कह देते हैं।‘’

कुर्सी को भी भाषा पर कुछ अधिकार था, बोली, ‘’नाभदान नहीं नाबदान बोलो, यह फारसी का शब्दे है।‘’

मैं निवेदन ही कर सकता था, ‘’कुर्सी गलत हो ही नहीं सकती, पर इसमें नाब नाभि या केन्द्रीय क्षेत्र (आंगन) का तद्भव है और दान तो कुर्सी के काठ तक को पता होगा कि दोनों में यहां एक ही अर्थ रखता है, अपने से मुक्त करके किसी अन्य के सुपुर्द करने वाला। सो मेरी अल्पमति में नाभदान का अर्थ हुआ आंगन के पानी को बाहर निकालने का रास्ता जिसे परनाला भी कह दिया जाता है। अब कुर्सी यह भी समझना चाहे तो समझ आ जाना था कि फारसी के शब्द उसी तरह अपने हैं जैसे अपनी बोलियों में संस्कृत शब्दों के परिवर्तित रूप और इस तरह के छोटे छोटे टुकड़ों में यह इबारत साफ लिखी है कि ईरानी या फारसी की भाषा अपभ्रंश है और इस बात का प्रमाण भी कि अपभ्रंश हो या बोलियां अवसर मिलने पर किसी को क्लासिकी ऊँचाई तक पहुंचाया जा सकता है।‘’

कुर्सी कुछ उचकी, उसकी आंख कुछ फैली जिससे विश्वास हुआ उसकी आंख काम कर रही है और फिर अपने नार्मल पर आ गई। ”मतलब तुम अदालत का समय जाया करने के लिए उसे भाषाविज्ञान पढ़ाने लगे?”

मैंने निवेदन किया, क्योंकि यही मैं कर सकता था, ‘’कुर्सी को कुछ पढ़ाने की हिम्मत मुझमें हो भी सकती है ! मैं तो यह आशा कर रहा था कि कुर्सी के प्रताप से अदालत को स्वयं समझ में आ जाएगा कि प्रणाली या परनाली परनाले से भी संकुचित होती है। शिक्षा प्रणाली आरंभ से ही शिक्षा का प्रसार करने के लिए कृतसंकल्प नहीं थी। उसका प्रयत्न शिक्षा को एक नितान्त सीमित समुदाय तक रोक कर रखने की थी। जिस समाज में शिक्षा, किसी भी कारण से, बहुत छोटे से समुदाय तक सीमित कर दी जाए क्या उसमें शिक्षा से वंचितों का अपना जंगल राज कायम न रहेगा?”

कुर्सी कुछ डगमगाई पर चारों पायों पर जम गई, ‘’तुम समझते हो हमारे समाज में जो अपराध हैं, कदाचार हैं, ऐसे आचरण हैं जो अवांछनीय हैं पर अपराध की कोटि में नहीं आते फिर भी जिनसे हमारा समाज प्रभावित होता है, वे सब हमारी शिक्षा प्रणाली के कारण है?”

मैं इस बात पर हैरान था कि अपनी मूढ़ता के बाद भी मैं कुर्सी तक को यह समझाने में सफल हो गया। पर डर था नासमझी की कई मंजिलों को पार करने के बाद लोग अन्तिम कुर्सी और अन्तिम न्याय तक पहुंचते है जो न्याय की परिभाषा बदल देता है । हमारा न्याय अन्यायियों को अपने बचाव का भरपूर मौका देने के लिए बना है जिसमें अन्यायी अपने को संतप्त और संतप्त को अत्याचारी सिद्ध कर सकता है। कुर्सी की आवाज आदमी की आवाज से अधिक उूंची होती है, कई बार सही भी, उसकी दहाड़ सुनाई पड़ी, ‘’तुम्हें शिक्षाप्रणाली पर बात करनी थी और तुम न्याय प्रणाली की कमियां बताने लगे। तुम्हें पता है तुम किसका केस ले बैठे हो।‘’ ऐसा तेवर तो आज तक किसी कुर्सी का देखा ही नहीं था।

मैंने समझाना चाहा कि अन्याय के क्षेत्र नहीं होते, जब होता है तो घर और घोंसले तक पहुंच जाता है और न्याय की कोई सीमा नहीं होती। वह होता है तो सार्वदेशिक और सार्वभौम होता है।‘’

कुर्सी की समझ में क्या आया, क्यों आया, जो समझ में आया वह कब तक टिका रहेगा, इसे जानने के लिए यह जानना जरूरी है कि वह बनी किस काठ की है, टंगी किस काठ पर है और अगर लुढ़के तो उसे बचाने वाला कोई काठ होगा या नहीं। मैं स्वयं भ्रमित था इसलिए अगले दिन की मोहलत ली और इस संतोष के साथ लौटा कि कम से कम आज का दिन तो अच्छा गया।

Post – 2016-06-05

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी

जो बात अपने बाहुबल पर गर्व करने वाले गद्य के संभाले नहीं संभलती, उसके पांव डगमगाते देख यह नाजनीन कविता सामने आ जाती है, लाओ, इसे मैं काबू में करती हूं। जो किला तुम्हारे प्रहार से फतह न होगा, उसे मैं अपनी मुस्कराहट से फतह कर लूंगी, एक कटाक्ष से कर लूंगी, और उससे भी काम न बना तो हाइड्रोजन बम कैसे काम में लाया जाता है यह रहस्य तो हमें ही पता है।

कविता की शक्ति और अपने गिट्टों की नुमायश करने वाले गद्य की असमर्थता को यदि स्त्रियों ने समझा होता तो नारीवादी आन्दोलन के तहत वे हर मानी मे पुरुष बनने की होड़ मे आ कर अपनी महिमा को कम नहीं करतीं। इस तरह के विचार पहली बार एक संकट के कारण आए और उसको व्यक्त करने के लिए गद्य जवाब दे गया। तुकबन्दी इस रूप में सामने आई:

सोचा न कभी मैंने दिन यह कभी आएगा
सुनने को मिलेगा यह, कहने को बचेगा यह ।

आज फेसबुक पर एक लंबी बहस से गुजरने को बाध्य होने के बाद सहज भाव से ग्‍लानि और क्षोभ के मिश्रित घोल के शब्दबद्ध होने का परिणाम थीं ये पंक्तियां और उसके बाद इसके शीर्षक के रूप में वह पंक्ति याद आई।

मैंने जो जीवन, जिस विनय और दर्प की संधि रेखा पर जिया है, उसका दूसरा उदाहरण नजर आता तो कहीं नतशिर होने का सौभाग्य तो प्राप्त होता। उसकी चर्चा इस क्लेशकर क्षण में भी नहीं। मेरा क्लेश नया नहीं है। उभरता है तो टीस पैदा होती है। मार्क्संवाद का मजाक उड़ाते समय भी मैं अपने को मार्क्सवादी कहता हूं तो एक खतरा उठा कर। मार्क्सवादियों की जमात में मेरे लिए जगह बची रह नहीं सकती और उसके विरोधियों को अपना मानता नहीं, न वे मुझे अपना मान सकते हैं, पर जिसे मैं मार्क्सवाद मानता हूं उसके सिद्धान्तों के आधार पर मार्क्स तक को गलत पाता हूं तो क्षमा नहीं करता। इस कसौटी पर मुझे दूसरा कोई अनुकरणीय नहीं मिला और यही मेरा मार्क्सवाद है, और कई बार मैं अपना मजाक उड़ाने की चुनौती देते हुए अपने को अकेला मार्क्सवादी कहता हूं कि कम्बख्तो अब तो मेरे परखचे उड़ाओ, आलोचना करो और जो भी चाहो सिद्ध कर दो।

इसका साहस आज तक किसी मार्क्सवादी को क्यों न हुआ? क्यों न किसी ने मेरे लेखन से ऐसा कोई तथ्य निकाला जिससे यही सिद्ध किया जा सकता कि मैं उन सिद्धान्तों में से किसी पर लचर साबित होता हूं जिन्हें मार्क्सवादी दर्शन का मूलाधार कहा जा सकता है? इसके विपरीत मैं उन्हें भाववादी, मार्क्सवाद विरोधी और अवसरवादी यहां तक कि घटिया सौदेबाज या आत्मविक्रयी तक कहता रहा हूं। किसी को तो उन आरोपों का उत्तर देना था। नहीं दिया! चाहा, प्रयत्न किया पर नहीं दे सके। उसका व्या ख्यान भी आत्मप्रशस्ति बन जाएगा इसलिए उसे छोड़ा जा सकता है।

हाल में मुझे खेद इस बात को ले कर हुआ कि मेरे कुछ मित्रों ने दो गलतियां कीं। एक तो मेरी अहैतुक प्रशंसा, जब कि मैं याचना के स्वर में अपनी कमियों की ओर ध्यान दिलाने का अनुरोध करता हूं। दूसरे एक ऐसे आदमी को जो स्वयं अपने ही लेखन से यह सिद्ध कर चुका कि उसने मेरी कोई कृति पढ़ी ही नहीं, जनसत्ता में मेरी पुस्तक की समीक्षा की कल्‍पना कर ली, जिसमें उस पर कुछ प्रकाशित हुआ ही न था, एक ऐसे सिरफिरे द्वारा लिखी समीक्षा कहीं पढ़ी, और फिर किसी प‍त्रिका में उसी लेखक द्वारा उसी की आव़त्ति दूसरे रूप में देखी। मैं उस लेखक का आविष्‍ट नृत्‍य देखता रहा जिसे देखने और सराहने वाले न थे और वह अकेला घूम घूम कर नाच रहा था।

क्‍यों ? क्‍योंकि वह पुस्‍तक कोसंबी के वैदिक अध्‍ययन के खोखलेपन को उजागर करने के लिए लिखी गई थी जिन्‍हें मार्क्‍सवादी इसलिए अकाट्य मानते रहे कि उनमें किसी को न संस्‍कृत का ज्ञान था, न वैदिक की समझ। यदि यह कमी यह समीक्षक पूरा कर पाता तो उसका प्रतिवाद करने का औचित्‍य होता।

जिस लेखक की आलोचना का हवाला था वह अंग्रेजी में लिखने की योग्‍यता हासिल होने के कारण हिन्दी लेखकों को ‘हिन्दीि वाले’ लिखता है, जो दूसरी कई सीमाओं से ग्रस्त है जिनमें सबसे प्रधान है ‘अब मैं अग्रेजी में भी लिख और छप जाता हूं, हिन्दी् वाले मेरे सामने क्या हैं, पर जिसकी आज तक कोई पुस्‍तक न साहित्‍य पर देखने में आई न पत्रकारिता पर।

इस विवाद में एक ऐसे लेखक ने जिसकी किसी कृति का परिचय मिले तो पता चले उसका बौद्धिक स्तर क्या है, कुछ बचकानी बातें कीं। वह उस समीक्षा के बारे में कहीं से सुन सुना कर उस पुस्‍तक को ही खारिज कर रहा था, जिस पर वह समीक्षा भी न थी और यह तक न जानता था कि वह समीक्षा कहां छपी थी। ऐसे गैरजिम्‍मेदार व्‍यक्ति को गंभीरता से लेते हुए वाद प्रतिवाद की ऐसी वैतरणी बह चली कि मुझे भी एक स्तर पर उसमें हाथ डालना पड़ा। उसने स्वयं बता दिया कि वह पढ़ने और जानने समझने की झंझट मोल नहीं लेता, कहीं कोई इबारत पढ़ ली, काम की लगी तो उसका इस्तेमाल कर लिया।

सूचना के लिए बता दें कि भावुक अतिरेक भरी वह समीक्षा पहली बार हिंदू में छपी , फिर वह विस्तार से समयान्‍तर में छपी जिसके संपादक और उसकी समझ पर चुप रहना अच्‍छा है। मेरे मित्र का‍न्तिमोहन ने उसकी प्रति सुलभ कराते हुए जानना चाहा कि कैसी लगी। यह सोच समझ कर मेरे पास भेजी गई थी इसलिए मैंने उसे पढ़ कर चुप लगा लिया। कान्तिमोहन वही व्यक्ति हैं जो मेरे संवादों में प्रतिपक्ष या मेरे प्रतिवादी मित्र बन जाते हैं। वह मेरा लिखा पढ़ते तक नहीं, कि कहीं अपनी मान्यता न बदलनी पड़ जाय पर मैत्री सचमुच ऐसी जो विरोध के बाद भी पचास साल से निभती जा रही है। मेरे और उनके परिवार के सदस्यों को छोड़ कर कोई दूसरा इस रहस्य को जानता तक नहीं कि मेरा प्रतिवादी काल्‍पनिक नहीं है और जिद के मामले में मैं अतिरंजना से काम नहीं लेता। पर जब मुझे खिझाने के लिए उसने पूछा, कैसा लगा, तो मैंने कहा, पहले पत्रिका संपादक से पूछ लो, इसका जवाब लिखूं तो वह छापेगा भी।

उसने पूछा तो पता लगा यह संभव नहीं है।

परन्तु मेरे लिए यह संभव था कि एक आदमी अपनी उपेक्षा से तिलमिलाकर हिंदी में ऐसे कोने में लिखता है जहां पूर्वाग्रह इतने प्रबल है कि आरोप छप सकता है उसका निराकरण छप नहीं सकता और चर्चा में आने के लिए ऐसे अवसरवादियों तक को पटा सकता है जो बिरला परिवार के पुरोहित, अभी पता चला किसी कंपनी के पदाधिकारी और कम्‍युनिस्‍ट एस साथ हो सकते हैं। तर्कहीन और तथ्‍यहीन आरोपों का जवाब नहीं देता। मैं यह देखता हूें कि क्‍या वह व्‍यक्ति उस विषय को जानता है या नहीं। यदि नहीं तो उसे लाजवाब ही रहने देना चाहिए। परन्तु कोई सूचना कहीं से आए, हितकारी होती है। उसने अपने भर्त्‍सना लेख में केवल एक बात होश में लिखी थी और बताया था कि अमुक संस्था का नाम अमुक था। मैंने अगले संस्करण में उसे ठीक करके उसे इसके लिए उसे धन्यंवाद भी दिया था। पर इससे आगे।

मेरे विषय में जो कुछ कहा गया उससे मैं प्रभावित नहीं हूं, पर जो लोग उत्तेजित हो जाते हैं उनसे मैं एक निवेदन करना चाहता हूं। क्या आपको पता है कि आपको फेसबुक के माध्य म से कितना श्लाघ्य सभागार मिला है जिसकी गरिमा आपके संयत आचार से बच सकती है और आपकी अभद्रता से नष्ट हो सकती है। हमारे युग में लोग एकल परिवार होने के कारण अपने बच्चों को अधिकाधिक प्या्र देने लगे हैं जिसके चलते बच्चा अपने पिता को पिता नहीं अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला नौकर समझने लगता है और अपने पितरों के साथ उसके रुख में कुछ बदलाव आने लगता है। स्नेह वश हम अपने अबोध बच्चे को अपना मोबाइल, टीवी का रिमोट, लैपटाप ही नहीं, सड़क पर उतरने वाली गाडि़यां तक समर्पित कर देते हैं। वे उसे खिलौना समझ कर मनमाने प्रयोग करते हैं जिससे उनका बौद्धिक ह्रास आरंभ होता है। हम फेस बुक का प्रयोग क्‍या उन नादान बच्‍चों की तरह नहीं कर रहे हैं। फेसबुक के सभासद बन कर हम अपनी भाषा और विचार में अल्पतम गरिमा का निर्वाह किसी के समर्थन या निन्दा में करें, क्या यह अधिक उचित न होगा। यह मात्र एक निवेदन है वर्ना आजादियां तो यहां अकल्पकनीय हैं। आलोचना हो, तर्क संगत हो, इस अधिकार के साथ हों कि आप विषय को जानते हैं, या इस नम्रता के साथ कि आप जो लोग जानते हैं उनसे कुछ सीखना चाहते हैं। कितना बड़ा मंच है, निर्व्‍याध प्रवेश, पर प्रवेश के बाद मर्यादा का ध्‍यान तो रखें।

Post – 2016-06-04

अदालत का बहुमूल्‍य समय

‘’अब तुम यह समझने में मेरी मदद करो कि हमारी शिक्षा प्रणाली में क्या कमी है जिसके कारण तुम्हें लगता है जानवर और वन्य जन भी अपनी संतानों को हमसे अधिक अच्छी तरह शिक्षित कर लेते हैं।

‘’एक विडंबना है कि हम जिस भौतिक समृद्धि के लिए प्रयत्न करते हैं, वही मनुष्य को गुलाम या नैतिक रूप में अधिक पतित बनाती है। दुनिया का कोई समाज पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। शिक्षा संस्थाओं का जन्म ही मनुष्य को गुलाम बनाने के लिए हुआ। आदिम समाजों में भी शायद ही कोई हो जो अपनी आदिम पवित्रता की रक्षा कर सका हो। उन पर भी सामाजिक संपत्ति को निजी संपत्ति बना कर दूसरों से अधिक सुखी होने की सभ्य कहे जाने वाले समाज की छाया पड़ी है और उनमें शिक्षा की संस्थाएं भी विकसित हुई हैं। नैसर्गिक शिक्ष उनकी तुलना में पशुओं में अधिक सु‍रक्षित है।‘’

‘’मैं पहले से जानता था कि जो बार बार इतिहास की दुहाई देता है वह पीछे लौटता हुआ उस चरण पर पहुंच जाएगा जहां उसका आदर्श समाज जंगल राज का उदरंभर जत्था बन कर रह जाएगा। उसे हमारी न्याय प्रणाली से अधिक आकर्षक मत्‍स्‍य न्याय या जिसकी लाठी उसकी भैंस का न्याय लगेगा। कहो तुम इंसानियत को खत्म करके हैवानियत को जगह देना चाहते हो और हैवानियत को भी पशुता के आदर्श पर ले जाना चाहते हो। गलत कहा?”

‘’जिस कुर्सी पर आप बैठे हैं उस पर बैठ कर आप गलत कुछ कह ही नहीं सकते, क्योंकि सिंहासन बत्तीसी के न्‍याय से आप गलत कहें तो सही की परिभाषा बदल जाएगी और पहले का सही गलत और पहले का गलत सही सिद्ध होने लगेगा। बस आपके मनोरंजन के लिए एक छोटा निवेदन करना चाहता हूं उसे आपने मान लिया तो वह सच आगे भी सच ही बना रहेगा और न माना तो विडंबना देखिए कि मति आपकी मारी गई और किस्मत मेरी फूटी। इजाजत है?”

‘मति मारी गई के मुहावरे पर कुर्सी कुछ ऐंठी जरूर थी पर अदालत को उसी समय याद आया कि उसे वकील और जज दोनों के अधिकार डेलीगेट किए गए हैं और वह यह तय न कर सकी कि यह मुहावरा किस हैसियत को संबोधित है इसलिए उसने मुस्करा कर कुर्सी की अकड़ ढीली कर दी और हामी में सिर हिलाया।

’’निवेदन केवल यह है कि हमने सभ्‍यता की दिशा में बढ़ते हुए जीवों, जन्तुओं से लगातार सीखा है और इस तरह अपने उन अभावों को प्रयास से या यन्त्रविधान से दूर करके असंभव को संभव बनाया है। आप जानते हैं, हमारा योगाभ्यास सांपो के श्वास निस्वास के बारीक अवलोकन का परिणाम है जिसमें दूसरे पशुओं की अंगचेष्टाशओं के अनुकरण और उससे होने वाले लाभों का समन्य है। हवाई जहाज के डैनों का निर्माण हो, या राडार प्रणाली हो या मनुष्य के लिए असंभव पर कुछ प्राणियों के लिए खतरे से पहले बचने के संकेत को समझने और उससे सुनामी और भूचाल जैसी समस्याओं के पूर्वानुमान का उपाय तलाशना हो हम पशुओ ही नहीें कीड़े मकोड़ों के व्‍यहार की कुछ बातों को उपयोगी पा रहे हैं।

‘’अदालत का समय मूल्य वान है फिर भी उसकी समझ में सुधार उससे भी अधिक जरूरी है इसलिए यह याद दिलाना चाहूंगा कि कठमुल्ले दो तरह के होते हैं। एक वे जो अतीत के किसी शून्यकाल की तलाश करके उसी शून्याकाल से चिपके रहना या अपनी वर्तमान समस्याओं से घबरा कर उसी शून्य काल के आचार-व्यवहार की ओर लौटना चाहते हैं, और दूसरे वे जो अपने आधुनिक ज्ञान से इतने अभिभूत होते हैं कि अतीत की ओर देखना तक नहीं चाहते हैं, देखने वालों को उसी अवस्था को आदर्श मानने वाला, वैसा ही जीवन जीने वाला मान कर उनकी ले दे करना शुरू कर देते हैं। एक तीसरा उपाय जिसे वैज्ञानिक कहा जा सकता है और जो ही विज्ञान की जययात्रा में सबसे उपयोगी रहा है वह है सीखना सबसे जीना अपने आप में, अपने समय में, अपने समाज में और देखना भविष्य की ओर। मेरा भ्रम भी हो सकता है पर मुझे लगा अदालत ने दूसरी श्रेणी के कठमुल्लों की सोच को वैज्ञानिक सोच मान लिया है और इससे भारी अनर्थ संभव है जिसका अदालत पर भी असर पड़ेगा। मैं अपने बचाव के लिए तो यह कह ही रहा हूं, अदालत के बचाव और न्यायप्रणाली के बचाव के लिए ऐसा कहने का दुस्साहस कर रहा हूं, जिसे अदालत दुस्साहस मान बैठी तो दुनिया से सच बोलने वालों की आबादी कम हो जाएगी।‘’

अदालत ने लोकहित में स्वीकृति दी, ‘’अपनी बात प्रमाण, साक्ष्य या नजीर के साथ पेश कीजिए।‘’

‘’जानकारी कम है, हवाई बातें मेरे न चाहते हुए भी हवा में तैरती मुझ तक आ पहुंचती हैं, मेरा मूलधन वे ही हैं। इसलिए मैं एक नजीर से बात शुरू करूंगा जो किसी फैसले में नहीं मिलेगी। माफ करें, मैं यह भी नहीं जानता कि नजीर का मतलब क्या होता है, अन्दाज भिड़ाता हूं कि जो नजर आता हो वह नजारा है और उसकी याद दिलाया जाय और उसके पालन की मांग करते हुए उसे पेश किया जाय तो यह नजीर हुई। गलत हो सकता है पर मैं आज तक सही नहीं, जायज बात कहता आया हूं और उसी की मांग आप से करना चाहता हूं।‘’ अदालत ने सिर को इस तेजी से झटकते हुए अनुमति दी जिसका शब्दों में अनुवाद करें तो होगा, ‘कंबख्त अपनी बात तो जल्दी पूरी कर। यह नहीं जानता कि अदालत का समय कितना कीमती है।

मैंने निवेदन किया, ‘’अभी कुछ दिनों पहले एक विचित्र सूचना आई थी। एक बाघिन थी जो अपने तीन शावकों को अनाथ छोड़ कर मर गई। अब जू के अधिकारियों को इस बात की चिन्ता हुई कि मां के संरक्षण के अभाव में इन तीनों शावकों का पालन कैसे किया जाय। उन्होंने उन्हें पहले दूध आदि पिला कर पाला, मांसाहार की आदत डाली, फिर एक सुरक्षित घेरे में रखने लगे जिसमें कुछ हिरन और बकरियां भी चरने को रख दी जातीं। वे काफी बड़े हो गए, कई बार बकरियों को दबोच कर मार भी डालते पर मार कर छोड़ देते। बहुत लंबा समय लगा जब एक दिन उनमें से एक ने अपने शिकार को चींथना और खाना आरंभ किया जो उसे उससे बहुत पहले सीख जाना था। इस तरह की कई परीक्षाओं से गुजरने के बाद जब उन्हेंं विश्वास हो गया कि अब ये खुले जंगल में जिन्दा रह सकते हैं तब उन्हें एक जंगल में छोड़ा गया।‘’

’’मैंने भी देखा था उसे, पर तुम कहना क्या चाहते हो?”

‘’कहना यह चाहता हूं कि शिक्षा जीवों, जंतुओं को भी उनके माता-पिता या बिरादरी से मिलती है इसलिए शिक्षा के बिना हम जीवित रह ही नहीं सकते।‘’

’’इतना समय बर्वाद किया तुमने यह स्वींकार करने में कि शिक्षा प्रणाली के बिना समाज का काम चल ही नहीं सकता और तुम स्वयं शिक्षा-शास्त्रियों और शिक्षाविदों की लानत मलामत करते रहे।‘’

’’आप का इकबाल बुलंद रखते हुए मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि आपकी समझ कुछ संकरी है। मैं इसके लिए एक और नजीर पेश करने की इजाजत चाहूंगा।‘’

अदालत ने मरे मन से सिर हिलाया, ‘चलो, यह भी सही।‘’

’’मैं जिस पार्क को अपना समझता था उसमें किसी के स्वानप्रेम के कारण कुत्तों को दूध मिलने लगा और कुत्तों का एक दल उस नन्हें से पार्क में जम गया। पालतू कुत्तों को न लाने पर रोक लगा कर सभी कुत्तास्वामियों को मना लिया था कि वे अपने कुत्ते पार्क में न लाएंगे, पर इन सार्वजनिक कुत्तों का क्या करते। एक दिन एक सज्‍जन कुत्ते का एक पिल्ला गोद में उठाए चले आए। पार्क को अपने अधिकार में समझने वाले ये लावारिस कुत्ते यदि किसी दूसरे पालतू कुत्तेे या अपने झुंड से बाहर के किसी आवारा कुत्ते को देख लेते तो वह सार्वकौत्तिक प्रहार होता कि वह बाहर जा कर ही सांस लेता । इस कुत्ते का उन्हो ने विरोध किया ही नहीं।उन्‍होने उसे घूमने दौड़ने को छोड़ दिया। इसी बीच उन लावारिस कुत्तों में से एक इसके पास आया। सूंघने, छूने के नादातीत संचार से पता लगा लिया कि कुत्ते का पिल्ला आदमी के संसर्ग में न आदमी बन पाया है न कुत्ता रह गया है, जब कि कुत्‍ता पालने वाले कुत्तों के कई गुण इस विषय में सचेत होने से पहले ही अपना लेते हैं।

उसने उस पिल्ले पर क्या् जादू फेरा कि वह उसके साथ दौड़ने लगा, दाव पेच सीखने लगा और उस नन्हें पिल्ले के प्रहार पर वह उल्टा हो कर उसे… सच तो यह है कि मैं उसको शब्दों में बांध नहीं पा रहा हूं परन्तु एक अपरिचित स्वजातीय को गुर सिखाते वह कुत्ता जिस उल्‍लास में था उसमें वह पहले कभी दीखा ही न था।‘’

’’तुम्हें समय बर्वाद करने का चस्का पड़ चुका है।‘’

’’मैं यह बता रहा था कि पशु जगत हो या आदिम समाज उनके सभी सदस्य एक तरह की शिक्षा पाते हैं, यदि पता लगे कि कोई उससे वंचित है तो उसे सिखाने का प्रयत्न करते हैं और सभी को स्‍वावलंबी और आत्माभिमानी बनने की शिक्षा देते हैं। केवल अपने को सभ्य कहने वाला मनुष्य ही है जो मनुष्यों को चोरी, जमाखोरी, और चोरों जमाखोरों के लिए उपयोगी गुलाम बनाने की शिक्षा देता है।‘’

’’अदालत का कीमती समय बर्वाद करने का तुम्हें कोई अफसोस नहीं।‘’

”अफसोस तो मुझे था पर इस बात पर नहीं कि मैंने अदालत का बहुमूल्य् समय बर्वाद किया है, अपितु इस बात पर कि अदालत ने मेरी बात ध्यान से नहीं सुनी और उसने जानबूझ कर अपना बहुमूल्य समय बर्वाद किया है।

Post – 2016-06-03

आसीत् पुरा विदिशा नाम नगरी, अधुनाsपि अस्ति

मैं कल बहाव में आ गया था, इसलिए अपनी बात साफ साफ नहीं रख सकता था। बात कठोर थी इसलिए जल्दबाजी में कही भी नहीं जा सकती थी। मैं कहना यह चाहता था कि हमारे शिक्षाशास्त्री शिक्षा के बारे मे उससे भी कम जानते हैं जितना एक जंगली आदमी या जंगली पशु।

‘’कमाल की व्याख्या है तुम्हारी। जानवर और जंगली आदमी शिक्षित होता है, शिक्षित नहीं, सुशिक्षित होता है और सुशिक्षित व्यक्ति जंगली लोगों और जानवरों से भी कुशिक्षित होता है। मैंने तुम्हारी बात को समझने में कोई भूल तो नहीं की?”

‘’अदालत की समझ में कुछ आ जाय यही एक मुश्किल काम है। आ गया यह एक आश्‍चर्य है। अदालत अपने हाथ में तराजू रखती है और आंखों पर पट्टी बांध लेती है और नजर सीधे एकसौअस्सी अंश के कोण पर रखती हैजाे कोण होता ही नही। इसलिए उसे यह तक नहीं दिखाई देता कि उसकी ठीक नाक के नीचे पेशकार किसे क्या इशारा कर रहा है और उसका बेलिफ उसी के हुक्मं की तामील के लिए उसके हुक्म को अमल में लाने के लिए किस फोर्स के सक्रिय होने की प्रतीक्षा में हैं।‘’

’’तुम किस फोर्स की बात कर रहे हो?”

‘’इसे भौतिकी में मोटिव फोर्स, अर्थात् चालक बल कहा जाता है पर न्यायालयों में दस्तूरी कहा जाता है। दस्तूरी का मतलब तो आपको पता होगा ही।‘’

अदालत सर्वज्ञ होती है फिर भी कुछ चीजों का पता उसे भी नहीं होता इसलिए वह दूसरों से पूछती रहती है। इस बार मुझसे पूछना पड़ा तो मुझे बताना ही था, ‘’दस्तूर का मतलब रीति है, पर यह आपकी समझ में नहीं आयेगा, इसलिए अंग्रेजी में इसे कनवेन्शन कहते हैं, यह बताने से काम चल जाएगा। इसकी ताकत क्‍या है यह ‘रघुुकुल रीति सदा चलि आई प्राण जायं पर बचन न जाई से ही पता चला जाएगा। कुछ देशों में संविधान नहीं है, वहां कनवेंशन ही संविधान का स्थान ले लेता है, जैसे इंगलैंड में जिससे अदालत ने झुलसती गर्मी में भी अपना चोंगा और विग और वकीलों ने अपना काला कोट और टाई उत्‍तराधिकार में पाया है।

”इसलिए आप संविधान की दुहाई देते हैं और आपकी न्याय प्रणाली कनवेंशन अर्थात् रीति से चलती है। यदि अदालत की अनुमति हो तो इसका एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा।‘’

अदालत इस डर से कि कहीं उसे पक्षपाती न मान लिया जाय, ऐसी अनुमति दे देती है और इसके चलते मुझे इन्दिरा जी के मेहरौली के प्लााट के रजिस्ट्रेशन का किस्सा याद आगया। उन्‍हें इस सिलसिले में सब-रजिस्ट्रार के सामने पेश होना था। वह आईं, सब कुछ तैयार था, दस्तखत किया और चलने लगीं तो सब-रजिस्ट्रार को सुनाते हुए अपने कारिंदों से बोलीं, इनका जो कुछ बनता हो वह दे दीजिएगा।

उन्हें शक था कि इस धौंस में कि यह प्रधानमंत्री का मामला है कोई कुछ मांग कैसे सकता है, इन्दिरा जी कह रही थीं, मुझे अपने पद का लाभ देने की जरूरत नहीं, जो रीति है उसका पालन होना चाहिए। ये वे दुर्लभ गुण है जिनके लिए मैं इन्दिरा जी को असाधारण मानता हूं जब कि कोई दूसरा इसे भ्रष्टाचार का समर्थन और इस मामले में निश्चिन्त होने का आशय भी तलाश सकता है।

’अदालत के हाथ किन किन रस्सियों से बंधे हैं इसका तो हमें पता नहीं। यह तक पता नहीं कि हम एक बन्‍दी बनाई जा चुकी न्‍याय व्‍यवस्‍था से न्‍याय चाहते हैं जो सहूलियत देख कर कभी संविधान की ओर देखती है, जो स्वतंत्र होने के बाद बना, इसलिए पहले के विधानों से आगे जाता है, कभी दंडसंहिता की ओर देखती है जो अंग्रेजों के समय में बना इसलिए उस समय के राजहितकारी और जनविरोधी विधानों के साथ और कहें तो स्वतंत्र भारत में उपनिवेशवादी अवशेषों के साथ होती है और फिर जब नागर विधानों के मामले आते हैं तो संपत्ति से जुड़े नियम संपत्ति हड़पने वालों की रक्षा के लिए बनाए गए मिलते हैं क्योंकि उपनिवेशवादी सत्ता स्वयं इसी कोटि में आती थी और जब पारिवारिक और सामाजिक व्ययवहार का मामला आता है तो यह पर्सनल लाज की हथकड़ी बेड़ी पहन लेता है, क्योंकि धार्मिक समुदायों को भारतीय समाज बनाने का प्रयत्न तक नहीं हुआ इसलिए हिंदू कोड बिल के माध्यम से एक ऐसे देश को जिसे हमने अपने संविधान से सेक्युंलर और समावेशी बनाने का संकल्प लिया था, उसे हिन्दू राष्ट्र बना दिया गया। परन्तु सबसे अधिक बकवास हैं प्रक्रियागत संहिताएं जिन्हें नियम और न्याय से उूपर माना जाता है और जो ही न्या्य में विलंब और अन्याय के संरक्षण में सहायक होती हैं। जब तक ये हैं तब तक अदालत कर्मंकांड की दासी है और न्यांयप्रणाली ऐसा हवन कुंड जिसमें उत्पीडि़तों की हवि दी जाती है ।‘’

मैंने इस ओर गौर ही नहीं किया था कि अदालत के चेहरे पर रक्त का दबाव मेरे बयान के साथ बढ़ता चला गया था और वह अब इतना लाल हो गया था कि लगता था रक्त की केशिकाएं फट जायेंगी और चेहरा अपने आवेश के कारण ही लहूलुहान हो जाएगा। चुप लगाया तो चेहरा तो नहीं फटा पर अदालत फट पड़ी, ‘’तुम्हें पता है तुमने अदालत का कितना बहुमूल्यक समय बर्वाद किया है? तुमको अपने सबूत और गवाह इस बात को साबित करने के लिए रखने थे कि शिक्षित लोग जानवरों और जंगली लोगों से भी कुशिक्षित है और तुमने शिक्षा प्रणाली के बाद न्‍याय प्रणाली पर भी हमला कर दिया।”

‘’यूं तो अदालत को अपराध का सहभागी कभी बनाया नहीं गया क्यों कि लोग इसके नतीजे क्यां होंगे यह जानते थे, परन्तु आपने पहले पुरानी आदत बदलते हुए देखने और सुनने की जरूरत समझी है इसलिए इस बर्वादी में आपको भी सहभागी बताउूं तो संभव है इसे आप मान लें। आपको जो तथ्य मालूम थे, हर आदमी को मालूम हैं तो आप तो दूसरों से अधिक जानकार हैं ही, उन्हें आपको मान लेना चाहिए था और दस्तू र की व्‍याख्या करने के लिए मुझे उकसाना नहीं चाहिए था।‘’

’’फिर भी इसका कोई तुक ताल तो होना चाहिए?”

“है मान्यवर, मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारी शिक्षाप्रणाली ही घटिया नहीं है, न्यप्रणाली भी जीवों जन्तु ओं और अनपढ़ गंवारों और जंगली लोगों के अपने प्रबन्धन से अधिक पिछडी हुई है।”