Post – 2016-07-17

आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम् ।
(हम देवों के मार्ग का अनुसरण करें और जितना निर्वाह कर सकें करें!)

”शास्‍त्री जी, अब आप चाहें तो हम कल की बात को आगे बढ़ा सकते हैं।”
शास्‍त्री जी ने कुछ कहा नहीं, पर उनकी मुद्रा में जो परिवर्तन आया उसका अर्थ था, ‘ठीक है।’

आप पता नहीं फेस बुक पर जाते हैं या नहीं, पता नहीं, यदि जाते हों तो 14 जुलाई को चन्‍द्र मोहन ने कश्‍मीर के विषय में अपना अनुभव लिखा था उसे अवश्‍य देखिएगा। और हां, हसन पाशा का भी 15 का एक ट्वीट है, ‘सुरक्षा बलाें पर पत्‍थर कौन फेंक रहा है’, मेक इन इंडिया ने इसे शेयर किया है, उसे भी देखिएगा। अभी आप ने देखा, एक ओर तो छर्रों से गुदे हुए चेहरे, पीठ और फूटी हुई आंखों की तस्‍वीरें और तनाव की खबरें आ रही थीं, और उसी बीच यह खबर आई कि नमाज के लिए जाते हुए कुछ मुसलमानों को बचाओ की पुकार सुनाई दी तो वह उस ओर बढ़ गए और पाया अमरनाथ यात्रियों की एक जीप का ऐक्‍सीडेंट हो गया था। उन्‍होंने नमाज छोड़ कर उनकी सहायता में अपना समय लगाया। इस बात पर ध्‍यान दीजिए कि माहौल कितना बिगड़ा हआ है और नमाज के पाबन्‍द मुसलमान तो आपको कट्टर मुसलमान ही नहीं, मस्जिद में जुट कर हिन्‍दुओं के खिलाफ राेज साजिश करने वालों की छवि में देखते होंगे जैसे वे शाखा के बौद्धिक में रोज मुसलानों पर हमले की तैयारी के रूप में देखते हो सकते हैं। नफरत से लड़ने के लिए आपको आत्‍मबल और हथियार इन चिनगारियों से ही मिल सकते हैं।”

”आप से विवाद नहीं कर सकता, इक्‍के दुक्‍के अच्‍छे लोग तो सभी समाजों में मिल जाते हैं, परन्‍तु प्रश्‍न अनुपात का है। उन कुछ लोगों के कारण हमें भारी कीमत चुकानी पड़ी है।”

”ठीक यही शिकायत दलित आप से कर सकते हैं और करते हैं। ठीक यही शिकायत स्त्रियां पुरुषों से करने लगी हैं। यही पाठ उन क्षेत्रों के लोगों की जबान पर है जहां व्‍यवस्‍था गड़बड़ है और सैन्‍य बल की उपस्थिति सामान्‍य जीवन को नरक बनाए हुए है और यही उन वनांचलों में मिशनरियों के माध्‍यम से भरी जा रही है। किसी की शिकायत गलत नहीं है, आपकी भी नहीं। एक विशस सर्कल है, जिसमें सभी को किसी न किसी से शिकायत है। इसका निदान क्‍या है जिनसे शिकायत है उनसे मुक्‍त समाज या समझ और समायोजन का ऐसा माहौल जो भले तत्‍काल फलीभूत न हो, परन्‍तु लगे कि उसे सफल बनाने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास किया जा रहा है।”

”क्‍या आप मानते हैं कि इनकी शिकायतें दूर करने के प्रयास में हमने कभी बाधा डाली है? किसी को इस प्रयास से रोका है? क्‍या हमने इस प्रयत्‍न के लिए उनकी मौखिक आलोचना भी की है जिनके क्षोभ के कारण सही हैं? हमने तो मायावती को भी समर्थन दे कर कहा तुम सामाजिक न्‍याय दो, पर हुआ क्‍या? हमने यही प्रयोग कश्‍मीर में भी दुहराया पर हो क्‍या रहा है?”

”हम आपसे कहना यह चाहते हैं कि कुछ शिकायतें सही होते हुए भी गलत होती हैं, क्‍योंकि भुक्‍तभोगी तत्‍काल उस स्थिति से मुक्ति चाहता है, उस रोगी की तरह जो चाहता है डाक्‍टर मुझे अभी अच्‍छा कर दे। वह अपनी बेसब्री से अपने उपचार में कई बार बाधा भी डालता है। यही स्थिति मानसिकता में परिवर्तन से जुड़ी है। इससे हम इच्‍छा करते ही मुक्‍त नहीं हो पाते। पूरे समाज को जादू की छड़ी से बदल नहीं सकते।”

”आप ठीक कहते हैं। और इसके साथ एक और बात भी है मानसिकता का एक भौतिक और बौद्धिक और नैतिक पर्यावरण होता है। ऐसी बात मुझे लगता है आप स्‍वयं कहीं कह आए हैं, यदि नहीं तो मान ली‍जिए मैंने ही आप के विचारों को आत्‍मसात करने के क्रम में कभी सोचा होगा। समता कानून ने दे दी। व्‍यक्ति और समुदाय को उसे आयत्‍त करना है। उनको अपने को साबित करना है। मायावती ने साबित नहीं किया कि दलितों और अस्‍पृश्‍यों के भाग्‍योदय में उनकी रुचि है अन्‍यथा पत्‍थर के हाथी बनाने और नोटों की माला पहनने की जगह ममता जैसी जीवनशैली अपनाते हुए उस धन को ऐसे औजारों के विकास पर खर्च किया होता जिससे अधो‍गति से संतप्‍त जनों को उबारा जा सके। समाजवादी सपने दिखाने वाले मुगलकालीन जीवनशैली का प्रदर्शन न करते। महबूबा के लिए इस समय कुछ नहीं कहूंगा पर यह शक तो है ही कि वह अपने को साबित नहीं कर पा रही हैं या जो कुछ साबित कर रही हैं वह सद्भाव और विश्‍वास को बढ़ाता नहीं है।”

”शास्‍त्री जी हम व्‍यावहारिक राजनीति से बचे रहें तो अच्‍छा। वह व्‍यक्तियों पर और वह भी उनके कुकर्मो पर लौट आती है और उन हथकंडों पर उतर आती है, जिनसे सामाजिक पर्यावरण को विषाक्‍त करके अपने स्‍वार्थ साधने के तरीके अपनाए जाते हैं। राजनीति की मुझे समझ भी नहीं है परन्‍तु जिनको रास्‍ता चलने तक की समझ नहीं, वे भी इसी पर बहस करते मिलेंगे। हम एक बहुत बड़ी समस्‍या से लड़ रहे हैं जिसके लिए हमें राजनीतिज्ञों से भी निबटना पड़े तो निबटेंगे।

”हम पहले कह आए हैं सत्‍ता, साधन और धन पर अधिकार के लिए राजनीतिज्ञों द्वारा ही अधिकांश सामाजिक विकृतियां पैदा की जाती हैं और साधन और धन और बल का ही इसमें इस्‍तेमाल होता है। जिनके पास यह हो वे बुद्धिजीवियों का भी इस्‍तेमाल करते हुए जो चाहते हैं कर ले जाते हैं क्‍योंकि बुद्धिजीवी का तो अर्थ ही होता है बुद्धि बेच कर खाने वाला। इनके सहयोग से जो अनर्थ वे चाहे कर ले जाते है और हमारी लंबी तैयारियां धरी की धरी रह जाती हैं। फिर भी सही समझ सभी विकृतियों का अकेला जवाब है। पैदा हमें वही करना है। आपके भीतर भी।”

शास्‍त्री जी का यह अच्‍छा गुण है कि वह आसानी से आपा नहीं खोते। हंस कर पूछा, ”मेरे भीतर भी आपको कमी दिखाई देती है।”

”यह तो आपने स्‍वयं कहा था कि आप में विश्‍वास की कमी है, सन्‍देह भरा हुआ है, और चलिए घृणा न सही एक चिरपोषित विद्वेष ताे है ही। जब तक इतनी चीजों ने भीतर के आयतन को घेर रखा है, वह समझ पैदा भी हो तो इनके बीच तो उसे जगह मिलेगी ही नहीं।”

”मान लिया, यह भी मान लिया कि आपकी संगत में रहेंगे तो आप मन्‍त्र फूंक फूंक कर मेरे भीतर से उन्‍हें साफ कर देंगे ताकि आपके सदविचारों के लिए एक पूरा गोदाम मिल जाए, पर उनका क्‍या कीजिएगा जिन तक आपकी पहुंच ही नहीं। जिनको अपनी जिद से टस से मस होने की आदत नहीं है। जो अपने को बदलना तक अपना अपमान समझते हैं, जिनकी दुनिया अपने धर्मदायादों तक सिमटी है और याददाश्‍त हिज्रत तक।”

”मैं किसी का कुछ नहीं कर रहा हूं । आपका भी नहीं। बस मैं आपको तब तक किसी को दोषी मानने के अधिकार से वंचित करता हूं, नहीं वह भी नहीं कर सकता, कर यह सकता हूं कि जब तक आप इनसे मुक्‍त नहीं होते, जब तक आप यह सोच कर बैठे रहे कि जब तक दूसरे अपना घर साफ नहीं करते मैं अपने घर की गन्‍दगी को साफ न करूंगा, कोशिश इसे बढ़ाते रहने की करूंगा, आप पर तरस खाता रहूं । हां यह भी कर सकता हूं और करता रहूंगा कि उन सभी लोगों को याद दिलाता रहूं कि तुम्‍हें आज की दुनिया में सम्‍मान और गर्व से रहना है तो दुर्बलताओं पर विजय पाना होगा, आत्‍मविस्‍तार करना होगा। जल्‍लादों की कौम बन कर नहीं, डरावना लगा जा सकता है पर प्रतिष्‍ठा नहीं पाई जा सकती । प्रतिष्‍ठा के लिए अमृतपुत्र बनना होगा। मानवता के लिए हितकर काम करना होगा। कोई दूसरा इसमें तुम्‍हारी सहायता भी नहीं कर सकता। अपना उद्धार स्‍वयं करना होगा – उद्धरेदात्‍मात्‍मानम् । और मैं इसकी व्‍याख्‍या भी करूंगा कि तुम्‍हारे अमृतपुत्र बनने में इतिहास से ले कर वर्तमान तक कौन सी बाधाएं और मनोबाधाएं पेश आ रही हैं।”

”मैं उसके लिए भी तैयार हूं।”

”इसके लिए वह दो आंखें और बारह हाथ फिल्‍म आपको एक बार ध्‍यान से देखना होगा और फिर उस पंक्ति का जवाब अपने आप से मांगना होगा, अब तूही मुझे बतला, राह भूले थे कहां से हम’ और जब इसका जवाब मिल जाय तो चेतना के स्‍तर पर उस मुकाम पर लौटना होगा, जहां से भटकाव आया था। और फिर तय करना होगा कि सही रास्‍ता हो क्‍या सकता है। रास्‍ता मिलेगा नहीं, रास्‍ता भी बनाना होगा और उस पर चलना भी होगा और फिर चलने वाले इतने हो जायेंगे कि यह महापथ बन जाय।”

शास्‍त्री जी का अच्‍छा खासा मनोविनोद हो गया। वह हंसे, ”आप इतनी विचित्र बातें कहां से सोच लेते है। फिल्‍मों से फिलासफी निकालते है और हवा में किले बनाने लगते हैं, वह भी अकेले दम पर न ईट न गारा न पानी।”

”आपके व्‍यंग्‍य पर मुझे एक तुकबन्‍दी सूझ गई। आज तो बस यही सुनिए:-
”हवा के फलक पर लिखेगे कहानी
”सुनेगा जमाना हवा की जबानी।
”हवा ही रुंधी है, घुटन हो रही है
”दिखानी दिशा है और देनी रवानी।।

Post – 2016-07-17

न हम खुश थे न तुम रिश्‍ता मगर था
यह था छत्‍तीस का रिश्‍ता मगर था
तुम्‍ही थे जिस पर मरने का भरम था
कहो तुमको वहम ऐसा अगर था।
करीब इतने, मगर थी बेरुखी भी
मेरा जादू भी तुम पर बेअसर था।
तूम्‍हें ही ढूढ्ता अब तक फिरा मैं
जिगर में शूल से हो, इसका डर था।
बहुत कुछ जानता भगवान तू है
जो पूछा सच, तो उसका दीदा तर था ।।
16 जुलाई

Post – 2016-07-16

राख की ढेर में होगी कहीं चिनगारी भी

”शास्‍त्री जी, मैं कई बार पहले भी कह चुका हूं, एक बार फिर दुहरा दूं कि मैं जीतने के लिए बहस नही करता, समझने के लिए संवाद करता हूं। अपनी समझ से आपको बदलने की कोशिश के साथ आपकी अपनी सोच के अनुसार, यदि ऐसा लगा, अपने को और अपने पहले के कथन को भी बदलने के लिए मंथन करता हूं। जीतने के लिए बाहुबल का प्रयोग हो, या बुद्धिबल का, या धनबल का, इसका परिणाम दूसरे को दबाना और अपने वश में करना होता है। इसमें सद-असद की चिन्‍ता नहीं होती। दूसरे के दमन या उच्‍छेदन का प्रयास होता है। मैं उस संवाद का पक्षधर हूं जिसे बुद्ध ने उभय कल्‍याण कहा था। जो दोनों पक्षों को समान स्‍तर पर लाकर बन्‍धुता पैदा करता है। दोनों में सद्बुद्धि पैदा करता है। दोनों को लाभ होता है और संबन्‍ध प्रगाढ़ होता है। चाणक्‍य की ही बात करें तो ‘समे हि लाभे सन्धिस्‍यात्’ ।

कल आपने मुझे पराजित करना चाहा, खुल कर उस तरह बात नहीं की जिसमें अपनी गलती भी स्‍वीकार करते हुए इच्छित परिणाम न आने में अपनी भी विफलता स्‍वीकार की जाती है। उत्‍साह में इतने थे कि बोलने तक नहीं दिया। आप अपना बचाव करते हुए, अपने को निष्‍कलुष और दूसरे को दोषी सिद्ध करते रहे और तर्कश: कर भी ले गए। चाणक्‍य की नजीरों के सामने मेरी भला क्‍या चलती। परन्‍तु जो तीन बातें आपके ही कथन से, आपके इरादे के बिना ही निकलीं, उनमें पहला यह कि आपकी संस्‍था का जन्‍म असुरक्षा की भावना, या हिन्‍दुत्‍व खतरे में है, के बोध से हुआ और आप तो जानते होगे कि खतरे की चेतना खतरे के कारण को जड़ से मिटा देने का दबाव पैदा करती है, या इस मानसिकता को बनाए रखती है। दूसरी बात यह कि इसी के कारण आप सामाजिक सौमनस्‍य के लिए कोई पहल नहीं कर सके । तीसरी एक बात इसी से निकलती है कि अब आप थक और हार गए हैं। दूसरे को दोषी मान लिया जाय इतने से ही आप सन्‍तुष्‍ट हो जाएंगे।”

शास्‍त्री जी ने मुस्‍कराते हुए कहा, ”आपने तो डाक्‍साब मेरे सारे प्रयत्‍न पर पानी फेरते हुए मुझे ही अन्‍यायी सिद्ध कर दिया। आपके वाककौशल की दाद तो दे सकता हूं पर सन्‍तुष्‍ट नहीं हो सकता। आप कहते हैं हमने प्रयत्‍न नहीं किया। प्रयत्‍न तो वहीं किया जाता है जहां फल की आशा हो।”

”प्रयत्‍न कभी विफल नहीं जाता। रवि बाबू की वह पंक्ति याद है न !”

”कौन सी ?”

”याद आए तब न बताउूं । लेकिन उसमें कई व्‍याजों से कहा गया है कि यदि तुम्‍हारे प्रयत्‍न का इच्छित फल नहीं मिला तो भी यह न समझो कि वह व्‍यर्थ गया। पहले भी यह विचार हमारे चिन्‍तकों में रहा है, भतृहरि की वह पंक्ति, दैवं निहत्‍य कुरु पौरुषं आत्‍मशक्‍त्‍या। यत्‍ने कृते यदि न सिध्‍यति न कोत्र दोष: तो स्‍मरण होगा ही। आप थक के बैठ गए और आत्‍मसन्‍तोष के लिए दूसरों को कोस रहे हैं। थकान से भाग्‍यवाद पैदा होता है और प्रयत्‍न से विश्‍वास।”

”आप ही सुझाइये इसमें क्‍या किया जा सकता है? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता। आप ने देखा न कल फ्रांस में इतने शुभ दिन पर कितनी निर्ममता से इन्‍होंने क्‍या किया ! पूरी दुनिया में यही तो कर रहे हैं।”

”मैं आपके वाक्‍य को कुछ सुधार कर दुहराना चाहता हूं कि इनमें से किसी ने ऐसा कर दिया जो जघन्‍यतम है और इनमें ऐसे संगठन पैदा हो गए हैं जो हमारे ही नहीं विश्‍वशान्ति के लिए खतरा तो हैं ही, सबसे अधिक उनके लिए खतरा हैं।”

”चलिए, मान लिया। फिर?”

” उन कारणों का पता लगाना होगा जिनसे यह नौबत पैदा हुई है या कहें, उनमें बहुत बड़े पैमाने पर असुरक्षा की चेतना पैदा हुई है।”

”आप इनमें असुरक्षा की भावना की बात करते हैं। सच तो यह है कि इनके कारण दूसरों की असुरक्षा बढ़ी है। जिस पार्क में हम बैठे हुए हैं, उसका इतिहास पता है। वह हिस्‍सा जो अबुल फजल के सामने है क्‍यों पार्क में घुसा हुआ है। आप तो बहुत बाद में आए यहां, मैं बहुत पहले से हूँ जब इस सोसायटी का निर्माण कार्य पूरा हो गया, लोग रहने लगे तो इन्‍होंने पार्क में बढ़ कर एक मस्जिद बना ली, फिर उसकी सीध में दीवार खड़ी कर ली और उसके पीछे चारमंजिला फ्लैटों की एक पूरी कतार डीडीए की जमीन में बना कर बेच बाच कर अबुल फजल महाशय नौ दो ग्‍यारह हो गए।”

”आप मेरी ही बात को दुहरा रहे हैं। इनमें से एक चालाक आदमी ने धर्म की आड़ में सरकारी जमीन पर कब्‍जा करके उसका सौदा कर लिया और दूसरों को बेवकूफ बना गया और दूसरी सोसायटियों के लोगों ने, वे भी जो इससे प्रभावित हुए इसका विरोध नहीं किया।

“पर शास्‍त्री जी इस प्रसंग में आप यह भुला बैठे कि इसी पार्क के दूसरे सिरे पर जो टी के आकार का था, एक दूसरे धूर्त ने गोशाला के नाम पर कब्‍जा कर लिया, वहां राममन्दिर बना लिया और भीतर कुछ गायें पाल कर दूध का कारोबार करता है और, छाेडिपए, नहीं कहूंगा, नहीं तो आप आहत होंगे और मुझे भी कहते अच्‍छा नहीं लगेगा (ये तथ्‍य हैं, कल्‍पना प्रसूत विवरण नहीं)। यह व्याधि इस देश में व्यापक है क, योंकि संविधान में सेक्युलर शब्द भले डाल दिया गया हो हमारी सरकारें धार्मिक ढकोसले बाजों के हाथों में खेलती रही हैं। सेकुलर होने की जिम्मदारी यहां के नागरिकों ने संभाल रखी है तो फिर सरकार को इसकी फिक्र करने की जरूरत क्या है । ऐसे तो हमारे बुद्धिजीवी हैं जो खुद को ही सेकुलर मान बैठते हैं। यह तक नहीं मानते कि सरकार और राज्‍य सेकुलर होता है, आदमी नहीं, उसका मानवीय होना ही काफी है। मानवीयता न कि अनीश्‍वरता या अधार्मिकता समाज को उदार और सौहार्दपूर्ण बनाती है। गांधी धार्मिक थे, आस्तिक थे, जिन्‍ना सेकुलर और नास्तिक, पर अपना मतलब साधने के लिए सीधी कार्रवाई करा चुके थे और कराने की धमकी देते रहते थे। खुद अपने को सेकुलरिस्‍ट बताने वाला आदमी अपने को ही राज्‍य समझने लगता है। हमारे देश में सांप्रदायिकता भड़काने में इनकी भूमिका सांप्रदायिक संगठनों से भी अधिक है, पर है प्राक्‍सी से। इनमें कम घटिया और मक्‍कार नहीं मिलेंगे।”

”चलिए, मान लिया कि मक्‍कार और दुष्‍ट लोग सभी समुदायों में हैं, परन्‍तु मुझे ही क्‍यों, सारी दुनिया को लगता है कि मुसलमानों में कुछ अधिक हैं, यह तो मानेंगे ही आप। ऐसे में आप उपाय क्‍या सुझाते हैं?”

”मेरे पास कोई ऐसा नुस्‍खा नहीं है जिस पर अमल करते ही सारी समस्‍यायें सुलझ जाएं, न इसकी आशा करता हूं। इस तरह के तात्‍कालिक समाधान लोगों को भड़काने वाले मांगते हैं और वह चुटकी बजाते दूर नहीं हो पाता तो उनसे प्रभावित लोगों को बरगलाते हैं। मै तीन बातें सुझाना चाहूंगा।

”पहली तो यह समझ पैदा करना कि हाथ पर हाथ धरे बैठने और दूसरों को दोष देने से किसी समस्‍या का समाधान नहीं होता। आपको तो लगता है कौटिल्‍य कंठस्‍थ है, इक्‍के दुक्‍के टुकड़े मेरे भी हिस्‍से में आते रहे हैं इसलिए : अनुत्‍थाने ध्रुवो नाशो प्राप्‍तस्‍य अनागतस्‍य च । प्राप्‍यते फलमुत्‍थानात् लभते च अर्थ संपदम् । अर्थ तो आपको बताने की जरूरत नहीं।”

शास्‍त्री जी ने दबे स्‍वर में कहा, ”वहां उत्‍थान का अर्थ कुछ विशेष है, पर चलिए जो अर्थ आप लेना चाहते हैं वह भी चलेगा।”

”इसके बाद बुझी हुई आग में भी बचे अग्निकणों का संचय और नए उत्‍साह का संचार करना होगा। सभी समाजों में ऐसे लोग होते हैं जो विषम स्थितियों में भी अपनी मानवीयता का त्‍याग नहीं करते, वे ही सद्कार्यो में कैटेलाइजर की भूमिका निभाते हैं। उनकी खोज करना होगा और उनको आशा की किरण बनाना होगा।
”और फिर महाव्‍याधि के कारणों की पड़ताल और उसका विवेचन। व्‍याख्‍या स्‍वयं एक हथियार है और इसका असर अधिक व्‍यापक भी होता है, अधिक गहरा भी और अधिक टिकाऊ भी ।”

शास्‍त्री जी से रहा न गया, ”एक जगह की बात हो तो कुछ कहा भी जाय। ये तो जहां भी हैं, सर्वत्र यही देखने में आता है।”

मैं हंसने लगा, ”और कुछ समय पहले तक यह ऐसा देखने में नहीं आता था। यह अधिक से अधिक पिछले बीस वर्षों के बीच एकाएक उग्र हुआ। फिर प्रत्‍येक सन्‍दर्भ में यह देखना होगा कि वहां कब, क्‍या बदलाव हुए और उनमें किनकी पहल थी, और उसके पीछे उनके क्‍या इरादे थे और किन साधनों और युक्तियों कके बूते वे अपनी योजना में सफल हो गए।”

”क्षमा करें, डाक्‍साब, इस तरह के उपदेश सुनते उम्र बीत गई। इनसे ऊब और थकान पैदा होती है, आशा का संचार नहीं होता।”

मैं हंसने लगा, ”आप मुझसे कह रहे हैं कि आपकी उम्र बीत गई। आप सचमुच थक गए है, जवानी में ही बूढे हो गए हैं। मुझे उनकी तलाश करनी होगी जो थके, ऊबे और निराश नहीं हैं और आपको अधिक बूढा बनाने के लिए मुझे आपसे आपकी जवानी के कुछ वर्ष मांग कर लेने और अपने बुढापे के कुछ वर्ष आपको बदले में देने पड़ेंगे।”

शास्‍त्री जी ने हंसने की कोशिश की और हंसने में कामयाब भी हो गए। मैंने कहा, ”अब इस पर कल बात करेंगे। आज अाप सचमुच ऊब गए हैं।”

Post – 2016-07-15

हिफाजत अपने घर की हम करेंगे या नहीं साहब
हम उनसे पूछते हैं, उनसे समझाया नहीं जाता।

”डाक्‍साब, आप बहुत आशावादी हैं। मुझे नहीं लगता कि केर बेर का संग कभी निभ सकता है।”

”खास करके तब जब केर को बेर बेर समझे अपने को केर। विवाद में दोनों पक्ष अपने को सही और दूसरे को गलत मानते हैं। संवाद में वे अपनी गलतियों पर भी ध्‍यान देते हैं और दूसरे की सही बातों को भी स्‍वीकार करते हैं इसलिए सहमति या दोनों के हित की कार्ययोजना पर आगे बढ़ना संभव हो पाता है। ”

”यही तो हम बार बार करते आए हैं और उन सभी के परिणाम उल्‍टे रहे हैं।”

”ऐसा प्रयत्‍न कभी आपने किया है। सच कहिएगा! कभी आपने अपने कार्य या वचन से इसकी पहल की है? जिन्‍हाेंने की उन्‍होंने उल्‍टे परिणाम के बाद भी कभी हिम्‍मत हारी ? आप पहल भी नहीं करते और पहले ही हिम्‍मत हार जाते हैं और उसके बाद हार के सिवा बचता क्‍या ?”

शास्‍त्री जी चुप लगा गए । मैं जारी रहा, ”संघ का जन्‍म घृणा के बीज से हुआ है और इसका मुख्‍य स्‍वर रहा है अलगाव। इसमें बौद्धिक चर्चा के बहाने मुस्लिम समुदाय से घृणा पैदा करने और उसे कई रूपों में, कई बहानों से दुहरा गर पक्‍का किया जाता है इसलिए संघ के साथ सभी हिन्‍दू तक आश्‍वस्‍त नहीं रह पाते, क्‍योंकि आपका हिन्‍दुत्‍व भी सवर्णवादी है।”

शास्‍त्री जी विचलित न हुए, ”आप ने कैसे जाना कि हमें संघ में क्‍या सिखाया जाता है? आप तो कभी शाखा में गए नहीं, उल्‍टे हमारे लोगों ने इस पार्क में शाखा लगाने की योजना बनाई तो सुना, आपने ही उसका विरोध करके रुकवा दिया था। सुना, आपने कहा था यह सेक्‍युलर स्‍पेस है, यहां धार्मिक या सांप्रदायिक आयोजनों के लिए जगह नहीं है। आपने कहा था, यहां पड़ोस की अबुल फजल सोसायटी के लोग यहां नमाज पढ्ने आ जाएंगे तो हमारे शाखा प्रमुख ने कहा था, आने दीजिए, हमें उनसे कोई समस्‍या नहीं है (उल्‍लेखनीय है कि यह कथन कल्‍पना प्रसूत नही है, तथ्‍य है)। मैं आपको बता दूं कि हमारे यहां शाखा में कोई मुस्लिम आना चाहे तो उस पर रोक नहीं है। हमारे यहां जाति का भेदभाव नहीं किया जाता और संघ के स्‍वयंसेवक, वे जाति-वर्ण-भेद भुला कर, साथ बैठ कर भोजन करते हैं। आप देखिए तो कम्‍युनिस्‍ट संगठनों में संघ से कुछ अधिक ही सवर्ण मिलेंगे।

”देखिए जिन दिनों कांग्रेस के झंडा गान में ‘विजयी विश्‍व तिरंगा प्‍यारा’ गाया जाता था और ‘विश्‍वविजय करके दिखलाएं तब होवे प्रण पूर्ण हमारा’ का सपना देखा जाता था, तब भी हमारी ध्‍वज वंदना में केवल यह कामना थी कि हम विश्‍व की किसी भी शक्ति से पराजित न हों, अजेय शक्ति हो हमारे पास (अजय्यां च विश्‍वस्‍य देहि स शक्ति:) और सबके प्रति हम सुशील बने रहे और नम्रता से व्‍यवहार करें (सुशीलं जगद्वे न नम्रं भवेम)। चाणक्‍य का एक वाक्‍य है, संघा हि संहतत्‍वात् अनाधृष्‍या परेषाम्, हमारा संगठन उसी से प्रेरित है। दूसरों का धर्षण करना हमारी योजना का अंग नहीं है,उनके लघर्षण से अपने को सुरक्षित रखना हमारा ध्‍येय है। यह भी असह्य लगता है आपको? अपने जन्‍म से ही हमारी तैयारी केवल आत्‍म रक्षात्‍मक रही है। आपको इससे भी डर लगता है? आप हमें दरिंदों के हाथ सुपुर्द करना चाहते हैं?

“हम घृणा के बीज से नहीं पैदा हुए, आत्‍मगौरव के बीज से पैदा हुए हैं, जिसका अज्ञात कारणों से निरन्‍तर ह्रास होता गया है। उन कारणों का पता लगाना आप जैसे मनीषियों का काम है, जो आप कर नहीं रहे हैं। आप संघ के छोटे से छोटे स्‍वयंसेवक से बात कीजिए तो पता चलेगा, हम कोरी लफ्फाजी नहीं करतें, इन सिद्धान्‍तों पर आचरण भी करते हैं। और इसे समझे जाने विना आप जैसे व्‍यक्ति ने, इतना गंभीर आरोप उस दुप्‍प्रचार के विष का लगातार सेवन करते रहने के कारण कर दिया, यह सोच कर दु:ख भी होता है और निराशा भी पैदा होती है। जब आप तक उससे नहीं बच पाए हैं तो सोचिए हमारे आर्तनाद को भी हुंकार बना कर हमें मुस्लिम लीग की कार्ययोजनाओं को सेक्‍युलरिज्‍म का नाम देने वालों ने कहां ला छोड़ा है। हमारे बुद्धिजीवियों के पास इतनी भी बुद्धि नहीं है कि वे इस साजिश को पहचान सकें। सोचिए ऐंटी सेमिटिज्‍म के इस नए संस्‍करण एंटी हिन्‍दुइज्‍म को यदि सेक्‍युलरिज्‍म नाम दे दिया गया है तो इसकी परिणति में अन्‍तर आएगा?”

”आपका मतलब मेरी समझ में नहीं आया, आप क्‍या कहना चाहते हैं।”

”आप जैसे विद्वान यदि समझना ही न चाहें तो मैं क्‍या समझा सकता हूँ डाक्‍साब। फिर भी यह निवेदन करूं कि कोई काम बुराइयों से शून्‍य नहीं होता – दोषवर्जितानि कार्याणि दुर्लभानि। हमारे भीतर और हमारे कामों में भी कुछ दोष रहे हैं और आज भी कुछ होंगे, हमने उनको समझा है, उनमें सुधार किया है। इससे घबरा कर हमारे इतिहास में जाकर आपके सेकुलरिस्‍ट सामग्री जुटाते हैं कि हिन्‍दू समाज को गर्हित सिद्ध किया जाय। कोई वाटर बनाना चाहता है कोई फायर और आपत्ति होने पर हंगामा करते हैं, यह देखते तक नहीं कि हमारा समाज उससे बाहर आ चुका है और निरंतर आत्‍मनिरीक्षण करते हुए अपने को सुधार रहा है। उन्‍हें उन देशों से पैसा मिलता है, जिनके लिए वे काम कर रहे हैं और फिर भी यह मानने को तैयार न होंगे कि वे विके हुए देशद्रोही हैं। उनको और उनके विचारबन्‍धुओं काे प्रमाणों से नहीं समझाया जा सकता क्‍यों‍कि बिके या बिकने को तैयार आदमी की समझ में प्रमाण नहीं आते। कौटिल्‍य के शब्‍दों मे कहूं तो ‘कोनाम अथार्थी प्रमाणेन तुष्‍यति’।

”भारतीय इतिहास में पहली बार बुद्धिजीवियों को वह छूट मिली है जो राजनयिकों को मिला करती है और वे उसी तरह इस देश के अहित मेंं उस छूट का उपयोग भी कर रहे हैं, क्‍योंकि जानते हैं कि यह पहला शासन है जिसमें उनका कुछ बिगड़ेगा नही – अवध्‍य भावात दूत: सर्वमेव जल्‍पति ।

”पर डाक्‍साब, आपको पता है इस लड़ाई में सत्‍य के पक्ष में होते हुए लहू लुहान हमें क्‍यों होना पड़ता है, इस मुहिम पर जितना पैसा खर्च हो रहा है और जो जो मुखमुद्रासिद्ध वाग्विद उसे हजम करके बलिदानियों के तेवर में बात करते हैं, उनको उस प्रलोभन से विरत करने के साधन भी हमारे पास नहीं हैं और अन्‍तत: वही न्‍याय जिसे चाणक्‍य ने आज से सवा दो हजार साल पहले कहा था – यस्‍य हस्‍ते द्रव्‍यं स जयति और जिसे सीआईए के उस योजनाकार ने इतने लंबे समय बाद समझा और कहा, मुझे इतने डालर दे दो और मैं सोवियत संघ के भीतर ही विद्रोह करा दूंगा और उसने उसे करके दिखा भी दियाप”

मैंने बीच में हस्‍तक्षेप किया, ”मेरी भी तो सुनिए।”

”आपकी ही तो सुनते आए हैं, आज पहली बार है कि मैं आपकाे सुना रहा हूं। इसे सुनिए और गौर कीजिए कि अर्थ का जादू सर चढ़ कर भी बोलता है और पांवों पड़ कर भी बोलता है और चुप रह कर भी बोलता है और इस तरह कि सन्‍यासी भी उसकी चपेट में आ जाएं।

आपके तो मित्र हैं वर्मा जी। आप उनका बहुत आदर भी करते हैं। कुछ दिन पहले पता है उन्‍होंने क्‍या किया। उन्‍होंने पेशवाओं के काल के अस्‍प़ृवश्‍यों का एक चित्र प्रकाशित किया और हाय हाय मच गई। उन्‍हें यह ध्‍यान न रहा कि आज हम उस अवस्‍था से कितने आगे आ चुके हैं। यह ध्‍यान नहीं आया कि इतिहास में जा कर हिन्‍दू समाज की विकृतियों को फोकस करके उन समुदायों को ईसाई बनाने की एक योजना धन, साधन और सुविधा के साथ प्रचारतन्‍त्र के बल पर उस ईसाइयत के द्वारा चल रही है जो अपने इतिहास का सामना नहीं कर सकती
। आप हमें समझाते हैं, इतिहास से विष का संग्रह न करो, उस विष को शोधित पारे की तरह जनकल्‍याणी बनाओ। बताइये क्‍या यही पाठ आप उन्‍हें पढ़ाएंगे, जो इस विष संचय को ही इतिहास बोध कह कर उसका वितरण करते हैं और तालियां बटोरते हैं। क्षमा करें, आप दो तरह के पैमानों का प्रयोग करते हैं।

मैने जब काम नहीं मिला था तो दो साल एक दफ्तर में क्‍लर्की की थी। उसमें सर्विस रूल्‍स जानने वाला एक असिस्‍टेंट था। उससे कोई पूछता कि इस मामले में रूल क्‍या कहता है तो वह कहता, टेल मी दि मैंन ऐंड आइ शैल टेल यू दि रूल।’ अाप भी कुछ इसी तरह की मुंह देखी करते लगे मुझे। अभद्रता के लिए क्षमा पर अब आप जो कहना चाहें उस पर ध्‍यान दूंगा। हम बदल सकते हैं, परन्‍तु टुकड़खोर बुद्धिजीवी हमें राैंद कर बदलना चाहें तो हम आहत भी होंगे और लाचारी में कुछ ऐसा कह सकते हैं जो कूटनीति के व्‍याकरण से गलत प्रतीत हो।

”शास्‍त्री जी, आप ने तो ऐसा तूमार बांधा कि मुझे खुद भूल गया कि उस समय मैं कहना क्या चाहता था। याद करने में समय लगेगा।”

Post – 2016-07-14

हिरण्‍मयेन पात्रेण सत्‍यस्‍य अपिहितं मुखम्

“शास्‍त्री जी, बतकही की एक गंभीर सीमा यह है कि आप भूमिका बनाते हैं कुछ कहने की और बीच में कोई नया नुक्‍ता आ गया तो पूरी चर्चा उधर ही मुड़ जाती है।
“मैं आपसे यह कहना चाहता था कि शक्तिशाली शत्रु यदि हमारा अहित कर रहा हो तो भी हम उससे इस डर से शिकायत तक नहीं कर पाते कि कहीं रुष्‍ट हो कर वह भारी अनिष्‍ट न कर बैठे। कल तक ब्रिटिश सत्‍ता थी जिसकी चाल हमारे समाज को बांट कर, इतने छोटे छोटे टुकड़ों बिलगा कर रखने की थी, कि जरूरत पड़ने पर किसी का इस्‍तेमाल देशहित और इसलिए समग्र के हित के विरुद्ध किया जा सके और उसके बाद से घरेलू स्‍तर पर वही काम मिशनरी कर रहे हैं और उनके पीठ पीछे अमेरिका कर रहा है। इसमें सभी गोरे देश यदि सहयोगी नहीं हैं तो भी तब तक मौन समर्थक तो हैं ही जब तक उनके निजी हितों पर आंच न आती हो। यह हम जानते हैं, फिर भी न इसकी शिकायत कर पाते हैं न ही इसका सामना करने की तैयारी कर पाते हैं।”

”अपनी बात उदाहरण देते हुए समझाइये। अभी तक तो लग रहा है आप कठोर प्रश्‍नों का सामना न कर पाने के कारण विषयान्‍तर का सहारा ले रहे हैं। कल मैंने इन भाई साहब से कहा था कि आपने जो कहा था उसे चार वाक्‍यों में लिख कर दें तो यह भाग खड़े हुए और आज आप सोच रहें होंगे कि इसका जवाब आपसे न मांग बैठूं तो आप एक नई भूमिका तैयार कर रहे हैं।”

मेरा मित्र सुन कर मुस्‍कराता रहा पर बोला कुछ नहीं।

”देखिए कल की बात से हम कहीं पहुंचेगे नहीं। और इसने जो सभी मुसलमानों को दिमाग से खाली कह दिया वह लगता है आप से अपनी जान छुड़ाने के लिए जल्‍दबाजी में कह बैठा। इसीलिए वह भाग भी खड़ा हुआ, क्‍योंकि उन आला दिमाग लोगों का नाम लेते ही इसका दिमाग खाली तो नहीं, पर भूसा भरा जरूर नजर आता जो इसकी असलियत भी है।

”मैं यह कह रहा हूं कि शक्तिशाली और साधन-संपन्‍न लोग अच्‍छे से अच्‍छे दिमाग के लोगों का इस्‍तेमाल कर ले जाते हैं, सुलझे से सुलझे समाज में गलाकाट शत्रुता पैदा कर लेते हैं। हम या तो उन पर सन्‍देह नहीं करते या सन्‍देह होता भी है तो आनाकानी कर जाते हैं, क्‍योंकि हमारे कई तरह के हित उनसे जुड़े होते हैं जिनमे धन और मान, पद और अधिकार भी आता है। यह कोई नया तरीका भी नहीं है, हमारे लिए तो कम से कम चाणक्‍य के समय तक पुराना, या चाणक्‍य ही क्‍यों, बुद्ध के समय तक पुराना तो है ही। चाणक्‍य ने तो आटविक जनों को भी धन, मान दे कर उस देश के विरुद्ध करते हुए उसका घात करने की सलाह दी है जो धमान्‍तर के अतिरिक्‍त बन्‍धन और निष्‍ठा के द्वारा किया जा रहा है – आटविकानां अर्थमानाभ्‍यां उपगृह्य राज्‍यं अस्‍य घातयेत् । दूसरे बहुत से उपाय है जिन्‍हें अधिक योजनाबद्ध रूप में किया जा रहा है, एक एक को भड़काने के लिए। मादक द्रव्‍यों के प्रयोग से पूरी आबादी को बर्वाद कर देने के आयोजन के पीछे कौन है पता नहीं चलता। मुझे तो नाम भी भूल जाता है, पर आपको याद होगा कि बुद्ध ने किसी गण के विषय में कहा था जब तक उनमें एका है तब तक उनको पराजित नहीं किया जा सकता और फिर जो हुआ था वह भी आपको याद ही होगा।”

”तो मैं कह रहा था कि हमारे देश में भिन्‍नताओं के बावजूद एक अविरोध या निर्वैरता का वातावरण था। एक ढीला ढाला जुड़ाव था जिसमें टकराहट नहीं पैदा होती थी और ढीलेपन के कारण नम्‍यता और समायोजन क्षमता बनी रहती थी। जिस मध्‍यकाल के विषय में आपको हमको बहुत सारी शिकायतें हैं उसमें सत्‍ता में बैठे लोगों ने, मुल्‍लों, मौलवियों, नवाबो, राजाओं और उनके सिपहसालारों ने जो भी अत्‍याचार किए हों, आम जनता के बीच कभी धार्मिक सवालों पर तनाव नहीं हुआ। कभी झगड़ा फसाद नहीं हुआ, यह अंग्रेजों के आने के बाद उनके शासित प्रदेशाे से शुरू हुआ, देसी राजाओं के शासन में वह तब भी नहीं होता था। दंगा या रायट शब्‍द हमारे लिए अपरिचित थे, हाँ अखाड़ा और दंगल से हम अवश्य परिचित थे। बहुत सी बातों को लेकर आपस में झगड़े भी होते थे। अखाड़ों , मठों और पंडों के बीच आपस में ठनी रहती थी पर उनसे उनके जजमान तक अप्रभावित रहते थे। मुझे इस्लाम का इतिहास मोटा मोटी ही मालूम है पर जिन देशों मे इस्लाम फैला उनमें भी ऐसा होता नहीं था। ”

“होता कैसे जब दूसरे धर्मों का कोई जीवित बचता ही नहीं था।”

“ऐसी बात आप कहेंगे तो हैरानी होगी । पहले झटके में या कहें शुरू में जो बल प्रयोग हुआ सो हुआ, पर उनमें कोने अँतरे में जो भिन्न विश्वास के लोग बचे रहे वे अपने ढंग से जीते रहे । इंडोनेशिया मलयेशिया, म्यामार, यहां तक कि ईरान में भी जहां से अपना धर्म बचाने की चिन्‍ता में पारसी भाग आए थे। मुझे तो ऐसा लगता है कि एक दो अपवादाें को छोड़ दें तो कोई भी ऐसा मुस्लिम देश न होगा जिसमें भिन्‍न मत के लोग न रहते रहे हों। हां यह दूसरी बात है कि उनको बराबरी का हक न मिलता रहा हो। वह तो किसी समाज में नहीं था। समानता आदि की अवधारणाएं नई हैं और करनी में जैसा भी हो पर इसे व्‍यापक स्‍वीकार्यता दिलाने में मार्क्‍सवाद की भूमिका अधिक प्रभावी रही है। यह जो तबलीग आदि का बुखार धार्मिक कट्टरता पैदा करने के लिए आरंभ हुआ वह भी उस बडे़ षड्यन्‍त्र का ही हिस्‍सा है जिसके तार दूसरों के हाथ में हैं। यह मेरी अपनी समझ है, पता नहीं कहां तक सही।

”हां एक बात मेरे मित्र ने मुसलमानों के दिमाग के बारे में ठीक ही कही थी। यदि आप लिख कर लेना चाहें तो नोट करते जाइये मैं अन्‍त में दस्‍तखत कर दूंगा। मुखलमानों में कठमुल्‍लों का आतंक इतना जबरदस्‍त रहा है कि इससे बादशाह भी घबराते रहे हैं। अलाउद्दीन के बारे में सुना है, उसके आगे मुल्‍लों कठमुल्‍लों की नहीं चलती थी और अकबर ने उनके चंगुल से निकलने के लिए ही दीन इलाही का उपाय किया था जिसमें अबुल फजल और फैजी के पिता की बहुत कारगर भूमिका थी। जाहिर है, मुस्लिम बुद्धिजीवी भी इनसे लगातार डरते, घबराते रहे हैं और इसलिए उनकी बौद्धिकता का मुस्लिम समाज को कोई लाभ नहीं मिला, एक तरह से कह सकते हैं यह गुलाम समाज है। अपने ही मुल्‍लों और मौलवियों का गुलाम जिनसे विद्रोह करने की किसी की हिम्‍मत नहीं होती और फिर कुरान की दुहाई अलग अलग लोग अलग अलग देते हुए अपने को प्रासंगिक और स्‍वीकार्य बनाए रखने का प्रयत्‍न करते हैं। एक समय ऐसा था जब वेद को भी स्रष्‍टा से उत्‍पन्‍न मान कर आप्‍त बनाने का प्रयत्‍न हमारे यहां भी हुआ था। चल नहीं पाया क्‍योंकि तार्किकता का हनन किसी चरण पर किया न गया।

”वेद हमारे लिए पूज्‍य है, पर मान्‍य नहीं, कुरान उनके लिए पूज्‍य नहीं है पर मान्‍य बना हुआ है। जरूरत उसे अपने समय की अपेक्षाओं के अनुसार सम्‍मान देते हुए उसकी कैद से बाहर आने की है। गुलाम लोग स्‍वतंन्‍त्रता, समानता और बन्‍धुता का न अर्थ समझ सकते हैं न सम्‍मान कर सकते हैं। मुस्लिम समाज को आधुनिकता की अपेक्षाओं के अनुसार नई चेतना से लैस करने का एक बहुत जरूरी काम पड़ा हुआ है और इसमें उनके मुल्‍लों की आड़ में वे ताकतें हैं जो उनकी खनिज संपदा को पूरी तरह अपनी मुट्ठी में करने के लिए उन्‍हें असुरक्षित और कलंकित बना कर रखना चाहती हैं और मध्‍यकाल से बाहर आने नहीं देना चाहतीं। उन्‍हीं के चंगुल में आप जैसे लोग भी हैं पर इसे आप समझते नहीं और आप तो ठहरे विद्वान आदमी मैं समझाना चाहूं तो भी आपकाे समझा नहीं पाऊँगा। आप बाहर निकलने का कोई न कोई तर्क जाल खड़ा कर लेंगे।”

”दे‍खिए डाक्‍साब, मैं इतना ज्ञानी या कुशल तो नहीं हूं कि आपको समझा सकूं पर यह समझना तो चाहूंगा ही कि आपके ऐसा सोचने का आधार क्‍या है?”

”यही समझाने के लिए मैंने सीताराम जी का और उनके सीआइए सूत्र का और उनके और संघ के माध्‍यम से हिन्‍दू चेतना वाले लोगों के बीच पैठ बनाने वाले विदेशी विद्वानों का उल्‍लेख किया था। यह काम बड़ी चतुराई से और एक लम्‍बा जाल बुन कर किया जा रहा है। इसमें बहुत सारे विशेषज्ञ भी काम कर रहे हैं। अमेरिकी पुरातत्‍वविदों में ऐसों की संख्‍या खासी है। विशेषज्ञता के दूसरे क्षेत्रों में भी लोग भरे हुए हैं। भारतविद व भाषाविज्ञानी ऐडविन ब्रायंट मुझसे मिलने 1994 में कभी आये थे तो उन्‍होंने कुर्ता, चप्‍पल, उनेउू पहन रखा था। मुझसे अच्‍छी हिन्‍दी बोल रहे थे जो सीखी हुई नपी तुली हिन्‍दी में होता है। उनके परिचय पत्र पर एक ओर हिन्‍दी में कोई हिन्‍दू नाम लिख रखा था और दूसरी ओर उनका असली नाम। एक विद्वान है जो दक्षिण एशियाई पुरातत्‍व में भी दखल रखते हैं, उनका नाम जार्ज एर्दोसी है, आज से दो दशक पहले की बात है, एफ आर आल्चिन उसके साथ एक ग्रन्‍थ संपादित कर रहे थे। उन्‍होंने बताया कि अब उनका नाम बदल गया है। उन्‍होंने इस्‍लाम कबूल कर लिया है। योजना शीतयुद्ध के उसी तरीके से चल रही है पर अब शत्रु भारत और पाकिस्‍तान सहित दूसरे मुस्लिम देश आ गए हैं। अाप को गर्व होगा कि हमारा हिन्‍दू धर्म या इस्‍लाम इतना गौरवशाली है कि दूसरे धर्मों के लोग इसे अपना रहे हैं, इसके गुन गा रहे हैं, पर असलियत यह है कि वे आपके अपने बन कर आपके हितों के विरुद्ध काम आपको उकसा कर, अधिक कट्टर हिन्‍दू या मुसलमान बना कर स्‍वयं किनारे खडे आप को एक दूसरे से लड़ाते हुए कर रहे हैं। आपको मुसलमानों से लड़ने की जगह किसी युक्ति से उन्‍हें साथ ले कर उनसे लड़ना होगा तभी आपकी मुक्ति है। मुसलमान जैसे भी हैं उनके साथ आप को रहना ही रहना है इसलिए समझ पैदा करके रहें। आज इस चाल को न समझने के कारण जाहिल दोनों है, मुसलमान जज्‍वाती अधिक होने के कारण आप से अधिक मुर्ख हैं परन्‍तु आपने तो पंचतन्‍त्र पढ़ा ही होगा। उसमें ऐसी अनेक कहानियां हैं। वे मुसलमानों को दरिंदा, खूंखार, विश्‍वशान्ति के लिए खतरा बता कर तेल उत्‍पादक देशों को अस्थिर, अपने ऊपर अधिक निर्भर रखना चाहते हैं और इस क्रम में एक दूसरे से लड़ाकर मिटाना चाहते हैं और आपके दुश्‍मन इसलिए हैं कि धर्मान्‍तररण्‍ की आड़ में आपके देश में राष्‍ट्रहित विमुख और अपने धन और समर्थन पर निर्भर उपनिवेश तो नहीं पर प्रभावक्षेत्र बनाना चाहते हैं।”

”आप मुझे क्‍यों समझा रहे हैं डाक्‍साब, इन श्रीमान को समझाइये। इन जैसों को जो इस खेल में उनके साथ हैं और समझते हैं कि वे दुनिया को सेक्‍युलरिज्‍म का पाठ पढ़ा रहे हैं। इनको बताइये कि हम अन्‍यायी नहीं अन्‍याय के शिकार रहे हैं और आज भी हैं। बांटने और पैठ बनाने के उनके प्रयास में ये भी सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं। मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बारे में आप अधिक जानते होंगे, हम तो अपने इन दिमाग से खाली और महत्‍वाकांक्षा से लबालब अपने बुद्धिजीवियों को नहीं समझ पाते। इनके कारनामों की ओर से तो आपने भी मुंह फेर रखा है।

Post – 2016-07-13

सच कहो, सच के सिवा कुछ न कहो

”यदि मैं मानता कि जो मैं सोचता हूं वही ठीक है और इसके परिणाम वैसे ही होंगे जैसा मुझे दिखाई देता है, तो मैं अपने को बुद्धिमान भी समझता और दूसरों को अपने बताए रास्ते पर चलने को प्रेरित भी करता। फिर भी हमारे भीतर सही गलत की एक मोटी समझ होती है और वही हमें अपने कार्यों और विचारों के प्रति आश्वस्त करती है और हम आत्मविश्वास के साथ कुछ कहते, करते या फैसले लेते हैं। शास्त्री जी, आप सीता राम गोयल जी को जानते है?”

”उनको कौन नहीं जानेगा। फारसी, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी पर उतना अच्छा अधिकार किसी दूसरे का देखा नहीं। और हिन्दू मूल्यों के लिए जिस तरह वह समर्पित थे, वह भी किसी अन्य में दिखाई नहीं देता।”

”पर उनका चिन्‍तन और लेखन, ईसाइयों, मुसलमानों ने हिन्दू् समाज को कितनी क्षति पहुंचाई है, इसी तक सीमित था और यहीं तक सिमटा था उनका पूरा प्रकाशन। प्रकाशन में लाभ से अधिक अपने विचारों के प्रचार की चिन्ता, रहती थी अन्यथा हजारों की पुस्तकें मुझ जैसे अनमिनत लोगों को वह बिना मांगे, बिना मोल लिये क्यों भेजते रहते। मैंने कभी इस विषय पर उनसे बात नहीं की कि इस विचार के प्रसार से वह करना क्या चाहते हैं, केवल यह जानता था कि इससे जिस तरह का द्वेष भाव पैदा होगा उसकी परिणति गृहकलह में होगी। गृहकलह पैदा करके समाज को अस्थिर रखने की योजना शत्रु देशों की होती है? हम एेसा करके शत्रु देश की मदद करेंगे या अपने देश और समाज की सेवा करेगे। अन्याय हुआ यह जानने के लिए बहुत अधिक पढ़ने जानने की जरूरत नहीं है, इसे समझ कर आगे बढ़़ना और यह सुनिश्चित करना कि भविष्य में ऐसा न हो या इसे नियन्त्रित किया जा सके यह मेरी समझ से एक देशभक्तढ का काम होना चाहिए और यही सोच कर मैं उनके इन प्रयासों की उपेक्षा करता रहता था। एक बात बता दूं कि उनका संबन्‍ध कभी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी से और बाद मे सीअीईए से रह चका था और बाद में भी विदेशी हिन्‍दुत्‍व कातर बन्‍दे उनके संपर्क में रहते थे। जब देखता हूं आप लोग भी उसी तरह की सोच रखते हैं तो मुझे आपकी देशभक्ति पर भी सन्देह होता है।”

शास्त्री जी ऐसे विषयों पर अपना पक्ष पहले से रखते आए हैं इसलिए वह मेरे प्रश्न से विचलित नहीं हुए, ”देखिए डाक्साब, आप हमें और मुझे लगता है सीताराम जी को भी समझने में आप भूल कर रहे हैं। उनके संपर्क में अनेक मुस्लिम विद्वान भी थेए बेशक वे शिया थ्‍ीे। किसी से द्वेष नहीं रखते। हम अन्याायी नहीं हैं, न अशान्ति पैदा करना चाहते हैं। उसी मध्य काल में हिन्दू राजाओं ने अपनी मुस्लिम प्रजा से, उनके खतरे में पड़े बाल बच्चों के प्राण और सम्मा्न को बचाने के लिए जो किया है और कई बार तो कुर्वानियां दी हैं, उनको शरण देने के मानवीय कार्य के चलते स्पयं अपने प्राणों की आहुति दी है। यह भी देखने वाला कोई हो तो उसे समझ में आएगा कि हिन्दू् आत्मरक्षा के लिए संगठित होते है और रहना चाहते हैं और वे उपद्रव के लिए संगठित होते हैं और इस स्व भाव को बदलना नहीं चाहते। उनके खुराफात पर भी उनके बुद्धिजीवी चुप रहते हैं और हमारे मुंह से एक गलत शब्द भी निकल जाय तो आप सभी तूफान मचा देते है।”

मेरा मित्र इसी समय पधारा परन्तु वह बिना कुछ बोले शास्त्री जी के दूसरी ओर कुछ इस सावधानी से बैठ गया कि हमारी चर्चा में व्यवधान न पड़े। शास्त्री जी का अन्तिम वाक्य उसके कान में पड़ गया था, इसलिए एक बार कुछ कहने को मुंह खोला और फिर बन्द कर लिया। शास्त्री जी का मुंह मेरी ओर था इसलिए वह इसे लक्ष्य नहीं कर सकते थे लेकिन मैं उनकी ओर देख रहा था इसलिए यह दीख गया। मैंने ही उकसाया, ”हां, हां, कुछ कहना चाहते थे तुम। बोलो।” सच तो यह है कि मुझे अभी कोई सही जवाब सूझ नहीं रहा था, इसलिए सोचा बात उस पर टाल दूं।

उसने बड़े अनमने भाव से कहा, ”नहीं, मैं कहना कुछ नहीं चाहता था। सिर्फ यह याद दिलाना चाहता था कि हमने न अपना स्वभाव बदलने की दिशा में कोई काम किया न उसका स्वभाव बदलने की दिशा में।”

शास्त्री जी ने ठहाका लगाया, ”क्या बात करते हैं साहब। हमारे संगठन का तो जन्म ही कटु अनुभवों से हुआ है। हमने अपने स्वभाव के अनुसार उनकी भावनाओं काे अपने अनुकूल करने के लिए खिलाफत आन्दोलन को अपना आन्दोलन बना लिया और हमे मोपला खिलाफत का पुरस्कातर मिला – अपमान, धर्मान्तशरण और निर्मम हत्याएंं और उत्पीड़न। इनका साथ दो तो यही मिलता है। समझे आप । ”

मेरा मित्र उस आन्दोलन के विषय में कुछ जानता था, उसने कहा, ”शास्त्री जी यदि आप उत्तेजित न हों, धैर्य से मेरी बात सुनें और उसके बाद कुछ कहें तो उस पर विचार करूूंगा क्योंकि यह बहुत गंभीर मसला है, हमारे गले की हड्डी बना हुआ है। नहीं, हड्डी नहीं, आप तो शाकाहारी हैं, इसलिए प्रेमचंद ने गले में फसा सोने का हंसिया प्रयोग किया है। बनारस के पंडितों ने यह आविष्काार किया होगा। तो कहिए यह हमारे गले में फंसा सोने का हंसिया है जिसे न तो हम निगल पाते हैं न उगल पाते हैं। मोपला विद्रोह खिलाफत का ही हिस्सा था। तब संचार के साधन बहुत दुर्बल थे। मुसलमान जो जीरो टाइम को अपना वर्तमान बना कर या अपने वर्तमान को जीरो टाइम में पहुंचा कर आज की सभी सुविधाओं का मजा लेते हुए जीना चाहते हैं, दिमागी तौर पर खोखले हैं, उनके दिमाग में कुछ भी भर दो वे उसी पर जान देने और दूसरों की जान लेने को तैयार हो जाएंगे। आन्दोेलन ब्रितानी राज्य् के विरोध में आरंभ हुआ था। उनके शत्रु अंग्रेज थे । उन्होंने उन्हेे मारना काटना शुरू किया। अंगेजो ने हमरी ही भेद नीति को हमसे अधिक समझा था और उन्होंने यह देखते हुए कि इस आन्दोलन को शक्ति प्रयोग से दबाने के परिणाम उल्टें होंगे यह प्रचारित किया कि अंग्रेज खिलाफत आंदोलन के डर से भाग खडें हुए। अब हिन्दुस्तान पर खलीफा का राज्य कायम हो चुका है। अब तुम्हें पवित्र इस्ला्मी राज्य स्थापित करना है, और वह आक्रोश हिन्दुओं की ओर मुड गया। और फिर वे नृशंस कृत्य हुए इससे मैं भी इन्काार नहीं करता। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूें कि अंग्रेजों ने उनको समझा, उनकी कमजोरियों को समझा और अपने प्रतिशोध में बल प्रयोग की जगह बुद्धि का प्रयोग करते हुए उनके क्रोध को हिन्दुंओं की ओर मोड़ कर सुरक्षित हो गए। क्या हमने ऐसी समझदारी कभी दिखाई। उनके दिमाग को बदलने का और सच तो यह है कि अपने दिमाग को बदलने का कोई गंभीर प्रयत्न किया?”

शास्त्री जी भिड़ गए, ”श्रीमन्, आपने तो अपने बारे में मेरी धारणा ही बदल दी। पहली बार लगा कि आपको भी इस देश और समाज के हित की भी चिन्ता है। मैं तो समझता था कि आपको सिर्फ क्रान्ति की चिन्ता है जिसके लिए आप किसी तरह का उचक्कापन कर सकते हैं, कोई बयान दे सकते हैं और किसी की जबान काट सकते हैं और जब पता चले कि क्रान्ति तो हो ही नहीं सकती तो भ्रान्ति को भी तीन चौथाई क्रान्‍ित मानते हुए इसके प्रसार के लिए खुली जबानों को कुछ और खोलने की जंंग लड़ सकते हैं। मैं आपको यह सूचित कर दूं कि अपने अनुभवों से हमने सीखा और बदला है और बदला अपनी परंपरा के अनुरूप ही है। इस बदलाव से संघ का जन्म हुआ जो प्रचारतन्त्र पर आपके एकाधिकार के कारण कुत्सित लगता है, परन्तु यदि वैज्ञानिक मानको का सहारा लें तो आप कुत्सित दिखाई देते हैं। ये ऐसे प्रश्नत हैं जिन पर असमापी विवाद हो सकता है। मैं आपकी मदद करते हुए केवल यह निवेदन करन चाहता हूं कि आप लिख कर मुझे दे दें कि मुसलमान जाहिल होते हैं, उन्हें कोई भी बहका सकता है, वे आधुनिक सुविधाओं को छोड़ना भी नहीं चाहते और हिज्रत और हज्रत के शून्य काल में भी जीना चाहते हैं तो मैं आपसे आगे कोई शिकायत न करूंगा। बोलिए, लिख कर देंगे आप?”

मेरे मित्र को इसी समय कुछ याद आ गया। ‘’अरे, मैं तो घर का ताला लगाना ही भूल गया।‘’ वह उठा और चलता बना।

Post – 2016-07-12

बात अपने दिमाग की भी है

मैंने शास्‍त्री जी को कल जिस तर्कवागीश मुद्रा में देखा था, उसकी तो किसी संघी से उम्‍मीद ही नहीं थी। नहीं, गलत कह गया, मेरे मित्रों में स्‍वराज्‍य प्रकाश गुप्‍त भी रह चुके हैं जो निकरधारी संघी थे, और मित्र तो नहीं कह सकता, और वह संघ को यह कह कर गाली भी देते थे कि गधों की इतनी बड़ी जमात मैंने नहीं देखी पर कहते इसलिए थे कि वह संधियों से अधिक हिन्‍दुत्‍ववादी थे और जहां तक ज्ञान का मामला है उनके सामने मैं हाथ बांध कर खड़ा होता तो उचित होता पर सदा निर्वेद, निष्‍प्रभ उपस्थित होता था, क्‍योंकि आयु और ज्ञान ही नहीं शिष्‍टता में भी मेरे लिए अनुकरणीय थे, परन्‍तु जितनी मेरी समझ है, उसमें मैं उन्‍हें समझदार नहीं मानता था। वह मुझे मूर्ख समझते थे और पूरा मूर्ख भी नहीं समझते थे क्‍योंकि मेरी पुस्‍तक हड़प्‍पा सभ्‍यता और वैदिक साहित्‍य पढ़ने के बाद उन्‍होंने सराहना का पत्र भेजा और इच्‍छा प्रकट की कि उसका अंग्रेजी में अनुवाद होना चाहिए। मैंने उनके बारे में कुछ पता लगाया तो पता चला वह हिन्‍दुत्‍व केन्द्रित पुस्‍तके वायस आफ इ्रडिया से प्रकाशित करते हैं। मैं चुप लगा गया क्‍योकि मैं उन दिनों दिल से मार्क्‍सवादी था दिमाग से कोरा। कुछ दिनों बाद वह मेरे घर पहुंचे। मेरे सामने प्रस्‍ताव रखा कि वह स्‍वयं इसका अंग्रेजी संस्‍करण प्रकाशित करना चाहते हैं। मार्क्‍सवादी दूसरे मुखों से अलग होता है, दूसरे जहां मूर्ख होते हैं, मार्क्‍सवादी पवित्र मूर्ख होता है और किसी भी अपवित्र लगने वाले प्रस्‍ताव से सहमत नहीं होता। मैंने साफ मना कर दिया कि मैं किसी विचारधारा से जुड़े प्रकाशन से अपनी कोई कृति प्रकाशित नहीं कराना चाहता क्‍योंकि मूझे लगता है वह मुझे अपने काम का समझ कर मेरा उपयोग कर रहा है। मैं चाहता हूं मेरा प्रकाशक मेरी पुस्‍तक से अपना व्‍यापार बढ़ाने के उद्देश्‍य से प्रेरित हाे भले वह मेरा हिस्‍सा भी मार ले जाय। य‍दि ऐसा न होता तो पूजीवादी ब्रिटेन के सबसे पहले विनाश की बात करने वाले मार्क्‍स को अंग्रेजी में प्रकाशक न मिलते। मेरी नजर में आदर्श प्रकाशक वह था और आज भी है जिसे आप गालियां दे तो उनकी खपत को देखते हुए वह उसका भी कारोबार कर ले जाए।

इसके पीछे भी मेरी एक समझ थी जिसे समझ न माना जाय तो मुझे आपत्‍ि‍त न होगी। मामला एक आढ़ती से जुड़ा है। उसका एक मित्र था जिसका लड़का किसी काम से लग न पाया था। उसने कहा, इसे कल से मेरी गद्दी पर भेज देना। लड़का काम से लग गया। अगले दिन कोई व्‍यापारी आया। उसे कुछ बातों को ले कर शिकायत थी। वह अनाप शनाप बकने लगा। लाला चुप रहा। फिर वह गालियां देने लगा, लाला चुप रहा पर भतीजा अपने चाचा का अपमान कैसे सह सकता था। उसने उसकी जो तुर्की ब तुर्की की उसके बाद गाली देने वाला तो टिक ही नहीं सकता था, लाला ने अपने दोस्‍त को कहा, यह छोरा मेरे काम का नहीं। इसे वापस ले जाओ। छोरा हैरान उससे गलती क्‍या हुई थी। लाला ने कारण बताया और समझाया कि वह गालियां दे रहा था, कुछ दे ही रहा था न। ले तो नहीं रहा था। यह मेरी समझ से पूजीवाद का सिद्धान्‍त था और यह एक ‘राग निरपेक्ष विचार था और इसलिए वैज्ञानिक न भी, तो भी भरोसेमन्‍द तो था ही। इस सोच का ही परिणाम था कि मैं किसी भी विचारधारा से जुड़े प्रकाशन को अपने लिए विचारणीय तक नहीं समझता था।

मैंने वामपंथियों जैसी निष्‍ठुरता से और यह मर्यादा तक भूलते हुए कि मैं अपने घर आए किसी व्‍यक्ति से बात कर रहा हूं, दो दूक बात की तो वह बिना किसी क्षोभ या प्रतिरोध के बोले, मैं जिस प्रकाशन से इसे प्रकाशित करना चाहता हूं वह मेरे पु्त्र का है मेरे पौत्र के नाम है, उससे केवल दार्शनिक और विचारधारा निरपेक्ष पुस्‍तके ही प्रकाशित हुई हैं और आगे होंगी।

मन में अंग्रेजी में प्रकाशित होने की लालसा थी परन्‍तु उनका सुझाव था कि अनुवाद मैं ही करू़ॅ।

मैंने बताया, मुझे अंग्रेजी पढ़ना आता है लिखना नहीं आता। तो उन्‍होंने कहा, ‘अाप की हिन्‍दी का वाक्‍यविन्‍यास हिन्‍दी का नहीं, अंग्रेजी का है। आप प्रयत्‍न करें , अाप अंग्रेजी लिख सकते हैंं।

मैंने कुछ शर्तें रखीं। उनके हिन्‍दुत्‍ववादी प्रकाशन की पुस्‍तक सूची में मेरी पुस्‍तक का नाम न होगा। मंजूूर। मेरे लिखे में कोई त्रुटि हो तो उसे सुधारा जा सकता है, पर अलग से जोड़ा कुछ नही जा सकता।

गोयल जी ने मेरी सभी शर्ते मान लीं।

इसका ही परिणाम था मेरा दि वेदिक हड़प्‍पन्‍स जिसमें मैंने सोचा कि यदि अनुवाद मुझे ही करना है तो क्‍यों न अद्यतन जानकारी का समावेश करते हुए इसे नये सिरे से लिखा जाय।

इसमें पहले खंड की सामग्री समेटते हुए ही मुझे पसीना आ गया। अगले खंड का साहस ही न हुआ, परन्‍तु इतिहास के श्‍मशानसाधकों को इसके प्रकाशन के बाद ही ठोकरें खाने के बाद अक्‍ल आई।

फिर भी मैं जो कहना चाहता था वह कह ही न पाया। मिसाल के लिए प्रथम खंड के प्रकाशन के बाद दूसरे खंड की सामग्री को एक अलग खंड में प्रकाशित करने का काम।

और एक बात और याद दिला दूं। सीताराम गाेयल मुझे भी कई तरह की गालियां दिया करते थे। गाली का एक रूप वह था जो वह मेरे बारे में दूसरों से कहा करते थे, और दूसरा रूप था वायस आफ इंडिया द्वारा प्रक‍ाशित पुस्‍तकों को मुझे निरन्‍तर, बिना मेरेी रुचि के भेजते रहना। मेरे पास उनके प्रकाशन की सभी पुस्‍तके उपलब्‍ध हैं और उन्‍होंने यह जिज्ञासा तक नहीं की कि मैने उन्‍हें पढ़ा या नहीं। मिशनरी इसी तरह काम करते हैं।

मैंने अपनी मूल्‍यप्रणाली में शास्‍त्री जी का दर्जा उंचा कर दिया ।

Post – 2016-07-12

”शास्‍त्री जी, आपको शिकायत है कि सभी पत्र पत्रिकाओं, संचार के सभी माध्‍यमों पर हमारा अधिकार हो गया, इसलिए आपके विचारों के लिए उनमें स्‍थान नहीं मिलता। इसका उपाय यह तो हो ही सकता था, कि अाप अपने पत्र पत्रिकाएं निकालें और उनके माध्‍यम से अपने विचार प्रकट करें। हमारे देश में पत्र पत्रिकाएं निकालने पर कोई रोक तो हैं नहीं।” मित्र ने कल की बहस से कड़ी जोड़ते हुए कहा।

”कोशिश कर रहे हैं, उस दिशा में भी कोशिश कर रहे हैं।”

”कोशिश आपने पहले भी की है। आपका एक पत्र अंग्रेजी में और दूसरा हिन्‍दी में निकलता ही रहा है, पर उसके पढ़ने वाले नहीं मिलेंगे।”

”संगठनों या दलों से जुड़ सभी पत्रों का यही हाल होता है, वह आपके दल का हो, या कांग्रेस का हो या हमारी विचारधारा का हो। सच तो यह है कि यदि इस दृष्टि से देखने चलेंगे तो पांचजन्‍य और आर्गनाइजर के पाठक दूसरे दलो और संगठनों के मुख पत्रों से अधिक मिलेगे। परन्‍तु मै साहित्यिक और वैचारिक पत्रों की बात कर रहा था ।”

”इसके दो कारण हैं। पहला यह कि बुद्धिजीवी, विचारक, साहित्‍यकार, कलाकार दुनिया को खंडित करके नहीं देख सकता। आप खंडित मानवता की बात करते हैं इसलिए बुद्धिजीवी और संवेदनशील व्‍यक्ति आपकी विचारधारा से जुड़ नहीं सकता। जिस उदात्‍त चेतना और कल्‍पना की पूंजी से साहित्‍य और कला का जन्‍म होता है वह न आपके पास है न मुस्लिम लीग के पास थी, न नाजियों के पास थी …”

शास्‍त्री ने रास्‍ता रोक लिया, ‘न कम्‍युनिस्‍टों के पास थी यह कहना आप भूल गए।
देखिए श्रीमान्, खंडित चेतना और खंडित मानवता की बात नहीं करते। हम उस परंपरा की बात करते हैं जिसमें सबसे पहले विश्‍वबन्‍धु, विश्‍वामित्र, सुबन्‍धु, जैसे नाम ऋग्‍वेद के समय से ही मिलने लगते हैं। जिसमें समस्‍त पर्यावरण के संरक्षण और परिवर्धन की चिन्‍ता थी। हम न बुरी बातें सुनना चाहते न बुरी चीजें देखना चाहते थे और बिना किसी का शोषण उत्‍पीड़न किए स्‍वावलंबी बन समर्पित भाव से पूर्णायु जीना चाहते रहे हैं। कभी वेद की वह ऋचा सुनी है:
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिव्र्यशेम देवहितं यदायुः ।।
हमने सर्वे भवन्‍तु सुखिन: सर्वे सन्‍तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्‍यन्‍तु मा कश्चित् दुखभाग भवेत का स्‍वप्‍न देखा था।”

मेरे मित्र ने अटटहास किया तो पेड़ों से परिन्‍दों के उड़ने की फड़फड़ाहट सुनाई दी। ”अरे शास्‍त्री जी यह खयाली पुलाव था। कभी सचाई में बदला क्‍या। कहां की बातें करते हैं।”

शास्‍त्री जी ने कच्‍ची गोलियां नहीं खेली हैं, ”सभी महान आदर्श कल्‍पना ही होते हैं। समानता, स्‍वतन्‍त्रता ओर बन्‍धुभाव भी कल्‍पना ही तो है। कभी चरितार्थ हुआ, परन्‍तु जब से कल्‍पना में आया इस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा जगी, प्रयत्‍न आरंभ हुए, सताए हुए मनुष्‍य में भी यह विश्‍वास आया कि वह दूसरों की बराबरी पर आने का अधिकारी है और इस स्‍वप्‍न के बाद के संसार को देखें तो पाएंगे यह पहले की तुलना में कुछ उत्‍कृष्‍टतर हुआ है परन्‍तु इसके समानान्‍तर अवरोधी शक्तियों ने भी सक्रियता दिखाई है। यही हमारे इतिहास में भी हुआ, परन्‍तु हम उसके इस सूत्र को कभी भूले नहीं, अपनी प्रार्थनाओं में, लगातार शान्ति, सौहार्द, मैत्री के इन महावाक्‍यों को दुहराते हुए आत्‍म प्रबोधन करते रहे। आटोसजेश्‍चन। और यही कारण है विकृतियों को निर्मूल न कर पाने के बाद भी दूसरे किसी समाज में जिस तरह के सामाजिक दमन, उत्‍पीड़न प्रचलित रहे उसकी तुलना में हमारे यहां वही बुराई इतनी कम रही है कि उन समाजो का अनुभव रखने वाले हमारे समाज को देख कर चकित रह जाते थे कि यहां वह बुराई है ही नहीं।”

”शास्‍त्री जी, आप अपनी विकृतियों के इतने आदी हो चुके हैं कि वे न आपको आहत करती है, न ध्‍यान खींचती हैं। बदबू भरे परिवेश में लगातार रहने वाला व्‍यक्ति की घ्राणशक्ति खत्‍म हो जाती है।”

”यहां भी आपसे चूक हो रही है जनाब। कहना चाहिए था, गन्‍ध की उसकी परिभाषा बदल जाती है। गन्‍दगी के फर्मेंटेशन से जो मादकता पैदा होती है उसका आदी हो जाने के कारण स्‍वच्‍छ वातावरण उसे रास नहीं आता। कभी गन्‍दे सडे़ नाले के पास से गुजरते हुए ध्‍यान दीजिएगा एक्‍लोहल जैसी गन्‍ध की तो मेरी बात समझ में आ जाएगी और तब आपको समझ में आ जाएगा कि भारत के प्राचीन इतिहास में आप लोगों को घुटन क्‍यों अनुभव होती है, और विकृत समाजों के इतिहास पर आप इतने मुग्‍ध क्‍यों रहते हैं कि प्राचीन भारत के इतिहास को भी नष्‍ट करने लगते हैं । श्रीमान कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि जैसे एक दौर में धर्मोन्‍मादियों ने हमारे मन्दिरो, उनकी कलाकृतियों, विद्यालयों को नष्‍ट किया ठीक उसी उन्‍माद से आप ने मार्क्‍सवादी इतिहास के नाम पर हमारी संस्‍क़ति को नष्‍ट करना आरंभ किया।

मेरा मित्र कुछ बोलने को हुआ पर शास्‍त्री जी पूरे जोम में थे, ”आप मुझे खंडित मानवता का प्रतिनिधि बताते हैं। आपका जो साहित्‍य है वह इ‍तना खंडित, इतना छोटा, इतना उथला है कि उसमें मजदूर को छोड़ कर पूरा समाज गायब है और मजदूर ही है जो आपके साहित्‍य से दूर भागता है क्‍योंकि वह जो भोगता है उसे आप जानते नहीं, जान भी जायं और उसे चित्रित भी कर लें तो वह अपने दूख से मुक्ति का उपाय करेगा या उसे दुबारा काल्‍पनिक स्‍तर पर भोग कर अपनी शाम खराब करेगा, इसलिए वह प्रेमिका की याद में गाने गाता है, होली कजरी गाता है और जिस मस्‍ती से गाता है उस मस्‍ती को भी आप नहीं समझ सकते। आप यथार्थ से कटे हुए, मजदूर का जीवन जिए बिना ही वातानुकूलित कमरों में बैठ कर उसकी उमस, घुटन और पसीने का कारोबार करते है़, पूरा दिन इनकम टैक्‍स बचाने और कम्‍पनियों के शेयर भाव की पड़ताल करते हुए उसके अभावो का बाजार भाव पता लगाते है, आप मुझे खंडित मानवता का प्रतिनिधि बताते हैं।”

अाप कला और साहित्‍य की इतनी बातें करते हैं और इनकी धेले की समझ नहीं। कला कागज का फूल नहीं है कि कहीं से खरीद लाए गुलदस्‍ते में लगा दिए। यह अपनी जमीन में पैदा होती है, जमीन से जुड़े लोगों द्वारा पैदा की जाती और इसकी गन्‍ध पर्यावरण में इस तरह फैली रहती है कि जो दूसरे कामों में व्‍यस्‍त रहते हैं उनको भी इसका कुछ न कुछ लाभ मिलता है। आप कहीं का पढ़कर, वहां रहे और गए और वह जीवन जिए बिना ही उस जैसा लिख कर उसके बराबर होना चाहते हैं और जहां सफल होते हैं वहां भी उससे इतनी ही बाहबाही पाते हैं कि देखो यह भी हमारे जैसा बनना चाहता है और काफी करीब आ गया है। पर इससे अधिक नहीं। उसके समाज में भी आपकी पैठ नहीं बन पाती, अपने समाज में भी पैठ नहीं बन पाती।

मै चुपचाप मजे ले रहा था, मेरे मित्र ने फिर कुछ बोलने का प्रयत्‍न किया परन्‍तु शास्‍त्री जी ने उसे रोक दिया, ”सुनिये, पहले सुनिये मेरी बात, आप की बातें मैने हजारों बार सुनी है, सभी एक ही बात कहते है, जैसे पाठ रट रखा हो, इसलिए मुझसे सुनिये, साहित्‍य और कला विषाद गाथा नहीं है, यद्यपि दुख और पीड़ा के लिए भी उसमें सदा से स्‍थान रहा है परन्‍तु उसे इकहरे और किताबी दुख के लिए नहीं, दुख और पीड़ा के असंख्‍य रूपों के लिए। करुण रस की महिमा से मैं इन्‍कार नहीं करता परन्‍तु कला ससीम को असीम से जोड़ने का, आह्लाद और लास्‍य की अकल्पित संभावनाओं के आविष्‍कार का भी माध्‍यम है। अपनी पराकाष्‍ठा पर यह विश्‍वसाक्षात्‍कार का रूप ले सकती है। आप ने उसे पंगु बना कर उसका बाजार खड़ा कर लिया और कहते हैं सबसे प्रतिभाशाली लोग आपकी ओर ही खिंचे चले आते हैं। वे सबसे प्रतिभाशाली नहीं, अल्‍प से बहु पाने और इसके लिए किसी तरह की मिलावट करने की योग्‍यता रखने वाले लोग होते हैं और ऐसों ही से तो आप का बौद्धिक वर्ग बना हुआ है। जो तत्‍वदर्शी हैं वह हमारे साथ हैं। वे यह देख कर अवाक् रह जाते हैं कि यह हो क्‍या रहा है। हम ऐसे लोगों को आमन्त्रित करने वाले हैं कि चकित और विस्मित होने की जगह सक्रियता दिखाइये और फैशनेबुल बौद्धिकता और कला साधना से आगे जाने वाली, अपने समाज से जुड़ने और उसे जोड़ने और जगाने वाली विचार साधना और कला साधना कीजिए।”

”जब अापको अपनी कल्‍पना का पहला बौद्धिक, पहला कलाकार मिल जाय तो उस नमूने को यहां ले आइयेगा। हम भी दर्शन कर लेंगे। आज तो आप किसी की सुनने वाले नहीं इसलिए राम राम, कहिए तो जैश्रीराम भी कह दूं।” वह उठ कर चलता

Post – 2016-07-11

यह कौन सी मंजिल है कहां पर पहुंच गए

”देखिए सर, जब कोई ऊँची ऊँची बातें कर रहा हो और ऊँचाई की उसकी परिभाषा अपने को गर्हित बता कर दूसरे को प्रसन्‍न करना चाहता हो तो यथार्थ की बात करने वाला संकीर्ण और मानवताद्रोही तक लगता है या सिद्ध कर दिया जाता है। भाई साहब के साथ बीमारी यही लगती है।” मेरे मित्र की टिप्‍पणी का दंश शास्‍त्री जी के मन में अभी तक बना हुआ था।

हम तीनो साथ ही बैठे थे इसलिए भले उन्‍होंने संबोधित मुझे किया हो, सुन तो मेरा मित्र भी रहा था। चुप कैसे रहता। आप किस यथार्थ की बात कर रहे हैं, क्‍या हम जिस यथार्थ में जीते हैं, आप उससे भिन्न यथार्थ में जीते है।”

”यथार्थ तो एक ही होता है श्रीमन् परन्‍तु किसी को पूरा दीखता है और कुछ लोगों को केवल अच्‍छा अच्‍छा ही दीखता है और कुछ लोगों को कुछ बुरा ही बुरा दिखाई देता है, इतना बुरा कि वे बुराई से मुक्ति पाने के लिए पूरे संसार को ही मिटा देना चाहते है और कुछ लोग आप जैसे होते है जो दूसरों को खुश करने के लिए अपने समाज की ऐसी विकृतियां देश काल का ध्‍यान दिए बिना और बिना किसी प्रसंग के लाकर तमाशा खड़ा कर देते हैं कि लो देखो इससे बुरा कुछ हो सकता है, और इसके बूते पर ही वे अपने समाज के शेष लोगों से श्रेष्‍ठ सिद्ध होना चाहते हैं।

”जब मैं यथार्थ की बात करता हूं तो गुण-दोष युक्‍त यथार्थ की बात करता हूं, अच्‍छाई में बुराई के अनुपात की बात करता हूं, उपलब्‍ध विकल्‍पों के बीच चुनाव की बात करता हूं, काल्‍पनिकता और व्‍यावहारिकता की बात करता हूं और क्षमा करें श्रीमान जी, अाप जैसे लोग उस कृत्रिम और गर्हित यथार्थ की जिसे आपने जाने कहां कहां से सामग्री लेकर अपने को लोकोत्‍तर दिखाने के लिए तैयार किया है।”

मेरा मित्र भी कम जिद्दी तो है नहीं बोला, ”आप का यथार्थ उस शाखा का यथार्थ है जिसके आप प्रमुख हैं और जिसका जन्‍म ही मुस्लिम द्वेष से हुआ है, जिसका आदर्श हिटलर है, जिसके लोग पूरी जाति को ठिकाने लगाने की बातें करते हैं, जो इतिहास से इतना भी नहीं सीखते कि हिटलर की सनक से उसका तो जो होना था हुआ ही, उसके कारण जर्मनी पूरी दुनिया की नजर में गिर गया, जर्मनों से लोग आंखे फेरने लगे।”

बहस जो मोड़ लेती जा रही थी उससे भीतर से कुछ अव्‍यवस्थित अनुभव कर रहा था, कि मेरे मुंह से हठात् निकला, ‘गई भैस पानी में।’

मेरे मित्र का भाषण बन्‍द हो गया और उसने चौंक कर कहा, ”भैंस। भैंस कहां से आ गई?”

शास्‍त्री जी हंस पडे । सोचा, चलो माहौल तो बदला। इसका लाभ उठाते हुए कहा, ‘मैंने तो शास्‍त्री जी के गणवेश पर ध्‍यान ही न दिया था। अब समझ में आया इनके ब्राह्र्म मुहूर्त में जगने का रहस्‍य। पर एक बात बताइये, जब आप दोनों में इतनी समानताएं हैं तो कम से कम आप लोगों को तो मिल जुल कर, प्रेम से रहना चाहिए। अाप क्‍याे झगड़ने लगते हैं?”

इस तरह के सवाल के लिए दोनों तैयार नहीं थे। मेरे मित्र को तो मेरे स्‍वभाव का कुछ पता था, पर शास्‍त्री जी के लिए यह झटका था। उनके मुंह से निकला, ”यह क्‍या कहते हैं आप। कम्‍युनिस्‍टों से हमारी तुलना करेंगे?”

”मेरी इसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं। पर क्‍या कभी आपने नट को रस्‍सी पर चलते देखा है ?”

इस बार मेरे मित्र के बोलने की बारी थी, ”तुम्‍हारा दिमाग कहां कहां भटकता रहता है, यार ? कभी भैंस तो कभी नट की बाजीगरी, अस्थिर चित्‍तता के नायाब नमूने हो तुम। विषय पर ध्‍यान ही नहीं।”

”मैं यह कह रहा था कि बांस के जिन खंभों पर वह रस्‍सी तनी होती है, उनको गाड़ा नहीं जाता। जमीन पर टिका कर पीछे की ओर दो रस्सियों से तान कर उनके खूंटों को गाड़ दिया जाता है। दोनों बांसों में और उनके पीछे की रस्सियों और खूंटों में समानता होती है। रस्‍सी तो दोनों के बल पर तनी रहती ही है। बस दोनों में एक ही भिन्‍नता होती है कि वे विरोधी दिशाओं में खड़े होते हैं, विरोधी दिशाओं में तने रहते हैं, परन्‍तु य‍दि एक गिर जाय तो दूसरा अपने आप लुढ़क आएगा और उसके साथ ही रस्‍सी पर कलाबाजी करने वाला भी जमीन पर आ गिरेगा। इसलिए कम्‍युनिस्‍टों को कम्‍युनलिस्‍टों का विरोध करने का प्रदर्शन तो करना चाहिए परन्‍तु इस बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि अगला जमीन पर न आ गिरे, क्‍योंकि उसके बाद दूसरे का भी वही हाल होगा।”

कनमनाएंगे दोनों यह तो मुझे पता ही था। इसलिए उनकी मुद्रा देख कर ही मैं आगे बढ़ गया, ”जरा समानताओं पर तो गौर करे आप दोनों : अनुशासन प्रियता में आप और यह दोनों बराबर हैं और दोनों अपने दिमाग से काम नहीं लेते। नफरत दोनों का हथियार है और जहां दिमाग से काम लेना चाहिए वहां भी नफरत को विचार बना कर पेश करते हैं। दोनों का हिटलर से गहरा संबन्‍ध है परन्‍तु क्रम कुछ गड़बड़ है, फिर भी हिटलर का वह सूत्र दोनों अमल में लाते हैं कि यदि तुम्‍हारा दुश्‍मन तुमने नफरत नहीं करता तो समझो तुम अपने को साबित ही नहीं किया । दोनों को, नाजियों की तरह खंडित मानवता से प्‍यार है और अपने को सर्वश्रेष्‍ठ सिद्ध करने की जिद है। कम्‍युनिस्‍ट जमीन जायदाद और कारोबार वालों से नफरत करते थे इसलिए उनको कत्‍ल करके उन्‍होंने अपना समतावादी समाज तैयार किया पर उसमें भी अशुद्धियां पैदा हो गई तो जिन्‍होंने इस पर आपत्ति की उन्‍हे साइवेरिया के कैंपों में भेज, विचार और संचार के साधनों पर कब्‍जा जमा कर जो जी में आया किया और दुनिया को जो चाहा समझाया और बाहरी लोगों को दिखाने के लिए जो नुमायश तैयार की थी उसे दिखा कर इस भरम में डाल दिया कि इससे अच्‍छा समाज कोई हो नहीं सकता। हिटलर ने इनसे शिक्षा ग्रहण करके, वही काम दो दशक बाद जिन यहूदियों की सफलता से उसे घ़णा थी उनको यातना म़त्‍यु दे कर वही काम किया और आप जिनसे घृणा करते हैं उनका सफाया करने का इरादा रखते हैं। अन्‍तर सिर्फ यह कि कम्‍युनिस्‍ट जो सोचते थे वह कर सके क्‍योंकि तानाशाही में कुछ भी संभव है और उस समय तक दुनिया के अमन चैन का ठेका लेने वाला कोई लीग या आर्गेनाइजेशन भी नहीं था। हिटलर जो चाहता था, करके बेबा‍क निकल जाता और दुनिया को अपने इशारे पर नचाता यदि उसने गुरुद्रोह करके सोवियत संघ पर हमला न कर दिया होता। याद रहे कि तब तक तो उसे सोवियत संघ का भी समर्थन मिला हुआ था क्‍योंकि वह पूंजीवादी देशों से लड़ कर उन्‍हें मिटा या कमजोर कर रहा था। उस स्थिति में वह उस गति को भी न प्राप्‍त होता और दुनिया का इतिहास क्‍या होता यह केवल कल्‍पनाविलास की बात है, परन्‍तु लोकतन्‍त्र में ऐसा संभव नहीं है…

शास्‍त्री जी मैदान में आ गए, ”संभव तो कुछ भी है, गुरुदेव। लोकतन्‍त्र में संभव तो यह तक है कि जितने यहूदियों को हिटलर ने मौत के घाट उतारा था और जिसे उसके कुक़त्‍य के लिए नरपिशाच बना दिया गया, उससे अधिक जा‍पानियों को एटम बमों से भूनने वाला टूमन, तानाशाह तक न कहलाया, युद्ध अपराधियों तक में न गिना गया, जिस देश की यह करतूत थी वह छोटे बड़े पैमाने पर आज तक यही करता आ रहा है पर अमेरिका की ओर कोई उंगली तक नहीं उठाता।”

मैंने ताली बजाई, ”रिजाइन्‍ड।”

सुन कर दोनों चौंके। मैंने कहा, कमाल की तार्किकता है शास्‍त्री जी में। अब मैं मोदी और भाजपा और संघ की वकालत का काम इन्‍हें सौपता हूूं क्‍योंकि मैं तो अपनी सेवायें उनको सताया हुआ समझकर अर्पित कर बैठा था। मगर शास्‍त्री जी, जब आप इतने तार्किक ढंग से अपना पक्ष रख सकते हैं तो आपने पहले यह कमाल पत्रों पत्रिकाओं में अपना पक्ष रख कर दिखाया क्‍यों नहीं?”

”यह एक दुखद प्रसंग है। तानाशाही उसे कहते हैं जिसमें मारते तो हैं पर पिटने वाले को रोने की अनुमति नहीं देते, यातना के उग्रतर रूपों की याद दिला कर चुप करा देते हैं। हमारी वही दशा रही है। आपने एक बार कहा था, ”अंग्रेज, सच कहें तो नस्‍लवादी ईसाई यह मानते थे कि गुलामों के आत्‍मा नहीं होती इसलिए यदि उनको कितना भी पीडि़त किया जाय उससे पाप नहीं लगता, उनकाे पीड़ा तक नहीं होती। ठीक यही मानसिकता सत्‍ता, संचार और विचार के समस्‍त केन्‍द्रों पर अधिकार जमाने वालों की रही है जो इन्‍ही शब्‍दों में कहते तो नहीं, परन्‍तु ध्‍यान दें तो मानते रहे हैं कि हिन्‍दू आदमी नहीं होता। वह निर्वासित हो, उत्‍पीडित हो, उससे हास्‍य रस पैदा होता है और हास्‍य रस के इन प्रेमियों के बीच हमारी आह और चीत्‍कार तक के किए कोई कोना नहीं था। आज वे इसलिए व्‍यथित है कि जो आदमी है ही नहीं वह आदमी होने का दावा कैसे कर रहा है। वह अपनी वेदना को व्‍यक्‍त करने का अवसर कैसे पा रहा है।”

शास्‍त्री जी ने प्रसंग ही ऐसा छेड़ दिया कि मेरा मित्र भी उसका प्रतिवाद न कर सका। उठते हुए इतना ही कहा, ”गलतियां और लापरव‍ाहियां तो कुछ हमने भी की हैं, नहीं तो यह दिन तो न देखना पड़ता।”

Post – 2016-07-10

कबहुं न छाड़ें खेत

शास्‍त्री जी मैंदान छोड़ने वालों में से नहीं हैं। मैंने कहा था आज आने के लिए तो वह पहले से मोर्चा संभाले मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंंने विनोद में यह बताया तो हंसने लगे, ”नहीं, इसमें मोर्चा संभालने जैसी कोई बात नहीं है। मैं ब्राह्म बेला में ही जग जाता हूं, इसलिए मेरा दिन विलम्‍ब से जगने वालों की तुलना में कुछ लम्‍बा होता है।”

”और अपने बराबर की उम्र वालों की तुलना में आप की आयु भी कुछ लम्‍बी होती है।” सुन कर वह प्रसन्‍न हो गए, ”हां, यह भी कह लीजिए।”

”शास्‍त्री जी, मैं अपनी कही कुछ और बातों की याद दिलाना चाहता था। पहली यह कि मनुष्‍य में प्रशंसा की भूख इतनी प्रबल होती है कि वह इसके लिए गर्हित से गर्हित और असंभव से असंभव काम कर सकता है। और यह किसी भी आदमी या किसी भी समाज में संभव है, शर्त यह कि उसकी मूल्‍य प्रणाली ऐसी बना दी जाए।”

शास्‍त्री जी की स्‍मृति मेरे मित्र की तुलना में अच्‍छी है, ओजोन पूरित मलयानिल का सेवन करने वाले हुए, इसलिए उन्‍होंने यह भी याद दिलाया कि पवित्रता और न्‍यायप्रियता के नाम पर ईसाई मिशनरियों और पोपों ने स्‍वयं कितने अमानवीय कुकृत्‍य, कितने बड़ पैमाने पर किये, और वह भी फ्रांस जैसे देश में भी जो कला और संस्‍कृति में अपने को अनन्‍य मानने का भ्रम पालता है, यह भी एक बार मैंने कहा था। बस एक बात पर उन्‍हें सन्‍देह था कि अपने समाज में भी ऐसा हो सकता है सो कुछ ऐसे प्रचलनों की याद दिलानी पड़ी तो दबे मन से मान लिया, ‘हां, था तो पर अपने यहां… ” फिर आगे कुछ कहे बिना ही उदास से हो गए।

”मैंने यह भी कहा था कि कोई भी कथन या कृत्‍य इतने असंख्‍य ज्ञात और अज्ञात कारकों की परिणति होता है कि उसको देखते हुए जो घटित हुआ उसके अतिरिक्‍त कुछ घट ही नहीं सकता था और इस दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हमसे जो हुआ वह हमने किया नहीं, मात्र निमित्‍त बने रहे। करने वाला कोई और है। उस समय भी मैंने कहा था वह और भौतिक और सामाजिक और आर्थिक कारको का संकेन्‍द्रण भी हो सकता है।”

”नहीं, पहली बात तो आपने ठीक इसी तरह कही थी, पर बाद वाली बात आज जोड़ रहे हैं।”

मैं हैरान रह गया, शास्‍त्री जी की स्‍मृति इतनी स्‍वच्‍छ है। जो सूचना वहां पहुंच गई वह बिना किसी जोड़-तोड, फेर-बदल के फ्रीज रहती है। खैर, ”मैंने उन असंख्‍य घटकों का हवाला दिया था जिसमें हमारे गर्भ काल से लेकर बाद के समय के अनुभव, हमारी जननी को मिले पोषण, हमारी वंशागत व्‍याधियाें, गुणसूृत्रों, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों, संपर्क और व्‍यक्तिगत अनुभव सभी का योग होता है और सबसे अधिक योग उस शिक्षा का होता है जिसकी संस्‍थाएं गुरुजन, परिजन, मित्रमंडली, लब्‍ध परंपरा और इतिहास पुराण, शिक्षा केन्‍द्र आदि हैं और उूपर से सामयिक घटनाओं आदि के दबाव में हम जो कुछ करते हैं हम मान लेते हैं कि हम कर रहे हैं, जब कि वह हमारे माध्‍यम से घटित हो रहा है।”

शास्‍त्री जी को मानना चाहिए था कि मैंने उूपर जिसे संक्षेप में कहा था उसे कुछ विस्‍तार से समझाते हुए कह आया था, पर अपनी बात कटते देख भड़क गए, ”आपके पास अब कहने को कुछ नया नहीं बचा है कि जो पहले कहते रहे हैं उसी को दुहरा रहे हैं। सुनिये, जो कुछ आपने कहा था उसमें यह भी कहा था कि कुछ मामलों में विरल अपवादों को छोड़ वृहत्‍तर समुदायों का आचरण एक जैसा होता है और मुझे मुसलमानों से यही शिकायत है। ये जहां भी हैं, जिस भी देश में हैं, जिस भी समाज ने इन्‍हें बसने और रहने की स‍ुविधाएं दी हैं, सभी में इनका यही चरित्र है। हुए ये दोस्‍त जिसके दुश्‍मन उसका आसमां क्‍यों हो।’

”वाह! क्‍या कही है आपने। परन्‍तु मैंने यह कहा था कि एक विचारक की भूमिका चिकित्‍सक की होनी चाहिए न कि अपराध शाखा के पुलिस की। यदि कोई विकृति या व्‍याधि बहुत बड़े पैमाने पर दिखाई देती है तो भी हमारे पास एक ही उपाय है कि हम उन घटकों का पता लगाएं जिनका परिणाम कोई प्रवृत्ति या कार्य है। महामारी में आप रोगी को नहीं उस अदृश्‍य विषाणु को दोष देते हैं जिसने उसमें प्रवेश कर लिया है, उस माध्‍यम या संवाहक का पता लगाते हैं जिनके संसर्ग में आने से यह व्‍याधि फैली है, न कि रोगी को दोष देते हुए बदले की कार्रवाई के रूप में स्‍वयं उसी व्‍याधि से ग्रस्‍त होना चाहते हैं।”

शास्‍त्री जी को गुस्‍सा कम आता है लेकिन मेरे समझाने में कोई चूक रही होगी कि वह भीतर ही भीतर कसमसाने लगे थे और यह कसमसाहट उनके चेहरे पर बढ़े रक्‍त के दबाव में प्रकट हो रही थी। चेहरे पर बढ़ती लाली की ओर ध्‍यान गया तो हठात् एक विनोद सूझा और वातावरण को हल्‍का बनाने के लिए कहना चाहा, ”शास्‍त्री जी आपके सिर पर तो खून सवार होता जा रहा है।” परन्‍तु उनसे अपने मित्र जैसी प्रगाढ़ता न थी, फिर उम्र का भी अन्‍तर था, इसका उल्‍टा ही असर होता, इसलिए चुप तो कर गया पर कुछ देर तक मजा लेते हुए मुस्‍कराता रहा।
हम बातों में इतने लीन थे कि यह पता ही न चला कि मेरा मित्र कब आ कर मेरी बगल में बैठ गया था। इस वाक्‍य की सूझ और फिर मुस्‍कराहट से जो राहत मिली उसका यह लाभ हुआ कि उसकी उपस्थिति का भी आभास हो गया।
शास्‍त्री जी अपने विचारों पर पूरी तरह द़ढ़ थे, ‘देखिए, आप मुसलमानों को नहीं जानते। यदि आप कहते हैं कि समाज और व्‍यक्ति के निर्माण में परंपरा का भी हाथ होता है तो यह समझ लीजिए कि इनकी परंपरा ही विश्‍वासघात की रही है। कर्बला से ले कर आज तक, और हो सकता है उससे पहले से ही, मुहम्‍मद साहब ने खुद क्‍या किया था, उन पर आयद होने वाली आयतों तक में यह मौकापरस्‍ती देखी जा सकती है। आस्‍तीन का सांप, पीठ में खंजर घोंपने, जैसे मुहावरे यहां तक कि दगा, फरेब जैसे शब्‍द हमारी भाषाओं में न मिलेंगे क्‍योंकि यह हमारे आचरण में न था। हां, एक मुहावरा अवश्‍य मिलेगा, तिलगुड़ भोजन, तुरुक मिताई, आगे मीठ पीछे पछताई । आप समझे मेरी बात ?”

मेरा मित्र अभी तक चुप सुन रहा था, अब उससे न रहा गया तो मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने हस्‍तक्षेप कर दिया, ”शास्‍त्री जी आप से ज्‍यादती हो रही है। इस तरह की सोच से झगड़ा फसाद तो किया जा सकता है, मिल जुल कर रहा नहीं जा सकता।”

शास्‍त्री जी उत्‍तेजित हो गए, ”मिल-जुल कर रहना कौन चाहता है, उनके साथ?”

मेरा दोस्‍त फिर बीच में कूद गया, ”मिल जुल कर तो आप हिन्‍दुओं के साथ भी नहीं रह सकते, इसकी तो आपको आदत ही नहीं है, आप तो अपनी छाया तक से नफरत करते हैं, आप किसी दूसरे के साथ मिल जुल कर कैसे रह सकते हैं। आप मिलिए या बिदकिए आपका काम उनके बिना चलता नहीं है। इस समाज के तार इस तरह गुंथे मिले हैं कि इसकी आप को समझ ही नहीं हो सकती।”

शास्‍त्री जी हैरानी में उसका मुंह देखने लगे। बिना कुछ बोले ही उनके चेहरे से यह भाव प्रकट हो रहा था कि कल तो यह आदमी मेरे साथ था और आज इसे क्‍या हो गया। दोनों के स्‍वर में आई कर्कशता मुझे भी खल रही थी। इससे तो सोच समझ का रास्‍ता ही बन्‍द हो जाएगा, ”आप किसी को डांट कर या पीट कर तो कोई बात समझा नहीं सकते, तैश में क्‍यों आ गए आप लोग। हम तो अपने मन के भीतर के उस जहर को बाहर निकालना चाहते थे जिसे भला बने रहने के लिए हम छिपाए या दबाए रहते हैं। मन को स्‍वच्‍छ बनाने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं। उस मवाद को बाहर आने दीजिए तभी घाव भरेगा। पर नश्‍तर इतने आवेश में न लगाएंं कि घाव गहरा हो जाय ।”

मेरे हस्‍तक्षेप का इतना असर तो हुआ ही कि दोनों का चेहरा उतर गया, कहिए तनाव कम हो गया। मैने शास्‍त्री जी को समझाना चाहा, ‘देखिए जोड़ने का काम अर्थव्‍यवस्‍था करती है और तोड़ने का काम धर्मशास्‍त्र करते हैं। खैर अब तो मिलों का बोलबाला है, लेकिन आज भी बुनने का काम जुलाहे करते हैं। उनको अलग कर देते तो नंगे रह जाते आप। दर्जी का काम मुसलमान करते है। रंगने का काम रंगरेज करते हैं। …”

शास्‍त्री जी फिर तैश में आ गए, ”हैं, मुसलमान हैं, पर आपही कह चुके हैं कि जिन पेशों में घर में कुछ तैयार सामान पड़ा रहता था ज‍ि‍जिया आदि के नाम पर उनकी लूट पाट होती रहती थी इसलिए उन्‍होंने सामूहिकत धर्म परिवर्तन कर लिया। वे थे तो हिन्‍दू ही और हिन्‍दू मूल्‍यों के प्रति कितनी गहरी ललक थी। कबीर को कभी इस नजर से पढें तो बहुत सारे भ्रम दूर हो जाएंगे।”

मैंने अपने को संयत रखा, ”हिन्‍दू थे, अब नहीं हैं। अब मुसलमान हैं। उन्‍हें पहले इस्‍लाम कबूल करने के लिए बाध्‍य होना पड़ा पर अपने पुराने रीति व्‍यवहार वे निभाते रहे। जिस तरह का कीर्तन भजन करते थे उसी तरह का दरगाहों पर करने लगे।‍ जिस तरह की मनौतियां अपने देवताओं से मांगते रहे अब पीरों और फकीरों से मांगने लगे। आज तो आप हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर जाइये तो वहां कौवालियां गाते कौवाल मिल जाएंगे, पर जब खुसरौ ने निजामुद्दीन औलिया से कहा कुछ हिन्‍दूू जो हाल ही में मुसलमान बने हैं, आपकी महिमा गाते बजाते आना चाहते हैं तो औलिया ने कहा था, ‘ इस्‍लाम में गाना बजाना मना है।”
पूछा, तालियां बजाते हुए गा सकते है, तो जवाब मिला ताली बजाना भी मना है। पर कीर्तन करने वालों को तो समर्पण भाव के लिए भजन कीर्तन जरूरी था ही। आज यह हाल है कि कोई दरगाह और कौवाली को अलग करके देख ही नहीं सकता। जिसकी जिन्‍दा रहते अनुमति नहीं दी, उनके मरते ही उन्‍हीं की महिमा में उसे करके दिखा दिया।

”विवशता में मुुसलमान बने, अन्‍तरात्‍मा इतनी जल्‍द नहीं बदलती। बहुतेरे बाहर मुसलमान रहते घरों के भीतर हिन्‍दू हो जाते, अपने देवी देवताओं की पूजा दूसरे हिन्‍दुओं की तरह करते जिनके मन्दिर गिरा दिए जाते थे । घरों में मन्दिर और पूजा का कोना उसके बाद ही आरंभ हुआ लगता है। इस्‍लाम कबूल कर लिया और उपनिषदों की चिन्‍ताधारा में समाज समीक्षा करते रहे और भरथरी के गान गाते हुए घूमते भीख मांगते रहे। मेवात के राजपूत तो लंबे समय तक अपने पुराने संस्‍कारों से पूरी तरह कटने को तैयार न थे। इसी तरह के अवशेषों से बनी थी वह संस्‍कृति जिसे गंगाजमुनी तहजीब कहते रहे हैं।”

”आप यह भी तो कहिए कि गंगा जमुनी संस्‍कृति को हिन्‍दुओं ने बनाया और मुसलमानों ने मिटाया है और आज तक मिटाने पर उतारू हैं।

”गंगाजमुनी संस्‍क़ति के शत्रु आप भी थे। एक बार हिन्‍दू समाज से किसी भी विवशता में बाहर गए हुए लोगों को वापस लेने और अपने समाज में मिलाने की क्षमता आप जैसे लोगों के कारण हिन्‍दू समाज में न रही इसलिए उन्‍हें धीरे धीरे अधूरे मुसलमान से पूरा मुसलमान बनाने वाले या कहें तबलीग के नुमाइंदे कट्टर बनाते रहे। केवल जुलाहे और रंगरेज ही नहीं, पंचानबे प्रतिशत मुसलमान आपके भाई हैं। उनके भीतर वही रक्‍त है जो आपके भीतर । उनकी चेतना के अन्‍धलोक में वही मूल्‍यप्रणाली लाख मिटाने के बाद भी किसी न किसी अंश में बनी रह गई है जो आप में है। जिन विश्‍वासघातियों की परंपरा का ज्ञान आपको है वे सभी पशुचारी जमातो के थे और जिनकी जीविका का एक साधन ही लूट पाट था। लुटेरो और आयुधजीवियों में जवानों की कद्र अधिक होती है, बूढ़ो, अशक्‍तों को उनका बचा हुआ ही मिलता है इसलिए उस तरह की पितृभक्ति पहले उनमें न थी पर आज के मुसलमान के विषय में आप यह नहीं कह सकते। जरूरत उनसे दूर जाने की नही, न हड़बडी में एकमेक हो जाने की है, बल्कि साथ रहने की तमीज पैदा करने की है। इसकी अपनी समस्‍याये हैं। हमारे चाहने से ऐसा न होगा, बल्कि उल्‍टा असर पड़ेगा, यह काम उनके बुद्धिजीवियों का है और हमें उनसे पूछना होगा कि वे अपने धर्म दायादों की पशुता को कम करने के लिए किस तरह का और कितना हस्‍तक्षेप करते हैं। यदि नहीं तो क्‍या वे मानेंगे कि मुस्लिम चिन्‍तक या साहित्‍यकार अपने ही हम पेशा हिन्‍दुओं से अधिक कायर या कमतर होता है ।”

शास्‍त्री जी को मेरी बात सही लगी नहीं शायद । वह बिना कुछ बोले उठ कर चल दिए । चलते चलते कहा, ‘आज तो बस इतना ही।’