बता तेरी रजा क्या है
”अन्याय का विरोध्ा करने वाले, तब तक उसका विरोध करते हैं जब तक वह समाप्त नहीं होता। कुछ लोगों को वह दिखाई देता है, कुछ को नहीं। अन्याय का विरोध करने वालों का कोई अलग पेशा नहीं बना है कि जब भी अन्याय होगा, वे सामने आएंगे, उसका विरोध करेंगे और दूसरे लोग अपना काम करेंगे पर अन्याय सहते रहेंगे । यह मोटी समझ है जो तुममे नहीं है इसलिए तुमको यह बुरा लगता है कि बुद्धिजीवी सोचने विचारने का अपना काम छोड़ कर अन्याय का विरोध करने का ‘फालतू काम क्यों करने लगे। बुद्धिजीवी का काम समाज को सही दिशा में ले जाना है। उसका लेखन भी इसी के लिए समर्पित होता है, उसका सामान्य आचार भी उसी को समर्पित होना चाहिए। इन दोनों में फांक नही होनी चाहिए।”
असहमत होने का कोई कारण न था। मैंने कहा, ”तुम ठीक कहते हो, बस एक छोटी सी चूक है । पहली बात तो यह कि तुम चिन्तन और लेखन को काम नहीं मानते हो, लोगों की चेतना को आन्दोलित करने, उनको सोचने और कुछ करने को प्रेरित करने को महत्व नहीं देते। लेखक भीड़ का हिस्सा बन कर अपना काम ठीक से पूरा कर सकता है। अपने लेखन द्वारा विरोध करके या अपनी उपस्थिति द्वारा विरोध प्रकट करके । मैं समझता हूं कि वह अपनी योग्यता और विशेषज्ञता के क्षेत्र में रह कर वह अपना काम अधिक प्रभावशाली ढंग से कर सकता है।
”एक दूसरा प्रश्न जिससे तुम बचते हो, वह है, बुद्धिजीवी अपने पिछले कृत्यों के परिणामों की जिम्मेदारी लेने से बच नहीें सकता। वह समाज किसने बनाया था और कैसे बनाया था जिसमें समस्त मर्यादायें टूट गई और आज भी वह उन मर्यादाओं को तोड़ने वालों के साथ क्यों खड़ा दिखाई देता है, इसका जवाब उसे देना चाहिए।
”मैंने कहा, मैं प्रकृति से आन्दोलनकारी हूं और विशेषज्ञता की दृष्टि से इतिहासकार । ऐसी खुशफहमी का शिकार इतिहासकार जो यह मानता है कि इतिहास और इतिहासकार की भूमिका को उससे पहले किसी ने समझा नहीं या समझा तो उसे अपने इतिहासलेखन में उतारा नहीं। इसलिए मैं व्यक्तियों पर नहीं, किसी ऐतिहासिक क्षण में उपलब्ध विकल्पों की बात करता हूं और व्यक्ति का तभी समर्थन करता हूं जब वह उनमें सर्वोत्तम विकल्प के साथ खड़ा दिखाई देता है। यदि कोई व्यक्ति अनर्थकारी विकल्पों के लिए अवसर की तलाश कर रहा हो तो मैं उसे बुद्धिजीवी नहीं मान सकता।”
वह अपने को संभाल नहीं पाया, ”तुम बकवास कर रहे हो । तुम उस आदमी के वकील हो जिसके कारण पूरा देश आज ऐसी स्थिति में पहुंच चुका है जिसमें लोग अपना पैसा जिन बैंकों के हवाले करके सुरक्षित अनुभव कर रहे थे, उनसे अपना पैसा नहीं निकाल पा रहे हैं। यदि उन्होंने उन बैंको पर भरोसा न करके वह पैसा अपने पास रखा होता तो जमाखोर करार दे दिए जाते और पकड़ में आते तो उनके विरुद्ध कार्रवाई भी की जा सकती थी। हमारा पैसा है, हम उसे जिस रूप में सुरक्षित समझें रखें, इसमें सरकार बीच में कहां से आ जाती है । और देखो, रिजर्वबैंक के पिछले गवर्नर ने जो भाजपा सरकार के दौर में ही काम कर रहे थे, उन्होंने भी प्रश्न उठा दिया कि इसकी जरूरत तो युद्ध आदि की दशा में ही होता है, इसकी जरूरत क्या आन पड़ी। छोड़ो राजन की बात जिन्हें हो सकता है ऐसे प्रस्तावों से असहमति के कारण ही हटाया गया हो, परन्तु यह तो एक तटस्थ और अधिकारी व्यक्ति का बयान है । इसके परिणाम अनिष्टकर होने वाले हैं, इसे भी तुम मानने से इन्कार करते हो, जब कि हम लोग इसको पहले दिन से ही समझते और कहते आए हैं और तुम उसे नकार कर हमारी आलोचना और इस राष्ट्रीय आपदा का समर्थन करते रहे हो और अपने को बुद्धिजीवी भी मानते हो।”
”देखो, मैं उस कष्ट को जानता हूं जिससे लोग गुजर रहे हैं। मेरे बाएं बाजू जो हापुड़ लिंक रोड है, उस पर एक दर्जन ठेले वाले सब्जी, फल आदि के रेढे लिए खड़े रहते थे और लोग उधर से गुजरते हुए रुक कर उनसे साग, फल आदि खरीदते थे। नोटबन्दी के बाद से वे नहीं दिखाई देते। ऐसे दसियों हजार रेढ़े वालों की यही गति हुई होगी। चार दिन पहले मुझे इस बात से राहत अनुभव हुई थी कि स्टेटबैक के सामने बीस तीस लोगों की लाइन लगी थी और पंजाब नेशनल बैंक के सामने दस बारह पर आज यह संख्या बढ़ कर अस्सी और सौ तक पहुंच गई यह मैंने गिन कर देखा। मैंने पांच दिन पहले एक चेक जमा किया, जानना चाहा कि वह आनर हुआ या नहीं, पता चला सात आठ दिन बाद पता चलेगा। बैंकों के सामान्य काम काज पर भी जिसका रोकड़े से संबंध नहीं है, कैशलेस लेनदेन से है, वह भी सलीके से नहीं चल रहा है। दूर देहात में जहां दूसरी समस्याओं के अतिरिक्त बिजली तक नहीं पहुंच पाती उसमें कैशलेस लेनदेन का खयाल शेखचिल्ली की याद दिलाता है। शहरों मे एटीएम काम न करें, पर खरीद बिक्री में क्रेडिट और डेबिट कार्डो का उपयोग बढ़ा है, परन्तु उसके खतरे भी हैं और उनकी एक सीमा है। मैं इन सभी सचाइयों को जानता हूं और यह भी अनुभव करता हूं कि मैं जिसका काम लिखना है वह लिखते समय भी जो लिखना चाहता है वह लिखने से रह जाता है, वह दूसरे क्षेत्र की समस्याओं से उत्पन्न असुविधाओं को समझ तो सकता है पर उनका समाधान नहीं दे सकता।”
‘यह तुम कह रहे हो जो यह मांग करता है कि समाज में जो कुछ हुआ उसकी जिम्मेदारी बुद्धिजीवी को अपने ऊपर लेना चाहिए । कमाल है । अपने लिए हमेशा एक चोर दरवाजा तलाश लेते हो यार ।”
”तुम मुझे समझने में चूक करते हो । मैं परिणाम से किसी निर्णय या कार्य के औचित्य का मूल्यांकन नहीं करताा। मैं देखता हूं कि जिस समय किसी ने कोई निर्णय लिया उस समय उसने अपनी सर्वोत्तम मेधा का उपयोग करने का समय था तो किया या नहीं। मैं नीयत आैर निर्णय करने वाले की योग्यता के आधार पर मूल्यांकन करना चाहता हूं और कामना करता हूं कि यदि नीयत ठीक थी तो उसके परिणाम भी स्वस्तिकर निकलें और लोगों के कष्ट का निवारण हो और जिस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने वह आयोजन किया गया था वह सफल हो।
”तुम इसके विपरीत न केवल परिणाम से किसी निर्णय का मूल्यांकन करते हो, अपितु यह चाहते हो कि नीयत भले अच्छी रही हो, यह विफल हो, लोगों का कष्ट और बढ़े और बढ़ते बढ़ते उस विस्फोट बिन्दु तक पहुंच जाये कि यह पूरा आयोजन ही विफल हो जाय और पुरानी स्थिति लौट आए जो तुम्हारी परिभाषा के अनुसार तुम्हारे अच्छे दिनो की वापसी है। तुम देश और समाज केे अनिष्ट की कामना करते हुए अपनी इच्छापूर्ति चाहते हो और उसके लिए अनुकूल पड़ने वाले तिनके चुन कर अपने को समझदार और सही सिद्ध करना चाहते हो ।
”मैं रिजर्वबैंक के भूतपूर्व और एनडीए काल के गवर्नर की योग्यता, निर्णय और आशंका पर टिप्पणी करने की योग्यता नहीं रखता, परन्तु उनके ही दो विचारों के सन्दर्भ में उनकेे कथन की अन्त:संगति और औचित्य का मूल्यांकन करना चाहूंगा। पहला यह कि वह कहते हैं कि ऐसा युद्ध की स्थिति में ही किया जा सकता था, पर वह युद्ध काे सामरिक और सशस्त्र युद्ध तक सीमित रखना चाहते हैं जब कि एक अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें लोकतन्त्र को पैसों का खेल बना कर पूरे देश के लिए अनिष्टकर बना कर लोकतन्त्र की हत्या करने वालों के विरुद्ध युद्ध को भी अधिक अपरिहार्य युद्ध मानना चाहिए था। और दूसरा उनका यह सुझाव कि इसकी सूचना पहले ही दे दी जानी चाहिए थी जिसका प्रकारान्तर से अर्थ है कालेेधन का पहाड़ खड़ा करने वालों को उसे सफेद करने का कुछ समय मिलना चाहिए था। जहां समय नहीं दिया गया वहां भी जिन्होंने बैंकों और यहां तक कि रिजर्वबैंक तक में सेंध लगा कर वह सारा धन अपने झोले में भर लिया जो यदि अपने सहज भाव से जनता तक पहुंचता तो न उतनी लंबी कतारें लगतीं न नकदी का वह संकट आता। ”
”पांच सौ और हजार के नोट बंद करके दो हजार के नोट जारी करने की नासमझी के बाद भी। जहालत की हद है यार । वे नोट जिनके हाथ में आए वे भी उनका इस्तेमाल नहीं कर सकते थे यह तुम्हें दिखाई नहीं देता और ऊपर से तुर्रा यह कि यह नोट भी कुछ समय बाद खत्म हो जाएगा और सबसे बड़ा नोट पांच सौ का ही रह जाएगा। है कोई जवाब इस समझदारी का ।”
”समझदारी तो थी और इसे समझने की योग्यता भी तुममे है, पर समझ से काम न लोगे क्योंकि तुम उच्चाटन के शिकार हो। मैं स्वयं नहीं जानता कि सरकार ने क्या सोच कर यह किया, पर उसका वकील होने के नाते यह बताना चाहूंगा कि जिस परिमाण में हजार और पांच सौ के नोटों की वापसी होेनी थी, उसके सममूल्य नोट जारी करने के लिए उच्चतर और भिन्न मूल्यक्रम के नोट की जरूरत थी अन्यथा यह मांग पूरी नहीं की जा सकती थी।
”उसकी अगली सोच यह थी कि देर या सवेर सबसे उच्च मूल्यक्रम के नोट जमाखोरों काे ही रास आते हैं और ये लौट कर वहीं पहुंचेगे।
”इन नोटों का रंग ऐसा रखा गया था जो उड़ता है यह सौ के नोट और दो हजार के नोटों कों घिस कर मीडिया में भी दिखाया गया था और बताया गया था कि पांच साल के बाद यह रंग उड़ कर वह नोट कोरा कागज रह जाएगा। इसलिए इससे पहले ही जमाखोरों को इसे बैंक में जमा कराना होगा और यह धनराशि जो निष्क्रिय पड़ी रहती थी वह चलन में भी आ जाएगी और इस पर उन्हें कर और दंड भी देना होगा ।
उसी योजना का अंग था कि केवल छोटी राशि के ही नोट चलन में रहें तो जमाखोरी पर कुछ अंकुश लग सकता है और यह लक्ष्य पांच सौ से ऊपर के नोटों की बन्दी से और दस बीस पचास के नोटों को बढ़ावा दे कर पूरा किया जा सकता है। यदि इस दृष्टि से देखो तो समझ में आएगा कि यह बहुत दूर की सोच कर लंबी तैयारी के बाद उठाया गया कदम था, परन्तु इस बात का अनुमान तक नहीं किया गया था कि बाड़ ही खेत खाने लग जाएगा। बैकर ही कालाबाजारियों से मिल कर जनता के लिए संकट पैदा कर देंगे।”
वह हंसने लगा, ”तुम अब भी नहीं मानोगे कि यह फैसला गलत था।”
”परिणाम से फैसलों की गुणवत्ता की जांच नहीं होती। कानून बनाने वाले अपराधियों से सदा पीछे रहे हैं और उनका पीछा करते रहे हैं, अन्यथा अपराध कभी का समाप्त हो गया होता। इस अभियान ने एक महामंथन का काम किया जिसमें अपराधियों के अदृश्य कोने स्वत: उजागर हो गए हैं और यदि यह प्रयोग सफल हुआ तो यह उस विराट स्वच्छता अभियान का सबसे उज्जवल पक्ष होगा जिसका अनुमान करना भी इससे पहले कठिन था।”
”उस स्वच्छता अभियान में कहीं मेरा भी सफाया न कर देना यार । तुमसे बहस करना ही बेकार है ।” वह उठ कर चलने को हुआ ।
,
Month: December 2016
Post – 2016-12-13
हम भी मुंह में जबान रखते हैं
”तुम स्वयं मानते हो, हर एक आदमी काे अपनी नजर मिली है, अपना दिमाग मिला है, उसे उसी से काम लेना है, फिर हर एक आदमी अपनी बात अपने ढंग से कहेगा, कोई सूक्तियां दुहराता हुआ, कोई मुहावरों की याद दिलाता हुआ और किसी को लगा कि इसने तो मेरे दिल की बात कह दी तो उसके विचारों को साझा करता हुआ, फिर तुम्हें इस पर आपत्ति क्यों है। तुम जिस तरह से चाहो या सुझाओ उसी तरह क्यों कहेगा कोई, यह तो तुम स्वयं मानते हो, एक तरह की गुलामी है।”
”दूसरे के विचार हों, या किसी युग की सूक्ति हो, या कोई मुहावरा, ये सभी लीकें हैं। तुम्हारे विचार जो अपनी परिस्थितियों में पैदा होते हैं या होने चाहिए, वे ठीक वे ही नहींं हो सकते जो किसी अन्य कथन में, कविता या मुहावरे में व्यक्त किया गया है, परन्तु अधिकांश मामलों में कुछ निकटता देख कर हम आलस्यवश उस लीक में ढल जाते हैं । आगे का रास्ता आसान हो जाता है। लीक से परिचित लोगों के लिए उसके संचार में सुगमता आ जाती है। हम कहें, यह उस आलस्य का परिणाम होता है जिसमें तुम निष्क्रिय हो कर एक लीक में ढल या बहाव में बह जाते हो और उसे अपने पर आरोपित करके उस जैसा आचरण करने लगते हो जो तुम्हें, यदि तुम सतर्क होते तो, अपनी परिस्थितियों में नहीं करना चाहिए था। इस सूक्ष्म अन्तर को समझना और अपनी बात को अपने ढंग से कहना, अपनी सीमा में रह कर कहना, तुम्हें वह बनाता है जो तुम होने का दावा करते है, सर्जक या चिन्तक या तत्वद्रष्टा। ये सभी दूसरों का नारा, दूसरों के विचार और दूसरों क कार्यभार ले कर अपना काम नहीं करते। वे अपनी लिखी इबारतों तक को नहीं दुहराते, प्रत्येक रचना पहले से अलग होती है, प्रत्येक विचार एक नई शुरुआत होता है, प्रत्येक विवेचन एक नए धुंधलकेे को चीरता और आलोक में बदलता दिखाई देता है, फिर यह कैसे हो सकता है कि इतने सारे लोग अपने को सर्जक भी मानते हो, और दो साल से एक ही बात को दुहरा रहे हों, अपना काम छोड़ कर दूसरों का काम कर रहे हों और अपना आपा खो कर भी उसकी कीमत वसूल कर रहे हों।”
”रुको, रुको । कीमत वसूल कर रहे हैं, यह आरोप तुम्हारा गलत है। कीमत कौन देने वाला है उन्हें। उन्होंने अपने सिद्धान्त के लिए गंवाया तो बहुत कुछ है, अपना पुरस्कार और सम्मान तक, परन्तु वसूल कुछ नहीं किया है। यदि नमक अदा किया है और कर रहे हैं, कहते तो मैं तुम्हारे साथ सहमत हो जाता, या कम से कम चुप लगा जाता। कीमत वसूल करने का अभियोग तो मैं तुम पर भी नहीं लगा सकता पर यह अभियोग तो लगा ही सकता हूं कि तुम कीमत वसूल करने की जुगत बैठा रहे हो, वर्ना भाजपा का और उसमें भी मोदी का समर्थन तो नहीं करते । पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखो । और सुनो, तुम अपने लिखे को दुहराने वाले को सर्जक, चिन्तक, क्रान्तदर्शी नहीं मानते और तुमने स्वयं अपनी कई बातों को दुहराया है और कहा है, इसे आगे भी दुहरा सकता हूं।”
”तुमने ठीक कहा, मैं सर्जक नहीं हूं । 1970 से पहले था। तुमकाे अभी कुछ ही दिन पहले अपनी उस कविता की और प्रतिज्ञा की याद दिलाई थी जिसमें मैंने कहा था, ‘मैं आज खड़ा होता हूं अपने ही विरुद्ध एक महासमर में । मैं नहीं जानता सर्जक या आन्दोलनकारी में कौन किससे छोटा या बड़ा है, परन्तु मैं जिस औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध संघर्ष कर रहा हूं, दासता से मुक्ति के जिस अभियान से जुडा हूं, उसमें एक ही बात को कितने रूपों में दुहराता आया हूं इसे देखो तो चकित रह जाओगे, यदि चकित होने की संवेद्यता अभी तक बची रह गई हो तो । मेरे भाषा विज्ञान, स्थान नामों का अध्ययन, उपन्यास, उपनिषद की कहानियां और पंचतन्त्र की कहानियां, इतिहास और संस्कृति के लेखन में इस एक ही बात को इतने रूपों में दुहराया गया है कि इसे चाहो तो लेखन कहो, चाहो तो एक महारास, या जैसा मैं कहता हूं, एक लेखक की भूमिका, विशेषकर एक इतिहासकार की भूमिका, जो या तो एक शिक्षक की होती है या एक चिकित्सक की, उसे मनोचिकित्सक से ले कर काय चिकित्सक तक कही भी रखो। ये सभी हर बार कुछ नया नहीं करते हैं। शिक्षक जब तक अपने छात्रों की समझ में न आ जाय उसी पाठ को अलग-अलग तरीकों से समझाता और अपने को दुहराता रहता है। चिकित्सक न रोगनिदान में मौलिक होना चाहता है, न उपचार में हर बार कुछ नया प्रयोग करता है । वह एक ही ओषधि को तब तक दुहराता, उसकी खूराक बदलता, उसके पूरक घटक बदलता उसी को जारी रखता है जब तक उसका लाभ दिखाई देता है। उसका लक्ष्य रोगी का उपचार और आरोग्य है न कि अपने चिकित्सा ज्ञान का आतंक कायम करते हुए उसकी दशा को और भी खराब कर देना, जो चिकित्सा व्यवसायी करते हैं।”
”तुम बहाने बहुत अच्छे बना लेते हो यार । पकड़ने चलें तो मलगे की तरह सरक कर बाहर । अपनी पुनरावृत्ति शिक्षा और चिकित्सा और दूसरों की सर्जनात्मकता, चिन्तन और दूरदर्शिता का अभाव ।”
”तुमने यदि मेरे लिखे को इतने ध्यान से देखा है, कहे को इतने ध्यान से सुना है तो तुमको यह भी याद होगा कि मैं ख्याति और पद को तुच्छ मानता हूं। एक आन्दोलनकारी के रूप में मैं यह देखना चाहता हूं कि मैने जो लिखा या कहा वह कितना सार्थक है और उससे कितने लोगों की सोच में बदलाव आया। मैं सबसे अधिक गौरवान्वित तब अनुभव करता हूं जब मेरा कोई पाठक यह कहता है कि मेरे लिखे से उसके सोचने के तरीके में बदलाव आया है। ऐसा लेखक मैं अकेला होता तो बहुत गर्व अनुभव करता, परन्तु सुनते हैं मुझसे पहले रामविलास शर्मा भी हो चुके हैं। तीसरा कोई दीखे तो मुझे सूचित करना।”
”तुम्हें सेल्समैन होना चाहिए था। खोटे को भी किस तरह बेच लेते हो कि खरीदने वाला खोट को विशेषता समझने लगता है। दाद देता हूं तुम्हारी इस कला की। मौका देखते ही मुुहावरे बदल देते हो । वह क्या कहा था तुमने, ”मैं तोड़ूगा कुछ नहीं, सिर्फ परिभाषाएं बदल दूंगा” अौर मौका देख कर, परिभाषाएं बदल कर झूठ को सच, सच को झूठ, अच्छे को बुरा और बुरे काे अच्छा साबित कर लेते हो।”
”मैं परिभाषाएं बदलता नहीं, सुधारता हूं इसलिए यह मौके के अनुसार रंग नहीं बदलतीं। मैें प्रशंसा को अवांछित और अपने लिखे या कहे से अपने पाठकों और श्रोताओं की चेतना में आए परिवर्तन काे कितना महत्व देता हूं इसके लिए मैं आज फिर तुम्हें अपनी 10 सितम्बर की एक पुरानी पोस्ट की कुछ पंक्तियां याद दिलाना चाहूंगा:
”मुझे भी दूसरों की तरह यह सुन कर अच्छा लगता है कि लोगों को मेरा लिखा पसन्द आता है। उर्दू मुशायरों में तो जितना समय लोग शेर पढ़ने पर लगाते हैं उससे अधिक समय घूम घूम कर ‘आदाब, आदाब, आदाब’ कहने में लगाते हैं और तारीफ नहीं हुई तो ”गौर फरमाइये जनाब” कहते हुए अपने मानीखेज शेर को दो तीन बार पढ़ते हैं और तारीफ हो गई तो आदाब बजाने के बाद थोड़ी साँस ले कर वही शेर फिर पढते हैं। पर मेरी जरूरत इससे पूरी नहीं होती।
”मैंने फेसबुक पर लिखने का यह फैसला हमारे बौद्धिक पर्यावरण में आई उस गिरावट से अपने को और अपने मित्रों को बाहर निकालने के लिए किया जो शोर तो मचाते हैं, पर कुछ कह नहीं पाते। वह शोर की जिसकी पहुँच शोर मचाने वालों तक है और वे ही एक दूसरे को दाद दे कर शोर को सराबा तक पहुँचा देते हैं और अपनी ही व्यतर्थताबोध से बोलने और लिखने के क्षणों में भी अप्रासंगकि सा महसूस करते हैं।”
”यह तुम्हारी समझ हुई । समझ के भी कई रूप हैं जिनमें किसी के अनुसार तुम भी व्यर्थताबोध से त्रस्त दिखाए जा सकते हो।”
”मुझे उसका पता है । मैने सोचा था मैं कुरेदूंगा, जिन्हें वे लगातार कोसते और गालियां देते आए हैं, उनका पक्ष ले कर अपनी बात कहूंगा तो वे कम से कम उन आरोपों का तो जवाब देंगे जो मैं उन पर प्रमाण सहित लगाता हूं। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपने तर्क और प्रमाण और विश्लेषण को भी दरकिनार कर दिया। कितने दिनों से कितने सारे लोग किस तेवर से कितनी सतही, फिकरेबाजी के स्तर की बातें लगातार कर रहे हैं, इससे उनके चिन्तन और सर्जना को क्षति पहुंच रही है या लाभ हो रहा है इसका तो ध्यान होना चाहिए । नहीं है। यदि विद्रोही तेवर वाले इन लेखकों की उनके ही पहले के लेखन के परिमाण और गुणवत्ता की तुलना उनके इस पूरे दौर के लेखन से करें और यह जानना चाहे कि उसमें ह्रास हुआ है या उत्थान तो इसके लिए एक सर्वेक्षण की आवश्यकता होगी, परन्तु पहली नजर में निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि वे अपना काम करना छोड़ कर दूसरों का काम कर रहे हैं जहां तर्क, विवेक, औचित्य और सत्यनिष्ठा के लिए कोई स्थान नहीं, सफलता या विफलता ही अन्तिम कसौटी है और उसमें भी सफलता हाथ लगती नहीं दिखाई देती। इसे सर्वनाश की स्थिति कहना होगा और यह सब मेरे प्रयत्न के बाद भी। व्यर्थताबोध तो होगा ही। घर तो यह अपना ही है, उजड़ते देखना किसी के लिए सुखद नहीं हो सकता ।
Post – 2016-12-13
वह पन्ना सामने है पर पढ़े भी पढ़ नहीं पाते
”तुम्हारा लोहिया ने क्या बिगाड़ा था यार । अकेला तो ऐसा विचारक जो हमारे तेजस्वी साहित्यकारों की आस्था का केन्द्र रहा है, साही से सहाय तक, अशोक से कमलेश तक, तुमने उनको भी ठिकाने लगा दिया। चलो, हमारे दल सेे नाराजी समझ में आती है, पर वह तो तुम्हारे हिन्दू मूल्यों, पौराणिक चरित्रों, नदियों और तीर्थों का भी आदर करते थे । तुमने उनको भी नहीं छोड़ा ।”
”उनमें और तुम लोगों में अन्तर है । तुम लोगों की नीयत में खोट थी । तुम्हारा लक्ष्य था सत्ता पर कब्जा करना और फिर उसके बाद अपनी मनमानी करना । तुम कभी न अपने देश के हुए, न अपनी भाषा के, न अपने समाज के, न अपनी अन्तरात्मा के जो होती कहां है इसका तुम्हें पता ही नहीं । तुम लोगों ने बिगड़े सांड़ की तरह भारतीय राजनीति में प्रवेश किया और जब तक बस चला ऊधम मचाते रहे। सींग टूट गए, जख्म पर मक्खियां भिनभिना रही हैं पर आज भी आदत से बाज नहीं आते । नेहरू की नीयत में भी कुछ खोट थी । पर समाजवादियों की नीयत में खोट न थी । किसी के बारे में यह नहीं कह सकते न आचार्य नरेन्द्रदेव के बारे में, न लोहिया के बारे में, न जयप्रकाश के बारे में, न बेनीपुरी के बारे में । ये अन्दर बाहर एक थे । पर इतिहास में गलतियां तो लगातार होती आई हैं, अपने व्यक्तिगत जीवन में हम बार-बार सोचने विचारने और पिछले अनुभवों से सीखने के बाद भी गलतियां करते हैं । इतिहास वह पन्ना है जिसकी लिखावट साफ दिखती है पर पढ़ी नहीं जाती या इसके प्रत्येक पदबंध के अनेक अर्थ निकलते हैं और हम सही पाठ करने में अक्सर चूक जाते हैं । हमारा पूरा स्वतन्त्रता आन्दोलन ऐसे लोगों से भरा रहा है जिन्हें रियायतों और अधिकारों और अन्तत: सत्ता की कामना तो थी, परन्तु भारत के भविष्य का किसी के पास कोई खाका नहीं था सिवाय एक व्यक्ति के जिसका नाम गांधी था और उसी की इस देश में नहीं चली। उसे सत्ता नहीं चाहिए थी, पर अपने स्वप्न को साकार करने के लिए सहयोग चाहिए था। वह न मिला । अकेला वह एक ऐसा भारत बनाना चाहता था जिसमें लोग धार्मिक तो हों, पर संप्रदाय द्वेषी नहीं, जाे सबको अक्षर ज्ञान के साथ कुशल भी बनाना चाहता था, छोटा ही सही पर सबको काम करने और अपनी पेशीय शक्ति का उपयोग करने का पक्षधर था। जो बच्चों काे ही नहीं प्रौढ़ों को भी साक्षर बनाना चाहता था। जो गन्दगी, बुरी आदतों को छोड़ने, स्वस्थ जीवन जीने और प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से बीमारियों से मुक्त होने की शिक्षा ही नहीं दे रहा था एक गिरे हुए समाज को स्वतन्त्रता का अधिकारी और उसकी चेतना से संपन्न बना कर ताड़ से गिरी सत्ता को खजूर पर रोक कर कुछ लोगों के लिए समृद्धि का मार्ग खोलने की जगह जमीन से, सबसे पिछड़े व्यक्ति के उदय के साथ पूरे देश के उन्नयन का सपना देखता था और मार्क्स से बहुत आगे के समाज को संभव बनाना चाहता था। उसे जिनसे सहयोग मिलना चाहिए था वे एक दूसरे भारत की कल्पना कर रहे थे जिसमें वे एक झटके में पश्चिम की बराबरी पर आने को उतावले थे । उसकी नकल करो और वैसे बन जाओ । जिन्हें यह तक दिखाई नहीं देता था कि पश्चिम को अपनी आज की स्थिति में आने के लिए कितने देशों के संसाधनों को लूटना, कितनों को बेकार और अपंग बना कर वह आर्थिक आधार तैयार करना पड़ा है। उनका रास्ता हमारा रास्ता नहीं हो सकता।
”हम उन्हें दोष नहीं दे रहे । विश्व इतिहास एेसे निर्णयों और कामचलाऊ उपायों का दस्तावेज है जिसमें अनेक बार तो बहुत बड़े फैसले करने पड़े हैं और उन पर सोचने तक का समय नहीं मिला है । किसी न किसी युक्ति से सत्ता पर कब्जा करके जमे रहने का ही परिणाम था जिसमें गरीबों की गरीबी बढ़ती जा रही थी और कुछ लोग अनुपात से अधिक अमीर होते जा रहे थे, यह लोहिया को खिन्न करता था। वह अकेले नेता थे जो गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों की दयनीय दैनिक आय का मुद्दा उठा कर इस प्रवृत्ति को बदलने की आवाज उठाते और सरकार को कठघरे में खड़ा करते थे। समाज को जातियों, धर्मों में बांट कर उन सबका एकमात्र संरक्षक बनने का ढोग करते हुए उन प्रवृत्तियों का बढ़ना लोहिया को खिन्न करता था और इसे वह ब्राह्मणवादी चालबाजी से जोड़ कर देखते थे और इसी का जो समाधान उन्हें उस समय सूझा उसके लिए उन्होंने कुछ प्रयास किया। भारत का विकास भारतीय भाषाओं में शिक्षा और इनमें ही सारा कामकाज होने से जुड़ा है, इसकी चेतना और इसके लिए आन्दोलन करने वाले वह अकेले व्यक्ति थे और राज्यों में उन राज्यों की भाषा में काम काज उनके ही अभियान का परिणाम था जिससे नेहरू लगातार कतराते और अंगेजी को शिक्षा और प्रशासन की भाषा बनाये रखना चाहते थे। नेहरू अपना वंशराज्य स्थापित करने के लिए अपने ही दल में अपने किसी उत्तराधिकारी को पनपने नहीं दे रहे थे इस कटु सचाई को लक्ष्य करने वाले लोहिया पहले नेता थे जो रह रह कर ‘नेहरू के बाद कौन’ का सवाल उठाया करते थे। नेहरू की सबसे बड़ी दुर्बलता थी पूंजीपतियों के सामने खम खाने की जिसे लक्ष्य करने वाले कम लोग थे। यह दुर्बलता सुनते हैं नैपोलियन में भी थी। वह संजय गांधी को प्रशिक्षित करने के बाद छोटी काराें का कारोबार आरंभ करते हुए उन्हें उद्योगपति बनाना चाहते थे, इसलिए छोटी कारों का प्रस्ताव लगातार टलता रहा था। इस पेंच को समझने वाले और इसे संसद में उठाने वाले लोहिया अकेले नेता थे । सत्ता कांग्रेस के पास थी इसलिए आलोचना उसी की होनी थी, परन्तु इसे गलत दिशा देते हुए लोहिया के नेहरू द्वेष के रूप में प्रस्तुत किया जाता था । लोहिया मानते थे कि समाज निर्माण में बुद्धिजीवियों की सबसे सार्थक भूमिका होती है इसलिए अपने समय के नवोदित बुद्धिजीवियों से उनका जीवन्त संबन्ध था और इसी कारण अनेक प्रातिभ साहित्यकार उनके प्रभाव में आए थे और आज भी लोहिया का नाम आते ही स्पन्दित हो जाते हैं । लोहिया भारतीय जमीन से जुड़े और सत्ता से नहीं अपितु देशचिन्ता से कातर व्यक्ति थे जिनकी समकक्षता का दूसरा नेता उस दौर में दिखाई नहीं देता ।”
”और इसीलिए उन्होंने ऐसा कबाड़ा किया कि पूरा देश तुम्हारे ही शब्दों में एक नरक में बदल गया ।” उससे लोहिया की इतनी प्रशंसा सहन नहीं हो रही थी।
”मैं यही बता रहा था कि इतना बड़ा आदमी भी यदि घबरा कर, कोई दूसरा उपाय न देख कर, मर्यादा काे तोड़ते हुए, काम चलाऊ हथकंडे अपनाता हुआ, जो होगा देखा जायेगा वाली मानसिकता का शिकार होता है तो उसकी परिणति वह होती है जो हुई । परन्तु आज तो इस काम चलाऊपन की उपासना होने लगी है और सभी मिल कर किसी भी कीमत पर भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए प्रयत्नशील हैं परन्तु समाज ने अपने अनुभवों से पता नहीं क्या सीखा है कि वे ज्यों ज्यों जुड़ने का प्रयास करते हैं उनकी शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाती है । जो हुड़दंग सड़क पर किया करते थे उसे संसद में पहुंचा देते हैं और सन्देश देते हैं कि हम इस सरकार को चलने नहीं देंगे और जिनके बीच इससे अपनी जगह बनाना चाहते हैं उनके बीच उनकी जगह और सिकुड़ती चली जाती है, यहां तक कि राष्ट्रपति तक को झिड़कने की जरूरत पड़ती है । जिन बुद्धिजीवियों के ऊपर लोहिया ने इतना भरोसा जताया था और जिन्होंने अपनी सीमा में एक स्वतंत्र इतिहास चेता के रूप सांकेतिक हस्तक्षेप भी किया था वे सक्रिय राजनीति के शोर का हिस्सा बन चले हैं। वे कहीं से कुछ भी उड़ा लेते हैं और नित्य गया गया अब गया दुहराते हुए बौद्धिक बजबजाहट को बौद्धिक सक्रियता मानने लगे हैं । सक्रिय राजनीति से जुड़ाव सुधी जनों को भी कहां पहुंचा सकता है इसका यह एक नमूना है । लगेगा मैं आज की स्थिति में नया औचित्य तलाश कर रहा हूं इसलिए अपनी ही 7 सितंबर की एक पोस्ट का कुछ अंश उद्धृत करूं :
”मैं भी यही चाहता हूँ कि कोई मेरी बात न माने, सही प्रतीत होने वाले की भी बौद्धिक गुलामी, गुलामी ही हुआ करती है। जब हम उस सही को समुचित ऊहापोह से अपना सत्य बना लेते हैं, तब वही बात किसी दूसरे की नहीं रह जाती, अपनी खोज बन जाती है। यह बात मैं पहले भी दुहराता रहा हूँ कि आपके पास देखने को अपनी ही ऑंखें हैं, सोचने के लिए अपना ही दिमाग है। वह प्रखर या मन्द जैसा भी है, काम आप को उसी से लेना है। न लिया तो ऑंख रहते अन्धे और दिमाग रहते भी मूर्ख बने रहेंगे। काम लेने से उनमें प्रखरता भी आएगी। परन्तु ज्ञान के अहंकार में लोग दूसरो की नजर और दूसरों के दिमाग से काम लेने के आदी हो जाते हैं और उनके ही काम आते हैं।
”तुमने देखा तो असहमत होने वालों में किसी के पास अपना दिमाग था ही नहीं, न अपनी आंख थी। वे किसी न किसी के कहे को दुहरा रहे थे और यह भी नहीं देख रहे थे कि उसका आधार क्या था।‘’ …
”यदि आपको स्वयं अपने विवेक से ऐसा लगता है कि कोई व्यक्ति या विचार गलत है उसे बिना किसी की बैसाखी के प्रस्तुत करें । फतवा न दें, उसका तर्क दें और उस तर्क से लगे कि आप ने इस पर सोच-विचार किया है तो उसका महत्व है। जब तुम कहो, नब्बे प्रतिशत लोग किसी को ऐसा मानते हैं इसलिए तुम भी मानते हो, तो तुमने अपनी अक्ल से काम ही नहीं लिया, संख्या के दबाव में आ गए। और संख्या जितनी ही बढ़ती जाती है विचार पक्ष उतना ही घटता जाता है, यह हम पहले समझा चुके हैं।
”देखो, तुम्हें एक बार फिर याद दिला दूँ कि मैं यदि इस बात में सफल हो जाऊँ कि सभी लोग मेरी बात मान लें, तो यह मेरे लिए दुर्भाग्य की बात होगी। अमुक ने कहा इसलिए मैं भी मानता हूॅे मार्का लोग सुपठित और वाचाल मूर्ख होते हैं जिन्हें अपना दिमाग और आंख होते हुए भी उससे काम लेने तक का शऊर नहीं होता और सारी दुनिया को अपने अनुसार चलाने की ठाने रहते हैं। और तुम उन मूर्खों के शिरोमणि तो नहीं कहूँगा, पर उसी माला में पिरोए हुए मनके हो जो अपने धागे से बाहर नहीं जा सकते।”
जब मैं अजपा जाप करने वालों को अमुक का विचार शेयर किया कह कर अपने को ढाढस बंधाते देखता हूं तो इसकी याद ताजा हो जाती है । गुण-दोष की समझ है तो विवेचन करो । अपनी महफिल में दाद पाने की जगह व्यापक जनसमाज में अपनी विश्वसनीयता कायम करो । किसने कब क्या कहा, क्यों कहा, उसे उठा कर आज पर मत लादो । उस काल को वर्तमान पर मत लादो। अपने काल और इसकी समस्याओं की पड़ताल स्वयं करो । अपने कार्यभार को समझो । अस्तु ।
Post – 2016-12-11
सुनते हो, मेरे बदजबां की अदा
व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, हम यथार्थ को गढ़ नहीं सकते । यथार्थ में संभव विकल्पों के बीच सबसे वांछित का चुनाव करते हैं अौर उसमें जो कुछ हमसे हो सकता है, करते हुए, एक सीमा तक उसे बदलते भी हैं। चुनाव करते समय हम जिसे सर्वाधिक वांछित मानते हैं, या अपनी समझ से जो ठीक लगता है करते हैं, उसके परिणाम यह सिद्ध कर सकते हैं कि जिसे चुनाव के क्षण में हम अवांछित मान कर छोड़ बैठे वह अधिक वांछनीय था या जो कुछ हमने किया उसमें कुछ गलतियां हुईं जिनके कारण उसका परिणाम अपेक्षा के अनुरूप न हो पाया। कहें वांछित और अवांछित की अपनी कमियां होती हैं जिनके आकलन में हमसे चूक होती है और इसमें अपनी भागीदारी में भी हमसे चूक होती है। यह यथार्थवादियों की समस्या है ।
इसके विपरीत स्वप्नजीवियों का संसार होता है जिसमें सर्वशुद्ध और निरापद की एक अवधारणा होती है और उसे वरण करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता और यदि हम उसका वरण नहीं करते हैं तो हम दुष्ट या अपघाती हैं और देश और समाज के भले के लिए ऐसे लोगों को रास्ते से हटा दिया जाना चाहिए। इसके सबसे अच्छे नमूने मनोरोगियों में मिलते हैं जो श्रुतिभ्रम और दृष्टिभ्रम के कारण सर्वशुद्ध की पुकार सुन पाते या देख पाते हैं, और बाधकों को रास्ते से अलग करने के लिए जो भी हाथ में आया उससे प्रहार करते रहते हैं। कुछ सह्य रूप में किसी विचार या मान्यता से प्रतिबद्ध लोगों में भी यह पाया जाता है जो मनोगत या इष्ट को यथार्थ और यथार्थ को भ्रम मान लेते हैं और इसलिए उसे देखने-समझने की क्षमता ही खो बैठते हैं।
हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिसमें एक और कष्टकर यथार्थ है और दूसरी ओर ऐसी विकल्पहीनता जिसमें कष्ट झेलने वाले भी वापसी का विकल्प नहीं चुन सकते। यह शुरू जैसे भी हो, है एक युद्ध जिसके आरंभ हो जाने के बाद उसको लड़ और मरखप कर ही किसी परिणति तक पहुंचाया जा सकता है। इतिहास में वापसी जैसी कोई चीज होती नहीं, हमें सारे निर्णय यहां और अब लेने होते हैं । इसलिए यह समझना अधिक जरूरी है कि जिसे हम एक व्यक्ति का निर्णय मानते हैं, उसे कष्टभोगने वाला समाज स्वयं अपने हित में किया गया निर्णय मान कर उसके कष्ट को झेलता हुआ, असुविधाओं सहता और यदा कदा कुढ़ता हुआ उसी तरह इसकी सफलता की कामना करता है जैसे मोर्चे पर भूख, कुमुक और असले की अपर्याप्तता के बीच भी लड़ता, बढ़ता, बचता हुआ योद्धा विजय के लिए विजय के लिए प्राणपण से प्रयत्न करता है और संकटापन्न स्थितियों में भी अपने देश और समाज को हार और अपमान से बचाना चाहता है ।
किनारे बैठे वे लोग जो अपने स्वार्थ या विचारधारात्मक कारणों से शत्रु देश के प्रति सहानुभूति रखते और उसकी विजय चाहते हैं, जैसा चीन -भारत युद्ध के समय देखने में आया था। अपने पक्ष की कमजोरियों, गलतियों का दबे या खुले स्वर में राग अलापते हैं शत्रु पक्ष के सभी कारनामों का समर्थन करते हैं और अपने ही देश की पराजय की कामना तक करते हैं ।
वे अपने सैनिकों की असुविधाओं और कष्टों को तो देख पाते हैं उस संकल्प को नहीं देख पाते जो कष्ट और असुविधाओं के बीच भी उसे विचलित नहीं होने देता ।
आज की स्थिति यही है । पक्ष बंटे हुए है, देश और जनता एक ओर है, जो इस अभियान की सफलता चाहती है और रहस्यमय और प्रकट दोनों कारणों से दूसरी ओर वे हैं जो इसकी विफलता चाहते हैं और हमें समझाना चाहते हैं कि वे भी देश हित से ही कातर है, परन्तु देश हित की उनकी परिभाषा अलग है।
यदि विभाजन इतना साफ हो तो तर्क और प्रमाण अपनी सार्थकता खो देते हैं । बीच समर में अपने देश की रणनीति की आलोचना करने वाले विशेषज्ञ जितने भी बड़े ज्ञानी क्यों न हों, वे उस पक्ष से जुड़े होते है जो पराजय की कामना करते हैं, अन्यथा वे ऐसे सुझाव रखते जिससे विषम स्थितियों में अविचल भाव से लड़ने वालों को राहत दे सकें और मनोबल को बढ़ा सके । वे अपनी विशेषज्ञता का प्रयोग सही गलत की परिभाषाओं को उलटने के लिए तो कर सकते है, परन्तु इसे सफल बनाने के लिए क्या अपेक्षित है ऐसा सुझाव उनके विवेचनों में नहीं आता।
इन सबके लाख उकसावों के बाद भी, अपनी कष्ट कथा बयान करते हुए भी, जनता तात्कालिक असुविधाओं का विरोध करने के अतिरिक्त भड़काने की कोशिशों उत्तेजित होने बचती रही है, क्योंकि उसे विश्वास है कि यह निर्णय पूरे देश के हित में लिया गया है और इससे केवल देश के भितरघातियों को बेचैनी है। उसका यह विश्वास न केवल उसके संयम में दिखाई देता है, उस भारी भीड़ में भी दिखाई देता है जो प्रधान मंत्री की इसी दौर में आयोजित सभाओं में देखने में आ रही है।
इसलिए उस ऊब, खीझ, विवशता और विकल्पहीनता के इतिहास को समझना कुछ उपयोगी हो सकता है जिसने भारतीय जन के भीतर इतना आक्राेश भर दिया था कि उसने एक ऐसे विकल्प का स्वागत किया जिससे विरत करने के लिए संचार माध्यम, प्रचार के साधन और लगभग समस्त बुद्धिजीवी वर्ग लगा हुआ रहा है।
जिस बिन्दु पर यह निर्णय भारतीय जन ने लिया उसे एक शब्द में कहें तो यह वह चरण था जिसमें सभी मर्यादाएं टूट चुकी थीं, सभी प्रतिबन्ध लगभग समाप्त थे। स्थिति ऐसी थी कि प्रचार संचार के वे ही साधन और और वे ही बुद्धिजीवी उस सर्वनाशी दौर के क्षरण और गिरावट पर चिन्ता प्रकट करने में किसी से पीछे नहीं थे जो आज उसी की वापसी का गला फाड़ रहे हैं। नरक का रोना रोने वाले नरक के इतने आदी हो चुके थे कि वे अपने नरक से बाहर निकलने में घबराहट अनुभव करने लगे।
मर्यादाओं के टूटने का इतिहास राममनाेहर लोहिया के उस संकल्प से जुड़ा था जिसमें वह कांग्रेस से किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहते थे या कम से कम एक ऐसा विकल्प चाहते थे जो उसका जवाब बन सके । कांग्रेस में ब्राह्णों का वर्चस्व था और ब्राह्मण उसे अपनी पार्टी मानते आ रहे थे । लोहिया जी ने इसे सवर्णों की पार्टी के रूप में कल्पित किया और एक ऐसे विकल्प की तलाश में रहे जो इनकी धौंस में न आए और अावश्यकता होने पर डट कर मुकाबला कर सके । दलितों से उन्हें इसकी आशा नहीं थी, परन्तु आज की परिभाषा में पिछड़े समुुदायों से जो नियम कानून की भी परवाह नहीं करते थे और इसके कारण ही ऊंची जातियों के लाेग भी इनका दबाव अनुभव करते थे, उनको वरीयता देने में उन्हें आशा की किरण्ा दिखाई दी। ये थे जाट, भूमिहार, यादव, कुर्मी, गड़रिया आदि । यहां तक उनका निर्णय सही था, परन्तु इसके लिए उन्होंने जो मर्यादाओं की उपेक्षा का रास्ता चुना या मर्यादाओं की अवहेलना के ‘गुण’ के कारण उन्हें वरीयता दी वह सही नहीं था जिसमें औचित्य का ध्यान रखे बिना राजनारायण जी संसद में ही लेट जाते थे और उनके भारी भरकम शरीर को उठा कर बाहर करने में सुरक्षा कर्मियों का दम उखड़ जाता था। यह एक खतरनाक आरंभ था, जिसकी भयावहता का अनुमान कोई उसी तरह न लगा सका जैसे तटबन्ध में मामूली रिसाव आरंभ होने पर उसकी उपेक्षा कर दी जाय कि इतने से कुछ नहीं बिगड़ता जब कि वही बढ़ते बढ़ते तटबन्ध को तोड़ और बहा कर पूरे क्षेत्र के लिए आपदा का कारण बन जाता है। अपनी इसी करनी के बल पर नेता जी का मतलब राजनारायण हुआ करता था जो उनके जीवन काल तक बना रहा । अब सुनते हैं नेताजी का ताज मुलायम सिंह के सिर है और वह भी अपने को लोहिया जी का सच्चा उत्तराधिकारी मानते हैं।
कांग्रेस को किसी भी कीमत पर हटाने का उनका दूसरा सूत्र था विचारधारा की चिन्ता किए बिना सभी विरोधी दलों का एक जुट हो कर चुनाव लड़ने और सत्ता पर कब्जा जमाने की सलाह। उसके बाद क्या होगा यह ‘तब की तब देखी जाएगी’ पर छोड़ देना। तब की तब देखी जाएगी, किसी को सत्ता से बाहर करना पहला और अन्तिम लक्ष्य बन जाय तो जयप्रकाश के पूर्ण स्वराज्य से लालू भी पैदा हो सकते है और नीतीश भी। यह एक जोखिम भरी विकल्पहीनता है जिसे उसकी परिणति से ही जाना जा सकता है ।
लोहिया को गठबन्धन राजनीति के आरंभ का श्रेय जाता है और श्रेय जाता है उस ध्रुवीकरण का जिसे मोरारजी देसाई के द्वारा स्थापित मंडल कमीशन ने संभव बनाया और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमली रूप दिया। परन्तु ‘किसी भी कीमत पर सत्ता’ का सिद्धान्त देश के लिए भी खतरनाक सिद्ध हुआ और बाद की समस्त विकृतियों की जड़ भी। पहले तो इसने नव गठित केन्द्र सरकार के भीतर ही विश्वासघातियों का एक धड़ा पैदा कर दिया जिसमें कांग्रेस के समर्थन के आश्वासन पर चरण सिंह की महत्वाकांक्षा को उकसाया गया और फिर उसके समर्थन वापस लेने पर उस संभावना को ही कुचल कर उसी कांग्रेस का रास्ता साफ कर दिया गया जिसके लिए इतना भगीरथ प्रयत्न इतने लंबे समय तक जारी रहा। किसी कीमत पर सत्ता के मन्त्र ने वोट के लिए पहले बाहुबलियों के प्रयोग, मतपेटियों की लूट, फर्जी वोटों से चुनाव परिणामों को उलटने के प्रयास का रास्ता खोला और फिर बाहुबलियों की अपनी महत्वाकांक्षा जाग्रत करके उसके राजनीति में प्रवेश को संभव और राजनीति के अपराधीकरण का रास्ता तैयार किया।
अपराधियों का सहारा न रह जाने पर नोट के बदले वोट का रास्ता खोला जो कांग्रेस संस्कृति का अंग आपात काल के साथ ही बन गया था परन्तु इतना नग्न रूप नहीं लिया था जो इसने बाहुबलियों से भरोसा उठने के बाद लिया। देश के विकास का पैसा विभागों में बंटता और अधिकारियों से रिश्वत के रूप में सरकार में बैठे लोगों द्वारा वसूल किया जाता, थानों चौकियों के ठेके लगते, और इसके बदले में उन्हें अपनी भरपाई के लिए जो वे करना चाहें करने की छूट दी जाती जिसमें न विकास संभव था न व्यवस्था। शीर्ष पदों पर बैठे लोग यह सब कानून का सम्मान करते हुए नहीं कर सकते थे इसलिए उनकी इच्छा ही कानून बनती चली गई जिसमें अधिकस्य अधिकं फलं की सूझ ने माफियाओं के असंख्य रूपों को जन्म दिया और ये असामाजिक तत्व समाज में सबसे प्रभावशाली तबके के रूप में उभरे । अब कोई भी कुछ भी कर सकता था, अपहरण, फिरौती, बलात्कार अर्थात् बच्चों से गलती हो जाती है और गलती होती रहनी चाहिए, भयदोहन ने अराजकता से भी बदतर स्थिति पैदा कर दी और इसका विस्तार तब केन्द्र की ओर हुआ तो इस महाप्लावन में कुछ भी नहीं बचा रहा । किसी से कुछ छिपा नहीं था इसलिए किसी को किसी का डर नहीं रह गया था और इस तरह बना था वह नरक जिसमें पूरा देश झोंक दिया गया था। आम जन असहाय, निरुपाय। इस नंगी नाच पर वाचाल शोर न मचायें इसलिए पत्रकारो, संचारमाध्यमों, वाचाल बुद्धिजीवियों को भी कुछ रियायतें दी जाती रहीं जिनका व्यौरा देने चलें तो पन्ने भरने के बाद भी बहुत कुछ छूट जाएगा इसलिए नरक कुंड में असहज अनुभव करते हुए भी वे यह सिद्ध करने के लिए कि उनकी अन्तरात्मा मरी नहीं है कभी कभी बिना किसी पर उंगली उठाए संगीत लहरी वाले स्वर में अपना असंतोष भी प्रकट कर देते थे फिर भी बाद की सचाई ने यह सिद्ध कर दिया कि वे उनके अच्छे दिन थे और अब वे उसकी वापसी के लिए व्यग्र हैं।
समस्त मर्यादाओं का लोप वह स्थिति है जिसमें लोकतन्त्र सबसे पहला शिकार होता है। इस देश में लोकतन्त्र पाखंड बन गया था, तानाशाही के विविध रूप पूरे देश में प्रचलित थे जिसमें देश के रक्षक देश को लूट रहे थे।
यह वह बिन्दु था जिस पर पिछला चुनाव हुआ और अब जनता ने एक ऐसे तानाशाह के चयन का मन बनाया जिसमें ईमानदारी हो, देश निष्ठा हो, साहस हो और अप्रिय निर्णय लेने की क्षमता हो जिसमें संभव विकल्पों में मोदी सर्वोपरि थे और मोदी जो तानाशाही की भगुरता और लोकतन्त्र की शक्ति को बहुत अच्छी तरह समझ चुके थे, जनता की अन्य अपेक्षाओं पर सही उतरने के संकल्प के बाद भी उस तानाशाही को ऐसे लोकतन्त्र में बदलने के लिए प्रयत्नशील हैं जिसमें शासक अपने सभी निर्णयों और कार्यों के लिए सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी हो और उसे अपनी सफाई दे सके ।
यह वह बिन्दु है जहां दोनों धड़े साफ अलग हैं । दुख झेलती जनता और उसके दुखों का कारगर इलाज तलाशने वाला एक ओर और जगदीश वैद के उपन्यास नरक कुंड में वास के मुरीद दूसरी ओर । वे मोदी को गालियों की भाषा में संबोधित करते हुए फेसबुक पर जो जी में आता है बोलते हैं और उस पक्ष में खड़े होने वालों को भी उसी रौ में संबोधित करते हैं परन्तु इस शिकायत के साथ कि उनको बोलने तक की आजादी नहीं मिल पा रही है।
मीर का शेर है,
बात कहने में गालियां दे है ।
सुनते हो मेरे बदजबां की अदा ।
Post – 2016-12-09
चिन्तित रहने वाले लोग
”कहो कुछ भी यह विचित्र तो लगता ही है कि पूरे देश में सोच समझ का इतना सीधा विभाजन है कि एक को रोज कोई न कोई खामी नजर आ जाती है, दूसरे इतने निश्चिन्त कि उन्हें कहीं कोई दोष दिखाई ही नहीं देता। राजमार्गों पर, गांव देहात में नकदी की कमी से कष्ट भोग रहे लोगों की तकलीफ, उनकी मौत तक इनको विचलित नहीं कर पाती । प्रश्न कुछ हितबद्ध लोगों या राजनीतिक ऊसर क्षेत्र तक सीमित नहीं है, विशेषज्ञ हैं और उनकी आशंकाएं है, इन सभी की अनदेखी कैसे कर सकते हो तुम ?”
”भरे बैठे थे, लगता है। एक साथ इतने सवाल कि सोचना पड़ जाय कि किसका समाधान करूं और किस तरह । पहली बात तो यह कि मैं साहित्य का और इतिहास का विद्यार्थी हूं। अर्थशास्त्र की बारीकियां नहीं जानता। यहां तक कि वे कूटनीतिक शंकाएं जो कई देशों ने व्यक्त की हैं, उनकी पेचीदगी से परिचित नहीं हूं। उनको यथातथ्य मान भी नहीं सकता, नकारने का प्रश्न ही नहीं उठता, पर यह तो मानना ही होगा कि इस प्रयोग के कई पहलू हैं जिनको लेकर ऐसे लोग चिन्तित है जिनकी नीयत पर सन्देह नहीं किया जा सकता।
” पहले हम इन विशेषज्ञों की बात लें, जिनमें राजनयिक पहलू की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। उनमें सबका एक निष्कर्ष है कि हमें अभी कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी होगी, जिसमें हालत सुधरने की संभावना है। यह संभावना एचडीएफसी के सीईओ ने भी प्रकट की जो कभी इस निर्णय के प्रशंसक थे और फिर आलोचक बन बैठे। उन्होंने कठिनाइयां गिनाई हैं और कुछ आशंकाएं प्रकट की है पर साथ ही यह कहा कि जनवरी तक हालत में सुधार संभव है। उनका एक समय का आकलन उनकी ही समझ से गलत हुआ, और दूसरा आकलन दूसरे कारणों से उतना सही नहीं हो सकता ।
”एक प्रश्न इस सन्दर्भ में यह भी कि पिछले दिनों एचडीएफसी के विषय में नाम ले कर लोगों की शिकायतें आती रहीं कि उसमें कुछ ही घंटों के बाद यह ऐलान कर दिया जाता है कि कैश नहीं है। अकेले इस बैंक के साथ यह शिकायत नाम ले कर आई । क्या सीइओ के नये आकलन और दूसरे बैंकों से अलग इस बैंक के व्यवहार और चोर दरवाजे से कैश के गलत हाथों में चले जाने में कोई संबन्ध हो सकता है? यदि हां तो अभी तक इसके किसी शाखा प्रबन्धक का नाम क्यों नहीं आया? और यदि नहीं, तो इसका कैस इतनी जल्द क्यों खत्म हो जाता रहा कि एक दो बार लोगों को अपना आपा खोना पड़ा। ये भी उतने ही टेढ़े सवाल है जो विशेषज्ञता और उसके अलग अलग चरणों के आकलन आदि से जुड़े हैं जिन पर कुछ कहने की योग्यता मुझमे नहीं है ।
”लोगों काे असुविधा है और इसका तीखा बोध मोदी सरकार को भी है, यह पहली बार मैंने 28 नवम्बर की अपनी पोस्ट में कुशीनगर में मोदी जी के सुझाव को सुन कर उनकी भावभंगिमा को देख कर कहा था। यह चिन्ता सभी को है सिवाय उनके जो इनकी फेहरिश्त तैयार करते हुए अपने को दूसरों से अधिक चिन्तित दिखाते हैं और घूम घूम कर इसका राग अलापते हैं, क्योंकि इसमें उन्हें जनता की तकलीफ नहीं दिखाई देती, इसकी आड़ में एक दुर्लभ अवसर दिखाई देता है जो उनकी आकांक्षा को फलीभूत कर सकता है। कयामत के दिनों की भविष्यवाणियों करने वालों में कुछ तो मर्सिया भी लिखने लगे हैं।
”हमने उसी पोस्ट में लिखा था, जनता कष्ट झेल रही है, इसे झेलने की एक सीमा है । उपचार उस सीमा के भीतर हो जाए यह शुभ होगा।” परन्तु अन्तर शुभ के आकांक्षी और अशुभ की प्रतीक्षा में खड़े कराहने वालों का है । आज की स्थिति यह है कि अनगिनत शिकायतों के बाद भी शहरों में हालत सुधरी है। मेरे निकट स्टेट बैंक की एक शाखा है और दूसरी पंजाब नेशनल बैंक की । पहले जहां अछोर लाइन लगती थी, वहां कल 20 लोग स्टेट बैंक में और आठ दस पंजाब नेशनल बैंक में दीखे। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जो काले को सफेद करने के जंग में उतारे गए लोग थे, उनको यह आभास हो गया है कि यह सौदा उन्हें मंहगा पड़ सकता है। वे रास्ते से हट गए हैं।
”गांव देहात में सुधार हुआ होगा, पर स्थिति अभी गंभीर है। इसकी चेतना मोदी सरकार को है। वह स्वयं इसमें जो भी संभव है करने को तत्पर है। अभी पचास दिन पूरे नहीं हुए। इसके पूरे होते ही काफी अन्तर वहां भी दिखेगा। बाढ़, सूखा, फसल की अकाल वृष्टि से बर्वादी आदि की तकलीफों से गुजरने वाले गांव के लोग परेशानी में भी शहरी लोगों की तरह धीरज नहीं खोते । अपना तरीका निकाल लेते हैं। ये शहरी लोग हैं जो मामूली असुविधा होने पर तोड़ फोड़ और आगजनी पर उतारू हो जाते हैं । दंगे भी ये ही भड़काते हैं। इस बार नोटबन्दी के पीछे के महान लक्ष्य को देखते हुए उन्होंने भी अपना धैर्य बनाए रखा। इसलिए आशा है ग्रामीण जनों का मनोबल टूटने से पहले स्थिति पूरे देश्ा में सामान्य हो जाएगी। नोटों की भरपाई ही नहीं, छोटे मूल्य के बीस, पचास, सौ, ही नहीं हजार और पांच सौ के नोट लाने का प्रयत्न हो रहा है। यह भी दुष्प्रचार है कि पूरे तन्त्र को रोकड़मुक्त कर दिया जाएगा। उपदेश देने वालों की तुलना में मोदी को गरीबों, किसानों और मजदूरों की अधिक अच्छी समझ है। वह भी जानते हैं कि रोकड़ के बिना ग्रामीण अर्थव्यवस्था नहीं चल सकती। शहरों में भी हमारा अर्थतन्त्र विकसित देशों से भिन्न है। परन्तु इस क्राइसिस से ही टकाहीन लेन देन की संस्कृति शहरों में और फिर मोबाइल के प्रचलन की तरह देहातों तक में जन्म लेगी जो नकली नोटों, जमाखोरी, मिलावट, कालाबाजारी, टैक्स चोरी जो मुनाफाखोरी और कालाधन की जड़ है, का कारगर इलाज है।
”जिन्होंने केवल विलाप किया है वे इसके साथ जुड़े सेवा कर आदि का इकहरा चित्र पेश करके डराने या विचलित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, परन्तु वे उन विकृतियों को जिनसे इसने मुक्ति दी है नहीं देख पाते। वे नहीं देख पाते कि कथित रूप में रिजर्व बैंक तक में नकली नोटों का इतना बड़ा भंडार जमा हो चुका था, एक ही नंबर के आवर्ती नोट तक छापे गए थे और हमारे पूर्ववर्ती प्रशासनिक तन्त्र की जानकारी के बिना यह संभव नहीं लगता। पाकिस्तान से पंप किए जाली नोटों से भी अधिक भयानक समस्या घरेलू स्तर पर बैंक के छापाखानों में हुई इस हेराफेरी की है। यदि ये खबरें सही हैं तो नोटबन्दी के अलावा कोई उपाय ही न था।
”कांग्रेस ने इतने असंख्य घोटाले किए। स्वच्छ शासन का अपना नैतिक अधिकार खो चुके सभी दलों ने कर अपार काला धन जमा कर रखा था, उसे इस एक ही निर्णय ने कूड़े की ढेर में बदल दिया। लोकतन्त्र की बहाली का इतना कारगर उपाय धन, जाति, धर्म के उन क्षुद्र हथकंडों से पार जा कर कर पाना असाधारण साहस और दूरदर्शिता का प्रमाण है जिसे आम जन जानते हैं, विशेषज्ञ इसकी ओर ध्यान ही नहीं दे पाते। यह उन रहस्यों में से एक है जिसके कारण जनता के निर्णय बार बार विशेषज्ञों के निर्णय से अधिक निखोट होते हैं।
”जिन दलों ने काले धन के तहखाने भर रखे थे वे संसद में चीत्कार कर रहे हैं और वहां कोई काम होने नहीं दे रहे हैं और उन पर पलने बढ़ने वाले बाहर चीत्कार कर रहे हैं और लोगों का ध्यान केवल आहो फुगां पर ही टिकाए रखना चाहते हैं और जाति औ धार्मिक विद्वेष और अलगाव को हवा देते रहना चाहते हैं जिसने समाज को भीतर से जर्जर कर रखा है जब कि जनता को दिखाई देता है पहली बार ऐसा नेता जो तोड़ने और बांटने वाली क्षुद्रताओं से ऊपर उठ कर जोड़ने और देश को विकास की दिशा में ले जाने वाली राजनीति करना चाहता है। ये क्षुद्र लोग हैं जिन्होंने पवित्र शब्दों की मर्यादा को उसी तरह नष्ट किया है जैसे ईसाइयत के पोपतान्त्रिक विनाश ने किया जिससे यूरोप में अन्धकार युग आया था। मैंने कहा था न कि उस पोप को जिसने यूरोप के पुराने पुस्तकालयों, देवालयों, वास्तुकृतियों को नष्ट करने का आरंभ किया और बुद्धिजीवियों को देश से पलायन करके अपने प्राण बचाने को विवश किया था, उसका नाम इन्नोसेंट था और जिसने मातृदेवी के मन्दिर को नष्ट किया था उसका नाम स्वर्ग का द्वार या थियोडेारस था। इनके अभियान का नाम सेक्युलरिज्म पड़ गया और उसके तहत क्या कारनामे किए गए इसका इतिहास तक उन्हें पता नहीं, उससे पीछे के इतिहास की तो बात ही अलग है।
”यदि तुम्हारी शंकाओं का समाधान हो गया हो, तो कल से मोदी केन्द्रित और मुद्रा केन्द्रित सवाल न करना। मोदी मेरे लिए राजनीतिज्ञ से अधिक एक द्रष्टा और युगनिर्माता के रूप में सार्थकता रखते हैं।”
”और इसीलिए तुम उनके भक्त हो जिसे उसमें कोई दोष नहीं दिखाई देता।” उसने फिकरा कसा।
”गालियों की यह भाषा कभी बड़े बड़ों की छुट्टी कर देती थी। आसमान छूते शिखरों को तुमने गालियों से जमीदोज कर दिया। लोगों पर इतना प्रभाव था तुम्हारा और तुम्हारे प्रचार तन्त्र का। जिनकी संगत में तुम पाए गए उनके चरित्र को जानने वाले तुम्हारे प्रभाव से, उस प्रचारतन्त्र के भी प्रभाव से मुक्त हो गए इसलिए पहले जहां तुम्हारी गालियों के कारण दूसरे डरते थे, वहां अब तुम्हें डरना चाहिए क्योंकि इनके प्रयोग के कारण अब वे ही लोग तुम्हें बदतमीज समझते हैं। भाषा के स्खलन में तुम्हारा योगदान सबसे अधिक रहा है । अब भी समय है, तर्क और प्रमाण के साथ बात करो और दूसरों के तर्क और प्रमाण का सामना करो। सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं रक्षति पंडित: । अब भी कुछ कहना हो तो मेरे पास सुनने का धैर्य है ।”
वह कुछ कहने की जगह उठ खड़ा हुआ ।
Post – 2016-12-08
पततो पततो न वा
पंचतन्त्र में जिन कहानियों काे को एक बड़े कथा सूत्र में पिरोया गया है उन सभी के रचनाकार इसके रचनाकार विष्णु शर्मा नहीं हैं । इनके रचनाकारों का पता भी नहीं चल सकता । ये लोक में प्रचलित कथाएं थीं । ठीक इसी तरह इसमें जिन सूक्तियों का प्रयोग इस कथाबंध में किया गया है वे दूसरे कवियों की हैं । यह संभव है आवश्यकता होने पर उन्होंने स्वयं भी कुछ सूक्तियां अपनी ओर से रच दी हों । लोक रचित में कई बार कुछ भदेस सामग्री भी अाजाती है ।
ऐसी ही एक कथा एक सियार की है । वह अपनी जोरू के साथ नदी किनारे टहल रहा है । इसी समय एक सांड़ उधर से गुजरता है । सांड़ झूमता चला जा रहा था और उसका ललौहां कोश नीचे को लटका झूल रहा था । सियार ने इससे पहले किसी सांड़ को देखा नहीं था । उसने समझा यह कोई फल है । पक कर तैयार है अब गिरा कि तब गिरा । उसने अपनी जोरू को समझाया यहीं बैठी रहो अभी मै बहुत अच्छा उपहार लेकर आता हूं ।
वह सांड़ के पीछे इस आशा में लग गया कि फल तो गिरना ही है, झूल भी रहा है । अब गिरा कि तब । पर वह गिरने का नाम ही न ले । वह बहुत दूर तक उसका पीछा करता रहा। अन्त में निराश होकर वापस लौटा तो पाया कि उसकी जोरू किसी दूसरे सियार के साथ चली गई है ।
इस कहानी की याद इसलिए आ गई कि जब से मोदी के सत्ता में आने के आसार बने हमारे बीच कुछ ने, जिनके हित या तो ऐसे दलों से जुड़े थे जो लूट पाट में लगे हुए थे और जिनका टुकड़ा इन्हें भी पहुंच जाता था, या ऐसे दलों से नाता जोड़ चुके थे जिनक पास किसी ठोस कार्यक्रम के अभाव में, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का एकमात्र कार्यक्रम बच रहा था, और जिन्होंने अपने इस दुराग्रह से उसके सत्ता में आने का रास्ता अपनी ओर से भी आसान बनाया। वे अपनी बचकाने अायोजनों से पहले यह सोचते थे कि उसे हल्ला मचा कर आने से ही रोक देंगे, फिर यह आस लगाए रहे कि इसे अब गिराया कि तब । अनावृष्टि हो या कुवृष्टि, अातंकवादी हमले हों या अलगाववादी आन्दोलन, सीमारेखा पर तनाव हो या देश के भीतर विघटनकारी कारनामे इनकी सहानुभूति और समर्थन देश और समाज का अहित करने वालों के साथ रहा । कारण वे सोचते रहे कि इसके साथ ही मोदी अब गया कि तब । उन्हें किसी कीमत पर, यहां तक कि देश की बर्वादी की कीमत पर भी मोदी को सत्ता से हटाना था । प्रतीक्षा करते हार गए पर आस न छोड़ी ।
विमुद्रीकरण का फैसला बहुत बड़ा फैसला था । शायद ही कोई हो जिसे इसकी आंच न सहनी पड़ी हो । इन पंक्तियों के लेखक को कुछ कम असुविधा नहीं झेलनी पड़ी । कालाबाजारियों ने ठीक वही तरीका अपनाया जो रेलवे टिकट के कारेबारी अपनाते थे । इन्होंने बैंकरों को पटा कर अपना काला सफेद कर लिया और किसी को कानोकान खबर न हुई। करोड़ों की रकम सीधे बैंक से जमाखोरों के पास पहुंच गई और उनके गुर्गो ने कतार की लंबाई को तो बढ़ाया ही जिसका कुफल आम जनों को भोगना पड़ा, उनके माध्यम से निकासी के कारण कतार में खड़े लोगों का नंबर आए इससे पहले ही पैसा खत्म होता रहा । इसने उनकी आशा को आशातीत रूप में उत्तेजित कर दिया ।
वे कतारों की लंबाई, उनमें खड़े लोगों की असुविधा की कहानियां सुना कर मौके पर पहुंंच कर लोगों को भड़काते रहे और लोग कालेधन को खत्म करने के इस फैसले से इतने अनन्य भाव से जुड़े रहे कि इतनी कठिन असुविधाओं को झेलते हुए भी, उस देश में जहां मामूली से उकसावे या असुविधा पर लोग रास्ता जाम कर देते, तोड़ फोड़ पर उतर आते, वे अपना संयम बनाए हुए हैं। वे सारे दुख जो पहली बार जनता के दुख से कातर होने का अभिनय करने वाले अपनी जगह पर बैठे लंबी उसासें भरते हुए सुनाते है, उन्हें झेलते हुए वे यह समझ रहे हैं कि इससे निबटने का उतना ही अथक प्रयास सरकार कर रही है । कुछ असुविधा जनक स्थितियां आएंगी, कुछ थके ऊबे लोग आपसी झड़प पर भी उतारू होंगे, खास तौर से तब जब उनको पता है कि कतार में कालाबाजारियों के गुर्गे भी खड़े हैं जिनके कारण उन्हें असुविधा हो रही है, नोटों की आपूर्ति की शिकायते, एटीएम में पैसों की कमी, आदि की परेशानियों ने इनकेा उत्साह से भर दिया है कि अब की बार तो टपकेगा ही। अभी तक नहीं गिरा, संभव है जनता इसे यह जानकर झेल जाय कि यह एक व्यक्ति का फैसला नहीं है अपितु उनकी अपनी आकांक्षा का कार्यान्वयन भी है। गिरना तो संभव नहीं लगता और यदि कोई संकट सचमुच आया तो यह ग्रीक त्रासदी का मंचन होगा जिसमें सहानुभूति आपदा झेलने वाले के साथ रहती है ।
फिर भी गिरा अब गिरा की आश में पीछा करने वालों के धैर्य की भी दाद तो देनी ही पड़ेगी ।
Post – 2016-12-07
इतिहास का इतिहास
”बात कहीं से शुरू हो तुम घूम कर इतिहास पर चले जाते हो । पहले मानविकी की शाखाओं की बात की और फिर अन्त में इनमे से इतिहास पर जम गए । तुम्हें पता है कई देश ऐसे हैं, जिनमे इतिहास नहीं पढ़ाया जाता और वे दुनिया पर राज कर रहे हैं।”
”तुम्हारा ध्यान इस बात की ओर नहीं जाता कि वे अपने इतिहास का सामना नहीं कर सकते । इसकी क्षतिपूर्ति के लिए वे दूसरे देशों का इतिहास और पुरातत्व पढ़ते और उनको उसके माध्यम से अपने वश में रखना चाहते हैं । इतिहास के बारे में मैंने पहले कई बार अपनी समझ तुमसे साझा की है । जो इतिहास से बच कर, अपने वर्तमान से आरंभ करते हैं उनकी आबादी में मनोविकृतों की संख्या का अनुपात अधिक होता है। वे केवल यह देखते हैं कि अमुक के पास इतना था आज इतना हो गया और इस होड़ में जिस भी साधन से अधिक से अधिक जोड़ा जुुगाया जा सकता है उसे जोड़ने सहेजने में लग जाते हैं । मिलावट, नकली उत्पाद, अपराध के विविध रूप, नैतिक गिरावट के सभी रूप इसी से जुड़े हैंं जिनको इस बात की याद तक नहीं कि अपनी साख को बचाने, आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उनके ही पुरखों ने किस तेवर से ऐसे प्रलोभनों का सामना किया था।
”तुम्हारे पास घर हो, तो तुम घर बनाने पर अपना समय नष्ट न करोगे, उस घर को बसाने, सुखी रखने की चिन्ता ही पर्याप्त होगी। परन्तु यदि तुम्हारा घर किसी आपदा के कारण या किसी की दरिंदगी के कारण उजाड़ दिया गया हो, तो तुम्हारी पहली जरूरत अपना घर बनाने की होगी। इतिहास के साथ भी यही है । हमारे पास जैसा तैसा एक इतिहासबोध था जिससे हमारा काम चल जाता था। उसका सही होना उतना जरूरी नहीं जितना उसके सही होने पर हमारा विश्वास होना जरूरी है । वह इतिहास भी हो सकता है और पुराण्ा भी या साहित्य का एक कल्पित चरित्र भी जैसे मजनू । वह हमें प्रेरित करता है, हमारे आचरण को प्रभावित करता है और सामान्य जीवन में हम जिस तरह के बलिदान के लिए तैयार नहीं हो सकते, उसके लिए वह हमें प्रेरित करता रहता है । हमारे उस अतीत बोध को नष्ट कर दिया गया और जो हमारा वास्तविक इतिहास हो सकता था उसे भी विकृत करके प्रस्तुत किया गया जिससे हमारा वह बावला समाज पैदा हुआ है जिसके समझदार लोग भी यह नहीं समझ पाते कि वे जो कर रहे हैं, वह उनका काम है या किसी दूसरे के घर पानी भर रहे हैं। इस समाज को देख कर घबराहट होती है। अधकचरे दिमाग के लोग नैतिक शिक्षा पर जोर देने का सुझाव देते हैं । सच कहें तो यह काम हमारे इतिहास का है, उसके प्रेरणा के स्रोतों का है। उसी की विकृति से यह व्याधि पैदा हुई है और उसे सही करने से समाज के उस मेरुदंड को शक्ति मिल सकती है जिससे वह अपने स्वाभिमान के साथ खड़ा हो सके । तुम भारतीय समाज को देखो, इसका स्वामिमान नष्ट हो गया है और उस खाली जगह को अहंकार और दंभ ने भर दिया है। जरूरत इसके स्वाभिमान को जाग्रत करने की है, उसी से देश निष्ठा, समाजनिष्ठा, सत्य निष्ठा सभी जाग्रत हो जाते हैं।
वह हंसने लगा, ”तो अब हमें ज्ञान विज्ञान को छोड़ कर इतिहास और पुराण की ओर मुड़ना चाहिए और उसी से हमारी सारी समस्यायें हल हो जाएंगी । पीछे चलते हुए हम आगे बढ़ते चले जाएंगे ।”
”मैंने युद्ध की मिसाल दी थी और यह बताया था कि यदि सभी लोग अपना काम छोड़ कर मोर्चे पर खड़े होने को दौड़ पडें तो वह देश बिना लड़े ही हार जाएगा क्योंकि उसके मोर्चे पर ऐसे लोगों की भीड़ बढ़ जाएगी जो लड़ना नहीं जानते और दूसरे सारे काम हो ही नहीं पाएंग। मोर्चे पर कटने वाले उत्साही लोगों की जमात अवश्य मिलेगी। इसलिए युद्ध पूरा देश लड़ता है परन्तु अपने मोर्चे पर खड़ा हो कर । ज्ञान विज्ञान और प्रशिक्षण के मामले में भी यही लागू होता है । इतिहास की गहन खोज के लिए कुछ थोड़े से लोगों की जरूरत होती है, पूरे देश की नहीं । एक बार तुम्हारा इतिहास सही सही लिख लिया गया तो बाद में श्रम मामूली सजावट और मरम्मत तक सीमित रह जाती है। और जो हमारा समाज है वह तो उसी मकान में रहने वाला परिवार है जिसके सिर पर छत न रहने पर वह बावला सा बना रहता है, छत के मिलते अपने अपने सुकून के काेने तलाश लेता है । जिस समाज का इतिहास गड़बड़ है उसका समाजशास्त्र भी गड़बड़ रहेगा, रीति नीति या नृतत्व भी अटपटा रहेगा, मनोविज्ञान भी लुंजपुंज रहेगा, इसलिए मैं इतिहास को इतना महत्व देता हूं । इसे यदि नष्ट किया गया है तो पहले इसे ठीक करना होगा और इसके लिए किसी सेना की आवश्यकता नहीं है, कुछ दर्जन लोगा ही यदि समर्पित भाव से काम करें तो इसके लिए पर्याप्त हैं।”
”तुम जब कोई बात कहते हो तो लगता है ठीक ही कह रहे हो । कुछ लोग बात गढ़ना जानते हैं और गलत को भी सही सिद्ध कर देते हैं। तुम भी इसी कोटि में आते हो । जब कह रहे हो इतिहास की शिक्षा, इतिहास की खोज और इतिहास का पुनरुद्धार सबसे जरूरी काम है तो मानने के अतिरिक्त कोई उपाय नही रह जाता। परन्तु कुछ अलग जा कर सोचता हूं तो बात कुछ अतिरंजित तो लगती ही है ।”
”मैं अदना सा आदमी, मेरी बात पर तो वैसे भी विश्वास करते हुए झिझक बनी रहेगी। मैं तुम्हें एक इतिहासवृत्त सुनाता हूं। इर्फान हबीब के पिता मोहम्मद हबीब जो असाधारण प्रतिभाशाली छात्र थे इंग्लैंड में पढ़ रहे थे । वह आक्सफोर्ड मजलिस से भी जुडे थे और एक बार उसके अध्यक्ष भी रहे थे । विचार उनके राष्ट्रवादी थे । उसी बीच मुहम्मद अली इंग्लैंड पहुंचे थे । उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा, असली ज्ञान इतिहास का जरूरी है क्योंकि समाज को इसी से नियन्त्रित किया जाता है और उनके प्रभाव में उन्होंने इतिहास की ओर रुख किया अौर इंग्लैंड में बसने की जगह भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाया । वह उसी जामिया मिल्लिया में अध्यापक बने जिसकी स्थापना मुहम्मद अली ने की थी। मुहम्मद अली मुस्लिम लीग के संस्थापक (1906) सदस्यों में से एक थे और बाद में कांग्रेस को खिलाफत का समर्थन करने के लिए मना लिया था। खिलाफत कांग्रेस का अपना आन्दोलन सा बन गया था। मुहम्मद अली ने भी खिलाफत में भाग लिया था और 1922 में जब चौरीचौरा कांड के बाद गांधी जी ने आन्दोलन वापस लिया तो अध्यापन उनका मुख्य क्षेत्र बन गया परन्तु राजनीति से कभी दूर नहीं हुए । वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय में रीडर बने और फिर प्रोफेसर और अपने सेवानिवृत्ति के बाद एमेरिटस प्रोफेसर रहे। यदि मुहम्मद अली ने गांधी जी से निकटता पैदा की थी तो मुहम्मद हबीब नेहरू के मुरीद बने रहे और अपने वेतन का कुछ भाग कांग्रेस को दान देते रहे । बाद में वह कम्युनिस्ट पार्टी की ओर भी मुड़े थे ।
वह बहुत प्रतिष्ठित और प्रभावशाली इतिहासकार थे जिनका जोर मूल स्रोतों के अध्ययन पर अधिक रहता था। मेरे अनुमान से यह उनके ही प्रभाव का परिणाम था कि कोसंबी, जो दो सालों के लिए अलीगढ़ विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे, इतिहास की ओर मुड़े और स्वयं इस बात के कायल हो गए कि विज्ञान की तुलना में इतिहास का अध्ययन अधिक जरूरी है । उस प्रभाव में और कतिपय दूसरे कारणों से जिनका कुछ विस्तार से उल्लेख मैंने कोसंबी पर अपनी पुस्तक में किया है, कोसंबी ने मूल स्रोता का इकहरा और ध्वंसात्मक पाठ करते हुए प्राचीन भारत का इतिहास लिखा जो मार्क्सवादी इतिहास का पर्याय बना दिया गया और जिससे आगे प्राचीन भारत पर किसी अध्ययन अौर ज्ञान की आवश्यकता ही समाप्त कर दी गई ।
मैं मुहम्मद हबीब के ज्ञान और प्रभाव और निस्पृहता का सम्मान करता हूं और निस्पृहता के मामले में इर्फान हबीब का भी सम्मान करता हूं पर इस आडंबर के नीचे मुहम्मद अली और उनके लीगी झुकाव और मुहम्मद हबीब पर उनके प्रभाव को देखते यह नहीे सोच पाता कि दिखाने के दांत चबाने के दांत भी रहे हैं। इतिहास पर अधिकार करके पूरे समाज का कितना अनर्थ किया जा सकता है इसे समझ सको तो ही यह समझ सकते हो कि इस अनर्थ से बाहर आने का रास्ता भी इतिहास के स्रोतों तक पहुंचने और उनकी नई व्याख्या से ही संभव है । अपने तई मैंने यही किया परन्तु अकेला चना भाड़ नहीं तोड़ सकता । जरूरत समर्पित अध्येताओं की है, सरकारी वजीफे से न कवि पैदा होते हैं, न चिन्तक, न इतिहासकार । सरकार यदि सही रही तो सुयोग्य जनों का उपयोग करती है, अन्यथा यह परखती है कि यह पूरी तरह हमारी विचारधारा से अनुकूलित है या नहीं । ऐसी सरकार शिक्षा को भी नष्ट करती है और सर्जनात्मकता को भी । कई बार मुझे वर्तमान सरकार से भी इसी बात का डर लगता है ।
Post – 2016-12-06
मुक्तिमार्ग
”तुम बताओगे जिस अधोगति की बात तुम करते हो, उससे उबरने का क्या तरीका हो सकता है ?”
”मैं बताता आया हूं, पर तुम्हारी समझ में यह नहीं आया । सवाल पूछ रहे हो । एक मोटी बात समझ लो, सामान बनाना आसान तो नहीं, पर बहुत मुश्किल नहीं । अवसर, साधन, प्रशिक्षण सुलभ हो तो कोई भी सामान, किसी भी कोटि का सामान तैयार किया जा सकता है। इसका लाभ उठा कर हमने अन्तरिक्ष विज्ञान में अग्रणी देशों को भी कुछ दृष्टियों से पीछे छोड़ दिया है । यह काम रक्षा और दूसरे क्षेत्रों में भी किया जा सकता था । किया जा सकता है । उसकेे लिए संसाधनों की और अनुसंधान की सुविधाओं की आवश्यकता है, जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया। मोदी का ध्यान कौशल के विकास और लघु उद्योगों के प्रोत्सान के पीछे यही दिखाई देता है। इसमें सभी को यथा संभव सहयोग करना और समर्थन देना चाहिए । वह कर कितना पाते हैं, वह तो परिणामों से ही पता चलेगा ।
परन्तु सामान बनाने से अधिक कठिन चुनौती है, इंसान को इंसान बनाने की । यह मानविकी की शिक्षा से संभव है । वह जितनी वस्तुपरक या आग्रह से मुक्त होगी उतनी ही सफलता से अपना काम कर पाएगी। इसकी ओर लंबे समय से ध्यान नहीं दिया गया है और जिनके सुपुर्द इसे किया गया वे अपने दायित्व को समझ नहीं सके और पूरी शिक्षा प्रणाली को ही लुंजपुंज करते चले गए । आज हमारे विश्वविद्यालयों में उस स्तर के भी विद्वान नहीं है जो आज से पचास साठ साल पहले थे । अपने क्षेत्र के प्रति समर्पित, अपने कर्तव्य के प्रति सचेत, अपनी अकादमिक उपलब्धियों पर अपने ठाट बाट की तुलना में अधिक गर्व करने वाले और इन कारणों से अपने छात्रों के बीच उतने ही समादृत । विषय कोई हो, उनका मुख्य आकर्षण राजनीति की ओर हो गया।
”राजनीति से तुमको इतना परहेज क्यों है ।”
”मुझे राजनीति से परहेज नहीं है । मेरा समस्त लेखन राजनीतिक है, यह मैं बता आया हूं। इसीलिए मुझ सकि्रय राजनीति से जुड़ने के प्रति उदासीनता रही है और इसीलिए सक्रिय राजनीति को ही राजनीति का एकमात्र विकल्प मानने वाले अक्सर मुझसे असहज अनुभव करते रहे हैं । मेरी राजनीति रही है भारतीय मानस काे औपनिवेशिक दासता से मुक्ति दिलाना । भौतिक स्वतन्त्रता के अधूरे कार्यभार को पूरा करना । राजनीतिक सत्ता की लड़ाई हमें दूसरों से लड़नी पड़ी और विभिन्न कारणों से ब्रिटेन को सत्ता अपनी खिन्नता और आक्रोश के बाद भी हस्तान्तरित करनी पड़ी । औपनिवेशिक मानसिकता को बनाए रख कर हम पूरी तरह स्वतंत्र न तो हो सकते थे, न ही हो सके । औपनिवेशिक मानसिकता के विरुद्ध लड़ाई अपने लोगों से, औपनिवेशिक औजारों को अपना कर अपने लिए सत्ता को सुनिश्चित करने वालों के विरुद्ध लड़ाई थी। हमारे राजनीतिक दलों में से कोई ऐसा न था जो औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त रहा हो या मुक्त रहने केे लिए प्रयत्नशील तक दीखे। इसका कुछ अपवाद समाजवादी पार्टी को माना जा सकता था। यह एक कठिन संघर्ष था जो आत्म से आरंभ होकर अपर तक पहुंचता था। इसे सत्य की खोज और प्रतिष्ठा के माध्यम से ही लड़ा जा सकता था । मैंने इस राजनीति को चुना था और जब चुना था तब और उसके बहुत बाद तक यह तक समझ नहीं पाया था कि मैं एक राजनीतिक मोर्चा संभालने जा रहा हूॅ क्योंकि तब यह भ्रम बना हुआ था कि यदि सत्य का उद्घाटन हो जाय तो जो लोग गलत मान्यताओं में उलझे हुए हैं, वे उसे स्वीकार करने में संकोच या उसका विरोध करेंगे । यद्यपि अपनी 1970 में प्रकाशित कविता की पंक्तियों में इसे एक वैचारिक संघर्ष के आरंभ के रूप में ही लिया था।”
”इसका हवाला तुमने एक बार और दिया था, मुझे याद है। पर कविता मेरी नजर से नहीं गुजरी ।”
”कुछ लंबी कविता है, पर उसकी कुछ पंक्तियां मेरे मन्तव्य को स्पष्ट कर सकती हैं। कविता का शीर्षक ही था, ‘मैं फिर तोड़ता हूं इस तिलिस्म को। यदि किसी को मेरे उस संकल्प का ध्यान न हो जिसका निर्वाह मैंने अविचल भाव से किया है तो यह कविता बड़बोलेपन का उदाहरण प्रतीत होगी, यदि ध्यान हो तो एक प्रतिज्ञा।”
”तुम बात बात पर सिद्धांत क्यों बघारने लगते हो,वह प्रतिज्ञा तो सूनूं।”
मैं उसकी एक प्रतिज्ञा की याद दिलाऊंगा :
मुझे पता है/ मैं भाग खड़़ा हुआ था कई मोर्चों से/ पर आज उतरता हूं एक महासमर में/ अपने ही विरुद्ध/ मैं तोड़ूंगा कुछ नही/ सिर्फ परिभाषा बदल दूंगा और धुएं में तने कंगूरे हवामुर्ग में बदल जाएंगे।
मेरा समस्त लेखन परिभाषाएं बदलते हुए सत्य के साक्षात्कार का अभियान रहा है ।
एक लेखक की राजनीति, एक शिक्षक की राजनीति, एक दार्शनिक की राजनीति उस व्यावहारिक राजनीति से भिन्न होती है जिसमें सभी मूल्यों, मानों, आदर्शों को तिलांजलि दे कर केवल सफलता पाने की कामना होती है। व्यावहारिक राजनीति को तो लिंकन से ले कर गोएबेल्स तक ने गर्हित माना है। वह संस्कृतिविरोधी है । पाखंड उसका दुर्ग है।”
”उससे बचा जा सकता है ? उसके बिना काम चल सकता है ?”
”उसमें इस तरह भाग लिया जा सकता है कि हम अपने को भी और पूरे समाज को भी उसकी मलिनताओं से बचाए रख सकें और इस तरह व्यावहारिक राजनीति के स्तर को भी ऊपर उठा सकें ।”
वह हंसने लगा, ”जरा प्रकाश तो डालो ।”
”तुमने कभी युद्ध देखा है ? मेरा मतलब है, देखा तो होगा ही और न देखा हो तो सुना और जाना तो सभी ने होगा। युद्ध मोर्चे पर खड़ा सिपाही ही नहीं लड़ रहा होता है। देश का प्रत्येक नागरिक युद्ध के मोर्चे पर होता है, परन्तु उसका मोर्चा भिन्न होता है । यदि युद्ध लंबा खिंचे और देश में अनाज की ही कमी पड़ जाय तो शत्रु का सामना किया जा सकता है? यदि रसद समय से न पहुंच पाए, गाडि़या समय से न चल सकें, शस्त्रागारों में असला तैयार न होता रहे, या यदि घबराहट में नागरिकों का मनोबल ही टूट जाये तो तुम केवल बहादूर सैनिकों और उनकी गोलियों और बन्दूक से युद्ध जीत नहीं सकते । इसलिए एक किसान जो अधिक मुस्तैदी से अपनी खेती करता है, एक कारोबारी जो ईमानदारी से सामान की भरपाई करता है, जमाखोरी से बचता है, एक कारखानेदार जो अपना उत्पादन अधिक तत्परता से करता है, परिवहन से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति जो सैनिकों से ले कर असले तक के संचलन में अपनी भूमिका निभाता है, और यहां तक कि खतरों की संभावना होते हुए भी एक नागरिक जो सामान्य भाव से अपने काम से ले कर मनोरंजन तक में जुटा रहता है जिससे लोगों का मनोबल बना रहे, ये सभी उस समर में अपने अपने मोर्चे पर युद्धरत होते हैं । किसी की शिथिलता का विजय की संभावना पर असर पड़ सकता है। युद्ध का पहला पाठ है अपने मोर्चे पर पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम करना न कि अपना काम छोड़ कर इधर उधर भागना।
”ठीक यही बात राजनीति पर लागू होती है। हम अपने कार्यक्षेत्र में पूरी निष्ठा से काम करें, अपने विषय के अपनी क्षमता के अनुसार अधिकारी व्यक्ति बन सकें तो वह अनुशासन, वह निष्ठा, विषय पर वह अधिकार एक ऐसा स्वस्थ माहौल बनाने में सहायक हो सकता है जिसमें व्यावहारिक राजनीति की मलिनता से मुक्ति पाई जा सके और उसका स्तर अधिक शालीन और मर्यादित बनाया जा सके । आज तो गिरावट उस स्तर पर आ चुकी है जिसमें सभी मर्यादाएं नष्ट हो चुकी हैं । यदि यही राजनीति छात्रों, अध्यापकों सभी में प्रवेश कर जाय तो वहां भी समस्त मर्यादाएं टूटेंगी, यह समझाने की बात नहीं है । यही हो रहा है और हमारे बौद्धिक दिवालियेपन का सबसे बड़ा कारण यही है ।”
”तुम यह क्यों भूलते हो कि छात्रों ने आन्दोलनों में भाग लिए हैं, उन्होंने अपने आन्दोलन से सत्ता के चरित्र को बदला है।”
”उन्होंने जब भी ऐसा किया है, अपना नुकसान किया है । उनके किए कुछ खास नहीं हुआ है । अक्सर उन्हें यह पता ही नहीं चला है कि वे क्या कर रहे हैं, क्योंकि उनको उकसा कर उनका इस्तमाल धूर्तों और देशद्रोहियों द्वारा किया गया है। इस पर कोई शोध उपलब्ध नहीं है, या कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है, परन्तु मोटा निष्कर्ष यही निकलता है । पर तुमने राजनीति को बीच में ला कर मुझे अपने विषय से भटका दिया ।”
वह कुछ बोला नहीं, उत्सुकता से मेरी ओर देखता रहा ।
”मैं कह रहा था कि सामान बनाने से अधिक जरूरी है आदमी बनाना जो मानविकी की शिक्षा को वस्तुपरक बनाने से ही संभव है। न इस ओर पहले ध्यान दिया गया न मोदी को इसका आभास है और न ही उनके मानव संसाधन मंत्रालय का कार्यभार संभालने वालों की समझ में इसका महत्व आ सका है ।”
”तुम्हारे पास कोई सुझाव हो तो उसे भेज दो।”
”सुझाव तो दे सकता हूं, पर वह अमल में नहीं आ सकता । उसकी तैयारी तक नहीं है । हां यह कह सकता हूं कि मानविकी को नष्ट इतिहास के विकृत लेखन से आरंभ किया गया था और इसे सुधारा इतिहास को तथ्यपरक और वस्तुपरक बना कर जा सकता है, परन्तु उन तथ्यों की खोज के लिए बुनियादी तैयारी तक नहीं है। पहले उसे प्रोत्साहित करना होगा । प्राचीन भाषाओं का ज्ञान या कहो उन भाषाओं का ज्ञान जिनसे मूल ग्रन्थों तक हमारी पहुंच हो सके ।”
उसने फिकरा कसा, ‘दिल्ली दूर एस्त ।” और उठ खड़ा हुआ ।
Post – 2016-12-05
हंसी आती है अपने रोने पर
उसने मिसरा पूरा किया, ” और रोना है जग हंसाई का । भई तुमने कल देश का जो बौद्धिक खाका खींचा उसमें तो लगता है हम बुद्धिविहीन वर्तमान में जी रहे हैं । फिर यह देश चल कैसे रहा है ?”
”चलने के लिए तो पहले अपने पांवों पर खड़ा होना पड़ता है । यह तो अपने पांवों पर खड़ा तक नहीं हो सका। अपनी जरूरत का आधा माल बाहर से खरीदता है और उस पर गर्व करता है । अपने देसी उत्पाद पर लज्जित अनुभव करता है । चल रहा होता तो वह एशिया के दूसरे देशों की तुलना में, जो उस चरण पर जब हमें स्वतन्त्रता मिली, हमसे हर माने में पीछे थे, आज भी अपनी अग्रता बनाए रखता। उनसे पिछड़ता गया है और आज उनसे अनुरोध कर रहा है कि आओ, जो माल वहां बना कर हमें बेचते हो, यहां बनाओ और सारी दुनिया को बेचो। दूसरे जहां चलते रहे, वहां हम घिसटते रहे । घिसटने वाला भी अपने पिछले मुकाम से कुछ आगे सरकता तो है ही।
”प्रश्न तुलनात्मक प्रगति का है। हमारी नगण्य प्रगति में प्रौद्याेगिकी की भी एक भूमिका है जो सभी देशों को बाजार के नियम से पहुंची है। जिन गांवों और कस्बों में टेलीफोन तक नहीं था, वहां हर तीसरे आदमी के पास मोबाइल है और उससे जुड़ी सुविधाएं हैं। इसलिए प्रश्न मैने जो खाका खींचा है उससे घबराने का नहीं अपितु यह विचार करने का है कि किन प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करने के कारण हम अपने पांवों पर खड़े तक न हो सके। अपनी समस्याओं पर स्वयं गंभीरता से विचार करने से कतराते रहे और उनके विषय में विदेशियों के लेखन और विवेचन से कुछ तिनके उठा कर काम चलाते रहे और इन तिनकों की ढेर के अनुपात में ही अपने को विद्वान समझते रहे। किसी न किसी हाल में जीवित रहना, या पहले से कुछ अधिक सुविधाओं से लाभान्वित होना तो औपनिवेशिक अवस्था में भी संभव होता है । हम सचमुच स्वतन्त्र हुए या मात्र सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और शेष पूर्ववत चलने दिया ? हमारी स्वतंत्रता तो मात्र शोर बन कर रह गई, जीवन में उतर ही न पाई।”
वह कुुछ देर उधेड़-बुन में पड़ा रहा, फिर बोला, ”देखो, हमें औपनिवेशिक विरासत नहीं मिली थी, जिस महारथ पर उपनिवेशवादी सवार थे, उसे जाते-जाते, खीझ में योजनाबद्ध रूप में उन्होंने तोड़ और अपनी ओर से बर्वाद कर दिया । समस्या थी इसे जिस रूप में यह हमें हासिल हुआ था उसमें इसको और बिखराव से रोकते हुए एक नये समाज की रचना का । उसमें ही हमारी सारी शक्ति लग गई ।”
”अौर यह रचना तुम उन्हीं तत्वों की मदद से करते रहे जिनको हथियार बना कर उस महारथ के धुरे और पहियों को तोड़ा गया था।”
”तुम कहना क्या चाहते हो ?”
”कहना यह चाहता हूं कि हमारे पास जो आर्थिक और प्रौद्योगिक आधार था, उसे उपनिवेशवादियों ने अपनी जरूरत से तैयार किया था । उसका संचालन उनके हाथ में था। हमारा उपयोग वे अपने पुर्जो के रूप में करते थे । हमने उस आधार से अपना आत्मीय संबंध कभी बनाया नहीं, बना भी नहीं सकते थे, क्योंकि इसका रास्ता रोक कर वे खड़े थे । वे हमारा उपयोग कर रहे थे, हमें प्रबुद्ध होने देना नहीं चाहते थे । निर्माण का कार्य, नई पहल का काम, अनुसंधान का काम, उसके लिए अपेक्षित अनुशासन यह रेल लाइन, यातायात के साधन और प्रशिक्षित सेना मिलने से नहीं आरंभ हो जाता । चेतना के रूप को बदलने से होता है । चेतना का यह रूप भाषा और सोच से जुड़ा होता है । इस दिशा में उपनिवेशी दासता में पले देशों ने ध्यान नहीं दिया, और वे आभ्यन्तरित दासता पर गर्व करते हुए उसे बनाए रखने ही नहीं अपितु बढ़ाने पर लगे रहे । सामाजिक सामरस्य के लिए हमें एक नई शुरुआत की जरूरत थी । उसके लिए एक देसी सोच और समझ वाले नेतृत्व की जरूरत थी, अंग्रेजों को अपना आदर्श मानने वाले, किताबों के माध्यम से देश से जुड़ने का प्रयत्न करने वाले और दासता के मूल्यों का विस्तार करने वाले नेतृत्व का नहीं । बांटो और राज करो वाली नीति पर चलने वाले नेतृत्व की तो कदापि नहीं । कम से कम विभाजित हिन्दुस्तान में इसके सभी टुकड़ों को ऐसा ही नेतृत्व मिला इसलिए हमारी दशा औपनिवेशिक दौर से भी अधिक खराब, अधिक अरक्षणीय और अधिक पराश्रयी होती चली गई ।
”एशिया के वे देश जो बहुत पीछे थे, उनकी चेतना इस तरह अवरुद्ध नहीं थी । विकास के लिए यंत्र की विरासत नहीं, चेतना के रूप की आवश्यकता होती है, इसलिए नई चुनौतियों का उन्होंने हमसे अधिक दक्षता से सामना किया । अंग्रेजी न जानते हुए भी उन्होंने पश्चिमी देशों से हमारी तुलना में अधिक सीखा और उस सीखे का नये रूप में समंजन किया कि वे अपना माल उन देशों को भी बेचने में समर्थ हुए जिनसे यह गुर सीखा था ।
”हम अंग्रेजी जानते हुए, इसे विश्वज्ञान की कुंजी मानते हुए, अधिक से अधिक दास भाव से ब्रितानी उच्चारण को अपना मानक बनाने पर अधिक ध्यान देते रहे, सीखा कुछ नहीं। स्वतन्त्रता में भी दासता के नए संस्करणों का आविष्कार करते हुए मानसिक रूप में औपनिवेशिक दौर से भी अधिक पराश्रयी बनते चले गए। इसका ध्यान कम से कम उनको तो होना चाहिए जो अपने को भारतीय समाज का बुद्धिनिधान मानते हैं, पर है क्या? जिस संघ की सीमा को हम बयान कर रहे थे, उसे तो हो ही नहीं सकती।
”अपने अज्ञान को समझने के लिए भी ज्ञान की जरूरत होती है। हम जितना कम जानते हैं, अज्ञात का दायरा उसे ही घेर कर बहुत छोटा होता है । ज्ञान के विस्तार के साथ ही अज्ञान का परिसर भी विस्तार पाता है । यदि संघ से जुड़े लोग अपने वर्तमान की सफलताओं से संतुष्ट हैं तो उसका कारण समझा जा सकता है, परन्तु दूसरों की चूक से आकाशपतित अवसर को संभालने का भी यदि शऊर नहीं पैदा हुआ तो आप देश का क्या भला करेंगे? आए हुए अवसर को भी गंवा देंगे ।
”परन्तु जो अपनी बहुज्ञता के अहंकार में यह तक नहीं समझ पाए कि उनका देश क्या है, समाज क्या है, उनकी जो गति हो रही है वह क्यों हो रही है, उनकी अपनी जो गति हो रही है वह क्यों हो रही है, जो उन्हीं मूर्खताओं को बच्चों जैसी जिद से दुहराते चले जाते हैं, उनके लिए तो किसी ऐसे शब्द का आविष्कार करना होगा जो मूर्खता के सभी अकीर्तिमानों को पार कर जाय ।”
”तुम फिर उसी बिन्दु पर पहुंच गए जहां कल तुमने अपनी बात का अन्त किया था । यह तो विचार विमर्श न हो कर सांप और सीढ़ी का खेल हो गया। हमें करना क्या है यह तो बताते ।”
”यदि इतनी अक्ल होती तो मैं उतनी गलतियां नहीं करता जितनी मुझसे होती रहती हैं । फिर भी यह जान कर मेरा मनोबल कुछ उठता तो है ही कि जिन्हें समझदार समझता था वे तो मुझसे भी अधिक नासमझ हैं । इतने लंबे समय तक लगातार समझाते रहने के बाद भी यह मोटी सी बात मित्रों और अमित्रों को नहीं समझा सका कि भाषा जिसके माध्यम से ही विचार संभव है, उसकी महिमा को नष्ट तो मत करो । कम से कम गालियों और फिकरों और फब्तियों की भाषा से तो बचो, वे तो अधिक गिरे हुए के पास कुछ अधिक मात्रा में हुआ करती हैं और उनके प्रयोग से तुम अपने को गिरे हुओं की जमात में शामिल कर लेते हो, तुम्हारा ज्ञान और करतब कुछ भी क्यों न हो ।
”जिसके पास तर्क, प्रमाण और औचित्य नहीं होता है उसके पास गालियों का भंडार होता है और अपने को गलत सिद्ध करने का सबसे सीधा उपाय है सटीक व्याख्या से बचना और फब्तियों, फिकरों, गालियों का इस्तेमाल करना । इतनी सी बात अपने सुपठित बुद्धिनिधानों को नहीं समझा सका । विचार विमर्श का स्तर इतना गिरा हुआ कभी था, यह मुझे याद नहीं । इसका बोध सभी को है, यह भी एक सचाई है, पर इससे उबरने की आकांक्षा तक का अभाव देख कर विदांवरों की बुद्धि पर तरस आता है ।
Post – 2016-12-04
सचाई का सामना
”तुम अपने किस अनुभव की बात कर रहे थे । जरा सुनू तो ।”
”देखो, मेरे लिए सत्य की खोज और उसकी प्रतिष्ठा से ऊंचा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं लगता और इसके लिए किए जाने वाले श्रम से अधिक सार्थक कोई दूसरा मनोरंजन नहीं लगता। इसके कारण अपने श्रद्धेय जनों का भी विरोध करते संकोच नहीं होता। इसका नुकसान यह होता है कि उनमें मेरे प्रति खिन्नता पैदा हो जाताी है । यदि लगे जिसे सर्वमान्य सत्य के रूप में स्वीकार किया जाता है उसमें खोट है, तो दूसरे सारे काम छोड़ कर उसके पीछे लग जाता हूं।
जितना भाषाविज्ञान एम ए में पढ़ा था उसके अनुसार आर्य भाषा लिए आर्यजन बाहर से आए थे, उन्होंने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया था और यहां बसे दूसरे जनों को भगा दिया था और अपनी भाषा और संस्कृति लाद दी थी। द्रविड़ भाषाएं एक अलग आद्यद्रविड़ से उसी तरह पैदा हुई थी जिस तरह संस्कृत के ह्रास से उत्तर भारत की भाषाएं।
दक्षिण भारत की भाषाएं सीखने के क्रम में पता चला कि इस मान्यता की प्रत्येक कड़ी गलत है। इसे सिद्ध करने के लिए उन पहलुओं की जांच करते हुए अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया जो आर्य-द्रविड भाषाओं की मूलभूत एकता शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसमें जो स्थापनाएं थी उन्हें समझने की क्षमता हिन्दी विद्वानों में न थी, यह कहना तो अशोभन होगा, परन्तु एक ऐसा व्यक्ति जो पेशेवर भाषाविज्ञानी न हो, ‘विश्वविख्यात’ भाषाविज्ञानियों द्वारा इतने श्रम और अधिकार से तैयार की गई मान्यता का खंडन करे तो उसके तर्क और प्रमाण जितने भी प्रबल हों, उन्हें स्वीकार करने का साहस उनमें नहीं हो सकता था। इसलिए पुस्तक की तारीफ तो सुनने को मिली, प्रतियां चार साल में बिक गई, पूने विश्वविद्यालय में इसे भाषाविज्ञान के सन्दर्भ ग्रन्थों में भी स्थान मिला, अनेक प्रशंसात्मक लेख भी प्रकाशित हुए, पर उसकी आधिकारिक समीक्षा देखने में नहीं आई ।
इस पुस्तक की एक प्रति मैंने आपात काल के दिनों में मेरे पड़ोसी के साथ गुप्त वास करने वाले स्वराज्यप्रकाश गुप्त को दी थी। यह पता तो परिचय के समय ही चल गया था कि वह संघ की विचारधारा से संबन्ध रखते हैं, पर आपात काल की समाप्ति के बाद वह गणवेश में शाखा में जाते मिले तो मुझे हैरानी हुई। जो भी हो, परिचय के बाद मैं उन्हें उसी तरह छेड़ने के लिए ऐसी बाते कर बैठता था, जो आज भी हिन्दू सोच के लोगों को क्षुब्ध करने के लिए वामपंथियों द्वारा की जाती है। कम्युनिस्ट पार्टी से कभी लगाव न हुआ, पर अपने को मार्क्सवादी तो मानता ही था। एक दिन रामायण की चर्चा चलने पर मैंने कहा रामायण की जो कथा हम आज पढ़ते हैं, वह बाद में, मूल कथा को बदलते हुए लिखी गई है। मैंने अपने तर्क तो यह सोच कर दिए थे कि इससे उन्हें खिन्नता होगी, परन्तु अब वह इस बात के पीछे पड़ गए कि चंडीगढ़ में पुरातत्वविदों, नृतत्वविदों का सम्मेलन आयोजित है, उसमें एक पेपर पढि़ए । अंग्रेजी में इससे पहले लिखा नहीं था, थोड़ी चिन्ता थी, फिर भी पेपर तैयार किया ‘दि ओरिजिनल रामायण: ह्वाट इट रीयली वाज’ । इस संगोष्ठी में डा सांकलिया, ए घोष, बी बी लाल, बी के थापर, केनेथ केनेडी आदि विद्वान उपस्थित थे। पर्चे पर चर्चा किसी अन्य की तुलना में अधिक गर्म रही और अगले दिन दिल्ली के अंग्रेजी के अनेक समाचारपत्रों ने लेख की पूरी समरी जो मैंने बनाई थी, उसे ज्यों का त्याें छाप दिया। 1975 में अायोजित यह दो दिवसीय संगोष्ठी मेरे अभिरुचि के क्षेत्र में नया मोड़ था और इसके बाद मेरे व्यक्तित्व के निर्माण में एस पी गुप्त द्वारा पेश गई चुनौतियों या अपेक्षाओं की भूमिका प्रधान थी । अपने अपने राम लिखने की प्रेरणा भी इसी से मिली और इसे लिखने में कई साल लगे।
गुप्त जी ने एक बार प्रस्ताव रखा कि मुझे ‘आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता’ का अंग्रेजी में अनूवाद करना चाहिए । एक काम जो पूरा हो चुका है उसे दुबारा करने का मन नहीं होता। अपनी अंग्रेजी पर भरोसे की कमी एक अतिरिक्त कारण थी। मैंने कहा, आप उस ओर क्यों जाते है, मैं ऋग्वेद में ट्रेड ऐंड कामर्स पर एक लेख अंग्रेजी में लिखता हूं । यह लेख स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट, बेंगलूरु में आयोजित एक दो दिवसीय संगोष्ठी में पढ़ने का अवसर आया। स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूट का नाम संदर्भ ग्रन्थों में पढ़ता आया था, परन्तु वहां पहुंचने पर पता चला इसके आयोजन के पीछे भी संघ का हाथ था। यह मेरे लिए कुछ खिन्न करने वाली बात थी, क्योंकि मैं ऐसे खुले मंच का पक्षधर हूं जिसमें विभिन्न विचारधाराओं के लोग सम्मिलित हों जो एक दूसरे की काट भी कर सकें। इस निबन्ध में जो बीस पन्नों का था, मैंने पहली बार जिन प्रश्नों को खड़ा किया वे निम्न थे:
1. ऋग्वेद में नदियों को वारिपथ या यातायात के मार्ग (प्र ते अरदत वरुण यातवे पथ:) के रूप में क्यों दिखाया गया है ?
2. नदियों की महिमा उनके समुद्र पर्यन्त प्रवाह के लिए क्यों गाई गई है ?
3. घाट की नौका से ले कर समुद्रगामी नौकाओं या जहाजो का इतनी प्रचुरता से उल्लेख क्यों किया गया है ? इसका पशुचारी समाज को क्या जरूरत हो सकती ?
4. ऋग्वेद में परिवहन के उन सभी साधनों का हवाला क्यों और कैसे आता है जिनसे हम परिचित रहे हैं।
और फिर हमारे मूर्धन्य विद्वानों के मन में घर कर चुकी उस चरवाही या अविकसित ग्राम्य अर्थव्यवस्था के विपरीत विविध पक्षों की पड़ताल करते हुए स्थापित किया गया था कि ऋग्वेद वैदिक व्यापारियों का साहित्य है। इसमें उनकी ही चिन्ताओं, सरोकारों और आकांक्षाओं को प्रधानता दी गई है और इसीलिए वैश्य वर्ण को ऋग्वेद से उत्पन्न माना जाता है ।
मैंने यह खाका स्मृति के आधार पर प्रस्तुत किया है जिसमें कुछ विचलन भी हो सकती है, परन्तु जैसा अपेक्षित था, इसने जिस तरह की सरगर्मी पैदा की वह मेरी अपेक्षा से अधिक थी। अनेक विद्वानों के लिए मैं वेद का अधिकारी विद्वान बन बैठा, जिसका दावा आज तक करने का साहस नहीं है । यह एक तरह से हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य के लेखन का प्रेरक चरण था ।
यह स्मरण दिला दें कि एस पी गुप्त के लिए मैं मार्क्सवादी था, और मेरा यह परिचय मुझे रास आता था, क्योंकि यह मुझे उस जमात से अलग करता था जिसके अध्ययन, ज्ञान और विचारधारा से मुझको गंभीर आपत्तियां थीं। यदि मेरे मार्क्सवादी मित्र यांत्रिक मार्क्सवाद से मेरी असहमति और इतिहास व भाषा विषयक मेरे अध्ययनों के कारण कुछ स्मेरमुखी बने रहते तो यह भी मुझे रास आता और इसका भी विरोध नहीं करता। सोचने वाला अकेला और अरक्षणीय होता है, मानने वालों की लश्कर और जमात होती है, सभी किसी के लिए भी जीने मरने को तैयार ।
अध्ययन और ज्ञान के मामले में मुझे अपने मार्क्सवादी मित्रों पर पहले बहुत अधिक भरोसा था, क्योंकि अध्ययनशील लोगों के लिए दूसरे रास्ते इन्होंने अपनी प्रचारशक्ति के बल पर बन्द कर दिए थे। धीरे धीरे पता चला इसमें विचारधारा की आड़ में एक खास तरह के अज्ञान को श्लाघ्य माना जाता है और यह है अपने साहित्य, इतिहास, उसकी भाषा, यहां तक कि अपनी चालू भाषा के प्रति अज्ञान और अवज्ञा । इसकी मीमांसा में जाने पर पता चला कि इसके पीछे ज्ञान और सत्यान्वेषण के लिए अपेक्षित श्रम और साधना से बचने का और थोड़े से बहुत कुछ हासिल करने का आलसी और ऐयाश रवैया है।
फिर यह समझ में आया कि इस अज्ञान से बाहर पड़ने वाला जो सूचनाओं का भंडार है, जिसे अपनी पूंजी बना कर ये अपने अधिक ज्ञानी होने का भ्रम बनाने में सफल होते हैं, उसकी समझ की योग्यता ही नहीं है, इसलिए इनकी अपनी समझ बन ही नहीं पाई है । एक ओर ये लीगी सोच के शिकार हैं तो दूसरी ओर औपनिवेशिक स्थापनाओं को अन्तिम सत्य या उसके निकट मानते हैं । सबसे दुखद था यह बोध कि ये आसानी से बिक सकते हैं और अपने श्रद्धेय पूर्वजों का भी अपमान करते हुए पैसा कमाने के छोटे रास्ते निकाल सकते हैं ।
अब यहां पर आकर एक विचित्र धर्म संकट पैदा होता है । हम आत्मविक्रयी बहुज्ञों को जो जिसके अधिकारी विद्वान माने जाते हैं, उसे भी नहीं समझते, अधिक भरोसे का समझें या उन अल्पज्ञ, डंडाधारी संगठनों से निकले लोगों को जिनके पास समाज और देश के प्रति निष्ठा तो है, परन्तु जिनको बाहुबल पर अधिक और बुद्धिबल पर कम भरोसा है। जो जहां बाहुबल की सचमुच आवश्यकता होती है वहां उससे काम नहीं लेते, और बुद्धिबल के अभाव में अरक्षणीय बने रहते हैं ।
यदि कला की गहरी समझ रखने वाले फिल्मों के ऐसे अंशों को कतरने से बचाने के लिए रिश्वत लेते रहे हों, तो उनकी तुलना में कला की उतनी गहरी समझ न रखते हुए भी सामाजिक मर्यादा पर किसी तरह का समझौता करने से इन्कार करने वाला अधिक वांछनीय है या नहीं ?
जब हिन्दी के प्रचार और प्रसार में फिल्मों के योगदान का प्रसंग आता है तो हम झूम उठते हैं, परन्तु जब समाज में अपराध, अश्लीलता, उदंडता, बात बात पर उत्तेजित होने की मनोवृत्ति के प्रसार में अपराध जगत के पैसे पर पलने वाले और समाज का अपराधीकरण करने वाले फिल्म उद्योग की भूमिका की जिम्मेदारी आती है तो हम उस दुश्चक्र के शिकार हो जाते हैं जिसमें एक दावा करता है कि समाज में जो है उसे हम दिखाते हैं, और अनगिनत अपराधी यह स्वीकार करते हैं कि अमुक अपराध की प्रेरणा उन्हें अमुक फिल्म से मिली थी।
इससे मिलती जुलती स्थिति दूसरे संस्थानों में भी है। जिन्हें हम ज्ञानी मान बैठे हैं, वे चालाक तो हैं परन्तु अपने विषय के अधिकारी नहीं। जो समय विषय पर अधिकार करने पर लगाया जाता है उसमें वे राजनीति करते हैं, क्योंकि यह पता है कि योग्यता के अभाव में भी राजनीति से बहुत अधिक लाभ पाया जा सकता है।
हाल के दिनों में संघ ने भी अपनी बौद्धिक उदासीनता को कम करने और कम से कम इतिहास में कुछ रुचि दिखाई है जिसका नमूना इतिहास संकलन से जुड़ा कारोबार है, परन्तु एक तो इसमें कुछ पूर्वाग्रहों के अनुरूप सामग्री जुटाने पर बल अधिक है और दूसरी ओर उन स्रोतो पर अधिकार करने की लालसा का अभाव है जिनसे इतिहास की पुरानी शरारतों और चूकों को सुधारा जा सकता है ।
एक तरह से कहें तो मेरी रुचि और दिशा को बदलने में मेरे मित्र एस पी गुप्त की भूमिका निर्णायक थी, वहीं मुझे यह जान कर निराशा होती थी कि वैदिक साहित्य्ा में उनकी रुचि केवल इस तथ्य तक सीमित थी कि वैदिक साहित्य के निर्माता भारत के मूल निवासी थे, वे कहीं बाहर से नहीं आए थे। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य में भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ था, वह मात्र एक अध्याय है । उससे आगे उसकी समाजव्यवस्था, शिक्षा और साक्षरता, अर्थतन्त्र, विदेशव्यापार, कृषि के आरंभ और देवासुर संग्राम की महागाथा, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास और नगर सभ्यता का उदय तथा भाषा और संस्कृति के प्रसार के चरण और तन्त्र को ले कर बहुत कुछ है जो हमें अपनी सभ्यता के मूलाधार को समझने के लिए उपयोगी है, परन्तु इसमें न तो मेरे मित्र एस पी गुप्त की कोई रुचि थी, न ही किसी अन्य संघी की । आरंभ में दिल्ली, उज्जैन आदि अनेक स्थलों पर वैदिक सभ्यता पर संगाेष्ठियां आयोजित हुईं, मैं उनमें भाग लेने के बाद यह भी पाता रहा कि इनके पीछे संघ का हाथ है। यह संकीर्णता मेेरे लिए दुखद थी। आर्यो के आक्रमण के निषेध में जो सेमिनार आयोजित हुए उनमें मैंने भाग लेना बन्द कर दिया, क्योंकि इनके पीछे इतिहास की समझ से अधिक राजनीतिक खेल था कि हम यहां के ही निवासी है इसलिए हमारा इस पर अधिकार है, दूसरे आक्रमणकारी के रूप में आए हैं उनका कोई अधिकार नहीं ।
हमारे पुराने विधानों में कहीं ऐसा होगा जिसका अध्ययन नहीं कर पाया कि कितनी अवधि के बाद कोई भी व्यक्ति किसी भूभाग का अधिकारी माना जा सकता है क्योंकि इसका उल्लेख पंचतन्त्र की एक कहानी में आया है । प्रश्न देशी विदेशी का भेद करके अपने ही घर में अशान्ति भड़काने का नहीं है अपितु उस तन्त्र के विकास का है जिसमें सभी को अनुशासित और अपनी सीमा में रखा जा सके । गुप्ता जी और सीताराम गोयल से यहीं पर मेरा बुनियादी अन्तर था जिसके कारण हमारे संबन्ध लगाव और टकराव के बने रहे ।
अब हम अपने ही माध्यम से देखना चाहें तो हमारे वामपंथी मित्रों ने मेरी खोज को पहले दबाने की कोशिश की, फिर लोगों को बरगलाने की कोशिश करते रहे और जब इसके पहले खंड का नये कलेवर में प्रकाशन ‘दि वेदिक हड़प्पन्स’ के नाम से 1995 में हुआ और इसे अन्तराष्ट्रीय मंच पर भी महत्व मिला तो पश्चिमी विद्वानों ने केवल उतने अंश को उभारना पसन्द किया जिसकी जरूरत संघ को थी, अर्थात् आर्य आक्रमण के सिद्धान्त का निषेध । इससे पहले से जैरिज, शैफर आदि सात हजार साल ईसा पूर्व से भारतीय परंपरा की प्रवहमान धारा की चर्चा करते रहे हैं जिनका उपयोग मैंने किया भी था।
इतिहास के पीछे राजनीति का हाथ और इस राजनीति के पीछे इतिहास की आड़ में वर्तमान समाज पर अपनी धौस जमाने की आकांक्षा बहुत प्रबल रही है जो देशी विदेशी सभी लेखकों में पाई जाती है । जो भी हो, इसके बाद ही हमारे मार्क्सवादी इतिहासकारों की समझ में आया कि अब आर्यों के आक्रमण की बात करना और उनके पशुचारी होने की बात करना अपनी साख गंवाने जैसा है । पर आज भी प्रो. इर्फान हबीब को वैदिक आर्यो को आज के आइ एस की छवि में देखने से कोई रोक नहीं सकता, अपितु इसके बावजूद उनको मूर्धन्य इतिहासकार मानने वाले मिल जाएंगे।
जहालत के इन दो रूपों के सर्वनाशी बहुज्ञता की तुलना में किं कर्मं किं अकर्मेति की दुविधा में पड़े अल्पज्ञों में चुनाव करना हो तो मैं दूसरे का चुनाव करूंगा। इसे समझाया और सही राह पर लाया जा सकता है, उनको अपराधियों की श्रेणी में रखने का अधिकार मुझे नहीं है, परन्तु संगठित हो कर, योजनाबद्ध अपराध उन्होंने किया है यह दावा करने में मुझे संकोच नहीं है ।