Post – 2020-03-21

अंधा युग
सात

कम्युनिज्म की ओर अग्रसर हिंदुओं की हिंदू समाज को समस्त विकृतियों से मुक्त करके निष्कलुष और सर्वोत्कृष्ट बनाने की आकांक्षा सराहनीय थी। यह हिन्दू समाज के लिए क्षोभकर नहीं, उसकी प्रकृति के सर्वथा अनुकूल थी और इसलिए इसके आरंभिक प्रयोगों से किसी तरह की सुगबुगाहट तक न हुई, उल्टे हास्य और विनोद के रूप में इसका स्वागत किया गया। जहाँ दूसरे समुदायों में प्रचलित रीति, विश्वास और मान्यताओं की तनिक भी आलोचना होने पर तूफान मच जाता है, वहाँ हिन्दू समाज इनका स्वागत करता है, रूढ़िवादी लोग भी अपनी खीझ मिटाने के बाद समर्पण की मुद्रा में आ जाते हैं।

हाल के हिन्दुत्वद्रोही वातावरण में इस समाज के जिस पक्ष की अनदेखी की गई है, वह है आत्मालोचन और आत्मशोधन की इसकी पुरातन परंपरा जो वैदिक काल से भी बहुत पहले आरंभ हुई थी और आधुनिक समय तक चली आई है। समाज में भले सदा से ही कुछ रूढ़िवादी तत्व रहे हैं परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने प्रतिस्पर्धी को किसी विचार या आचार की श्रेष्ठता का कायल कर देता है तो शास्त्रार्थ में निरुत्तर होने वाला व्यक्ति उसके मत को स्वीकार करने को बाध्य होता रहा है। वह उसकी गुलामी तक करने को बाध्य हो जाता रहा है। आत्म परिष्कार की यह परंपरा मेरी जानकारी के अन्य देश में नहीं पाई जाती। यही कारण है कि विश्व के दूसरे समाजों में किन्हीं तर्कसंगत परिवर्तनों के लिए शस्त्रबल और लंबे समय तक चलने वाले रक्तपात का सहारा लेना पड़ता रहा है, वहाँ भारत में यह वैचारिक हस्तक्षेप से संभव होता रहा है।

प्रसंगवश याद दिला दें कि सशस्त्र आंदोलन के नायक चे गुआरा को, 1959 में फिदेल कास्त्रों ने 17 देशों से सीधे संपर्क का सुझाव दिया था, और इसी क्रम में वह 30 जून को भारत पहुँचे थे और कुछ समय तक भारत के राजकीय अतिथि बन कर रहे थे। इस प्रसंग में नेहरू से उन्हें जो समर्थन मिला और उनके विचारों से जिस सीमा तक प्रभावित हुए वह तो अलग है ही वह कोलकाता भी गए थे और उनकी मुलाकात कृष्ण नाम के किसी सज्जन से हुई थी जिनका उन पर जौ प्रभाव पड़ा उसे उन्होंने कास्त्रो को लिखे पत्र में निम्न रूप में दर्ज किया था।

“We had an opportunity of meeting a wise person called Krishna, who seemed like a person far above our world of today,” Che Guevara wrote in his report to his boss in Cuba.
“He (Krishna) with his simplicity and humility, a characteristic of his people, talked to us for quite some time, stressing the need for using the entire resources and technical capacity of the world for peaceful use of the nuclear energy. He strongly condemned the absurd politics of those who dedicate themselves to storing hydrogen bombs in their international discussions,” Che Guevara wrote about Krishna in his report.
एक महिला पत्रकार जिसने उनके नेहरू से हुए वार्तालाप की रपट तैयार की थी अहिंसावादी तरीके की प्रशंसा सुन कर उनसे प्रश्न किया, “आप तो सशस्त्र क्रांति के वाहक हैं फिर आप अहिंसावादी तरीके के कायल कैसे हो गए थे?”

चे गुआरा ने उत्तर में कहा था, “हमारे यहाँ गांधी और नेहरू नहीं हुए, हमारा काम शस्त्रबल के बिना नहीं चल सकता।”

कृष्ण की व्यक्ति रूप में पहचान जो भी हो, उनकी(with his simplicity and humility, a characteristic of his people) सही पहचान हिंदुत्व है, जिसमें बीसवीं शताब्दी के कम्युनिज्म प्रेरित ‘प्रगतिशीलों के बीभत्स उपहास के दौर में भी, seemed like a person far above our world of today.

परंतु सामान्यतः जिसे अहिंसा वादी परंपरा मान लिया जाता है यह उसकी ताकत नहीं है यह उस शास्त्रार्थ परंपरा की ताकत है जिसमें ही अहिंसा भी संभव थी। शास्त्र और शस्त्र दोनों का अर्थ एक है या कहें विचार स्वयं हथियार है और अपनी मान्यता को विरोधी विचारों और मान्यताओं से अधिक श्रेयस्कर सिद्ध करके दूसरे सभी लोगों को उनको मानने को बाध्य किया जा सकता है। अहिंसा का अपना तर्क है और उसे बदल कर शक्ति प्रयोग और अनिवार्य होने पर वध को सही ठहराया जा सकता है।
हम इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि आत्मालोचन के प्रति इस स्वागत भाव के कारण लंबे समय तक हिंदुओं की समझ में नहीं आया उनकी कुरीतियों की आलोचना नहीं की जा रही है, अपितु उन्हें किसी की तुलना में गर्हित सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है। उनकी आलोचना नहीं की जा रही, उनका उपहास किया जा रहा है और दिखावा यह किया जा रहा है कि सामाजिक परिष्कार करके इसे उज्ज्वल बनाया जा रहा है। गली कूचोें में घूम कर सोने के गहने चमकाने वाले ठग जिस तरह एसिड के घोल से सोना ही उड़ा लेते है उसी तरह यहाँ घिसते हुए मुलम्मा नहीं धातु ही साफ की जा रही है।

निष्कलुष बनाने यह कैसा अभियान कि जिन मूल्यों पर हिंदू समाज गर्व करता आया था उनको इस तरह खत्म किया जाय कि केवल कलुष ही बचा रह जाए, हिंदू समाज ही गायब हो जाए। हिन्दू शब्द, सनातन मानव मूल्य, सांस्कृतिक प्रतीक, पर्व, व्रत, मान्यताएँ, वेश, ध्वज, धज, हिंदुओं की भाषा, उस भाषा की लिपि तक, उसका रंग सब कुछ गर्हित और इतना गर्हित कि नाम लेते ही इनमें से किसी लक्षण के किसी व्यक्ति में नजर आते ही वह उपहास का पात्र हो जाता है और इसी अनुपात में अपनी विवेकहीनता के लिए, कट्टरता और नृशंसता के लिए कुख्यात समुदाय, और उसका गुंडा और अपराधी तक बिना किसी टिप्पणी के न केवल आदर्श बना दिया जाता है बल्कि वह हिंदुओं में अधिक उदार और धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति कौन है इसका प्रमाण पत्र भी देने लगता है।

यहीं पर दाल में कुछ काला दिखाई देता है और उस काले के स्रोत को समझने की चुनौती पैदा होती है।

Post – 2020-03-18

छह
हिंदुत्व के प्रति जिस तरह की वितृष्णा मिशनरी स्कूलों की शिक्षा ने पैदा की थी वैसी ही वितृष्णा मार्क्सवाद की ओर अग्रसर होने वाले और मार्क्स के कथन को आप्त मानने वाले सुशिक्षित हिंदुओं में पैदा हुई। यद्यपि भारत की वर्तमान दशा के विषय में मार्क्स सूचना के आधुनिक स्रोतों – समाचार पत्रों, संसद की बहसों, भारत से लौटने वाले अंग्रेजों के अपने विवरणों के सहारे स्वतंत्र निष्कर्ष निकालते थे, परंतु प्राचीन भारत के विषय में उन्हें जो भी जानकारी प्राप्त थी वह जेम्स मिल के माध्यम से प्राप्त थी, जिनके उपयोगितावादी विचारों के कारण मार्क्स के मन में उनका बहुत सम्मान तो था ही, उनकी पुस्तक को छोड़कर भारत का कोई दूसरा इतिहास भी नहीं था। जेम्स मिल के अपने विचार प्राचीन भारत के विषय में विलियम जोंस के विचारों की प्रतिक्रिया थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों की एकांगी टिप्पणियों को आधार बनाया था, क्योंकि भारत के विषय में जेम्स मिल स्वयं भी उतने ही नादान थे जितने मार्क्स।

मार्क्स की जानकारी में जो वृद्धि हुई वे भी उनके प्राच्य निरंकुशता, एशियाई उत्पादन पद्धति और सभ्यता का जनक यूरोप आदि बद्धमूल धारणाओं में समायोजित होते गए। ब्रिटिश कालीन भारत के विषय में उनका जेम्स मिल से और दूसरे उपनिवेशवादियों से तीखा विरोध है और उनकी पूरी सहानुभूति कंपनी के आर्थिक दोहन और उत्पीड़न के शिकार भारतीयों के प्रति है परंतु भारतीय समाज की अपनी विचित्रताओं और सामाजिक विकृतियों की ओर से उनका ध्यान हटता नहीं।

यदि हम जेम्स मिल के हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया की तुलना में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 25 जून 1853 अंक में प्रकाशित अपने लेख “दि ब्रिटिश रूल इन इंडिया” को रख कर देखें यह अंतर समझ में आ जाएगा। इसी अखबार में 1857 के भारतीय मुक्ति संग्राम पर लगातार प्रकाशित होने वाले उनके लेखों से यह पता चलता है कि भारतीय समाज से उनकी कितनी गहरी सहानुभूति थी। (पी..सी. जोशी का मेन स्ट्रीम 11 मई 1968, में प्रकाशित लेख जो इंटरनेट पर उपलब्ध है)। इसे स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा देने वाले मार्क्स थे:
On July 28, 1857, he quoted with approval Disraeli’s remark on the previous day: “the Indian disturbance is not a military mutiny, but a national revolt”. On July 31 1857, Marx asserted that what John Bull considers to be a military mutiny ‘is in truth a national revolt’.

इसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को नष्ट करने और भारत की लूट के विविध तरीकों का सबसे पहले आंकड़ों के साथ चित्र प्रस्तुत करने वाले मार्क्स थे ।

इसके बावजूद भारतीय समाज की सामाजिक अनर्गलताओं और कुरीतियों पर वह उतनी ही निर्ममता से प्रहार करते हैं। न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 25 जून 1853 अंक में प्रकाशित उनके जिस लेख की चर्चा हम ऊपर कर आए हैं, उसमें ही उनकी कुछ टिप्पणियाँ, जिन्हें उन्होंने अन्यत्र भी दुहराया है, इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य हैं:

एक ओर तो यह धर्म भोगपरायण और घोर कामुकता भरा धर्म है, तो दूसरी ओर आत्मपीड़क विरागभाव का धर्म; एक ओर लिंगोपासना का धर्म है तो दूसरी ओर जगन्नाथ का; एक ओर श्रमणों का धर्म है तो दूसरी ओर बद्रीनाथ (के शंकराचार्य) का।

That religion is at once a religion of sensualist exuberance, and a religion of self-torturing asceticism; a religion of the Lingam and of the juggernaut; the religion of the Monk, and of the Bayadere.

हम निम्न पैराग्राफ का अनुवाद कल करेंग। इस समय इसे मूल में ही प्रस्तुत करना चाहेंगे।
Now, sickening as it must be to human feeling to witness those myriads of industrious patriarchal and inoffensive social organizations disorganized and dissolved into their units, thrown into a sea of woes, and their individual members losing at the same time their ancient form of civilization, and their hereditary means of subsistence, we must not forget that these idyllic village-communities, inoffensive though they may appear, had always been the solid foundation of Oriental despotism, that they restrained the human mind within the smallest possible compass, making it the unresisting tool of superstition, enslaving it beneath traditional rules, depriving it of all grandeur and historical energies. We must not forget the barbarian egotism which, concentrating on some miserable patch of land, had quietly witnessed the ruin of empires, the perpetration of unspeakable cruelties, the massacre of the population of large towns, with no other consideration bestowed upon them than on natural events, itself the helpless prey of any aggressor who deigned to notice it at all. We must not forget that this undignified, stagnatory, and vegetative life, that this passive sort of existence evoked on the other part, in contradistinction, wild, aimless, unbounded forces of destruction and rendered murder itself a religious rite in Hindostan. We must not forget that these little communities were contaminated by distinctions of caste and by slavery, that they subjugated man to external circumstances instead of elevating man the sovereign of circumstances, that they transformed a self-developing social state into never changing natural destiny, and thus brought about a brutalizing worship of nature, exhibiting its degradation in the fact that man, the sovereign of nature, fell down on his knees in adoration of Kanuman (हनुमान), the monkey, and Sabbala (शबला), the cow.

इंगलैंड अपने लाभ के लिए यद्यपि गलत तरीके से भारत में सामाजिक क्रांति ला रहा है, परन्तु सवाल उसकी नीयत और तरीके का नहीं है, सवाल यह है कि क्या सामाजिक क्रांति के बिना एशिया का पुनरुद्धार संभव है? यदि नहीं तो यह भारी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
England, it is true, in causing a social revolution in Hindostan, was actuated only by the vilest interests, and was stupid in her manner of enforcing them. But that is not the question. The question is, can mankind fulfill its destiny without a fundamental revolution in the social state of Asia? If not, whatever may have been the crimes of England she was the unconscious tool of history in bringing about that revolution.

मार्क्स की इस समझ से हम असहमत हो सकते हैं, परंतु हमारे लिए महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि मार्क्स क्या देख रहे थे और उनकी आप्तता में विश्वास करने वालों की विचारदृष्टि किस रूप में इसे ग्रहण कर रही थी, परंतु मार्क्सवादी समझ का औपनिवेशिक रह जाना, औपनिवेशिक इतिहास लेखन को मामूली झाड़-फूंक के साथ जारी रखना, प्राचीन भारतीय इतिहास के नकारवादी पाठ, और सच कहें को वाम इतिहास लेखन के भौतिकवादी से हटकर भाववादी मार्ग अपना लेने के पीछे, उस समय तक मार्क्स की जितनी जानकारी सुलभ थी, उसकी निर्णायक भूमिका है।

Post – 2020-03-16

अंधायुग
पाँच
Those who can make you believe absurdities can make you commit atrocities. Voltaire

सच और झूठ, न्याय और अन्याय के बीच एक अन्य कसौटी है किसी विचार, कार्य दर्शन मैं असंगति और विसंगति का भाव या अभाव। असंगति से हमारा तात्पर्य अंतर्विरोध से है, और विसंगति अन्य स्थापनाओं से अनमेल पड़ने से।
एक चौंकाने वाली बात यह है कि जिन लोगों ने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का आरंभ किया था उनका लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक विषमता को समाप्त करना नहीं था, अपितु एक ऐसी परिस्थिति की तलाश थी जिसमें वे आम लोगों से ऊपर, अपनी विशिष्ट हैसियत को बचाए रह सकें। वे ऊँची हैसियत, ऊँची योग्यता और ऊँची आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग थे, या इकबाल के शब्दों में कहें तो तोल में वजनदार लोग थे जो जनसाधारण से अपने को अलग और ऊपर समझते थे, और इस हैसियत को बनाए रखने के लिए चिंतित थे। आमजन से, और विलायत में ही अपनी स्कूली से लेकर उच्च शिक्षा पाने वाले साँवले अंग्रेज बनने की आकांक्षा में अपनी जमान तक से कटे होने के कारण लोकतांत्रिक पद्धति में उनका भविष्य अंधकारमय था। वे छोटी हैसियत के उन लोगों द्वारा शासित होने की आशंका से लगभग बौखलाए हुए थे, जिनकी शिक्षा कामचलाऊ, और दिमाग पुरातनपंथी और आर्थिक हैसियत कुछ भी हो सकती थी। दूसरे शब्दों में कहें तो जिस चिंता से मुस्लिम रईसों ने सरकारी प्रोत्साहन से मुस्लिम लीग की स्थापना की थी, लगभग उसी चिंता से विलायती शिक्षा प्राप्त हिंदुओं ने कम्युनिस्ट पार्टी का छद्मावरण अपनाया था। मुस्लिम लीग से इस मनोवैज्ञानिक एकात्म्य को छोड़कर दूसरा कोई कारण दिखाई नहीं देता जिससे बात बात में मार्क्सवाद बघारने वाले कुमार मंगलम जिन्ना के लिए वैचारिक असला जुटाते और मुस्लिम लीग का खुला समर्थन करते।

प्रेरणा और कार्य योजना के इस बुनियादी अंतर्विरोध से, कम्युनिस्ट पार्टी कभी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई। ध्यान दें तो इसके उदाहरण कई रूपों में मिलेंगे, परंतु हम यहां केवल एक का उल्लेख करना चाहेंगे। आपातकाल के दौर का स्मरण करते हुए राज थापर सीपीएम के तत्कालीन महासचिव और अपने मन-वचन की एकरूपता के कारण हमारे लिए आदरणीय नंबूदरीपाद के विषय में जो कुछ लिखा है वह इस त्रासदी को अच्छी तरह बयान करता है:
EMS of the CPI(M) had also rung us once and come to the house during Emergency. He was then suffering from spondylitis and wearing a collar, his voice husky and deep; and he sat in the study asking, ‘What do you think we should do in this situation?’ It had sent me into delirium to hear the vanguard of the communists asking us middle class elite what their role should be when that is just what we wanted from him, alas. 435
इसके कारण दूसरी अनेक विकृतियां इसमें घर कर गईं जिनकी पड़ताल कभी की नहीं गई। यह अकारण नहीं है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में ब्राह्मणों की, विलायती शिक्षा प्राप्त जनों की और प्रगल्भ वक्ताओं (ओरेटरों) तथा आग उगलने वाली लफ्फाजी से असंभव को संभव बनाने वाले कवियों की जितनी पूछ रही है उतनी अन्य किसी दल में नहीं। इस मामले में भारतीय कम्युनिस्टों को केवल नाजी और फासिस्ट ही मात देते दिखाई देते हैं। यह याद दिलाना जरूरी लगता है कि गोएबल्स ऑरेटरी को इतना महत्त्व देता था कि उसने इसके लिए प्रशिक्षण शिविर स्थापित किए थे और जर्मनी में सबसे ऊंची तनख्वाह पाने वाले लोगों में एक थे विदग्ध वक्ता (ओरेटर)। कला रूपों का अपने प्रचार के लिए जितना उपयोग नाजियों ने किया, उसकी तुलना भी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके विविध रूपों से ही की जा सकती है। जब झूठ को सच और सच को झूठ बनाना हो तो इनका महत्व बढ़ जाता है।

परंतु हम जिस विकृति की विशेष रूप में चर्चा करना चाहते हैं, वह कम्युनिस्टों के हिंदुत्व से द्रोह का परिणाम नहीं है, अपितु हिंदू समाज को आनन-फानन में अत्याधुनिक बनाने और सभी विकृतियों से मुक्त करने के उत्साह का परिणाम है, जो विलायत पहुंचे हिंदुओं में अधिक गहन था । इसे एक तरह की क्षतिपूर्ति भी कहा जा सकता है। परंतु इससे जितनी क्षति पहुंची उसकी तुलना विध्वंस से ही की जा सकती है। इसी की परिणति सभी बुराइयों की जड़ हिंदुत्व में तलाशने के उत्साह में भी देखी जा सकती है, जिसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं और संक्षिप्त उल्लेख भ्रामक हो सकता है।

हम केवल हिंदुत्व के इस नए आत्मघाती रूप को ही समझने का प्रयत्न करें। इंग्लैंड में अपनी स्कूली शिक्षा से लेकर आगे तक की शिक्षा पाने वाले छात्रों को जिस धार्मिक पर्यावरण से गुजरना पड़ा था उसमें हिंदू बहुदेववाद के प्रति जिस तरह की वितृष्णा थी उसके दबाव से मार्क्स स्वयं नहीं बच सके थे भारतीय छात्रों की तो बात ही अलग। ठीक ऐसा ही दृष्टिकोण प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रति बना हुआ था। इस समाज और इतिहास के विषय में गहराई से समझे जाने बिना, इसको एक झटके में उन विकृतियों से मुक्त करने के नेक इरादे ने सांस्कृतिक मूल्यों की अवज्ञा और इतिहास की नकारात्मक समझ को प्रोत्साहित किया। इस्लाम और ईसाइयत के बीच एकेश्वरवाद और साझी पौराणिक विरासत के कारण वैसा नकारात्मक रवैया न धर्म को लेकर था न ही इतिहास को लेकर। मध्यकालीन इतिहास के विषय में उनकी धारणा जेम्स मिल के हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया पर आधारित थी जिसमें प्राचीन भारत की तुलना में मध्यकाल को श्रेयस्कर बताया गया था। इसलिए शिक्षा का वही पर्यावरण धार्मिक सांस्कृतिक और प्रशासनिक सभी दृष्टियों से मुस्लिम छात्रों के मनोबल को गिराता नहीं था।

Post – 2020-03-14

अंधायुग
चार

आप सच के साथ खड़े हैं और झूठ के विरुद्ध लड़ रहे हैं, या झूठ के साथ खड़े हैं, और सत्य को निर्मूूल करना चाहते हैं, यह तय करने का अगला निकष हमारी अपनी गलतियाँ और उनसे मिली सीख है। इनमें से एक की चर्चा हम इतनी बार, इतने रूपों में, करते आए है कि तकिया कलाम का रूप ले चुका है। यह है किन्हीं रहस्यमय कारणों से भारतीय कम्युनिस्टों की मार्क्सवाद की समझ का मुस्लिम लीग की समझ से अभेद हो जाना, जिसका परिणाम था देश का विभाजन। यह सिद्धांततः गलत था, पर अपने वाक्कौशल से गलत को सही सिद्ध करने वालों के प्रभाव के कारण पार्टी के भीतर से उठने वाले विरोध की अनसुनी कर दी गई।

आवेश और अति विश्वास में गलती सभी से होती है, कम्युनिस्ट पार्टी से भी हुई, और इसे उसने स्वीकार भी किया। परंतु इसके बाद भी मुस्लिम मुल्ला-परस्ती की लगातार इस सीमा तक जारी रही — मुल्लों और कम्युनिस्टों के सुर एक दूसरे से इतने मेल खाते रहे, धार्मिक मामलों में दोनों के मंच एक होते रहे कि मुस्लिम आतंकवाद तक का समर्थन करने में कभी संकोच नहीं किया। गलत चीज को गलत जानते हुए, मुक्त न हो पाना ड्रग एडिक्ट्स याद दिलाता है। विचारों का गलत घोल तैयार करके उन्हे खतरनाक नशीले द्रव्य में बदला जा सकता है और इसकी ऐसी लत डाली जा सकती है कि इसके दुष्परिणामों को झेलते हुए भी, यह स्वीकार करते हुए भी कि यह गलत है, आत्मघातक है, इसका सेवन करने से अपने रोका न जा सके।

प्रतिभा, पांडित्य, महत्वाकांक्षा का दुर्लभ योग आत्मविनाश की दिशा में इतनी तेजी से कैसे बढ़ जाता है कि आप अपने बचाव में विनाश के उस कारण की ही महिमा गाने लगते हैं । नशे के शिकार हो गए अपनी अपेक्षा से पीछे रह जाने वाली या बहुत तेजी से विनाश की कगार पर पहुंच जाने वाली प्रतिभाओं की कहानियां असंख्य हैं, परंतु मेरी आंखों के सामने अपने एक मित्र की याद ताजा हो जाती है।

उनसे मेरा परिचय उस समय हुआ था जब वह बर्बादी की कई मंजिलों से गुजरने के बाद अस्थि पंजर मात्र रह गए थे। पत्नी ने उन्हें कुटेव से मुक्त करने के लिए नेशनल ड्रग डिपेंडेंस सेंटर में भरती कराया। सुना कुछ समय के बाद उन्होंने अपना इलाज करने वाले डॉक्टरों को भी समझा दिया कि ड्रग का लेना उनके हित में है। अनुपात में क्या अंतर आया नहीं जानता, पर अपने सौम्य क्षणों में मुझ जैसे व्यक्ति पर अपने ज्ञान और प्रखरता की धाक जमाने में उन्हें अधिक आयास नहीं करना पड़ता था। (अधिकांश विषयों का मेरा ज्ञान इतना काम चलाऊ है कि यदि मुझसे बहुत कम उम्र का व्यक्ति किसी विषय पर अधिकार की बात करे तो मैं उससे बहस नहीं करता, उसे अधिकारी मानकर शिष्य भाव सुनता और सीखता हूँ। इसलिए जानकार लोगों से मेरी अच्छी निभती है, ज्ञान कितना बढ़ता है इसका हिसाब नहीं किया, वे उस विषय के कितने अधिकारी थे यह तो तय ही नहीं कर सकता।)

मेरे मित्र उम्र में काफी छोटे थे, पर अपने ज्ञान और सरोकार के कारण मेरे आदरणीय मित्रों में थे। वह पार्टी की स्टडी सर्कल से निकले कम्युनिस्ट थे, पर जिज्ञासा ने विचलित भी किया था। पी.सी.जोशी के संदर्भ में हम उन्हें याद कर चुके हैं; एम.एन. राय पर काम कर रहे थे जो अधूरा ही रह गया। पर अपनी प्रखर प्रतिभा और अध्यवसाय के होते हुए भी, कुटेव से निजी और पारिवारिक जीवन नष्ट करने के बाद भी उन्हें कभी अपनी लत को कोसते न पाया। जिस पत्नी ने उन्हें और परिवार को सँभालने में टूटन के कगार पर पहुँच कर घर में रहते हुए घर से अपने कोअलग कर लिया था, उससे उन्हें इतनी शिकायतें थीं जिनका अंत नहीं।

अपनी गलती को समझने, स्वीकार करने के बाद भी, उससे मुक्त न हो पाने और देश विभाजन से भी अधिक खतरनाक मोड़ पर कम्युनिस्ट पार्टियों को वही गलती, उतने ही उत्साह और विश्वास से, परिणाम से अवगत होते हुए भी दुहराते देख कर विचारधारा को विषाक्त करके उसकी लत का शिकार होने के अतिरिक्त कोई दूसरा औचित्य दिखाई नहीं देता।

गलती बार बार दुहराने से सही नहीं हो जाती। हर दशा में यह तो मानना ही होगा कि वामपंथ झूठ और अन्याय का समर्थन करता आया है और इस दशा में वही काम जिसे आप क्रान्तिकारी या युगान्तरकारी मानते आए हैं, इस कसौटी पर उपद्रवकारी और देशद्रोही कृत्य सिद्ध होता है।

Post – 2020-03-12

नयाअंधायुग
तीन

अन्धयुग इतिहास में बार बार आते रहे है। इनके रूप भिन्न-भिन्न रहे हैं, परंतु एक लक्षण समान रहा है और वह है बौद्धिक वर्ग का सभ्यताद्रोही और ध्वंसकारी शक्तियों के सामने निरुपाय हो जाना या स्वयं उनका सहयोगी बन जाना। प्रकारान्तर से कहें तो इसमें बुद्धिजीवियो की सक्रिय या निष्क्रिय भागीदारी रही है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दौर वे रहे हैं जिसमें आतताइयों का सहयोगी बनने वाले, सृजन, चिंतन और न्याय को बाधित करने वाले स्वयं को इनकी रक्षा के लिए संघर्ष करने वाला सिद्ध करते और सचमुच ऐसा मानते हों कि वे सत्य और न्याय की रक्षा के लिए आतताइयों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में क्या कोई ऐसा निकष हो सकता है जिससे यह तय करने में मदद मिले कि सत्य और न्याय का पक्ष कौन सा है? अर्थात् क्या वे लोग जो बिना किसी भय या प्रलोभन के, अपने सर्वोत्तम विवेक से सत्य और न्याय के लिए संघर्षरत हैं, वे किन्हीं सिद्धांतों या मानकों के आधार पर आत्मनिरीक्षण करते हुए अपने को आश्वस्त कर सकते हैं कि वे किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं, और यदि हैं तो वर्तमान स्थिति में उनका दायित्व क्या है?
इस मामले में झूठ के खिलाफ लड़ाई की जिन अपेक्षाओं का उल्लेख ब्रेख्त ने किया है उस पर दुबारा नजर डाली जा सकती है। “1. सच को कहने का साहस, 2. सच को पहचानने की क्षमता, 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल, 4. उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है, और 5. व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।” हम आज की अपनी स्थिति में सच को पहचानने की क्षमता को सबसे ऊपर रखना चाहेंगे। ब्रेख्त किसी संगठन, दल, या विचारदृष्टि से जुड़ने या किन्हीं मान्यताओं को स्वीकारने की बात नहीं करते हैं, इसे एक चिंतक के रूप में स्वयं पहचानने की क्षमता की बात करते हैं। यदि आप ने इस अपेक्षा की पूर्ति नहीं की है, किसी विचारधारा, दल या संगठन की मान्यताओं को ‘सही’ मान कर अपना लिया है तो आप उस दल की अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं, पूरी ईमानदारी से यह विश्वास कर सकते हैं कि आप सत्य और न्याय के लिए, अपने निजी हितों का बलिदान करते हुए, संघर्ष कर रहे हैं, क्योंंकि उस दल या संगठन का जन्म ही इस ‘महान’ उद्देश्य के लिए हुआ था, जब कि सचाई यह है कि उस संगठन या दल द्वारा आपका, आपकी सहमति से, उपयोग किया जा रहा है। जिसे आप प्रतिबद्धता कहते हैं, वह अपनी वैचारिक स्वतंत्रता त्यागने, अपना बुद्धि-विवेक खोने का पर्याय है। जो स्वयं एक फरेब का शिकार है, वह झूठ के खिलाफ खड़ा ही नहीं हो सकता। उसमें झूठ और सच में फर्क करने की क्षमता ही नहीं; वह झूठ के साथ है और इस सचाई से अवगत नहीं।
जॉर्ज ऑरवेल के शब्दों को कुछ बदल कर रखें तो “यू आर पार्ट ऐंड प्रोमोटर ऑफ ए यूनिवर्सल डीसीट ऐंड ए मिनेस टु दि रिवॉल्यूशनरी ऐक्ट आफ टेलिंग द ट्रुथ।” ऑरवेल के 1984 का पहला खंड मोटे, काले अक्षरों में छपे निम्न वाक्यों से समाप्त होता है:
WAR IS PEACE
FREEDOM IS SLAVERY
IGNOREANCE IS STRENGTH
परन्तु मैं स्वयं ऑरवेल की अदायगी का कायल होते हुए भी उसकी उक्तियों को इस सावधानी के साथ ही ग्रहण कर पाता हूँ कि शीतयुद्ध मुहावरे का जनक यह कलाकार भी जिस पक्ष को सत्य और न्याय का पक्ष मान कर उसके समर्थन में खड़ा था वह पक्ष स्वयं भी इन्हीं फिकरों का मुहताज है। इतिहास के विशेष चरणों और समाज की अपनी आंतरिक प्रतिस्पर्धा और उपलब्ध विकल्पों के संदर्भ में सच और झूठ की पहचान स्वयं करनी होती है और इसकी क्षमता बहुत कम लोंगों में होती है।
और इस पहचान के बाद भी सच को कहने का साहस और भी कम लोगों में होता है। यह साहस केवल बाहरी भय और प्रलोभन से मुक्ति की ही माँग नहीं करता, अपने राग-द्वेष से मुक्त होने की भी माँग करता है, उन आवेगों से मुक्त होने की भी माँग करता है जो हमारे विवेक को कुंठित करते हैं। सही, संतुलित भाषा की भी माँग करता है क्योंकि इसका सीधा संबंध आप की विश्वसनीयता से है जिसके खत्म हो जाने के बाद आप लिख और बोल कर, संचार के साधनों पर जिस सीमा तक अधिकार है, प्रचारित और प्रसारित हो कर भी अनसुना और अनदेखा रह जाते हैं और इसी के विपरीत अनुपात में उन मान्यताओं, विश्वासों और विचारों की स्वीकार्यता बढ़ जाती है जिनका आप विरोध करते हैं।

सबसे जरूरी है इस अतिविश्वास से बचना जिसके शिकार हमारे रचनाकार और पत्रकार रहे हैं, कि उनके पास सूचना का भंडार है, अपने कथ्य को प्रभावशाली और मार्मिक ढंग से पेश करने का शिल्प है, और वे इसके बल पर जिस भी चीज को जो भी सिद्ध करना चाहें सिद्ध कर और अपने पाठकों के मन में उतार सकते हैं। इसके साथ जुड़ा है जनसाधारण की मूढ़ता में अकथित विश्वास। विद्वान और अनाड़ी बुद्धि के मामले में समान होते है, अंतर विद्या और कौशल के मामले में होता है जो कुछ को उपलब्ध होता है, शेष इनसे वंचित रह जाते हैं। इसलिए उन्हें कुछ समय में ही यह पता चल जाता है कि उन्हें मूर्ख बनाया जा रहा है, और इस बोध के साथ आपके ज्ञान और कौशल का जादू टूटना आरंभ हो जाता है। नासमझी आपकी और दोष आप जनता को देते हैं कि एकाएक वह सांप्रदायिक हो गई है। अंध राष्ट्रवादी हो गई है। फासिज्म के खिलाफ आप की लड़ाई में आप का साथ नहीं दे रही है। वास्तविकता यह है कि वह इस जंग में उतर चुकी होती है और वह आपको इनका मूर्तरूप मान कर आप से लड़ रही होती है।

Post – 2020-03-10

नया अंधायुग
दो
आनंद स्वरूप वर्मा ने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय ‘आजादी और जवाबदेही’ मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में आई गिरावट के विविध रूपों रूपों और कारकों का निरूपण किया है जिनका दायरा इतना फैला हुआ है कि इन सभी को एकत्र समेटने पर समस्या सुलझने की जगह अधिक उलझ जाती है। परंतु एक लेखनजीवी पत्रकार पर पड़ने वाले दबाव (बौद्धिक दायित्व और आर्थिक स्वावलंबन) के चलते उन्होंने वदन्त-लेखन का जो तरीका अपनाया उसमें इस तरह की बारीकियों का ध्यान रख पाना संभव नहीं। जिस संकट से वह अपनी बात शुरू करते हैं वह यह कि “प्रिंट मीडिया अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों ने देश की जनता को एक खास ढंग की राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी संभाल ली है और इस प्रक्रिया में उसके लिए हर व्यक्ति या संगठन देश का दुश्मन है जो सांप्रदायिक अंधराष्ट्रवाद, असहिष्णुता और राजनेताओं की गुंडागर्दी का प्रतिरोध करता है, जो अन्याय का विरोधी है और जो तर्कशीलता में यकीन करता है।” आगे बढ़ते ही यह हिंदुत्ववादी संकट का रूप ले लेता है जिसमें मुझे स्वयं भी उन लोगों के साथ खड़ा पाया जा सकता है जिनकी ऊपर भर्त्सना की गई है।

लेख के अंत में बर्टोल्ट ब्रेख्त द्वारा सुझाए गए झूठ के खिलाफ लड़ाई लड़ने के कुछ तरीकों का उल्लेख किया गया है “उनका कहना था पांच बातों को ध्यान में रखना चाहिए- 1. सच को कहने का साहस, 2. सच को पहचानने की क्षमता, 3. सच को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का कौशल, 4. उन लोगों की पहचान करना जिनके हाथ में सच का यह हथियार कारगर हो सकता है, और 5. व्यापक जनसमुदाय के बीच सच को फैलाने का हुनर।” इसी क्रम में कुछ आगे बढ़कर जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन को उद्धृत करते हैं “इन ए टाइम ऑफ यूनिवर्सल डीसीट टेलिंग द ट्रुथ इज ए रिवॉल्यूशनरी ऐक्ट।”

हमारी सहमति इन सिद्धांतों तक ही सीमित है- इससे आगे बढ़ने पर समझ के रूप और लेखकीय कार्यभार सभी को लेकर अंतर इतना बढ़ जाता है कि यदि उनकी नजर में लगे कि मैं प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ हूँ तो इस समझ से असहमति रखते हुए मैं उनको ऐसी राय बनाने के लिए दोष नहीं दे सकता। ठीक इसी तरह यदि मुझे लगे कि जिसे वह एक लेखक और विचारक का कार्यभार मानते हैं उसकी अपेक्षाएं क्या है इसकी समझ ही धुँधली है, जो उन्हें सत्य का पक्ष प्रतीत होता है उसकी बुनियाद ही झूठ और फरेब पर रखी गई है तो इसे समझने में उन्हें कठिनाई ही नहीं होगी, यह आरोप इतना अनर्गल प्रतीत होगा कि वह यह समझने तक के लिए तैयार नहीं होंगे कि इस मान्यता का आधार क्या है।

संकल्प एक है, उसके लिए समर्पण भाव भी एक है, और सच्चाई क्या है इसकी समझ इतनी अलग है कि सत्य के दोनों अनुसंधाता एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हो सकते हैं और वस्तुतः खड़े हैं।

यहां हम एक नई समस्या के सामने उपस्थित होते हैं। जिनको हम बौद्धिक मानते हैं वे सचमुच बौद्धिक हैं भी या नहीं। वे स्वयं सोचते हैं या किन्हीं ऐसे दावों को सुविधाजनक या प्रथम दृष्टि में सही समझ कर अपना लिया है, जो पड़ताल के बाद गलत सिद्ध हो सकते हैं। फिर इतिहास जो मानविकी की प्रयोगशाला है उसने उन्हें क्या सिद्ध किया है। जो लोग अपने को धर्मनिरपेक्ष मानते हैं वे धर्मनिरपेक्ष हैं या सांप्रदायिकता को दूर करने के बहाने उसका विस्तार कर रहे हैं?

Post – 2020-03-09

नया अंधकारयुग

हम एक खतरनाक युग में जीवित हैं। इसमें प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण करने वाले विज्ञान का उपयोग उन महान संभावनाओं के विपरीत करते हुए विज्ञान को ही उन परिणतियों के लिए अपराधी सिद्ध कर सकते हैं जैसे आगजनी करने वाले आगजनी के लिए आग के आविष्कार को दोषी सिद्ध करने लगें। आज सूचना और संचार के ऐसे पैने और छद्म साधनों का विकास हो चुका है जिसमें हम किसी व्यक्ति के इरादों, विचारों, और योजनाओं के बारे में इस सूचना तंत्र का आविष्कार, संचालन और नियंत्रण करने वाले, या इसकी गहरी समझ रखने वाले जान सकते हैं जिनमें से कुछ को हम स्वयं नहीं जानते या उतनी अच्छी तरह नहीं जानते और जो इनका प्रयोग उन व्यक्तियों के विरुद्ध कर सकते हैं।

हम इस तंत्र पर इसकी इस सीमा तक निर्भर कर चुके हैं कि यह जानते हुए भी कि इसका दुरुपयोग हमारे विरुद्ध किया जा सकता है हम इस पर अपनी निर्भरता को कम नहीं कर पाते, क्योंकि कम करने का अर्थ है पिछड़ जाना, व्यर्थ हो जाना। हम सब कुछ जानते हैं, परन्तु सूचना और संचार के स्रोताें पर नियंत्रण करने वालों की जरूरत के अनुसार पहले से ही रँगे और बदले जा चुके रूप में जानते और उसे ही सब कुछ मान बैठते हैं, जिनकी नीयत पर भरोसा नहीं किया जा सकता और जिनकी जरूरतें हमारी जरूरत के विपरीत हो सकती हैं, इसलिए उनके माध्यम से मिली जानकारी विषाक्त हो सकती है।

इनके अपने हितों और जरूरतों की प्रतिस्पर्धा के अनुसार विषाक्तता के विविध रूप हो सकते हैं जिनके बीच हमें किसी एक या किन्हीं को कम विषाक्त मान कर उनके माध्यम से जिन प्रतीतियों या सत्याभासों तक पहुँच सकते हैं और अपनी विवशता में उसे या उन्हें ही कम विषाक्त मान कर भिन्न दृष्टि या राय रखने वालों को गलत मान सकते हैं या इस भ्रामकता को समझते हुए इनके पीछे की सचाइयों को उजागर करते हुए स्वयं इनसे उबरने और दूसरों को भी इससे बाहर निकलने में सहायक हो सकते हैं। यही वह स्थिति है जिसमें बुद्धिजीवी की भूमिका की सही पहचान हो सकती है।

इस चर्चा को हम आनंद स्वरूप वर्मा की पुस्तक पत्रकारिता का अंधायुग में प्रकाशित तथ्यों से आरंभ करना चाहेंगे जिसकी कतिपय सीमाओं का बोध वर्मा जी को भी होगा, परंतु इसकी सार्थकता यह है कि भले इसमें हमारी आज की विभीषिका और इसकी उग्रता के सम्मुख हमारी सापेक्ष्य निरुपायता का चित्र स्पष्ट हो सके या नहीं, इसके इतिहास को तलाशने का प्रयत्न किया गया है। इसे हम कल के लिए स्थगित रखना चाहेंगे।

Post – 2020-03-06

सोलह
(जारी)

हमने यहूदी विरोध की जिस विस्तृत सर्वे रपट का हवाला दिया है उसके केवल एक पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करना चाहूँगा। भारतीय चिंतन, और उसमें भी विशेषतः हिंदी क्षेत्र का चिंतन, इतना सतही हो चुका है, इसमें किसी समस्या को गहराई में समझने की आकांक्षा तक का अभाव दिखाई देता है और इसकी क्षतिपूर्ति, पक्षधरता की आड़ में, अपने पूर्वाग्रहों पर डटे रहने का खेल बन चुका है।

यदि किन्हीं भी परिघटनाओं की बारीकी से जांच नहीं की गई, समय रहते उनका उपचार नहीं किया गया, तो बहस में आप जीत सकते हैं, परंतु आपकी जीत आप का सर्वनाश भी कर सकती है। हमारी सामाजिक विसंगतियां पहले ही जटिल थीं। सुनने में महामानव-समुद्र, अच्छा लगता है, परंतु यह जिस डरावने यथार्थ की ओर इंगित करता है उसके प्रति असावधानी अपने विनाश को आमंत्रित करने जैसा है। पहले की जटिल समस्याएं हमारी लापरवाही के कारण अधिक जटिल होती गईं, आज व्याधि का रूप ले चुकी हैं, और विनाशकारी होती जा रही हैं।

यह हमारे अस्तित्व और हमारे भविष्य की समस्या है जिसके परिणाम सभी को भुगतने होंगे। किसी अन्य धर्म-समुदाय या धर्मेतर समुदाय से, वह जो कुछ मानता है, उसे लेकर मुझे कोई शिकायत नहीं है।

हमने जिस सर्वेक्षण की बात की है उसमें हेलेन फीन की निम्न पंक्तियों को मैं मूल में प्रस्तुत करना चाहता हूं:
Reports on antisemitism uses the definition of Helen Fein according to which antisemitism is “a persisting latent structure of hostile beliefs towards Jews as a collectivity manifested in individuals as attitudes, and in culture as myth, ideology, folklore and imagery, and in actions – social or legal discrimination, political mobilisation against the Jews, and collective or state violence – which results in and/or is designed to distance, displace, or destroy Jews as Jews.”(464).

जिस तथ्य की ओर मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, वह यह है स्वतंत्र भारत में या कहें प्रेमचंद्र के बाद के हिंदी साहित्य में जहां भी गुंजाइश रही है, कविता, कहानी, रंगमंच, सिनेमा, विचार-विमर्श, समाचारकथा और टिप्पणियों में, आपसी व्यंग्य विनोद और तंज में हिंदू-मुस्लिम समस्या को खींचतान कर लाया जाता रहा है और बड़ी ‘सदाशयता’ से हिंदू को अपराधी सिद्ध करने का ही प्रयत्न नहीं किया जाता रहा है, अपितु एक गुंडे खान भाई (मुसलमान का इस भूमिका में नाम नहीं रह जाता खान भाई बन कर सांप्रदायिक प्रतिनिधि बन जाता है) हिंदू की उपेक्षा और अविश्वास के बाद भी उसका अनन्य हितैषी, उसकी आबरू का एकमात्र रक्षक बना रहता है और उसके उपकारों के नीचे दबा हिंदू इसके बाद भी उसके प्रति असहिष्णु बना रहता है। (फिल्मों का नाम याद नहीं पर प्राण और नाना पाटेकर की भूमिकाएं या’द आ रही हैंं)।

मैं यह बताना चाहता हूं यह हमारी वस्तुदृष्टि है जो उस कट्टर इस्लामी वस्तुदृष्टि का आभ्यन्तरीकरण है जिसका इजहार करते हुए मोहम्मद अली ने खिलाफत में गांधी का उपयोग करने के बाद कांग्रेस के मंच से कहा था, ‘गिरा से गिरा हुआ मुसलमान गांधी से अच्छा होता है। यह उनकी कृतघ्नता नहीं थी, यह वही इस्लामी सच था जिसके चलते मुहम्मद साहब के पितृतुल्य चचा अबूतालिब को मुसलमान न होने के चलते दोजख की आग में जलना ही था। यह कट्टर मुसलमानों (यद्यपि लिबरल कब तक लिबरल रहता है और कहाँ से कट्टरता हावी हो जाती है यह तय करना आसान नहीं होता), की धारणा हो तो हैरानी की बात नहीं है। इसे उदारचेता हिंदू सेकुलर समाज इतने सहज भाव से अपनी अंतश्चेतना, विचारदृष्टि और कलादृष्टि का अंग बनाकर काल्पनिक ‘यथार्थ’ को वास्तविक यथार्थ पर आरोपित करके ‘यथार्थवादी’ साहित्य रचता रहा और आशा करता रहा कि समाज उसके यथार्थवाद को स्वीकार कर लेगा। उसके सुझाए आदर्श के अनुसार अपने को बदल लेगा।

यह उसकी बौद्धिक पराकाष्ठा का सूचक है। हिंदी लेखन में ही यह इतना स्वीकार्य रहा, यह अलग विचार का विषय है।

हिंदी का पाठक साहित्यविमुख नहीं हुआ, हिंदी के तथामन्य सेकुलर साहित्यकारों और पत्रकारों ने इसे साहित्यविमुख होने को बाध्य कर दिया। हिन्दी प्रदेश के वैचारिक खोखलेपन की, इसे काउबेल्ट बनाने की जिम्मेदारी इन्हीं बुद्धिविक्रयी जनों की है जो इसे काउबेल्ट कहने में भी सबसे आगे रहते हैं।

Post – 2020-03-04

सोलह
(अधूरा)

समय के सामने मनुष्य का, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, इतना भी महत्व नहीं होता जितना किसी बच्चे के हाथ में आए खिलौने का। इस तथ्य का तोल्स्तोय ने युद्ध और शांति में जितनी मार्मिकता से प्रस्तुत किया है उसे सही सही रेखांकित करना भी हमसे संभव नहीं। उसके बाद इस पर बहस की गुंजाइश नहीं रह जाती। व्यक्तियों का उल्लेख इसलिए करना होता है कि किसी युग की प्रवृत्तियां कुछ व्यक्तियों में अधिक प्रखरता से व्यक्त होती हैं, पर यह भी संभव है कि वे उसमें नितांत एकांगी या विकृत रूप में व्यक्त हों, और इतर पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाली किसी संस्था के अभाव में हम उसे ही उसका समग्र समझ लें।

हम समझना चाहते हैं हिंदू (समाज) और हिंदुत्व (सांस्कृतिक प्रतीकों और मूल्यों) के प्रति नफरत की ऐसी भावना कैसे पैदा हो गई जो ईसाई जगत में व्याप्त यहूदीद्रोह से भी आगे बढ़ कर, हिंदू समाज को उनकी अपेक्षा अधिक संकटग्रस्त सिद्ध करती है। यहूदीद्रोह की भावना को इसकी तार्किक परिणति पर नाजियों ने पहुंचाया हो, परंतु यह भावना एक मिथ्या दुष्प्रार के कारण पूरे ईसाई जगत में व्याप्त थी जो हिटलर के महासंहार में घनीभूत हो गई। हिटलर को बदनाम करने वाले उसके बाद उस पुरानी मनोबद्धता से मुक्त हो सके होते तो हम यह मान सकते थे कि मनुष्य का विवेक उसके पूर्वाग्रहों पर भारी पड़ता है। परंतु हाल (2002-2003)[1] के अध्ययनों में पाया गया कि आज भी पूरे यूरोप में यहूदी विरोध जटिल रूप में विद्यमान है जो बातचीत में फिकरों, लेखों, टिप्पणियों और कलात्मक विधाओं में प्रकट होता रहता है।

जब हम हिन्दू समाज और हिंदुत्व को संकटग्रस्त कहते हैं ताे इसलिए कि आज की दुनिया में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार जाे दूसरे समुदाय हैं – यहूदी, यजीदी, कुर्द, अहमदिया, एक-दूसरे के लिए सुन्नी-शिया – इनमें कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जिसका एक भी सदस्य ऐसा हो जो अपने ही समुदाय की मान्यताओं के विरोध में खड़ा दिखाई दे। ऐसे नमूने केवल हिंदू समाज में देखने को मिलते हैं। ऐसे सुपठित लोगों की संख्या काफी बड़ी है जो अपने को हिंदू माता पिता की संतान होने और खान-पान व्यवहार की सीमा तक हिंदू, अपनी धर्म दृष्टि में सेकुलर, विचार-दृष्टि में वामपंथी मानते हैं, परंतु जुमलों का कमाल यह है कि हिन्दू न रह जाने के बाद भी हिंदू मूल्याें – उतारता, समावेशिता, विविधताओं के सह अस्तित्व की परंपरागत भारतीय विशेषताओं की रक्षा की चिंता भी सबसे अधिक इन्हें ही है। वे मानते हैं कि इस महान मूल्य प्रणाली को सबसे अधिक खतरा हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर उभरने वाले इन हिंदू संगठनों से है। यदि इनकी चले तो ये भारत को पाकिस्तान बना कर रख देंगे। भारत नाम को भारत पर व्यवहारतः पाकिस्तान हो जाएगा।

बुद्धि की कमी के कारण एक ही नतीजे पर ले जाने वाले मुहावरों को इतने हुमच-हुमच कर बोलने वाले इतने सारे लोग को लगातार सुनते रहने से ऐसी आजिजी पैदा होती है कि सोचता हूँ उनकी बात मान ही लूँ कि तभी देखता हूँ जहाँ भी भारत और पाक के बीच चुनाव अपरिहार्य हो जाता है, वे पाक के साथ खड़े हो जाते हैं और मैं फिर उसी अनिश्चय में पहुँच जाता हूँ जहाँ से मेरी जिज्ञासा आरंभ हुई थी।

पिछले सात सालों से शिकायत का एक नया स्वर मुस्लिम समाज के सबसे प्रबुद्ध तबके – कलाकार, न्यायविद, उच्च पदों पर भारत का पूरी याेग्यता से प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकारी – सभी को जो पहले पूरी तरह सुरक्षित अनुभव करते आ रहे थे और अधिकाधिक सुरक्षित होते जा रहे थे, उभर कर सामने आने लगा। वे बिना किसी ठोस कारण या असुविधा के बैठे-ठाले असुरक्षित ही अनुभव नहीं करने लगे, अपितु इसका खुला इजहार करने लगे। वह अंतर क्या था। नजर तंग है, दूर तक जा नहीं पाती। जहाँ तक जाती है उसमें जो कुछ दिखाई देता है वह यह कि इससे पहले यह घोषित करने की नौबत आ गई थी कि इस देश की परिसंपत्तियों पर अल्पमत का अधिकार है। संभवतः यह उनकी सुरक्षा की गारंटी थी। बदलाव यह आया कि सबका सबकुछ है। सबका साथ सबका विकास। असुरक्षित क्या वे हैं जो दूसरों के विकास को अपने विकास में बाधक मानते हैं?
[1] Manifestations of Antisemitism in the EU 2002 – 2003 Based on information by the National Focal Points of the RAXEN Information Network, (Robert Purkiss Beate Winkler (Chair of the EUMC Management Board) (Director EUMC)

Post – 2020-03-03

मैं चाहता हूँ अनावश्यक हस्तक्षेप या टिप्पणियाँ न करें। यदि कोई त्रुटि दिखाई दे तो अवश्य इंगित करें। फिर भी संवाद करना जरूरी लगे तो गरिमा का ध्यान रखते मर्यादित भाषा नें संक्षिप्त टिप्पणी करें। मतभेद को नीयत से जोड़ना स्वयं अपने गिरे होने का इजहार है। पता लगाना चाहिए कि सच क्या है। संजय को अनुशासनहीनता के कारण दून स्कूल से निकाल दिया गया था इसलिए आगे पढ़ाई न चली। इसके बाद कार की यांत्रिकी सीखने गए। मुझे भी यह तलाश कर पता चला-। छोटी कार उस समय चर्चा में थी जिसे बनाने की अनुमति नहीं दी जा रही थी, इसी को लेकर लोहिया का तंज था। कयासबाजी से बचते हुए तमीज से अपना पक्ष रखा करें। जो व्यक्ति स्रोत भाषा और साहित्य से परिचित नहीं वह कोई नई खोज नहीं कर सकता। नेहरू ने किताबों के माध्यम से भारत के विषय में जाना और गुटनिपेक्ष जगत का नायक – नए युग का अशोक प्रियदर्शी – बनने के चक्कर में सामरिक तैयारी की उपेक्षा करके अपनी हवाबाजी का फल पाया।